आर्थिक विकास का संस्थापित सिद्धांत (Established Theory of Economic Development)

आर्थिक विकास का संस्थापित सिद्धांत (Established Theory of Economic Development)

आर्थिक विकास का संस्थापित सिद्धांत (Established Theory of Economic Development)

प्रश्न :- एडम स्मिथ, रिकार्डो और माल्थस द्वारा दिए गए आर्थिक विकास के संस्थापित सिद्धांत की आलोचनात्मक व्याख्या करे?

उत्तर:- एडम स्मिथ विकास प्रक्रिया को अधिक अच्छी प्रकार समझने की दिशा में बहुत कम योगदान देते हैं। वे केवल 'अदृश्य हाथ' तथा प्रतियोगितात्मक बाजार का विचार प्रस्तुत करते है। उनके अनुसार, प्रकृति के द्वारा प्रदान की गई न्यायपूर्ण वैद्यानिक व्यवस्था आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिए सबसे अच्छी व्यवस्था है।

विकास की प्रक्रिया एक बार आरम्भ हो जाने पर संचयी होने की प्रवृत्ति रखती है क्योंकि बाजार की उपयुक्त सम्भावनाएँ तथा पूँजी संचय का आधार होने की दशा में श्रम विभाजन होता है जो उत्पादकता और लोगों की आय के स्तर को ऊँचा उठाता है। बढ़ी हुई आय से अधिक बचत करना सम्भव होता है जिससे अधिक पूँजी का सचंय और विकास होता है। स्मिथ बाहरी बचतों के महत्त्व को भी स्वीकार करते है। बाहरी बचत का विचार उस परिस्थिति को बतलाता है जिसमे व्यक्तिगत फर्मों के लागत वक्र, उनके वातावरण का ऐतिहासिक विकास हो जाने के कारण नीचे की और हट जाते है।

आर्थिक अवरोध का विचार :- स्थिर अवस्था का संस्थापित विचार प्रमुख रूप से एक प्रौढ़ अर्थव्यवस्था का विचार है। स्मिथ के अनुसार, 'एक स्थिर अवस्था 'वह अवस्था हो सकती है जिसमें धन बहुत अधिक होगा किंतु फिर भी उसमे रोजगार की निरन्तर कमी रहेगी। स्थिर अवस्था लाभ के गिरने की प्रवृत्ति तथा पूँजी संचय क्रिया में रुकावट पैदा हो जाने का परिणाम होती है। अन्त में स्थिर अवस्था का परिणाम जनसंख्या को स्थिर कर देने का होगा किंतु जनसंख्या के अधिकतम बिन्दु पर पहुँचने से काफी पहले ही पूंजी संचय रुक सकता है। जैसे-जैसे पूँजीवादी अर्थव्यवस्था प्रगति करती है, पूँजी के स्टॉक में होने वाली वृद्धि, जो मजदूरी को बढ़ाती है, लाभ को गिराने की प्रवृत्ति रखेगी। आरम्भ में पूँजी का स्टाक कम होता है और इसलिए लाभ की दर ऊँची होती है, मजदूरी की दरे भी ऊँची रहती है। किंतु जैसे-जैसे अधिक मात्रा में पूँजी का संचय किया जाने लगता है, लाभ की दर गिरने लगती है। लाभ के गिरने की यह प्रवृत्ति ही अर्थव्यवस्था को स्थिर अवस्था मे ले जाती है। जब तक पूँजी संचय की दर को कायम रखा जाता है मजदूरी की दरे ऊँची रहने की प्रवृत्ति रखेंगी। जब जनसंख्या बढ़ती है और पूंजी की मात्रा बहुत अधिक हो जाती है तो अर्थव्यवस्था अधिकतम उत्पादन स्तर प्राप्त कर लेती है। जब अर्थव्यवस्था इस परिपक्व अवस्था पर पहुंच जाती है तो पूंजी संचय की दर धीमी पड़ जाती है और मजदूरी गिरने लगती है और एक स्थिर अवस्था पहुंच जाती है। इस बिन्दु पर पूँजी संचय की क्रिया रुक जाती है और इसलिए विकास भी रुक जाता है। एडम स्मिथ विकास की अवस्थाओं का विचार भी देते हैं। उनके अनु‌सार, एक अर्थव्यवस्था स्थिर अवस्था की ओर प्राकृतिक क्रम के अनुसार बढ़ती है जो इस प्रकार है -

कृषि → उद्योग धन्धे → व्यापार

विकास के सम्बन्ध में रिकार्डो के विचार :- रिकार्डो कृषि को अर्थव्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र मानते है। उनके अनुसार, बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए भोजन की व्यवस्था करने की कठनाई प्रमुख समस्या है। वे कृषि उत्पादकता बढ़ाने में तकनीकी के महत्त्व को पूरी तरह से नहीं समझ सके है। उनके अनुसार, अर्थव्यवस्था में तीन महत्त्वपूर्ण वर्ग - पूंजीपति, श्रमिक और भूमिपति है। पूंजीपति लाभ के पुनः विनियोग के द्वारा पूँजी निर्माण को बढ़ाकर समाज में आर्थिक विकास की प्रक्रिया को आरम्भ करता है। पूँजी संचय एक चिंगारी का कार्य करती है जिससे समाज में बहुत सी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न होती है जिनके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है।

रिकार्डो के विकास सम्बन्धी विचारों को समझने के लिए हमें 'कुल आगम' और 'शुद्ध आगम' में भेद को समझ लेना चाहिए। कुल आगम समाज में किसी निश्चित काल में उत्पन्न की जाने वाली अन्तिम वस्तुओं का बाजार मूल्य होता है। शुद्ध आगम वह है जो कुल आगम में से श्रम और पूँजी को कायम रखने के लिए आवश्यक वस्तु‌ओं के मूल्य को निकाल कर बचता है। शुद्ध आगम वह अतिरेक है जो उत्पादन में और अधिक वृद्धि करने के लिए उपलब्ध होता है। यह पूँजी निर्माण का एक‌मात्र साधन है और इसके बिना विकास असम्भव है। संस्थापित (प्रतिष्ठित) अर्थशास्त्रियों के अनुसार श्रम एक अतिरेक उत्पन्न करता है इसलिए प्रगति सम्भव है। किंतु विकास तब ही सम्भव होता है, जबकि इस अतिरेक का प्रयोग और अधिक पूँजी निर्माण के लिए किया जाता है। इसीलिए पूंजीपति वर्ग आर्थिक विकास के लिए इतना महत्त्वपूर्ण है।

उत्पत्ति के साधनों के हिस्से :- रिकार्डो आर्थिक विकास की प्रक्रिया में लगान, मजदूरी और लाभ के व्यवहार का एक सामान्य सिद्धांत प्रस्तुत करते है। जनसंख्या और पूँजी की मात्रा में वृद्धि होने से कृषि उपज के रूप में लगान की निरपेक्ष मात्रा बढ़ती है। कृषि वस्तुओ की अतिरिक्त इकाइयों को पैदा करने के लिए अधिक मात्रा में श्रम की आवश्यकता होती है जबकि अतिरिक्त औद्योगिक सामान पैदा करने के लिए उतनी ही मात्रा में श्रम की आवश्यकता होती है इसलिए कृषि वस्तुओं की कीमत निर्मित वस्तुओं के रूप में बढ़ जाती है। रिकार्डो के अनुसार, विभिन्न उत्पत्ति के साधनों के बीच उपज का बंटवारा करने में मजदूरी महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। लाभ ऊँची या नीची मजदूरी के अतिरिक्त और किसी बात पर निर्भर नहीं होता है। मजदूरी श्रमिको के जीवन यापन से निर्धारित होती है। क्योंकि अनाज की उपज में उत्पत्ति ह्मस नियम लागू होता है और क्योंकि अनाज श्रमिको के बजट का एक महत्त्वपूर्ण भाग होता है इसलिए मजदूरी की रे बढ़नी चाहिए। अतः जनसंख्या वृद्धि और पूँजी संचय होने के कारण लाभ की दर की प्रवृत्ति गिरने की होती है और अंत में वह एक विकासशील समाज मे लाभ की दर शून्य होने की प्रवृत्ति रखती है।

अवरोध :- पूँजी संचय तब तक निरन्तर होता रहता है जब तक कि लाभ की दर न्यूनतम स्तर से ऊपर होती है। भोजन श्रमिकों के बजट का सबसे महत्वपूर्ण भाग होता है इसलिए जीवन निर्वाह की अधिक लागत मौद्रिक मजदूरी को बढ़ा देती है। मजदूरी बढ़ जाने के कारण कृषि व उद्योग दोनों में ही लाभ कम हो जाता है। लाभ की नीची दर पूँजी निर्माण की दर को कम करती है जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आय की विकास दर भी गिर जाती है। अन्त में जब लाभ की दर इतनी कम हो जाती है कि वह अतिरिक्त पूंजी संचय में निहित कष्ट व जोखिम के लिए पर्याप्त प्रतिफल नहीं दे पाती है तो अर्थव्यवस्था स्थिर अवस्था में फंस जाती है। पूंजी संचय और जनसंख्या वृद्धि रुक जाती है तथा और अधिक प्रगति सम्भव नहीं होती है। इस प्रकार रिकार्डो के अनुसार प्रकृति की कंजूसी के कारण विकास प्रक्रिया समाज के विभिन्न आर्थिक वर्गों के सापेक्षिक हिस्सो को इस प्रकार बदल देती है कि पूँजी संचय का स्त्रोत ही गिरने लगता है और मामूली स्तर पर पहुंच जाता है तथा प्रगति रुक जाती है।

आर्थिक विकास की प्रक्रिया के विश्लेषण के सम्बंध में रिकार्डों के प्रमुख योगदान इस प्रकार है-

(1) रिकार्डों द्वारा किया गया विश्लेषण इस आधारभूत प्रश्न का जवाब देने का प्रयत्न करता है कि विकास के दौरान आय के सापेक्षिक हिस्सों में क्या परिवर्तन होता है।

(2) यह विश्लेषण अर्थव्यवस्था को गत्यात्मक मानकर चलता है अर्थात् अर्थव्यवस्था तब तक निरन्तर बदलती रहती है जब तक स्थिर अवस्था नही आ जाती है।

(3) वह पूँजी संचय, जनसंख्या, लाभ, मजदूरी और लगान जैसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तनीय तत्त्वों पर ध्यान केन्द्रित करता है।

माल्थस का योगदान :- माल्थस अपने समकालीन अर्थशास्त्रियों की तुलना में एक निश्चित व क्रमबद्ध विकास के सिद्धान्त को अधिक महत्त्व देते है। उनके अनुसार, जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया का अन्तिम परिणाम है। वे यह मत व्यक्त करते है कि धन में आनुपातिक वृद्धि के बिना जनसंख्या वृद्धि नही हो सकती है। केवल जनसंख्या का बढ़ जाना आर्थिक विकास के लिए प्रेरणा नहीं देता। जनसंख्या वृद्धि विकास को केवल तब ही प्रोत्साहित कर सकती है

जबकि वह सम्प्रभावी मांग में वृद्धि करती हो। समाज में श्रम की माँग पूँजी संचय की दर पर निर्भर होती है। माल्थस आर्थिक विकास के लिए बचत और विनियोग की आवश्यकता से इन्कार नहीं करते हैं किन्तु वे बचत करने की प्रवृत्ति के एक सर्वोत्तम स्तर का सुझाव देते हैं। एक सीमा तक ऐसे विनियोग के लिए बचत की आवश्यकता होती है जिसके लिए समाज में लाभपूर्ण अवसर मौजूद होते हैं। किन्तु इस सीमा के पश्चात अधिक बचत का किया जाना उपभोक्ताओं के व्यय को इतना कम कर देता है कि विनियोग हतोत्साहित होने लगता है। इस प्रकार माल्थस एक ऐसे विकसित समाज का चित्र प्रस्तुत करते है जिसमे उपभोग के साथ-साथ प्रगति की जाती है और जहाँ विनियोग और बचत दोनों साथ-साथ बढ़ते है।

माल्स उन तत्त्वों का अध्धयन भी करते है जो आत्म-स्फूर्ति में बाधाएँ उत्पन्न करते है। ये तत्व इस प्रकार है

(1) श्रमिको और प्रबन्धकों के प्रयास के पीछे की ओर झुके हुए पूर्ति वक्रमाल्थस के अनुसार, अल्पविकसित देशों में अकर्मण्यता गर्म जलवायु के कारण नहीं होती है बल्कि वह प्रेरणा के अभाव के कारण उत्पन्न होती है।

(2) आर्थिक विकास कुछ ऐसे संरचनात्मक परिवर्तन पैदा करता है जिनके कारण अर्थव्यवस्था में कृषि का सापेक्षित, महत्त्व कम हो जाता है।

(3) माल्थस अल्पविकसित देशों में दोहरी अर्थव्यवस्थाएँ उत्पन्न हो जाने की ओर भी संकेत करते है। उनके अनुसार अर्थव्यवस्था दो बड़े क्षेत्रों से मिलकर बनती है जिनमे से एक औद्योगिक क्षेत्र और दूसरा कृषि क्षेत्र होता है। तकनीकी प्रगति केवल औद्योगिक क्षेत्र तक ही सीमित रहती है जिसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में इस प्रकार का असन्तुलित विकास होता है। माल्थस यह सुझाव भी देते हैं कि प्रत्येक क्षेत्र दूसरे क्षेत्र की उपज के लिए बाजार प्रदान करता है। अतः यदि हम प्रगति करना चाहते है तो सन्तुलित विकास आवश्यक है। वे अल्प विकसित देशों में अन्तर क्षेत्रीय प्रतिक्रियाओं के सम्बन्ध में कुछ सुझाव भी देते हैं।

प्रस्तावनाएँ:- संस्थापित विकास सिद्धान्त की प्रमुख प्रस्तावनाएँ निम्नलिखित सूत्रों के रूप में व्यक्त की जा सकती है -

(1) उत्पादन फलन :- उत्पादन श्रम शक्ति के आकार, पूँजी की मात्रा, ज्ञात साधनों की पूर्ति और तकनीकी के स्तर से निर्धारित होता है। अर्थात्

O = f (L,K,Q,T)

जहाँ,

 O = उत्पादन

K = ज्ञात साधनों की पूर्ति

L = श्रम शक्ति का आकार

T = तकनीकी के स्तर

Q = पूँजी की मात्रा

(2) पूँजी संचय तकनीकी की प्रगति को सम्भव बनाता है :-

T=T(I)

T = तकनीकी का स्तर I = विनियोग

(3) विनियोग लाभ पर निर्भर होता है :-

I= dQ = I (R)

R = अचल उत्पत्ति के साधनों का प्रतिफल अर्थात्‌ लाभ

dQ = पूँजी की मात्रा में वृद्धि

(4) लाभ श्रम-पूर्ति और तकनीकी पर निर्भर होता है :-

R = R (T, L)

T = तकनीकी का स्तर, L = श्रम पूर्ति

R = लाभ अथवा अचल साधनों पर प्रतिफल

(5) श्रम शक्ति का आकार मजदूरी बिल के आकार पर निर्भर होता है :-

L = L (W)

L = श्रम शक्ति W = मजदूरी बिल

(6) मजदूरी बिल विनियोग के स्तर पर निर्भर होता है :-

W = W (I)

W = मजदूरी बिल, I = विनियोग

उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि आर्थिक विकास के संस्थापित सिद्धान्त मे लाभ को पूँजीवादी व्यवस्था का प्रथम चालक माना जा सकता है। विकास की समस्त प्रक्रिया को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-

dR dI dQ dT, dW dL dT

अर्थात् लाभ में होने वाली वृद्धि विनियोग को बढ़ाती है जिससे पूंजी की मात्रा बढ़ती है जो पूँजीपतियों के लिए सुधरी हुई तकनीकों से फायदा उठाने को सम्भव बनाता है और मजदूरी कोष में वृद्धि करता है। इसके परिणामस्वरूप जनसंख्या वृद्धि तेजी के साथ होती है जिसके कारण भूमि पर लगे हुए श्रम का प्रतिफल घटने लगता है, श्रम लागते बढ़ जाती है और लाभ गिर जाता है। लाभ की कमी विनियोग को कम करती है, तकनीकी प्रगति को रोकती है, मजदूरी कोष घट जाता है और जनसंख्या वृद्धि धीमी पड़ जाती है।

आलोचनाएँ

संस्थापित अर्थशास्त्र विकास का एक प्रावैगिक सामूहिक सिद्धांत प्रस्तुत करता है। वह उस प्रक्रिया का विश्लेषण करता है जिसके द्वारा समाज में उपलब्ध आर्थिक अतिरेक का एक भाग पूँजी संचय के उद्देश्य के लिए प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार संस्थापित विचारक पूँजी निर्माण को विकास प्रक्रिया की मूल विशेषता मानते हैं। संस्थापित सिद्धांत पूँजी निर्माण प्रक्रिया में बहुत से महत्त्वपूर्ण पक्षों का विश्लेषण करने में सफल रहा है। इसके साथ-साथ ही आर्थिक विकास के संस्थापित सिद्धांत में कुछ महत्त्वपूर्ण दोष भी पाये जाते है।

(1) संस्थापित अर्थशास्त्रियो ने तकनीकी प्रगति के द्वारा उत्पत्ति ह्मस की प्रवृत्ति के निराकरण की सम्भावनाओं को पर्याप्त महत्त्व नहीं दिया है।

(2) तेज रफ्तार से होने वाली तकनीकी प्रगति ने उनके गिरते हुए लाभ और बढ़ते हुए लगान की मान्यताओं को बेकार कर दिया है।

(3) माल्थस का सिद्धांत पाश्चात्य संसार में जनसंख्या में होने वाले परिवर्तनों को समझाने में असमर्थ रहा है।

(4) संस्थापित अर्थशास्त्री सामूहिक माँग को कायम रखने की समस्या का भी पर्याप्त विश्लेषण करने में असमर्थ रहे है।

(5) आधुनिक अर्थशास्त्रियो का यह विश्वास है कि पूर्ण रोजगार को कायम रखने की समस्या उतनी आसान नहीं है जितना कि संस्थापित अर्थशास्त्री समझते थे।

(6) इसके अतिरिक्त संस्थापित विश्लेषण इसलिए भी दोषपूर्ण है क्योंकि वह इस गलत मान्यता पर आधारित है कि आर्थिक विकास एक ऐसे वातावरण में होता है जिसमे पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है।

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