प्रश्न :- आर्थिक विकास क्या है? आर्थिक विकास में कृषि की भूमिका
की विवेचना कीजिए।
☞ विकासशील देशों के आर्थिक विकास में कृषि की भूमिका का मूल्यांकन
कीजिए।
☞ "आर्थिक जीवन एक वृक्ष के समान है, जिसकी जड़े कृषि है, तना उद्योग
है तथा व्यापार शाखाएँ एवं पत्तियाँ हैं।"
☞ इस कथन को ध्यान में रखकर किसी देश की अर्थव्यवस्था में कृषि के योगदान
की विवेचना कीजिए।
☞ "कृषि एवं उद्योग कुछ अंशों तक एक-दूसरे के पूरक हैं, इससे भी
बड़ा प्रश्न है कि इन पर बल एवं प्राथमिकता देने का।" इस कथन की विवेचना कीजिए
तथा कृषि एवं उद्योग के बीच अन्तर्सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
☞ आर्थिक विकास में कृषि की भूमिका की विवेचना कीजिए। अपने उत्तर की पुष्टि
के लिए भारतीय अनुभव से उदाहरण दीजिए।
उत्तर :- प्रत्येक देश का आर्थिक ढाँचा उस देश विशेष के
प्राकृतिक साधनों एवं उनका शोषण, सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों आदि से
प्रभावित होता है, विशेषकर उन अल्प-विकसित राष्ट्रों में जहाँ की अर्थव्यवस्था
पूर्ण रूप से कृषि प्रधान होती है।
प्राचीन काल से ही कृषि मानव के जीवन-यापन का प्रमुख साधन
रही है। आधुनिक औद्योगिक युग में भी कृषि ही विश्व की अधिकांश जनसंख्या का प्रमुख
व्यवसाय एवं आय का स्रोत है। वास्तव में कृषि समस्त उद्योगों की जननी, मानव जीवन
की पोषक, प्रगति की सूचक तथा सम्पन्नता का प्रतीक समझी जाती है। तीव्र आर्थिक
विकास की ओर उन्मुख वर्तमान गतिशील विश्व के समस्त विकसित एवं विकासशील देश अपने
उपलब्ध संसाधनों का अपनी परिस्थितियों एवं क्षमताओं के अनुरूप यथासम्भव अनुकूलतम
प्रयोग कर कृषि उत्पादों में परिमाणात्मक एवं गुणात्मक सुधार तथा प्रगतिशील एवं
व्यवसायिक कृषि के विकास हेतु सचेत एवं सतत् प्रयासरत हैं।
विकासशील देशों में प्रधान व्यवसाय होने के कारण कृषि
राष्ट्रीय आय का सबसे बड़ा स्रोत, रोजगार एवं जीवन-यापन का प्रमुख साधन, औद्योगिक
विकास, वाणिज्य एवं विदेशी व्यापार का आधार है। कृषि इन देशों की अर्थव्यवस्था की
रीढ़ तथा विकास की कुंजी है। कृषि विकास के सोपान पर चढ़कर ही विश्व के विकसित
राष्ट्र आज आर्थिक विकास के शिखर पर पहुँच सके हैं। विकसित राष्ट्रों जैसे-
इंग्लैण्ड, जर्मनी, रूस तथा जापान आदि देशों के विकास में कृषि ने महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई तथा तीव्र औद्योगिकीकरण के लिए सुदृढ़ आधार प्रदान किया। यही कारण है
कि प्राचीन काल से लेकर आज तक के विचारकों ने कृषि विकास पर पर्याप्त बल दिया है।
केने (Quesnay) के अनुसार "कृषि राष्ट्र की समस्त
सम्पत्ति तथा समस्त नागरिकों के धन का स्रोत है। अतः कृषि का लाभप्रद होना सरकार
एवं राष्ट्र के लिए अनुकूल बात होगी।"
संक्षेप में, कृषि किसी राष्ट्र के आर्थिक प्रगति की सूचक
होती है। कोई भी देश चाहे वह विकसित हो अथवा विकासशील, आर्थिक प्रगति के कितने भी
ऊँचे शिखर पर क्यों न पहुँच जाए वह कृषि की उपेक्षा नहीं कर सकता। किसी भी देश के
आर्थिक विकास में कृषि निम्न प्रकार से योगदान करती है :
(i) अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों को खाद्यान्न एवं कच्चा
माल उपलब्ध कराती है।
(ii) अन्य विस्तारोन्मुख क्षेत्रों को "निवेश योग्य
अतिरेक" प्रदान करती है।
(iii) बिक्री योग्य अतिरेक के विक्रय द्वारा ग्रामीण
जनसंख्या को प्राप्त राशि से अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों के उत्पादन की माँग
में वृद्धि होती है।
(iv) निर्यातों या आयात प्रतिस्थापन द्वारा विदेशी विनिमय
के भार से छुटकारा दिलाती है।
(v) श्रमिकों को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराती है।
कृषि के विषय में महात्मा गाँधी ने भी कहा था कि
"प्रारम्भ से ही यह मेरा अटूट विश्वास रहा है कि केवल कृषि ही इस देश के
लोगों को अचूक एवं सतत् सहायता प्रदान करती है।"
अतः स्पष्ट है कि कृषि प्रत्येक दशा में सामान्य आर्थिक
विकास की दृष्टि से उपयोगी है। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में अर्थव्यवस्था उसी समय
गतिशील अवस्था में स्वपोषित आर्थिक विकास की अवस्था को प्राप्त कर सकेगी जब
कृषि-क्षेत्र का पर्याप्त विकास हो चुका हो।
आर्थिक विकास : अर्थ एवं परिभाषा
(Economic Development: Its Meaning and Definition)
गतिशील विश्व की समस्त अर्थव्यवस्थाएँ, चाहे वह समाजवादी
हों अथवा पूँजीवादी, सभी अपने आर्थिक विकास को गति प्रदान करने के लिए सतत्
प्रयत्नशील हैं तथा उनका मुख्य उद्देश्य अपनी अर्थव्यवस्था को समृद्धशाली बनाना
है। एक ओर जहाँ अल्प-विकसित राष्ट्र अपने आर्थिक विकास द्वारा अपनी गरीबी,
बेरोजगारी, आर्थिक विषमता और पिछड़ेपन से छुटकारा प्राप्त करना चाहते हैं वहीं
विकसित राष्ट्र अपने आर्थिक विकास को निरन्तर गतिशील बनाये रखना चाहते हैं।
अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition)
सामान्यतया आर्थिक विकास से तात्पर्य भौतिक कल्याण में
बढ़ोत्तरी एवं सुधार लाने से है। दूसरे शब्दों में, जब किसी देश में खासकर नीची आय
वाले लोगों के भौतिक कल्याण में बढ़ोत्तरी होती है, जनसाधारण को अशिक्षा, बीमारी
और छोटी उम्र में मृत्यु के साथ-साथ गरीबी से छुटकारा मिलता है, कृषि लोगों का
मुख्य व्यवसाय न रहकर औद्योगीकरण होता है जिससे उत्पादन के स्वरूप में और उत्पादन
के लिए इस्तेमाल होने वाले कारकों के स्वरूप में परिवर्तन होता है। कार्यकारी
जनसंख्या का अनुपात बढ़ता है और आर्थिक तथा दूसरे किस्म के निर्णयों में लोगों की
भागीदारी बढ़ती है तो अर्थव्यवस्था का स्वरूप बदलता है और हम कहते हैं कि देश
विशेष में आर्थिक विकास हुआ है।
आर्थिक विकास, विकास की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें 'मानवीय
प्रयासों' द्वारा अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों चाहे वह कृषि हो या उद्योग अथवा
अन्य कोई, में उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि कर अपनी वास्तविक प्रति व्यक्ति
आय में वृद्धि करते हुए देश में गरीबी और आर्थिक असमानता को समाप्त कर नागरिकों के
जीवन-स्तर को ऊँचा उठाता है। विभिन्न विद्वानों ने आर्थिक विकास को निम्न प्रकार
से परिभाषित किया है :
विलियमसन एवं बट्रिक (Williamson and Buttrick) के अनुसार, "आर्थिक विकास
अथवा संवृद्धि से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसमें किसी देश अथवा क्षेत्र के
निवासी उपलब्ध संसाधनों का उपयोग प्रति व्यक्ति वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन में
निरन्तर वृद्धि के लिए करते हैं।"
मायर एवं बाल्डविन (Meier and Baldwin) के अनुसार, "आर्थिक विकास एक ऐसी
प्रक्रिया है जिसमें दीर्घकाल में किसी अर्थव्यवस्था की वास्तविक राष्ट्रीय आय में
वृद्धि होती है।''
प्रो. रोस्टोव (W. W. Rostow) के अनुसार, "आर्थिक विकास एक तरफ पूँजी व कार्यशील शक्ति
में वृद्धि के दरों के मध्य और दूसरी तरफ जनसंख्या वृद्धि की दर के मध्य एक ऐसा
सम्बन्ध है जिससे कि प्रति व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि होती है।"
क्राउज (K.
Krause) महोदय के शब्दों में, "आर्थिक विकास किसी अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत
आर्थिक संवृद्धि की प्रक्रिया को बताता है। इस प्रक्रिया का केन्द्रीय उद्देश्य
अर्थव्यवस्था के लिए प्रति व्यक्ति वास्तविक आय का ऊँचा और बढ़ता हुआ स्तर प्राप्त
करना होता है।"
संयुक्त राष्ट्र संघ (U. N. O.) की एक रिपोर्ट के अनुसार, "विकास, मानव की
केवल भौतिक आवश्यकताओं से ही नहीं, बल्कि उसके जीवन की सामाजिक दशाओं की उन्नति से
भी सम्बन्धित होना चाहिए। इस तरह, विकास में सामाजिक, सांस्कृतिक, संस्थागत तथा
आर्थिक परिवर्तन भी शामिल होने चाहिए।"
उपर्युक्त परिभाषाओं की मूल धारणाओं के अनुरूप आर्थिक विकास
की अग्रलिखित विशिष्टताएँ स्पष्ट होती हैं:
(i) आर्थिक विकास सतत् क्रियाशील प्रक्रिया होती है।
(ii) आर्थिक विकास की प्रक्रिया में देश में उपलब्ध समस्त मानवीय
एवं प्राकृतिक संसाधनों का कुशलतापूर्वक विदोहन होता है।
(iii) आर्थिक विकास की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय
आय एवं प्रति व्यक्ति आय में निरन्तर एवं दीर्घकाल तक वृद्धि होती है जिससे आर्थिक
विषमता में कमी आती है।
(iv) आर्थिक विकास से सामान्य जनता के जीवन स्तर एवं कल्याण
में बढ़ोत्तरी होती है।
किसी देश विशेष के लिए कृषि विकास के लक्ष्य निर्धारित करने
तथा कृषिगत विकास की रणनीति तैयार करने के लिए अर्थव्यवस्था में कृषि महत्व तथा उसके
आर्थिक विकास के साथ सम्बन्ध को समझना विशेष महत्व रखता है। इस तथ्य के परिप्रेक्ष्य
में आर्थिक विकास में कृषि की भूमिका का अध्ययन करना उचित होगा।
आर्थिक विकास में कृषि की भूमिका (Role of Agriculture in Economic Development).
"कृषि आय में वृद्धि आर्थिक विकास की कुंजी है और यदि कोई
राष्ट्र सर्वप्रथम उसे प्राप्त करने में असफल रहता है तो समस्त विकास प्रक्रिया अवरुद्ध
हो सकती है।" - प्रो. यूगोपायी कृषि किसी भी देश के आर्थिक विकास की आधारशिला
होती है। कृषि समस्त उद्योगों की जननी तथा औद्योगीकरण का मूल आधार है। आर्थिक दृष्टि
से पिछड़े देशों में कृषि प्रधान व्यवसाय है। राष्ट्रीय आय का बड़ा भाग इसी क्षेत्र
में उत्पादित होता है। अतः इन देशों के आर्थिक विकास की भूमिका का महत्वपूर्ण होना
स्वाभाविक है। आर्थिक विकास के सिद्धान्तों, नीतियों तथा इतिहास से सम्बद्ध साहित्य
में प्रायः एक बात पर सहमति देखने को मिलती है कि विकास के लिए कृषि व्यवसाय से भारी
संख्या में लोगों का दूसरे व्यवसायों में स्थानान्तरण आवश्यक है। ऐसा सम्भव बनाने के
लिए व्यापक स्तर पर औद्योगिक विकास करना होगा, तभी स्थानांन्तरित व्यक्तियों को कृषि
क्षेत्र के बाहर उत्पादक कार्य मिल सकेगा और जो लोग कृषि व्यवसाय में रह जायेंगे, उनकी
अपनी खेती का विवेकीकरण कर सकना सम्भव होगा जिसका अल्पविकसित देशों की अर्थव्यवस्था
पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा। दूसरे शब्दों में, अल्पविकसित देशों में कृषि के पिछड़ेपन
में कृषि विकास द्वारा व्यापक स्तर पर आर्थिक विकास की सम्भावनाएँ छिपी हुई है।
सामान्यतः कृषि-क्षेत्र में प्रगति को औद्योगिक विकास की पूर्वषिक्षा
कहना गलत नहीं है। एक ऐसे देश के लिए जिसका अन्य देशों के साथ व्यापार नहीं है, यह
अन्यन्त आवश्यक है कि वह कृषि विकास का स्तर ऊँचा उठाये जिससे खाद्य-पदार्थों में आत्म-निर्भरता
को प्राप्त किया जा सके। किसी भी अर्थ-प्रणाली में कृषि क्षेत्र का विपणन आधिक्य औद्योगिक
विकास की एक अनिवार्य शर्त होता है। कृषि में बढ़ती हुई उत्पादकता से औद्योगिक विकास
में अनेक प्रकार से सहायता मिलती है।
(i) कृषि उत्पादकता अधिक होने पर कृषि क्षेत्र से अन्य क्षेत्रों
को श्रम शक्ति का स्थानांतरण सम्भव होता है, साथ ही गैर-कृषि क्षेत्र की बढ़ती हुई
खाद्य सामग्री की माँग को कृषि व्यवसाय में थोड़े व्यक्ति रह जाने पर भी पूरा किया
जा सकता है।
(ii) इससे कृषक वर्ग की आय बढ़ जाती है।
(iii) कृषि उत्पादकता का स्तर ऊँचा होने पर औद्योगिक श्रमिकों
के लिए खाद्य-पदार्थ अनुकूल कीमतों पर ही उपलब्ध हो जाते हैं।
संक्षेप में, कहा जा सकता है कि कृषि उत्पादकता एवं उत्पादन
आर्थिक विकास में निम्न प्रकार से योगदान प्रदान करती है-
1. बढ़ती माँग के अनुरूप खाद्य आपूर्ति में सहायक- भोजन मानव की प्रथम आवश्यकता है जिसके चगैर मानव जीवित नहीं
रह सकता। खाद्यान्न आपूर्ति न होने पर देश में अस्थिरता पैदा हो जाती है। खाद्यान्न
के अभाव में युद्ध के परिप्रेक्ष्य में हलचल, गड़बड़ी और बेचैनी पैदा होती है। भारतीय
कृषि क्षेत्र देश की समस्त जनसंख्या के लिए खाद्यान्नों की आपूर्ति करता है। बढ़ती
हुई जनसंख्या के परिप्रेक्ष्य में कृषि क्षेत्र पर खाद्यान्न आपूर्ति का दायित्व बढ़ता
जा रहा है। समग्र कृषि क्षेत्र स्थिर है, परन्तु उस पर आश्रित जनसंख्या बढ़ रही है।
आज कृषि क्षेत्र बढ़ने से आवास, परिवहन आदि के लिए अधिक भूमि की आवश्यकता पड़ रही है।
आज कृषि क्षेत्र को 1951 की
जनसंख्या से दुगुनी मात्रा की जनसंख्या को खाद्यान्न आपूर्ति करनी पड़ रही है।
आर्थिक प्रगति के साथ-साथ जनसंख्या की भोजन आवश्यकता में गुणात्मक परिवर्तन हो रहे
हैं। इस कारण अपेक्षाकृत अधिक पौष्टिक खाद्यान्नों की आपूर्ति का दायित्व भी कृषि क्षेत्र
क्षेत्र पर है। देश में भारी संख्या में पशुधन विद्यमान है जिसके चारे की आपूर्ति
कृषि क्षेत्र से होती है।
2. राष्ट्रीय आय में योगदान- कृषि क्षेत्र में राष्ट्रीय आय का योगदान एक मापदण्ड माना
जाता है जिससे सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में इस क्षेत्र के महत्व का पता चलता है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पहले राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र का योगदान अन्य
क्षेत्रों की तुलना में अधिक है परन्तु धीरे-धीरे इसके सापेक्षिक महत्व में कमी हो
रही है। वर्ष 2004-05 में इसका प्रतिशत घटकर लगभग 23.3 रह गया जबकि 1950-51 में यह
56.1 प्रतिशत था। संसार के अन्य उन्नतिशील देशों की राष्ट्रीय आय में कृषि अध्ययन
करने से ज्ञात होता है कि अधिक उन्नतिशील देशों की राष्ट्रीय आय में कृषि का भाग
बहुत कम होता है। World Development Report 1995 एवं 2001 के अनुसार उच्च आय वाले
विकसित देशों में कृषि का राष्ट्रीय आय में 1965 में 5% योगदान था जो कि 2000 में
घटकर 3% रह गया। संयुक्त राज्य अमेरिका तथा फ्रांस में 3%, जापान एवं यू. के. में
3% तथा जर्मनी में 1% रह गया है जबकि 1952 में अमेरिका तथा ब्रिटेन में 6%, कनाडा
में 13%, जापान में 23% तथा फ्रांस में 13% योगदान कृषि का राष्ट्रीय आय में था।
वास्तव में जो देश जितना ही अधिक विकसित होगा, राष्ट्रीय आय में कृषि का योगदान
उतना ही कम होता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था का राष्ट्रीय आय में योगदान एवं कृषि
प्रधान अर्थव्यवस्था का महत्व निम्न सारणी से स्पष्ट है:
सारणी 1: सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान
वर्ष |
कुल आय में कृषि का योगदान (प्रतिशत) |
1950-51 |
56.1 |
1960-61 |
53.9 |
1970-71 |
47.4 |
1980-81 |
40.6 |
1990-91 |
32.9 |
2000-01 |
26.2 |
2003-04 |
24.4 |
2004-05 |
23.3 |
3.
रोजगार में योगदान- भारत में कृषि प्रत्यक्ष एवं
अप्रत्यक्ष रूप में अधिकांश जनसंख्या के जीवन-यापन का साधन रही है। वर्तमान समय में
भी लगभग 67% जनसंख्या कृषि पर आधारित है। परन्तु भारतीय कार्यकारी जनसंख्या की कृषि
पर मात्रात्मक रूप से निर्भरता बढ़ी है। विकसित अथवा उन्नतिशील देशों में सक्रिय जनसंख्या
की कृषि पर निर्भरता अधिक नहीं है। इंग्लैण्ड में 2%, संयुक्त राज्य अमेरिका में
3%, पोलैण्ड में 12%, फ्रांस में 18% और जापान में 12% सक्रिय जनसंख्या कृषि व्यवसाय
में लगी है। इन सभी देशों में यह अनुपात घट रहा है, अर्थात् लोग कृषि से अन्य उद्योगों
की ओर जा रहे हैं। इसके विपरीत समस्त अल्पविकसित देशों की स्थिति करीब-करीब भारत के
समकक्ष ही है। पाकिस्तान में 74% और संयुक्त अरब गणराज्य में 64% सक्रिय जनसंख्या अब
भी कृषि पर निर्भर है।
उपर्युक्त
विवेचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कृषि आर्थिक विकास की मूल 'आधारशिला है जिसके
अभाव में आर्थिक विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
कृषिगत विकास बनाम औद्योगीकरण (Agricultural Development us. Industrialization)
आज प्रतिस्पर्द्धा के इस युग में प्रत्येक राष्ट्र प्रगति
की दौड़ में सबसे आगे निकलना चाहता है। ऐसे में अल्प-विकसित राष्ट्र यह निश्चित
नहीं कर पाते कि वे अपने आर्थिक विकास की प्रक्रिया में कृषि के विकास को
प्राथमिकता दें अथवा औद्योगीकरण की नीति को। दूसरे शब्दों में, यह ज्ञात होना
आवश्यक है कि कृषिगत विकास तथा औद्योगीकरण एक-दूसरे के पूरक हैं अथवा प्रतियोगी?
वास्तविकता तो यह है कि कृषि विकास तथा औद्योगीकरण परस्पर विरोधी धारणा न होकर एक
दूसरे के पुरक हैं। किसी भी देश में आर्थिक विकास को गति प्रदान करने के दोनों क्षेत्रों
का साथ-साथ विकास होना आवश्यक है। 'ये आर्थिक विकास की दो संयुक्त एवं प्रेरक
शक्तियाँ हैं जो एक-दूसरे से घनिष्ठतम रूप से सम्बन्धित है।' इस कथन में पर्याप्त
सत्यता होने के बावजूद कुछ अर्थशास्त्री केवल कृषिगत विकास के पक्षपाती है तो कुछ
विचारक औद्योगीकरण के समर्थक हैं, साथ ही कुछ विचारक ऐसे भी हैं जो दोनों
क्षेत्रों में सामंजस्य बनाये रखने की बात करते हैं। उपर्युक्त विचारधाराओं के
सन्दर्भ में इनका तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक है।
प्रथम विचारधारा: "कृषि औद्योगीकरण की जननी है।"
(Agriculture is Mother of Industrialization)
इस विचारधारा के पक्षधर विद्वानों का मानना है कि
"कृषि औद्योगीकरण का आधार तथा आर्थिक विकास की कुंजी है।"
यदि आर्थिक विकास के सन्दर्भ में विकसित देशों के आर्थिक
इतिहास पर दृष्टि डाली जाये तो यह ज्ञात होता है कि कृषि विकास के सोपान पर चढ़कर
ही ये देश औद्योगिक विकास के शिखर पर पहुँचे हैं। दूसरे शब्दों में, कृषि विकास से
ही इन देशों में औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिला है। बावर एवं बामे के अनुसार,
"वर्तमान में औद्योगिक दृष्टि से विकसित कहे जाने वाले देश अतीत में मूल रूप
से कृषि प्रधान देश रहे हैं। इतिहासकारों द्वारा की गई खोज से पता चलता है कि इन
देशों में प्रगतिशील एवं विकास युक्त कृषि ने विनिर्माणी उद्योगों की स्थापना एवं
विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।"
डी. बी. मुर्रे (D. B. Murray) के अनुसार, "आर्थिक विकास के इतिहास के अध्ययन से यह
स्पष्ट हो चुका है कि लगभग प्रत्येक औद्योगिक देश की प्रारम्भिक अवस्था में
उद्योगों का विकास कृषकों की शक्ति पर निर्भर रहा है।"
इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए प्रो. रोस्टोव
ने लिखा है- "कृषि उत्पादन औद्योगीकरण के लिए मूलभूत कार्यशील पूँजी
है।"
संयुक्त राष्ट्र संघ (U. N. O.) के एक प्रतिवेदन में भी इस तथ्य को स्वीकार
करते हुए कहा गया है कि "कृषि क्षेत्र में पूरक परिवर्तन किये बिना औद्योगिक
क्षेत्र का असन्तुलित एवं तीव्र विकास, अर्थव्यवस्था में ऐसी दशाएँ उत्पन्न कर
सकता है जिससे कि आर्थिक विकास पूर्णतया अवरुद्ध हो जाये जैसे- भुगतान सन्तुलन की
कठिनाइयाँ, मुद्रा स्फीति, अत्यधिक नगरीकरण तथा सामाजिक ढाँचे का विकृत होना
आदि।"
सर एच. मिन्ट (H. Myint) के शब्दों में, "विनिर्माणी उद्योगों का निरन्तर विकास कृषि
क्षेत्र के विकास के बिना अधिक समय तक सम्भव नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण
अर्थव्यवस्था के विकास की दर अन्ततः कृषि के
विकास की दर पर निर्भर करती है।" संक्षेप में, आर्थिक
विकास की दृष्टि से कृषि विकास को निम्नलिखित कारणों से महत्वपूर्ण समझा जा सकता
है :
(1) तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए खाद्य पदार्थों
की प्राप्ति कृषि विकास द्वारा ही सम्भव है।
(2) कृषि क्षेत्र उद्योगों को पूँजी प्रदान करने के साथ-साथ
नई औद्योगिक वस्तुओं के लिए बाजार तैयार करता है।
(3) उद्योगों को कच्चा माल कृषि से ही प्राप्त होता है।
(4) कृषिगत उपजों का निर्यात करके औद्योगीकरण के लिए आवश्यक
मशीने एवं उपकरण आयात किये जाते
(5) इससे विनिमय अर्थव्यवस्था का विकास होता है, साहसिक तथा
प्रशासकीय योग्यता को बल मिलता है और यह आनिक औद्योगिक अर्थव्यवस्था के सफल संचालन
को सम्भव बनाता है।
कृषि
विकास के महत्व के सन्दर्भ में प्रसिद्ध अर्थशासी कोल और हूवर महोदय का कथन दृष्टव्य
है: "सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए कृषि विकास पहले होना चाहिए।"
द्वितीय विचारधारा "औद्योगीकरण आर्थिक विकास की कसौटी है।"
किसी
भी देश के आर्थिक विकास में कृषि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है किन्तु फिर भी अर्थशास्त्रियों
ने औद्योगीकरण को तीव्र आर्थिक विकास की कसौटी माना है। उनका यह मानना है कि विकासशील
देशों के तीव आर्थिक विकास के लिए औद्योगीकरण परम आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है। उद्योगों
के अभाव में देश का समुचित विकास होना अधूरा ही रह जायेगा। विश्व की विकसित अर्थव्यवस्थाएँ
औद्योगीकरण के माध्यम से ही आर्थिक विकास के उन्नत शिखर पर पहुंच सकी हैं। कृषि की
अपेक्षा उद्योगों में प्रति व्यक्ति आय एवं उत्पादन अधिक होता है। इसमें आन्तरिक एवं
बाह्रा बचतें आसानी से प्राप्त की जा सकती हैं। औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप तकनीकी
ज्ञान, बाजार का क्षेत्र तथा आय आदि में वृद्धि की प्रवृत्ति बढ़ती है जिसके फलस्वरूप
किसी भी देश में औद्योगीकरण के फलस्वरूप आय, बाजार क्षेत्र तथा तकनीकी ज्ञान की प्रवृत्ति
बढ़ती है परिणाम- स्वरूप अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र विकसित होते हैं। कुछ विद्वान
कृषि एवं आर्थिक विकास को देश के औद्योगीकरण के ढाँचे पर निर्भर मानते है। आर्थिक विकास
हेतु औद्योगीकरण के महत्व एवं उसकी उपयोगिता को निम्न प्रकार व्यक्त किया जा रहा है
1.
विकास दर की वृद्धि में सहायक- प्रति व्यक्ति आय एवं जीवन-स्तर
वृद्धि की सम्भावनाएँ कृषि की अपेक्षा औद्योगीकरण में अधिक होती है। देश में औद्योगीकरण
के विकास से कुल राष्ट्रीय उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है जिससे विकास
दर ऊँची होती है।
2.
पूँजी निर्माण को बल- औद्योगीकरण से देश में पूँजी
निर्माण की दर को अधिक बल मिलता है। औद्योगीकरण से आय में वृद्धि होती है। आय में वृद्धि
होने के साथ-साथ सीमान्त बनत में भी वृद्धि होती है, साथ ही उद्योग धन्धों में पूँजी
लगाने के लिए क्षेत्र और अवसर में वृद्धि होती है। इस प्रकार औद्योगीकरण पूँजी निर्माण
में सहायक है।
3.
कृषि का एक व्यवसाय के रूप में विकास- विभिन्न
विनिर्माणी उद्योग कृषि उपजी को कच्चे माल के रूप में उपयोग करते हैं इससे कृषि उपज
का बाजार बढ़ता है तथा कृषि एक लाभदायक व्यवसाय के रूप में विकसित होती है।
4.
कृषि उत्पादकता बढ़ाने में सहायक- कृषि में उत्पादन एवं
उत्पादकता बढ़ाने के लिए आवश्यक रासायनिक खादों, कीटनाशको, कृषि संयंत्रों, उपकरणों
तथा बिजली आदि महत्वपूर्ण सुविधाएँ औद्योगिक विकास से सुलभ हो सकेंगी। कृषि से सम्बन्धित
शोध एवं अनुसंधान पूर्णरूपेण औद्योगिक विकास पर ही निर्भर करता है। इतना ही नहीं, उत्पादन
एवं तकनीकी प्रगति मुख्य रूप से औद्योगीकरण की ही देन है।
अतः
स्पष्ट है कि वर्तमान कृषि एवं आर्थिक विकास अन्ततः देश के औद्योगीकरण के स्वरूप पर
ही निर्भर करता है।
समन्वित दृष्टिकोण: कृषि एवं उद्योग दोनों का विकास साथ-साथ हो
उपर्युक्त
विवेचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि विकास की प्रक्रिया में कृषि विकास को चुना
जाये अथवा औद्योगीकरण की नीति को, इसका चुनाव करना उचित नहीं होगा। आर्थिक विकास के
लिए दोनों क्षेत्रों का साथ-साथ विकास होना आवश्यक है। दोनों क्षेत्र परस्पर प्रतियोगी
न होकर एक-दूसरे के पूरक है। कोई भी देश कृषि अथवा उद्योग में से किसी एक की उपेक्षा
करके विकास के उच्च शिखर पर नहीं पहुँच सकता। कृषि एवं उद्योग आर्थिक विकास की दो समानान्तर
शक्तियाँ हैं जिन्हें एक ही धरातल पर बनाये रखना आवश्यक है। यूजीन स्टेनले ने
इन क्षेत्रों की परस्पर निर्भरता को स्पष्ट करते हुए कहा है:
"कृषि
उत्पादकता में सुधार कर औद्योगिक विकास को गति प्रदान की जा सकती है। जब तक कृषि का
आधुनिकीकरण नहीं हो जाता तब तक अल्प-विकसित देशों में जनसंख्या के एक बड़े भाग के पास
निम्न क्रय-शक्ति के रूप में बाजारों का अभाव औद्योगिक विस्तार को सीमित कर देगा। इसी
तरह कृषिगत विकास तब तक सम्भव नहीं है जब तक जन-शक्ति को रोजगार दिलाने और आधुनिक कृषि
के लिए आवश्यक सम्भार, यन्त्र तथा सेवाओं को ठोस तकनीकी आधार प्रदान करने के लिए पर्याप्त
औद्योगिक विकास न हो जाये।"
पी.
कांग-चांग (Pie-Kang-Chang) के अनुसार, ''कोई भी देश औद्योगिक
दृष्टि से कितना ही उन्नत क्यो न हो, वह कृषि तथा उद्योगों के बीच एक वांछित सन्तुलन
स्थापित किये बिना न तो अपनी आर्थिक क्रियाओं
को जारी रख सकता है और न ही दीर्घकालीन विकास कर सकता है।" इस सम्बन्ध में
मुर्रे (D. B. Murray) का कथन है कि, "इन दोनों का विकास घनिष्ठ रूप से
अन्तर्सम्बन्धित है और इनमें से प्रत्येक क्षेत्र दूसरे पर निर्भर करता है। अतः
आर्थिक विकास की नीति कृषि तथा उद्योग दोनों में उत्पादन बढ़ाने की दृष्टि से
सन्तुलित विकास पर आधारित होनी चाहिए।'
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के एक प्रतिवेदन के अनुसार, "यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि विकास के
क्षेत्र में उद्योगों का अत्यधिक संकेन्द्रण अल्प विकसित देशों के हितों में होगा
परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि ऐसे देशों में औद्योगीकरण की नितान्त उपेक्षा
की जाये, इन देशों में कृषि तथा उद्योग दोनों क्षेत्रों में उत्पादन को बढ़ाकर
सन्तुलित विकास की नीति अपनायी जानी चाहिए।"
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि किसी देश के आर्थिक
विकास हेतु कृषि एवं उद्योग दोनों का विकसित होना आवश्यक है। हाँ, इतना अवश्य है
कि जैसे-जैसे कोई देश विकास के उन्नत शिखर पर पहुँच जाता है, वैसे-वैसे विकास में
कृषि की सापेक्षिक भूमिका क्रमशः कम होती जाती है। दूसरे शब्दों में, आय, रोजगार
एवं उत्पादन की दृष्टि से उद्योग एवं अन्य व्यवसायों की अपेक्षा इसका महत्व
धीरे-धीरे कम होने लगता है। अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि "आर्थिक
जीवन एक वृक्ष के समान है जिसकी जड़ें कृषि है, तना उद्योग है तथा व्यापार शाखाएँ
एवं पत्तियाँ हैं।"
विकासशील देशों के सन्दर्भ में कृषि की स्थिति
(Position of Agriculture with Reference to Under-developed Countries)
अथवा
कृषि : एक पद-दलित क्षेत्र
(Agriculture: A Depressed Sector)
कृषि अल्प-विकसित राष्ट्रों का प्रमुख व्यवसाय होती है।
किन्तु विकसित राष्ट्रों की तुलना में यहाँ कृषि की दशा पिछड़ी हुई रहती है।
अल्प-विकसित देशों में जहाँ 60 से 70% लोग कृषि व्यवसाय से जुड़े हुए है वहीं विकसित
देशों जैसे यू. एस. ए. में 8%, इंग्लैण्ड में 15% तथा फ्रांस में 25% लोग ही कृषि
कार्य में संलग्न रहते हैं। विकासशील देशों में जनसंख्या अधिक होने के कारण प्रति
हेक्टेयर तथा प्रति व्यक्ति उत्पादन विकसित देशों की तुलना में कम है। यही कारण है
कि अल्प विकसित राष्ट्रों में कृषि ही आजीविका का प्रमुख साधन बनी हुई है तथा
निर्धनता यहाँ के कृषकों का भाग्य बन गया है।
ज्ञातव्य है कि कृषि उत्पादन विकासशील देशों में, विकसित
देशों की तुलना में काफी कम है। वर्ष 2000-01 में चावल की पैदावार प्रति हेक्टेयर
3,010 किग्रा. थी, जबकि चावल का उत्पादन चीन में 6,230 किग्रा. प्रति हेक्टेयर,
कनाडा में 2,750 किग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा अमेरिका में 7,040 किग्रा. प्रति
हेक्टेयर है। इसी तरह गेहूँ की प्रति हेक्टेयर औसत उपज यू.के. में 8,010 किया.,
चीन में 3,730 किग्रा., फ्रांस में 7,130 किया तथा भारत में 2,780 किग्रा थी।
विश्व के प्रमुख विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में प्रति हेक्टेयर औसत उपज को
निम्न सारणी द्वारा समझा जा सकता है
सारणी 2: विश्व के कुछ देशों में प्रति हेक्टेयर उत्पादन
(किग्रा.), 2000-01
देश |
फसलों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन (किलोग्राम में) |
||
चावल |
गेहूँ |
मूँगफली |
|
भारत |
3010 |
2780 |
860 |
चीन |
6230 |
3730 |
3330 |
ब्राजील |
3040 |
4656 |
3001 |
आस्ट्रेलिया |
8545 |
3454 |
2542 |
अमेरिका |
7040 |
7101 |
2800 |
कनाडा |
2750 |
2450 |
2750 |
फ्रांस |
6010 |
7130 |
1210 |
यू. के. |
4532 |
8010 |
1546 |
अत्यधिक जनसंख्या के कारण कृषि में निम्न उत्पादकता के कारण
इन देशों में प्रति व्यक्ति आय बहत कम तथा रहन-सहन का स्तर निम्न है। यहाँ बच्चत क्षमता
कम होने के कारण कृषि में निवेश की दर सीमित है। अल्प-विकसित देशों में कृषि की पुरानी
एवं परम्परागत तकनीकी एवं विधियों का प्रयोग निम्न उत्पादकता एवं निर्धनता के लिए उत्तरदायी
है। यहाँ की निम्न उत्पादकता एक ओर ग्रामीण जनसंख्या को निर्धन बनाती है तो दूसरी ओर
आर्थिक विकास को भी सीमित करती है। इसलिए ऐसे देशों में नीति का प्रमुख उद्देश्य कृषि
उत्पादकता में वृद्धि करके विपणन योग्य अतिरेक को बढ़ाने का होना चाहिए। विकासशील देशों
में कृषि उत्पादकता को बढ़ाने में सबसे बड़ी बाधा इन देशों का प्रतिकूल सामाजिक एवं
संस्थागत ढाँचा है। इसलिए इन देशों में वर्तमान ग्रामीण ढाँचे में बदलाव लाने तथा उसे
विकासोन्मुख बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
कृषि में संस्थागत परिवर्तन एवं आर्थिक विकास
(Structural Changes in Agriculture and Economic Development)
कोई भी राष्ट्र चाहे वह विकसित हो अथवा विकासशील उसका आर्थिक
विकास उस देश की कृषि के संस्थागत स्वरूप पर निर्भर करता है। संस्थागत स्वरूप से तात्पर्य
भूमि सम्बन्धी व्यवस्था से है। भूमि व्यवस्था से आशय ऐसे अधिकार और विम्मेदारी से है
जो किसी व्यक्ति के भूमि सम्पत्ति के रखने, अधिकार जमाने, लगान देने और प्रयोग करने
से है। कृषि विकास का भूमि व्यवस्था से घनिष्ठतम सम्बन्ध है इसलिए इसका प्रभाव आर्थिक
विकास में वृद्धि करने अथवा उसको अवरुद्ध करने का हो सकता है। यदि किसी देश में भूमि
व्यवस्था दोषपूर्ण है तो वहीं कृषि उत्पादकता कम होगी जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक विकास
की गति धीमी हो जाएगी। इसके विपरीत जिन देशों में कृषि व्यवस्था एवं भूमि सुधार कार्यक्रम
सुदृढ़ होंगे वहाँ कृषि उत्पादकता में वृद्धि होगी जिससे आर्थिक विकास को प्रोत्साहन
मिलेगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ (U.N.O.) की एक रिपोर्ट के अनुसार, "विकासशील देशों की दोषपूर्ण
काश्तकारी व्यवस्था इसके कृषिगत विकास की सबसे प्रमुख बाधा है तथा भूमि-सुधार के प्रति
जागरुकता व क्षमता की कमी निम्न उत्पादकता का कारण है। इसके परिणामस्वरूप पिछड़ी हुई
कृषि-व्यवस्था पिछड़े आर्थिक विकास का स्वरूप ग्रहण कर लेती है।" UNO की इस रिपोर्ट
के अनुसार विकासशील देशी की दोषपूर्ण भूमि व्यवस्था के कारण यहाँ निम्नलिखित दुष्परिणाम
सामने आए हैं
(i) दोषपूर्ण भूमि व्यवस्था के कारण कृषकों में उदासीनता
रहती है कारण कि असुरक्षित काश्त होने की वजह से कृषकों में उत्पादकता बढ़ाने की प्रेरणा
नहीं रहती है।
(ii) काश्तकारी व्यवस्था में कृषक को मात्र न्यूनतम जीवन
निर्वाह भर ही उपलब्ध हो पाता है। शेष उपज का एक बड़ा भाग अनुपार्जित आय के रूप में भू-स्वामी ले जाता
है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि भूमि पर निवेश की क्षमता व प्रेरणा कम होती है।
साथ ही समाज में वर्ग-विभेद का जन्म होता है जिससे समाज में तनाव बढ़ता है।
भूमि सुधार का कृषि विकास पर प्रभाव-भूमि सुधार भी कृषि विकास पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है जिसका
विवरण निम्नवत् है-
(i) भूमि सुधार कार्यक्रम कृषकों की आर्थिक स्थिति को सुधारने
में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं।
(ii) भूमि सुधार कार्यक्रम काश्तकारों को सुरक्षा प्रदान
करके भूमि विनियोग तथा स्थायी सुधार लाने की सम्भावना को बढ़ाते हैं।
(iii) भूमि सुधार कार्यक्रमों के अन्तर्गत चकवन्दी द्वारा
अनार्थिक जोतों पर रोक लगाने से कृषि क्षेत्र में यंत्रीकरण को बढ़ावा मिलता है।
(iv) भूमि सुधार से कृषि की पद्धतियों तथा श्रमिकों की कार्यकुशलता
में सुधार होता है जिससे कृषि उत्पादकता में वृद्धि होती है।
(v) भूमि सुधार से सरकारी राजस्व में भी वृद्धि होती है।
अल्प-विकसित देशों में भूमि व्यवस्था एक समस्या
(Land Tenure System in Under-developed Countries: A Problem)
"भूमि-व्यवस्था से आशय एक ऐसे अधिकार और जिम्मेदारी
से है जो किसी व्यक्ति के भूमि सम्पत्ति के रखने, अधिकार जमाने, लगान देने और प्रयोग
करने से है।" दूसरे शब्दों में, भूमि-व्यवस्था का अर्थ है कि
भूमि पर स्थायी अधिकार किस व्यक्ति का है; उस पर खेती कौन
करता है तथा लगान-निर्धारण की क्या रीतियाँ है-भूमि पर अधिकार सरकार का हो सकता या
समाज का हो सकता है- जमीदार या जागीरदार। पहली स्थिति में लगान सरकार को देना पड़ता
है तथा दूसरी स्थिति में जमींदार अथवा जागीरदार लगान पाने का अधिकारी होता है।
विकासशील देशों में प्रचलित भूमि व्यवस्था वहाँ के कृषि विकास
की सबसे बड़ी बाधा है। इन देशों की दोषपूर्ण भूमि व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित
है:
1. अनार्थिक जोतें-विकासशील देशो में भूमि पर जनसंख्या के भारी दवाव, ऊँचे
जनघनत्व तथा उत्तराधिकार के दोषपूर्ण नियमों के कारण कृषि जोतों का आकार बहुत छोटा
होता है। खेतों के छोटे व अनार्थिक होने के कारण लाभप्रद कृषि करना सम्भव नहीं है क्योकि
आधुनिक प्रविधियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता जिससे उत्पादन एवं उत्पादिता कम हो
जाती है। दूसरी ओर श्रम एवं शक्ति का भी अपव्यय होता है।
निम्न सारणी से विकसित एवं विकासशील देशों में जोत के औसत
आकार को प्रदर्शित किया जा सकता है:
सारणी 3 : विकसित एवं अल्प-विकसित देशों में जोत का औसत आकार
अल्प-विकसित देश |
जोत का आकार (हेक्टेयर
में) |
विकसित देश |
जोत का आकार (हेक्टेयर में) |
भारतवर्ष |
1.5 |
इंग्लैण्ड |
55 |
पाकिस्तान |
2.6 |
अमेरिका |
158 |
थाइलैण्ड |
3.1 |
आस्ट्रेलिया |
1993 |
इण्डानाशया |
2.8 |
फ्रांस |
67 |
भारतीय कृषि गणनाओं के आधार पर देश में कुल जोतों का
92.65% 4 हेक्टेयर से कम है। आर्थिक जोत अथवा उन्नत कृषि के अर्थ में देश में केवल
1.21% जोतें है। स्पष्ट है कि देश में कृषकों का एक बड़ा भाग गरीबी रेखा से नीचे जीवन
यापन कर रहा है। देश की बढ़ती जा रही सीमान्त एवं भूमिहीन कृषकों की संख्या भारतीय
कृषि में बढ़ती हुई कंगाली को प्रदर्शित करती है।
(2) भू-धारण की सुरक्षा का अभाव (Lack of Security of Land Tenure)- जमीदारी उन्मूलन के
पूर्व जमींदारी व्यवस्था एवं दोषपूर्ण भूमि नीतियाँ कृषि पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी
थीं क्योंकि भूमि सुधारों के प्रति उदासीनता बरती गयी। यद्यपि अब जमींदारी प्रथा का
अन्त किया जा चुका है, फिर भी स्थिति संतोषजनक नहीं है क्योंकि काश्तकार भूमि का स्वामी
नहीं है और जमीन पर खेती के बदले उसे भारी लगान देना पड़ता है। परिणामतः किसान कृषि-उत्पादिता
में कोई विशेष रुचि नहीं लेता है। इतना ही नहीं, सीमा निर्धारण की दिशा में भी कम प्रगति
हुई है। इस प्रकार, भूमि सुधारों को ठीक से लागू न करने से अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न
हो गयी है जिससे कृषि के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। प्रो. आर्थर बंग का
यह कथन पर्याप्त उचित है कि, "निजी स्वामित्व का जादू रेत को सोने में बदल सकता
है। किसी व्यक्ति को उजाड़ भूमि का सुरक्षित स्वामित्व प्रदान कर दो, वह उसे हरे-भरे
बाग में बदल देगा और उसे हरा-भरा बाग नौ साल के लिए पड्डे पर दे दो, वह उसे मरुस्थल
बना देगा।" इस प्रकार काश्त की असुरक्षा कृषकों को भूमि पर स्थायी सुधार लाकर
कृषि उत्पादन को बढ़ाने की प्रेरणा को प्रोत्साहित करती है।
(3) साख ढाँचे में अपर्याप्तता विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में कृषि साख
व्यवस्था अपर्याप्त एवं दोषपूर्ण है। अधिकांश विकासशील देश ऐसे है जहाँ आज भी महाजन,
साहूकार आदि कृषि साख के प्रमुख स्रोत बने हुए है। कृषि वित्त प्रदान करने के यह गैर-संस्थागत
स्रोत कृषकों को कड़ी शतों एवं ऊँची ब्याज दर पर ऋण देते हैं और कृषक का हर तरह से
शोषण करते हैं। परिणामस्वरूप कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता का स्तर निम्न होता जा रहा
है।
(4) भूमि का असमान वितरण (Unequal Distribution of Land) अधिकांश विकासशील देशों
में कृषकों के बीच कृषि भूमि के वितरण में अत्यधिक असमानता मिलती है। इससे इन देशो
में सामाजिक न्याय की समस्या गम्भीर बनी हुई है तथा कृषि विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न
हो रही है। हमारे देश भारत- वर्ष में भी यही स्थिति है। यहाँ वर्ष 1997-98 में
1.10% बड़े किसान थे जिनका 14.53% काश्त पर अधिकार था, जबकि 61.58% सीमान्त कृषको के
पास मात्र 17.21% कृषि योग्य भूमि थी। इस तरह जनसंख्या के एक छोटे से भाग के पास कुल
कृषि योग्य भूमि का बड़ा भाग है, जबकि अधिकांश कृषक सीमान्त एवं भूमिहीन हैं।
(5) अनुपयुक्त कीमत नीति (Inappropriate Price Policy) - उपयुक्त एवं निश्चित कृषि
नीति का अभाव भी विकासशील देशों में कृषि के पिछड़ेपन का कारण है। कृषि उपजों की कीमतों
का निर्धारण बाजार की स्वतन्व शक्तियों द्वारा होता है और कृषक इन्हीं प्रचलित बाजार
कीमतों पर अपनी उपज बेचता है। उपयुक्त कीमत नीति के अभाव में किसान अपनी उपज की पर्याप्त
आय नहीं प्राप्त कर पाते। परिणामस्वरूप उत्पादन बढ़ाने के लिए निवेश की प्रेरणा कम
रहती है और वे उदासीन हो जाते हैं।
उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अल्प-विकसित देशों में कृषि विकास को गति देने के लिए कृषि में वांछित सुधार आवश्यक हैं। इसके लिए यह जरूरी है कि इस क्षेत्र में उपयुक्त संस्थागत सुधारों की प्रक्रिया में तेजी लायी जाये तथा भूमि व्यवस्था को सामाजिक द्वाँचे के अनुरूप वैज्ञानिक आधार प्रदान किया जाये। विकास की ओर उन्मुख घनी आबादी वाले ये देश जहाँ व्यापक वेरोजगारी, अर्द्ध-बेरोजगारी विद्यमान है, कृषि विकास की अवहेलना नहीं कर सकते। सत्य तो यह है कि कृषि क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति किये बिना तीव्र आर्थिक विकास की कोई भी योजना फलीभूत नहीं हो सकती है।
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