ब्रिटिश इंडिया के वायसराय विक्टर एलेक्जेंडर व्रूस के
अनुसार, "भारत हमारे सम राज्य की दूरी है यदि हमारे साम्राज्य का कोई राज्य
अलग हो जाता है तो हम जीवित रह सकते हैं यदि हम भारत को खो देते हैं तो हमारे
साम्राज्य का सूर्य अस्त हो जाएगा।
1.1. परिचय :
भारत
आजादी के लगभग 200 वर्ष पूर्व ब्रिटिश शासन के अधीन था। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का
मुख्य उद्देश्य इंग्लैंड में तेजी से विकसित हो रहे औद्योगिक आधार के लिए भारतीय
अर्थव्यवस्था को केवल एक कच्चा माल प्रदायक तक ही सीमित रखना था। उस शासन की
अधीनता के शोषक स्वरूप को समझे बिना स्वतंत्रता के बाद के पिछले छह दशकों में,
भारत में हुए विकास का सही मूल्यांकन कर पाना संभव नहीं।
औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत निम्न स्तरीय आर्थिक विकास-
☞ अंग्रेजी शासन की स्थापना से पूर्व भारत की अपनी स्वतंत्र
अर्थव्यवस्था थी।
☞ जन सामान्य की आजीविका और सरकार की आय का मुख्य स्रोत कृषि
था।
☞ सूती और रेशमी वस्त्रों, धातु आधारित तथा बहुमूल्य मणिरत्न
आदि से जुड़े शिल्पकलाओं के उत्कृष्ट केंद्र के रूप में भारत विश्व भर में सुविख्यात
हो चुका था।
☞ औपनिवेशिक शासकों द्वारा रची गई आर्थिक नीतियों का धेय्य
भारत का आर्थिक विकास नहीं बल्कि अपने मूल देश के आर्थिक हितों का संरक्षण और संवर्धन
ही था।
☞ भारत, इंग्लैंड को कच्चे माल का पूर्ति करने तथा वहां के
बने तैयार माल का आयात करने वाला देश बन कर गया।
☞ आजादी से पूर्व राष्ट्रीय आय का अनुमान सर्वप्रथम दादा भाई
नौरोजी ने लगाया साथ ही साथ विलियम डिग्बी, फिंडले शिराज, डॉ वी. के. आर.वी राव तथा
आर.सी. देसाई राष्ट्रीय तथा प्रति व्यक्ति आय के आकलनकर्ताओं में प्रमुख थे।
☞ औपनिवेशिक काल के दौरान डॉ. राव द्वारा लगाए गए अनुमान बहुत
ही महत्वपूर्ण माने जाते हैं
1.2. कृषि क्षेत्रक-1
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत भारत मूलतः कृषि अर्थव्यवस्था
ही बना रहा। देश की लगभग 85% जनसंख्या, जो गांव में रहती थी, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप
से कृषि पर आधारित थी। औपनिवेशिक काल में कृषि उत्पादकता में कमी आई जिसके निम्नलिखित
का कारण थेः-
कृषि उत्पादकता में कमी
1.
भू व्यवस्था प्रणाली
2.
राजस्व व्यवस्था
3.
कृषि के व्यवसायीकरण
कृषि क्षेत्र में गतिहीनता का प्रमुख कारण औपनिवेशिक शासन
द्वारा लागू की गई भू- व्यवस्था प्रणाली को ही माना जाता है। आज के समस्त पूर्वी भारत
में जो उस समय बंगाल प्रेसिडेंसी कहा जाता था, लागू की गई जमीनदारी व्यवस्था में तो
कृषि कार्यों से होने वाले समस्त लाभ को जमींदार ही हड़प जाते थे, इसी कारण कृषक वर्ग
को नितांत दुर्दशा और सामाजिक तनाव को झेलने को बाध्य होना पड़ता था। राजस्व व्यवस्था
की शर्तों को भी जमींदारों के इस व्यवहार के विकास में बहुत योगदान रहा। राजस्व की
निश्चित राशि सरकार के कोष में जमा कराने की तिथियां पूर्व निर्धारित थी। किसानों की
दुर्दशा को और बढ़ाने में भी इसका बड़ा योगदान रहा। कृषि व्यवसायीकरण के कारण नकदी
फसलों की उत्पादकता के प्रमाण भी मिलते हैं। किंतु, उस उच्च उत्पादकता के लाभ भारतीय
किसानों को नहीं मिल पाते थे। क्योंकि उन्हें तो खाद्यान्न की खेती के स्थान पर नकदी
फसलों का उत्पादन करना पड़ता था, जिनका प्रयोग अंततः इंग्लैंड में लगे कर खानों में
किया जाता था।
1.3. औद्योगिक क्षेत्र-
कृषि की ही भांति औपनिवेशिक व्यवस्था के अंतर्गत भारत एक
सुदृढ़ औद्योगिक आधार का विकास भी नहीं कर पाया। इसके पीछे विदेशी शासकों का दोहरा
उद्देश्य था। एक तो वे भारत को इंग्लैंड में विकसित हो रहे आधुनिक उद्योगों के लिए
कच्चे माल का निर्यातक बनाना चाहते थे। दूसरा वे उन उद्योगों के उत्पादन के लिए भारत
को ही एक विशाल बाजार भी बनाना चाहते थे।
1. यद्यपि 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत में कुछ आधुनिक
उद्योगों की स्थापना होने लगी थी।
2. प्रारंभ में तो यह विकास केवल सूती वस्त्र और पटसन उद्योगों
को आरंभ करने तक ही सीमित था।
3. सूती कपड़ा मिले प्रायः भारतीय उद्यमियों द्वारा ही लगाई
गई थी और यह देश के पश्चिमी क्षेत्रों में ही अवस्थित थी।
4.
पटसन उद्योग की स्थापना श्रेय विदेशियों
को दिया जा सकता है। यह उद्योग केवल बंगाल प्रांत तक ही सीमित रहें
5. बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में लोहा और इस्पात उद्योग
का विकास प्रारंभ हुआ टाटा आयरन स्टील कंपनी (टिस्को) की स्थापना 1907 में हुई।
6. दूसरे विश्व युद्ध के बाद चीनी, सीमेंट, कागज आदि के कुछ
कारखाने भी स्थापित हुए।
7. भारत में भावी औद्योगिकरण को प्रोत्साहित करने हेतु पूंजीगत
उद्योगों का प्रायः अभाव बना रहा।
1.4. पूंजीगत उद्योग-
पूंजीगत उद्योग वे उद्योग होते हैं जो तत्कालिक उद्योगों
में काम आने वाली वस्तुओं के उत्पादन के लिए मशीनों और कल पुर्जों का निर्माण करते
हैं।
☞ सकल घरेलू उत्पाद में सार्वजनिक क्षेत्र का कार्यक्षेत्र
भी बहुत कम रहा वास्तव में यह क्षेत्र प्रायः रेलो, विद्युत उत्पादन, संचार, बंदरगाहों
और कुछ विभागीय उपक्रमों तक ही सीमित थे।
1.5. विदेशी व्यापार
प्राचीन समय से ही भारत एक महत्वपूर्ण व्यापारिक देश रहा है, किंतु अपने औपनिवेशिक सरकार द्वारा अपनाई गई वस्त्र उत्पादन, व्यापार और सीमा शुल्क की प्रतिबंधकारी नीतियों का भारत के विदेशी व्यापार कीसंरचना, स्वरूप औरआकार पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
परिणाम स्वरूप
1. निर्यात जैसे रेशमसूती, कपास, ऊन, चीनी, नील, और पटसन
आदि।
2. आयात जैसे सूती, रेशमी, ऊनी वस्त्रों जैसी अंतिम व उपभोक्ता
वस्तुओं और इंग्लैंड के कारखाने में बनी हल्की मशीनों आदि।
व्यावहारिक रूप से इंग्लैंड ने भारत के आयात-निर्यात व्यापार
पर अपना एकाअधिकार जमाए रखा।
☞ भारत का आधे से अधिक व्यापार तो केवल इंग्लैंड तक सीमित रहा।
☞ शेष कुछ व्यापार चीन, श्रीलंका और ईरान से भी होने दिया जाता
था।
☞ स्वेज नहर का व्यापार मार्ग खुलने से भारत के व्यापार पर
अंग्रेजी नियंत्रण और भी सख्त हो गया।
1.6. जनांकिकीय परिस्थिति-
☞ भारत में सर्वप्रथम जनगणना 1872 में लॉर्ड मेयो के समय में
की गई।
☞ भारत में विधिवत जनगणना 1881 में लार्ड रिपन के समय में की
गयी।
☞ 1921 को जनसंख्या का महान विभाजक वर्ष कहा जाता है।
☞ 1921 से पूर्व का भारत जनांकिकीय संक्रमण का प्रथम सोपान
में था।
☞ 1921 के बाद भारत में जनांकिकीय संक्रमण का द्वितीय सोपान
आरंभ हुआ।
साक्षरता दर - 16 से कम
सकल मृत्यु दर-बहुत ऊँची
शिशु मृत्यु दर-218 प्रति हजार
जीवन प्रत्याशा-44 वर्ष
औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत में अत्यधिक गरीबी व्याप्त
थी, परिणाम स्वरुप भारत की जनसंख्या की दशा और भी बदतर हो गई।
1.7 व्यावसायिक संरचना-
औपनिवेशिक
काल में विभिन्न औद्योगिक क्षेत्र को में लगे कार्यशील श्रमिकों के अनुपातिक विभाजन
में कोई परिवर्तन नहीं आया। कृषि सबसे बड़ा व्यवसाय था।
व्यावसायिक संरचना
कृषि
क्षेत्र में 70-75% जनसंख्या
विनिर्माण
क्षेत्र में 10% जनसंख्या
सेवा
क्षेत्र में 15-20% जनसंख्या
1.8. आधारिक संरचना-
औपनिवेशिक
शासन के अंतर्गत देश में रेलों, पत्तनों, जल परिवहन व डाक-तार आदि का विकास हुआ। इसका
धेय्य जनसामान्य को अधिक सुविधाएं प्रदान करना नहीं था। यह कार्य तो औपनिवेशिक हित
साधन के धेय्य से किए गए थे।
अंग्रेजों
ने 1850 में भारत में रेलों का आरंभ किया। यही उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान माना जाता
है। रेलों ने भारत की अर्थव्यवस्था की संरचना को दो महत्वपूर्ण तरीकों से प्रभावित
किया।
1.
इससे लोगों को भूक्षेत्रीय एवं सांस्कृतिक व्यवधानओं को कम कर आसानी से लंबी यात्राएं
करने के अवसर प्राप्त हुए।
2.
भारतीय कृषि के व्यवसायीकरण को बढ़ावा मिला। किंतु व्यवसायीकरण का भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्थओं
के आत्मनिर्भरता के स्वरूप पर विपरीत प्रभाव पड़ा।
सड़कों
तथा रेलों के विकास के साथ-साथ औपनिवेशिक व्यवस्था के आंतरिक व्यापार तथा समुद्री जलमार्ग
के विकास पर भी ध्यान दिया। किंतु यह उपाय बहुत संतोषजनक नहीं थे। उड़ीसा की तटवर्ती
इसका विशेष उदाहरण है। भारत में विकसित की गई महंगी तार व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य
कानून व्यवस्था को बनाए रखना ही था बल्कि डाक सेवाएं अवश्य जनसामान्य को सुविधा प्रदान
कर रही थी, किंतु यह बहुत ही अपर्याप्त थी।
1.9. निष्कर्ष-
स्वतंत्रता
प्राप्ति तक, 200 वर्षों के विदेशी शासन का प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रत्येक
आयाम पर अपनी पैठ बना चुका था। कृषि क्षेत्र पहले से ही अत्यधिक श्रम अधिशेष के भार
से लदा था। उसकी उत्पादकता का स्तर भी बहुत कम था। औद्योगिक क्षेत्र भी आधुनिकीकरण
वैविध्य, क्षमता संवर्धन और सार्वजनिक निवेश में वृद्धि की मांग कर रहा था। विदेशी
व्यापार तो केवल इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति को पोषित कर रहा था। प्रसिद्ध रेलवे नेटवर्क सहित सभी
आधारिक संरचनाओं में उन्नयन, प्रसार तथा जनोन्मुखी विकास की आवश्यकता थी। व्यापक गरीबी
और बेरोजगारी भी सार्वजनिक आर्थिक नीतियों को जन कल्याणकारी बनाने का आग्रह कर रही
थी। संक्षेप में देश में सामाजिक और आर्थिक चुनौतियां बहुत अधिक थीं।
1.10. पुनरावर्तन
☞ भारत की जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग कृषि से ही अपना आजीविका
चलाता था, किन्तु कृषि क्षेत्र गतिहीन ही रहा इसमें हास के ही प्रमाण मिले।
☞ भारत की अंग्रेजी सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियों के कारण
भारत के विश्व प्रसिद्ध हस्तकला उद्योगों का पतन होता रहा और उनके स्थान पर किसी आधुनिक
औद्योगिक आधार की रचना नहीं हो पाई।
☞ पर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव, बार-बार प्राकृतिक
आपदाओं और अकाल ने जनसामान्य को बहुत ही निर्धन बना डाला और इसके कारण उच्च मृत्यु
दर का सामना करना पड़ा।
☞ यद्यपि औपनिवेशिक हितों से प्रेरित होकर विदेशी शासकों ने
आधारिक संरचना सुविधाओं को सुधारने के प्रयास किए थे, परंतु इन प्रयासों में उनका निहित
स्वार्थ थाद्ययद्दपि स्वतंत्र भारत की सरकार ने योजनाओं के द्वारा ही आधार बनाया।
प्रश्नोत्तर
प्र.1. भारत में औपनिवेशिक शासन की आर्थिक
नीतियों का केंद्र बिंदु क्या था? उन नीतियों के क्या प्रभाव हुए?
उत्तर: औपनिवेशिक शासकों द्वारा रची गई आर्थिक नीतियों का
ध्येय भारत का आर्थिक विकास नहीं था अपितु अपने मूल देश के आर्थिक हितों का संरक्षण
और संवर्धन ही था। इन नीतियों ने भारत की अर्थव्यवस्था के स्वरूप के मूलरूप को बदल
डाला।
(क) एक तो वे भारत को इंग्लैंड में विकसित हो रहे आधुनिक
उद्योगों के लिए कच्चे माल का निर्यातक बनाना चाहते थे।
(ख) वे उन उद्योगों के उत्पादन के लिए भारत को एक विशाल बाजार
भी बनाना चाहते थे। इसके परिणामस्वरूप भारत एक खस्ताहालत अर्थव्यवस्था बनकर रह गया।
एम. मुखर्जी के अनुसार, "1857-1956 के बीच प्रतिव्यक्ति आय की वार्षिक वृद्धि
दर 0.5% प्रति वर्ष जितनी कम थी। अतः अंग्रेजी शासन के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था एक
खस्ताहालत अर्थव्यवस्थी रही। अंग्रेजी शासन समाप्त होने पर वे भारत को एक खोखली और
स्थिर अर्थव्यवस्था के रूप में छोड़कर गए।
1. निरक्षरता, जन्म दर तथा मृत्यु दर बहुत अधिक था। कुल जनसंख्या
का केवल 17% हिस्सा ही साक्षर था। इसी तरह जन्म दर तथा मृत्यु दर क्रमशः 45.2 प्रति
हजार (1931-41 के दौरान) तथा 40 प्रति हजार (1911-21 के दौरान) थी।
2.
देश संयंत्र और आर्थिक विकास के लिए आवश्यक मशीनरी के लिए लगभग पूरी तरह से अन्य देशों
पर निर्भर था। वर्तमान जीवन और गतिविधि को बनाए रखने के लिए कई आवश्यक वस्तुओं का आयात
करना पड़ता था।
3.
आजादी के समय भारत एक कृषि प्रधान देश था। कार्यरत जनसंख्या का 70-75% हिस्सा कृषि
में संलग्न था परंतु फिर भी देश खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर नहीं था।
4.
आधारिक संरचना बहुत हद तक अविकसित थी।
प्र.2. औपनिवेशिक काल में भारत की राष्ट्रीय आय का आकलन करने वाले प्रमुख
अर्थशास्त्रियों के नाम बताइए।
उत्तर
: दादा भाई नौरोजी, बी.के.आर.वी. राव, विलियम डिग्बी, फिडले शिराज, आर.सी. देसाई।
प्र.3. औपनिवेशिक शासनकाल में कृषि की गतिहीनता के मुख्य कारण क्या
थे?
उत्तर
: औपनिवेशिक शासनकाल में कृषि की गतिहीनता के मुख्य कारण इस प्रकार थे।
(क)
पट्टेदारी प्रणाली- भारत में अंग्रेजों ने एक भू-राजस्व प्रणाली
शुरू की जिससे जमींदारी प्रथा कहा गया। इसके अंतर्गत कृषकों, जमींदारों तथा सरकार के
बीच एक त्रिकोणीय संबंध स्थापित किया गया। जमींदार जमीनों के स्थायी मालिक थे जिन्हें
सरकार को एक तय राशि कर के रूप में देनी पड़ती थी। बदले में, वे कृषकों पर किसी भी
दर पर कर लगा सकते थे। इस प्रथा ने कृषको की हालत भूमिहीन मजदूरों जैसी कर दी। ऐसी
परिस्थितियों में भी वे कार्यरत रहे क्योंकि अन्य कोई रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं थे।
(ख)
कृषि के व्यावसायिकरण का प्रत्यापन- कृषकों को खाद्यान्न फसलों
को छोड़ वाणिज्यिक फसलों पर जाने के लिए मजबूर किया गया। उन्हें ब्रिटेन में विकसित
हो रहे कपड़ा उद्योग के लिए नील की आवश्यकता थी। कृषि के व्यावसायिकरण ने भारतीय कृषि
को बाजार की अनिश्चिताओं से परीचित कराया। अब उन्हें अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ खरीदने
के लिए नकदी की जरूरत थी। परंतु अपनी ऋणग्रस्तता के कारण उनके पास नकदी का सदा अभाव
रहता था। इसने उन्हें कृषि से जुड़े रहने के लिए मजबूर कर दिया तथा जमींदारों और साहूकारों
की दया पर निर्भर कर दिया।
(ग)
आधारिक संरचना की कमी- ब्रिटिश शासकों ने सिंचाई की सुविधाएँ बढ़ाने
या तकनीकी विकास करने पर कोई ध्यान नहीं दिया।
(घ)
भारत का विभाजन- भारत के विभाजन ने भी भारतीय कृषि को प्रतिकूल
रूप से प्रभावित किया। कलकत्ता की जूट मिलों तथा बंबई और अहमदाबाद के कपड़ा मिलों में
कच्चे माल की कमी हो गई। पंजाब और सिंघ जैसे अमीर खाद्यान्न क्षेत्र भी पाकिस्तान में
चले जाने से खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो गया।
प्र.4. स्वतंत्रता के समय देश में कार्य कर रहे कुछ आधुनिक उद्योगों
के नाम बताइए।
उत्तर:
टोटा आयरन और स्टील उद्योग (टिस्को) 1907 में शुरू की गई थी, देश में कार्य कर रहे
अन्य आधुनिक उद्योगों में चीनी उद्योगए इस्पात उद्योगए सीमेंट उद्योगए रसायन उद्योग
और कागज उद्योग शामिल थे।
प्र.5. स्वतंत्रता पूर्व अंग्रेजों द्वारा
भारत के व्यवस्थित वि-औद्योगीकरण का दोहरे ध्येय क्या थे?
उत्तर: भारत के व्यवस्थित वि-औद्योगीकरण का दोहरा ध्येय इस
प्रकार थाः
(क) भारत को इंग्लैंड में विकसित हो रहे आधुनिक उद्योगों के
लिए कच्चे माल का निर्यातक बनाना।
(ख) उन उद्योगों के उत्पादन के लिए भारत को एक विशाल बाजार
बनाना।
प्र.6. अंग्रेजी शासन के दौरान भारत के
परंपरागत हस्तकला उद्योगों का विनाश हुआ। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? अपने
उत्तर के पक्ष में कारण बताइए।
उत्तर: हाँ, हम इस दृष्टिकोण से पूरी तरह सहमत हैं। ब्रिटिश
नीतियाँ सदा से स्वहितों से निदेर्शित रही। ब्रिटेन ने कभी भी यह कष्ट नहीं उठाया
कि वे इस तरफ ध्यान दें कि उनकी नीतियों का भारत के लोगों पर बेरोजगार के रूप में,
मानवीय कष्टों या कृषि क्षेत्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उन्होंने भारतीय हस्तकला
उद्योगों पर भारी दर से कर लगाए ताकि भारतीय वस्त्र ब्रिटेन में बने ऊनी या रेशमी
वस्त्रों से अधिक महँगे हो जाए। उन्होंने कच्चे माल के निर्यात को तथा ब्रिटेन से
उत्पादित माल के आयात को कर मुक्त रखा। परंतु भारतीय हस्तकला उद्योगों के माल के
निर्यात पर भारी कर लगाए। इसके अतिरिक्त भारतीय हस्तशिल्प उद्योग को मशीनों से बने
सामान से भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा। इसने भारतीय हस्तशिल्प उद्योग की
बर्बादी में मुख्य भूमिका निभाई।
प्र.7. भारत में आधारिक संरचना विकास की
नीतियों से अंग्रेज अपने क्या उद्देश्य पूरा करना चाहते थे?
उत्तर : औपनिवेशिक शासनकाल में भारत में रेलों, पत्तनों, जल
परिवहन व डाक-तार आदि का विकास हुआ परंतु इसका ध्येय जनसामान्य को अधिक सुविधाएँ
प्रदान करना नहीं था अपितु इसके पीछे औपनिवेशिक हित साधने का ध्येय था।
(क) अंग्रेजी शासन से पहले बनी सड़कें आधुनिक यातायात
साधनों के लिए उपयुक्त नहीं थी। अतः सड़कों का निर्माण इसलिए किया गया ताकि देश के
भीतर उनकी सेनाओं के आवागमन की सुविधा हो सके तथा देश के भीतरी भागों से कच्चा माल
निकटतम रेलवे स्टेशन या पत्तने तक पहुँचाया जा सके।
(ख) डाक, तार तथा संचार के साधनों का विकास कुशल प्रशासन के
लिए किया गया।
(ग) एक अन्य उद्देश्य यह भी था कि अंग्रेजी धन का भारत में
लाभ अर्जित करने के लिए निवेश किया जाये।
प्र.8. ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा
अपनाई गई औद्योगिक नीतियों की कमियों की आलोचनात्मक विवेचना करें। (HOTS)
उत्तर: भारत औपनिवेशिक शासनकाल में एक शक्तिशाली औद्योगिक
ढाँचे का विकास नहीं कर सका। यह निम्न तथ्यों के आधार पर सिद्ध किया जा सकता है
(क) समान गुणवत्ता के किसी भी विकल्प के बिना हस्तकला
उद्योग में गिरावट- ब्रिटेन का
एकमात्र उद्देश्य सस्ती से सस्ती कीमतों पर भारत से कच्चा माल प्राप्त करना तथा
भारत में ब्रिटेन से आया उत्पादित माल बेचना था। भारतीय हस्तशिल्प वस्तुओं की
ब्रिटेन की मशीनों द्वारा बनाई गई वस्तुओं की तुलना में विदेशों में एक बेहतर
प्रतिष्ठा थी इसलिए उन्होंने नीतिगत रीति से आयात को शुल्क मुक्त तथा हस्तशिल्प के
निर्यात पर उच्च कर लगाकर भारतीय हस्तशिल्प उद्योग को बर्बाद कर दिया। उन्होंने इन
नीतियों से बेरोजगारी, मानवीय पीड़ा या आर्थिक वृद्धि की दर पर होने वाले प्रभाव
के प्रति कोई विचार नहीं किया।
(ख) आधुनिक उद्योग का अभाव- भारत में आधुनिक उद्योग उन्नीसवीं सदी के दूसरे छमाही के
दौरान विकसित होना शुरू हुआ। परंतु इसकी विकास दर बहुत धीमी और अवरुद्ध पूर्ण थी।
औपनिवेशिक काल के अंत तक उद्योग और प्रौद्योगिक का स्तर निम्न रहा। उन्नीसवीं सदी
के दौरान औद्योगिक विकास कपास और जूट कपड़ा मिलों तक ही सीमित था। लौह और इस्पात
उद्योग 1907 में आया जबकि चीनी, सीमेंट और कागज उद्योग 1930 के दशक में विकसित
हुए।
(ग) पूँजीगत उद्योग को अभाव- भारत में मुश्किल से ही कोई पूँजीगत उद्योग थे जो
आधुनिकीकरण को आगे बढ़ावा दे। सकें। 70% संयंत्र तथा मशीनरी का आयात किया जा रहा
था। भारत अपनी तकनीकी तथा पूँजीगत वस्तुओं की आवश्यकता के लिए आयात पर निर्भर था।
(घ) व्यावसायिक संरचना- निम्न विकास दर का सूचकः भारतीय अर्थव्यवस्था के अल्प
विकसित होने का सबूत इस बात से मिल जाता है कि कार्यशील जनसंख्या का 72% हिस्सा
कृषि में संलग्न था और 11. 9% औद्योगिक क्षेत्र में संलग्न था। राष्ट्रीय आय में
औद्योगिक क्षेत्र का हिस्सा 25.3% था जबकि कृषि का योगदान 57.6% हिस्से का था।
प्र.9. औपनिवेशिक काल में भारतीय संपत्ति के
निष्कासन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर : विदेशी शासन के अंतर्गत भारतीय आयात-निर्यात की
सबसे बड़ी विशेषता निर्यात अधिशेष का बड़ा आकार रहा। किंतु इस अधिशेष का देश के
सोने और चाँदी के प्रवाह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वास्तव में इसका उपयोग तो
निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए किया गया।
(क) अंग्रेजों की भारत पर शासन करने के लिए गढ़ी गई
व्यवस्था का खर्च उठाना।
(ख) अंग्रेजी सरकार के युद्धों पर व्यय तथा अदृश्य मदों के
आयात पर व्यय।
प्र.10. जनांकिकीय संक्रमण के प्रथम से
द्वितीय सोपान की ओर संक्रमण का विभाजन वर्ष कौन-सा माना जाता है?
उत्तर: 1921.
प्र.11. औपनिवेशिक काल में भारत की जनांकिकीय
स्थिति को एक संख्यात्मक चित्रण प्रस्तुत करें। उत्तर :
(क) उच्च जन्म दर और मृत्यु दर- भारत जनांकिकीय संक्रमण के दूसरे चरण में था। अतः उच्च
जन्म दर और गिरती मृत्यु दर के कारण इसे "जनसंख्या विस्फोट का सामना करना पड़
रहा था।
(ख) निम्न स्तरीय गुणात्मक- पहलू जनसंख्या के गुणात्मक पहलू भी कुछ उत्साहजनक नहीं
रहे।
1. उच्च शिशु मृत्यु दर- स्वतंत्रता के समय शिशु मृत्यु दर 218 प्रति हजार जितना
उच्च था।
2. व्यापक निरक्षरता- औसतन साक्षरता दर 16.5% से कम थी। केवल 7% महिलाएँ साक्षर
थीं।
3. निम्नस्तरीय जीवन प्रत्याशा- जीवन प्रत्याशा मात्र 32 वर्ष थी, जो नितांते अपर्याप्त
स्वास्थ्य सुविधाओं का संकेत है।
4. व्यापक गरीबी तथा निम्न जीवन स्तर- लोगों को अपनी आय का 80-90% हिस्सा आधारभूत आवश्यकताओं पर खर्च
करना पड़ रहा था। कुल जनसंख्या का 52% हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे था। देश के कुछ हिस्सों
में अकाल समान स्थितियों का सामना करना पड़ रहा था।
प्र.12. स्वतंत्रता पूर्व भारत की जनसंख्या की
व्यावसायिक संरचना की प्रमुख विशेषताएँ समझाइये ।
उत्तर : अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के बीच कार्यबल के
वितरण को उस देश की व्यावसायिक संरचना कहा जाता है। स्वतंत्रता पूर्व भारत की जनसंख्या
की व्यावसायिक संरचना की प्रमुख विशेषताओं को निम्न तथ्यों से जाना जा सकता है।
(a) कृषि क्षेत्र की प्रधानता- कृषि क्षेत्र अर्थव्यवस्था की व्यावसायिक संरचना में सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण था। भारत की कार्यशील जनसंख्या का 70-75% हिस्सा कृषि में संलग्न था,
10% हिस्सा औद्योगिक क्षेत्र तथा 15-20% हिस्सा सेवा क्षेत्र में संलग्न था।
(b) बढ़ रही क्षेत्रीय असमानता- व्यावसायिक संरचना में क्षेत्रीय विविधताएँ बढ़ रही थी। तमिलनाडु,
आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक (जो उस समय मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा थे) जैसे राज्यों
में कार्यबल की कृषि पर निर्भरता कम हो रही थी जबकि उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान में कृषि
पर निर्भर कार्यबल में वृद्धि हो रही थी।
प्र.13. स्वतंत्रता के समय भारत के समक्ष उपस्थित
प्रमुख आर्थिक चुनौतियों को रेखांकित करें।
उत्तर : शोषक औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन ने भारतीय अर्थव्यवस्था
के हर क्षेत्र को बुरी तरह से बर्बाद कर दिया। अंततः परिणामस्वरूप भारत को स्वतंत्रता
के समय विशाल आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। भारतीय अर्थव्यवस्था को जिन चुनौतियों
का सामना करना पड़ा उनमें से मुख्य इस प्रकार हैं
(क) कृषि उत्पादकता का निम्न स्तर- औपनिवेशिक शासन के दौरान अंग्रेजों ने भारतीय कृषि को अपने
हितों के अनुसार इस्तेमाल किया। परिणामस्वरूप कृषि क्षेत्र को गतिहीनता, निम्न उत्पादकता
स्तर निवेश का अभाव, भूमिहीन किसानों की खस्ताहालत जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा।
इसीलिए भारत के लिए तत्कालिक समस्या यह थी कि वह कृषि क्षेत्र तथा इसकी उत्पादकता का
विकास किस प्रकार करे। स्वतंत्रता के समय कुछ तत्कालिक जरूरत इस प्रकार थी जमींदारी
प्रथा का उन्मूलन करना, भूमि सुधार नीतियाँ बनाना, भूमि के स्वामित्व की असमानताओं
को कम करना तथा किसानों का उत्थान करना।
(ख) बाल्यकालीन औद्योगिक क्षेत्र- कृषि की ही भाँति भारत एक सुदृढ़ औद्योगिक आधार का विकास नहीं
कर पाया। औद्योगिक क्षेत्र का विकास करने के लिए भारत को विशाल पूँजी, निवेश, आधारिक
संरचना मानव कुशलताएँ, तकनीकी ज्ञान तथा आधुनिक तकनीक की आवश्यकता थी। इसके अलावा,
ब्रिटिश उद्योगों से कड़ी प्रतिस्पर्धा के कारण भारतीय घरेलू उद्योग बने रहने में विफल
रहे। इस प्रकार लघु और बड़े उद्योगों को एक साथ अपने औद्योगिक क्षेत्र में विकसित करना
भारत के लिए एक मुख्य चिंता का विषय था। इसके अलावा भारत में सकल घरेलू उत्पाद में
औद्योगिक क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ाने की जरूरत थी जो भारत के लिए महत्त्वपूर्ण आर्थिक
चुनौतियों में से एक था।
(ग) आधारिक संरचना में कमी- हालाँकि देश की आधारिक संरचना में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन
किया गया। परंतु यह कृषि और औद्योगिक क्षेत्र के प्रदर्शन में सुधार करने के लिए पर्याप्त
नहीं था। इसके अतिरिक्त, उस समय के बुनियादी ढाँचे को आधुनिकीकरण की जरूरत थी।
(घ) गरीबी और असमानता- भारत गरीबी और असमानता के दुष्चक्र में फँस गया था। ब्रिटिश शासन ने भारतीय धन
का एक महत्त्वपूर्ण भाग ब्रिटेन की ओर निष्कासित कर दिया। परिणामस्वरूप, भारत की आबादी
का एक बहुसंख्यक हिस्सा गरीबी से पीड़ित था। इसके कारण देशभर में आर्थिक असमानताओं
को और अधिक बढ़ावा मिला।
प्र.14. भारत में प्रथम सरकारी जनगणना किस वर्ष
में हुई थी?
उत्तर: 1881.
प्र.15. स्वतंत्रता के समय भारत के विदेशी व्यापार
के परिमाण और दिशा की जानकारी दें।
उत्तर : औपनिवेशिक शासनकाल में, अंग्रेजों ने एक भेदभावपूर्ण
कर नीति का पालन किया जिसके अंतर्गत उन्होंने भारत के लिए अंग्रेजी उत्पादों का आयात
तथा अंग्रेजों को कच्चे माल का निर्यात कर मुक्त कर दिया। जबकि भारत के हस्तशिल्प उत्पादों
पर भारी शुल्क (निर्यात शुल्क) लगाए गए। इससे भारतीय निर्यात महँगे हो गए और इसकी अंतर्राष्ट्रीय
माँग तेजी से गिर गई।
औपनिवेशिक शासनकाल में भारत कच्चे उत्पाद जैसे रेशम, कपास, ऊन,
चीनी, नील और पटसन आदि का निर्यातक होकर रह गया। साथ ही यह इंग्लैंड के कारखानों में
बनी हल्की मशीनों तथा सूती, रेशमी, ऊनी वस्त्र जैसे अंतिम उपभोक्ता वस्तुओं का आयातक
भी हो गया। व्यवहारिक रूप से भारत के आयात-निर्यात पर अंग्रेजों का एकाधिकार हो गया।
अतः भारत का आधे से अधिक आयात-निर्यात ब्रिटेन के लिए आरक्षित हो गया तथा शेष आयात-निर्यात
चीन, फ्रांस, श्रीलंका की ओर निर्देशित कर दिया गया। इसके अतिरिक्त स्वेज नहर के खुलने
के बाद तो भारतीय विदेशी व्यापार पर ब्रिटेन का अधिपत्य और भी जम गया। स्वेज नगर से
ब्रिटेन और भारत के बीच में माल लाने और ले जाने की लागत में भारी कमी आई। भारत का
विदेशी व्यापार अधिशेष उपार्जित करता रहा परंतु इस अधिशेष को भारतीय अर्थव्यवस्था में
निवेश नहीं किया गया बल्कि यह प्रशासनिक और युद्ध उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया
गया था। इससे भारतीय धन का ब्रिटेन की ओर पलायन हुआ।
प्र.16. क्या अंग्रेजों ने भारत में कुछ सकारात्मक
योगदान भी दिया था? विवेचना करें।
उत्तर: यह कहना अनुचित होगा कि अंग्रेजों ने भारत में कुछ सकारात्मक
योगदान दिया था अपितु कुछ सकारात्मक प्रभाव उनकी स्वार्थपूर्ण नीतियों के सह उत्पाद
के रूप में उपलब्ध हो गये। ये योगदान इच्छापूर्ण तथा नीतिबद्ध नहीं थे बल्कि अंग्रेजों
की शोषक औपनिवेशिक नीतियों का सह उत्पाद थे। अतः अंग्रेजों द्वारा भारत में ऐसे कुछ सकारात्मक योगदान इस
प्रकार हैं
(क) रेलवे का आरंभ- अंग्रेजी
सरकार द्वारा भारत में रेलवे का आरंभ भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी उपलब्धि था।
इसने सभी प्रकार की भौगोलिक तथा सांस्कृतिक बाधाओं को दूर किया तथा कृषि के व्यवसायीकरण
को संभव किया।
(ख) कृषि के व्यावसायिकरण का आरंभ- अंग्रेजी सरकार द्वारा कृषि का व्यावसायीकरण भारतीय अर्थव्यवस्था
के लिए एक अन्य बड़ी उपलब्धि था। भारत में अंग्रेजी शासन आने से पूर्व, भारतीय कृषि
स्वपोषी प्रकृति की थी। परंतु कृषि के व्यावसायीकरण के उपरांत कृषि उत्पादन बाजार की
जरूरतों के अनुसार हुआ। यही कारण है कि आज भारत खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर होने के
लक्ष्य को प्राप्त कर पाया है।
(ग) आधारिक संरचना का विकास- अंग्रेजों द्वारा विकसित आधारिक ढाँचे ने देश में अकाल के फैलने
को रोकने में विशेष योगदान दिया है। टेलीग्राम तथा डाक सेवाओं ने भी भारतीय जनता को
सुविधाएँ दी।।
(घ) शिक्षा का प्रोत्साहन तथा कुछ सामाजिक सुधार- अंग्रेजी भाषा में भारत में पाश्चात्य शिक्षा को प्रोत्साहित
किया। अंग्रेजी भाषा भारत के बाहर की दुनिया को जानने के लिए एक खिड़की बनी। इसने भारत
को विश्व के अन्य हिस्सों से जोड़ा। अंग्रेजों ने भारत में सती प्रथा भी प्रतिबंधित
की और विधवा पुनर्विवाह अधिनियम की भी उद्घोषणा की।
(ङ) भारत का एकीकरण- अंग्रेजी शासन से पूर्व भारत छोटे-छोटे राज्यों तथा सीमाओं में बँटा हुआ था। आजादी
के युद्ध के नाम पर अंग्रेज भारत तथा भारतीयों को एकीकृत करने का एक कारण बन गये।
(च) एक कुशल तथा शक्तिशाली प्रशासन का उदाहरण- अंग्रेजों ने अपने पीछे एक कुशल और शक्तिशाली प्रशासन का उदाहरण रख छोड़ा जिसका भारतीय नेता अनुसरण कर सकते थे।
JCERT/JAC REFERENCE BOOK
विषय सूची
Group-B भारतीय अर्थव्यवस्था