11th 3. उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण: एक समीक्षा Indian Economy JCERT/JAC Reference Book

11th 3. उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण: एक समीक्षा Indian Economy JCERT/JAC Reference Book

11th 3. उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण: एक समीक्षा Indian Economy JCERT/JAC Reference Book

1.1. परिचय :-

आर्थिक सुधार का अर्थ -

सरकार ने जुलाई, 1991 के बाद से देश को आर्थिक संकट से निकालने तथा आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने के लिए निम्नलिखित आर्थिक सुधार (Economic Reforms) अथवा आर्थिक नीतिगत उपाय अपनाये

(1) नियन्त्रित व्यवस्था अर्थात् लाइसेंसिंग प्रणाली के स्थान पर उदारीकरण (Liberalisation) की नीति।

(2) सार्वजनिक क्षेत्र को संकुचित कर निजीकरण (Privatisation) को बढ़ावा देने की नीति।

(3) आयात और निर्यात विस्तार के लिए संरक्षणवादी प्रणाली के स्थान पर वैश्वीकरण (Globalisation) की नीति।

उपर्युक्त सुधारों को 'नई आर्थिक नीति' (New Economic Policy) अथवा L-P-G- (Liberalisation, Privatisation and Globalisation) नीति अथवा 'यू-टर्न नीति' (U-Turn Policy) कहा गया है। नीतियों के यू-टर्न (U-Turn) से आशय अपनाई गई नई नीतियों का पहले से अपनाई गई नीतियों से बिल्कुल विपरीत (उल्टा) होना है।

वैश्वीकरण भूमंडलीकरण Liberalisation - LPG

निजीकरण (Privatisation)

उदारीकरण (Globalisation)

1.2. पृष्ठभूमि -

नब्बे के दशक का आरम्भ भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए आर्थिक संकट लेकर आया। भारतीय अर्थव्यवस्था में अनेक आर्थिक असंतुलन के घटक सामने आये, जिनके समाधान के लिए अर्थव्यवस्था में आर्थिक सुधारों की आवश्यकता अनुभव की गई। भारतीय अर्थव्यवस्था में उत्पन्न हुए प्रमुख आर्थिक असंतुलन निम्नवत् थे।

(1) सरकार के बढ़ते गैर-विकासात्मक व्यय के कारण देश में राजकोषीय घाटा तेजी से बढ़ रहा था। वर्ष 1990-91 में यह 8.4% के ऊँचे स्तर पर था।

(2) भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता बढ़ रही थी। निर्यातों की कमी एवं आयातों की उत्तरोत्तर वृद्धि ने देश के भुगतान संतुलन के चालू घाटे को संकट के बिन्दु तक पहुँचा दिया था।

(3) विदेशी ऋण भार उत्तरोत्तर बढ़ रहा था। 1990-91 में भारत पर विदेशी कर्ज GDP के 23% के ऊँचे स्तर तक पहुँच गये थे। परिणामस्वरूप विश्व बैंक एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष सहित अनेक अन्तराष्ट्रीय संस्थाएँ भारत को ऋण देने में हिचक रही थीं।

(4) मुद्रा स्फीति लगभग 18% तक के ऊँचे स्तर तक पहुँच गई थी।

(5) सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम सरकार के लिए वित्तीय स्रोत एकत्रित करने में असमर्थ थे। अनेक सार्वजनिक उपक्रम घाटे में चल रहे थे।

(6) भारत में 1990-91 में विदेशी मुद्रा कोष इतना कम था जो दो सप्ताह के आयात के लिए भी पर्याप्त नहीं था। फलस्वरूप भारत को विदेशी ऋण सेवा भुगतान के लिए देश के केन्द्रीय बैंक के सोने तक को विदेशी बैंकों में गिरवी रखना पड़ा।

इस प्रकार 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था एक बीमार, असंतुलित एवं लड़खड़ाई हुई अर्थव्यवस्था थी जिसके उपचार के लिए देश में आर्थिक सुधारों के दौर को आवश्यक समझा गया।

भारत ने 'अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और विकास बैंक' (IBRD) जिसे सामान्यतः 'विश्व बैंक' के नाम से भी जाना जाता है और 'अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष' (IMF) का दरवाजा खटखटाया। उनसे देश को 7 बिलियन डॉलर का ऋण उस संकट का सामना करने के लिए मिला। किंतु, उस ऋण को पाने के लिए इन संस्थाओं ने भारत सरकार पर कुछ शर्तें लगायी जैसे सरकार उदारीकरण करेगी, निजी क्षेत्र पर लगे प्रतिबंधों को हटाएगी तथा अनेक क्षेत्रों में सरकारी हस्तक्षेप कम करेगी। साथ ही यह भी अपेक्षा की गई कि भारत और अन्य देशों के बीच विदेशी व्यापार पर लगे प्रतिबंध भी हटाए जायेंगे।

भारत ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की ये शर्ते मान लीं और नई आर्थिक नीति की घोषणा की। इस नई आर्थिक नीति में व्यापक आर्थिक सुधारों को सम्मिलित किया गया। इन नीतियों को दो उपसमूहों में विभाजित किया जा सकता है -

1. स्थायित्वकारी उपाय।

2. संरचनात्मक सुधार के उपाय।

1. स्थायित्वकारी उपाय- स्थायित्वकारी उपाय अल्पकालिक होते हैं, जिनका उद्देश्य भुगतान संतुलन में आ गई कुछ त्रुटियों को दूर करना और मुद्रास्फीति का नियंत्रण करना था। सरल शब्दों में, इसका अर्थ पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार बनाए रखने और बढ़ती हुई कीमतों पर अंकुश रखने की आवश्यकता थी।

2. संरचनात्मक सुधार के उपाय- संरचनात्मक सुधार वे दीर्घकालिक उपाय हैं, जिनका उद्देश्य अर्थव्यवस्था की कुशलता को सुधारना तथा अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रकों की अनम्यताओं को दूर कर भारत की अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा क्षमता को संवर्धित करना है। इस दृष्टि से सरकार ने अनेक नीतियाँ प्रारंभ कीं।

1.3. उदारीकरण :-

उदारीकरण का अर्थ ऐसे नियंत्रण में ढील देना या उन्हें हटा लेना है, जिससे आर्थिक विकास को बढ़ावा मिले। उदारीकरण में वे सारी क्रियाएँ सम्मिलित हैं। जिसके द्वारा किसी देश के आर्थिक विकास में बाधा पहुँचाने वाली आर्थिक नीतियों, नियमों, प्रशासनिक नियंत्रणों, प्रक्रियाओं आदि को समाप्त किया जाता है या उनमें शिथिलता दी जाती है, उदारीकरण कहलाता है।

उदारीकरण के अंतर्गत निम्नलिखित क्षेत्रों में सुधार किए गए -

1. औद्योगिक क्षेत्र में सुधार

2. वित्तीय क्षेत्र में सुधार

3. कर क्षेत्र में सुधार

4. विदेशी विनिमय बाजार में सुधार

5. व्यापार तथा निवेश क्षेत्र में सुधार

1.3.1. औद्योगिक क्षेत्र में सुधार :-

1991 के बाद से आरंभ हुई सुधार नीतियों ने अनेक प्रतिबंधों को समाप्त कर दिया। एल्कोहल, सिगरेट, जोखिम भरे रसायनों, औद्योगिक विस्फोटकों, इलेक्ट्रोनिकी, विमानन तथा औषधि-भेषजय इन छः उत्पाद श्रेणियों को छोड़ अन्य सभी उद्योगों के लिए लाइसेंसिंग व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया।

अब सार्वजनिक क्षेत्रक के लिए सुरक्षित उद्योगों में भी केवल प्रतिरक्षा उपकरण के कुछ अंश, परमाणु ऊर्जा उत्पादन और रेल परिवहन ही बचे हैं।

लघु उद्योगों द्वारा उत्पादित अनेक वस्तुएँ भी अब अनारक्षित श्रेणी में आ गई हैं।

अनेक उद्योगों में अब बाजार को कीमतों के निर्धारण की अनुमति मिल गई है।

1.3.2. वित्तीय क्षेत्र में सुधार :-

• वित्त के क्षेत्रक में व्यावसायिक और निवेश बैंक, स्टॉक एक्सचेंज तथा विदेशी मुद्रा बाजार जैसी वित्तीय संस्थाएँ सम्मिलित हैं। भारत में वित्तीय क्षेत्रक का नियमन रिजर्व बैंक का दायित्व है। भारतीय रिजर्व बैंक के विभिन्न नियम और कसौटियों के माध्यम से ही बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थानों के कार्यों का नियमन होता है।

• रिजर्व बैंक को इस क्षेत्रक के नियंत्रक की भूमिका से हटाकर उसे इस क्षेत्रक के एक सहायक की भूमिका तक सीमित कर दिया गया है। इसका अर्थ है कि वित्तीय क्षेत्रक रिजर्व बैंक से सलाह किए बिना ही कई मामलों में अपने निर्णय लेने में स्वतंत्र हो जाएगा।

• सुधार नीतियों ने ही वित्तीय क्षेत्रक में भारतीय और विदेशी निजी बैंकों को भी पदार्पण करने का अवसर दिया। बैंकों की पूँजी में विदेशी भागीदारी की सीमा 50 प्रतिशत कर दी गई।

• कुछ निश्चित शर्तों को पूरा करनेवाले बैंक अब रिजर्व बैंक की अनुमति के बिना ही नई शाखाएँ खोल सकते हैं तथा पुरानी शाखाओं के जाल को अधिक युक्तिसंगत बना सकते हैं।

• विदेशी निवेश संस्थाओं (FII) तथा व्यापारी बैंक, म्युचुअल फंड और पेंशन कोष आदि को भी अब भारतीय वित्तीय बाजारों में निवेश की अनुमति मिल गई है।

1.3.3. कर क्षेत्र में सुधार :-

इन सुधारों का संबंध सरकार की कराधान और सार्वजनिक व्यय नीतियों से है, जिन्हें सामूहिक रूप से राजकोषीय नीतियाँ भी कहा जाता है। कर के दो प्रकार होते हैं-

1. प्रत्यक्ष कर:-

प्रत्यक्ष कर व्यक्तियों की आय और व्यावसायिक उद्यमों के लाभ पर लगाए जाते हैं। 1991 के बाद से व्यक्तिगत आय पर लगाए गए करों की दरों में निरंतर कमी की गई है। इसके पीछे मुख्य धारणा यह थी कि उच्च कर दरों के कारण ही कर वंचन होता है। अब यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि करों की दरें अधिक ऊँची नहीं हों, तो बचतों को बढ़ावा मिलता है और लोग स्वेच्छा से अपनी आय का विवरण दे देते हैं। निगम कर की दर, जो पहले बहुत अधिक थी, धीरे-धीरे कम कर दी गई है।

2. अप्रत्यक्ष कर :-

• अप्रत्यक्ष करों में भी सुधार के प्रयास किए जा रहे हैं जैसे, वस्तुओं और सेवाओं पर लगाये गये कर-ताकि सभी वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए एक साझे राष्ट्रीय स्तर के बाजार की रचना की जा सके।

• हाल ही में अप्रत्यक्ष कर प्रणाली को एकीकृत एवं सरल बनाने के लिए भारतीय संसद द्वारा वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम-2016 (जी.एस.टी. - 2016) कानून को पारित किया गया। यह कानून जुलाई 2017 से लागू हुआ। इसके द्वारा सरकार को अतिरिक्त आय प्राप्त होने की, कर-वंचन कम होने की तथा 'एक राष्ट्र, एक टैक्स, एक बाजार' का निर्माण होने की आशा है।

1.3.4. विदेशी विनिमय बाजार में सुधार :-

विदेशी क्षेत्रक में पहला सुधार विदेशी विनिमय बाजार में किया गया था। 1991 में भुगतान संतुलन की समस्या के तत्कालिक निदान के लिए अन्य देशों की मुद्रा की तुलना में रुपये का अवमूल्यन किया गया। इससे देश में विदेशी मुद्रा के आगमन में वृद्धि हुई। इसके अंर्तगत विदेशी विनिमय बाजार में रुपये के मूल्य के निर्धारण को भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने की पहल की गई। अब तो प्रायः बाजार ही विदेशी मुद्रा की माँग और पूर्ति के आधार पर विनिमय दरों को निर्धारित कर रहा है।

1.3.5. व्यापार तथा निवेश क्षेत्र में सुधार :-

अर्थव्यवस्था में औद्योगिक उत्पादों और विदेशी निवेश तथा प्रौद्योगिकी की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा की क्षमता को प्रोत्साहित करने के लिए व्यापार और निवेश व्यवस्थाओं का उदारीकरण प्रारंभ किया गया। इस कार्यक्रम का एक उद्देश्य स्थानीय उद्योगों की कार्यकुशलता को सुधारना और उन्हें आधुनिक प्रौद्योगिकी को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना भी था।

व्यापार नीतियों के सुधारों के लक्ष्य थे-

(क) आयात और निर्यात पर परिमाणात्मक प्रतिबंधों की समाप्ति,

(ख) प्रशुल्क दरों में कटौती

(ग) आयातों के लिए लाइसेंस प्रक्रिया की समाप्ति।

हानिकारक और पर्यावरण संवेदी उद्योगों के उत्पादों को छोड़, अन्य सभी वस्तुओं पर से आयात लाइसेंस व्यवस्था समाप्त कर दी गई। अप्रैल, 2001 से कृषि पदार्थों और औद्योगिक उपभोक्ता पदार्थों के आयात भी मात्रात्मक प्रतिबंधों से मुक्त कर दिए गए। भारतीय वस्तुओं का अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में स्पर्धा शक्ति बढ़ाने के लिए उन्हें निर्यात शुल्क से मुक्त कर दिया गया है।

भारतीय रुपये का अवमूल्यन (Devaluation of Indian Rupee)

जब सरकार स्वयं अपनी देश की मुद्रा का मूल्य दूसरे देश की मुद्रा की तुलना में घटा देती है, तब इसे अवमूल्यन कहा जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य निर्यातों को बढ़ाना तथा आयात को कम करना है।

• भारत में पहला अवमूल्यन 1949 में हुआ।

• दूसरा अवमूल्यन जून, 1966 में किया गया।

• तीसरी बार भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन जुलाई, 1991 में तीन चरणों में किया गया।

1. प्रथम चरण 1 जुलाई, 1991

2. द्वितीय चरण-3 जुलाई, 1991

3. तृतीय चरण 15 जुलाई, 1991

1991 के अवमूल्यन का मुख्य उद्देश्य निर्यात बढ़ाने, आयात घटाने तथा भारत से पूँजी पलायन को रोकना था।

1.4. निजीकरण :-

निजीकरण से तात्पर्य है, किसी सार्वजनिक उपक्रम के स्वामित्व या प्रबंधन का सरकार द्वारा त्याग।

सरकारी कंपनियां, निजी क्षेत्रक की कंपनियों में दो प्रकार से परिवर्तित हो रही है-

(क) सरकार का सार्वजनिक कंपनी के स्वामित्व और प्रबंधन से बाहर हो जाना।

(ख) सार्वजनिक क्षेत्रक की कंपनियों को सीधे बेच दिया जाना।

• किसी सार्वजनिक क्षेत्रक के उद्यमों द्वारा जनसामान्य को इक्विटी की बिक्री के माध्यम से निजीकरण को विनिवेश कहा जाता है। सरकार को लगता है कि इस प्रकार की बिक्री करने से वित्तीय अनुशासन बढ़ेगा और आधुनिकीकरण में सहायता मिलेगी।

• सार्वजनिक उपक्रमों की कुशलता बढ़ाने, उनके प्रबंधन में व्यावसायीकरण लाने और उनकी स्पर्धा क्षमता में प्रभावी सुधार लाने के लिए सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का चयन कर उन्हें 'महारत्न, नवरत्न और लघुरत्न' घोषित कर दिया। उन्हें कंपनी के कुशलतापूर्वक संचालन और लाभ में वृद्धि करने के लिए प्रबंधन और संचालन कार्यों में अधिक स्वायत्तता दी गई थी। लाभ कमा रहे उपक्रमों को भी अधिक परिचालन, वित्तीय और प्रबंधकीय स्वायत्तता प्रदान कर दी गई।

केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्रक उद्योगों को भिन्न पद प्रदान किये गए हैं। भिन्न पद वाले सार्वजनिक उद्योगों के उदाहरण इस प्रकार हैं।

(i) महारत्न-

(अ) इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड

(ब) स्टील ऑथोरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड

(ii) नवरत्न

(अ) हिन्दुस्तान एरोनोटिक्स लिमिटेड

(ब) महानगर टेलिफोन निगम लिमिटेड

(iii) लघुरत्न-

(अ) भारत संचार निगम लिमिटेड

(ब) एयरपोर्ट ऑथोरिटी ऑफ इण्डिया

(स) इंडियन रेलवे केटरिंग और टूरिज्म कॉरपोरेशन लिमिटेड ।

• वर्तमान में भारत में 11 महारत्न कम्पनियाँ, 13 नवरत्न कम्पनियाँ हैं और 73 मिनीरत्न कंपनियों को श्रेणी 1 और श्रेणी 2 में बांटा गया है।

1.5. वैश्वीकरण:-

वैश्वीकरण का तात्पर्य विश्व के विभिन्न समाजों और अर्थव्यस्थाओं के एकीकरण से है। यह उत्पादों, विचारों, दृष्टिकोणों, विभिन्न सांस्कृतिक पहलुओं आदि के आपसी विनिमय के परिणाम से उत्पन्न विचार है। इसके कारण विश्व में विभिन्न लोगों, क्षेत्रों एवं देशों के मध्य अन्तः निर्भरता में वृद्धि होती है।

वैश्वीकरण का उपयोग अक्सर आर्थिक वैश्वीकरण के सन्दर्भ में किया जाता है, अर्थात् व्यापार, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश, पूँजी प्रवाह, प्रवास और प्रौद्योगिकी के प्रसार के माध्यम से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का अन्तरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं में एकीकरण।

अर्थशास्त्रियों के अनुसार विश्वव्यापीकरण (Globalisation) के निम्न चार अंग हैं-

(1) व्यापार अवरोधकों (Trade Barriers) को कम करना, ताकि वस्तुओं का विभिन्न देशों में बेरोकटोक आदान-प्रदान हो सके।

(2) ऐसी परिस्थिति कायम करना जिसमें विभिन्न राज्यों में पूँजी का स्वतन्त्र रूप से प्रवाह हो सके।

(3) ऐसा वातावरण कायम करना कि टेक्नॉलॉजी (Technology) का निर्बाध प्रवाह हो।

(4) ऐसा वातावरण कायम करना जिसमें विश्व के विभिन्न देशों में श्रम का निर्बाध प्रवाह हो सके।

1.6. विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organization)

विश्व व्यापार संगठन का गठन :-

WTO को वर्ष 1947 में संपन्न हुए 'प्रशुल्क एवं व्यापार पर सामान्य समझौते' (GeneralAgreement on Tariffs and Trade GATT) के स्थान पर अपनाया गया।

WTO के निर्माण की पृष्ठभूमि गैट के उरुग्वे दौर (वर्ष 1986-94) की वार्ता में तैयार हुई तथा 1 जनवरी, 1995 को WTO द्वारा कार्य शुरू किया गया।

जिस समझौते के तहत WTO की स्थापना की गई उसे "मारकेश समझौते" के रूप में जाना जाता है। इसके लिये वर्ष 1994 में मोरक्को के मारकेश में हस्ताक्षर किये गए।

WTO का मुख्यालय स्विट्जरलैंड के जिनेवा में स्थित है।

WTO में यूरोपीय संघ सहित 164 सदस्य देश शामिल हैं तथा ईरान, इराक, भूटान, लीबिया आदि 23 देशों को पर्यवेक्षक का दर्जा प्राप्त है।

भारत वर्ष 1947 में GATT तथा WTO का संस्थापक सदस्य देश बना।

1.6.1. विश्व व्यापार संगठन के उद्देश्य :-

किसी देश को अपने व्यापार भागीदारों के बीच भेदभाव नहीं करना चाहिए और इसे अपने और विदेशी उत्पादों, सेवाओं और नागरिकों के बीच भी भेदभाव नहीं करना चाहिए।

व्यापार को प्रोत्साहित करने के सबसे स्पष्ट तरीकों में से एक है व्यापार बाधाओं को कम करना। सीमा शुल्क (टैरिफ) और आयात प्रतिबंध या कोटा, एंटी डंपिंग शुल्क आदि इन बाधाओं में शामिल हैं।

यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विदेशी कंपनियों, निवेशकों और सरकारों के लिए व्यापार बाधाओं को मनमाने ढंग से नहीं बढाया जाय। स्थिरता एवं पूर्वानुमेयता के साथ निवेश प्रोत्साहित होता है, रोजगार के अवसर बनते हैं और उपभोक्ता प्रतिस्पर्धा का पूरी तरह से लाभ पसंद और कम कीमत, उठा सकते हैं।

• 'अनुचित' प्रथाओं को हतोत्साहित करना, जैसे बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए निर्यात सब्सिडियों और डंपिंग उत्पादों की लागत कम कर देना।

• डब्ल्यूटीओ के समझौते सदस्यों को न सिर्फ पर्यावरण बल्कि जन स्वास्थ्य, पशु स्वास्थ्य एवं ग्रह के स्वास्थ्य के सरंक्षण के उपाय करने की अनुमति देते हैं। हालांकिए ये उपाय राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय व्यापार दोनों ही पर एक ही तरीके से लागू किए जाने चाहिए।

• विकासशील देशों को वैश्विक व्यापार प्रणाली से पूरी तरह से लाभान्वित होने में सहयोग करना।

• अंतर्राष्ट्रीय व्यापार हेतु नियमों को निर्धारित करना और लागू करना।

1.7. सुधारकालीन भारतीय व्यवस्था अर्थव्यवस्था एक समीक्षा

• अब तो सुधार कार्यक्रम को आरंभ हुए डेढ़ दशक हो चुके हैं। आइए, इस अवधि में भारतीय अर्थव्यवस्था के निष्पादन की समीक्षा करें। अर्थशास्त्री किसी अर्थव्यवस्था की संवृद्धि का मापन सकल घरेलू उत्पाद द्वारा करते हैं। 1991 के बाद से भारत में दो दशकों तक सकल घरेलू उत्पाद की लगातार वृद्धि होती रही। सकल घरेलू उत्पाद 1980-91 में 5.6 प्रतिशत से बढ़कर 2007-2012 में 8.2 प्रतिशत हो गई।

• आर्थिक सुधारों की अवधि में कृषि की वृद्धि में कमी आयी। जहाँ औद्योगिक क्षेत्रक में उतार-चढ़ाव हुए, वहीं सेवा क्षेत्रक में वृद्धि बढ़ गई। इससे यह पता चलता है कि वृद्धि मुख्यतः सेवा क्षेत्रक में वृद्धि के कारण हुई है। 2012-15 की अवधि में विभिन्न क्षेत्रकों में 1991 के बाद से होने वाली वृद्धि दरों में रुकावट आयी। जहाँ 2013-14 में कृषि की वृद्धि दर में बढ़ोतरी से आयी, वहीं बाद के वर्षों में इस क्षेत्रक की वृद्धि दर ऋणात्मक हो गई। सेवा क्षेत्रक में ऊँची वृद्धि दर बनी रही, जो 2014-15 के समग्र सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि से भी अधिक थी। इस क्षेत्रक में अबतक का सर्वाधिक वृद्धि दर 10.3 प्रतिशत रेकॉर्ड किया गया। औद्योगिक क्षेत्रक में 2012-13 में तेज गिरावट आई, जिसके बाद से यह बढ़ने लगा।

• अर्थव्यवस्था के खुलने से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश तथा विदेशी विनिमय रिजर्व में तेजी से वृद्धि हुई है। विदेशी निवेश (जिसमें प्रत्यक्ष और संस्थागत विदेशी निवेश दोनों ही सम्मिलित हैं) 1990-91 में 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर से ऊपर उठकर 2016-17 में 36 बिलियन डॉलर के स्तर पर पहुँच गया है। भारत के विनिमय रिजर्व का आकार भी 1990-91 में 6 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2014-15 में 321 बिलियन डॉलर हो गया है। 2011 में भारत विदेशी विनिमय रिजर्व का सातवाँ सबसे बड़ा धारक माना जाता है।

• अब भारत वाहन, कल-पुर्जी, इंजीनियरी उत्पादों, सूचना प्रौद्योगिकी उत्पादों और वस्त्रादि के एक सफल निर्यातक के रूप में विश्व बाजार में जम गया है। बढ़ती हुई कीमतों पर भी नियंत्रण रखा गया है।

• दूसरी ओर, सुधार कार्यक्रमों द्वारा अपने देश की अनेक मूलभूत समस्याओं का समाधान खोज पाने में विफलता के कारण कड़ी आलोचना भी होती रही है। ये समस्याएँ विशेषकर रोजगार सृजन, कृषि, उद्योगए आधारभूत सुविधाओं के विकास तथा राजकोषीय प्रबंधन से जुड़ी हैं।

1.7.1. संवृद्धि और रोजगार :-

यद्यपि सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर में वृद्धि हुई है, फिर भी अनेक विद्वानों ने इस बात पर ध्यान दिलाया है कि सुधार प्रेरित संवृद्धि ने देश में रोजगार के पर्याप्त अवसरों का सृजन नहीं किया है।

1.7.2. कृषि में सुधार :-

सुधार कार्यों से कृषि को कोई लाभ नहीं हो पाया है और कृषि की संवृद्धि दर कम होती जा रही है। सुधार अवधि में कृषि क्षेत्रक में सार्वजनिक व्यय विशेषकर आधारिक संरचना अर्थात् सिंचाई, बिजली. सड़क निर्माण, बाजार संपकों और शोध प्रसार आदि पर व्यय में काफी कमी आई है (ध्यान रहे कि हरित क्रांति में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी)। साथ ही, उर्वरक सहायिकी की समाप्ति ने भी उत्पादन लागतों को बढ़ा दिया है। इसका छोटे और सीमांत किसानों पर बहुत ही गंभीर प्रभाव पड़ा है। इसके साथ ही, कृषि उत्पादों पर आयात शुल्क में कटौती, न्यूनतम समर्थन मूल्यों की समाप्ति और इन पदार्थों के आयात पर परिमाणात्मक प्रतिबंध हटाए जाने के कारण इस क्षेत्रक की नीतियों में कई परिवर्तन हुए। इसके कारण भारत के किसानों को विदेशी स्पर्धा का भी सामना करना पड़ा है, जिसका उन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

दूसरी तरफ, उत्पादन व्यवस्था निर्यातोन्मुखी हो रही है। आंतरिक उपभोग की खाद्यान्न फसलों के स्थान पर निर्यात के लिए नकदी फसलों पर बल दिया जा रहा है। इससे देश में खाद्यान्नों की कीमतों पर दबाव बढ़ रहा है।

1.7.3. उद्योगों में सुधार :-

औद्योगिक संवृद्धि की दर में भी कुछ शिथिलता आई है। यह औद्योगिक उत्पादों की गिरती हुई माँग के कारण है। माँग में गिरावट के कई कारण हैं जैसे, सस्ते आयात, आधारित संरचना में अपर्याप्त निवेश आदि। वैश्वीकरण की व्यवस्था में विकासशील देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं को विकसित देशों की वस्तुओं और पूँजी प्रवाहों को प्राप्त करने के लिए खोल देने को बाध्य हुए हैं तथा उन्होंने अपने उद्योगों का आयतित वस्तुओं से प्रतिस्पर्धा का खतरा मोल ले लिया। सस्ते आयातों ने घरेलू वस्तुओं की माँग को प्रतिस्थापित कर दिया है। निवेश में कटौती के कारण, बिजली सहित, आधारिक संरचनाओं की पूर्ति अपर्याप्त ही बनी हुई है। इसी कारण, प्रायः यह समझा जा रहा है कि विदेशियों के माल में बेरोक-टोक आवागमन को सहज बनाकर गरीब देशों के स्थानीय उद्योगों और रोजगार की संभावनाओं के लिए वैश्वीकरण पूरी तरह से बर्बाद करने वाली परिस्थितियों रचना कर रहा है।

1.7.4. विनिवेश :-

प्रतिवर्ष सरकार सार्वजनिक उद्यमों में विनिवेश के कुछ लक्ष्य निर्धारित करती है। वर्ष 1991-92 में उसने विनिवेश द्वारा 2500 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा था। सरकार उस लक्ष्य से 3040 करोड़ अधिक जुटा पाने में सफल रही। वर्ष 2017-18 में लक्ष्य तो लगभग 1,00,000 करोड़ के विनिवेश का था, पर उपलब्धि लगभग 1,00,057 करोड़ की रही।

इस प्रक्रिया के आलोचकों का कहना है कि सार्वजनिक उपक्रमों की परिसंपत्तियों को औने-पौने दामों में निजी व्यापारियों को बेचा जा रहा है। दूसरे शब्दों में, इस प्रक्रिया से सरकार को बहुत घाटा उठाना पड़ रहा है। साथ ही, विनिवेश से प्राप्त राशि का उपक्रमों के विकास के लिए प्रयोग नहीं किया गया, न ही इसे सामाजिक आधारिक संरचनाओं के निर्माण पर खर्च किया गया। यह राशि सरकार के बजट के राजस्व घाटे को कम करने में ही लग गई।

1.7.5. सुधार और राजकोषीय नीतियाँ :-

आर्थिक सुधारों ने सामाजिक क्षेत्रकों में सार्वजनिक व्यय की वृद्धि पर विशेष रूप से रोक लगा दी है। इस अवधि में कर घटाकर और कर वंचना नियंत्रित कर राजस्व संग्रह बढ़ाने की नीतियों के यथोचित सकारात्मक प्रभाव भी नहीं मिल पाए हैं। यही नहीं, सीमाशुल्क दरों में कटौती तो सुधार कार्यों का आवश्यक अंग है। अतः उन दरों को बढ़ाकर अधिक राजस्व जुटाने का मार्ग बंद हो चुका है। विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए निवेशकों को कई प्रकार के कर प्रोत्साहन दिए गए हैं। इससे भी कर राजस्व को बढ़ा पाने की संभावनाएँ क्षीण हो गई हैं। इन सबका विकास और जनकल्याण आदि पर होने वाले व्यय पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।

'सिरीसिला त्रासदी'

विद्युत क्षेत्र में सुधार बहुत से भारतीय राज्य में नहीं हुये हैं। उन्हें अनुदानित दरों पर बिजली की पूर्ति नहीं की जा रही है। बल्कि बिजली की दरों में बढ़ोतरी ही हुई है। इसका प्रभाव लघु उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों पर पड़ा है। इसका एक उदाहरण आंध्रप्रदेश का हथकरघा उद्योग है। इन उद्योगों में काम कर रहे बुनकरों की मजदूरी बुने गए कपड़े की मात्रा पर आधारित होती है। अतः बिजली में कटौती का अर्थ ऊँची दरों की मार झेल रहे बुनकरों की मजदूरी में भी कटौती है। इससे तो बुनकरों की अजीविका ही संकट में पड़ गई। आंध्र के एक छोटे से कस्बे सिरीसीला में विद्युत करघों पर काम करने वाले 50 बुनकरों को आत्महत्या करने को बाध्य होना पड़ा।

प्रश्नोत्तर

1. भारत में आर्थिक सुधारों का प्रारंभ किया गया ?

• 1971

• 1991

• 2001

• 1981

उत्तर : 1991

2. कौन सा एक नई आर्थिक नीति का एक घटक नहीं है ?

• वैश्वीकरण

• उदारीकरण

• निजीकरण

• आयात प्रतिस्थापन

उत्तर: आयात प्रतिस्थापन

3. WHO का पूर्णरूप है?

• विस्तार व्यापार संगठन

• विश्व व्यापार संगठन

• विश्व शिक्षण संगठन

• विश्व व्यापार ऑफिस

उत्तर: विश्व शिक्षण संगठन

4. विश्व बैंक को किस अन्य नाम से जाना जाता है ?

• IMF

• UNO

• IDBI

• IBRD

उत्तर: IBRD

5. विश्व को एक बाजार के रूप में मानने का अर्थ है?

• वैश्वीकरण

• निजीकरण

• उदारीकरण

• केन्द्रीयकरण

उत्तर : वैश्वीकरण

6. भारतीय रुपये का अवमूल्यन किया गया था?

• जुलाई, 1991

• जून, 1991

• नवम्बर, 1919

• दिसम्बर, 1991

उत्तर: जुलाई, 1991

7. विश्व व्यापार संगठन की स्थापना का वर्ष है?

• 1950

• 1960

• 1990

• 1995

उत्तर: 1995

8. भारत के आर्थिक सुधारों के संदर्भ में LPG का पूर्ण रूप बताएँ?

• लिक्विड पेट्रोलियम गैस

• लो प्राईएड गुड्स

• उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण

• लाइसेंस, कोटा, परमिट

उत्तर: उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण

9. अवमूल्यन का अर्थ है?

• विदेशी मुद्राओं के संदर्भ में एक मुद्रा के आधिकारिक मूल्य को कम करना

• पुराने मुद्रा के स्थान पर नयी मुद्रा का निर्गमन

• समता अंशधारियों के आंशिक हिस्से का विक्रय

• व्यापार पर से प्रतिबंध हटाना

उत्तर: विदेशी मुद्राओं के संदर्भ में एक मुद्रा के आधिकारिक मूल्य को कम करना

10. वैश्वीकरण का संबंध है?

• अर्थव्यवस्था के नियोजन से

• अर्थव्यवस्था के खुलेपन से

• अर्थव्यवस्था के नियमन से

• इनमें कोई नहीं

उत्तर : अर्थव्यवस्था के खुलेपन से

प्रश्न 1. भारत में आर्थिक सुधार क्यों आरंभ किए गए?

उत्तर : आर्थिक सुधार निम्न कारणों से आरंभ किए गए-

(क) 1991 में भारत एक आर्थिक संकट का सामना कर रहा था।

(ख) सरकारी राजस्व से अधिक सरकारी व्यय ने भारी उधारी को जन्म दिया। 1991 में राष्ट्रीय ऋण सकल राष्ट्रीय उत्पाद का 60 था। सरकार ब्याज तक देने में असमर्थ थी। इसका मुख्य कारण विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र में संसाधन प्रबंधन की अक्षमता थी।

(ग) विदेशी मुद्रा भंडार जिन्हें हम आयातों के भुगतान के लिए रखते हैं, इतने कम हो गए की वे केवल तीन सप्ताह के लिए पर्याप्त थे।

(घ) खाड़ी युद्ध के कारण कीमतों के बढ़ने की दर दोहरे अंक में पहुँच गई, जिसने संकट को और बढ़ा दिया। मुद्रास्फीति की दर 12% प्रति वर्ष था।

(ङ) घटिया प्रबंधन के कारण बहुत से सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम घाटे में चल रहे थे। इस संकट का जवाब सरकार ने 1991 की नई आर्थिक नीति की उद्घोषणा करके दिया।

प्रश्न 2. विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होना क्यों आवश्यक है?

उत्तर: आई.एम.एफ. और विश्व बैंक से ऋण प्राप्ति के लिए और अन्य देशों के साथ मुफ्त व्यापार करने के लिए विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होना आवश्यक है। विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बने बिना एक देश वैश्वीकृत होते विश्व व्यापार का लाभ नहीं उठा सकता।

प्रश्न 3. भारतीय रिजर्व बैंक ने वित्तीय क्षेत्र में नियंत्रक की भूमिका से स्वयं को सुविधा प्रदाता की भूमिका अदा करने में क्यों परिवर्तित किया?

उत्तर : भारतीय रिजर्व बैंक नियंत्रक की भूमिका से स्वयं को सुविधा प्रदाता की भूमिका अदा करने का बड़ा परिवर्तन किया। पहले एक नियंत्रक के रूप में, आर.बी.आई. खुद ब्याज तय करता था तथा प्रबंधकीय निर्णयों को प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित करता था। परंतु उदारीकरण के उपरांत इसने सुविधा प्रदाता की भूमिका निभाई जिसके अंतर्गत ब्याज दरों को बाजार बलों द्वारा निर्धारित होने के लिए स्वतंत्र कर दिया गया तथा प्रत्येक वाणिज्यिक बैंक को प्रबंधन निर्णयों की स्वतंत्रता दे दी गई। उन्हें बाजार में प्रतिस्पर्धी बनाना आवश्यक था। उदारीकरण के साथ बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई। अतः बाजार से उत्तम प्राप्ति के लिए बैंकों को प्रबंधन निर्णय लेने की स्वतंत्रता देना आवश्यक हो गया।

प्रश्न 4. रिजर्व बैंक व्यावसायिक बैंकों पर किस प्रकार नियंत्रण रखता है?

उत्तर: रिजर्व बैंक व्यावसायिक बैंकों पर निम्न प्रकार से नियंत्रण रखता है

(क) यह उस न्यूनतम रोकड़ की राशि / अनुपात निर्धारित करता है जो हर व्यावसायिक बैंक को रिजर्व बैंक के पास रखनी पड़ती है। इसे नकद आरक्षित अनुपात कहा जाता है।

(ख) यह उस न्यूनतम अनुपात का निर्धारण करता है जो नकद था तरल परिसंपत्तियों के रूप में एक बैंक को अपने पास रखना होता है। इसे वैधानिक तरलता अनुपात कहते हैं।

(ग) रिजर्व बैंक वह ब्याज दर निर्धारित करता है जिस पर रिजर्व बैंक व्यावसायिक बैंकों के विनिमय बिलों को छूट देगा। इसे बैंक दर कहते हैं।

प्रश्न 5. रुपयों के अवमूल्यन से आप क्या समझते हैं?

उत्तर: नियंत्रण प्राधिकारी के निर्णय से जब विनिमय दर में गिरावट आती है जिससे एक मुद्रा का मूल्य अन्य मुद्रा की तुलना में कम हो जाता है तो उसे अवमूल्यन कहते हैं। इसके परिणामस्वरूप, आयात महँगे और निर्यात सस्ते हो जाते हैं। अतः निर्यात बढ़ जाते हैं। और आयात कम हो जाते हैं। इस तरह व्यापार का संतुलन ठीक हो जाता है।

प्रश्न 6. इनमें भेद करें

(क) युक्तियुक्त और अल्पांश विक्रय

(ख) द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार

(ग) प्रशुल्क एवं अप्रशुल्क अवरोधक

उत्तर :

(क) अल्पांश विक्रय और युक्ति युक्त विक्रय

आधार

अल्पांश विक्रय

युक्तियुक्त विक्रय

 

इसके अंतर्गत घरेलू सार्वजनिक निर्गम के इक्विटी निवेशकों को प्रस्तावित की जाती है।

इसके अंतर्गत 51% से अधिक शेयर एक महत्त्वपूर्ण क्रेता को बेच दि, जाते हैं।

अन्य नाम

अन्य नाम इसे विनिवेश भी कहा जाता है।

इसे निजीकरण भी कहा जाता है।

(ख) द्विपक्षीय तथा बहुपक्षीय व्यापार

आधार

द्विपक्षीय व्यापार

बहुपक्षीय व्यापार

 

एक व्यापार समझौते जिसमें दो देश शामिल होते हैं, उन्हें द्विपक्षीय व्यापार कहा जाता है।

एक व्यापार समझौता जिसमें दो से अधिक देश शामिल होते हैं, बहुपक्षीय व्यापार कहा जाता है।

अन्य नाम

विश्व व्यापार संगठन के गठन से पूर्व देशों में द्विपक्षीय व्यापार का प्रचलन था।

विश्व व्यापार संगठन बहुपक्षीय व्यापार समझौतों का पक्षधर है।

(ब) प्रशुल्क तथा अप्रशुल्क अवरोधक

आधार अर्थ

प्रशुल्क अवरोधक

अप्रशुल्क अवरोधक

 

ये आयात और निर्यात पर कर के रूप में अवरोधक हैं।

ये आयात पर लगाई गई मात्रात्मक प्रतिबंध या कोटा हैं जो भुगतान संतुलन के घाटे को कम करने के लिए लगा, जाते हैं।

अन्य नाम

ये दो उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं- घरेलू उद्योग की रक्षा करते हैं तथा सरकारी राजस्व को बढ़ाते हैं।

ये केवल घरेलू उद्योगों की रक्षा करते हैं।

प्रश्न 7. प्रशुल्क क्यों लगाए जाते हैं?

उत्तर : प्रशुल्क घरेलू वस्तुओं की तुलना में आयातित वस्तुओं को महँगा बनाने के लिए लगाए जाते हैं। इससे घरेलू वस्तुओं की माँग बढ़ जाती है तथा विदेशी वस्तुओं की माँग कम हो जाती है। यह घरेलू उद्योग की रक्षा के दृष्टिकोण से लगाए जाते हैं।

प्रश्न 8. परिमाणात्मक प्रतिबंधों का क्या अर्थ होता है?

उत्तर: यह भुगतान संतुलन (बी.ओ.पी.) के घाटे को कम करने और घरेलू उद्योग की रक्षा के लिए आयात पर लगाई गई कुल मात्रा या कोटे के रूप में प्रतिबंध को दर्शाता है।

प्रश्न 9. 'लाभ कमा रहे सार्वजनिक उपक्रमों को निजीकरण कर देना चाहिए। क्या आप इस बात से सहमत हैं? क्यों?

उत्तर: नहीं, इसका विपरीत है, हमें घाटे में चल रहे सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण कर देना चाहिए। यदि हम लाभ कमा रहे सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण करेंगे तो यह सरकारी राजस्व के लिए नुकसान होगा जो देश के विकास के लिए प्रयोग किया जा सकता था। सार्वजनिक उपक्रमों को प्रतिस्पर्धी, आधुनिकीकृत और दक्ष होने के लिए लाभ की जरूरत है।

प्रश्न 10. क्या आपके विचार से बाह्य प्रापण भारत के लिए अच्छा है? विकसित देशों में इसका विरोध क्यों हो रहा है?

उत्तर : बाह्य प्रापण भारत के लिए अच्छा है क्योंकि यह कई भारतीयों को रोजगार प्रदान कर रहा है।

(क) यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से देश में विदेशी मुद्रा ला रहा है। विकसित देश इसका विरोध कर रहे हैं क्योंकि इससे विकसित और विकासशील देशों के बीच आय की असमानता कम हो जाएगी

(ख) यह उनके अपने देश में रोजगार के अवसर कम कर रहा है।

प्रश्न 11. भारतीय अर्थव्यवस्था में कुछ विशेष अनुकूल परिस्थितियाँ हैं जिनके कारण यह विश्व का बाह्य प्रापण केंद्र बन रहा है। अनुकूल परिस्थितियाँ क्या हैं?

उत्तर : (क) भारत एक विश्व बाह्य प्रापण केंद्र बन रहा है क्योंकि भारत में सस्ते दरों पर पर्याप्त कुशल जनशक्ति उपलब्ध है।

(ख) भारत में ऐसी सरकारी नीतियाँ हैं जो बाह्य प्रापण के पक्ष में हैं।

(ग) भारत विकसित देशों से दुनिया के एक अन्य भाग में स्थित है जिससे समय का अंतराल है।

प्रश्न 12. क्या भारत सरकार की नवरत्न नीति सार्वजनिक उपक्रमों के निष्पादन को सुधारने में सहायक रही है? कैसे?

उत्तर: सरकार ने कुछ लाभ कमा रही सार्वजनिक उपक्रमों को विशेष स्वायत्ता देने का निर्णय किया। 1996 में 'नवरत्न नीति' अपनाई गई जिसके अंतर्गत 9 सर्वाधिक लाभ कमा रही सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को नवरत्न का दर्जा दिया गया तथा अन्य 97 लाभ कमाने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को 'लघुरत्न' कहा गया।

'नवरत्न' और 'लघुरत्न' नाम के अलंकरण के बाद इन कंपनियों के निष्पादन में अवश्य ही सुधार आया है। उन्हें अधिक प्रचालन और प्रबंधकीय स्वायत्ता दी गई जिससे उनकी दक्षता और उसके द्वारा मुनाफे में वृद्धि हुई है।

प्रश्न 13. सेवा क्षेत्रक के विकास के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारक कौन-से रहे हैं?

उत्तर: सेवा क्षेत्रक के विकास के लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी रहे हैं। भारत का एक मजबूत औद्योगिक आधार नहीं है। अतः सुधार अवधि में द्वितीयक क्षेत्रक ने अधिक विकास नहीं किया। विदेशी निवेशक कृषि की भारतीय प्रकृति और जोखिम शामिल होने के कारण, उन्हें कृषि में और निवेश में कोई रुचि नहीं थी। उन्हें भारत अनुबंधित सेवाओं के लिए सर्वाधिक उपयुक्त लगता था।

प्रश्न 14. सुधार प्रक्रिया से कृषि क्षेत्रक दुष्प्रभावित हुआ लगता है। क्यों?

उत्तर : यह बिल्कुल सही कहा गया है कि सुधार प्रक्रिया से कृषि क्षेत्रक दुष्प्रभावित हुआ है।

(क) सुधार अवधि के दौरान कृषि में सार्वजनिक निवेश विशेष रूप से सिंचाई, बिजली, सड़क, बाजार, लिकेज, अनुसंधान और विस्तार के क्षेत्र में कम हुआ है।

(ख) उर्वरक सहायिकी हटाने से उत्पादन की लागत बढ़ गई है जिसने छोटे और सीमांत किसानों को दुष्प्रभावित किया है।

(ग) इस क्षेत्र में बहुत जल्दी जल्दी निति परिवर्तन हुए हैं जिसमें भारतीय किसानों को दुष्प्रभावित किया है क्योंकि अब उन्हें अधिक प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है।

(घ) कृषि में निर्यात उन्मुख रणनीति के कारण उत्पादन घरेलू बाजार के बजाय निर्यात बाजार के लिए हो रहा है। इससे खाद्यान्न फसलों के उत्पादन के बदले नकदी फसलों पर ध्यान केंद्रित करवाया। इससे खाद्यान्नों की कीमतों पर दबाव बढ़ गया।

प्रश्न 15. सुधार काल में औद्योगिक क्षेत्रक के निराशाजनक निष्पादन के क्या कारण रहे हैं?

उत्तर : औद्योगिक क्षेत्रक का सुधार अवधि में निराशाजनक निष्पादन रहा है क्योंकि

(क) सस्ते आयात- यह इस तथ्य के कारण है कि विदेशों से आने वाले सस्ते आयातों ने भारतीय बाजार पर कब्जा कर लिया और घरेलू उत्पादकों को अधिक प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा।

(ख) बुनियादी ढाँचे की कमी निवेश में कमी के कारण आधारभूत सुविधाएँ, जैसे-बिजली आपूर्ति अपर्याप्त बनी रही।

(ग) विकासशील देशों में रोजगार के प्रतिकूल हालात वैश्वीकरण ने रोजगार की स्थिति के संदर्भ में घरेलू अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है। रोजगार के अवसरों में वृद्धि हुई है परंतु रोजगार के हालात प्रतिकूल हैं।

(घ) अनुचित वैश्वीकरण- भारत जैसे विकासशील देशों की अब भी उच्च अप्रशुल्क अवरोधकों के कारण विकसित देशों के बाजार तक पहुँच नहीं है।

प्रश्न 16. सामाजिक न्याय और जन-कल्याण के परिपेक्ष्य में भारत के आर्थिक सुधारों पर चर्चा करें।

उत्तर: जब हम आर्थिक सुधारों को सामाजिक न्याय और जन-कल्याण के परिप्रेक्ष्य में चर्चा करते हैं तो आर्थिक सुधारों को हानिकारक पाते हैं। अपने दृष्टिकोण के लिए हम निम्नलिखित कारण दे सकते हैं-

(क) हालाँकि सुधार अवधि में विकास दरों में वृद्धि हुई है परंतु यह एक व्यवसाय रहित वृद्धि रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ इस बात को अनदेखा करते हुए कि भारत श्रम प्रधान देश है, पूँजी प्रधान तकनीकों का प्रयोग करती हैं।

(ख) सुधारों ने निवेश की कमी के कारण कृषि को दुष्प्रभावित किया है तथा इस क्षेत्रक के वृद्धि दरों में सुधार अवधि में कमी आई है।

(ग) सुधारों ने दुर्लभ संसाधनों का गलत आबंटन किया है। एक भारत जैसा देश जहाँ एक व्यक्ति पाँचवाँ हिस्सा अपनी न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं है, वह माली, कुत्ते के भोजन, चॉकलेट और आइसक्रीम पर निवेश कर रहा है।

(घ) भारत के छोटे उत्पादक विशाल अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा बनाए रखने में असफल रहे हैं। अतः उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा।

(ङ) जिन सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों का निजीकरण ले गया उसके कर्मचारियों के लिए रोजगार स्थितियाँ बदतर हो गई।

(च) सुधारों ने एक दोहरी अर्थव्यवस्था को जन्म दिया है जिसके अंतर्गत हम विश्व स्तर के अस्पताल और असहनीय सरकारी अस्पताल, विश्व स्तर के स्कूल और तम्बू में चलाए जा रहे स्कूल एक साथ देखे जा सकते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने महत्त्वपूर्ण क्षेत्र, जैसे-शिक्षा, स्वास्थ्य आदि में कोई निवेश नहीं किया और यदि किया भी तो ऐसा जो केवल भारत के अमीर वर्ग के लिए है।

JCERT/JAC REFERENCE BOOK

विषय सूची

Group-B भारतीय अर्थव्यवस्था

1. स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था

2. भारतीय अर्थव्यवस्था (1950-90)

3. उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण: एक समीक्षा

4. निर्धनता

5. भारत में मानव पूँजी का निर्माण

6. ग्रामीण विकास

7. रोजगार – संवृद्धि, अनौपचारिक एवं अन्य मुद्दे

8. आधारिक संरचना

9. पर्यावरण और धारणीय विकास

10. भारत और उसके पड़ोसी देशों के तुलनात्मक विकास अनुभव

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