व्यापारिक बैंकों की विनियोग नीति [INVESTMENT POLICY OF COMMERCIAL BANKS]

व्यापारिक बैंकों की विनियोग नीति [INVESTMENT POLICY OF COMMERCIAL BANKS]

व्यापारिक बैंकों की विनियोग नीति [INVESTMENT POLICY OF COMMERCIAL BANKS]

व्यापारिक बैंकों की विनियोग नीति

[INVESTMENT POLICY OF COMMERCIAL BANKS]

प्रश्न - एक व्यावसायिक बैंक के विभिन्न प्रकार के विनियोगों का वर्णन कीजिए।

> व्यापारिक बैंक की विनियोग नीति की विवेचना कीजिए। अपने उत्तर को भारत के व्यापारिक बैंक का उदाहरण देकर स्पष्ट करें।

> "एक अच्छे बैंक को तरलता और लाभदायकता में सन्तुलन बनाये रखना चाहिए।" इस कथन की व्याख्या करें।

> व्यावसायिक बैंक अपने साधनों के वितरण में किन-किन सिद्धान्तों का पालन करता है?

> व्यापारिक बैंक की निधियों के प्रमुख स्रोतों का वर्णन करें।

उत्तर - अन्य व्यापारिक संस्थाओं की तरह व्यापारिक बैंक भी लाभ कमाने वाली एक संस्था है। बैंक की कार्यप्रणाली कुछ इस प्रकार की है कि वह एक ओर जनता एवं अन्य साधनों से धन प्राप्त करता है और दूसरी ओर लाभप्रद क्षेत्रों में विनियोग करता है। इसलिए गिजबर्ट ने बैंक को मुद्रा का व्यापारी कहा है। बैंकिंग उपक्रम के लिए वैध तरीके से अधिकतम लाभ अर्जित करना एक जिम्मेदारी है तो सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करना एक कर्तव्य है। इसके लिए बैंक प्राप्त कोषों का विभिन्न क्षेत्रों में इस प्रकार विनियोजित करता है कि विनियोगों से अधिकतम लाभ, धन की सुरक्षा और धन की तरलता बनी रहे। अर्थात् व्यापारिक बैंक अपने धन को विनियोजित करते समय "सभी अंडों को एक टोकरी में न रखें" वाले सिद्धान्त पर काम करता है।

व्यापारिक बैंक की विनियोग नीति को स्पष्ट करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि व्यापारिक बैंक की निधियों के कौन-कौन स्रोत हैं।

व्यापारिक बैंकों की निधियों के स्रोत (SOURCES OF FUNDS OF COMMERCIAL BANKS)

भारत में व्यापारिक बैंकों को आन्तरिक और बाह्य दोनों साधनों से पूँजी या निधि की प्राप्ति होती है। इनके आन्तरिक साधनों में अंश पूँजी, सुरक्षित कोष, अवितरित लाभ इत्यादि आते हैं, जबकि बाह्य साधनों में जनता से प्राप्त निक्षेप, अन्य व्यापारिक बैंकों से ऋण, रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया से ऋण इत्यादि को शामिल किया जाता है।

व्यापारिक बैंक की निधियों के स्रोतों को निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) अंश पूँजी (Share Capital)- आधुनिक समय में भारत में बैंकों का संगठन संयुक्त पूँजी कम्पनी के आधार पर चलाया जाता है। इसलिए अंशों को बेचकर बैंकों द्वारा पूँजी प्राप्त की जाती है। बैंक के संचालक मण्डल पार्षद सीमानियम (Memorandum of Association) में यह निश्चित करता है कि बैंक की अधिकृत पूँजी (Authaorised Capital) कितनी होगी। इसी पूँजी को पंजीकृत पूँजी (Registered Capi-tal) या नाममात्र की पूँजी (Nominal Capital) भी कहा जाता है। अधिकृत पूँजी का ही कुछ भाग बाजार में विक्रय हेतु जारी किया जाता है, जिसे निर्गमित पूँजी (Issued Capital) कहते हैं। निर्गमित अंशों में से जनता वास्तव में जितने अंशों को क्रय करने के लिए आवेदन देती है, उसे प्रार्थित पूँजी (Subscribed Capital) कहते हैं। इस प्रार्थित पूँजी का वह भाग जो जनता वास्तव में चुकाती है वह प्रदत्त पूँजी या चुकता पूँजी (Paidup Capital) कहलाती है। बैंक के पास इस मद के उपलब्ध कोष चुकता पूँजी ही है। बैंकिंग नियमन अधिनियम की धारा 12 के अनुसार, भारत में व्यवसाय करने वाली बैंकिंग कम्पनी की प्रार्थित पूँजी, उसकी अधिकृत पूँजी की आधी से कम नहीं होनी चाहिए। इसी प्रकार चुकता पूँजी, प्रार्थित पूँजी की आधी से कम नहीं होनी चाहिए।

(2) सुरक्षित कोष (Reserve Fund)- संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी होने के कारण बैंक को अपने लाभको अंशधारियों में लाभांश के रूप में वितरित करना पड़ता है; किन्तु बैंक अपने लाभ का सम्पूर्ण भाग अंशधारियों में वितरित नहीं कर सकता है। बैंकिंग नियमन अधिनियम, 1949 की धारा 17 के अनुसार, भारत में समामेलित प्रत्येक बैंकिंग कम्पनी के लिए यह आवश्यक है कि वह लाभ-हानि खाता द्वारा प्रकट किये गये अपने शुद्ध लाभका 20 प्रतिशत भाग अनिवार्य रूप से सुरक्षित कोष में रखे। बैंक के सुरक्षित कोष में जितनी अधिक राशि जमा रहती है, जनता का बैंक पर उतना अधिक विश्वास होता है।

(3) अवितरित लाभ (Undistributed Profit)- बैंक के लाभ-हानि खाते का वह शेष जो वितरित होने से रह जाता है, वह अवितरित लाभ कहलाता है। अवितरित लाभ से बैंक की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है और बैंक की कार्यशील पूँजी में वृद्धि होती है।

(4) निक्षेप या जमाराशियाँ (Deposits)- जनता से विभिन्न खातों के माध्यम से निक्षेप या जमा प्राप्त करना बैंक का प्राथमिक कार्य है। बैंक की पूँजी का एक बड़ा साधन जन-निक्षेप है। लोग अपनी छोटी-छोटी बचतों को बैंक में विभिन्न खातों के माध्यम से एक निश्चित शर्त पर जमा करते हैं और यह आशा भी करते हैं कि उनका धन सुरक्षित भी रहे और उस पर ब्याज भी प्राप्त हो। बैंक अपने ग्राहकों से मुख्य रूप से स्थायी जमा खाता, चालू खाता, बचत बैंक खाता, आवर्ती जमा खाता इत्यादि के माध्यम से जमा स्वीकार करता है।

(5) उधार तथा ऋण (Borrowing and Loans)- साधारण परिस्थितियों में तो बैंक अंश पूँजी एवं निक्षेप से प्राप्त राशियों से अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर लेता है, किन्तु विशेष परिस्थितियों में अन्य व्यापारिक बैंकों तथा रिजर्व बैंक से ऋण प्राप्त करता है जब किसी बैंक के अनेक ग्राहक एक ही समय में बड़ी मात्रा में अपनी जमा रकम की वापसी की माँग करने लगते हैं और बैंक अपने साधारण साधनों से उसे पूरा नहीं कर पाता है तब वह केन्द्रीय बैंक या अन्य बैंकों से ऋण प्राप्त कर जनता के विश्वास को कायम रखता है।

(6) साख का निर्माण (Credit Creation)- बैंक के ऋण देने की पद्धति ऐसी होती है कि समस्त स्वीकृत ऋण एकमुश्त न देकर उनके खाते में समस्त स्वीकृत ऋण जमा कर दिया जाता है। वह व्यक्ति अपनी आवश्यकतानुसार राशि को निकालता है। दूसरी ओर बैंक में निक्षेप करने वाला व्यक्ति भी साधारणतः समस्त निक्षेप को एक साथ न निकालकर आवश्यकतानुसार निकालता है। इस प्रक्रिया में साख का निर्माण करके बैंक अपने कोष की वृद्धि करता है।

बैंक की विनियोग नीति के सिद्धान्त (PRINCIPLES OF INVESTMENT POLICY OF BANK)

विभिन्न साधनों से प्राप्त पूँजी का बैंक कहीं-न-कहीं विनियोग करता है। बैंक विनियोगों से व्याज प्राप्त करता है और अंश पूँजी से प्राप्त राशि पर लाभांश एवं निक्षेप पर ब्याज देता है। ऐसी परिस्थिति में यह आवश्यक हो जाता है कि बैंक अपने साधनों का विनियोग सही जगह पर करे। वैसे तो विनियोग का ऐसा कोई सिद्धान्त नहीं है जो प्रत्येक समय एवं परिस्थिति के अनुकूल हो। देश की परिस्थिति के अनुसार नीति और सिद्धान्त बदलते रहते हैं। अतः बैंक के अधिकारियों को विनियोग नीति का निर्धारण करने के लिए दूरदर्शिता एवं अनुभव के आधार पर काम करना पड़ता है। वर्तमान समय में बैंक अपनी पूँजी का विनियोग करते समय निम्नलिखित सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हैं-

(1) कोष की सुरक्षा (Safety of Funds)- बैंक की विनियोग नीति के सम्बन्ध में धन की सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण है। अधिक लाभ कमाने की इच्छा में सुरक्षा को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। यदि बैंक धन के विनियोग के समय सुरक्षा की उपेक्षा करती है तो उसके अस्तित्व पर संकट आ सकता है। बैंक को अपने विनियोग की सुरक्षा के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

(i) बैंक को अपना सम्पूर्ण धन एक व्यक्ति, एक क्षेत्र, एक व्यवसाय या एक उद्योग में नहीं लगाना चाहिए। ऐसा करने से यदि वह वर्ग विशेष के सामने कोई संकट आता है तो बैंक भी खतरे में आ जाएगा। इसलिए बैंक को अपने धन का विनियोग विभिन्न क्षेत्रों में करना चाहिए।

(ii) बैंक को ऋण देने से पहले सम्बन्धित व्यक्ति के आचरण, वित्तीय स्थिति, साख इत्यादि के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। ऋण हमेशा अच्छे आचरण, सुदृढ़ वित्तीय स्थिति और अच्छी साख वाले व्यक्ति को ही देना चाहिए। इससे दिया जाने वाला ऋण 'अप्राप्य ऋण' (Bad Debts) नहीं होता है।

(iii) ऋण केवल सुरक्षित और उचित जमानत के आधार पर दिया जाना चाहिए। इससे ऋण की अदायगी न होने पर जमानत में रखी गयी वस्तु को बेचकर दिया गया ऋण वापस लिया जा सकता है।

(iv) जहाँ तक सम्भव हो, बैंक को अल्पकालीन ऋण ही देना चाहिए और दीर्घकालीन ऋण से बचना चाहिए। अल्पकालीन ऋण अधिक सुरक्षित माने जाते हैं।

(v) बैंक को प्रायः अचल सम्पत्ति के आधार पर ऋण नहीं देना चाहिए।

(vi) बैंकों को चाहिए कि वे सस्ती साख नीति (Cheap Credit Policy) न अपनायें, क्योंकि इससे ऋणियों में अपव्यय की भावना जाग्रत होती है।

(2) कोष की तरलता (Liquidity of Funds)- बैंक की सफलता के लिए जनता का विश्वास आवश्यक है। बैंक में निक्षेप करने वाले ग्राहक इस विश्वास को मानकर चलते हैं कि वह जब चाहे बैंक से अपना धन वापस ले सकते हैं। जनता के इस विश्वास को बनाये रखने के लिए बैंक को अपने कोष का विनियोग करते समय तरलता का ध्यान रखना चाहिए। इस प्रकार बैंक को अपना विनियोग ऐसी प्रतिभूतियों में करना चाहिए कि आवश्यकता पड़ने पर उसे बिना किसी हानि के बेचा जा सके। वैसे बैंक के पास ग्राहकों की माँग को पूरा करने के लिए एक निश्चित प्रतिशत नकद कोष होता है। किन्तु जब वह कोष ग्राहक की नकदी को पूरा करने के लिए अपर्याप्त लगे तो प्रतिभूतियों को बेचने की आवश्यकता पड़ती है। तरलता की दृष्टि से जिन बातों को ध्यान में रखना चाहिए, वे हैं

(i) बैंक को समस्त धन का विनियोग नहीं करके 20 से 30 प्रतिशत नकद कोष में रखना चाहिए। वैसे नकद कोष एक निष्क्रिय साधन है, किन्तु जनता के विश्वास को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है।

(ii) कोष को सरकारी प्रतिभूतियों, नवरत्न कम्पनियों के अंशों एवं ऋणपत्रों में विनियोग करना चाहिए, ताकि जल्दी बेचकर धन प्राप्त किया जा सके।

(iii) धन को अल्पकालीन ऋण के रूप में चल सम्पत्ति को जमानत पर देना चाहिए। इस सम्बन्ध में टैनन का कथन है कि "एक सच्चा बैंकर वह है जो विनिमय बिल तथा बन्धक के अन्तर को भली-भाँति समझता है।" विनिमय बिल एक अल्पकालीन साख पत्र होता है, जिसे आवश्यकता पड़ने पर आसानी से मुद्रा में परिवर्तित किया जा सकता है। किन्तु बन्धक एक ऐसी सम्पत्ति है जिसे तुरन्त मुद्रा में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है, जिसके कारण नकदी सम्बन्धी माँग को तुरन्त पूरा नहीं किया जा सकता है।

(3) कोष की लाभदायकता (Profitability of Funds)- बैंक एक लाभ कमाने वाली संस्था है। वह अपने लाभ का अधिकांश भाग विनियोग से ही प्राप्त करता है। इसलिए बैंक को अपने अतिरिक्त धन का विनियोग इस प्रकार से करना चाहिए कि उसे स्थायी और अच्छी आय प्राप्त हो सके। किन्तु यहाँ यह उल्लेखनीय है कि तरलता और लाभदायकता दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं। यदि विनियोग को तरलता को ध्यान में रखकर किया जाये तो आय कम होगी और यदि अधिक आय को प्राप्त करने की दृष्टि से विनियोग किया जाये तो उसमें तरलता का गुण कम होगा। अन्य शब्दों में, बैंक लाभदायकता पर जितना अधिक जोर देगा, वह तरलता से उतनी ही दूर होता जायेगा। परन्तु बैंक के लिए अपने धन को विनियोग करते समय तरलता एवं लाभदायकता दोनों जरूरी तत्व हैं। ऐसी दशा में बैंक को अपने साधनों को विभिन्न मदों में इस प्रकार विनियोजित करना चाहिए कि तरलता एवं लाभदायकता के बीच उचित सन्तुलन स्थापित किया जा सके।

(4) जोखिम की विविधता (Diversification of Risks) बैंक की विनियोग नीति में जोखिम की विविधता का आशय यह है कि बैंक को सभी अतिरिक्त धन एक ही व्यवसाय, उद्योग, क्षेत्र या स्थान में न लगाकर अलग-अलग क्षेत्रों में बाँटकर लगाना चाहिए। एक क्षेत्र या व्यवसाय में यदि सम्पूर्ण धन लगाया जाये और वह क्षेत्र किसी कारण से फेल हो जाये तो बैंक भी फेल हो जायेगा। इसी कारण से बैंक को अपने धन की सुरक्षा के लिए इसे बाँटकर निवेश करना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि प्रतिभूतियों में ही धन विनियोग करना हो तो कुल धन का कुछ भाग समता अंशों में निवेश करना और शेष धन को पूर्वाधिकार अंशों, ऋणपत्रों और बॉण्ड्स में निवेश करना हितकर होता है। इसी प्रकार यदि उद्योग क्षेत्र को ऋण देना हो तो अलग-अलग क्षेत्र के उद्योगों को ऋण देना चाहिए।

(5) विक्रयशीलता (Marketability) - बैंक को अपना धन विनियोग करते समय प्रतिभूतियों और सम्पत्तियों की विक्रयशीलता को भी ध्यान में रखना चाहिए। विक्रयशीलता से आशय उपलब्ध बाजार से है; जहाँ प्रतिभूतियों और सम्पत्तियों का विक्रय आसानी से हो सके और कोई हानि भी न हो। साधारणतः अच्छी प्रतिभूतियों और चल सम्पत्तियों का बाजार उपलब्ध रहता है, इसलिए इनमें विक्रयशीलता का गुण पाया जाता है। इसके विपरीत स्थायी सम्पत्तियों जैसे भूमि, भवन इत्यादि का कोई बाजार नहीं होता है। इस दृष्टिकोण से बैंक को अपना धन स्थायी सम्पत्तियों में कभी नहीं लगाना चाहिए।

(6) मूल्य में स्थिरता (Price Stability)- वैसे तो भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, किसी को पता नहीं होता है; फिर भी बैंक को अपने अनुभव के आधार पर अपने धन को उन प्रतिभूतियों में लगाना चाहिए जिनके मूल्य में उच्चावचन कम हो। अधिक उच्चावचन वाले प्रतिभूतियों में लाभ की आशा भले ही हो किन्तु हानि होने की भी सम्भावना कम नहीं होती है।

(7) कर से मुक्ति (Exemption from Tax)- अपनी आय में वृद्धि के लिए बैंक को अपने अतिरिक्त धन के विनियोग के लिए यथा सम्भव वैसी प्रतिभूतियों का चुनाव करना चाहिए जिनकी आय आयकर एवं अन्य करों से मुक्त हो।

(8) कोष की उत्पादकता (Productivity of Funds) - ऋण के रूप में अपने धन को विनियोग करते समय ऋण का अधिकांश भाग उत्पादन क्षेत्रों में लगाना चाहिए। ऐसा करने से विनियोग अधिक सुरक्षित रहता है।

(9) केन्द्रीय बैंक की विनियोग नीति का अध्ययन (Study of Investment Policy of the Central Bank)- केन्द्रीय बैंक को 'बैंकों का बैंक' कहा जाता है। देश के सभी व्यापारिक बैंकों को केन्द्रीय बैंक नियन्त्रित करता है, इसलिए व्यापारिक बैंकों को अपने धन का विनियोग करने के लिए केन्द्रीय बैंक की विनियोग नीति का भी अध्ययन करना चाहिए और उसके दिशा-निर्देश पर ध्यान देना चाहिए।

(10) राष्ट्रीय हित (National Interest)- यह सत्य है कि बैंक का उद्देश्य लाभ कमाना है, किन्तु इसके अतिरिक्त सामाजिक उत्तरदायित्व है। अतः बैंक को विनियोग करते समय राष्ट्रीय हित को भी ध्यान में रखना चाहिए ताकि राष्ट्रीय विकास अधिकतम हो सके।

बैंक के विनियोग के प्रकार (TYPES OF BANKING INVESTMENT)

प्रत्येक व्यापारिक बैंक अपने कोषों का विनियोग दो प्रकार से करता है- अलाभकर विनियोग तथा लाभकर विनियोग। विनियोग के इन दोनों प्रकारों के बीच क्या अनुपात हो, इसके लिए कोई निश्चित नियम नहीं है। अतः बैंक को अपने विवेक से इनके बीच सन्तुलन स्थापित करते हुए अपने कोष का विनियोग करना पड़ता है।

A. अलाभकर विनियोग (Profitless Investment)- अलाभकर विनियोग से बैंक को किसी प्रकार का प्रत्यक्ष लाभ नहीं मिलता है, किन्तु ग्राहकों की नकद माँग को पूरा करने के लिए और सुरक्षा के दृष्टिकोण से यह आवश्यक हो जाता है कि बैंक अपने धन का एक भाग अलाभकर क्षेत्र में लगाये। बैंक के अलाभकर विनियोग दो प्रकार के होते हैं

(1) नकद कोष (Cash Reserve) - प्रत्येक बैंक को ग्राहकों की नकदी की माँग को पूरा करने के लिए अपने पास कुछ निक्षेप का एक निश्चित भाग तरल रूप में अवश्य रखना पड़ता है। बैंक के पास नकद मुद्रा की मात्रा जितनी अधिक होगी वह ग्राहकों के नकदी की माँग को उतनी ही जल्दी पूरा कर सकेगा। परन्तु बैंक अपने कुल निक्षेप को अपने पास नहीं रख सकता है, क्योंकि इससे कोई आय प्राप्त नहीं होती है। इसलिए बैंक कुल निक्षेप का एक निश्चित भाग ही तरल रूप में रखता है। अब प्रश्न यह उठता है कि बैंक अपने पास कुल निक्षेप का कितना प्रतिशत तरल रूप में रखे ? इस सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं है, किन्तु कुछ खास ऐसी बातें हैं जिन्हें नकद कोष की मात्रा निर्धारित करते समय बैंक ध्यान में रखता है। ये बातें निम्नलिखित हैं-

(i) वैधानिक आवश्यकताएँ (Legal Requirements)- रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एक्ट, 1934 की धारा 42 के अनुसार, प्रत्येक व्यापारिक बैंक को अपनी जमा रकम का एक निश्चित भाग रिजर्व बैंक के पास रखना पड़ता है। प्रारम्भ में यह अनुपात माँग जमाओं का 5 प्रतिशत तथा सावधि जमाओं का 2 प्रतिशत निश्चित था, परन्तु सन् 1962 में हुए दो संशोधनों के बाद दो अलग-अलग प्रकार के जमा पर दो अलग-अलग अनुपात के बदले एक संयुक्त दर निश्चित करने का अधिकार रिजर्व बैंक को मिला। जून, 1973 में नकद कोष अनुपात 5 प्रतिशत और सितम्बर, 1973 में 7 प्रतिशत कर दिया गया। बाद के दिनों में इस दर में लगातार वृद्धि होती गयी। अगस्त, 1983 में 8.5 प्रतिशत, अक्टूबर, 1987 में 10 प्रतिशत और अप्रैल, 1991 में इसे 15 प्रतिशत कर दिया गया। किन्तु 21 वीं शताब्दी में इस दर में काफी कमी लायी गयी। 31 मार्च, 2004 को नकद कोष अनुपात 4.5 प्रतिशत निर्धारित किया गया जिसे पुनः 18 सितम्बर, 2004 को 4.75 प्रतिशत कर दिया गया। 2 अक्टूबर, 2004 को इसमें आंशिक परिवर्तन करके 5 प्रतिशत रखा गया, फिर 23 दिसम्बर, 2006 को इसे 5.25 प्रतिशत कर दिया गया। 21 अप्रैल, 2009 को घोषित दर में इसे फिर 5 प्रतिशत रखा गया है।

(ii) निवेश की प्रकृति (Nature of Investment)- बैंक के नकद कोष की मात्रा उसके निवेश की प्रकृति पर भी निर्भर करती है। यदि बैंक अपने निवेश का अधिकांश भाग अच्छी प्रतिभूतियों, विनिमय बिलों तथा अन्य तरल साधनों में लगाता है तो उसे कम मात्रा में नकद कोष रखने की आवश्यकता होती है। इसका कारण यह है कि आवश्यकता पड़ने पर इन प्रतिभूतियों को बेचकर नकदी की माँग पूरी की जा सकती है। इसके विपरीत, यदि बैंक अपने धन का विनियोग गैर-तरल सम्पत्तियों में करता है तो अधिक मात्रा में नकद कोष रखने की आवश्यकता होती है।

(iii) लोगों में बैंकिंग आदत (Banking Habit among People)- बैंकों द्वारा रखे जाने वाले नकद कोष की मात्रा से लोगों में बैंकिंग आदत का विकास हो जाता है तो लोग अधिकांश लेन-देन का भुगतान चेकों के माध्यम से करने लगते हैं। ऐसी दशा में नकद कोष की मात्रा कम रखने की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत, यदि लोग अपने समस्त लेन-देन नकदी में करना चाहते हैं तो बैंक को अधिक मात्रा में नकद कोष रखना पड़ता है।

(iv) समाशोधन गृहों की सुविधा (Facilities of Clearing House)- जिस क्षेत्र में समाशोधन गृह की सुविधा का जितना विकास होता है उस क्षेत्र में बैंकों को उतनी ही कम मात्रा में नकद कोष रखना पड़ता है। इसका कारण यह है कि वे अपने अधिकांश लेन-देन चेकों के आदान-प्रदान द्वारा निबटा लेते हैं। फलतः बैंकों को कम मात्रा में नकद कोष रखना पड़ता है। लेकिन यदि समाशोधन गृहों की सुविधा कम हो तो बैंकों को समस्त लेन-देन नकदी में करने के लिए अधिक मात्रा में नकद कोष रखने की आवश्यकता होगी।

(v) निक्षेपों का आकार (Size of Deposits) बैंक अपने पास नकद कोष की कितनी मात्रा रखे, इसके निर्धारण में बैंक के ग्राहकों की संख्या और उनके निक्षेपों के आकार की भी बड़ी भूमिका होती है। यदि बैंक के ग्राहकों की संख्या कम है और निक्षेपों का आकार बड़ा है तो कम मात्रा में नकद कोष रखने की आवश्यकता होगी। इसके विपरीत, यदि बैंक के ग्राहकों की संख्या अधिक है और उनके द्वारा थोड़ी-थोड़ी रकम निक्षेप के रूप में रखे गये हैं तो बैंक को अधिक मात्रा में नकद कोष रखने की आवश्यकता होगी।

(vi) खातों का स्वभाव (Nature of Accounts) बैंक के ग्राहक विभिन्न खातों के माध्यम से बैंक में अपना धन जमा करते हैं। यदि बैंक में चालू खातों की बहुतायत है तो बैंक को अधिक मात्रा में नकद कोष रखने की आवश्यकता होगी। इसका कारण यह है कि इस खाता के खाताधारी जल्दी-जल्दी नकदी की माँग करते हैं। लेकिन यदि बैंक के पास स्थायी जमा खाता और आवर्ती जमा खाता की संख्या अधिक है तो कम मात्रा में नकद कोष रखकर बैंक अपना काम सुचारु रूप से चला सकता है।

(vii) व्यापारिक दशाएँ (Business Conditions) अर्थव्यवस्था में तेजी और मंदी का दौर चलता रहता है। जब अर्थव्यवस्था में तेजी का रुख रहता है तब व्यापार जगत में नकदी की प्रचुरता रही है। ऐसे समय में लोग बैंकों से नकदी की माँग करने के बजाय अपने धन का विनियोग करते हैं, लेकिन मंदी के समय में आर्थिक संकट बना होता है। ऐसे समय में लोग बैंक में जमा अपने धन को निकालना चाहते हैं। अतः नकद मुद्रा की माँग बढ़ जाती है। इस प्रकार जब व्यापार और अर्थव्यवस्था में तेजी का रुख रहता है तब बैंकों को कम मात्रा में नकद कोष रखना पड़ता है और जब मंदी का रुख रहता है तब अधिक मात्रा में नकद कोष रखना पड़ता है।

(viii) दूसरे बैंकों की नकद कोष नीति (Cash Reserve Policy of Other Banks)-एक बैंक के नकद कोष नीति दूसरे बैंकों के नकद कोष नीतियों से भी प्रभावित होता है। कोई भी बैंक यह देखकर अपनी नीति का निर्धारण करता है कि उसका सहयोगी और प्रतियोगी बैंक अपने लिए किस प्रकार की नकद कोष नीति अपनाता है।

(2) मृत स्टॉक (Dead Stock)- बैंक को अपना व्यवसाय चलाने के लिए अपना धन कुछ ऐसी सम्पत्तियों में विनियोग करना पड़ता है जिससे प्रत्यक्ष रूप से कोई आय प्राप्त नहीं होती है। उदाहरण के लिए, अपने कार्यालय के लिए भवन का निर्माण, भवन का साज-सज्जा, उपस्कर, लॉकर, पंखे, अलमारियाँ, जनरेटर इत्यादि ।

इन मदों में किये गये विनियोग से कोई प्रत्यक्ष आय नहीं मिलती है इसलिए इन्हें मृत स्टॉक कहा जाता है। इस तरह के विनियोग सुरक्षा और बैंकिंग व्यवसाय के संचालन के लिए आवश्यक होते हैं।

B. लाभकर विनियोग (Profitable Investment)- एक लाभ कमाने वाली संस्था होने के कारण बैंक अपने धन का अधिकांश भाग लाभकर क्षेत्रों में ही विनियोग करता है। बैंक के लाभकर विनियोग निम्नलिखित हैं-

(1) माँग एवं अल्प सूचना ऋण (Money at Call and Short Notice)- बैंक द्वारा दिये जाने वाले इस ऋण की प्रकृति अति अल्पकालीन होती है। साधारणतः इसकी अवधि 1 दिन से लेकर 15 दिनों की होती है। इस ऋण को बैंक बिना किसी पूर्व सूचना के या अल्प सूचना देकर वापस ले सकता है। इस पर बैंक को मामूली दर पर ब्याज भी प्राप्त होता है। अल्पकालीन अवधि होने के कारण इस ऋण में तरलता का गुण पाया जाता है। नकद कोष के बाद बैंक का सबसे तरल विनियोग माँग एवं अल्प सूचना ऋण ही है। इस ऋण का चलन बिल बाजार में सबसे अधिक होता है किन्तु भारत में संगठित बिल बाजार का अभाव है, इसलिए भारत में इसका चलन एक बैंक द्वारा दूसरे बैंक को ऋण देने में ज्यादातर होता है।

(2) बिलों की कटौती करना (Discounting of Bills)- बैंक अपने धन का विनियोग व्यापारिक बिलों की कटौती करके भी करता है। यह भी बैंक का अल्पकालीन विनियोग होता है। यह प्रायः तीन माह की अवधि की होती है। यदि बिल के धारक को बिल के परिपक्व होने के पहले धन की आवश्यकता होती है तो वह व्यापारिक बैंक से बिल की कटौती कराकर धन प्राप्त कर लेता है। इस काम के लिए बैंक जो कटौती प्राप्त करता है वह बैंक की आय होती है। बिल के परिपक्व होने पर बैंक उस बिल के आदाता से बिल की पूरी रकम वसूल कर लेता है। यदि बिल के परिपक्व होने से पहले व्यापारिक बैंक को नकदी की आवश्यकता होती है तो वह उसे केन्द्रीय बैंक से पुनः कटौती कराकर नकदी की माँग को पूरा कर लेता है।

(3) ट्रेजरी बिलों तथा प्रतिभूतियों में निवेश (Investment in Securities)- देश का प्रत्येक व्यापारिक बैंक अपने धन का एक भाग कोषागार-विपत्रों तथा केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों के प्रतिभूतियों में विनियोग करता है। इस प्रकार के विनियोग से एक ओर तो सरकार को सहायता मिलती है और दूसरी ओर विनियोग सुरक्षित भी रहता है। इसी प्रकार बैंक नवरत्न कम्पनियों के अंशों एवं ऋणपत्रों में भी धन का विनियोग करता है। ऐसी कम्पनियों के प्रतिभूतियों में विनियोग सुरक्षा एवं तरलता की दृष्टि से अनुकूल होते हैं।

(4) ऋण तथा अग्रिम (Loans and Advances) ऋण तथा अग्रिम बैंकों द्वारा अपने धन के विनियोग का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है। बैंक व्यक्ति, फर्म, उद्योग इत्यादि को विभिन्न प्रकार की जमानतों के आधार पर ऋण एवं अग्रिम देकर लाभ कमाता है। इस प्रकार के विनियोग में तरलता का अभाव रहता है, इसलिए बैंक को इस पर अधिक व्याज प्राप्त होता है। सुरक्षा की दृष्टि इस प्रकार के विनियोग में बैंक को अत्यन्त सावधानी से काम करना चाहिए। भारत में बैंक अपने साधनों का सर्वाधिक भाग इसी क्षेत्र में लगाता है। इसलिए बैंक को सर्वाधिक आय भी इसी क्षेत्र से प्राप्त होती है। व्यापारिक बैंकों द्वारा ऋण एवं अग्रिम कई प्रकार से दिये जाते हैं। जैसे-साधारण ऋण तथा अग्रिम, (2) नकद साख तथा (3) अधिविकर्ष। (इन बिन्दुओं की व्यावसायिक बैंकों के कार्य वाले अध्याय में विस्तार से चर्चा की गयी है।)

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि बैंक अपने साधनों का विनियोग किसी एक क्षेत्र में न करके विविध क्षेत्रों में करता है ताकि तरलता, सुरक्षा, लाभदायकता, विक्रयशीलता इत्यादि का लाभ उठाया जा सके।


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