प्रश्न :- योजना को परिभाषित कीजिए।
उत्तर
:- योजना
इसकी व्याख्या करती है कि किसी देश के दुर्लभ संसाधनों का प्रयोग किस प्रकार किया
जाए ताकि देश के आर्थिक विकास को गति दी जा सके।
प्रश्न :- भारत ने योजना को क्यों चुना?
उत्तर
:- 1947 ई० (स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात्) में भारतीय अर्थव्यवस्था गतिहीन तथा पिछड़ी
अर्थव्यवस्था थी। कृषि ही जीवन-निर्वाह का मुख्य साधन थी किंतु कृषि की अवस्था अत्यधिक
दयनीय थी। अर्थव्यवस्था के द्वितीयक तथा तृतीयक क्षेत्र अविकसित थे और देश की बहुत
बड़ी जनसंख्या घोर निर्धनता का जीवन व्यतीत कर रही थी। अर्थव्यवस्था मुख्यत: माँग और
पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों पर आधारित थी। जिसका परिणाम था-निर्धनता, असमानता एवं
गतिहीनता। ऐसी अर्थव्यवस्था को बाजार की शक्तियों पर नहीं छोड़ा जा सकता है। अतः इन
समस्याओं के त्वरित समाधान के लिए भारत ने ‘नियोजन’ का मार्ग अपनाया।
प्रश्न :- योजनाओं के लक्ष्य क्या होने चाहिए?
उत्तर
:- किसी
योजना के स्पष्टत: निर्दिष्ट लक्ष्य होने चाहिए। भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के
लक्ष्य हैं
1.संवृद्धि,
2.आधुनिकीकरण,
3.आत्मनिर्भरता,
4.समानता,
5.रोजगार।
प्रश्न :- चमत्कारी बीज क्या होते हैं?
उत्तर
:- उच्च
पैदावार वाली किस्मों के बीजों (HYV) को चमत्कारी बीज कहते हैं। इन बीजों का
प्रयोग करने से कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है।
प्रश्न :- ‘विक्रय अधिशेष क्या है?
उत्तर
:- किसानों
द्वारा उत्पादन का बाजार में बेचा गया अंश ही ‘विक्रय अधिशेष’ कहलाता है।
प्रश्न :- कृषि क्षेत्रक में लागू किए गए भूमि सुधार की आवश्यकता और उनके
प्रकारों की व्याख्या करो।
उत्तर
:- ब्रिटिश
औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत भारत में मूलत: एक कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था ही बनी रही।
देश की लगभग 85 प्रतिशत जनसंख्या, जो गाँवों में बसी थी, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
रूप से कृषि के माध्यम से ही रोजी-रोटी कमा रही थी परंतु फिर भी कृषि क्षेत्र में
न तो संवृद्धि हुई और न ही समता रह गई। इन्हीं सब कारणों से भूमि सुधार की आवश्यकता
पड़ी। कृषि क्षेत्रक में निम्नलिखित सुधार किए गए हैं
1.
देश
में कृषि क्षेत्रक में बिचौलियों का उन्मूलन किया गया।
2.
वास्तविक
कृषकों को ही भूमि का स्वामी बनाया गया।
3.
किसी
व्यक्ति की कृषि भूमि के स्वामित्व की अधिकतम सीमा का निर्धारण किया गया।
4.
नई
तकनीक के प्रयोग पर बल दिया गया।
मध्यस्थों के
उन्मूलन का परिणाम यह हुआ कि लगभग 2 करोड़ काश्तकारों को सरकार से सीधा संपर्क हो
गया तथा वे जमींदारों द्वारा किए जा रहे शोषण से मुक्त हो गए।
प्रश्न :- हरित क्रांति क्या है? इसे क्यों लागू किया गया और इससे
किसानों को कैसे लाभ पहुँचा? संक्षेप में
व्याख्या कीजिए।
उत्तर
:- हरित
क्रांति से अभिप्राय कृषि उत्पादने में होने वाली भारी वृद्धि से है जो कृषि की नई
नीति अपना के कारण हुई है। स्वतंत्रता के समय देश की 25 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर
आश्रित थी। इस क्षेत्र में उत्पादकता बहुत कम थी और पुरानी प्रौद्योगिकी का प्रयोग
किया जाता था। अधिसंख्य किसानों के पास आधारिक संरचना का अभाव था जिसके कारण
कृषिप्रधान देश होने पर भी हम गरीब और विदेशी सहायता पर निर्भर थे। औपनिवेशिक काल
में कृषि क्षेत्र में उत्पन्न गतिरोध को दूर करने के लिए हरित क्रांति लाना आवश्यक
था। हरित क्रांति के कारण कृषि क्षेत्र की आगतों; जैसे उच्च पैदावार वाली किस्मों
के बीजों (HYV), पर्याप्त मात्रा में उर्वरकों, कीटनाशकों तथा निश्चित जल आपूर्ति,
नई तकनीक आदि का एक साथ प्रयोग होने लगा। हरित क्रांति प्रौद्योगिकी के प्रसार से
खाद्यान्न उत्पादन में अत्यधिक बढोतरी हुई विशेषकर गेहूँ और चावल में। किसानों को
बाजार में बेचने के लिए अधिशेष उपज मिलने लगी जिस कारण किसानों की आय में वृद्धि
हुई।
प्रश्न :- योजना उद्देश्य के रूप में समानता के साथ संवृद्धि’ की
व्याख्या कीजिए।
उत्तर
:- भारत
में पंचवर्षीय योजनाओं के लक्ष्य हैं-संवृद्धि, आधुनिकीकरण, आत्मनिर्भरता और
समानता। संक्षेप में, आयोजन से जनसामान्य के जीवन-स्तर में सुधार होना चाहिए। केवल
संवृद्धि, आधुनिकीकरण और आत्मनिर्भरता के द्वारा ही जनसामान्य के जीवन-स्तर में
सुधार नहीं आ सकता। किसी देश में उच्च संवृद्धि दर और विकसित प्रौद्योगिकी का
प्रयोग होने के बाद भी अधिकांश लोग गरीब हो सकते हैं। यह सुनिश्चित करना आवश्यक है
कि आर्थिक समृद्धि के लाभ देश के निर्धन वर्ग को भी सुलभ हों, केवल धनी लोगों तक
ही सीमित न रहें। अतः संवृद्धि, आधुनिकीकरण और आत्मनिर्भरता के साथ-साथ समानता भी
महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक भारतीय को भोजन, अच्छा आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी
मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करवाने में समर्थ होना चाहिए और धन-वितरण की असमानताएँ
भी कम होनी चाहिए। संक्षेप में, आर्थिक संवृद्धि, समानता के अभाव में अर्थहीन होती
है।
प्रश्न :- '‘क्या रोजगार सृजन की दृष्टि से योजना उद्देश्य के रूप में आधुनिकीकरण
विरोधाभास उत्पन्न करता है?’ व्याख्या कीजिए।
उत्तर
:- वस्तुओं
और सेवाओं का उत्पादन बढ़ाने के लिए उत्पादकों को नई प्रौद्योगिकी अपनानी पड़ती
है। जैसे किसान पुराने बीजों के स्थान पर नई किस्म के बीजों का प्रयोग कर खेतों की
पैदावार बढ़ा सकते हैं उसी प्रकार एक फैक्ट्री नई मशीनों का प्रयोग कर उत्पादन
बढ़ा सकती है। नई प्रौद्योगिकी को अपनाना ही आधुनिकीकरण है। आधुनिकीकरण के जरिए ही
नई-नई मशीनों का प्रयोग बढ़ाया जाता है, जिससे विनिर्माण एवं कृषि क्षेत्र में
श्रमिकों को स्थान मशीनें ले लेती हैं अर्थात् रोजगार के अवसर इन क्षेत्रों में
घटने लगते हैं। किंतु यह प्रभाव अल्पकालीन ही होता है। आधुनिकीकरण द्वारा उत्पादन
में वृद्धि होती है, आय बढ़ती है और विविध प्रकार की वस्तुओं की माँग सृजित होती
है। इस माँग को संतुष्ट करने के लिए नई-नई वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है जिसके
कारण रोजगार के नये अवसर सृजित होने लगते हैं। उपभोक्ता वस्तुओं एवं पूँजीगत
वस्तुओं के उत्पादन का विस्तार होता है, नये-नये उद्योगों की स्थापना होती है और द्वितीयक
उद्योगों के विस्तार के साथ-साथ तृतीयक क्षेत्र-बैंक, बीमा आदि का विस्तार होता है
जिससे रोजगार में वृद्धि होती है।
प्रश्न :- भारत जैसे विकासशील देश के रूप में आत्मनिर्भरता का पालन करना
क्यों आवश्यक था?
उत्तर
:- आत्मनिर्भरता
का अर्थ है—देश अपनी आवश्यकताओं को खरीदने के लिए पर्याप्त मात्रा में अतिरेक
उत्पन्न करे और अपने आयातों का भुगतान करने के लिए सक्षम हो। जो देश अपने आयातों
का भुगतान अपने उत्पादन के निर्यातों द्वारा करते हैं, वे आत्मनिर्भर देश कहलाते
हैं। विकासशील देश समाान्यतः आत्मनिर्भर नहीं हैं क्योंकि उनके निर्यात उनके
आयातों का भुगतान करने के लिए अपर्याप्त हैं। एक विकासशील देश के रूप में भारत को
आत्मनिर्भरता का पालन करना-निम्नलिखित कारणों से आवश्यक था
1.
विदेशी
सहायता देश की आंतरिक प्रयास क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
2.
विदेशी
सहायता विकास विरोधी तथा बचत विरोधी है। |
3.
विदेशी
सहायता अधिकांशतः प्रतिबद्ध होती है। अत: इसका इच्छित उपयोग नहीं हो पाती। भारत
में पंचवर्षीय योजनाओं का मूल लक्ष्य आत्मनिर्भरता को प्राप्त करना रहा है। उदाहरण
के लिए, प्रथम पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई ताकि
खाद्यान्नों के मामले में देश आत्मनिर्भर हो सके। बाद में औद्योगिक क्षेत्र में
आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया
प्रश्न :- भारतीय अर्थव्यवस्था में कुछ विशेष अनुकूल परिस्थितियाँ हैं
जिनके कारण यह विश्व का| बाह्य प्रापण केन्द्र बन रहा है। अनुकूल परिस्थितियाँ
क्या हैं?
उत्तर
:- विश्व
के बाह्य प्रापण केन्द्र के रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था में अनुकूल परिस्थितियाँ।
निम्नलिखित हैं|
1.
भारत
में तीव्र गति से सूचना प्रौद्योगिकी का विस्तार हुआ है।
2.
भारत
में प्रापण सेवाओं की लागत बहुत कम आती है।
3.
कार्य
का निष्पादन कुशलतापूर्वक हो जाता हैं।
4.
सेवा
दर निम्न है और श्रमशक्ति कुशल है।
प्रश्न :- योजना अवधि के दौरान औद्योगिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्रक को
ही अग्रणी भूमिका क्यों सौंपी गई थी?
उत्तर
:- स्वतंत्रता
प्राप्ति के बाद योजना अवधि के दौरान औद्योगिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र को
अग्रणी भूमिका सौंपने के निम्नलिखित कारण थे-
1.
स्वतंत्रता-प्रप्ति
के समय भारत के उद्योगपतियों के पास अर्थव्यवस्था के विकास हेतु उद्योगों में
निवेश करने के लिए पर्याप्त पूँजी नहीं थी।
2.
उस
समय बाजार भी इतना बड़ा नहीं था, जिसमें उद्योगपतियों को मुख्य परियोजनाएँ शुरू
करने के लिए प्रोत्साहन मिलता।
3.
भारतीय
अर्थव्यवस्था को समाजवाद के पथ पर अग्रसर करने के लिए यह निर्णय लिया गया कि सरकार
अर्थव्यवस्था में बड़े तथा भारी उद्योग पर नियंत्रण करेगी।
4.
देश
में क्षेत्रीय एवं सामाजिक विषमता को कम करने के लिए आर्थिक व सामाजिक संकेन्द्रण
को कम करना आवश्यक था।
प्रश्न :- इस कथन की व्याख्या करें-हरित क्रांति ने सरकार को खाद्यान्नों
के प्रापण द्वारा विशाल सुरक्षित भण्डार बनाने के योग्य बनाया, ताकि वह कमी के समय
उसका उपयोग कर सके।
उत्तर
:- औपनिवेशिक
काल का कृषि गतिरोध हरित क्रांति से स्थायी रूप से समाप्त हो गया। उच्च पैदावार
वाली किस्मों के बीजों (HYV), कीटनाशकों, उर्वरकों, निश्चित जलापूर्ति तथा आधुनिक
तकनीक की मशीनों के प्रयोग से कृषि उत्पादन अधिक मात्रा में बढ़ गया। किसान कृषि
उपज को बाजार में बेचने लगे। इसके फलस्वरूप खाद्यान्नों की कीमतों में कमी आई।
अपनी कुल आय के बहुत बड़े प्रतिशत का भोजन पर खर्च करने वाले निम्न आय वर्गों को
कीमतों में इस सापेक्ष कमी से बहुत लाभ हुआ। विपणित अधिशेष की वजह से सरकार
पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्नों को प्राप्त कर सुरिक्षत स्टॉक बना सकी जिसे
खाद्यान्नों की कमी के समय प्रयोग किया जा सकता था।
प्रश्न :- सहायिकी किसानों को नई प्रौद्योगिकी का प्रयोग करने को प्रोत्साहित तो
करती है पर उसका सरकारी वित्त पर भारी बोझ पड़ता-इस तथ्य को ध्यान में रखकर सहायिकी
की उपयोगिता पर चर्चा करें।
उत्तर
:- आजकल कृषि क्षेत्र को दी जा रही आर्थिक सहायिकी एक ज्वलंत बहस का विषय बन गथा है।
हमारे देश के छोटे किसान अधिकांशत: गरीब हैं; अत: छोटे किसानों को विशेष रूप से
HYV प्रौद्योगिकी अपनाने के लिए सहायिकी दी जानी आवश्यक है। सहायता के अभाव में वे
नई प्रौद्योकि का उपयोग नहीं कर पाएँगे जिसका कृषि उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।
परंतु कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि एक बार प्रौद्योगिकी का लाभ मिल जाने तथा उसके
व्यापक प्रचलन के बाद सहायिकी धीरे-धीरे समाप्त कर देनी चाहिए क्योंकि उर्वरकी सहायता
का लाभ बड़ी मात्रा में प्रायः उर्वरक उद्योग तथा अधिक समृद्ध क्षेत्र के किसानों को
ही पहुँचता है। अतः यह तर्क दिया जाता है कि उर्वरकों पर सहायिकी जारी रखने का कोई
औचित्य नहीं है। इनसे लक्षित समूह को लाभ नहीं होगा और सरकारी कोष पर आवश्यक बोझ पड़ेगा।
इसके विपरीत कुछ विशेषज्ञों का मत है कि सरकार को कृषि सहायिकी जारी रखनी चाहिए क्योंकि
भारत में कृषि एक बहुत ही जोखिम भरा व्यवसाय है। अधिकतर किसान गरीब हैं और सहायिकी
को समाप्त करने से वे अपेक्षित आगतों का प्रयोग नहीं कर पाएँगे। इसका नुकसान यह होगा
कि गरीब किसान और गरीब हो जाएँगे, कृषि क्षेत्र में उत्पादन स्तर गिरेगा, खाद्यान्नों
की कमी से कीमतें बढ़ने लगेंगी जिससे हम विदेशों से सहायता लेने को मजबूर होंगे। इन
विशेषज्ञों का तर्क है कि यदि सहायिकी से बड़े किसानों तथा उर्वरक उद्योगों को अधिक
लाभ हो रहा है, तो सही नीति सहायिकी समाप्त करना नहीं है, बल्कि ऐसे कदम उठाना है जिनसे
कि केवल निर्धन किसानों को ही इनका लाभ मिले।
प्रश्न :- हरित क्रांति के बाद भी 1990 तक हमारी 65 प्रतिशत जनसंख्या कृषि
क्षेत्रक में ही क्यों लगी रही? ।
उत्तर
:- 1960 के दशक के अंत तक देश में कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई और देश खाद्यान्नों
के मामले में आत्मनिर्भर बन गया। इसके बावजूद नकारात्मक पहलू यह रहा है कि 1990 तक
भी देश की 65 प्रतिशत जनसंख्या कृषि में लगी थी। अर्थशास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुंचे
हैं कि जैस-जैसे देश सम्पन्न होता है, सकल घरेलू उत्पाद में, कृषि के योगदान में और
उस पर निर्भर जनसंख्या में पर्याप्त कमी आती है। भारत में 1950-90 की अवधि में कृषि
क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान कम हुआ, लेकिन कृषि क्षेत्र पर आश्रितों की
संख्या में कोई खास कमी नहीं आई। 1950 में 67.5% लोग एवं 1990 में 64.9 प्रतिशत जनसंख्या
कृषि कार्य में लगी थी। इसका कारण यह माना जाता है कि उद्योग क्षेत्र और सेवा क्षेत्र,
कृषि क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को नहीं खपा पाए। अनेक अर्थशास्त्री इसे
1950-90 के दौरान अपनाई गई नीतियों की विफलता मानते हैं। मूलत: इसका कारण द्वितीयक
एवं तृतीयक क्षेत्रों का आशानुकूल विकास न हो पाना है।
प्रश्न :- यद्यपि उद्योगों के लिए सार्वजनिक क्षेत्रक बहुत आवश्यक रहा है,
पर सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक उपक्रम ऐसे हैं जो भारी हानि उठा रहे हैं और इस क्षेत्रक
के अर्थव्यवस्था के संसाधनों की बर्बादी के साधन बने हुए हैं। इस तथ्य को ध्यान में
रखते हुए सार्वजनिक क्षेत्रक के उपक्रमों की उपयोगिता पर चर्चा करें।
उत्तर
:- स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय भारत के उद्योगपतियों के पास हमारी अर्थव्यवस्था के
विकास हेतु उद्योगों में निवेश के लिए पर्याप्त पूँजी नहीं थी। इसी कारण राज्य को औद्योगिक
क्षेत्र को प्रोत्साहन देने में व्यापक भूमिका निभानी पड़ी। इसके अतिरिक्त भारतीय अर्थव्यवस्था
को समाजवाद के पथ पर अग्रसर करने के लिए यह निर्णय लिया गया कि राज्य उन उद्योगों पर
पूरा नियंत्रण रखेगा, जो अर्थव्यवस्था के लिए महत्त्वपूर्ण थे। वस्तुतः औद्योगिक क्षेत्र
प्रायः सार्वजनिक क्षेत्रक के कारण विविधतापूर्ण बन गया था। इस क्षेत्रक की भूमिका
से कम पूँजी वाले लोगों को भी उद्योग क्षेत्र में प्रवेश का मौका मिल गया। भारतीय अर्थव्यवस्था
की संवृद्धि में सार्वजनिक क्षेत्रक द्वारा किए गए योगदान के बावजूद कुछ अर्थशास्त्रियों
ने सार्वजनिक क्षेत्रक के अनेक उद्यमों के निष्पादन की कड़ी आलोचना की है। इस क्षेत्रक
ने एकाधिकारी शैली में काम किया जिससे निजी क्षेत्रक को पर्याप्त आगे बढ़ने का अवसर
नहीं मिल पाया। अब यह व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है कि इस क्षेत्रक को अब उन उद्योगों
से हट जाना चाहिए जहाँ निजी क्षेत्रकीक तरह से काम कर सकता है। किंतु अनेक क्षेत्रक
ऐसे हैं जहाँ आज भी सार्वजनिक क्षेत्रक की अपरित बनी हुई है। उदाहरण के लिए, उच्च विकास
दर के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार आवश्यक है, गैर-लाभकारी
किंतु उपयोगी क्षेत्रों में प्रारंभिक विनियोग सार्वजनिक क्षेत्रक का विस्तार आवश्यक
है, गैर-लाभकारी किंतु उपयोगी क्षेत्रों में प्रारंभिक विनियोग सार्वजनिक क्षेत्रक
द्वारा ही संभव है, जनोपयोगी सेवाओं की स्थापना सार्वजनिक क्षेत्रक में की जा सकती
है और सार्वजनिक क्षेत्रक के विस्तार से ही आर्थिक विषमताओं को कम किया जा सकता है।
इस प्रकार निम्न क्षेत्रों में सार्वजनिक क्षेत्रक का विस्तार अपरिहार्य है-
1.
सुरक्षात्मक उद्योग,
2.
भारी विनियोग वाले उद्योग,
3.
लम्बी गर्भावधि वाले उद्योग तथा
4.
जनोपयोगी क्षेत्रक।
प्रश्न :- आयात प्रतिस्थापन किस प्रकार घरेलु उद्योगों को संरक्षण प्रदान
करता है?
उत्तर
:- हमारे नीति-निर्माताओं द्वारा अपनाई गई औद्योगिक नीति व्यापार नीति से घनिष्ट रूप
से सम्बद्ध थी। हमारी योजनाओं में व्यापार की विशेषता अंतर्मुखी व्यापार नीति थी। तकनीकी
रूप से इस नीति को आयात-प्रतिस्थापन कहा जाता है। इस नीति का उद्देश्य आयात के बदले
घरेलू उत्पादन द्वारा पूर्ति करना है। इस नीति द्वारा राज्य ने घरेलू उद्योगों की वस्तुओं
का उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित किया और विदेशी प्रतिस्पर्धा से घरेलू उद्योगों
की रक्षा की। आयात संरेक्षण दो प्रकार के थे-
1.
प्रशुल्क-प्रशुल्क से आयातित वस्तुएँ महँगी हो जाती हैं,
2.
कोटा-कोटे में वस्तुओं की मात्रा तय होती है, जिन्हें आयात किया जा सकता है। प्रशुल्क
एवं कोटे का प्रभाव यह होता है कि उनसे आयात प्रतिबंधित हो जाते हैं और विदेशी प्रतिस्पर्धा
से देशी फर्मों की रक्षा होती है।
प्रश्न :- औद्योगिक नीति प्रस्ताव, 1956 में निजी क्षेत्रक का नियमन क्यों
और कैसे किया गया था?
उत्तर
:- भारी उद्योगों पर नियंत्रण रखने के राज्य के लक्ष्य के अनुसार औद्योगिक नीति प्रस्ताव,
1956 को लाया गया था। इस प्रस्थाव को द्वितीय पंचवर्षीय योजना का आधार बनाया गया। इस
प्रस्ताव के अनुसार, उद्योगों को तीन वर्गों में विभक्त किया गया। प्रथम वर्ग में वे
उद्योग सम्मिलित थे, जिन पर राज्य का अनन्य स्वामित्व था। दूसरे वर्ग में वे उद्योग
शामिल थे, जिनके लिए निजी क्षेत्र, सरकारी क्षेत्र के साथ मिलकर प्रयास कर सकते थे,
परंतु जिनमें नई इकाइयों को शुरू करने की एकमात्र जिम्मेदारी राज्य की होती। तीसरे
वर्ग में वे उद्योग शामिल थे, जो निजी क्षेत्रक के अंतर्गत आते थे लेकिन इस क्षेत्र
को लाइसेंस पद्धति के माध्यम से राज्य के नियंत्रण में रखा गया। इस प्रस्ताव में सरकार
के लिए ऐसा करना आवश्यक था। इस नीति का प्रयोग पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों को प्रोत्साहित
करने के लिए किया गया। पिछड़े क्षेत्रों में उद्योग लगाने वाले उद्यमियों को प्रोत्साहित
करने के लिए अनेक प्रकार से आर्थिक सहायता प्रदान की गई। इस नीति का उद्देश्य क्षेत्रीय
समानता को बढ़ावा देना था।
प्रश्न :- निम्नलिखित युग्मों को सुमेलित कीजिए
उत्तर :-
प्रश्न :- स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्यतः माँग
और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों पर आधारित थी जिसका परिणाम था
(क)
निर्धनता
(ख)
असमानता
(ग)
गतिहीनता
(घ)
ये सभी √
प्रश्न :- मिश्रित अर्थव्यवस्था को नियन्त्रित अर्थव्यवस्था की संज्ञा किसने
दी है?
(क)
प्रो० हैन्सन ने
(ख)
प्रो० लर्नर ने √
(ग)
डॉ० डाल्टन ने
(घ)
लॉक्स ने
प्रश्न :- भारत सरकार ने औद्योगिक नीति की घोषणा कब की?
(क)
6 अप्रैल, 1948 ई० को √
(ख)
2 अक्टूबर, 1943 को
(ग)
1 अप्रैल, 1999 ई० को
(घ)
इनमें से कोई नहीं
प्रश्न :- भारत में आर्थिक नियोजन की तकनीक को अपनाया गया|
(क)
1 अप्रैल, 1950 से
(ख)
1 अप्रैल, 1851 से √
(ग)
1 अप्रैल, 1951 से
(घ)
इनमें से कोई नहीं
प्रश्न :- “भूमि सुधार व्यक्ति और भूमि के सम्बन्धों में नियोजन और संस्थागत
पुनर्गठन है।” यह | परिभाषा है|
(क)
प्रो० बाउले
(ख)
डॉ० बी०बी० भट्ट
(ग)
रमेश दत्त ।
(घ)
प्रो० गुन्नार मिर्डल √
प्रश्न :- पूँजीवाद क्या है?
उत्तर
:- पूँजीवाद आर्थिक संगठन की एक ऐसी प्रणाली है जिसमें उत्पादन के साधनों पर व्यक्ति
का निजी अधिकार होता है तथा वह उत्पादन के साधनों का प्रयोग लाभ कमाने की दृष्टि से
करता है।
प्रश्न :- समाजवाद क्या है?
उत्तर
:- समाजवाद आर्थिक संगठन की एक ऐसी प्रणाली है जिसमें उत्पत्ति के साधनों पर सरकार
अथवा लोकसत्ता का अधिकार होता है तथा समस्त आर्थिक क्रियाएँ निजी क्षेत्र में न रहकर
सार्वजनिक क्षेत्र में रहती
प्रश्न :- मिश्रित अर्थव्यवस्था क्या है?
उत्तर
:- मिश्रित अर्थव्यवस्था पूँजीवाद और समाजवाद के बीच की अवस्था है। इसमें पूँजीवाद
व समाजवाद दोनों के दोषों से अर्थव्यवस्था को मुक्त करके दोनों प्रणालियों के गुणों
को अपनाया जाता है। इसमें निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र को सह-अस्तित्व पाया जाता है।
प्रश्न :- आर्थिक नियोजन से क्या आशय है?
उत्तर
:- आर्थिक नियोजन से आशय पूर्व-निर्धारित और निश्चित सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्यों
की पूर्ति हेतु अर्थव्यवस्था के सभी अंगों को एकीकृत और समन्वित करते हुए राष्ट्र के
संसाधनों के सम्बन्ध में सोच-विचारकर रूपरेखा तैयार करने और केन्द्रीय नियन्त्रण से
है।
प्रश्न :- दसवीं पंचवर्षीय योजना के दो उद्देश्य बताइए।
उत्तर :-
(1) सकल राष्ट्रीय उत्पाद में 8% वार्षिक वृद्धि।
(2) श्रमशक्ति को लाभपूर्ण रोजगार प्रदान
करना।
प्रश्न :- भारतीय कृषि की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :-
(1) भारत में कृषि उत्पादकता अन्य देशों क तुलना में कम है।
(2) कार्यशील जनसंख्या का लगभग 67.2% भाग
कृषि से आजीविका प्राप्त करता है।
प्रश्न :- सहकारी कृषि की परिभाषा दीजिए।
उत्तर
:- “सहकारी कृषि अनिवार्य रूप से ऐसी व्यवस्था को सूचित करती है, जिसमें भूमि का एकत्रीकरण
करके उसका संयुक्त प्रबन्ध किया जाता है।”
प्रश्न :- भारत में सहकारी कृषि के पक्ष में दो तर्क दीजिए।
उत्तर :-
(1) जोतों के आकार में वृद्धि होती है।
(2) कृषि नियोजन में सहायता मिलती है।
प्रश्न :- आर्थिक जोत की परिभाषा दीजिए।
उत्तर
:- “आर्थिक जोत एक ऐसी जोत है, जो किसी परिवार को न्यूनतम जीवन स्तर पर रहने के लिए
पर्याप्त आय प्रदान करे।”
प्रश्न :- कृषक बीमा आय योजना क्या है?
उत्तर
:- इस योजना के अन्तर्गत किसानों को उनकी उपज का कुल मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य पर
आधारित’ मिलने की गारण्टी दी जाएगी।
प्रश्न :- नई राष्ट्रीय कृषि नीति की घोषणा कब की गई?
उत्तर
:- नई राष्ट्रीय कृषि नीति की घोषणा 29 जुलाई, 2000 को संसद में की गई।
प्रश्न :- नई कृषि नीति का क्या लक्ष्य है?
उत्तर
:- नई कृषि नीति का लक्ष्य अगले दो दशकों के लिए कृषि क्षेत्र में प्रति वर्ष 4% वृद्धि
दर प्राप्त करना है।
प्रश्न :- राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना का क्या उद्देश्य है?
उत्तर
:- इस योजना का उद्देश्य है-सूखा, बाढ़, ओला-वृष्टि, चक्रवात, आग, कीट व बीमारियों
आदि प्राकृतिक आपदाओं के कारण फसल को हुई क्षति से किसानों का संरक्षण करना।
प्रश्न :- भू-सुधार से क्या आशय
है?
उत्तर
:- भू-सुधार से आशय छोटे कृषकों एवं कृषि श्रमिकों के लाभार्थ भूमि-स्वामित्व के पुनर्वितरण
से लगाया जाता है।
प्रश्न :- हरित क्रान्ति से क्या आशय है?
उत्तर
:- हरत क्रान्ति से आशय सिंचित और असिंचित कृषि क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाली किस्मों
को आधुनिक कृषि पद्धति से उगाकर कृषि उपज में यथासम्भव अधिक वृद्धि करने से है।
प्रश्न :- यान्त्रिक कृषि का अर्थ बताइए।
उत्तर
:- यान्त्रिक कृषि का अभिप्राय भूमि सम्बन्धी कार्यों में, जिन्हें प्राय: बैलों, घोड़ों
अथवा अन्य पशुओं की सहायता से अथवा मानव श्रम द्वारा अथवा पशु एवं मानव श्रम दोनों
के द्वारा किया जाता है, में यान्त्रिक शक्ति का प्रयोग करने से है।
प्रश्न :- कृषि विपणन से क्या आशय है?
उत्तर
:- कृषि विपणन के अन्तर्गत उन समस्त क्रियाओं का समावेश किया जाता है, जिनका सम्बन्ध
कृषि उत्पादन के कृषक के पास से अन्तिम उपभोक्ताओं तक पहुँचाने में होता है।
प्रश्न :- सुव्यवस्थित कृषि विपणन की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
:- सुव्यवस्थित कृषि विपणन की दो विशेषताएँ हैं-
(1)
मध्यस्थों की संख्या न्यूनतम होना तथा
(2)
भण्डार-गृहों की पर्याप्त व्यवस्था होना।
प्रश्न :- ग्रामीण बाजार में फसल की बिक्री किन रूपों में होती है?
उत्तर
:- (1) गाँव के विशिष्ट अथवा साप्ताहिक बाजारों में।
(2)
गाँव के महाज एवं साहूकारों को।
(3)
गाँव में भ्रमण करते व्यापारियों तथा कमीशन एजेण्टों को।
प्रश्न :- भारत में कृषि उपज की विक्रय व्यवस्था के दो दोष बताइए।
उत्तर
:- कृषि उपज की विक्रय व्यवस्था के दो दोष हैं–
(1)
घटिया किस्म की कृषि उपज।
(2)
बहुत अधिक मध्यस्थों का होना।
प्रश्न :- भारत में कृषि विपणन व्यवस्था को सुधारने के लिए दो सुझाव दीजिए।
उत्तर
:- कृषि विपणन व्यवस्था को सुधारने हेतु दो सुझाव हैं-
(1)
कृषि उपज की बिक्री के लिए। स्थान-स्थान पर सहकारी कृषि विपणन समितियों की स्थापना
की जाए। |
(2)
नियन्त्रित मण्डियों की अधिकाधिक संख्या में स्थापना की जाए।
प्रश्न :- गाँवों में फसल की बिक्री की विवशता के लिए उत्तरदायी दो कारण
बताइए।
उत्तर :-
(1) भण्डारण सुविधाओं का अभाव।
(2)
किसानों को साहूकारों व महाजनों के ऋण-चंगुल में फैसा रहना।
प्रश्न :- अनियमित मण्डियों में कोई दो प्रचलित बुराइयाँ बताइए।
उत्तर :-
(1) विभिन्न प्रकार की अनुचित कटौतियाँ काटना।
(2)
कम माप-तौल द्वारा किसानों को धोखा देना।
प्रश्न :- मूल्य स्थिरीकरण का क्या अर्थ है?
उत्तर
:- मूल्य स्थिरीकरण से आशय मूल्यों में होने वाले उच्चावचनों को एक सीमा तक रखने से
है अर्थात् उच्चावचनों को नियन्त्रित करने से है।
प्रश्न :- न्यूनतम समर्थन मूल्य से क्या आशय है?
उत्तर
:- न्यूनतम समर्थन मूल्य से आशय सरकार द्वारा ऐसे आश्वासन से है कि यदि खुले बाजार
में मूल्य कम हो जाए तो सरकार न्यूनतम मूल्य पर इसका क्रय करने की व्यवस्था करेगी।
प्रश्न :- उपदान (आर्थिक सहायता) से क्या आशय है?
उत्तर
:- उपदान वह आर्थिक सहायता है जिसे सरकार वस्तुओं के मूल्यों को निम्न स्तर पर बनाए
रखने के लिए उत्पादकों, वितरकों व निर्यातकों को प्रदान करती है।
प्रश्न :- औद्योगीकरण से क्या आशय है?
उत्तर
:- औद्योगीकरण से आशय निर्माणी उद्योगों की स्थापना एवं उनके विकास से है।
प्रश्न :- भारत में औद्योगीकरण की दो समस्याएँ बताइए।
उत्तर
:- भारत में औद्योगीकरण की दो समस्याएँ हैं|
(1)
तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या भारत के औद्योगिक विकास में बाधक बनी है।
(2)
बाजार की सम्पूर्णता एवं जोखिम के आधिक्य के कारण देश में कुशल उद्यमीय क्षमता का अभाव
प्रश्न :- “भारत का औद्योगिक विकास मुख्यतः उसके कृषि विकास पर निर्भर करता
है। इसके पक्ष में दो तर्क दीजिए।
उत्तर
:- इसके पक्ष में दो तर्क हैं-
(1)
कृषि; उद्योगों को कच्चा माल उपलब्ध कराती है।
(2)
कृषि खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर बनाकर औद्योगिक विकास के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण
करती है।
प्रश्न :- दसवीं योजना में औद्योगिक विकास रणनीति के दो बिन्दु बताइए।
उत्तर
:- (1) औद्योगिक उदारीकरण को राज्य स्तर पर ले जाना।
(2)
लघु उद्योग क्षेत्र के विकास पर अधिक ध्यान देना।
प्रश्न :- 1948 की औद्योगिक नीति के दो उद्देश्य बताइए।
उत्तर
:- (1) समाने अवसर तथा न्याय प्रदान करने वाली सामाजिक-व्यवस्था की स्थापना करना।
(2)
सुखद औद्योगिक श्रम सम्बन्धों की स्थापना करना।
प्रश्न :- 1956 की औद्योगिक नीति के दो उद्देश्य बताइए।
उत्तर
:- (1) आर्थिक विकास की दर में वृद्धि करना।
(2)
रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना।
प्रश्न :- औद्योगिक नीति, 1991 के दो उद्देश्य बताइए।
उत्तर
:- (1) लघु उद्योग के विकास को बल देना ताकि यह क्षेत्र अधिक कुशलता एवं तकनीकी सुधार
के वातावरण में विकसित होता रहे
(2)
श्रमिकों के हितों की रक्षा करना।
प्रश्न :- लाइसेन्स नीति के दो उद्देश्य बताइए।
उत्तर
:- (1) उद्योगों के स्वामित्व के केन्द्रीकरण को रोकना।
(2)
क्षेत्रीय आर्थिक असन्तुलनों को दूर करना।
प्रश्न :- वर्तमान में लघु उद्योग की निवेश सीमा कितनी है?
उत्तर
:- ₹5 करोड़।
प्रश्न
:- भारतीय योजना का निर्माता किसे माना जाता है?
उत्तर
:- पी० सी० महालनोबिस को।
प्रश्न :- विपणन अधिशेष किसे कहते हैं?
उत्तर
:- किसानों द्वारा उत्पादन का बाजार में बेचा गया अंश ‘विपणन अधिशेष’ कहलाता है।
प्रश्न :- आयात प्रतिस्थापन नीति का क्या उद्देश्य है?
उत्तर
:- आयात प्रतिस्थापन नीति का उद्देश्य आयात के बदले घरेलू उत्पाद द्वारा पूर्ति करना
है।
प्रश्न :- आर्थिक विकास एवं आर्थिक वृद्धि में अन्तर बताइए।
उत्तर
:- आर्थिक विकास एवं आर्थिक वृद्धि में निम्नलिखित
अन्तर हैं
1.
विकास के अन्तर्गत उत्पादन में संरचनात्मक परिवर्तन आता है, जबकि वृद्धि के अन्तर्गत
संरचनात्मक परिवर्तन स्वाभाविक ढंग से लाए जाते हैं और वर्तमान संरचना को बनाए रखा
जाता
2.
आर्थिक विकास के अन्तर्गत क्रान्तिकारी एवं आकस्मिक परिवर्तन तीव्र गति से किए जाते
हैं, जबकि आर्थिक वृद्धि के अन्तर्गत संसाधनों में क्रमिक परिवर्तन के अनुरूप मन्द
गति से स्वाभाविक परिवर्तन होने दिए जाते हैं।
3.
विकास के अन्तर्गत पुराने सन्तुलन को छिन्न-भिन्न करके नवीन सन्तुलन को अगले चरणों
परस्थापित किया जाता है, जबकि वृद्धि में पुराने सन्तुलन में यथासम्भव समायोजन स्थापित
किए जाते
4.
विकास को ऐसी अर्थव्यवस्थाओं से सम्बद्ध किया जाता है जो अल्पविकसित हैं लेकिन जिनमें
। विकास की सम्भावनाएँ विद्यमान हैं। इसके विपरीत, आर्थिक वृद्धि में वर्तमान साधनों
का | वैकल्पिक एवं अहं उपयोग करके उत्पादन बढ़ाया जाता है।
5.
आर्थिक विकास के अन्तर्गत एक स्थिर अर्थव्यवस्था को बाह्य प्रेरणा एवं सरकारी निर्देशन
तथा | नियन्त्रण द्वारा गतिशील किया जाता है, जबकि आर्थिक वृद्धि स्वाभाविक एवं स्वचालित
परिवर्तनों का संकेतक होती है।
6.
आर्थिक विकास के अन्तर्गत दीर्घकालीन परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है, जबकि आर्थिक
| वृद्धि स्वभाविक परिवर्तनों का अध्ययन करती है।
7.
आर्थिक वृद्धि का अर्थ है-उत्पादन में वृद्धि, जबकि आर्थिक विकास का अर्थ है-उत्पादन
में वृद्धि + प्राविधिक एवं संस्थागत परिवर्तन।
यद्यपि
आर्थिक विकास और आर्थिक वृद्धि में भेद करना सम्भव है, किन्तु इस प्रकार का भेद व्यावहारिक
दृष्टि से अधिक उपयोगी नहीं हो सकता। पॉल बरान के शब्दों में-“विकास और वृद्धि के विचार
किसी पुरानी और बेकार चीज से किसी नई स्थिति की ओर परिवर्तन को बतलाते हैं। इसलिए अच्छा
यही होगा कि आर्थिक विकास और आर्थिक वृद्धि दोनों का प्रयोग परिवर्तन की उस प्रक्रिया
को बतलाने के लिए किया जाए जिसके द्वारा कोई अर्थव्यवस्था आर्थिक उपलब्धि के ऊँचे स्तर
को प्राप्त करती है।”
प्रश्न :- अल्पविकसित (विकासशील अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषता क्या है)
उत्तर
:- अल्पविकसित (विकासशील) अर्थव्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1.
ये देश आर्थिक दृष्टि से पिछड़े होते हैं और इनकी प्रति व्यक्ति आय विकसित देशों की
तुलना में बहुत कम होती है।
2.
अधिकांश विकासशील देश कृषिप्रधान होते हैं किन्तु कृषि तकनीकी परम्परागत और कृषि उत्पादकता
निम्न होती है।
3.
पूँजी की कमी पायी जाती है जिसके कारण पूँजी निर्माण की दर न्यून रहती है।
4.
आधुनिक संरचना परिवहन व संचार के साधन, बैंकिंग सुविधाओं तथा शिक्षा व चिकित्सा | सुविधाओं
का अभाव पाया जाता है।
5.
कृषि पर जनसंख्या का भार अधिक होता है और औद्योगीकरण के अभाव में व्यापक रूप से बेरोजगारी
वे अर्द्ध-बेरोजगारी पायी जाती है।
6.
प्राकृतिक साधन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं किन्तु तकनीकी पिछड़ेपन के कारण वे
अप्रयुक्त व अल्प-प्रयुक्त पड़े रहते हैं
7.
आधारभूत उद्योगों के अभाव के कारण इन देशों में औद्योगिक पिछड़ापन पाया जाता है। .
8.
इन देशों में पूँजी की कमी, बाजार की अपूर्णता, तकनीकी ज्ञान की कमी आदि के कारण निर्धनता
के दुश्चक्र क्रियाशील रहते हैं।
9.
इन देशों में आर्थिक असमानताएँ पायी जाती हैं। आर्थिक विकास के साथ-साथ असमानताएँ बढ़ी
जाती हैं।
10.
जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर ऊची होती है जिसके कारण इन देशों में जनाधिक्य पाया
जाता है।
प्रश्न :- भारत में सार्वजनिक उपक्रमों की उपलब्धियाँ बताइए।
उत्तर
:- स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने देश के त्वरित आर्थिक एवं सामाजिक
विकास के लिए सार्वजनिक उपक्रमों को स्थापित एवं सुव्यवस्थित करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभाई है। इनकी उपलब्धियाँ निम्नलिखित हैं
1.
गत वर्षों में सार्वजनिक उपक्रमों में विनियोग में काफी वृद्धि हुई है।
2.
सार्वजनिक उपक्रमों की बिक्री धनराशि में प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है। इस प्रकार ये
उपक्रम अर्थव्यवस्था में वस्तुओं तथा सेवाओं के रूप में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं।
3.
क्षमता उपयोग में सुधार हुआ है।
4.
प्रयुक्त पूँजी पर सकल लाभ के प्रतिशत में भी प्रभावकारी सुधार हुआ है।
5.
सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा घोषित लाभांश गत वर्षों में निरन्तर बढ़ा है।
6.
सार्वजनिक उपक्रमों ने प्रत्यक्ष रूप से अधिकाधिक लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए
हैं। इसके साथ ही उनके वेतन एवं मजदूरी में भी आशातीत वृद्धि हुई है।
7.
सार्वजनिक उपक्रम अपने कर्मचारियों को आवास तथा कल्याण सम्बन्धी सुविधाएँ प्रदान कर
रहे
8.
सार्वजनिक उपक्रमों में पूरक उद्योगों का विकास हुआ है।
9.
निर्यातों से प्राप्त आय में वृद्धि हुई है।
10.
ये उपक्रम मूल्यवान विदेशी मुद्रा को बचाने में सहायक रहे हैं।
प्रश्न :- भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्त्व बताइए।
उत्तर
:- भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा
सकता है
1.
भारतीय कृषि राष्ट्रीय आय का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।।
2.
सम्पूर्ण जनसंख्या का लगभग 67% भाग अपनी आजीविका कृषि से ही प्राप्त करता है।
3.
देश के कुल भू-क्षेत्र के लगभग 49.8% भाग में खेती की जाती है।
4.
कृषि देश की 121 करोड़ जनसंख्या को भोजन तथा 36 करोड़ पशुओं को चारा प्रदान करती है।
5.
देश के महत्त्वपूर्ण उद्योग कच्चे माल के लिए कृषि पर ही आश्रित हैं।
6.
चाय, जूट, लाख, शक्कर, ऊन, रुई, मसाले, तिलहन आदि के निर्यात से देश को पर्याप्त विदेशी
| मुद्रा प्राप्त होती है। ”
7.
कृषि देश के आन्तरिक व्यापार का प्रमुख आधार है।
8.
कृषि एवं कृषि वस्तुएँ केन्द्र एवं राज्य सरकारों को राजस्व उपलब्ध कराती हैं।
9.
कृषि उत्पादन यातायात को पर्याप्त मात्रा में प्रभावित करता है।
प्रश्न :- भारत में कृषि भूमि के उपविभाजन व अपखण्डन के दोष (हानियाँ) बताइए।
उत्तर
:- भारत में कृषि भूमि के उपविभाजन व अपखण्डन के मुख्य दोष अथवा हानियाँ निम्नलिखित
हैं
1.
उत्पादन व्यय में वृद्धि– खेतों के छोटे तथा छिटके होने से भूमि, समय, श्रम एवं पूँजी
का अपव्यय होता है जिससे उत्पादन व्यय में वृद्धि हो जाती है।
2.
कृषि सुधार में कठिनाइयाँ– छौटे तथा बिखरे हुए खेतों पर कोई सुधार कार्य नहीं हो ता।
| सिंचाई, खाद तथा आधुनिक कृषि उपकरणों की सुविधा इन खेतों को नहीं मिल पाती, जिससे
उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
3.
भूमि का अपव्यय- छोटे तथा छिटके खेतों में भूमि को दो प्रकार से अपव्यय होता है। कुछ
भूमि तो मेंड़ बनाने में नष्ट हो जाती है और शेष अपने लघु आकार के कारण पूर्णत: प्रयोग
में नहीं | आ पाती।
4.
सिंचाई में बाधा- छोटे-छोटे खेतों पर सिंचाई करना आर्थिक दृष्टि से भी उपयुक्त नहीं
होता। डॉ० केप का अनुमान है कि 6 एकड़ तक के खेत पर सिंचाई करने से किसान को 55 प्रति
एकड़ तक घाटा उठाना पड़ता है, जबकि 25 एकड़ के खेत पर यह घाटा कम होकर केवल 2 प्रति
एकड़े रह जाता है।
5.
देख- रेख में असुविधा-विखण्डन के कारण किसान को देख-रेख पर बहुत व्यय करना पड़ता है
अन्यथा पशु-पक्षी खड़ी फसल को नष्ट कर देते हैं।
6.
अन्य दोष- उपविभाजन एवं अपखण्डन के परिणामस्वरूप कुछ अन्य दोष भी उत्पन हो जाते हैं;
जैसे-
1.
भूमि की उर्वरा शक्ति में कमी आ जाती है क्योंकि किसान अपने निर्वाह के लिए उस पर निरन्तर
खेती करने के लिए बाध्य होता है।
2. छोटे-छोटे खेतों के मध्य बाड़, रास्ते आदि को
लेकर बहुधा अनावश्यक अदालती झगड़ों को प्रोत्साहन मिलता है, जिससे शक्ति तथा धन दोनों
का अपव्यय होता है।
3.
अपखण्ड़ने के कारण गहन खेती को अपनाना कठिन हो जाता है।
4.
कृषकों को पशु पालने में कठिनाई होती है, क्योंकि छोटे खेत से उनके लिए चारे की व्यस्था
नहीं हो पाती।
5.
उपविभाजन एवं अपखण्डन देश में व्याप्त अत्यधिक निर्धनता का एक मूल कारण है। इससे अर्द्ध-बेकारी
बढ़ती है।
प्रश्न :- भू-सुधार के अन्तर्गत कौन-कौन से कार्यक्रम आते हैं?
उत्तर
:- ‘भूमि-सुधार’ एक अत्यन्त व्यापक शब्द है। अत: भूमि-सुधार की दिशा में जो सर्वतोमुखी
प्रगति हुई है, उसका विवेचन हम निम्नलिखित शीर्षकों में करेंगे
(अ) मध्यस्थों की समाप्ति :- 1. जमींदारी उन्मूलन। 2. जागीरदारी
उन्मूलन।
(ब) काश्तकारी सुधार :- 1. लगान नियमन। 2. भू-स्वामित्व की
सुरक्षा। 3. खुदकाश्त में भूमि का पुनर्ग्रहण। 4. काश्तकारों को मालिक होने का अधिकार।।
(स) जोतों का सीमा-निर्धारण :- 1. वर्तमान
जोतों की अधिकतम सीमा। 2. भावी जोतों की अधिकतम सीमा।
(द) कृषि-पुनर्गठन :- 1. चकबन्दी। 2. भूमि के प्रबन्ध में
सुधर। 3. सहकारी खेती। 4. भूमिहीन मजदूरों को बसाना तथा भू-दान व ग्राम-दान आदि।
प्रश्न :- भारत में साहूकारों की कृषि-वित्त व्यवस्था के दोष बताइए।
उत्तर
:- भारत में साहूकारों की कृषि-वित्त व्यवस्था के दोष निम्नलिखित रहे हैं
1.
साहूकार की कार्य-पद्धति लोचदार होती है और वह समय, परिस्थिति तथा व्यक्ति के अनुसार
उनमें परिवर्तन करता रहता है।
2.
साहूकार अपने ऋणों पर ब्याज की ऊँची दर वसूल करता है।
3.
साहूकार मूलधन देते समय ही पूरे वर्ष का ब्याज अग्रिम रूप में काट लेते हैं और इसकी
कोई रसीद नहीं देते हैं।
4.
अनेक साहूकार कोरे कागजों पर हस्ताक्षर या अँगूठे की निशानी ले लेते हैं और बाद में
उन अधिक रकम भर लेते हैं।
5.
बहुत-से स्थानों पर ऋण देते समय ऋण की रकम में से अनेक प्रकार के खर्च काट लेते हैं।
कभी-कभी यह रकम 5% से 10% तक हो जाती है।
6.
साहूकार कृषकों को अनुत्पादक कार्यों के लिए ऋण देकर उन्हें फिजूलखर्ची बना देते हैं।
7.
साहूकार समय-समय पर हिसाब-किताब में भी गड़बड़ करता रहता है।
8.
साहूकार कृषकों को ऋण देने के बाद उन्हें अपनी फसल कम कीमत पर बेचने के लिए विवश करते
हैं।
प्रश्न :- एक सुव्यवस्थित कृषि विपणन पद्धति की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
:- एक सुव्यवस्थित कृषि विपणन पद्धति में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए
1.
मध्यस्थों की संख्या न्यूनतम होनी चाहिए।
2.
कृषि और कृषि उपज के विक्रेता दोनों के हितों की सुरक्षा होनी चाहिए।
3.
सस्ती व उत्तम परिवहन की व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे माल मण्डियों तक आसानी से तथा
कम लागते पर ले जाया जा सके।
4.
कृषकों के पास ब्याज सम्बन्धी सूचनाएँ उचित समय पर उपलब्ध होनी चाहिए।
5.
भण्डार-गृहों की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए।
6.
कृषकों को उचित मूल्य प्राप्त होने तक कृषि-पदार्थों को अपने पास रखने की क्षमता होनी
चाहिए।
7.
कृषि उपज की विभिन्न किस्मों के मूल्य में अन्तर होना चाहिए।
प्रश्न :- बड़े पैमाने के उद्योगों को प्रोत्साहन देने हेतु भारत सरकार
द्वारा क्या-क्या उपाय किए गए
उत्तर
:- देश में औद्योगिक उत्पादकता को बढ़ाने, सभी को आधारभूत सुविधाएँ प्रदान करने और
औद्योगिक वातावरण को सुदृढ़ करने के लिए बड़े पैमाने के उद्योगों की स्थापना की गई
है। इन उद्योगों की स्थापना अधिकांशत: सार्वजनिक क्षेत्रों में की गई है, जिनमें बड़ी
मात्रा में पूँजी निवेश किया गया है तथा बड़ी संख्या में श्रमिकों को रोजगार दिया गया
है। इन उद्योगों के विकास के लिए सरकार ने निम्नलिखित कदम उठाए
1.
लाइसेन्सिग नीति को उदार बनाया गया है।
2.
राजकोषीय नीति के अन्तर्गत अपर्याप्त कर-रियायतें दी गई हैं।
3.
औद्योगिक विकास एवं नियमन अधिनियम, 1951′ के अन्तर्गत विनिर्माण इकाइयों का पंजीकरणआवश्यक
है और इन्हें इस अधिनियम के अन्तर्गत सरकार द्वारा निर्मित नियमों एवं अधिनियमों का
| पालन करना होता है।
4.
आधुनिक औद्योगिक तकनीक को अपनाने के लिए अनेक प्रकार की राजकोषीय एवं वित्तीय प्रेरणाएँ दी जा रही हैं।
5.
उत्पादन लागतों को न्यूनतम करने के लिए सरकार द्वारा सभी प्रकार की सहायता उपलब्ध कराई
जाती है।
6.
प्रौद्योगिकीय सुधार और संयन्त्र आधुनिकीकरण के लिए सरकार ने दो कोषों की स्थापना की
है
(1)
प्रौद्योगिकीय सुधार कोष एवं
(2)
पूँजी आधुनिकीकरण कोष।
प्रश्न :- भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु एवं कुटीर उद्योगों का महत्त्व बताइए।
उत्तर
:- भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु एवं कुटीर उद्योगों के महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार
से स्पष्ट किया जा सकता है
1.
इन उद्योगों में लगभग 2.25 करोड़ लोग रोजगार में लगे हैं।
2.
ये उद्योग आय व सम्पत्ति के सम वितरण में सहायक हैं।
3.
श्रमप्रधान उद्योगों के कारण कर्म पूँजी से भी इनका संचालन सम्भव है।
4.
लघु एवं कुटीर उद्योगों में ही कृषि में लगे अतिरिक्त श्रम को स्थानान्तरित किया जा
सकता है।
5.
ये उद्योग विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना करते हैं जो आज के युग की माँग है।
6.
इन उद्योगों को उपभोक्ताओं की रुचि के अनुसार समायोजित किया जा सकता है।
7.
ये उद्योग औद्योगिक अशान्ति, हड़ताल, तालाबन्दी आदि से मुक्त रहते हैं और सहानुभूति,
समानता, सहकारिता, एकता तथा सहयोग की भावना को जन्म देते हैं।
8.
ये उद्योग विदेशी विनिमय अर्जित करने में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुए हैं।
9.
इन उद्योगों को चलाने के लिए विशेष शिक्षा तथा प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती।
10. कुटीर तथा लघु उद्योगों का माल अधिक टिकाऊ तथा कलात्मक होता है।
प्रश्न :- आर्थिक प्रणाली (अर्थव्यवस्था) से क्या आशय है? आर्थिक प्रणाली
के प्रमुख लक्षण बताइए।
> अर्थव्यवस्था से क्या आशय है? अर्थव्यवस्था के लक्षण एवं प्रकार बताइए।
उत्तर
:-आर्थिक प्रणाली का अर्थ एवं परिभाषाएँ
आर्थिक
प्रणाली एक ऐसा तंत्र है, जिसके माध्यम से लोगों का जीवन निर्वाह होता है। यह संस्थाओं
का एक ढाँचा है, जिसके द्वारा समाज की संपूर्ण आर्थिक क्रियाओं का संचालन किया जाता
है। आर्थिक क्रियाएँ वे मानवीय क्रियाएँ हैं, जिनके द्वारा मनुष्य धन अर्जित करने के
उद्देश्य से उत्पादन करता है। अथवा निजी सेवाएँ प्रदान करता है। आर्थिक प्रणाली आर्थिक
क्रियाओं को सम्पन्न करने का मार्ग निर्धारित करती हैं। दूसरे शब्दों में, आर्थिक प्रणाली
यह भी निर्धारित करती है कि देश में किन वस्तुओं को उत्पादन किया जाएगा और विभिन्न
साधनों के मध्य इनका वितरण किस प्रकार किया जाएगा; परिवहन, वितरण, बैंकिंग एवं बीमा
जैसी सेवाएँ कैसे प्रदान की जाएँगी; उत्पादित वस्तुओं का कितना भाग वर्तमान में उपयोग
किया जाएगा और कितना भाग भविष्य के उपयोग के लिए संचित करके रखा जाएगा; आदि। आर्थिक
प्रणाली इन विभिन्न प्रकार की आर्थिक क्रियाओं का योग ही है। आर्थिक प्रणाली की मुख्य
परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
एजे०
ब्राउन के अनुसार 'आर्थिक प्रणाली वह व्यवस्था है, जिसके द्वारा मनुष्य अपनी आजीविको
कमाता है और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।’
लॉक्स
के अनुसार “आर्थिक प्रणाली एक ऐसा संगठन है, जिसके द्वारा सुलभ उत्पादन साधनों का प्रयोग
करके मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।”
एम०
गॉटलिब के अनुसार “आर्थिक प्रणाली जटिले मानव संबंधों, जो वस्तुओं तथा सेवाओं की विभिन्न
निजी तथा सार्वजनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से सीमित साधनों के प्रयोग
से सुंबंधित हैं, को प्रकट करने वाला एक मॉडल है।”
उपर्युक्त
परिभाषाओं से स्पष्ट है कि आर्थिक प्रणाली एक ओर आर्थिक क्रियाओं का योग है, तो दूसरी
ओर उत्पादकों के परस्पर सहयोग की प्रणाली भी है। वास्तव में, विभिन्न उत्पादन क्रियाएँ
परस्पर सम्बद्ध होती हैं और एक साधने की क्रिया दूसरे साधन की क्रिया पर निर्भर करती
है। अतः इनमें परस्पर समन्वय एवं सहयोग होना आवश्यक है। उत्पादकों के परस्पर सहयोग
की इस प्रणाली को ही आर्थिक प्रणाली कहते हैं; उदाहरण के लिए–एक वस्त्र-निर्माता को
वस्त्र निर्मित करने के लिए अनेक वस्तुओं की आवश्यकता पड़ेगी। उसे सर्वप्रथम किसान
से कपास प्राप्त करनी होगी तथा कपास की धुनाई, कताई . वे बुनाई के लिए मशीनों की व्यवस्था
करनी होगी। मशीन निर्माता को लोहा व कोयला चाहिए, जो संबंधित खानों से प्राप्त होगा।
इन साधनों को कारखाने तक लाने व ले जाने के लिए परिवहन के साधनों; यथा—रेल, मोटर, ट्रक,
बैलगाड़ी आदि की आवश्यकता होगी और इन सभी क्रियाओं के संचालन के लिए निर्माता को श्रमिकों
की सेवाएँ चाहिए। इनमें से किसी भी साधन के अभाव में कपड़े का उत्पादन संभव नहीं है।
इसे इस प्रकार भी समझाया जी सकता है–यदि किसान कपास का उत्पादन बंद कर, ३ ‘ अथवा मशीन-निर्माता
मशीन बनाना बंद कर दे अथवा श्रमिक काम करना बंद कर दें तो कपड़े का उत्पादन संभव नहीं
होगा। इस प्रकार उत्पादन में उत्पादकों एवं उत्पत्ति के साधनों के बीच सहयोग एवं समन्वय
होना आवश्यक है।
आर्थिक प्रणाली के लक्षण आर्थिक प्रणाली के
मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं
1.
यह उन व्यक्तियों का समूह है, जो अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए उत्पादन-प्रक्रिया
को | चलाते हैं।
2.
आवश्यकताओं के परिवर्तन के अनुरूप आर्थिक प्रणाली के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता
है।
3.
वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन निरंतर जारी रहता है।
4.
उत्पादित वस्तुओं को विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा उपभोक्ताओं तक पहुँचाया जाता है।
5.
इसमें विभिन्न उत्पादकों के मध्य परस्पर समन्वय एवं सहयोग आवश्यक होता है।
प्रश्न :- पूँजीवाद क्या है? पूँजीवाद की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
:-पूँजीवाद का अर्थ एवं परिभाषाएँ
पूँजीवाद
का आशय आर्थिक संगठन की एक ऐसी प्रणाली से है, जिसमें उत्पादन के साधनों पर व्यक्ति
का निजी अधिकार होता है तथा वह उत्पादन के साधनों का प्रयोग लाभ कमाने की दृष्टि से
करता है। पूँजीवाद की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
लूक्स
तथा हूटस के अनुसार-“पूँजीवाद आर्थिक संगठन की ऐसी प्रणाली है, जिसमें प्राकृतिक तथा
मनुष्य-निर्मित पूँजीगत साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व होता है और जिनका प्रयोग निजी
लाभ के लिए किया जाता है।”
प्रो०
पीगू के अनुसार- “एक पूँजीवादी उद्योग वह है, जिसमें उत्पत्ति के भौतिक साधन निजी लोगों
की सम्पत्ति होते हैं अथवा उनके द्वारा किराए पर लिए जाते हैं और उनका परिचालन इन लोगों
के आदेश पर उनकी सहायता से उत्पन्न होने वाली वस्तुओं को लाभ पर बेचने के लिए किया
जाता है। एक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अथवा पूँजीवादी प्रणाली वह है, जिसके उत्पादन के
साधनों का मुख्य भाग पूँजीवादी उद्योग । में लगा होता है।”
पूँजीवाद की विशेषताएँ
पूँजीवादी
प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1.मूल्य यन्त्र :- पूँजीवादी अर्थव्यवस्था मूल्य यंत्र के द्वारा नियंत्रित
होती है। वस्तुओं के उत्पादन की मात्रा, उत्पादन के साधनों में बँटवारा, बचत एवं विनियोग
तथा महत्त्वपूर्ण आर्थिक निर्णय कीमतों के आधार पर लिए जाते हैं। इसमें ‘मूल्य यंत्र’
स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करता है। समन्वय तथा नियंत्रण का कार्य मूल्य यंत्र द्वारा
ही किया जाता है।
2.”केन्द्रीय योजना का अभाव :- पूँजीवादी
अर्थव्यवस्था में किसी प्रकार की केन्द्रीय आर्थिक योजना नहीं होती। यह प्रणाली व्यक्ति
की स्वतंत्र क्रियाओं पर आधारित होती है। सामान्य आर्थिक क्रियाओं में सरकार का कोई
हस्तक्षेप नहीं होता।
3.आर्थिक स्वतंत्रता :-
ये स्वतंत्रताएँ इस प्रकार हैं
1. उपभोक्ता की स्वतंत्रता :- उपभोक्ता पूर्णतया स्वतंत्र होता है। वह जो चाहे
खरीद सकता है तथा अपनी आय को इच्छानुसार व्यर्य कर सकता है।
2. व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता :- व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी व्यवसाय को चुन
सकता है।
3. बचत करने की स्वतंत्रता :- प्रत्येक
व्यक्ति को यह निर्णय लेने की स्वतंत्रता होती है कि वह अपनी आय का कितना भाग बचाए
तथा कितना भाग व्यय करे।
4. विनियोग करने की स्वतंत्रता :- विनियोगकर्ता विनियोग की मात्रा व उसके स्वभाव को
निश्चित करने के लिए पूतया स्वतंत्र होता है।
5. निजी सम्पत्ति :- प्रत्येक व्यक्ति को सम्पत्ति रखने
तथा उसे उत्तराधिकार में देने का पूरा अधिकार होता है।
4. लाभ उददेश्य :- पूँजीवादी व्यवस्था में सभी उत्पादक इकाइयाँ लाभ
के उद्देश्य से चलाई जाती हैं। प्रत्येक व्यवसायी का उद्देश्य अधिकाधिक लाभ कमाना होता
है। अत: उत्पादक उत्पादन के साधनों का पूर्ण शोषण करते हैं।
5. प्रतियोगिता :-
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में प्रतियोगिता पायी जाती है। यह आर्थिक स्वतंत्रता
का आवश्यक परिणाम और स्वतंत्र बाजार की अर्थव्यवस्था का आधार होता है।
6. वर्ग-संघर्ष :-
पूँजीवादी समाज दो वर्गों में विभाजित होता है
क. सम्पत्ति वाला (धनी) वर्ग,
ख. बिना सम्पत्ति वाला (निर्धन) वर्ग।
इन दोनों वर्गों के मध्य निरंतर संघर्ष बढ़ता रहता है।
7. आर्थिक असमानताएँ :- पूँजीवादी व्यवस्था में आर्थिक असमानताएँ
पायी जाती हैं, धन का केन्द्रीकरण हो जाता है और कुछ व्यक्ति अमीर तथा कुछ गरीब होते
चले जाते हैं।
8. सरकार की भूमिका :- पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में सरकार
लोगों की आर्थिक क्रियाओं में कोई प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं करती। सरकार को कार्य केवल
आर्थिक संगठन पर बाहरी तत्त्वों के प्रभाव | को रोकना और आर्थिक क्रियाओं के हानिकारक
प्रभावों को नियंत्रित करना होता है।
9. उपभोक्ता का प्रभुत्व :- पूँजीवादी व्यवस्था में उपभोक्ता
ही समस्त उत्पादन को नियंत्रित तथा नियमित करता है, इसीलिए इस व्यवस्था में उपभोक्ता
को सम्राट कहा जाता है।
प्रश्न :- समाजवाद क्या है? समाजवाद की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
:- समाजवाद का अर्थ एवं परिभाषाएँ समाजवाद आर्थिक संगठन की एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें
उत्पत्ति के साधनों पर सरकार अथवा लोकसत्ता का अधिकार होता है, इनका संचालन एक सामान्य
योजना के अनुसार सरकारी अथवा समाजिक संस्थाओं द्वारा किया जाता है और समस्त आर्थिक
क्रियाएँ निजी क्षेत्र में न रहकर सार्वजनिक क्षेत्र में रहती हैं। समाजवादे की प्रमुख
परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
प्रो०
शुम्पीटर के अनुसार- “समाजवाद एक ऐसी संस्थागत व्यवस्था को कहते हैं, जिसमें उत्पत्ति
के साधनों तथा स्वयं उत्पादन पर नियंत्रण एक केन्द्रीय सत्ता के हाथ में होता है या
जिसमें सैद्धान्तिक रूप से समाज की आर्थिक क्रियाएँ व्यक्तिगत क्षेत्र के अधिकार में
न होकर सार्वजनिक क्षेत्र में होती हैं।”
प्रो०
डिकिन्सन के अनुसार- “समाजवाद समाज की एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था है, जिसमें उत्पत्ति
के भौतिक साधन समाज के स्वामित्व में होते हैं और इनका संचालन एक सामान्य योजना के
अनुसार ऐसी संस्थाओं के द्वारा किया जाता है, जो पूर्ण समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं
तथा पूर्ण समाज के प्रति उत्तरदायी होती हैं। समाज के सभी सदस्य सामान्य अधिकारों के
आधार पर समाजीकृत तथा नियोजित उत्पादन के लाभों के अधिकारी होते हैं।”
प्रो०
लुक्स के अनुसार- समाजवाद वह आन्दोलन है, जिसका उद्देश्य सभी प्रकार की प्रकृति-प्रदत्त
तथा मनुष्यकृत उत्पादित वस्तुओं का जो कि बड़े पैमाने के उत्पादन में प्रयोग की जाती
हैं, स्वामित्व तथा प्रबंध व्यक्तियों के स्थान पर समस्त समाज में निहित करना होता
है, जिससे बढ़ी हुई राष्ट्रीय आय का इस प्रकार समान वितरण हो सके कि व्यक्ति की आर्थिक
प्रेरणा या व्यवसाय तथा उपभोग संबंधी चुनावों की स्वतंत्रता में कोई विशेष हानि न हो।’
समाजवाद की विशेषताएँ
समाजवाद
की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1.उत्पत्ति के साधनों पर समाज का स्वामित्व :- समाजवादी
अर्थव्यवस्था में उत्पत्ति के साधन व्यक्तिगत अधिकार में न होकर सम्पूर्ण समाज के अधिकार
में होते हैं। इनका स्वामित्व, नियमन तथा नियंत्रण राज्य के हाथों में होता हैं। इनका
प्रयोग निजी लाभ के लिए नहीं वरन् सामाजिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है।
2. आर्थिक नियोजन :- सामाजिक अर्थव्यवस्था आवश्यक रूप से
नियोजित होती है। इस व्यवस्था के पूर्व-निश्चित उद्देश्य होते हैं और उन्हें पहले से
निश्चित किए गए प्रयासों द्वारा ही प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता हैं।
3. एक केन्द्रीय सत्ता :- समाजवादी व्यवस्था में एक केन्द्रीय
सत्ता होती है, जो समाज में आर्थिक उद्देश्यों को निश्चित करती है और उन्हें प्राप्त
करने के लिए उचित व्यवस्था एवं प्रबन्ध करती है। इस सत्ता द्वारा ही संपूर्ण अर्थव्यवस्था
को निर्देशित किया जाता है।
4. सामाजिक कल्याण :- उत्पादन का उद्देश्य लाभ की भावना
नहीं, बल्कि सामाजिक कल्याण में वृद्धि करना होता है। कीमत नीति का निर्धारण भी सामाजिक
कल्याण के आधार पर किया जाता
5. धन का समान वितरण :- उत्पत्ति के भौतिक साधनों पर निजी
अधिकार को समाप्त कर दिया जाता है और आर्थिक साधनों के वितरण में अधिक समानता लाने
का प्रयास किया जाता है।
6. उपभोग तथा व्यवसाय के चुनाव की स्वतंत्रता :-
समाजवादी अर्थव्यवस्था में भी लोगों को अपनी इच्छानुसार उपभोग संबंधी वस्तुओं का चुनाव
करने की स्वतंत्रता होती है।।
7. मूल्य यंत्र :- समाजवादी अर्थव्यवस्था में साधनों का बँटवारा एक
पूर्व-निश्चित योजना के अनुसार केन्द्रीय सत्ता द्वारा मूल्य
यंत्र की सहायता से किया जाता है, यद्यपि मूल्य यंत्र स्वतंत्रतापूर्वक कार्य नहीं
करता।
8.प्रतियोगिता का अभाव :- उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व
व्यक्तिगत न होकर सामूहिक होता है। | और उत्पादन की मात्रा, किस्म तथा कीमत का निर्धारण
प्रतियोगिता द्वारा न होकर केन्द्रीय सत्ता द्वारा होता है।
प्रश्न :- मिश्रित अर्थव्यवस्था
क्या है? इसकी विशेषताएँ बताइए। इस संदर्भ में भारतीय अर्थव्यवस्था के स्वरूप को समझाइए।
उत्तर
:-मिश्रित अर्थव्यवस्था
मिश्रित
अर्थव्यवस्था पूँजीवाद और समाजवाद के बीच की अवस्था है। इसमें पूँजीवाद के दोषों से
अर्थव्यवस्था को मुक्त करके दोनों प्रणालियों से होने वाले गुणों को अपनाया जाता है।
मिश्रित अर्थव्यवस्था में निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्रक दोनों साथ-साथ चलते हैं। इस
प्रकार की अर्थव्यवस्था में देश के आर्थिक विकास के लिए निजी क्षेत्र को विशेष महत्त्व
देते हुए उस पर आवश्यक सामाजिक नियंत्रण भी रखा जाता है। इसी प्रकार की अर्थव्यवस्था
में कुछ उद्योग पूर्णतया सरकारी क्षेत्र में होते हैं, कुछ पूर्णतया निजी क्षेत्र में
होते हैं और कुछ उद्योगों में निजी तथा सार्वजनिक दोनों ही क्षेत्रक भाग ले सकते हैं।
दोनों के कार्य करने का क्षेत्र निर्धारित कर दिया जाता है, परंतु इसमें निजी क्षेत्र
की प्राथमिकता रहती है। दोनों अपने-अपने क्षेत्र में इस प्रकार मिलकर कार्य करते हैं
कि बिना शोषण के देश के सभी वर्गों के आर्थिक कल्याण में वृद्धि तथा तीव्र आर्थिक विकास
प्राप्त हो सके।
प्रो०
हैन्सन ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को दोहरी व्यवस्था तथा प्रो० लर्नर ने इसको नियंत्रित
अर्थव्यवस्था कहा है।
मिश्रित अर्थव्यवस्था की
विशेषताएँ
मिश्रित
अर्थव्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों का सह-अस्तित्व :-
मिश्रित अर्थव्यवस्था में निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र दोनों साथ-साथ कार्य करते हैं।
सरकार द्वारा निजी उद्योग तथा सार्वजनिक उद्योगों का अलग-अलग क्षेत्र निश्चित कर दिया
जाता है। दोनों ही क्षेत्र एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। निजी क्षेत्र तथा सार्वजनिक
क्षेत्र के अतिरिक्त दो क्षेत्र और पाए जाते हैं—संयुक्त क्षेत्र तथा सहकारी क्षेत्र।
2. समाजवाद व पूँजीवाद के तत्त्वों का सम्मिश्रण :-
मिश्रित
अर्थव्यवस्था में पूँजीवाद के निम्नलिखित तत्त्व पाए जाते हैं
1.निजी
उद्योग में लाभ उद्देश्य,
2.व्यक्तिगत
प्रोत्साहन,
3.निजी
सम्पत्ति की संस्था,
4.व्यक्तिगत
स्वतन्त्रता व प्रतियोगिता।
मिश्रित
अर्थव्यवस्था में समाजवाद के निम्नलिखित अंश पाए जाते हैं।
1.
सार्वजनिक क्षेत्र के संचालन में सामाजिक हित,
2.
राष्ट्रीय महत्त्व के उद्योगों का सरकारी स्वामित्व,
3.
राष्ट्रीय हित में निजी व्यापार पर नियन्त्रण। इस प्रकार मिश्रित अर्थव्यवस्था एक ऐसी
मिली-जुली व्यवस्था है, जिसमें पूँजीवाद व सामाजिक अर्थव्यवस्था के गुणों को एक-साथ
मिलाने का प्रयास किया जाता है।
3. आर्थिक नियोजन :- मिश्रित अर्थव्यवस्था में सरकार द्वारा एक पूर्व-
निश्चित योजना के अनुसार ही अर्थव्यवस्था का नियन्त्रण एवं नियमन किया जाता है। यह
आर्थिक नियोजन द्वारा पूर्व-निश्चित आर्थिक एवं सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने
का प्रयत्न करती है।
4. साधनों का बँटवारा :- सार्वजनिक क्षेत्र में साधनों
का बँटवारा सामाजिक कल्याण के उद्देश्य से | किया जाता है, जबकि निजी क्षेत्र में साधनों
का बँटवारा कीमत प्रणाली द्वारा होता है।
भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था
भारतीय
अर्थव्यवस्था एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है। इस व्यवस्था में निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र
मिलकर आर्थिक विकास के लिए योजनाबद्ध तरीकों से कार्य कर रहे हैं। 6 अप्रैल, 1948 ई०
को भारत सरकार ने औद्योगिक नीति की घोषणा की, जिसके अनुसार देश मिश्रित अर्थव्यवस्था
का प्रारम्भ हुआ। स्वामित्व के आधार पर उद्योगों को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा
गया-
1.
निजी क्षेत्र,
2.
सार्वजनिक क्षेत्र।
इस नीति
के अनुसार उद्योगों को चार भागों में बाँटा गया
1.
वे उद्योग जिन पर सरकार का स्वामित्व तथा नियन्त्रण रहेगा; जैसे—प्रतिरक्षा उद्योग।
2.
आधारभूत उद्योग; जैसे-लोहा-इस्पात, कोयला, खनिज तेल, वायुयान व जलयान निर्माण उद्योग।
3.
वे उद्योग जो व्यक्तिगत क्षेत्र में रहेंगे, लेकिन उनका नियन्त्रण व नियमन राज्य द्वारा
किया जाएगा।
4. निजी क्षेत्र में रहने वाले शेष उद्योग।
सन्
1956 ई० में घोषित औद्योगिक नीति के अनुसार समस्त उद्योगों का वर्गीकरण निम्नलिखित
तीन श्रेणियों में किया गया है
प्रथम श्रेणी :- इसमें 17 उद्योग आते हैं; जैसे–प्रतिरक्षा
सम्बन्धी समस्त उद्योग, अणु-शक्ति, लोहा व इस्पात आदि। इनका विकास केवल सरकार का उत्तरदायित्व
होगा।
द्वितीय श्रेणी :- इसमें 12 उद्योग आते हैं; जैसे-खनिज
उद्योग, मशीन तथा यन्त्र, उर्वरक, रबड़ आदि। इस वर्ग में निजी एवं सार्वजनिक दोनों
ही क्षेत्र कार्य कर सकते हैं।
तृतीय
श्रेणी :- अन्य उद्योग, जिनका विस्तार एवं विकास पूर्णतया निजी क्षेत्र पर छोड़ दिया
गया है।
1991
ई० में घोषित नवीन औद्योगिक नीति के अन्तर्गत भी ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया
है, हाँ, इसमें उद्योगों के नियमन व नियन्त्रण में कमी की गई है, सार्वजनिक क्षेत्र
के विस्तार को सीमित किया गया है और निजी क्षेत्र को अधिक विस्तृत एवं उदार बनाने पर
बल दिया गया है। इस प्रकार भारतवर्ष में मिश्रित अर्थव्यवस्था कार्य कर रही है।
प्रश्न :- आर्थिक नियोजन को परिभाषित कीजिए। इसके मुख्य लक्षण बताइए। भारतीय
अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में आर्थिक नियोजन के प्रमुख उददेश्यों की चर्चा कीजिए।
उत्तर
:- आर्थिक नियोजन : अर्थ एवं
परिभाषाएँ
योजना
का आधार मनुष्य का विवेकपूर्ण व्यवहार है। आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, प्रत्येक
चरण में, प्रत्येक दिशा में नियोजन अपनाया जाता है। जिस प्रकार एक व्यक्ति अपनी सफलता
के लिए विभिन्न चरणों में योजनाबद्ध कार्यक्रम अपनाता है, ठीक उसी प्रकार एक राष्ट्र
भी अपने सर्वांगीण विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक नियोजन को अपनाता है।
आर्थिक नियोजन के अर्थ, स्वरूप एवं क्षेत्र के सम्बन्ध में सभी विद्वान एकमत नहीं हैं।
अतः इसकी कोई एक सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन है। आर्थिक नियोजन की प्रमुख परिभाषाएँ
निम्नलिखित हैं:
एच०डी०
डिकिन्सन के अनुसार- ‘आर्थिक नियोजन से अभिप्राय महत्त्वपूर्ण आर्थिक मामलों में विस्तृत
तथा सन्तुलित निर्णय लेना है। दूसरे शब्दों में, क्या तथा कितना उत्पादित किया जाएगा
तथा उसका वितरण किस प्रकार होगा, इन सभी प्रश्नों का उत्तर एक निर्धारक सत्ता द्वारा
समस्त अर्थव्यवस्था को एक ही राष्ट्रीय आर्थिक इकाई (व्यवस्था) मानते हुए तथा व्यापक
सर्वेक्षण के आधार पर, सचेत तथा विवेकपूर्ण निर्णय के द्वारा, दिया जाता है।”
डॉ०
डाल्टन के अनुसार- “विस्तृत अर्थ में आर्थिक नियोजन से अभिप्राय कुछ व्यक्तियों द्वारा,
जिनके अधिकार में विशेष प्रसाधन हों, निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आर्थिक क्रिया
का संचालन करना है।” भारतीय नियोजन आयोग के अनुसार-“आर्थिक नियोजन निश्चित रूप से सामाजिक
उद्देश्यों के हितार्थ उपलब्ध साधनों का संगठन तथा लाभकारी रूप से उपयोग करने का एकमात्र
ढंग है। नियोजन के इस विचार के दो प्रमुख तत्त्व हैं-
(अ)
वांछित उद्देश्यों का क्रम जिनकी पूर्ति का प्रयास करना है।
(ब)
उपलब्ध साधनों और उनके सर्वोत्तम वितरण के सम्बन्ध में ज्ञान।”
राष्ट्रीय
नियोजन समिति के अनुसार- “आर्थिक नियोजन उपभोग, उत्पादन, विनियोग, व्यापार तथा राष्ट्रीय
लाभांश के वितरण से सम्बन्धित स्वार्थहित विशेषज्ञों का तकनीकी समन्वय है, जो राष्ट्र
की प्रतिनिधि संस्थाओं द्वारा निर्धारित विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति हेतु प्राप्त
किया जाए। संक्षेप में, आर्थिक नियोजन एक तकनीक है, यह वांछित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों
को पूरा करने का एक साधन है। ये लुक्ष्य केन्द्रीय नियोजन अधिकारी व केन्द्रीय शक्ति
द्वारा पूर्व-निर्धारित तथा स्पष्टतः परिभाषित होने चाहिए। आर्थिक नियोजन की एक उचित
परिभाषा निम्न प्रकार दी जा सकती है आर्थिक नियोजन से आशय पूर्व-निर्धारित और निश्चित
सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अर्थव्यवस्था के सभी अंगों को एकीकृत
और समन्वित करते हुए राष्ट्र के संसाधनों के सम्बन्ध में सोच-विचारकर रूपरेखा तैयार
करने और केन्द्रीय नियन्त्रण से है।”
आर्थिक नियोजन की विशेषताएँ (लक्षण)
उपर्युक्त
परिभाषाओं के आधार पर आर्थिक नियोजन की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं
1.
नियोजन आर्थिक संगठन एवं विकास की एक समन्वित प्रणाली है।
2.
आर्थिक नियोजन की समस्त क्रिया-विधि एक केन्द्रीय नियोजन सत्ता द्वारा सम्पन्न की जाती
है।
3.
केन्द्रीय नियोजन सत्ता द्वारा देश में उपलब्ध समस्त साधनों का निरीक्षण, सर्वेक्षण
तथा संगठन करके, पूर्व-निश्चित उद्देश्यों के साथ समन्वय किया जाता है।
4.
अधिकतम सामाजिक लाभ को प्राप्त करने के उद्देश्य से, साधनों का वितरण विवेकपूर्ण ढंग
से तथा प्राथमिकताओं के आधार पर किया जाता है।
5.
उद्देश्य पूर्व-निर्धारित होने चाहिए।
6.
निर्धारित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की आपूर्ति एक निश्चित अवधि में ही होनी चाहिए।
7.
आर्थिक नियोजन द्वारा समस्त अर्थव्यवस्था प्रभावित होनी चाहिए।
8.
आर्थिक नियोजन की सफलता के लिए जन-सहयोग आवश्यक है।
भारत के सन्दर्भ में आर्थिक नियोजन के उद्देश्य
भारत
में आर्थिक नियोजन की तकनीक को 1 अप्रैल, 1951 से अपनाया गया है। अब तक 11 पंचवर्षीय
योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं। बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) कार्यशील है। भारत में
आर्थिक नियोजन के प्रमुख उद्देश्य अग्रलिखित हैं
1. राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि :- जनसामान्य के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने की | दृष्टि
से आर्थिक नियोजन का प्रमुख उद्देश्य राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में तीव्र
वृद्धि करना रहा है।
2. रोजगार में वृद्धि :- भारत में आर्थिक नियोजन का
दूसरा उद्देश्य रोजगार के अवसरों में वृद्धि | करना है; अतः कृषि, उद्योग, सेवाओं आदि
का विस्तार किया गया है।
3. आत्म-निर्भरता की प्राप्ति :- योजनाओं में
प्रारम्भ से ही आत्मनिर्भरता प्राप्त करने की बात कही गई है। तृतीय योजना में इस पर
विशेष जोर दिया गया। पाँचवीं व छठी योजनाओं में तो विदेशी सहायता पर निर्भरता को न्यूनतम
करने की बात कही गई थी। आठवीं योजना इसी दिशा में एक कदम है।
4. कल्याणकारी राज्य की स्थापना :- भारतीय नियोजन
का एक उद्देश्य देश में कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। आय एवं सम्पत्ति में
वितरण की असमानता को दूर करने की बात प्रत्येक योजना में की गई। पाँचवीं योजना का मुख्य
उद्देश्य ‘गरीबी दूर करना ही था। इसके लिए न्यूनतम आवश्यकताओं की व्यवस्था पर भी जोर
दिया गया।
5. सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार :- भारत में
आर्थिक नियोजन का एक उद्देश्य सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार करना रहा है, ताकि उन उद्योगों
की स्थापना की जा सके जिनमें उद्योगपति पूँजी विनियोग करने में असमर्थ रहते हैं।
6. समाजवादी समाज की स्थापना :- इन योजनाओं
में समाजवादी समाज की स्थापना पर विशेष जोर दिया गया है। इसके लिए आम जनता को सामाजिक
न्याय दिलाने तथा आर्थिक असमानताओं को कम करने का प्रयास किया गया है।
7. अन्य उद्देश्य :-
1.
जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण,
2.
पिछड़े क्षेत्रों का विकास,
3.
उद्योग एवं सेवाओं का विस्तार,
4.
खाद्यान्न एवं औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि।
प्रश्न :- भारत में आर्थिक नियोजन की प्रमुख उपलब्धियों एवं असफलताओं का
विवेचन कीजिए। योजनाओं को अधिक प्रभावी बनाने हेतु उपयुक्त सुझाव दीजिए।
उत्तर
:- भारत में विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में निर्धारित उद्देश्यों को मुख्य रूप से चार
भागों में विभाजित किया जा सकता है-
1.
विकास,
2.
आधुनिकीकरण,
3.
आत्मनिर्भरता,
4.
सामाजिक न्याय
इनके
आधार पर भारत में आर्थिक नियोजन की सफलताएँ निम्नवत् रही हैं
1. विकास :- योजना विकास की दर बढ़ी है। दसवीं
योजना में विकास-दर का निर्धारित लक्ष्य 8 प्रतिशत था।
A.
राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में निरन्तर वृद्धि हुई है।
B.
योजनाकाल में कृषि उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई है।
C.
योजनाकाल में औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि हुई है, उत्पादन में विविधता आई है तथा भारी
एवं आधारभूत उद्योगों की स्थापना हुई है।
D.
बचत एवं विनियोग की दरों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
E.
आधारित संरचना का निर्माण हुआ है। रेलवे वे सड़कों का विस्तार हुआ है, जहाजरानी की
क्षमता बढ़ी है, हवाई परिवहन, बन्दरगाहों की स्थिति एवं आन्तरिक जलमार्ग का विकास हुआ
है, संचार क्रान्ति का आगमन हुआ है, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार हुआ
है, विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है तथा बैंकिंग एवं बीमा
संरचना में उल्लेखनीय सुधार हुए हैं।
F.
योजनाकाल में विदेशी व्यापार में तीव्र गति से वृद्धि हुई है।
2. आधुनिकीकरण :- A. भूमि सुधार कार्यक्रमों का विस्तार
किया गया है, उर्वरक व उन्नत बीजों का प्रयोग बढ़ा है तथा आधुनिक कृषि यन्त्रों एवं
उपकरणों के प्रयोग को प्रोत्साहन मिला है। सिंचाई व्यवस्था, विपणन व्यवस्था एवं कृषि
वित्त व्यवस्था में उल्लेखनीय सुधार हुए हैं।
B.
राष्ट्रीय आय में प्राथमिक क्षेत्र का अनुपात घटा है तथा द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्र
का अनुपात बढ़ा है।
C.
आधारभूत एवं पूँजीगत उद्योगों की स्थापना की गई है, उद्योगों का विविधीकरण हुआ है एवं
उत्पादन तकनीकी में व्यापक सुधार हुए हैं।
D.
बैंकिंग व्यवस्था को सुव्यवस्थित, सुगठित एवं विस्तृत किया गया है।
3. आत्मनिर्भरता :- योजनाकाल में हमारा देश आत्मनिर्भरता
की ओर अग्रसर हुआ है। आयात प्रतिस्थापन की नीति अपनाई गई है, भारी मशीनें व विद्युत
उपकरण देश में ही तैयार किए जाने लगे हैं तथा खाद्यान्नों का उत्पादन तेजी से बढ़ा
है।
4. सामाजिक न्याय :- देश में आर्थिक एवं सामाजिक समानता
लाने के लिए विभिन्न प्रेरणात्मक एवं संवैधानिक उपाय अपनाए गए हैं।
भारत में आर्थिक नियोजन की असफलताएँ
भारत
में आर्थिक नियोजन की मुख्य असफलताएँ निम्नलिखित रही हैं
1.
प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि की गति अपेक्षाकृत धीमी रही है।
2.
जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण बेरोजगारी में वृद्धि हुई है।
3.
सीमित साधनों के कारण विशाल परियोजनाएँ समय पर पूरी नहीं हो सकी हैं।
4.
आर्थिक असमानताएँ बढ़ी हैं।
5.
मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि हुई है (विशेष रूप से खाद्यान्नों के मूल्यों में)।
6.
नीति सम्बन्धी ढाँचे का अभाव रहा है तथा नियन्त्रण और नियमन परस्पर असम्बद्ध रहे हैं।
7.
सार्वजनिक उपक्रमों का निष्पादन अकुशल रहा है।
8.
आन्तरिक वित्तीय संसाधनों की कमी के कारण आन्तरिक एवं बाह्य ऋणों के भार में निरन्तर
वृद्धि
उपर्युक्त
कमियों के बावजूद योजना की उपलब्धियों को नकारा नहीं जा सकता। वास्तव में, आर्थिक नियोजन
के फलस्वरूप ही वर्षों से स्थिर अर्थव्यवस्था को गति प्राप्त हुई है।
योजनाओं को सफल बनाने हेतु सुझाव
योजनाओं
को सफल बनाने हेतु निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं
1.
जनता के सहयोग से विकास के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार किया जाए।
2.
सार्वजनिक व निजी क्षेत्र के उपक्रमों में समन्वय स्थापित किया जाए।
3.
मूल्य वृद्धि पर प्रभावी नियन्त्रण लगाया जाए।
4.
केन्द्र तथा राज्यों के बीच मधुर सम्बन्ध स्थापित किए जाएँ।
5.
आर्थिक नीतियाँ केवल सैद्धान्तिक दृष्टि से ही नहीं अपितु व्यावहारिक दृष्टि से भी
उपयुक्त होनी चाहिए।
6.
ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि पर आधारित कुटीर उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया
जाना चाहिए
ताकि
आंशिक बेरोजगारी को दूर किया जा सके। शिक्षा प्रणाली को कार्यप्रधान बनाया जाए तथा
तकनीकी संस्थाओं का आधुनिकीकरण किया जाए।
अन्य सुझाव
1.
योजनाओं का निर्माण साधनों को ध्यान में रखकर किया जाए।
2.
राजनीतिक अस्थिरता पर प्रभावी नियन्त्रण स्थापित किया जाए।
3.
मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों में समन्वय स्थापित किया जाए।
4.
पूँजी-निर्माण की दर में वृद्धि की जाए।
5.
प्रशासकीय व्यवस्था को चुस्त एवं दुरुस्त किया जाए।
6.
जनसंख्या नियन्त्रण हेतु व्यापक कार्यक्रम संचालित किए जाएँ।
7.
मानव-शक्ति नियोजन को आर्थिक नियोजन से सम्बद्ध किया जाए, इत्यादि।
प्रश्न :- भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्त्व बताइए।
उत्तर
:- विकासशील अर्थव्यवस्थाएँ मूलतः प्राथमिक अर्थव्यवस्थाएँ नहीं हैं। आयोजन के 56 वर्ष
पश्चात् भारत आज भी एक कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था ही है। कृषि हमारी अर्थव्यवस्था की
रीढ़ है। महात्मा गांधी के अनुसार–“कृषि भारत की आत्मा है।” योजना आयोग भी आयोजन की
सफलता के लिए कृषि को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानता है। भारत में करोड़ों लोगों को भोजन
और आजीविका कृषि से ही प्राप्त होती है। कृषि पर ही देश के उद्योग-धन्धे, व्यापार,
व्यवसाय, यातायात एवं संचार के साधन निर्भर हैं। लार्ड मेयो के शब्दों में–“भारत की
उन्नति धन और सभ्यता के दृष्टिकोण से खेती पर आधारित है। संसार में शायद ही कोई ऐसा
देश हो, जिसकी सरकार खेती से इतना प्रत्यक्ष और तात्कालिक लगाव रखती हो। भारत की सरकार
मात्र एक सरकार ही नहीं अपितु मुख्य भूमि-स्वामी भी है।”
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्त्व
भारतीय
अर्थव्यवस्था में कृषि के महत्त्व का अनुमान निम्नलिखित तथ्यों से लगाया जा सकता है-
1. राष्ट्रीय आय के प्रमुख स्रोत :- भारत की राष्ट्रीय
आय का सर्वाधिक अंश कृषि एवं सम्बद्ध व्यवसायों से ही प्राप्त होता है। 2010-11 में
लगभग 14.5% राष्ट्रीय आय कृषि से प्राप्त हुई थी, जबकि 1968-69 में 44.4% राष्ट्रीय
आय की प्राप्ति कृषि से हुई थी। 1955-56 में तो यह 54% था। स्पष्ट है कि राष्ट्रीय
आय का एक बड़ा भाग कृषि से प्राप्त होता है, यद्यपि विकास के साथ-साथ राष्ट्रीय आय
में कृषि का योगदान निरन्तर कम होता जा रहा है।
2. आजीविका का प्रमुख स्रोत :- भारत में
कृषि आजीविका का प्रमुख स्रोत है। श्री वी० के० आर० वी० राव के अनुसार, 1991 ई० में
सम्पूर्ण जनसंख्या का लगभग 66.3% भाग कृषि एवं सम्बद्ध व्यवसायों से अपनी आजीविका प्राप्त
करता था, जबकि ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा आदि देशों में कृषि एवं सम्बद्ध व्यवसायों पर
निर्भर रहने वाली जनसंख्या का अंश 20% से भी कम है। देश की कुल जनसंख्या का 77.3% भाग
गाँवों में रहता है और गाँवों में मुख्य व्यवसाय कृषि है।
3. सर्वाधिक भूमि का उपयोग :- कृषि में देश के भू-क्षेत्र का सर्वाधिक भाग प्रयोग
किया जाता है। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार कुल भू-क्षेत्र के 49.8% भाग में खेती की जाती
है।
4. खाद्यान्न की पूर्ति का साधन :- कृषि देश
की लगभग 121 करोड़ जनसंख्या को भोजन तथा लगभग 36 करोड़ पशुओं को चारा प्रदान करती है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारतीयों के भोजन में कृषि उत्पादन ही प्रमुख होते हैं। यदि
जनसंख्या वृद्धि एवं आर्थिक विकास के परिवेश में खाद्य-सामग्री की पूर्ति को नहीं बढ़ाया
जाता है, तो देश के आर्थिक विकास का ढाँचा चरमरा जाता
5. औद्योगिक कच्चे माल की पूर्ति का साधन :- देश के महत्त्वपूर्ण
उद्योग कच्चे माल के लिए कृषि पर ही निर्भर हैं। सूती वस्त्र, चीनी, जूट, वनस्पति तेल,
चाय व कॉफी इसके प्रमुख उदाहरण हैं। संसार के सभी देशों में उद्योगों का विकास कृषि
के विकास के बाद ही सम्भव हुआ है। इस प्रकार, औद्योगिक विकास कृषि के विकास पर ही निर्भर
है।
6. पशुपालन में सहायक :- हमारे कृषक पशुपालन कार्य एक
सहायक धन्धे के रूप में करते हैं। पशुपालन उद्योग से समस्त राष्ट्रीय आय का 7.8% भाग
प्राप्त होता है। कृषि तथा पशुपालन उद्योग एक-दूसरे के पूरक तथा सहायक व्यवसाय हैं।
कृषि पशुओं को चारा प्रद्मन करती है और पशु कृषि को बहुमूल्य खाद प्रदान करते हैं,
जिससे कृषि उत्पादन में वृद्धि होती है।
7. हमारे निर्यात व्यापार का मुख्य आधार :- देश के निर्यात
का अधिकांश भाग कृषि से ही प्राप्त होता है। अप्रैल, 2013-14 में प्रमुख वस्तुओं के
निर्यात में बागान उत्पाद, कृषि एवं सहायक उत्पाद में 34% की वृद्धि दर्ज की गई है।
कृषि उत्पादों में चाय, जूट, लाख, शक्कर, ऊन, रुई, मसाले, तिलहन आदि प्रमुख हैं।
8. केन्द्र तथा राज्य सरकारों की आय का साधन :-
यद्यपि कृषि क्षेत्र पर कर का भार अधिक नहीं होता है, तथापि कृषि राजस्व का महत्त्वपूर्ण
स्रोत है। लगान से लगभग 200 करोड़ वार्षिक आय का अनुमान लगाया गया है। इसके अतिरिक्त
कृषि वस्तुओं के निर्यात-कर से भी आय प्राप्त होती है। केन्द्रीय सरकार के उत्पादन
शुल्कों का एक बहुत बड़ा भाग चाय, तम्बाकू, तिलहन आदि फसलों से प्राप्त होता है।
9. आन्तरिक व्यापार का आधार :- भारत में
खाद्य-पदार्थों पर राष्ट्रीय आय का अधिकांश भाग व्यय होता है। अनुमान है कि शहरी क्षेत्रों
में आय का 60.2% तथा ग्रामीण क्षेत्रों में आय का 69.07% भोजन पर व्यय किया जाता है।
स्पष्ट है कि आन्तरिक व्यापार मुख्यत: कृषि पर आधारित होता है और कृषि क्षेत्र में
होने वाले प्रत्येक परिवर्तन का प्रभाव आन्तरिक व्यापार पर पड़ता है। थोक तथा खुदरा
व्यापार के अतिरिक्त बैंकिंग तथा बीमा व्यवसाय भी कृषि से अत्यधिक प्रभावित होते हैं।
10. यातायात के साधनों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण :-
कृषि उत्पादन यातायात के साधनों को पर्याप्त मात्रा में प्रभावित करता है। जिस वर्ष
कृषि-उत्पादन कम होता है, रेल व सड़क-परिवहन आदि सभी साधनों की आय घट जाती है। इसके
विपरीत, अच्छी फसल वाले वर्ष में इन साधनों की आय में पर्याप्त वृद्धि हो जाती है।
प्रश्न :- भारत में कृषि उत्पादकता कम होने के प्रमुख कारण बताइए। इसे बढ़ाने
के लिए उपयुक्त सुझाव दीजिए।
उत्तर
:- भारत एक विशाल एवं सम्पन्न देश है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का स्थान सदैव
ही सर्वोपरि रहा है। किन्तु भारत में फसलों को प्रति हेक्टेयर उत्पादन विश्व के अनेक
देशों की तुलना में अत्यन्त निम्न है। निम्न उत्पादकता की यह स्थिति खाद्य तथा खाद्येतर
दोनों फसलों में समान रूप से दृष्टिगत होती है। निम्न कृषि उत्पादकता के मूल कारण कृषि
की निम्न उत्पादकता के लिए अनेक कारण सामूहिक रूप से उत्तरदायी हैं। इन समस्त कारणों
को तीन उपविभागों में बाँटा जा सकता है
(अ)
सामान्य कारण,
(ब)
संस्थागत कारण,
(स)
प्राविधिक कारण।
(अ) सामान्य कारण
1. भूमि पर जनसंख्या का भार :- भारत में
कृषि-भूमि पर जनसंख्या का भार निरन्तर बढ़ता जा रहा | है, परिणामतः प्रति व्यक्ति कृषि
योग्य भूमि की उपलब्धि निरन्तर कम होती जा रही है। सन् 1901 ई० में जहाँ कृषि योग्य
भूमि की उपलब्धि प्रति व्यक्ति 2.1 एकड़ थी, आज वह 0.7 एकड़ से भी कम रह गई है।
2. कुशल मानव-शक्ति का अभाव :- भारत का कृषक
सामान्यतया निर्धन, निरक्षर एवं भाग्यवादी होता है। अतः वह स्वभावत: अधिक उत्पादन नहीं
कर पाता।|
3. भूमि पर लगातार कृषि :- अनेक वर्षों से हमारे यहाँ
उसी भूमि पर खेती की जा रही है, फलतः | भूमि की उर्वरा-शक्ति निरन्तर कम होती जा रही
है। उर्वरा-शक्ति पुनः प्राप्त करने के लिए सामान्यतः ने तो हेर-फेर की प्रणाली को
ही प्रयोग किया जाता है और न रासायनिक खादों का प्रयोग होता है।
(ब) संस्थागत कारण
1.खेतों का लघु आकार :- उपविभाजन एवं अपखण्डन के परिणामस्वरूप
देश में खेतों को आकार अत्यन्त छोटा हो गया है, परिणामतः आधुनिक उपकरणों का प्रयोग
नहीं हो पाता। साथ-ही, श्रम | तथा पूँजी के साथ ही समय का भी अपव्यय होता है।
2. अल्प-मात्रा में भूमि सुधार :- देश में
भूमि सुधार की दिशा में अभी महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक प्रगति नहीं हुई है, जिसके फलस्वरूप
कृषकों को न्याय प्राप्त नहीं होता। इसका उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
3. कृषि-सेवाओं का अभाव:- भारत में कृषि-सेवाएँ प्रदान
करने वाली संस्थाओं का अभाव पाया जाता है, जिससे उत्पादकता में वृद्धि नहीं हो पाती।
(स) प्राविधिक कारण
1. परम्परागत विधियाँ :- भारतीय किसान अपने परम्परावादी
दृष्टिकोण एवं दरिद्रता के कारण पुरानी और अकुशल विधियों का ही प्रयोग करते हैं, जिससे
उत्पादन में वृद्धि नहीं हो पाती।
2. उर्वरकों की कमी :- उत्पादन में वृद्धि के लिए उर्वरकों
का प्रयोग अत्यन्त आवश्यक है, परन्तु भारत में गोबर एवं आधुनिक रासायनिक खादों (उर्वरकों)
दोनों का ही अभाव पाया जाता है। गत वर्षों में इस दिशा में कुछ प्रगति अवश्य हुई है।
3. आधुनिक कृषि :- उपकरणों का अभाव-भारत के अधिकांश कृषक
पुराने उपकरणों का प्रयोग किया करते हैं, जिससे उत्पादन में उचित वृद्धि नहीं हो पाती।
ऐसा प्रतीत होता है कि परम्परागत भारतीय कृषि-उपकरणों में अवश्य कोई मौलिक दोष है।
अतः कृषकों को आधुनिक उपकरणों को अपनाना चाहिए।
4. बीजों की उत्तम किस्मों का अभाव :- कृषि के न्यून
उत्पादन का एक कारण यह भी रहा है कि हमारे किसान बीजों की उत्तम किस्मों के प्रति उदासीन
रहे हैं। इस स्थिति के मूलतः तीन कारण हैं-प्रथम, किसानों को उत्तम बीजों की उपयोगिता
का पता न होना; द्वितीय, बीजों की समुचित आपूर्ति न होना तथा तृतीय, अच्छी किस्म के
बीजों का महँगा होना और कृषकों की निर्धनता।
5. साख :- सुविधाओं का अभाव-अभी तक कृषि विकास के लिए पर्याप्त
साख-सुविधाएँ कृषकों को उपलब्ध नहीं थीं। इसके मूलतः दो कारण थे—प्रथम, कृषि वित्त
संस्थाओं का अभाव व उनका सीमित कार्य-क्षेत्र; द्वितीय, उचित कृषि मूल्य नीति का अभाव।
6. पशुओं की हीन दशा :- भारत में पशुओं का अभाव तो नहीं है,
हाँ, उनकी अच्छी नस्ल अवश्य | अधिक नहीं पायी जाती। अन्य शब्दों में, पशु-धन की गुणात्मक
स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। अत: पशु आर्थिक सहयोग प्रदान करने के स्थान पर कृषकों पर
भार बन गए हैं।
7. सिंचाई के साधनों का अभाव :- भारतीय कृषि
की आधारशिला मानसून है क्योंकि आयोजन के | 63 वर्षों के उपरान्त भी कुल कृषि योग्य
भूमि के लगभग 35% भाग को ही कृत्रिम सिंचाई की सुविधाएँ उपलब्ध हैं, शेष कृषि-योग्य
क्षेत्र अनिश्चित मानसून की कृपा पर निर्भर रहता है। पर्याप्त सिंचाई सुविधाओं के अभाव
में उर्वरकों आदि का भी समुचित प्रयोग नहीं हो पाता, जिससे उत्पादकता में विशेष वृद्धि
नहीं होती है। उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त कृषि की निम्न उत्पादकता के लिए कुछ अन्य
कारण भी उत्तरदायी हैं; जैसे-सामाजिक रूढ़ियाँ, कृषि अनुसन्धान का अभाव, प्राकृतिक
प्रकोप, शिथिल प्रशासन आदि।
भारत में कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के उपाय
भारत
में कृषि उत्पादकता में वृद्धि के लिए मुख्य सुझाव निम्नलिखित हैं-
1.
कृषि उत्पादन की आधुनिकतम तकनीकें विकसित की जाएँ।
2.
भूमि-सुधार के सभी कार्यक्रमों को पूर्ण एवं प्रभावशाली ढंग से क्रियान्वित किया जाए।
3.
सिंचाई के साधनों का विकास करके कृषि की प्रकृति पर निर्भरता को कम किया जाए।
4.
खाद, कीटनाशक औषधियाँ तथा उन्नत किस्म के बीजों को उचित मूल्यों पर तथा पर्याप्त भौत्रा
में वितरित करने की व्यवस्था की जाए।
5.
विपणन व्यवस्था में सुधार किया जाए।
6. किसानों को ऋणग्रस्तता से मुक्त करके, आवश्यक वित्त
की आपूर्ति की जाए।
7.
लाभदायक स्तर पर कृषि मूल्यों में पर्याप्त स्थायित्व बनाए रखा जाए।
8.
विभिन्न प्रकार की जोखिमों को न्यूनतम करने के प्रयास किए जाएँ।
9. शिक्षा एवं प्रशिक्षण व्यवस्था का विस्तार किया
जाए।
10.
विकास कार्यक्रमों में समन्वय व सामंजस्य स्थापित किया जाए।
प्रश्न :- भू-सुधार से क्या आशय है? भारत में भू-सुधार कार्यक्रमों की प्रगति
का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। इसे अधिक सफल बनाने के लिए उपयुक्त सुझाव दीजिए।
उत्तर
:-भू-सुधार : अर्थ एवं परिभाषाएँ
1. परम्परागत अर्थ में :- “भूमि सुधार का आशय छोटे कृषकों
एवं कृषि-श्रमिकों के लाभार्थ भूमि-स्वामित्व के पुनर्वितरण से लगाया जाता है।”
2. व्यापक अर्थ में :- “कृषि-संगठन अथवा भू-धारण की संस्थागत
व्यवस्था में होने वाले प्रत्येक परिवर्तन को भू-धारण में सम्मिलित करते हैं।”
3. प्रो० गुन्नार मिर्डल के शब्दों में :- “भूमि सुधार
व्यक्ति और भूमि के सम्बन्धों में नियोजन और संस्थागत पुनर्गठन है।”
सामान्यत
:- भूमि-सुधार को अर्थ मध्यस्थों की समाप्ति,
काश्तकारी पद्धति में सुधार तथा जातों के सीमा-निर्धारणं से लिया जाता है, परन्तु व्यापक
अर्थ में भूमिहीन श्रमिकों की दशा में सुधार, चकबन्दी तथा भूमि की उन्नति एवं विकास
और सहकारी कृषि के विस्तार को भी भूमि-सुधार के अन्तर्गत शामिल किया जाता है। इस प्रकार,
भूमि-सुधारों में भू-धारण प्रणाली, जोतों के आकार, कृषि-पद्धति के वे समस्त परिवर्तन,
जिनकी सहायता से उत्पादन वृद्धि एवं सामाजिक न्याय का वातावरण बनता है, शामिल होते
हैं।
भारत में भू-सुधार कार्यक्रम
भारत
में अपनाए गए प्रमुख भू-सुधार कार्यक्रम निम्नलिखित हैं
I. मध्यस्थों की समाप्ति :- जिस समय देश, स्वतन्त्र हुआ,
लगभग 40% कृषि क्षेत्र पर जमींदारों, जागीरदारों तथा मध्यस्थों का प्रभुत्व था। प्रथम
दो पंचवर्षीय योजनाओं में इन मध्यस्थों को पूर्ण उन्मूलन कर दिया गया।
II. काश्तकारी सुधार :- काश्तकारी सुधार निम्नवत् थे-
1. लगान नियमन :-
पहले काश्तकार तथा बटाईदार सामान्यतः उपज का आधे से अधिक भाग भूस्वामी को लगान के रूप
में देते थे। इस सुधार के अन्तर्गत लगान की अधिकतम मात्रा 1/5 या 1/4 निर्धारित कर
दी गई।
2. भू-स्वामित्व की सुरक्षा :- इसका अर्थ
है-काश्तकारों का भूमि पर स्थायी अधिकार होना। द्वितीय योजनाकाल में योजना आयोग ने
सुझाव दिया कि ऐच्छिक परित्याग के मामलों का पंजीयन किया जाए तथा यह प्रतिबन्ध लगाया
जाए कि ऐच्छिक परित्याग के बाद भी भू-स्वामी केवल काश्त की जाने वाली भूमि की मात्रा
का ही स्वामी माना जाएगा।
3. स्वयं काश्त में भूमि का पुनर्ग्रहण :- पुनर्ग्रहण
नियमों की दृष्टि से समस्त राज्यों को चार भागों में बाँटा जा सकता है
(क)
पहले समूह में वे राज्य है, जहाँ काश्तकारों को पूर्ण सुरक्षा प्राप्त हो गई है। इन
राज्यों में भू-स्वामियों को पुन: भूमि प्राप्त करने की आज्ञा नहीं मिली है। ये राज्य
हैं-बंगाल, उत्तर प्रदेश एवं दिल्ली।
(ख)
दूसरे समूह में वे राज्य आते हैं, जहाँ भू-स्वामियों को निजी कृषि के लिए एक सीमिन्न
क्षेत्र मिल सकता है, परन्तु साथ में यह शर्त है कि काश्तकार के पास एक न्यूनतम क्षेत्र
अवश्य छोड़ना होगा। ये राज्य हैं-बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक,
ओडिशा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर तथा केरल।
(ग)
तीसरे समूह में पंजाब तथा असम राज्य आते हैं। इन राज्यों में काश्तकारों को अन्यत्र
भूमि प्रदान की जाएगी, इसके पश्चात् पुनर्ग्रहण हो सकता है। भूमि ढूँढ़ने का उत्तरदायित्व
राज्यों को सौंपा गया है।
(घ)
चौथे समूह में आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु की गिनती होती है, जहाँ भू-स्वामियों को
पुनः भूमि प्राप्त करने का अधिकार इस शर्त पर दिया गया है कि वे निर्धारित सीमा से
अधिक भूमि नहीं प्राप्त कर सकते, परन्तु काश्तकार के लिए किसी न्यूनतम क्षेत्र का निर्धारण
नहीं
किया
गया। इस अवस्था से काश्तकारों को सम्पूर्ण कृषि योग्य क्षेत्र में 9% भाग में पूर्ण
सुरक्षा, 59% भाग में आंशिक सुरक्षा तथा 19% भाग में अस्थायी सुरक्षा प्राप्त हुई है।
13% भाग अभी ऐसा है, जहाँ सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी है।।
4. काश्तकारों को मालिक होने का अधिकार :- परिश्रमी
काश्तकारों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से विभिन्न राज्यों ने भू-स्वामित्व के
अधिकार सम्बन्धी अधिनियमों को लागू किया है। प्रारम्भ में भूस्वामित्व का अधिकार प्राप्त
करना ऐच्छिक था, परन्तु तृतीय योजना में ऐच्छिकता को हटाने का सुझाव दिया गया क्योंकि
ऐच्छिक होने पर इन अधिकारों को प्रयोग नहीं हो पाया था। विभिन्न राज्य सरकारों ने यह
कार्य भिन्न-भिन्न रीतियों से किया है-
(अ)
गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व राजस्थान में काश्तकारों को मालिक कर दिया गया और
पूर्व-मालिकों को उचित किस्तों में पैसा मिलता रहे, इस बात की व्यवस्था कर दी गई।
(ब)
दिल्ली में सरकार ने मुआवजा देकर स्वयं स्वामित्व प्राप्त कर लिया और काश्तकारों को
| मालिक बना दिया। वहाँ सरकार ने व्यवस्था की है कि उसे उचित किस्तों पर काश्तकारों
से मुआवजा मिल जाए।
(स)
उत्तर प्रदेश तथा केरल ऐसे राज्य हैं, जहाँ सरकार ने भू-स्वामित्व के अधिकार स्वयं
प्राप्त कर लिए और काश्तकारों को छूट दे दी कि वे चाहें तो निर्धारित मुआवजा देकर मालिक
बन जाएँ अथवा सामान्य लगान देकर खेती करते रहें। अनुमान है कि अब तक 30 लाख काश्तकारों
तथा बटाईदारों को 70 लाख एकड़ भूमि का स्वामित्व प्राप्त हो चुका है। इस दिशा में प्रगति
जारी है।
III. जोतों का सीमा-निर्धारण :- हमारे देश
में भूमि का बँटवारा बहुत ही असन्तुलित है। कृषि जाँच समिति के अनुसार, समस्त कृषि
क्षेत्र की 34.4% भूमि पर 4.5% व्यक्ति ही खेती करते हैं, 15.5% भूमि पर 66.9% व्यक्ति
खेती करते हैं। और लगभग 19% व्यक्ति भूमिहीन हैं। अत: सामाजिक न्याय तथा समानता की
दृष्टि से जोत की सीमा का निर्धारण करना आवश्यक है। इतना ही नहीं, सीमा निर्धारण से
भूमि के प्रबन्ध एवं प्रयोग में कुशलता आती है। अतिरिक्त भू-भाग पर भूमिहीन मजदूरों
को बसाया जा सकता है तथा अतिरिक्त भूमि का प्रयोग करके अनार्थिक जोतों को आर्थिक जोतों
में परिवर्तित किया जा सकता है। भारत के कुछ राज्यों में इस सम्बन्ध में कानून बनाए
गए हैं किन्तु उनमें एक तो जोत की सीमा बहुत ऊँची रखी गई है और दूसरे, सीमा-निर्धारण
के लिए परिवार को इकाई न मानकर व्यक्ति को इकाई माना गया है। इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार
की छूटें भी दी गई हैं। 1972 को नई सीमा नीति का निर्धारण किया गया जिसके परिप्रेक्ष्य
में गोवा व उत्तर के कुछ राज्यों को छोड़कर सभी राज्यों में अधिकतम सीमा कानून पारित
किए। अभी तक मात्र 29.8 लाख हेक्टेयर भूमि को अतिरिक्त भूमि घोषित किया जा सका है जिसमें
से 21.8 लाख हेक्टेयर भूमि का वितरण 55.8 लाख लोगों में किया जा सका है।
IV. कृषि पुनर्गठन :- 1. चकबन्दी- योजना आयोग प्रारम्भ से
ही चकबन्दी कार्यक्रम को सर्वोच्च प्राथमिकता के पक्ष में | रहा है। सरल शब्दों में,
कई छोटे-छोटे और बिखरे हुए खेतों को एक बड़े खेत में बदलना ही चकबन्दी
(Consolidation) कहलाता है। भारत में चकबन्दी की प्रगति बड़ी मन्द रही है। अब तक लगभग
640.8 लाख हेक्टेयर भूमि की ही चकबन्दी की जा सकी है। चकबन्दी से भूमि के विखण्डन की
समस्या सुलझी है तथा कृषि-उपज में भी वृद्धि हुई है। दु:ख का विषय है कि अनेक राज्यों
ने चकबन्दी का कार्य बन्द कर दिया है।
2. भूमि के प्रबन्धन में सुधार :- भूमि-सुधार
के अन्तर्गत प्रथम व द्वितीय योजना में भूमि के कुशल प्रबन्ध पर बल दिया गया। इसके
अन्तर्गत भूमि को समतल बनाना, कृषि-योग्य बंजर भूमि का विकास, बीजों की उन्नत किस्मों
का प्रयोग, खाद व औजार आदि का प्रयोग व रोगों से रोकथाम आदि कार्य आते हैं। इस दिशा
में अभी तक हुई प्रगति विशेष उत्साहवर्द्धक नहीं रही है।
3. सहकारी खेती :- देश के कृषि ढाँचे का पुनर्गठन सहकारिता
के आधार पर किया जा रहा है, अत: पंचवर्षीय योजनाओं में भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था
के पुनर्निर्माण में सहकारी खेती के महत्त्व पर विशेष जोर दिया गया। प्रथम पंचवर्षीय
योजना के अन्त में देश में कुल 1,000 सहकारी कृषि समितियाँ थीं। सन् 1959 ई० के नागपुर
अधिवेशन में कांग्रेस ने संयुक्त सहकारी खेती को कृषि सुधार का अन्तिम लक्ष्य घोषित
किया। फलतः सहकारी कृषि के विकास में गति आई।
4. भूमिहीनों को बसाना तथा भू-दान व ग्राम-दान आदि :-
भारत में भूमिहीन मजदूरों को बसाना एक जटिल समस्या है। आज भी ग्रामीण जनसंख्या का लगभग
19% अंश ऐसा है, जिसे हम ‘भूमिहीन श्रमिक’ (Landless Labour) कहकर पुकारते हैं। यद्यपि
प्रथम पंचवर्षीय योजना में ही भूमिहीन मजदूरों को नई भूमि पर बसाने का कार्य प्रारम्भ
कर दिया गया था तथापि अभी तक यह समस्या पूर्णतः सुलझी नहीं है।
भूदान
एक सामाजिक तथा आर्थिक आन्दोलन है, जिसका सूत्रपात आचार्य विनोबा भावे ने 1951 में
किया था। इस आन्दोलन के उद्देश्य की व्याख्या करते हुए आचार्य विनोबा भावे ने कहा था,
“इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य बिना संघर्ष के इस देश में सामाजिक एवं आर्थिक दुर्व्यवस्था
को दूर करना है।” भूदान आन्दोलन भूमिहीन व्यक्तियों को बाँटने के लिए स्वेच्छा से भूमि-दान
का अनुरोध करता है। कृषि से भिन्न अन्य क्षेत्रों में यह आन्दोलन जीवन दान, सम्पत्ति
दान, साधन दान आदि रूपों में चल रहा है। भूदल आन्दोलन अब पर्याप्त व्यापक हो गया है।
इसके अन्तर्गत ग्राम दान, प्रखण्ड दान, जिला दान तथा प्रदेश दान को भी शामिल कर लिया
गया है। इस आन्दोलन का लक्ष्य 5 करोड़ हेक्टेयर भूमि प्राप्त करना है, जिससे प्रत्येक
भूमिहीन परिवार को कुछ-न-कुछ भूमि दी जा सके। अब तक इस आंदोलन के अंतर्गत 39.16 लाख
एकड़ भूमि प्राप्त हो चुकी है और 37,775 गाँव दान में मिल चुके हैं। इस आंदोलन का लक्ष्य
5 करोड़ एकड़ भूमि प्राप्त करना था। अनेक राज्यों में भूदान में मिली भूमि के वितरण
को न्यायपूर्ण बनाने के लिए कुछ कानूनों का भी निर्माण किया गया है। राज्य सरकारें
इस आन्दोलन को वित्तीय सहायता भी दे रही हैं। भूदान आन्दोलन एक अभिनव आन्दोलन है। श्री
नेहरू ने इस आन्दोलन को ऐसा वातावरण तैयार करने वाला बताया है, जिससे हमारी समस्याएँ
बहुत कुछ सरल हो गईं। श्रीमन्नारायण ने इस आन्दोलन का मूल्यांकन इन शब्दों में किया
है, “भूदान आन्दोलन देश में महत्त्वपूर्ण भूमि-सुधारों के लिए स्वस्थ एवं अनुकूल वातावरण
तैयार करने में सफल हुआ है।
आलोचनात्मक मूल्यांकन
भारत
के भूमि-सुधार कार्यक्रम की प्राय: निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है
1.
भूमि-सुधार कार्यक्रम को समन्वित रूप से लागू नहीं किया गया।
2.
सहकारी कृषि समितियों का निर्माण प्राय: बड़े भू-स्वामियों द्वारा किया गया और उन्होंने
ही सहकारी सुविधाओं का लाभ उठाया। फलतः भूमि को जोतने वाला वास्तविक कृषक सुविधाओं
से वंचित रहा।
3.
भारत में भू-सुधार नीति अत्यन्त विलम्बपूर्ण रही है।
4.
इससे अनावश्यक मुकदमेबाजी (Litigation) को प्रोत्साहन मिला है।
5.
भूमि-सुधार नियमों में होने वाले परिवर्तन ने भू-स्वामियों में अनिश्चितता की भावना
उत्पन्न की।
6.
प्रशासन का दृष्टिकोण भूमि-सुधार में सहायक सिद्ध नहीं हुआ है।
7.
आज भी कई क्षेत्रों में उच्च लगान लागू है।
8.
अनेक राज्यों में आज भी भूमि सम्बन्धी अभिलेख अपूर्ण हैं।
वस्तुत:
सत्य तो यह है कि हमारे देश में जो भी भूमि-सुधार सम्बन्धी कार्य हुए हैं, वे मन और
उत्साह से नहीं किए गए हैं। इनके कारण कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गईं, जो सामाजिक
न्याय एवं प्रगति की विरोधी हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि भूमि-सुधारों से सम्बन्धित
अनिश्चितता एवं बाधाओं को शीघ्रातिशीघ्र दूर किया जाए तथा इन सुधारों को निष्ठापूर्वक
लागू किया जाए, जिससे एक न्यायपूर्ण, शोषणरहित एवं अधिक स्वस्थ समाज का निर्माण हो
सके।
सुझाव
भूमि-सुधार
कार्यक्रमों को प्रभावशाली ढंग से शीघ्रतापूर्वक लागू करने के लिए कुछ रचनात्मक सुझाव
दिए जा सकते हैं; जैसे
1.
केन्द्रीय भूमि-सुधार आयोग की सिफारिशों को यथासम्भव शीघ्र लागू किया जाए। सिंचित क्षेत्रों
में भूमि की अधिकतम सीमा 18 एकड़ निर्धारित कर दी जाए।
2.
सीमा से अधिक भूमि को सरकार स्वयं अपने नियन्त्रण में ले ले तथा भूमिहीनों में उचित
रूप से उसका तुरन्त आवंटन कर दिया जाए।
3.
कृषकों को बेदखल करने वाले भू-स्वामियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जाए।
4.
सरकार बेनामी हस्तान्तरणों को मालूम करके सीमा से अधिक भूमि का स्वयं अधिग्रहण करे।
5.
ग्रामों में भूमिहीनों को आवास हेतु भूखण्ड दिए जाएँ।
6.
कृषि में न्यूनतम वेतन को तुरन्त लागू किया जाए।
7.
सीमावर्ती क्षेत्रों में भू-वितरण में भूतपूर्व सैनिकों को प्राथमिकता प्रदान की जाए।
8.
गलत आवंटन तथा अनुचित हस्तान्तरण में सहयोग देने वाले राजस्व अधिकारियों के विरुद्ध
कड़ी कार्यवाही की जाए।
9.
शेष मध्यस्थों की समाप्ति हेतु भी कदम उठाए जाएँ। मध्यस्थों के रूप में भूमि रखने का
अधिकार केवल विधवा महिलाओं, नाबालिग बच्चों तथा भूतपूर्व सैनिकों (विशेषकर अपंग सैनिकों)
को ही होना चाहिए।
10.
जो लोग अन्य लोगों की भूमि पर खेती करते हैं, उनकी बेदखली को रोका जाए।
11.
परती भूमियों के वितरण हेतु उचित व्यवस्था हो तथा ऐसे क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधाओं
का विस्तार किया जाए।
प्रश्न :- हरित क्रान्ति से क्या आशय है? भारत में हरित क्रान्ति को जन्म
देने वाले घटकों ने बताइए। इसके मार्ग में क्या कठिनाइयाँ आई हैं? इसे सफल बनाने के
लिए उपयुक्त सुझाव दीजिए। ”
उत्तर
:- हरित क्रान्ति का अर्थ
साधारण
शब्दों में, हरित क्रान्ति से आशय सिंचित और असिंचित कृषि क्षेत्रों में अधिक उपज देने
वाली किस्मों को आधुनिक कृषि पद्धति से उगाकर कृषि उपज में यथासम्भव अधिकाधिक वृद्धि
करने से है। जार्ज हरार के अनुसार-“हरित क्रान्ति से हमारा आशय पिछले दशक में विभिन्न
देशों में खाद्यान्नों के उत्पादन में होने वाली आश्चर्यजनक वृद्धि से है।
हरित क्रान्ति को जन्म देने वाले घटक
भारत
में हरित क्रान्ति के लिए निम्नलिखित घटक उत्तरदायी रहे हैं-
1.
अधिक उपज देने वाली किस्मों का प्रयोग।
2.
1961-62 में सघन कृषि जिला कार्यक्रम नामक योजना का प्रारम्भ।
3.
सघन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम का विस्तार।।
4.
बहु-फसल कार्यक्रम को अपनाना।।
5.
खाद एवं उर्वरकों का अधिकाधिक उपयोग।
6.
उन्नत बीजों का प्रयोग।
7.
आधुनिक कृषि उपकरण एवं संयन्त्रों का प्रयोग।
8.
प्रभावी पौध संरक्षण कार्यक्रमों को लागू करना।
9.
सिंचाई सुविधाओं का विस्तार।
10.
पर्याप्त मात्रा में कृषि साख की उपलब्धि।
भारत
में हरित क्रान्ति की असफलताएँ/कठिनाइयाँ
यद्यपि
उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरक, आधुनिक विकसित तकनीक आदि के प्रयोग द्वारा कृषि उत्पादकता
में काफी वृद्धि हुई, तथापि व्यापक दृष्टि से कृषि के विभिन्न स्तरों पर क्रान्ति लाने
में यह असफल रही है। भारत में हरित क्रान्ति की असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित रहे
हैं
1.
कृषि क्रान्ति का प्रभाव केवल कुछ ही फसलों (गेहूँ, ज्वार, बाजरा) तक ही सीमित रहा
है। गन्ना, पटसन, कपास व तिलहन जैसे कृषि पदार्थों पर इसका बिल्कुल प्रभाव नहीं पड़ा
है।
2.
कृषि क्रान्ति का प्रभाव केवल कुछ ही विकसित क्षेत्रों (पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश,
आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु) के कुछ भागों तक सीमित रहा है।
3.
भारत में कृषि-क्रान्ति से केवल बड़े किसान ही लाभान्वित हो सके हैं। इससे ग्रामीण
क्षेत्रों में असमानताएँ बढ़ी हैं और इस प्रकार से धनी कृषक अधिक धनी और निर्धन अधिक
निर्धन हो गए
4.
विस्तृत भू-खण्डों पर उत्तम खाद व बीज तथा नवीन तकनीकों के प्रयोग से कृषि योग्य भूमि
के कुछ लोगों के हाथों में केन्द्रित होने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
5.
कृषि विकास की गति अत्यधिक धीमी रही है।
हरित क्रान्ति को सफल बनाने के उपाय
हरित
क्रान्ति को सफल बनाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं
1.
कृषि उत्पादन से सम्बन्धित सरकारी विभागों में उचित समन्वय होना चाहिए।
2.
उर्वरकों के वितरण की व्यवस्था होनी चाहिए।
3.
उर्वरकों के प्रयोग के बारे में किसानों को उचित प्रशिक्षण सुविधाएँ उपलब्ध होनी चाहिए।
4.
उपयुक्त व उत्तम बीजों के विकास को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
5.
फसल बीमा योजना शीघ्रता एबं व्यापकता से लागू की जानी चाहिए।
6.
कृषि साख की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए। उन्हें सस्ती ब्याज दर
परे, ठीक समय पर, पर्याप्त मात्रा में ऋण-सुविधाएँ मिलनी चाहिए।
7. सिंचाई-सुविधाओं का विस्तार किया जा चाहिए।
8.
भू-क्षरण में होने वाली क्षति की रोकथाम के उचित प्रयत्न किए जाने चाहिए।
9.
कृषि उपज के विपणन की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।
10.
भूमि का गहनतम व अधिकतम उपयोग किया जाना चाहिए।
11.
कृषकों को उचित प्रशिक्षण व निर्देशन दिया जाना चाहिए।
12.
भूमि-सुधार कार्यक्रमों का शीघ्र क्रियान्वयन होना चाहिए।
13.
छोटे किसानों को विशेष सुविधाएँ दी जानी चाहिए।
14.
प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार होना चाहिए।
15.
विभिन्न विभागों, सामुदायिक विकास खण्डों, ग्राम पंचायतों, सरकारी संगठनों व साख संस्थाओं
में उचित समन्वय होना चाहिए।
प्रश्न :- कृषि विपणन से क्या आशय है? भारत में कृषि विपणन की वर्तमान व्यवस्था
क्या है?
उत्तर
:- कृषि विपणन का अर्थ
कृषि
विपणन की समस्या कृषि विकास की आधारभूत समस्या है। यदि कृषक को उसे उत्पादन की उचित
मूल्य नहीं मिलता तो उसकी आर्थिक स्थिति कभी सुधर नहीं सकती। कृषि विपणन एक व्यापक
शब्द है। इसके अन्तर्गत बहुत-सी क्रियाएँ आती हैं; जैसे—कृषि पदार्थों का एकत्रीकरण,
श्रेणी विभाजन विधायन, संग्रहण, परिवहन, विपणन के लिए वित्त, पदार्थों को अन्तिम उपभोक्ताओं
तक पहुँचाना तथा इन सम्पूर्ण क्रियाओं में निहित जोखिम उठाना आदि। इस प्रकार विपणन
के अन्तर्गत उन संमस्त क्रियाओं का समावेश किया जाता है, जिनको सम्बन्ध कृषि उत्पादन
के कृषक के पास से अन्तिम उपभोक्ताओं तक पहुँचाने से होता है।
भारत
में कृषि पदार्थों के विपणन की वर्तमान व्यवस्था
भारत
में किसान अपनी उपज को निम्नलिखित ढंग से बेचता है-
1. गाँव में बिक्री :- भारत में कृषि-उत्पादन का अधिकांश
भाग प्रायः गाँव में ही बेच दिया जाता है। ग्रामीण साख सर्वेक्षण समिति इस निष्कर्ष
पर पहुँची है कि कुल फसल का लगभग 65% भाग उत्पत्ति के स्थान पर ही बेच दिया जाता है।
इसके अतिरिक्त 15% भाग गाँव के बाजार में, 14% भाग व्यापारियों व कमीशन एजेण्टों को
तथा शेष 6% अन्य पद्धतियों से बेचे जाने का अनुमान है। ग्रामीण बाजार में फसल की बिक्री
मुख्यत: तीन रूपों में होती है
(क)
गाँव की हाटों अथवा साप्ताहिक बाजारों में।।
(ख)
गाँव के महाजन तथा साहूकारों को।
(ग)
गाँव में भ्रमण करते व्यापारियों तथा कमीशन एजेण्टों को।
प्रायः
गाँव में बिकने वाली फसल का किसानों को उचित मूल्य नहीं मिला पाता, परन्तु अनेक कारण
किसानों को इस बात के लिए विवश कर देते हैं कि वे अपनी फसल
गाँव
में ही बेच दें। गाँव में फसल की बिक्री के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं-
(क)
बाजार योग्य अतिरेक (Marketable Surplus) का कम होना।
(ख)
यातायात व परिवहन के साधनों का अभाव।
(ग)
किसानों की ऋणग्रस्तता।
(घ)
गोदामों की सुविधाओं का अभाव।
(ङ)
किसानों की अशिक्षा, मण्डियों में होने वाली बेईमानी तथा प्रचलित मूल्यों का ज्ञान
न होना।
(च)
किसानों की निर्धनता आदि।
2. मण्डियों में बिक्री :- भारत में अधिकांश किसान अपनी
फसल गाँवों में नहीं बेचते, वे मण्डियों में अपनी फसल बेचा करते हैं। भारत में लगभग
6,700 मण्डियाँ हैं। भारत में दो प्रकार की मण्डियाँ पायी जाती हैं–नियमित तथा अनियमित।
नियमित मण्डियाँ प्रायः निजी व्यक्तियों, संस्थाओं अथवा मण्डलों द्वारा संचालित होती
हैं। अनयिमित मण्डियों में, जहाँ उनका प्रबन्ध निजी व्यक्तियों के हाथ में होता है,
प्राय: सभी प्रकार की अनियमितताएँ होती हैं और मध्यस्थ फसल का अधिकांश भाग हड़प लेते
हैं। नियमित मण्डियों में किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य मिल जाता है क्योंकि इनकी
व्यवस्था राज्य सरकारों द्वारा की जाती है। केन्द्रीय विपणन निदेशालय इस सम्बन्ध में
राज्यों का पथ-प्रदर्शन करता है।
3. सहकारी समितियों द्वारा बिक्री :- देश में कृषि
उपज की बिक्री की दृष्टि से सहकारी विपणन समितियों (Co-operative Marketing
Societies) की स्थापना की गई है, जो अपने सदस्यों के कृषि उत्पादन को एकत्रित करके
उसे बड़ी मण्डियों में बेचती हैं।
4. सरकार द्वारा क्रय :- गत् कुछ वर्षों से सरकार भी
कृषि पदार्थों का क्रय करने लगी है। सन् 1973 ई० में सरकार द्वारा गेहूँ के थोक-व्यापार
का राष्ट्रीयकरण कर लेने से कृषि-विपणन में सरकारी एजेन्सियों का महत्त्व बढ़ गया है।
प्रश्न :- भारत में कृषि विपणन की मुख्य समस्याएँ/दोष/कठिनाइयाँ क्या हैं?
उन्हें सुधारने के उपाय बताइए।
उत्तर
:- भारत में कृषि उपज के विपणन की समस्याएँ/दोष/कठिनाइयाँ भारत में कृषि उपज की विक्रय-व्यवस्था
अनेक दृष्टियों से दोषपूर्ण है, जिसके परिणामस्वरूप किसानों को उपभोक्ताओं द्वारा चुकाए
गए मूल्य का आधा भाग ही कठिनता से मिल पाता है। परिणामतः न तो उपभोक्ताओं को लाभ हो
पाता है और न ही उत्पादकों को। यह स्थिति आर्थिक विकास की दृष्टि से भी अत्यन्त दोषपूर्ण
है, जिसका देश के उत्पादन पर व्यापक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। कृषि उपज के विक्रय
के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं
1. कृषि उपज की घटिया किस्म :- भारत में
कृषि उपज प्रायः घटिया किस्म की होती है क्योंकि किसान कृषि को एक परम्परागत कार्य
समझकर करता है और उपज की किस्म पर ध्यान नहीं देता। फलतः कृषक को उपज का उचित मूल्य
नहीं मिल पाता।
2. संगठन का अभाव :- भारतीय कृषकों में संगठन का अभाव है,
जबकि क्रेता पूर्ण रूप से संगठित होते हैं। अतः असंगठित कृषक अपनी उपज का उचित मूल्य
प्राप्त नहीं कर पाते।
3. मध्यस्थों की अधिकतम संख्या :- कृषि विपणन
में बहुत अधिक मध्यस्थ हैं। उपभोक्ता तथा उत्पादक (कृषक) के बीच मध्यस्थों की एक लम्बी
लाइन होती है, जो सभी अपनी-अपनी सेवा का कुछ-न-कुछ लेते हैं। राष्ट्रीय नियोजन समिति
ने इन मध्यस्थों को कृषक की निर्धनता का एक महत्त्वपूर्ण कारण माना है।
4. श्रेणीकरण का अभाव :- भारतीय कृषक अपनी उपज का श्रेणीकरण
तथा प्रमापीकरण नहीं करते। समस्त पदार्थों को मिला-जुलाकर बेचते हैं, जिससे वस्तु को
उचित मूल्य नहीं मिल पाता।
5. यातायात की असुविधा :- ग्रामीण क्षेत्रों में अभी
तक यातायात व परिवहन की सुविधाओं का आवश्यक विकास नहीं हुआ है, परिणामतः कृषक गाँवों
में ही अपनी उपज बेचने के लिए बाध्य होता है। यातायात की सुविधाओं के अभाव में मध्यस्थों
की संख्या में भी वृद्धि हो जाती है।
6. अपर्याप्त एवं अवैज्ञानिक गोदामों की व्यवस्था :-
भारत में किसानों की उपज के उचित संग्रह हेतु प्रायः कोई सुविधा प्राप्त नहीं होती।
वे नमी, धूप, हवा तथा धूल आदि से उपज की रक्षा नहीं कर पाते। चूहे, दीमक आदि भी फसल
को नष्ट करते रहते हैं, जिससे प्रतिवर्ष 20 लाख टन उत्पादन नष्ट हो जाता है। भण्डारों
की सुविधा न होने के कारण किसानों को अपनी उपज तुरन्त बेच देनी पड़ती है।
7. बाजार में प्रचलित बुराइयाँ तथाअनुचित कटौतियाँ :-
अनियमित मण्डियों में और कभी-कभी नियमित मण्डियों में विविध प्रकार की कुचालें तथा
बेईमानियाँ पायी जाती हैं। राष्ट्रीय नियोजन समिति ने ग्रामीण बिक्री तथा वित्त सम्बन्धी
प्रतिवेदन में निम्नलिखित कार्यवाहियों का उल्लेख विशेष रूप से किया है|
a.
विभिन्न प्रकार की माप-तौल द्वारा किसानों को धोखा देना।
b.
चुंगी, तौलाई, दलाली, आढ़त आदि शुल्कों के अतिरिक्त प्याऊ,
c.
गौशाला, रामलीला, मन्दिर, अनाथालय आदि के नाम पर अनुचित कटौतियाँ।।
d.
दलालों का आढ़तियों से गुप्त सम्पर्क होना।।
e.
गुप्त रूप से मूल्य निर्धारित करना।।
f.
नमूने के रूप में पर्याप्त मात्रा में कृषि-पदार्थ ले लेना आदि। यही कारण है कि उपर्युक्त
कटौतियों से बचने की दृष्टि से किसान गाँवों में अपनी उपज बेचने के लिए प्रोत्साहित
होते हैं।
8. कीमतों के बारे में सूचना का अभाव :- यातायात,
परिवहन तथा संचार सुविधाओं के अभाव व अशिक्षा के कारण किसानों को मण्डी में प्रचलित
अथवा सम्भावित कीमतों की सूचना नहीं मिलती और व्यापारी तथा महाजन झूठी सूचनाएँ देकर
उन्हें ठग लेते हैं।
9. अन्य दोष :-1. किसान का रूढ़िवादी, अन्धविश्वासी,
अशिक्षित एवं सरल होना, जिसकी वजह से व्यापारी व्यक्तिगत सम्बन्धों की दुहाई देकर तथा
सहानुभूति दिखाकर उसे ठगने में सफल हो जाते हैं।
2.
निर्धनता तथा ऋणग्रस्तता के कारण कृषक तत्काल माल बेचने के लिए बाध्य होता है, जिससे
उसे कृषि उपज का कम मूल्य प्राप्त होता है।
3.
कृषिपदार्थों में मिलावट होना, जिससे उपज की एक निश्चित मात्रा कटौती के रूप में रख
ली जाती है।।
4.
बिक्री के लिए कम अतिरिक्त उपज का होना।
इस
प्रकार स्पष्ट है कि भारत में कृषि विपणन-व्यवस्था अनेक दोषों से युक्त है।
कृषि उपज की विपणन व्यवस्था को सुधारने के लिए सुझाव
1.
कृषक को महाजन-साहूकार के चंगुल से निकालने के लिए सस्ते ब्याज की दर पर वित्तीय |
सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ।
2.
परिवहन के सस्ते व पर्याप्त साधन विकसित किए जाएँ, ताकि कृषक अपनी उपज को मण्डी में
ले | जाकर उचित कीमतों पर बेच सकें।
3.
नियन्त्रित मण्डियों की अधिकाधिक संख्या में स्थापना की जाए।
4.
मण्डी में बाँटों का नियमित रूप से निरीक्षण किया जाए।
5.
व्यापक स्तर पर भण्डार व गोदाम बनाए जाएँ।
6.
कृषि उपज की बिक्री के लिए स्थान-स्थान पर सहकारी कृषि विपणन समितियों की स्थापना की
जाए।
7.
किसानों में शिक्षा का प्रसार किया जाए।
प्रश्न :- उपदान (Subsidy) से क्या आशय है? उपदान के पक्ष और विपक्ष में
तर्क दीजिए।
उत्तर
:- उपदान का अर्थ वस्तुओं के मूल्य में भारी उच्चावचों का अर्थव्यवस्था पर व्यापक दुष्प्रभाव
पड़ता है। ये उच्चावच आर्थिक स्थिरता में बाधक बनते हैं। अतः सरकार आवश्यक वस्तुओं
के मूल्यों को नीचे स्तर पर रखने का प्रयास करती है। जब सरकार वस्तुओं के मूल्यों को
नीचे स्तर पर बनाए रखने के लिए उत्पादकों, वितरकों तथा निर्यातकों को आर्थिक सहायता
प्रदान करती है तो इस प्रकार की आर्थिक सहायता को उपदान कहा जाता है। प्रारम्भ में
निर्यात प्रोत्साहन हेतु सरकार आर्थिक सहायता प्रदान करती थी ताक़ि निर्यातक कम मूल्यों
पर वस्तुओं का निर्यात कर सकें और निर्यातों में तेजी से वृद्धि हो सके। कम मूल्यों
पर वस्तुओं का निर्यात करने से निर्यातकों को जो हानि होती थी, सरकार उसे उपदान देकर
पूरा करती थी। आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों को कम रखने के लिए सरकार द्वारा उपदान दिए
जाते रहे हैं।
उपदान के पक्ष में तर्क
1.
भारत में कृषि क्षेत्र के विस्तार की सम्भावनाएँ सीमित हैं। अत: कृषि उत्पादन को बढ़ाने
के लिए गहन कृषि को प्रोत्साहन देना आवश्यक है। गहन कृषि की सफलता आदाओं की उपलब्धता
पर निर्भर करती है। ये आदाएँ हैं-पर्याप्त सिंचाई सुविधाएँ, अधिकाधिक उपजदायी बीज तथा
रासायनिक उर्वरकों का भरपूर उपयोग। इनकी उपलब्धि सीमित है और उत्पादन लागत ऊँची। निर्धन
किसानों के लिए इन सुविधाओं का बाजार मूल्य पर क्रय असम्भव है। अत: इनका कुछ भार सरकार
को वहन करना चाहिए।
2.
कम मूल्य पर आदाएँ मिलने से छोटे किसान भी आधुनिक तकनीकी को अपना सकेंगे। इसके परिणामस्वरूप
छोटे किसान भी अपनी क्षमता का पूर्ण उपयोग कर सकेंगे।
3.
गहन कृषि से कृषि क्षेत्र में आये और रोजगार में वृद्धि होगी, फसल ढाँचे में परिवर्तन
होगा, व्यावसायिक फसलों के उत्पादन में वृद्धि होगी तथा आर्थिक असमानताओं में कमी आएगी।
उपदान के विपक्ष में तर्क
उपदान
के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं
1.
उपदान पर दी जाने वाली राशि में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। इसका सरकारी बजट पर भारी
बोझ पड़ता है।
2.
उपदान से संसाधनों का अपव्यय होता है। इस अपव्यय के मुख्य कारण हैं
संसाधनों
का दोषपूर्ण आवंटन,
-
कम कीमत पर मिलने से साधनों के दुरुपयोग की सम्भावना तथा
-
कुशल प्रबन्धन के लिए प्रेरणा का अभाव।
3.
उपदान के वितरण में भारी विषमताएँ विद्यमान हैं। इससे आर्थिक विषमताएँ भी बढ़ने लगती
हैं।
प्रश्न :- भारत में कृषि वित्त के वर्तमान स्रोतों की चर्चा कीजिए।
उत्तर
:- भारत में कृषि वित्त के मुख्य स्रोत निम्नलिखित हैं
1.ग्रामीण, साहूकार व महाजन :- ये प्रायः
सम्पन्न किसान तथा भूमिपति होते हैं। ये कृषि के साथ-साथ लेन-देन का भी कार्य करते
हैं। ये लोग कृषि के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए भी पैसा उधार देते हैं।
2. देशी बैंकर :- देशी बैंकर दो प्रकार के कार्य करते
हैं-बैंकिंग कार्य तथा गैर-बैंकिंग कार्य। बैंकिंग कार्यों में निक्षेपों को स्वीकार
करना, ऋण देना तथा हुण्डियों में व्यवसाय सम्मिलित होता है। ये , ऋणों पर-ऊँची ब्याज
दर लेते हैं।
3. सरकार :- कृषि-वित्त की आवश्यकताओं को देखते
हुए सरकार ने अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन ऋण की व्यवस्था की है। ये ऋण ‘तकावी ऋण’ कहे
जाते हैं। सरकार भू-सुधार ऋण अधिनियम, 1883 के अनतर्गत दीर्घकालीन ऋण तथा कृषक ऋण अधिनियम,
1884 के अधीन अल्पकालीन ऋण प्रदान करती है। दीर्घकालीन ऋण भूमि पर स्थायी सुधार के
उद्देश्य से प्रदान किए जाते हैं, जबकि अल्पकालीन ऋण कृषि सम्बन्धी सामान्य आवश्यकताओं
की पूर्ति अथवा अकाल, बाढ़ या अन्य किसी कारण से फसल नष्ट होने पर दिए जाते हैं। सरकार
इन ऋणों पर बहुत कम ब्याज लेती है। परन्तु फिर भी ये ऋण अधिक प्रभावशाली तथा लोकप्रिय
नहीं हैं।
4. सहकारी समिति :- इन समितियों का उद्देश्य कृषि विकास
के लिए कम ब्याज की दर पर पर्याप्त साख सुविधाएँ प्रदान करना है। ये समितियाँ अल्पकालीन
तथा मध्यकालीन ऋणों के अतिरिक्त अनुत्पादक ऋण भी प्रदान करती हैं। ऋण प्रदान करने के
अतिरिक्त इन समितियों का । उद्देश्य किसानों में बचत आन्दोलन को प्रोत्साहित करना एवं
उनका मानसिक व नैतिक उत्थान करना भी है।
5. व्यापारिक बैंक :- राष्ट्रीयकरण के बाद कृषि साख के क्षेत्र
में व्यापारिक बैंकों का योगदान निरन्तर बढ़ा है। ये बैंक कृषि विस्तार के लिए अल्पकालीन
एवं मध्यकालीन ऋण प्रदान करते हैं।
6. भारतीय स्टेट बैंक :- स्टेट बैंक तथा उसके सहायक बैंक सहकारी संस्थाओं
के माध्यम से कृषि क्षेत्र को उदारता के साथ साख प्रदान कर रहे हैं। कृषि साख के क्षेत्र
में स्टेट बैंक निम्नलिखित प्रकार से योगदान करता है
(क) प्रत्यक्ष उधार :- फसल
के बोने से लेकर काटने तक, सँवारने तथा सुरक्षित रखने और बिक्री करने आदि सभी कार्यों
के लिए स्टेट बैंक धन की व्यवस्था करता है। इसके अतिरिक्त पशुपालन, डेयरी व्यवसाय,
मुर्गी पालन तथा फलोत्पादन के लिए स्टेट बैंक परिवार ऋण प्रदान करता है।
(ख) परोक्ष उधार :- रासायनिक
खाद, बीज, जन्तुनाशक तत्त्व, पम्पिंग सैट तथा ट्रैक्टर के लिए भी स्टेट बैंक ऋण प्रदान
करता है।
7. भूमि बन्धक अथवा भूमि विकास बैंक :- ये बैंक भूमि
की जमानत पर किसानों को दीर्घकालीन ऋण देते हैं। ये बैंक उत्पादक तथा अनुत्पादक दोनों
प्रकार का ऋण प्रदान करते हैं।
8. भारतीय रिजर्व बैंक :- यह बैंक किसानों को प्रत्यक्ष
रूप से सात प्रदान न करके सहकारी बैंकों के माध्यम से साख प्रदान करता है। रिजर्व बैंक
अल्पकालीन साख या तो पुनर्कटौती के रूप में अथवा अग्रिमों के रूप में प्रदान करता है।
रिजर्व बैंक दीर्घकालीन ऋण भी प्रदान करता है। ये ऋण राज्य सरकारों को दिए जाते हैं,
जिससे वे सहकारी साख संस्थाओं के शेयर क्रय कर सकें। इसके अतिरिक्त रिजर्व बैंक केन्द्रीय
भूमि बन्धक बैंकों के ऋण-पत्र भी खरीद सकता है।
9. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक :- ये बैंक ग्रामीण
क्षेत्रों के छोटे किसानों, सामान्य कारीगरों तथा भूमिहीन श्रमिकों की साख सम्बन्धी
आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। ये कृषकों को उपकरण, यन्त्र और पशु खरीदने तथा गोबर गैस
संयन्त्र लगाने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं।
10. कृषि व ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक (NABARD) :-12
जुलाई, 1982 ई० से कृषि एवं ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक (NABARD) की स्थापना
की गई, जो कृषि के लिए निम्नलिखित प्रकार से साख की व्यवस्था करेगा
1.
यह 18 महीने तक की अवधि के लिए अल्पकालीन साख राज्य सहकारी बैंकों, प्रादेशिक ग्रामीण
बैंकों व अन्य वित्तीय संस्थाओं को प्रदान करेगा, ताकि उसका उपयोग कृषि कार्यों के
विशिष्ट उत्पादन व बिक्री क्रियाओं के लिए किया जा सके।
2.
18 महीने से 7 वर्ष के लिए मध्यकालीन ऋण राज्य सहकारी बैंकों व प्रादेशिक ग्रामीण बैंकों
को कृषि विकास व इनके द्वारा निर्धारित अन्य कार्यों के लिए दिए जाएँगे।
3.
पुनर्वित के रूप में दीर्घकालीन ऋण भूमि विकास बैंकों, प्रादेशिक ग्रामीण बैंकों, अनुसूचित
बैंकों, राज्य सहकारी बैंकों व अन्य वित्तीय संस्थाओं को कृषिगत व ग्रामीण विकास के
लिए दिए जाएँगे।
4.
यह राज्य सरकारों को 20 वर्ष तक के लिए ऋण दे सकेगी, ताकि वे प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप
से सहकारी साख समितियों की शेयर पूँजी में हिस्सा ले सकें।
5.
यह केन्द्रीय सरकार की स्वीकृति पर किसी भी अन्य संस्था को दीर्घकालीन ऋण दे सकेगा,
ताकि कृषि व ग्रामीण विकास को प्रोत्साहन दिया जा सके।
इस
बैंक को कृषि पुनर्वित्त एवं विकास निगम (ARDC) तथा राष्ट्रीय कृषि साख (दीर्घकालीन)
कोष एवं राष्ट्रीय कृषि साख (स्थायीकरण) कोष के सभी कार्य हस्तान्तरित कर दिए गए हैं।
प्रश्न :- औद्योगीकरण से क्या आशय है? उत्पादन के प्रकार व स्वामित्व के
आधार पर बड़े पैमाने के उद्योगों का वर्गीकरण कीजिए
उत्तर
:- औद्योगीकरण का अर्थ
औद्योगीकरण
से आशय विज्ञान एवं तकनीक की सहायता से नवीन उपयोगिताओं या मूल्यों के निर्माण से लगाया
जाता है। जब उद्योगों की श्रृंखला व्यापक रूप धारण कर लेती है, तो यह प्रक्रिया बन
जाती है, जिसे ‘औद्योगीकरण’ कहते हैं। संकुचित अर्थ में, औद्योगीकरण से आशय निर्माण
उद्योगों की स्थापना से है परन्तु व्यापक अर्थ में औद्योगीकरण की प्रक्रिया केवल निर्माण
उद्योगों की स्थापना तक ही सीमित नहीं है, वरन् इसके द्वारा किसी भी राष्ट्र की सम्पूर्ण
आर्थिक संरचना को परिवर्तित किया जा सकता है।
उत्पादन के प्रकार
के आधार पर बड़े पैमाने के उद्योगों का वर्गीकरण
उत्पादन
के प्रकार के आधार पर बड़े पैमाने के उद्योगों को मोटे तौर पर चार प्रमुख श्रेणियों
में वर्गीकृत । किया जा सकता है
1. आधारभूत उद्योग :- आधारभूत उद्योग वे उद्योग होते हैं,
जो सभी महत्त्वपूर्ण उद्योगों और कृषि को आवश्यक आदाएँ (इनपुट्स) प्रदान करते हैं।
इनमें कच्चा लोहा, कोयला, उर्वरक, कॉस्टिक सोडा, सीमेंट, स्टील, ऐलुमिनियम, बिजली आदि
सम्मिलित हैं।
2. पूँजी वस्तु उद्योग :- पूँजी वस्तु उद्योग वे उद्योग
होते हैं, जो सभी उद्योगों एवं कृषि के लिए मशीनरी व उपकरणों का उत्पादन करते हैं।
इन उद्योगों में मशीनी औजार, ट्रैक्टर, बिजली के ट्रान्सफॉर्मर, मोटरवाहन आदि सम्मिलित
हैं।
3. मध्यवर्ती वस्तु उद्योग :- ये उद्योग
उन वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, जो किन्हीं दूसरे उद्योगों की उत्पादन प्रक्रिया में
प्रयोग की जाती हैं अथवा उद्योगों में पूँजी वस्तुओं के सहायक उपकरणों में प्रयोग की
जाती हैं; जैसे-ऑटोमोबाइल, टायर्स और पेट्रोलियम-रिफाइनरी उत्पाद। ।
4. उपभोक्त वस्तु उद्योग :- ये उद्योग ऐसी वस्तुओं का उत्पादन
करते हैं, जिनको प्रत्यक्ष रूप से उपभोग किया जाता है; जैसे-वस्त्र, चीनी, कागज, बाइसिकल
आदि।
उत्पादन के स्वामित्व
के आधार पर बड़े पैमाने के उद्योगों का वर्गीकरण
उत्पादन
के स्वामित्व के आधार पर देश के बड़े पैमाने के उद्योगों को तीन भागों में बाँटा जा
सकता है
1.
सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग-इन उद्योगों पर सरकार का स्वामित्व होता है।
2.
निजी क्षेत्र के उद्योग-इन उद्योगों पर निजी व्यक्तियों का स्वामित्व होता है।
3.
संयुक्त क्षेत्र के उद्योग-इन उद्योगों पर सरकार एवं निजी व्यक्ति दोनों का स्वामित्व
होता है।
प्रश्न
:- भारतीय उद्योगों के पिछड़ेपन के मुख्य कारण क्या हैं? भारत में बड़े पैमाने के उद्योगों
के विकास के लिए क्या कदम उठाए गए हैं।
> भारतीय उद्योगों में निम्न उत्पादकता के क्या कारण हैं। इस दिशा में
सरकार ने क्या किया है?
उत्तर
:- भारतीय उद्योगों
के पिछड़ेपन के कारण
या
भारतीय
उद्योगों में निम्न उत्पादकता के कारण
स्वतन्त्रता
से पूर्व भारत में अपेक्षित औद्योगिक विकास नहीं हो सका था। इसका मुख्य कारण ब्रिटिश
सरकार की भारत पर थोपी गई दोषपूर्ण आर्थिक नीति थी। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार
ने इस ओर विशेष ध्यान दिया। सन् 1948 ई० में संसद में भारत सरकार की प्रथम औद्योगिक
नीति की घोषणा की गई, जिसमें समय-समय पर संशोधन किए जाते रहे। द्वितीय पंचवर्षीय योजना
(1956-61) में भारत में विशाल स्तरीय एवं आधारभूत उद्योगों की स्थापना पर विशेष बल
दिया गया। 67 वर्षों से निरन्तर औद्योगिक विकास पर बल देते रहने के बावजूद हमारा देश
आज भी औद्योगिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है। इसके मुख्य कारण अग्रलिखित हैं
1. प्रौद्योगिकी सुधार के लिए प्रेरणाओं का अभाव :-
भारतीय उत्पादन तकनीक अभी भी पिछड़ी है। भारतीय उद्यमी नवीनतम तकनीक को अपनाने के लिए
पर्याप्त रूप से प्रेरित नहीं हो पाते। इसका कारण अभी भी पर्याप्त नियन्त्रणों का पाया
जाना है।
2. स्थापित क्षमता का पूर्ण उपयोग न होना :- उद्योग अपनी
स्थापित क्षमता के 75% भाग को भी | उपयोग नहीं कर पाते हैं, इससे अपव्यय बढ़ जाते हैं।
3. पूँजीगत व्ययों में वृद्धि :- भारतीय उद्योगों
में पूँजीगत व्यय अत्यधिक ऊँचे हैं, जिसके कारण इन उद्योगों की लाभदायकता का स्तर नीचे
गिर गया है।
4. अनुसन्धान एवं विकास कार्यक्रमों का अभाव :-
उद्योगों का आकार छोटा होने तथा वित्तीय सुविधाओं की कमी के कारण इन उद्योगों में अनुसन्धान
एवं विकास कार्यक्रम नहीं हो पाते हैं।
5. अनुत्पादक व्ययों की अधिकता :- भारतीय उद्योगों
में अनुत्पादक व्यय सामान्य से अधिक रहे हैं, जिसका प्रभाव लागत में वृद्धि व उत्पादकता
की कमी के रूप में पड़ा है।
6. उपक्रमों के निर्माण में देरी :- देश में उद्योगों
की स्थापना में निर्धारित समय से अधिक समय लगता है। इन उद्योगों की कार्यकुशलता पर
प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और इनकी निर्माण लागत भी बढ़ जाती है।
7. वित्तीय सुविधाओं का अपर्याप्त होना :- भारतं में
औद्योगिक बैंकों की पर्याप्त संख्या में स्थापना नहीं हो पायी है, जिससे उद्योगों को
समय पर वित्तीय सहायता उपलब्ध नहीं हो पाती।
8. अम-प्रबन्ध संघर्ष :- भारत में औद्योगिक प्रबन्ध
मधुर नहीं रहे हैं और आए दिन हड़ताल व तालाबन्दी होती रहती हैं। इनको औद्योगिक उत्पादकता
पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
बड़े पैमाने के
उद्योगों को प्रोत्साहन देने हेतु उठाए गए सरकारी कदम
देश
में औद्योगिक उत्पादकता को बढ़ाने, सभी को आधारभूत सुविधाएँ प्रदान करने और औद्योगिक
वातावरण को सुदृढ़ करने के लिए बड़े पैमाने के उद्योगों की स्थापना की गई है। इन उद्योगों
की स्थापना अधिकांशतः सार्वजनिक क्षेत्रों में की गई है, जिनमें बड़ी मात्रा में पूंजी
निवेश किया गया है तथा बड़ी संख्या में श्रमिकों को रोज्गार दिया गया है। इन उद्योगों
के विकास के लिए सरकार ने निम्नलिखित कदम उठाए हैं
1.
लाइसेन्सिग नीति को उदार बनाया गया है।
2.
राजकोषीय नीति के अन्तर्गत पर्याप्त कर-रियायतें दी गई हैं।
3.
औद्योगिक विकास एवं नियमन अधिनियम, 1951′ के अन्तर्गत विनिर्माण इकाइयों का पंजीकरण
आवश्यक है और इन्हें इस
4.
अधिनियम के अन्तर्गत सरकार द्वारा निर्मित नियमों एवं अधिनियमों का पालन करना होता
है।
5.
आधुनिक औद्योगिक तकनीक को अपनाने के लिए अनेक प्रकार की राजकोषीय एवं वित्तीय | प्रेरणाएँ
दी जा रही हैं।
6.
उत्पादन लागतों को न्यूनतम करने के लिए सरकार द्वारा सभी प्रकार की सहायता उपलब्ध कराई
जाती है।
7.
प्रौद्योगिकीय सुधार और संयन्त्र के आधुनिकीकरण के लिए सरकार ने दो कोषों की स्थापना
की है
(1)
प्रौद्योगिकीय सुधार कोष एवं
(2)
पूँजी आधुनिकीकरण कोष।
प्रश्न :- लघु एवं कुटीर उद्योग को परिभाषित कीजिए। भारतीय अर्थव्यवस्था
में इन उद्योगों के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
> भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु एवं कुटीर उद्योगों के महत्त्व को दर्शाइए।
उत्तर
:- लघु तथा कुटीर उद्योग विकेन्द्रित आर्थिक प्रगति के द्योतक माने जाते हैं। मॉरिस
फ्रीडमैन ने कुटीर एवं लघु उद्योगों के दर्शन (Philosophy) की व्याख्या करते हुए लिखा
है-“जहाँ विशाल उद्योगों का उद्देश्य लाभ कमाना और उनका आधार पूँजी है, वहाँ कुटीर
एवं लघु उद्योगों का उद्देश्य जीवन की समृद्धि और उनका आधार धन न होकर स्वयं मनुष्य
है। विशाल उद्योग पूँजी की सेवा करते हैं और लघु उद्योग । मानवता की।”.
कुटीर उद्योग की परिभाषा
राजकोषीय
आयोग 1949-50 ने कुटीर उद्योगों को इस प्रकार परिभाषित किया है-“एक कुटीर उद्योग वह
(उद्दा: । जो कि पूर्णतः अथवा अंशतः श्रमिक के परिवार की सहायता से पूर्णकालीन अथवा
अल्पकालीन व्यबसाय के रूप में चलाया जाता है।” कुटीर उद्योगों में निम्नलिखित विशेषताएँ
पायी जाती हैं
1.
कुटीर उद्योग मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों से सम्बद्ध होते हैं।
2.
ये कृषि व्यवसाय से सम्बद्ध होते हैं।
3.
इनमें अधिकांश कार्य मानवीय श्रम द्वारा किए जाते हैं।
4.
इन उद्योगों में मुख्यत: परिवार के सदस्य ही कार्यरत रहते हैं।
लघु उद्योग की परिभाषा
जहाँ
तक लघु उद्योग का प्रश्न है, लघु उद्योगों की परिभाषा विभिन्न दृष्टिकोणों से की गई
है। राजकोषीय आयोग (Fiscal Commission), 1949-50 ने लघु उद्योगों को इस प्रकार परिभाषित
किया है-“एक लघु उद्योग वह है, जो मुख्यत: किराए के श्रमिकों द्वारा, जिनकी संख्या
10 से 50 तक के मध्य होती है, चलाया जाता है।” लघु उद्योग मण्डल के अनुसार-“वे सभी
उद्योग लघु उद्योग में शामिल किए जाते हैं, जिनमें यदि शक्ति का प्रयोग होता है, तब
50 श्रमिक और जब शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाता है, तब 100 श्रमिक तक मजदूरी पर रखे
जाते हैं तथा जिनमें १ 3 लाख से कम की पूँजी लगी होती है।” उपर्युक्त परिभाषा में श्रमिकों
की संख्या तथा पूँजी की मात्रा को परिभाषा का आधार बनाया गया था, परन्तु भारत सरकार
ने केन्द्रीय लघु स्तरीय उद्योग बोर्ड (Central Small Scale Industries Board) के सुझावों
को स्वीकार करके लघु उद्योगों की एक नवीन परिभाषा दी है, जिसमें श्रम तथा यन्त्रीकरण
को आधार न मानकर मशीन तथा संयन्त्रों (Plant and Machinery) में किए गए विनियोग को
ही आधार मना है। 1 मार्च, 1967 से उन सभी औद्योगिक इकाइयों को लघु इकाई माना गया है।
जिनमें मशीनों तथा संयन्त्रों पर है 7.5 लाख से कम पूँजी लगाई गई हो। वर्ष 1999 में
यह राशि १ 1 करोड़ और 2014 में यह राशि के 5 करोड़ है। इस परिभाषा में नियोजित श्रमिकों
की संख्या पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था
में कुटीर तथा लघु उद्योगों का महत्त्व
इस
तथ्य को आज भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि 67 वर्षों (स्वतन्त्रता के उपरान्त) से
वृहत् स्तर के उद्योगों के विस्तार के बावजूद भारत अभी तक मुख्य रूप से लघु तथा कुटीर
उद्योगों का देश है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर तथा लघु उद्योगों का विशिष्ट महत्त्व
देखते हुए ही महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी, योजना आयोग
तथा अन्य विभिन्न आयोगों ने एक स्वर से इनके विकास पर बल दिया। गांधी जी के शब्दों
में, भारत का मोक्ष उसके कुटीर उद्योगों में निहित है।” संक्षेप में, निम्नलिखित तथ्यों
से कुटीर तथा लघु उद्योगों का महत्त्व स्वयमेव ही स्पष्ट हो जाता है
1. रोजगार के स्रोत :- भारत में इन उद्योग-धन्धों से लगभग
2.25 करोड़ लोगों को रोजगार प्राप्त | होता है। अकेले हथकरघाउद्योग से ही 75 लाख व्यक्तियों
को रोजगार प्राप्त होता है।
2. आय व सम्पत्ति के सम वितरण में सहायक :- कुटीर तथा
लघु उद्योग पूँजी-प्रधान नहीं होते, जिससे पूँजी के संकेन्द्रण, आर्थिक सत्ता के केन्द्रीकरण
तथा आर्थिक शोषण की प्रवृत्तियाँ उभर नहीं पातीं। इसके विपरीत, देश में स्वतः ही आय
और सम्पत्ति के समान वितरण को प्रोत्साहन मिलता है।
3. अल्प पूँजी उद्योग :- कुटीर तथा लघु उद्योग भारतीय
अर्थव्यवस्था में इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं कि ये उद्योग श्रम-प्रधान (Labour
Intensive) उद्योग हैं, पूँजी-प्रधान नहीं। कम पूँजी से ही इन उद्योगों की स्थापना
हो जाती है।
4. कृषि में सहायक :- भारत में कृषि की अल्प उत्पादकता का
एक मूल कारण कृषि-भूमि पर जनसंख्या का अत्यधिक दबाव है, जिसके कारण खेतों में उत्पादन
अनार्थिक होता चला जा रहा है।अत: कृषि-विकास के लिए यह आवश्यक है कि वहाँ से अतिरिक्त
मानव-श्रम को हटाया जाए। यह कार्य लघु तथा कुटीर उद्योगों द्वारा ही सम्भव है। अतः
देश में उद्योगों का विकास होना आवश्यक है।
5. विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति :- बड़े उद्योगों
में केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति पायी जाती है, जबकि इसके विपरीत, लघु तथा कुटीर उद्योग
विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना करते हैं। आज के युग में विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था
का विशेष महत्त्व है।
6. कम सामाजिक लागत पर आर्थिक विकास :- सामाजिक लागत
से हमारा आशय उस व्यय से है, जो उत्पादन प्राप्त करने के लिए शेष समाज को करना पड़ता
है। नगरों में सार्वजनिक स्वास्थ्य, जल, आवास तथा अन्य सुविधाओं पर किया जाने वाला
व्यय इस मद के अन्तर्गत आता है। लघु तथा कुटीर उद्योग मुख्यत: गाँवों तथा छोटे नगरों
में स्थापित किए जाते हैं। अत: इनकी सामाजिक लागत कम आती है।
7. अन्य लाभ-
1.
ये उद्योग राष्ट्रीय आत्म-सम्मान के सर्वथा अनुकूल हैं क्योंकि इनमें प्रायः विदेशी
पूँजी, श्रम अथवा कौशल आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती।
2.
इन उद्योगों को उपभोक्ताओं की रुचि के अनुसार समायोजित किया जा सकता है।
3.
ये उद्योग औद्योगिक अशान्ति, हड़ताल, तालाबन्दी आदि से मुक्त रहते हैं और सहानुभूति,
समानता, सहकारिता, एकता तथा सहयोग की भावना को जन्म देते हैं।
4.
ये उद्योग विदेशी विनिमय अर्जित करने में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुए हैं।
5.
इन उद्योगों को चलाने के लिए विशेष शिक्षा तथा प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती।
6.
कुटीर तथा लघु उद्योगों का माल अधिक टिकाऊ तथा कलात्मक होता है।
7.
ये उद्योग बड़े पैमाने के पूरक उद्योगों के रूप में विशेष उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
8.
ये उद्योग कृषकों के लिए वरदान हैं क्योंकि ये उन्हें मौसमी रोजगार प्रदान करते हैं।
9.
इन उद्योगों में बड़े उद्योगों की अपेक्षा कहीं अधिक स्थिरता तथा सुरक्षा पायी जाती
है।
10.
मानवीय मूल्यों की दृष्टि से भी इन उद्योगों का विशेष महत्त्व है। ये उद्योग सामाजिक
न्याय तथा आर्थिक सन्तोष के साथ-साथ समाज में अनुशासन बनाए रखते हैं। श्री बैकुण्ठ
मेहता का मत है-“बाल-अपराध तथा दरिद्रता आदि के उन्मूलन के लिए लघु तथा कुटीर उद्योगों
के विकास को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।
प्रश्न :- बाजार यन्त्र से क्या आशय है? बाजार यन्त्र की विफलताओं की विवेचना
कीजिए। ऐसी दशा में राज्य की क्या भूमिका होनी चाहिए?
उत्तर
:- बाजार यन्त्र
का अर्थ
बाजार
यन्त्र एक स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित अवधारणा है। यह आर्थिक संगठन की एक
ऐसी प्रणाली है जिसके अन्तर्गत प्रत्ये व्यक्ति-उपभोक्ता, उत्पादक और उत्पत्ति के साधनों
के स्वामी के रूप में पूर्ण स्वतंत्रता के साथ आर्थिक क्रियाओं को सम्पन्न करता है।
प्रत्येक उपभोक्ता अपने लिए उपभोक्ता वस्तुओं के चुनाव में, प्रत्येक उत्पादक उत्पादन
क्षेत्र के चुनाव में तथा प्रत्येक व्यवसयी अपना व्यवसाय चुनने में पूर्णतः स्वतन्त्र
रहता है और प्रत्येक उत्पादक परस्पर लाभ के आधार पर माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों
के द्वारा निर्धारित कीमतों पर इच्छित मात्रा में क्रय-विक्रय कर सकता है, बजार यन्त्र
का प्रमुख कार्य वस्तुओं व सेवाओं की माँग व पूर्ति में सन्तुलन स्थापित करते हुए उत्पादन
क्षमता व प्रदा को अधिकतम करना है।
बाजार यन्त्र
की असफलता
बाजार
यन्त्र पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में ही स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करता है, तभी साधनों
का विवेकपूर्ण आवंटन सम्भव होता है। उत्पादक वर्ग उपभोक्ताओं की प्राथमिकताओं एवं रुचियों
को बाजार यन्त्र के माध्यम से ही जान पाता है और समाज में उसी के आधार पर उत्पादन की
मात्रा और उसका स्वरूप निर्धारित करता है। इसी आधार पर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में
कीमतें प्रतियोगितात्मक होती हैं और बाजार यन्त्र स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करता है।
ऐसी दशा में साधनों का बँटवारा विवेकपूर्ण होता है और इस प्रकार बाजार यन्त्र अर्थव्यवस्था
के संचालक का कार्य करता है। किन्तु बाजार यन्त्र का कार्यकरणे पूर्ण प्रतियोगिता वाले
बाजर में ही सम्भव है। पूर्ण प्रतियोगिता एक आदर्श बाजार स्थिति है जो व्यवहार में
कहीं नहीं पायी जाती। वास्तविकता यह है कि प्रत्येक बाजार में अपूर्णताएँ पायी जाती
हैं जिसके कारण बाजार व्यवस्था का संचालन दोषपूर्ण हो जाता है। बाजार व्यवस्था के असफल
रहने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
1.
बाजार में अल्पाधिकार या एकाधिकार की स्थिति को पाया जाना।
2.
बाह्यताओं (Externalities) के कारण लागत व लाभ में अनैच्छिक वृद्धि।
3.
पैमाने के वर्द्धमान प्रतिफल (Increasing Returns to Scale) को लागू होना।
4.
बीमा व भावी बाजार में अपूर्णता का पाया जाना।
5.
समायोजन की प्रक्रिया का धीमी गति से सम्पन्न होना।
6.
विपणन संस्थाओं में लचीलेपन का अभाव।
7.
उपभोक्ताओं व व्यवसायियों में उत्पादों, उत्पादों की कीमतों व उत्पाद सम्भावनाओं के
विषय में गलत सूचना।
8.
व्यक्तियों का केवल ‘आर्थिक’ न बने रहना, उन पर परिवार, देशप्रेम, भक्ति आदि भावनाओं
का प्रभाव।
9.
कार्यकुशलता का ह्रास।
10.
अधिकतम करने में तटस्थता।
राज्य की भूमिका
बाजार
के उपर्युक्त दोषों के कारण बाजार यन्त्र के स्वतन्त्र कार्यकरण में बाधा पड़ी है।
अत: अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। आधुनिक युग में
सरकार अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करने लगी है; जैसे-आन्तरिक सुशासन, न्याय एवं व्यवस्था,
बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा, सार्वजनिक निर्माण कार्य, खोज एवं अनुसन्धान, अनुदान एवं
आर्थिक सहायता आदि। इस प्रकार आर्थिक क्षेत्र में सरकार की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण
एवं व्यापक हो गई है।
सरकार के प्रमुख आर्थिक
कार्य तीन हैं
1.
प्रतियोगिता को प्रोत्साहित करके, पर्यावरणीय प्रदूषण को कम करते हुए, सार्वजनिक वस्तुओं
का निर्माण करके सरकार कार्य दक्षिता में वृद्धि करती है।
2.
सार्वजनिक आगम एवं सार्वजनिक व्यय कार्यक्रमों द्वारा आय का पुनर्वितरण करके सरकार
आर्थिक असमानताओं को कम करती है।
3.
राजकोषीय, मौद्रिक, आय एवं कीमत नीति द्वारा बेरोजगारी तथा मुद्रास्फीति को कम करके
सरकार स्थायित्व के साथ विकास’ (Growth with Stability) के लक्ष्य को प्राप्त करने
का प्रयास करती है।
योजनाकाल
में सरकार भी बचतकर्ता के रूप में पूर्णतः असफल रही। राजकोषीय घाटा बढ़ता रहा और साथ
ही लोक व्यय भी। लोक व्यय में अनुत्पादक व्यय की राशि अधिक रही। दूसरे, सार्वजनिक क्षेत्र
का विस्तार होता रहा। इसके फलस्वरूप आन्तरिक ऋण में वृद्धि हुई और अर्थव्यवस्था ऋण-जाल
में फँस गई। अतः 1980 के दशक में सरकार की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन किया जाने लगा
और सरकार की असफलताएँ उजागर होने लगीं। जो परिणाम सामने आए, वे थे–विकास की धीमी गति,
बचत दर में गिरावट, मुद्रास्फीति की ऊँची दर ऋणों में तीव्र वृद्धि, निर्धनता एवं बेरोजगारी
की व्यापकता आदि। अतः राजनीति बदलकर हस्तक्षेपवादी बन गई। इसमें आयात प्रतिस्थापन पर
बल दिया गया, आयातों पर संरक्षण शुल्क लगाए गए, सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका बढ़ाई
गई और निजी क्षेत्र को नियमित एवं नियन्त्रित किया गया।
एक
ओर केन्द्रीय योजना तथा दूसरी ओर निजी स्वामित्व–इस प्रकार अर्थव्यवस्था का स्वरूप
मिश्रित हुआ। धीरे-धीरे निजीकरण, उदारीकरण एवं भूमण्डलीकरण के रूप में आर्थिक सुधार
किए गए, नियमनों एवं नियन्त्रणों को ढीला किया गया, साधनों के आवंटन के लिए बाजार यन्त्र
को स्वीकार किया जाने लगा और प्रतियोगिता की लाभदायक भूमिका को स्वीकार किया गया। बाजार
की असफलताओं को दूर करने, सामाजिक न्याय को पाने और आय के पुनर्वितरण द्वारा आर्थिक
असमानताओं को कम करने पर बल दिया गया।
प्रश्न :- भारत की औद्योगिक नीति, 1956 की मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
:- सन् 1948 में औद्योगिक नीति की घोषणा के बाद देश के राजनीतिक, आर्थिक तथा दार्शनिक
चिन्तन में अनेक परिवर्तन आए। परिणामस्वरूप 30 अप्रैल, 1956 को नई औद्योगिक नीति की
घोषणा की गई। इसकी प्रमुख विशेषताएँ, निम्नलिखित थीं
1. उद्योगों का त्रिवर्गीय विभाजन :- इस नीति के अन्तर्गत समस्त उद्योगों को तीन समूहों
में विभाजित किया गया-
a.
प्रथम समूह में वे उद्योग हैं, जो पूर्ण-रूप से राज्य के एकाधिकार में रहेंगे। इस सूची
में 17 महत्त्वपूर्ण उद्योग हैं; जैसे-हथियार, गोला-बारूद और रक्षा सम्बन्धी अन्य सामग्री,
परमाणु शक्ति, लोहा व इस्पात, लौह-इस्पात की भारी मशीनें, उद्योगों के लिए भारी संयन्त्र,
खनिज तेल, लोहा, मैंगनीज, जिप्सम, गन्धक, सोना व हीरों का खनन, वायु तथा रेल परिवहन
आदि।
b.
द्वितीय समूह में वे उद्योग हैं, जिनके विकास में सरकार उत्तरोत्तर अधिक भाग लेगी।
इस सूची में 12 उद्योग शामिल हैं। इसे हम मिश्रित क्षेत्र भी कह सकते हैं, इस वर्ग
में छोटे खनिजों को छोड़कर अन्य खनिज, ऐलुमिनियम तथा अलौह धातुएँ, मशीनरी औजार, जीवन
निरोधक तथा अन्य दवाएँ, उर्वरक, कृत्रिम रबड़, सड़क परिवहन आदि उद्योग शामिल हैं।
c.
तृतीय समूह में शेष सभी उद्योगों को रखा गया है। इस श्रेणी में लगभग सभी उपभोक्ता उद्योग
की जाते हैं। सरकार इन उद्योगों के विकास के लिए आवश्यक वित्तीय तथा अन्य सुविधाएँ
प्रदान करेगी।
2. कुटीर तथा लघु उद्योग :- सरकार कुटीर उद्योगों के विकास
के लिए हर सम्भव सहायता देगी। सहायता कार्यक्रमों में इनकी वित्तीय तथा प्राविधिक कठिनाइयों
का निवारण, औद्योगिक बस्तियों का विस्तार, ग्रामीण क्षेत्र में कार्यशालाओं की स्थापना,
विद्युत सुविधाओं का विस्तार, औद्योगिक सहकारी समितियों का गठन, प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता
आदि को शामिल किया गया।
3. निजी क्षेत्र का दायित्व :- निजी क्षेत्र
योजना आयोग द्वारा निर्धारित आर्थिक नीतियों तथा कार्यक्रमों के अनुसार कार्य करेगा
और सरकार निजी क्षेत्र को बिना किसी भेदभाव के सहायता प्रदान करेगी।
अन्य प्रावधान
1.
सरकार भी औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े क्षेत्रों के विकास पर विशेष ध्यान देगी।
2.
औद्योगिक शान्ति स्थापित करने के लिए सरकार श्रम को प्रबन्ध में उचित स्थान प्रदान
करेगी और उनकी कार्य की दशाओं में सुधार करेगी।
3.
सरकार विदेशी पूँजी को आमन्त्रित करेगी तथा विदेशी पूँजी व स्वदेशी पूँजी में भेदभाव
नहीं करेगी।
4.
नए-नए प्रशिक्षण कार्यक्रम लागू किए जाएँगे।
5.
भारी एवं आधारभूत उद्योगों की स्थापना की जाएगी।
6.
देश के सभी वर्गों का समर्थन व सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया जाएगा।
प्रश्न :- वर्तमान औद्योगिक नीति, 1991 की मुख्य बातें बताइए।
उत्तर
:- सभी पूर्व औद्योगिक नीतियाँ देश के औद्योगिक विकास को गति नहीं दे सकीं। अतः उद्योगों
पर लाइसेन्सिग व्यवस्था के अनावश्यक प्रतिबन्धों को समाप्त करने तथा उद्योगों की कुशलता,
विकास और तकनीकी स्तर को ऊँचा करने और विश्व बाजार में उन्हें प्रतियोगी बनाने की दृष्टि
से 24 जुलाई, 1991 को तत्कालीन उद्यो: राज्यमन्त्री पी० जे० कुरियन द्वारा लोकसभा में
औद्योगिक नीति, 1991 की घोषणा की गई। औद्योगिक नीति, 1991 की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित
हैं
(अ) नीतिगत विशेषताएँ
1. उदार औद्योगिक लाइसेन्सिग नीति :- इस नीति के
अन्तर्गत केवल 18 उद्योगों को छोड़कर अन्य सभी उद्योगों के लिए लाइसेन्सिग व्यवस्था
को समाप्त कर दिया गया। इन उद्योगों में कोयला, पेट्रोलियम, चीनी, चमड़ा, मोटरकार,
बसें, कागज तथा अखबारी कागज, रक्षा उपकरण, औषध तथा भेषज शामिल हैं। वर्तमान में इनकी
संख्या 6 रह गई।
2. विदेशी विनियोग को प्रोत्साहन :- अधिकाधिक
पूँजी विनियोग और उच्चस्तरीय तकनीक की आवश्यकता वाले उच्च प्राथमिकता प्राप्त उद्योगों
में विदेशी पूँजी विनियोग को प्रोत्साहित करने पर बल दिया गया। ऐसे 34 उद्योगों में
बिना किसी रोक-टोक तथा लालफीताशाही के 51% तक विदेशी पूँजी के विनियोग की अनुमति दी
जाएगी।
3. विदेशी तकनीक :- कुछ निश्चित सीमाओं के अन्तर्गत उच्च
प्राथमिकता वाले उद्योगों में तकनीकी समझौतों को स्वतः स्वीकृति प्रदान की जाएगी। यह
व्यवस्था घरेलू बिक्री पर दिए जाने वाले 5%कमीशन और निर्यात पर दिए जाने वाले 8% कमीशन
पर भी लागू होगी।
4. सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका :- ऐसे सार्वजनिक
उपक्रमों को अधिक सहायता प्रदान की जाएगी जो औद्योगिक अर्थव्यवस्था के संचालन के लिए
आवश्यक हैं। वर्तमान में सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों की संख्या 3 है।
(ब) प्रक्रियात्मक विशेषताएँ
1. विद्यमान पंजीकरण योजनाओं की समाप्ति :- औद्योगिक
इकाइयों के पंजीयन के सम्बन्ध में विद्यमान सभी योजनाएँ समाप्त कर दी गई हैं।
2. स्थानीकरण नीति :- ऐसे उद्योगों को छोड़कर, जिनके लिए
लाइसेन्स लेना अनिवार्य नहीं है, 10 लाख से कम जनसंख्या वाले नगरों में किसी भी उद्योग
के लिए औद्योगिक अनुमति की आवश्यकता नहीं है।
3. विदेशों से पूँजीगत वस्तुओं का आयात :- विदेशी पूँजी
के विनियोग वाली इकाइयों पर पुर्जे, कच्चे माल सृथा तकनीकी ज्ञान के आयात के मामले
में सामान्य नियम लागू होंगे, किन्तु रिजर्व बैंक विदेशों में भेज़े गए लाभांश पर दृष्टि
रखेगा।
4. व्यापारिक कम्पनियों में विदेशी अंश पूँजी :-
अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता को बढ़ाने की
दृष्टि से निर्यातक व्यापारिक कम्पनियों में भी 51% तक विदेशी पूँजी के विनियोग की
अनुमति दी जाएगी।
5. सार्वजनिक उपक्रमों का कार्यकरण :- निरन्तर वित्तीय
संकट में रहने वाले सार्वजनिक उपक्रमों की जाँच औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्निर्माण
बोर्ड (BIFR) करेगा। छंटनी किए गए कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए सामाजिक सुरक्षा
योजना बनाई जाएगी।
6.विद्यमान इकाइयों का विस्तार एवं विविधीकरण :- विद्यमान
औद्योगिक इकाइयों को नई विस्तृत पट्टी की सुविधा दी गई है। विद्यमान इकाइयों का विस्तार
भी पंजीयन से मुक्त रहेगा।
अन्य विशेषताएँ
1.
26 मार्च, 1993 से उन 13 खनिजों को जो पहले सरकारी क्षेत्र के लिए आरक्षित थे, निजी
क्षेत्र के लिए खोल दिया गया है।
2. आरम्भ में ही कम्पनियों में रुग्णता का पता लगाने और उपचारात्मक उपायों को तेजी से लागू करने के लिए दिसम्बर, 1993 में रुग्ण औद्योगिक कम्पनी (विशेष उपबन्ध) अधिनियम, 1985 में संशोधन किया गया।