भारतीय नियोजन का मूल्यांकन (ASSESSMENT OF INDIAN PLANNING)

भारतीय नियोजन का मूल्यांकन (ASSESSMENT OF INDIAN PLANNING)


भारत में नियोजन की प्रक्रिया 1951 में शुरू की गयी थी, जबकि पहली पंचवर्षीय योजना का शुभारम्भ किया गया था। अब तक हम ग्यारह पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी कर चुके हैं और बारहवीं पंचवर्षीय योजना जो 1 अप्रैल, 2012 में शुरू हुई थी। इसकी अवधि मार्च 2017 तक है। इस प्रकार योजनाबद्ध विकास के लगभग 65 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इसलिए हमारे लिए आवश्यक है कि भारतीय नियोजन का मूल्यांकन निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर करें-

1. भारतीय नियोजन की उपलब्धियाँ

2. भारतीय नियोजन की विफलताएँ

3. योजनाओं को सफल बनाने के सुझाव

अब हम उपर्युक्त बिन्दुओं पर विषद विवेचना करेंगे।

भारतीय नियोजन की उपलब्धियाँ (ACHIEVEMENTS OF INDIAN PLANNING)

भारत में आयोजन की उपलब्धियाँ अनेक एवं विविध हैं। मुख्य उपलब्धियों का वर्णन निम्न प्रकार है-

1. विकास दर में वृद्धि- प्रत्येक योजना के अनुसार वृद्धि दर आगे की सारणी में दी गयी है। इन आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि पाँचीं पंचवर्षीय योजना तक वृद्धि दर 2.8 से 4.8 प्रतिशत के बीच घटती- बढ़ती रही है, परन्तु छठी पंचवर्षीय योजना और इसके बाद वृद्धि-दर में लगातार उन्नति हुई है। यह छठी पंचवर्षीय योजना में सकल देशीय उत्पाद के 5.7 प्रतिशत से बढ़कर सातवीं पंचवर्षीय योजना में 6 प्रतिशत और आठवीं पंचवर्षीय योजना में 6.8 प्रतिशत हो गयी। नौवीं योजना से विकास दर में उच्चावचन आते रहे हैं पर कुल मिलाकर राष्ट्रीय विकास में वृद्धि हुयी है।

सारिणी 1-पंचवर्षीय योजना में विकास निष्पादन

क्र.सं.

कालावधि

लक्ष्य % में

वास्तविक % में

1

पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56)

2.1

3.7

2

दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61)

4.5

4.2

3

तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-66)

5.6

2.8

4

चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-71)

5.7

3.4

5

पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-79)

4.4

4.9

6

छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85)

5.2

5.4

7

सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90)

5.0

5.6

8

आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97)

5.6

6.6

9

नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002)

6.5

5.7

10

दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07)

7.9

7.6

11

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12)

8.1

8.0

12

बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17)

8.0

-

 

2011-12 (पुरानो शृंखला)

 

6.9

 

2012-13 (नवीन शृंखला)

 

5.3

 

2013-14 (नवीन श्रृंखला)

 

6.6

 

2014-15 (नवीन श्रृंखला)

 

7.3

 

2015-16

 

7.9

 

2016-17

 

7.1

2. कृषि में प्रगति–आयोजन के आरम्भिक वर्ष में वृद्धि का अधिकतर भाग कृषि अधीन क्षेत्रफल से प्राप्त किया गया और प्रति हेक्टेअर उत्पादन से अपेक्षाकृत कम वृद्धि प्राप्त हुई। सन् 1970- 71 के पश्चात् अतिरिक्त क्षेत्र बढ़ाना सम्भव नहीं था और समग्र उत्पादन में वृद्धि प्रति हेक्टेअर उत्पादिता में वृद्धि के कारण हुई । कृषि उत्पादिता को बढ़ाने के लिए पानी, उर्वरकों, कीटनाशकों तथा उन्नत बीजों के सम्भरण को बढ़ाया गया। इस रणनीति को लोकप्रिय रूप में 'हरित क्रान्ति' Green Revolution) कहा गया। योजनाकाल में कृषि की संवृद्धि-दरों को निम्नलिखित तालिका में दर्शाया गया है-

सारिणी 2-योजना काल में कृषि की संवृद्धि दर प्रतिशत में

क्र.सं.

योजना/अवधि

संवृद्धि दर

1.

प्रथम योजनावधि

2.7

2.

द्वितीय योजनावधि

3.2

3.

तृतीय योजनावधि

-0.7

4.

चतुर्थ योजनावधि

2.5

5.

पंचम योजनावधि

3.3

6.

षष्ठम योजनावधि

2.5

7.

सातवीं योजनावधि

3.47

8.

आठवीं योजनावधि

4.7

9.

नौवीं योजनावधि

2.44

10.

दसवीं योजनावधि

2.3

11.

ग्यारहवीं योजनावधि

3.3

12

बारहवीं योजनावधि

4.7

 

2012-13

1.5

 

2013-14

4.2

 

2014-15

-0.2

 

2015-16

0.8

 

2016-17(अनु)

4.4


कृषि क्षेत्र में अन्य उपलब्धियाँ (Other Achievements in Agricultural Sector)-

योजनाकाल में कृषि क्षेत्र की कुछ अन्य उपलब्धियाँ इस प्रकार हैं-(1) उत्रत बीजों का उपयोग बढ़ा है, (2) बहुफसल कार्यक्रमों को प्रोत्साहित किया गया है, (3) कृषि यन्त्रों का उपयोग बढ़ा है, (4) कृषि वित्त की यथोचित व्यवस्था की गयी है, (5) खाद्यान्नों का समर्थन मूल्य घोषित किया गया है, (6) राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना लागू की गयी है, (7) कृषि विपणन में सुधार हेतु अनेक महत्वपूर्ण प्रयास किये गये हैं, (8) राष्ट्रीय कृषि नीति लागू की गयी है। (9) विभिन्न क्षेत्रों के अन्तर्गत सिंचित क्षेत्र 1970-71 में 301 लाख हेक्टेअर था, जो वर्ष 2013-14 में बढ़कर 957.7 लाख हेक्टेअर हो गया। (10) राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के अन्तर्गत भारत की 2/3 जनसंख्या को कवर किया गया है।

3. औद्योगिक विकास (Industrial Development)—योजना अवधि में सबसे अधिक प्रगति औद्योगिक क्षेत्र में हुई है। इन वर्षों में औद्योगिक क्षेत्र का न सिर्फ आधार ही मजबूत हुआ है, बल्कि उद्योगों का विविधीकरण भी हुआ है। कई नये-नये उद्योग स्थापित हुए हैं । उद्योगों के विकास के कारण पूँजीगत सामग्रियों के लिए अब भारत दूसरे देशों पर निर्भर नहीं है बल्कि भारत से पूँजीगत सामान का निर्यात होने लगा है जिससे मुद्रा अर्जन में सहायता मिल रही है।

योजना काल में औद्योगिक विकास की प्रमुख उपलब्धियों का अध्ययन हम निम्नलिखित शीर्षकों से कर सकते हैं-

(i) औद्योगिक विकास दर (Industrial Development Rate)-1991-92 के दौरान औद्योगिक उत्पादन में आई स्थिरता की स्थिति में अब धीरे-धीरे सुधार हो रहा है। वर्ष 2001-02 में औद्योगिकnविकास दर 2.7 प्रतिशत रही जो पिछले 9 वर्षों में न्यूनतम थी, जबकि 2006-07 में यह बढ़कर 10.99 प्रतिशत हो गई। वर्ष 2007-08 के लिए यह वृद्धि दर 8.1 प्रतिशत आकलित की गई है। परन्तु वर्षn2012-13,2018-14, 2014-15 व 2015-16 में यह दर क्रमश: 2.3 प्रतिशत, 5 प्रतिशत व 5.4 प्रतिशत व 7.4 प्रतिशत रही है।

(ii) सकल घरेलू उत्पाद में औद्योगिक क्षेत्र के भाग में वृद्धि-योजना काल में घरेलू उत्पाद में औद्योगिक क्षेत्र का हिस्सा धीरे-धीरे बढ़ा है। उद्योग का GDP में अंश जो 1950-51 में 1993 94 को कीमतों पर 13.3 प्रतिशत था वह RBI Report के अनुसार 2007-08 में बढ़कर 26.4 प्रतिशत हो गया है। जो 2014-15 में बड़कर 27 प्रतिशत हो गया।

(iii) आधारभूत उद्योगों की तीव्र प्रगति (Ranid Development of Basic: Industries) दूसरी योजना के समय के औद्योगीकरण, विशेष रूप से आधारभूत तथा भारी उद्योग के विकास पर बहुत बल दिया जाता रहा है। इसके फलस्वरूप नौजूदा उद्योगों के विस्तार के साथ-साथ देश में अनेक नये उद्योग खुले हैं। इन नए उद्योगों में बहुत बड़ी संख्या आधारभूत, भारी व पूँजी वस्तु उद्योगों की है, जैसे कि लोहा व इस्पात उद्योग, इंजीनियरी उद्योग, रसायन उद्योग, सोमेण्ट उद्योग आदि। यही नहीं बल्कि इन उद्योगों ने अपेक्षाकृत अधिक तेजी से प्रगति की है।

(iv) संरचनात्मक आधार (Struetural Base)—नियोजनकाल में आधारभूत संरचना के निर्माण के लिए एक आधार तैयार किया गया है जिसमें जल विद्युत्, परिवहन एवं संचार सेवाओं का विस्तारnकिया गया है। जिससे औद्योगिक विकास में बाधा उत्पन्न हो। 1950-51 में विद्युत्, उत्पादन क्षमता 23 लाख किलोवाट की थी जो 2015-16 व 2016-17 में बढ़कर क्रमश: 1107 बिलियन किलोवाट हो गयी है, खनिज तेल एवं कोयले तेल एवं कोयले तेल एवं कोयले के ठत्पादन जल एवं वायु परिवहन, डाक-तार सेवा, टेलीफोन सेवा आदि में काफी प्रगति हुई है।

(v) सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार (Expansion of Public Sector)—नियोजन काल की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का विकास एवं विस्तार है। 1951 में केन्द्र सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र में कुल 5 उद्योग थे और इनमें ₹29 करोड़ की पूँजी विनियोजित थी, लेकिन मार्च, 2015 में इस प्रकार के उद्योगों की संख्या 298 है, जिनमें ₹ 2,13,020 करोड़ की पूँजी विनियोजित है।

(vi) लघु और कुटीर उद्योगों का विकास (Development of Small and Cottage Industries)—इन उद्योगों के विविध महत्वपूर्ण योगदान को ध्यान में रखते हुए योजनाओं में इनको काफी महत्व दिया गया है इस क्षेत्र में तेजी से प्रगति हुई है। वर्तमान में देश में 3.61 करोड़ MSME इकाइयाँ देश के सकल घरेलू उत्पाद में 37.5% का योगदान करती है। इन उद्दामों में लगभग 55.3% उद्यम ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित है।

सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम क्षेत्रक (MSME) का विनिर्माणी क्षेत्रक के उत्पादन में 45% देश के कुल निर्यातों में 40%।

वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप भारतीय बहुराष्ट्रीय निगम विश्व भर में फैले हुए हैं और आर्थिक शक्ति में विश्व में भागीदारी कर रहे हैं। भारतीय कम्पनियों में व्यापारिक आत्मविश्वास बढ़ रहा है। इनमें से कई इतनी ताकतवर हो गयी हैं कि उन्होंने विकसित देशों में कई कम्पनियों का अवापन (Acquisition) कर लिया है।

4. अधोसंरचना का निर्माण (Building up of Infrastructure)- औद्योगिक विकास के लिए अधोसंरचना; जैसे-बिजली, सड़कें, रेलवे, संचार के साधन आदि का काफी निर्माण किया गया है। बिजली के उपकरण, रेल के इंजन तथा डिब्बे, टेलीफोन आदि के कई नये उद्योग भी स्थापित किये गये हैं। इससे अधोसंरचना के विकास को बढ़ावा मिला है।

5. सेवा क्षेत्र में तेजी से विकास (Fast Growth in Service Sector) सेवा क्षेत्र एक दशक से भी अधिक समय से भारतीय अर्थव्यवस्था में एक प्रमुख और प्रेरक शक्ति बनकर उभरा है। इस क्षेत्र में सर्वाधिक परिष्कृत सूचना प्रौद्योगिकी (आई. टी.) क्षेत्र से लेकर असंगठित क्षेत्र द्वारा प्रदत्त साधारण सेवाएँ भी शामिल हैं। सेवा क्षेत्र के राष्ट्रीय लेखा वर्गीकरण में व्यापार, हेटल एवं रेस्तरां, भण्डारण, संचार, वित्तपोषण, बीमा, स्थावर समदा एवं व्यवसाय सेवाएँ और सामुदाविक, सामाजिक एवं वैयक्तिक सेवाएँ समावेशित हैं। विश्व व्यापार संगठन तथा भारतीय रिजर्व बैंक वर्गीकरणों में निर्माण में भी सेवा क्षेत्र में शामिल किया गया है।

विगत वर्षों में ज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण क्रान्ति हुई है और हम ‘वस्तु अर्थव्यवस्था' से निकलकर ज्ञान अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर हो रहे हैं।

डेटा बैंक, इण्टरनेट व कम्प्यूटर सेवाएँ आदि ज्ञान क्षेत्र' (Knowledge Sector) का महत्वपूर्ण अंग बन गयी हैं। 'ज्ञान उद्योगों' (Knowledge Industries) का तीव्रता से विकास हो रहा है। उद्योगों में 'ज्ञान' केन्द्रीय पूँजी, लागत केन्द्र (Cost Centre) एवं उत्पादन का केन्द्रीय संसाधन बन चुका है।

भारत विश्व में सेवाएँ उपलब्ध कराने वाला प्रमुख देश है जैसा कि प्रमुख तथ्यों से स्पष्ट होता है-

(i) भारत का सेवाओं के र्यात में विश्व में 11वाँ स्थान है।

(ii) भारत विश्व को व्यवसाय प्रक्रिया आउट सोर्सिंग (BPO) सेवाओं के 46 प्रतिशत हिस्से के उपलब्ध करवा रहा है।

(iii) भारत के सलाहकार, पेशेवर सोर्सिग विशेषज्ञ कुछ क्षेत्रों जैसे-सूचना तकनीकों, वित्तीय व बैंकिंग सेवाओं आदि द्वारा विश्व के विभिन्न देशों को पेशेवर सलाह उपलब्ध करवा रहे हैं।

6. परिवहन एवं संचार साधनों के क्षेत्र में प्रगति (Progress in Means of Transport and Communication) योजना काल में परिवहन एवं संचार के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। नियोजन के 67 वर्षों में रेल, सड़क, बायु व जल परिवहन सभी का विकास हुआ है।

(i) मार्च 2016 के अन्त तक देश में रेलमार्ग की कुल लम्बाई 66,687 रूट किमी थी, जिसमें से लगभग 42% नेटवर्क विद्युतीकृत था।

(ii) भारत में सड़कों की कुल लम्बाई 54.72 लाख किमी है जिसमें से 1,08,618 किमो राष्ट्रीय राजमार्ग तथा एक्सप्रेस वे 1,61,187 किमी प्रान्तीय राजमार्ग तथा 52,07,611 किमी अन्य सड़कें हैं।

(iii) राष्ट्रीय राजमार्गों की लाबाई कुल सड़क मार्ग का 2 प्रतिशत से भी कम है। किन्तु, इन पर कुल सड़क यातायात का 40 प्रतिशत आवागमन होता है।

भारतीय जहाजरानी का विश्व में 17वाँ तथा एशिया में दूसरा स्थान है। वर्तमान में भारतीय जहाजरानी की क्षमता विश्व जहाजरानी में केवल 1.7 प्रतिशत है। आज भारतीय जहाज विश्व के सभी समुद्री मार्गों पर चलते हैं। वर्तमान में देश में 140 जहाजरानी कम्पनियाँ शिपिंग कार्य कर रही हैं।

दिसम्बर 2016 के अन्त में देश में टेलीफोन कनेक्शनों की कुल संख्या 115.18 करोड़ थी इसमें 112.74 करोड़ कनेक्शन वायरलैस व 2.44 करोड़ उपभोक्ता वायरलाइन टेलीफोन के थे इससे दिसम्बर 2016 के अन्त देश में टेलीसिटी 89.90 हो गई थी।

7. भारतीय मध्यम वर्ग का विकास (Growth of the Indian Middle Class) भारत के आर्थिक पर्यावरण में एक नवीन महत्वपूर्ण घटक भारतीय मध्यम वर्ग का विकास है। सकल देशी उत्पाद (Gross Domestic Product) की औसत 6.1 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि और आय-वितरण के मध्यम वर्ग और समृद्ध वर्ग के पक्ष में होने के कारण मध्यम वर्ग का आकार जो 2001-02 में 284 लाख परिवार था बढ़कर 2012-13 में लगभग 1500 लाख परिवार हो गया।

एक बड़े मध्यम वर्ग के कायम हो जाने से चिरस्थायी उपभोक्ता वस्तुओं, जैसे-रेफ्रिजरेटर, वाशिंग मशीन, एयर कूलर, एयरकण्डीशनर, मोपेड, स्कूटर, (साइकिल और कार आदि की मांग बढ़ाने पर बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव हुआ, अब बहुत-सी देशी व विदेशी कम्पनियाँ टिकाऊ उपभोक्ता उत्पाद बनाने में संलग्न हैं। मध्यम आय वर्ग के बढ़ते बाजार में अधिकाधिक अंश प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में होड़ लगी

8. मुद्रास्फीति (Inflation) या मुद्रास्फीति की दर का 5 प्रतिशत तक रहना आदर्श स्तर माना जा सकता है, मगर यूपीए के दूसरे कार्यकाल में मुद्रास्फीति की दर इससे कहीं ऊपर बनी रही है। वित्तीय वर्ष 2013-14 में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर 7.4 प्रतिशत तथा खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति की दर औसतन 8.1 प्रतिशत रहीं। परन्तु मुद्रा स्फीति की दर में 2015 से लगातार गिरावट, वैश्विक र पर कच्चे तेल की कीमतों में कमी व वैश्विक खाद्य कीमतों में गिरावट के कारण हो रहा है।

रिजर्व बैंक भी ब्याज दरें घटाने की ओर अग्रसर है। यदि आने वाले समय में महँगाई थगने पर ब्याज दर में और गिरावट आती है तो उसक सीधा असर इन्फ्रास्ट्रक्चर और औद्योगिक निवेश पर पड़ेगा ही ऑटोमोबाइल घरों और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की माँग में भी काफी बढ़ोत्तरी हो सकती है अर्थात् यह कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था में विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बन रही हैं।

9. विकासशील मुद्रा व पूँजी बाजार (Developing Money and Capital Market)- व्यावसायिक पर्यावरण में परिवर्तनों के कारण विनियोक्ताओं एवं ऋणदाताओं को निवेश के नवीन एवं आकर्षक अवसर व्यापक पृष्ठभूमि में प्राप्त हुए हैं। मुद्रा एवं पूँजी बाजारों का न केवल विस्तार हुआ है बल्कि सूचना तकनीकी के कारण उन तक पहुँच भी आसान हुई है। रिजर्व बैंक द्वारा आयोजित सुधारों तथा 'सेबी' (SEBI) को नवीन भूमिका से निवेश की सुरक्षा तथा कार्य प्रणाली को पारदर्शिता में सुधार स्तर हुआ है।

10. मानव पूँजी (IIuman Capital) शिक्षा के क्षेत्र में भी भारत का प्रदर्शन बेहद दयनीय है। भारत के उच्च शिक्षा संस्थान, वैश्विक जरूरतों के अनुसार उच्चस्तरीय प्रोफेशनल तैयार करने में फिसड्डी साबित हो रहे हैं। ताजा सर्वेक्षणों से यह बात उभरकर सामने आई है कि विज्ञान तकनीको प्रबन्धन एवं अन्य कई क्षेत्रों में प्रोफेशनल डिग्री डिप्लोमा रखने वाले भारतीय छात्रों में से महज 35 प्रतिशत ही नौकरी च्या रोजगार के लायक हैं। इसी प्रकार स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी भारत स्थिति अत्यन्त दयनीय है।

सूचकांक (Human Development Index) की सहायता से किया जाता है। मानव विकास सूचकांक मानव विकास के तीन आधारभूत सूचकों-आयु, ज्ञान और जीवन-सम्भावना का मिश्रण है। Human Development Report 2016 के अनुसार, मानव विकास के दृष्टिकोण से भारत को स्थिति काफी असन्तोषजनक है। इस रिपोर्ट में कुल 188 देशों में भारत का 181वाँ स्थान है। जबकि उसके पड़ोसी देशों में मारिशस (64वाँ स्थान), श्रीलंका (73), चीन (90) व मालदीव (105वाँ स्थान) को स्थिति उससे बेहतर है जबकि 132वें स्थान पर भूटान, 139वें स्थान पर बांग्लादेश 144वें स्थान पर नेपाल जबकि मध्य अफ्रीका गणराज्य सबसे निचले स्थान पर है।

11. पर्यावरण सुरक्षा (Environment Protection)-विगत कुछ वर्षों में पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने तथा पर्यावरण सन्तुलन एवं स्वस्थ वातावरण बनाये रखने के लिए अनेक कार्यक्रम अपनाये गये हैं। गंगा प्रदूषण निवारण की एक अत्यधिक महत्वाकांक्षी योजना अपनायी गयी है। पर्यावरण सुधार के व्यापक कार्यक्रम विविध क्षेत्रों में अपनाये गये हैं।

12. सामाजिक न्याय (Social Justice) —भारत की पंचवर्षीय योजनाओं में सामाजिक न्याय को दृष्टि से दो पहलुओं पर विशेष ध्यान दिया गया है-समाज के निर्धनतम वर्गों के जीवन-स्तर में सुधार किये जायें तथा सम्पत्ति के वितरण की असमानताओं में कमो लायी जाय। इस दृष्टि से विभिन्न प्रेरणात्मक एवं वैज्ञानिक उपाय किये गये और उनसे निर्धन वर्ग के पक्ष में कुछ सुधार अवश्य हुआ है लेकिन उनकी गति आशातीत नहीं रही है।

13. भारतीय अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण (Globalisation of Indian Economy)- पिछले दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है। इनमें वैदेशिक व्यापार की बढ़ती महत्ता और वैदेशिक पूँजी प्रवाहों का उदारीकरण शामिल है।

बाह्य क्षेत्र (External Sector)

भारत के बाह्य क्षेत्र जैसे-विदेशी व्यापार, विदेशी पूँजी, भुगतान सन्तुलन व विदेशी ऋण भार आदि में भी काफी सुधार हुआ है। जैसा कि निम्नलिखित विवरण से स्पष्ट हो जायेगा-

1. विदेशी व्यापार-(i) भारत के विदेशी व्यापार में निरन्तर वृद्धि हुई है। देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDPमें नियातों का अंश 2009-10 में 13.9 प्रतिशत या जो बढ़कर 2014-15 में 15.6 प्रतिशत हो गया।

(ii) वर्ष 2014-15 में देश के निर्यात तथा आयात जीडीपी के प्रतिशत रूप में क्रमश: 16.69 प्रतिशत तथा 22.61 प्रतिशत रहे।

(iii) व्यापारिक सेवाओं का निर्यात जो वर्ष 2005 में 51.9 बिलियन था। वर्ष 2015 में बढ़कर $ 155.3 बिलियन हो गया। भारत से व्यापारिक सेवाओं के निर्यात में वर्ष 2015 में 33% की वृद्धि हुई।

2. विदेशी पूँजी-भारत में योजनाबद्ध विकास में विदेशी पूँजी का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वर्ष 2014-15 और 2016 में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश इकिटी का अन्तबाह क्रमश: 46.403 अरब डॉलर, 39.328 अरब डॉलर, 28.785 अरब डॉलर रहा है।

अप्रैल 2000 से दिसम्बर 2016 तक संचयी (i) विदेशी प्रत्यक्ष निवेश अन्तर्प्रवाह 472.199 अरब डॉलर, (ii) विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा निवल निवेश 163.697 अरब डॉलर रहा है।

3. विदेशी ऋण भार सितम्बर 2016 के अन्त में भारत पर कुल 484.83 अरब डॉलर का ऋण था सकल घरेलू उत्पाद से विदेशी ऋण का अनुपात जून 2016 में 23.7 प्रतिशत था।

विदेशी ऋण के कतिपय महत्वपूर्ण सूचकांक निम्नलिखित प्रकार हैं-

(i) दीर्घकालीन विदेशी ऋण-(कुल ऋण का 83.2 प्रतिशत)

(ii) ऋण-सेवा अनुपात (जून 2016 : 8.8 प्रतिशत)

(iii) कुल विदेशी ऋणों के सापेक्ष विदेशी विनिमय कोष-76.8 प्रतिशत ।

4. भुगतान सन्तुलन—नियोजन में भुगतान सन्तुलन के क्षेत्र में पंचवर्षीय योजनाओं की निष्पत्ति निराशाजनक रही है।

(i) देश में भुगतान सन्तुलन का चालू खाते का घाटा (Current Account Delicit : CAD) 2012-13 में जीडीपी का 4.8 प्रतिशत रहा था। जो 2013-14 में जीडीपी का 1.7 प्रतिशत हो गया। 2014-15 में पूरे वित्तीय वर्ष में भारत का चालू खाते का घाटा जीडीपी का 1.4 प्रतिशत था जो घटकर 2015-16 में जीडीपी का 1.1 प्रतिशत रहा था।

भारतीय नियोजन की विफलताएँ (FAILURES OF INDIAN PLANNING)

लगभग 60 वर्षों में जो कुछ प्रगति हुई है, वह अपर्याप्त है क्योंकि योजना में सम्बन्धित क्षेत्र के लिए विकास के जो लक्ष्य निर्धारित किये गये हैं, उनके सापेक्षिक रूप से प्रगति की रफ्तार धीमी है। इन योजनाओं की असफलताएँ निम्न प्रकार हैं-

1. प्रति व्यक्ति आय व राष्ट्रीय आय में धीमी प्रगति (Slow Progress in Per Capita Income and National Income) आर्थिक नियोजन का प्रमुख उद्देश्य राष्ट्रीय आय में प्रति व्यक्ति आय को तीव्र गति से बढ़ाना रहा है। यद्यपि योजना काल में राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है परन्तु वृद्धि की दर बहुत धीमी रही है। हमारी आय पहले ही निम्न स्तर की है और उस पर यदि धीमी गति से ही बृद्धि हो तो सामान्य स्थिति में किसी प्रकार की सुरक्षा क अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।

2. रोजगार (Employment) आर्थिक नियोजन का दूसरा प्रमुख उद्देश्य देश की बढ़ती श्रम-शक्ति को लाभप्रद रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना है किन्तु नियोजना के 60 वर्षों में रोजगार के अवसरों में आशातीत वृद्धि नहीं हुई है।

3. आर्थिक विषमता में वृद्धि (Increase in Economic Disparitics) भारत में आर्थिक नियोजन का तीसरा प्रमुख उद्देश्य आर्थिक विषमता को कम करना था परन्तु हमारी विकास योजनाओं में आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण तथा विषमताओं में वृद्धि हुई है। एकाधिकारी जाँच आयोग, डॉ. आर. के. हजारी रिपोर्ट तथा अनुसन्धानों से यह स्पष्ट होता है कि भारत में धन एवं सम्पत्ति विकेन्द्रीकरण बड़े औद्योगिक घरानों के हाथों में बढ़ा है व क्षेत्रीय विषमताओं में भी वृद्धि हुई है। तुलनात्मक रूप से निर्थन अधिक निर्धन हुआ है तथा धनी अधिक धनी। अन्य शब्दों में, विभिन्न योजनाओं में अपनाये गये विभिन्न विकास कार्यक्रगों के परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में आय की मात्रा में वृद्धि तो हुई किन्तु इसका समान बँटवारा नहीं हुआ। अतः देश में गरीबी का विस्तार हुआ है।

4. आर्थिक अस्थिरता (Economic Instability)-आर्थिक नियोजन का एक अन्य उद्देश्य स्थिरता के साथ-साथ विकास करना था किन्तु कीमतों को निर्धारित करने में हम असमर्थ रहे हैं।

5. कृषि क्षेत्र में असफलता (Failure in Agricultural Sector)-यद्यपि नियोजन काल में कृषि क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है लेकिन इन समस्याओं का निदान नहीं किया गया है। जैसे- (i) कृषि   पर जनसंख्या के दबाव की अधिकता, (ii) कृषि का मानसून पर निर्भर रहना, (iii) अदृश्य बेरोजगारी की पर्याप्तता, (iv) कृषि के यन्त्रीकरण का पिछड़ापन, (v) सिंचाई की अपर्याप्त व्यवस्था, (vi) रासायनिक खाद एवं नवीन पद्धति का अभाव आदि।

6. औद्योगिक क्षेत्र में विषमताएँ (Failure in Industrial Sectur) औद्योगिक प्रोग्राम की उपलब्धियों का अल्पानुमान किये बिना यह कहा जा सकता है कि औद्योगिक उन्नति का अधिकतम भाग मिथ्या है। इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं-

(i) औद्योगीकरण की क्रिया के परिणामस्वरूप बड़े पैमाने के क्षेत्र में तीव्र विस्तार हुआ है और इसको तुलना में छोटे तथा मध्यम क्षेत्र की उपेक्षा हुई है।

(ii) औद्योगीकरण की क्रिया के फलस्वरूप बेरोजगारी की समस्या के समाधान में विशेष सहायता नहीं मिली है।

(iii) बड़े औद्योगिक घरानों द्वारा सरकार की लाइसेन्स नीति को अपने देश में इस तरह मोड़ा गया है कि वे लाइसेन्स सामर्थ्य का पूर्वाधिकार प्राप्त कर लेते हैं।

(iv) नियोजन में उपभोक्ता वस्तुओं की अपेक्षा विलासिता की वस्तुओं पर अधिक ध्यान दिया गया है।

(v) उत्पादित औद्योगिक वस्तुओं की लागत पर नियन्त्रण पाने में असफलता मिली है।

(vi) देश के अधिकांश सार्वजनिक उपक्रम घाटे में चल रहे हैं।

7. साधन संग्रह के क्षेत्र में विषमताएँ (Failures in Resource Mobilisation) योजनाओं में साधन संग्रह के निर्धारित लक्ष्यों की वास्तविक प्राप्तियों में काफी अन्तर पाया गया जिससे प्रकट होता है कि इस दिशा में नियोजन में काफी सुधार करने की आवश्यकता नहीं है। कहीं तो वास्तविक प्रान्तियाँ लक्ष्यों से बहुत कम रही हैं और कहीं बहुत अधिक। अत: नियोजन की वित्तीय व्यवस्था काफी त्रुटिपूर्ण रही है। विकास व उत्पादन के लक्ष्यों व उपलब्धियों के बीच भी अन्तर पाया गया है। इसके लिए दो कारण हो सकते हैं- एक तो लक्ष्य का ठीक से निर्धारण न होना और दूसरा, योजना के कार्यान्वयन में कमियों का रह जाना।

8. विदेशी सहायता पर निर्भर (Dependence:on Foreign Aid) भारतीय आर्थिक नियोजन को विभिन्नता का एक कारण विदेशी सहायता पर अत्यधिक निर्भरता ही है। पहली पंचवर्षीय योजना से 1998-99 के अन्त में 93,531 मिलियन डॉलर को विदेशी सहायता का उपभोग भारत ने किया है जिससे ऋण एवं ब्याज के भुगतान का भार बहुत बढ़ गया है। समय-समय पर विदेशी सहायता रोक लिये जाने से देश के आर्थिक नियोजन में गतिरोध पैदा हो गया था जिसके फलस्वरूप योजनाओं को स्थगित करना पड़ा।

9. दोषपूर्ण नियन्त्रण नीति (Defective Regulatory Policy) योजना काल में सरकारी नियन्त्रण की नीति दोषपूर्ण रही है। विभिन्न क्षेत्रों में समय-समय पर लगाये गये नियन्त्रण परस्पर असाबद्ध रहे हैं जिसके फलस्वरूप नियन्त्रण का भले ही एक क्षेत्र को लाभ हुआ परन्तु अन्य क्षेत्रों को उससे हानि हुई है।

10. अन्य विफलताएँ-(i) कीमत स्तर में निरन्तर वृद्धि, (ii) अकुशल प्रशासन, (iii) पूँजी निर्माण की धीमी गति, (iv) आर्थिक व सामाजिक संरचना का कम विकास।

निष्कर्ष (Conclusion) नियोजन की उपलब्धियों के मूल्यांकन से निम्नलिखित दो बातें स्पष्ट प्राप्त की हैं-

(1) भारत ने कृषि, उद्योग, विदेशी व्यापार, मानवीय पूँजी-निर्माण आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त की है।

(2) यद्यपि हमारी उपलब्धियाँ महत्वपूर्ण और उत्साहजनक रही हैं फिर भी इन्हें पर्याप्त नहीं माना जा सकता क्योंकि नियोजन के 60 वर्षों के उपरान्त भी आज देश में आर्थिक व सामाजिक असमानता, दरिद्रता व बेरोजगारी का बोलबाला है। अत: निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि भारत में आर्थिक नियोजन के दौरान केवल सीमित असफलताएँ प्राप्त हुई हैं परन्तु सही मूल्यांकन के लिए यह आवश्यक है कि हम उन कारणों को समीक्षा करें जिनके फलस्वरूप आर्थिक नियोजन के दौरान अर्थव्यवस्था को केवल सीमित असफलताएँ प्राप्त हुई हैं।

योजनाओं को सफल बनाने के लिए सुझाव (SUGGESTIONS FOR THE SUCCESS OF PLANS)

योजनाओं को अधिकाधिक सफल बनाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-

1. व्यापक जन-सहयोग (Wide Spread Mass-Participation) योजनाओं को सफल बनाने के लिए जनता का पूर्ण सहयोग प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। जनता का सहयोग तभी प्राप्त किया जा सकता है, जबकि योजनाओं के प्रति उदासीनता की प्रवृत्ति का अन्त किया जाये और योजनाओं की पूर्ण जानकारी देकर उसके लाभों से अवगत कराया जाये।

2. मूल्यों पर नियन्त्रण रखा जाये (Control on Prices)—नियोजन का उद्देश्य स्थायित्व के साथ विकास करना होता है। अत: मूल्यों पर प्रभावपूर्ण नियन्त्रण रखा जाये।

3. सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र में समन्वय (Co-ordination between Public and Private Sector) योजनाओं की सफलता का एक कारण सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र में समन्वय का अभाव है। ये दोनों क्षेत्र एक-दूसरे के प्रतियोगी न होकर पूरक एवं सहयोगी होने चाहिए। योजनाओं की सफलता के लिए सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के उद्योगों में उचित समन्वय एवं सहयोग स्थापित किया जाना चाहिए।

4. दीर्घकालिक एवं अल्पकालिक कार्यक्रमों में सन्तुलन (Integration between Long-term and Short-term Programmes)—ऐसे कार्यक्रम जो देर में फल देने वाले हैं, उनमें तथा अल्पकालिक कार्यक्रमों में सन्तुलन करना आवश्यक है। कार्यक्रमों को निर्धारित समय में ही समाप्त करने के प्रयास किये जाने चाहिए।

5. भौतिक उपलब्धियाँ सफलता का आधार हो (Physical Achievements be Based for Success) हमारे देश में लक्ष्य की प्राप्ति का अनुमान व्यय की राशि के अनुसार लगाया जाता है परन्तु लक्ष्यों का सम्बन्ध भौतिक उपलब्धियों से होना चाहिए। अत: कार्यक्रमों को बनायी गयी समय सूची के अनुसार सम्पन्न करना चाहिए।

6. केन्द्र व राज्यों में अच्छे सम्बन्ध (Good Rclation Between Central and State)- योजना की सफलता सदैव केन्द्र एवं राज्यों में अच्छे सम्बन्धों पर निर्भर करती है। अत: ऐसे कार्यक्रम जो केन्द्र के निर्देश पर चलाये जा रहे हों, उनमें राज्यों को भी ध्यान देना चाहिए।

7. बचत एवं विनियोग को प्रोत्साहन (Encouragement of Saving and Investment)- देश में पूँजी-निर्माण की दर को गति देने के लिए यह आवश्यक है कि बचत एवं विनियोगों को प्रोत्साहित किया जाये। इसके लिए व्ययों में छूट दी जानी चाहिए।

8. कार्य-प्रधान शिक्षा प्रणाली (Job-oriented Education System) देश में बेरोजगारी की समस्या का समाधान करने के लिए शिक्षा प्रणाली सैद्धान्तिक के स्थान पर व्यावहारिक एवं कार्य-प्रधान बनायी जानी चाहिए।

9. जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश (Control on Population Growth)—योजनाओं को सफल बनाने के लिए बढ़ती हुई जनसंख्या को नियन्त्रित करना आवश्यक है। बढ़ती हुई जनसंख्या योजना के लाभों को निगल जाती है। जन-साधारण को जिस अनुपात में लाभ मिलने चाहिए, उनसे वे वंचित रह जाते हैं। अत: जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए कारगर उपाय किये जाने चाहिए।

10. लागत तथा प्रतिफल का सम्बन्ध (Relationship Between Cost and Benefit)- प्रत्येक कार्यक्रम को बनाते समय उसकी आर्थिक जाँच भली भाँति की जानी चाहिए। उसकी लागत तथा प्रतिफल की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए।

11. आर्थिक नियोजन-प्रधान हो (Job-oriented Economic Planning)—देश में प्रत्येक योजना काल में बेकारी में वृद्धि हुई है। अत: ऐसे कार्यक्रम अपनाने की आवश्यकता है जिससे रोजगार को स्वयं बढ़ावा मिले। शिक्षित बेकारों को स्वयं रोजगार प्रारम्भ करने के लिए तकनीकी व वित्तीय सहायता तथा उपकरण व यन्त्र सस्ते भाड़े पर दिये जाने चाहिए।

12. आयोजन व्यष्टिमूलक हो (Micro Planning)—भारत में अभी तक जन-साधारण नियोजन के प्रति तटस्थ बना हुआ है, क्योंकि भारतीय आयोजन केन्द्रीय नियोजन है। यह ऊपर से लादा जा रहा है। अत: स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर नीचे से आयोजना होनी चाहिए। क्षेत्रीय विकास के लिए स्वयं वहाँ के लोग तथा जनता के प्रतिनिधि अपने-अपने क्षेत्र के लिए योजनाएँ बनाने में स्वतन्त्र होने चाहिए, तभी वे नियोजन के प्रति रुचि रख सकते हैं।

13. पूँजी-प्रधान एवं उपभोग-प्रधान उद्योगों में समन्वय (Co-ordination between Capital Incentive and Consumption-incentives Industries) योजनाओं की सफलता के लिए पूँजी-प्रधान एवं उपभोग-प्रधान उद्योगों में समन्वय होने चाहिए जिससे राष्ट्र निर्भर हो सके तथा जनता की उपभोग सम्बन्धी कठिनाइयाँ दूर हो सकें।

14. मानव-शक्ति का उपयोग (Utilisation of Human Power)—योजनाएँ इस प्रकार की होनी चाहिए कि उन योजनाओं में उपलब्ध मानव-शक्ति अधिकाधिक लगायी जा । इससे बेरोजगारी की समस्या को हल करने में सुविधा रहेगी।

15. प्रशासन का शुद्धीकरण (Cleaniness of Administrati)-योजनाओं का संचालन एवं कार्यान्वयन प्रशासन के हाथ में होता है। अत: योजनाओं के लाभों को जन-साधारण तक पहुँचाने के लिए भ्रष्ट प्रशासन को समाप्त करना आवश्यक है।

आज सबसे बड़ी आवश्यकता देश की समस्या की वास्तविकता को पहचानकर इसके सही समाधान की है। कोरी सैद्धान्तिकता नाकामयाब रही है, यह अनुभवसिद्ध है। देश के दरिद्रतम लोगों तक विकास का लाभ पहुँचाने के लिए, दरिद्रतम की सामर्थ्य और उस तक पहुँचने के सामग्र मार्ग का परीक्षण करना होगा, तभी सैद्धान्तिक और व्यावहारिकता की खाई पाटी जा सकती है।

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