भारतीय
अर्थव्यवस्था की विशेषताओं का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत् कर सकते
हैं-
A.
एक अद्धविकसित या अल्पविकसित अर्थव्यवस्था के रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ। (Features of Indian Economy as an Underdeveloped Economy)
B. भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ एक विकासशील अर्थव्यवस्था के रूप में (Features of Indian Economy as a Developing Economy)
A. भारत-एक अर्द्धविकसित या अल्पविकसित अर्थव्यवस्था (INDIA: AN
UNDERDEVELOPED ECONOMY)
'अर्द्धविकसित
देश' सापेक्ष शब्द है। सामान्यतः वे देश, जिनकी वास्तविक प्रति व्यक्ति आय संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय की एक-चौथाई से कम है
अर्द्धविकसित देशों में रखे जाते हैं।
अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्था के रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था की
प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. कृषि की प्रधानता (Predominance of Agriculture)-कृषि
भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, क्योंकि भारत की कुल श्रम शक्ति
का 52 प्रतिशत भाग कृषि क्षेत्र में लगा हुआ है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि कृषि पर
निर्भर रहने वाली जनसंख्या जो 52 प्रतिशत है उसका CSO के जारी नई श्रृंखला (आधार
वर्ष 2011-12) के अनुसार वर्ष 2016-17 में देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में योगदान
17.4 प्रतिशत था। जबकि शेष 50 प्रतिशत जनसंख्या जो गैर कृषि क्रियाओं में लगी हुई है
उनका राष्ट्रीय आय में योगदान लगभग 18 प्रतिशत है। यह तथ्य इस बात को सिद्ध करता है
कि भारत में कृषि श्रम की उत्पादकता गैर-कृषि श्रम की उत्पादकता की तुलना में बहुत
कम है।
वस्तुतः
कृषि पर बहुत अधिक निर्भरता भारतीय अर्थव्यवस्था की अल्पविकसितता का प्रमाण है।
आर्थिक
दृष्टि से जैसे-जैसे देश विकसित होते जाते हैं राष्ट्रीय आय में कृषि का योगदान कम
होता जाता है। जैसे-अमेरिका, इंग्लैण्ड, जर्मनी, जापान आदि देशों का राष्ट्रीय आय में
कृषि क्षेत्र का योगदान मात्र 1 प्रतिशत है।
2. निम्न प्रति व्यक्ति आय (Low Per Capita Income)- भारत
में प्रति व्यक्ति आय का स्तर बहुत नीचा है। विश्व बैंक विकास रिपोर्ट के अनुसार वर्ष
2016 में भारत में क्रय शक्ति समता रीति के अनुसार प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद
1750.6 डॉलर थी। भारत में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद विश्व औसत का 14 प्रतिशत
के बराबर है। यह अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय (55,980 डॉलर) की तुलना में लगभग
1131 थी। चीन का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 14,238.7 था।
3. व्यापक गरीबी या निर्धनता (High Incidence of Poverty)- भारत
में अभी भी गाँवों व शहरों में करोड़ों व्यक्ति निर्धनता की रेखा से नीचे जीवनयापन
करते हैं। योजना आयोग की संशोधित विधि के अनुसार वर्ष 1999-2000 में 26 प्रतिशत जनसंख्या
निर्धनता रेखा के नीचे रह रही थी। योजना आयोग के अनुसार 2011-12 में यह अनुपात घटकर
21.9 प्रतिशत रह गया। किन्तु निर्धनता पर रंगराजन समिति की रिपोर्ट के अनुसार
2011-12 में देश की 29.5 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता के नीचे रह रही है।
बहुआयामी
निर्धनता सूचकांक 2016 के अनुसार भारत में 53.7 प्रतिशत जनसंख्या (55.28 करोड़ लोग)
बहुआयामी निर्धनता से पीड़ित हैं। इसके अतिरिक्त, 27.8 प्रतिशत जनसंख्या गम्भीर निर्धनता
(Severe Poverty) में जीवन-यापन कर रही है।
बी. एस. मिन्हास, प्रनाबवर्धन, दण्डेकर, रथ तथा बी. के. आर. वी. राव आदि सभी अर्थशास्त्रियों का मत है कि भारत में गरीबों की निरपेक्ष संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। अत: भारतीय अर्थव्यवस्था निर्धनता के दुश्चक्र में फंसी हुई है। इसका यह अभिप्राय है कि भारत में लोगों की आय कम होती है, आय कम होने के कारण एक ओर माँग कम होती है तथा दूसरी ओर बचत कम होती है। माँग तथा बचत कम होने के कारण विनियोग की प्रेरणा तथा क्षमता दोनों ही कम होते हैं, इसके फलस्वरूप भौतिक तथा मानवीय पूँजी में विनियोग कम होता है। विनियोग कम होने के कारण उत्पादकता कम होती है। उत्पादकता कम होने के कारण प्रति व्यक्ति आय कम होती है। इसके फलस्वरूप भारत निर्धनता के दुश्चक्र में फंसा हुआ है जैसा कि नीचे चित्र में दर्शाया गया है-
4. आय का अन्यायपूर्ण वितरण (Inequitable Distribution of Income)- भारत
में निर्धनता का एक प्रमुख कारण आय असमानता है। यद्यपि दूसरी पंचवर्षीय योजना में समाजवादी
समाज की स्थापना का लक्ष्य स्वीकार किया गया था, तथापि इस दिशा में अभी तक कोई विशेष
प्रगति नहीं हो पाई है।
राष्ट्रीय
न्यादर्श सर्वेक्षण के आँकड़ों के अनुसार ग्रामीण जनसंख्या के 39 प्रतिशत के पास ग्रामीण
परिसम्पत्ति का केवल 5 प्रतिशत अंश पाया जाता है, जबकि दूसरी ओर चटी के 8 प्रतिशत परिवारों
के पास कुल ग्रामीण परिसम्पत्ति का 46 प्रतिशत भाग विद्यमान है, शहरों में आर्थिक असमानता
गाँवों की अपेक्षा अधिक पाई जाती है।
यह अनुमान कर आँकड़ों (Tax data) पर आधारित है। यदि इस बात का ध्यान रखा जाए कि धनी वर्ग बड़े पैमाने पर कर चोरी (Tax evosion) करता है तथा कालो आय (Black incorne) में उसका बड़ा हिस्सा है तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आय असमानताएँ इससे भी कहीं अधिक है।
5. जनसंख्या में तेज वृद्धि (Rapid Growth of Population)-भारत
में तीव्र गति से जनसंख्या वृद्धि के कारण यहाँ जनाधिक्य की स्थिति पायी जाती है। भारत
में जनसंख्या 1971-81 के बीच 14 करोड़, 1981-91 के बीच 16 करोड़, 1991-2001 और
2001-2011 के बीच दोनों अवधियों में लगभग 18 करोड़ बढ़ी । इस प्रकार पिछले 10 वर्षों
में देश की आबादी जो 18 करोड़ बढ़ी इसका अर्थ यह होता है कि उत्तर प्रदेश के बराबर
एक राज्य या पाकिस्तान के बराबर एक देश य ऑस्ट्रेलिया के बराबर के दो देश हमारी आबादी
में पिछले दस वर्षों में और जुड़ गए हैं।
7
जनवरी, 2014 को संशोधित भारत की जनसंख्या 121.08 करोड़ के आँकड़े को पार कर गई थी,
जो विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग 17.7 प्रतिशत है, जबकि भारत के पास विश्व की अल भूमि
क्षेत्रफल का केवल 2.42 प्रतिशत क्षेत्र ही है।
भारत
जैसे विकासशील देश में जिस तेजी से जनसंख्या बढ़ रही है उनको कार्यरत करने के लिए पर्याप्त
तेजी के साथ विकास नहीं हो पा रहा है। फलतः प्रछन्न बेरोजगारी बढ़ती जा रही है तथा
तेजी के साथ जनसंख्या वृद्धि की वजह से यहाँ का निर्भरता-अनुपात (Dependancy
ratio) भी ऊँचा है।
6. बेरोजगारी एवं अर्द्ध बेरोजगारी (Unemployment and
Semi-employment)- भारत में श्राशक्ति बेरोजगारी की अवस्था में
है। कृषि क्षेत्र में अर्द्ध बेरोजगरी की स्थिति है। भारत में बेरोजगारी की समस्या
के सम्बन्ध में सबसे गम्भौर बात यह है कि इसमें निरन्तर वृद्धि होती जा रही है।
सामान्य
मूल स्थिति दृष्टिकोण (यूपीएस) के अनुसार 15 वर्ष और उससे अधिक आयु के व्यक्तियों के
लिए बेरोजगारी को दर (यूआर) ग्रामीण क्षेत्रों में 5.1 प्रतिशत तथा शहरी क्षेत्रों
में 4.9 प्रतिशत है।
भारत
में शहरी बेरोजगारी के दो रूप हैं। प्रथम औद्योगिक क्षेत्र में इतनी तेजी से विकास
नहीं हो पाया है कि बढ़ती हुई शहरी जनसंख्या को रोजगार मिल सके। इस प्रकार, औद्योगिक
बेरोजगारी की समस्या पैदा हुई है। दूसरे, सामान्य शिक्षा के प्रसार से सफेदपोश नौकरियों
की माँग में वृद्धि है जिसे देश का शहरी क्षेत्र पूरा कर पाने में असमर्थ रहा है। इससे
शिक्षित बेरोजगारी की समस्या पैदा हो गई है।
7. आधारभूत उद्योगों का सीमित विकास (Limited Development of Busic
Industries of Natural Resources)- यद्यपि आजादी के बाद भारत
में आधारित एवं पूँजीगत उद्योगों का काफी विकास हुआ है परन्तु फिर भी यह विकास बहुत
कम है और बहुत-सी पूँजीगत वस्तुओं के लिए विदेशों पर आश्रित रहना पड़ता है।
वर्ष
2012-13 में औद्योगिक विकास दर 1.1 प्रतिशत दर्ज की गई। वर्ष 2013-14 में औद्योगिक
विकास दर ऋणात्मक 0.1 प्रतिशत रही। वर्ष 2014-15 में यह दर 5.4 प्रतिशत आकलित को गई।
वर्ष 2015-16 में औद्योगिक विकास दर 7.4 प्रतिशत रहीं वर्ष 2016-17 के लिए यह दर
5.2 प्रतिशत आकलित की गई है। वर्ष 2016-17 की प्रथम एवं द्वितीय छमाही में औद्योगिक
विकास दर क्रमश: 5.6 प्रतिशत तथा 4.9 प्रतिशत अनुमानित की गई है।
8. पूँजी की कमी (Lack of Capital)- राष्ट्रीय आय कम होने
तथा इसका बड़ा भाग उपभोग पर व्यय हो जाने से बचत कम हो पाती हैं। फलतः पूँजी निर्माण
की दर भी कम है।
आर्थिक
समीक्षा 2016-17 के अनुसार 2016-17 में सकल स्थिर पूँजी निर्माण (Gross Fixed
Capital Formation) की दर प्रचलित मूल्यों पर जीडीपी का 26.6 प्रतिशत रही है, जोकि
2015-16 में 29.3 प्रतिशत थी।
9. पूँजी-उत्पाद अनुपात (Capital Output Ratio)- भारत
में पूँजी-उत्पाद अनुपात भी अधिक है। पूँजी-उत्पाद अनुपात
का अर्थ है कि उत्पादन की एक इकाई उत्पन्न करने के लिए पूँजी की कितनी इकाइयों की आवश्यकता
है। (Capital Output Ratio = K/Y यहाँ, K = पूँजी, Y = आय या उत्पादन)। मान लीजिए पूँजी-उत्पाद
अनुपात 3 : 1 है। इसका अर्थ यह है कि किसी वस्तु की एक इकाई का उत्पादन करने के लिए
पूँजी को तीन इकाइयाँ चाहिए। भारत में पूँजी-उत्पाद अनुपात 4.5 : 1 है। इसके अधिक होने
के कारण पूँजी निर्माण की दर बढ़ने पर भी उत्पादन में वृद्धि नहीं हो पाती।
10. अपर्याप्त आधारित संरचना (Inadequate Infrastructure)-आधारित
संरचना से अभिप्राय है बिजली, चालक शक्ति, यातायात के साधन, बैंकिंग व्यवस्था, प्रशिक्षण
की सुविधाएँ आदि । भारत के आर्थिक विकास की एक मुख्य बाधा आधारित संरचना का अपर्याप्त
होना है। भारत में बिजली को पूर्ति आवश्यकता से बहुत कम है। पेट्रोल तथा अच्छे कोयले
की पूर्ति भी अपयांप्त है। पेट्रोल के लिए हमें विदेशों पर निर्भर रहना पड़ता है। भारत
जैसे विशाल देश में यातायात के साधनों, जैसे-रेल, सड़क, जल तथा वायु यातायात की वर्तमान
स्थिति को पर्याप्त नहीं कहा जा सकता।
11. कुशल श्रम एवं तकनीकी ज्ञान की कमी (Lack of Skilled Labour
and Technical Knowledge),- अर्द्ध-विकसित देश तकनीकी पिछड़ेपन से
त्रस्त रहते हैं। यद्यपि भारत में योजनालाल में प्राविधिक ज्ञान में उन्नति हुई है
परन्तु फिर भी भारत में प्रयुक्त तकनीकी स्तर कई अर्थों में विकसित देशों से नीचा है।
भारतीय
कृषि में प्रति एकड़ निम्न उत्पादिता (Low Productivity) और कृषि एवं उद्योगों के क्षेत्र
में प्रति श्रमिक निम्न उत्पादिता का प्रमुख कारण पिछड़ी तकनीक का प्रयोग ही है। विगत
कई दशकों में इस देश में विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में जो काम हुआ है उससे यहाँ की
तकनीकी क्षमता काफी बढ़ी है और यदि अब इसका सही ढंग से उपयोग किया जाए तो देश के आर्थिक
विकास के सामने वाली एक बड़ी बाधा को दूर किया जा सकता है।
12. उपक्रमियों या उद्यमियों का अभाव (Lack of Entrepreneurs) शुम्पीटर
(Schumpeter)- के अनुसार किसी भी देश के तेजी के साथ आर्थिक विकास के लिए
देश में भारी संख्या में कुशल उद्यमी होने चाहिए। ये उद्यमी उत्पादन में नये प्रयोग
करते हैं। वे पुरानी तकनीकों को त्यागकर नई तकनीकों को अपनाते हैं। नई वस्तुओं की खोज
करते हैं और इस प्रकार उत्पादन में मात्रात्मक व गुणात्मक दोनों ही प्रकार के सुधार
करते हैं। आज भी भारत में इस तरह के उद्यमकर्ताओं की भारी कमी है।
13. मानव विकास का नीचा स्तर (Low Level of Human Development)- मानव
विकास का माप प्रायः संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा निर्मित मानव विकास
सूचकांक (Human Development Index) की सहायता से किया जाता है। मानव विकास सूचकांक
मानव विकास के तीन आधारभूत सूचकों-आयु, ज्ञान और जीवन-सम्भावना का मिश्रण है।
Human Development Report, 2016 के अनुसार, मानव विकास के दृष्टिकोण से भारत की स्थिति
काफी असन्तोषजनक है। इस रिपोर्ट में कुल 188 देशों में भारत का 131वाँ स्थान है। जबकि
उसके पड़ोसी देशों में मॉरिशस (64वाँ स्थान), श्रीलंका (73), चीन (90) व मालदीव
(105वाँ स्थान) की स्थिति उससे बेहतर है जबकि 132 वें स्थान पर भूटान, 139 वें स्थान
पर बांग्लादेश 144 वें स्थान पर नेपाल जबकि मध्य अफ्रीका गणराज्य सबसे निचले स्थान
पर हैं।
उपर्युक्त
विवरण से यह स्पष्ट होता है कि प्रो. रेडावे (Reddaway) ने उपयुक्त ही लिखा है कि
"भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रमुख विशेषता निर्धनता है। यह भारत के अर्द्धविकसित
होने का प्रमुख चिन्ह है।"
B. भारत-एक विकासशील अर्थव्यवस्था (INDIA : A DEVELOPING ECONOMY)
स्वतन्त्रता
के पश्चात् या आर्थिक नियोजन की अवधि में भारतीय अर्थव्यवस्था का कफी विकास हुआ है
फलतः भारत विकास की स्थैतिक अवस्था से निकलकर प्रावैगिक अवस्था में प्रवेश कर चुका
है। अतः भारत की अर्थव्यवस्था को एक विकासशील अर्थव्यवस्था कहा जाता है। भारतीय अर्थव्यवस्था
की एक विकासशील अर्थव्यवस्था के रूप में मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. नियोजित मिश्रित अर्थव्यवस्था (Planned Mixed Economy)-1
अप्रैल, 1951 से भारतीय अर्थव्यवस्था नियोजित अर्थव्यवस्था के रूप में कार्यशील है।
यहाँ आर्थिक विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाएँ बनायी जाती हैं। इसे मिश्रित इसलिए कहा
जाता है कि यहाँ सार्वजनिक क्षेत्र एवं निजी क्षेत्र दोनों को काम करने का समान अवसर
दिया गया है। एक तरफ सरकारी उपक्रम हैं तो दूसरी तरफ निजी उपना हैं।
जुलाई,
1991 से देश में आर्थिक सुधारों का नया कार्यक्रम अपनाया गया है जिसके अन्तर्गत आर्थिक
उदारीकरण (Economic Liberalisation) का मार्ग अपनाया गया है। सरकार निजीकरण, बाजारीकरण
व अन्तर्राष्ट्रीयकरण पर बल देने लगी है।
2. आर्थिक विकास या राष्ट्रीय आय में वृद्धि (Economic Development
or Increase in National Income)- जहाँ 1950-51 में योजनाओं
के पूर्व आर्थिक विकास की औसत दर 1.2 प्रतिशत वार्षिक थी उसमें कृषि विकास की वार्षिक
दर तो केवल 0.5 प्रतिशत थी तथा औद्योगिक विकास दर 2 प्रतिशत ही थी, किन्तु पंचवर्षीय
योजनाओं के अन्तर्गत अर्थव्यवस्था के विकास से विकास की दर सन् 1984-85 में 5.2 प्रतिशत
पहुँच गयी है जो लगभग 4 गुनी थी पर भयंकर सूखे के कारण सन् 1982-83 में विकास दर घटकर
2.6 प्रतिशत रह गयी थी इसी प्रकार कृषि विकास दर भी बढ़कर 4 प्रतिशत तथा औद्योगिक विकास
दर 9 प्रतिशत से 11.7 प्रतिशत वार्षिक हो गयी है। सातवों योजना के पाँच वर्षों में
भी विकास दर 5.2 प्रतिशत से अधिक रही है। सन् 1990-91 तथा सन् 1991-92 में राष्ट्रीय
आय में वृद्धि दर बहुत कम लगभग 1.1 प्रतिशत वार्षिक रही, जबकि वर्ष 1996-97 में राष्ट्रीय
आय में वृद्धि दर 7.5 प्रतिशत रही और सन् 2001-02 में यह 6.4 प्रतिशत तथा वर्ष
2005-06 में सकल घरेलू उत्पाद 8.5 प्रतिशत रहा। दसर्वी योजना में औसत वार्षिक विकास
दर 7.6 प्रतिशत रही। सन् 2007-08 में विकास दर 9.3 प्रतिशत रही जबकि वैश्विक मन्दी
के कारण 2016-17 में विकास दर घटकर 7.2 प्रतिशत रहने का अनुमान है। योजनाबार विकास
दर निम्न प्रकार है-
सारणी
1. आर्थिक विकास में वृद्धि दर
योजना एवं योजनावधि |
प्राप्त विकास दर |
पहली योजना (1951-56) |
3.7 |
दूसरी योजना (
1956-61) |
4.2 |
तीसरी योजना (1961-66) |
2.8 |
चौथी योजना (1969-74) |
3.4 |
पाँची योजना (1974-79) |
4.9 |
छठवीं योजना (1980-85) |
5.4 |
सातवीं योजना (1985-900 |
5.6 |
आठवीं योजना (1992-97) |
6.6 |
नौवीं योजना
(1997-2002) |
5.7 |
दसवीं योजना (2002-07) |
7.6 |
ग्यारहवीं योजना (2007-12) |
8.0 |
बारहवौं योजना (2012-17)
(अनु.) |
8.0 |
3. प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि (Rise in per Cupila Income)- भारत
में शुरू के 20 वर्षों की अवधि में प्रति व्यक्ति आय में केवल 40.8 प्रतिशत वृद्धि
हुई। परन्तु 1991-92 के बाद प्रति व्यक्ति आय में संवृद्धि दर में बढ़ोत्तरी हुई और
1991-92 से 2013-14 के बीच 23 वर्षों में यह दर 4.6 प्रतिशत प्रति वर्ष तक पहुँच गई।
दसवी योजना के दौरान प्रति व्यक्ति आय में औसत 5.9 प्रतिशत प्रति वर्ष तथा ग्यारहवीं
योजना में औसतन 6.9 प्रतिशत प्रति वर्ष की वृद्धि दर्ज की गई।
चालू
मूल्यों पर प्रति व्यक्ति आय 2016-17 में ₹ 1,03,818 रहने का सीएसओं का अग्रिम अनुमान
है, जबकि 2015-16 में यह ₹ 94,178 थी इस प्रकार चालू मूल्यों पर प्रति व्यक्ति आय में
10.2 प्रतिशत की वृद्धि 2016-17 में होने का सीएसओ का ताजा अग्रिम अनुमान है।
4. बचत व विनियोग दरों में वृद्धि (Increase in Saving and
Investment)- योजना अवधि में बचत व विनियोग दर में भी उतार-चढ़ाव आते
रहे हैं। चालू मूल्यों के आधार पर GDP से सकल बचत का अनुपात जो 1950-51 में 10.4 प्रतिशत
था, वह 2015-16 में बढ़कर 31.5 प्रतिशत हो गया। इसी प्रकार सकल घरेलू पूँजी निर्माण
की दर जो 1950-51 में 8.7 प्रतिशत थी, वह 2015-16 में बढ़कर 33 प्रतिशत हो गई।
5. सुदृढ़ औद्योगिक ढाँचा (Strong Industrial Base)- योजना
की अवधि में भारत का औद्योगिक ढाँचा पहले से सुदृढ़ हो गया। योजना काल में आधारभूत
उद्योगों के विकास से औद्योगिक उत्पादन में विविधता बढ़ गई। उद्योगों के आधुनिकीकरण
द्वारा उत्पादन तकनीक को सुधारा गया है। उद्योगों की उत्पादन तकनीकों को आधुनिकतम रखने
का प्रयास किया गया है। वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप भारतीय बहुराष्ट्रीय निगम विश्व
भर में फैले हुए हैं और आर्थिक शक्ति में विश्व में भागीदारी कर रहे हैं। भारतीय कम्पनियों
में व्यापारिक आत्मविश्वास बढ़ रहा है। इनमें से कई इतनी ताकतवर हो गयी हैं कि उन्होंने
विकसित देशों में कई कम्पनियों का अवापन (Acquisition) कर लिया है।
6. अधोसंरचना का निर्माण (Building up of Infrastructure)- औद्योगिक
विकास के लिए अधोसंरचना जैसे-बिजली, सड़कें, रेलवे, संचार के साधन आदि का काफी निर्माण
किया गया है। बिजली के उपकरण, रेल के इंजन तथा डिल्ये, टेलीफोन आदि के कई नये उद्योग
भी स्थापित किये गये हैं। इससे अधोसंरचना के विकास को बढ़ावा मिला है।
7. विकासशील मुद्रा व पूँजी बाजार (Developing Money and Capital
Market)-
व्यावसायिक पर्यावरण में परिवर्तनों के कारण विनियोक्ताओं एवं ऋणदाताओं को निवेश के
नवीन एवं आकर्षक अवसर व्यापक पृष्ठभूमि में प्राप्त हुए हैं। मुद्रा एवं पूँजी बाजारों
का न केवल विस्तार हुआ है बल्कि सूचना तकनीकी के कारण उन तक पहुँच भी आसान हुई है।
रिजर्व बैंक द्वारा आयोजित सुधारों तथा 'सेबी' (SEBI) की नवीन शूमिका से निवेश की सुरक्षा
तथा कार्य प्रणाली की पारदर्शिता में सुधार हुआ है।
8. सेवा क्षेत्र में तेजी से विकास (Fast Growth in Service
Sector)–1991
के बाद की सुधार अवधि में औद्योगिक व विदेशो व्यापार से सम्बन्धित नीतियों में व्यापक
उदारीकरण हुआ है तथा बैंकिंग, बीमा, परिवहन व संचार क्षेत्रों को निजी क्षेत्र के लिए
खोल दिया गया है। इस उदारीकरण से सेवा क्षेत्र के विकास को, महत्वपूर्ण प्रोत्साहन
मिला है।
विगत
वर्षों में ज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण क्रान्ति हुई है और हम 'वस्तु-अर्थव्यवस्था'
से निकलकर ज्ञान अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
डेटा
बैंक, इण्टरनेट व कम्प्यूटर सेवाएँ आदि 'ज्ञान-क्षेत्र' (Knowledge Sector) का महत्त्वपूर्ण
अंग बन गयो हैं। 'ज्ञान उध्योगों' (Knowledge Industries) का तीव्रता से विकास हो रहा
है। उद्योगों में 'ज्ञान' केन्द्रीय पूँजी, लागत केन्द्र (Cost Centre) एवं उत्पादन
का केन्द्रीय संसाधन बन चुका है।
व्यवसाय
में 'सेवा उद्योगों' का महत्व बढ़ रहा है। विकसित देशों में आणविक ऊर्जा, उद्योग, कम्प्यूटर
प्रणाली, सम्प्रेषण, सेटा प्रोसेसिंग, नई टेक्नोलॉजी आदि के निर्माण एवं प्रयोग पर
विशेष ध्यान दिया जा रहा है। अनेक राष्ट्रों में आज ऐसे उद्योग विकसित हो रहे हैं जिनका
मुख्य आधार नई विकसित टेक्नोलॉजी-कम्प्यूटर प्रणाली है।
ज्ञान
की भूमिका कार्यात्मक' एवं 'उत्पादक' Productive) हो गयी है। इस प्रकार आज के 'ज्ञान-समाज'
ने व्यवसाय के लिए नये दायित्व, नये कार्य, नयाँ चुनौतियों के साथ-साथ नबे अक्सरों
को भी उत्पन्न कर दिया है। 2014-15 में सॉफ्टवेयर सेवा में व्यावसायिक सेवाओं का सेवा
नियांत में हिस्सा क्रमश:47 प्रतिशत व 18.5 प्रतिशत रहा है।
9. आधुनिकीकरण (Modernisation)- आर्थिक नियोजन की अवधि
में भारत के कृषि, उद्योग, सेवा क्षेत्र व आधारभूत संरचना आदि का आधुनिकीकरण हुआ है
जिसके कारण वस्तु की प्रति इकाई लागत में कमी आई है। फलत: औद्योगिक उत्पादों के निर्यात
को प्रोत्साहन मिला है इसी प्रकार कृषि क्षेत्र में आधुनिकीकरण से कृषि उत्पादकता में
वृद्धि हुई है।
10. संरचनात्मक व संस्थागत परिवर्तन (Structural and Institutional
Changes)- भारत में योजना अवधि विकास के कारण विभिन्न संरचनात्मक व
संस्थागत परिवर्तन भारतीय अर्थव्यवस्था में हुए हैं उदाहरण के लिए सार्वजनिक क्षेत्र
का विस्तार, कीमत-समर्थन व्यवस्था (Price Support System), सार्बजनिक-वितरण व्यवस्था,
वित्तीय संस्थाओं का विकास आदि मुख्य परिवर्तन शामिल हैं। योजनाकाल में उदारीकरण, वैश्वीकरण,
निजीकरण जैसे संस्थागत व संरचनात्मक परिवर्तन लाए गए हैं।
11. कृषि क्षेत्र का विकास व ग्रामीण विकास (Agriculture and Rural
Development)- कुछ समय पूर्व तक भारत में कृषि अत्यन्त ही पिछड़ी हुई तथा
अविकसित स्थिति में थी परन्तु अन्व खेती में उपकरणों, रासायनिक खाद, अधिक उपज देने
वाले बीजों व अन्य कृषि आदान (Agricultural Inputs) का प्रयोग धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा
है और उञ्चेती का व्यापारीकरण भी बढ़ रहा है। 'हरित क्रान्ति' के कारण अब पहले की अपेक्ष
कृषि उत्पादन की मात्रा काफी तेजी से बढ़ने लगी है।
भारत
में स्वतन्त्रता के बाद से ही ग्रामीण विकास को जो प्रक्रिया अपनाई गई उसके फलस्वरूप
शिक्षा, स्वास्थ्य, आधारभूत ढाँचे के विकास आदि में उन्लेखनीय सफलता प्राप्त की जा
सकी है, मगर अभी भी निर्धनता, बेरोजगारी, भूख एवं कुपोषण की समस्या के निवारणार्थ व
आधुनिकता के आवामों की प्राप्ति हेतु काफी कुछ करना शेष है।
9वीं,
10वीं एवं 11वीं योजनाओं में ग्रामीण विकास हेतु अभिनव पहल किए गए हैं। ग्रामीण विकास
की प्रक्रिया में पंचायतों की मदद से सक्रिय जनभागीदारी, स्वयंसेवी संस्थाओं की भागीदारी
के साथ साथ आधुनिक तकनीक के प्रयोग को भी इसमें सुनिश्चित किया गया।
12. सामाजिक सेवाओं का विस्तार (Tixpansion of Social Services)- शिक्षा,
स्वास्थ्य आदि सामाजिक सेवाओं के विस्तार में भी पर्याप्त प्रगति हुई है। स्कूली एवं
विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा और शोध के क्षेत्रों में अभूतपूर्व सुधार हुआ है। साक्षरता
का स्तर बढ़ा है। अब देश में प्रशिक्षित श्रमिकों, तकनीकी विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों,
अनुसन्धानकर्ताओं, प्रशासकों व प्रबन्धकों आदि की कमी नहीं है।
13. सामाजिक परिवर्तन (Social Changes)- भारतीय
समाज में शिक्षा के प्रसार व विकास के साथ-साथ परिवर्तन हुआ है। रूढ़िवादिता, बाल-विवाह,
पर्दा-प्रथा, छुआछूत आदि बुराइयाँ धीरे-धीरे कम हुई है और देशवासियों ने विकास के अनुरूप
अपनें को ढालने की चेष्टा की है जो एक प्रगति के पथ पर अग्रसर राष्ट्र के लिए आवश्यक
है।
14. विदेशी निवेश में वृद्धि (Increase in Foreign Investment)- विदेशी
निवेश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश तथा पोर्टफोलियो निवेश शामिल किया जाता है इसके अन्तर्गत
विदेशी निवेशकों द्वारा भारतीय कम्पनियों के अंशों, ऋण-पत्रों, बॉण्डों आदि में निवेश
से है। भारतीय सरकार का विदेशी निवेश के प्रति उदार दृष्टिकोण होने से भारत में विदेशी
निवेश के अन्तर्प्रवाह में बहुत वृद्धि हुई है। वर्ष 2016 के दौरान शुद्ध विदेशी निवेश
का अन्तर्ग्रवाह 46.4 अरब डॉलर का रहा।
15. विदेशी व्यापार में वृद्धि (Increase in Foreign Trade)- विगत
वर्षों में भारत के विदेशी व्यापार में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। विश्व व्यापार संगठन
का सदस्य होने के कारण भारत ने विदेशी व्यापार में टैरिफ व गैर-टैरिफ बाधाओं को कम
किया है। इससे विदेशी व्यापार को बढ़ावा मिला है।
वर्ष
2014-15 में देश के निर्यात तथा आयात जीडीपी के प्रतिशत रूप में क्रमश: 15.69 प्रतिशत
तथा 22.61 प्रतिशत रहे।
16 भुगतान सन्तुलन (Balance of Payment)- नियोजन में भुगतान सन्तुलन के क्षेत्र में पंचवर्षीय योजनाओं की निष्पत्ति निराशाजनक रही है। जो घटकर 2015-16 में जीडीपी का 1.1 प्रतिशत रही थी।
निष्कर्ष (Conclusion)
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय अर्थव्यवस्था
यद्यपि पिछड़ी है लेकिन अब वह गरीबी के दुश्चक्र से बाहर है। योजनाकाल में हमने तीव्र
गति से आर्थिक विकास किया है जिसके कारण यहाँ की अर्थव्यवस्था में संस्थात्मक एवं संरचनात्मक
परिवर्तन स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहे हैं। आज हमारा औद्योगिक ढाँचा पहले से अधिक
मजबूत है। कृषि क्षेत्र में विविध संस्थागत और तकनीकी सुधार हुए हैं। आधारभूत आर्थिक
संरचना ज्यादा विकसित है। वित्तीय ढाँचा अधिक सशक्त और फैला हुआ है। आर्थिक उदारीकरण
की नीति के तहत निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया जा रहा है। बाजार-संयन्त्र का अधिक उपयोग
किया जा रहा है तथा देश की अर्थव्यवस्था को विश्व की अर्थव्यवस्था से जोड़ने का प्रयास
चल रहा है। हर्ष की बात है कि भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था
हो गई है।