संक्षेप
में, कृषि साख या बैंकिंग से तात्पर्य ग्रागीण क्षेत्र में किसानों को ऋण सुविधाएँ
उपलब्ध कराने से है।
कृषि वित्त या ग्रामीण साख की आवश्यकता (NEED FOR AGRICULTURAL FINANCE OR RURAL CREDIT)
भारतीय
किसानों की वित्त सम्बन्धी आवश्यकताओं का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता
है-
1. अल्पकालीन ऋण (Short-terIn Loan)—ये
वे ऋण हैं जो खाद व बीज खरीदने के लिए, फसल बोने से काटने तक काम
चलाने के लिए और पशुओं व पारिवारिक आवश्यकताओं को पूर्ति के लिए, किये जाते हैं।
इनकी अवधि 15 महीने तक को होती है। इस प्रकार की ऋण प्राय: महाजन तथा सहकारी
समितियाँ उपलब्ध कराती हैं।
2. मध्यकालीन ऋण (Medium-term Loan)-इसकी
आवश्यकता औजार व बैल खरीदने, कृषि प्रणाली में सुधार करने व जमीन
में सुधार करने के लिए पड़ती है। इसकी अवधि 15 महीने से
5 वर्ष तक की होती है।
यह
ऋण प्राय: महाजनों, सहकारी समितियों तथा व्यापारिक बैंकों द्वारा दिये जाते हैं।
3. दीर्घकालीन ऋण (Long-term Loan)—इसकी आवश्यकता किसानों
को अपने पुराने ऋों को चुकाने के लिए, नयो भूमि खरीदने के लिए या
भूमि पर कोई सुधार करने के लिए पड़ती है। इस प्रकार के ऋण प्रायः भूमि विकास बैंक
से प्राप्त किये जाते हैं। इन ऋणों की अदायगी अवधि 5 वर्ष से अधिक होती है।
भारत में कृषि साख के स्रोत (Sources of Agricultural Credit)
भारत
में कृषि साख की पूर्ति के अनेक स्रोत हैं, जिन्हें प्रमुख दो भागों में विभक्त
किया जा सकता है-
I.
गैर-संस्थागत स्रोत अथवा व्यक्तिगत स्त्रोत तथा II. संस्थागत स्रोत। किसानों को ऋण
प्रदान करने में संस्थागत स्रोतों में कुछ अतिरिक्त स्रोत जैसे
निगम आदि भी सम्मिलित हो गए हैं। गैर-संस्थागत स्रोतों का महत्व धीरे-धीरे कम होता
जा रहा है।
पिछले
वर्षों में कृषि क्षेत्र के संस्थागत ऋणों के प्रवाह में निरन्तर वृद्धि होती रही ।
वर्तमान में लगभग 65% ऋण संस्थानात्मक स्रोतों द्वारा उपलब्ध कराए जाते हैं।
I.
गैर-संस्थागत (अथवा निजी) स्रोत (NON-INSTITLTIONAL (OR PRIVATE) SOURCE)
1. साहूकार (Moneylendlers)
साहूकार
वे व्यक्ति हैं जिनका मुख्य व्यवसाय रुपया उधार देना है। साहूकारों को दो भागों में
बाँटा जा सकता है-(अ) पेशेवर साहूकार (Professional Moneylendlers) —ये वे साहूकार
हैं जिनका मुख्य व्यवसाय लोगों को रुपया उधार देना है। (ब) गैर-पेशेवर साहूकार
(Non-professional Moneylenders)—ये वे साहूकार हैं जो किसी अन्य व्यवसाय में कार्यरत
रहते हुए भी रुपया उधार देने का काम करते हैं। इनमें जमींदार, कृषक वर्ग, विक्रेता,
वकील आदि कोई भी व्यक्ति हो सकता है जिनके पास अतिरिक्त धन होता है और वे अपने मुख्य
व्यवसाय के साथ साथ धन उधार देने का कार्य भी करते हैं।
साहूकार के कार्य (Functions of Moneylenders)
साहूकार
के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-
(i)
साहूकार का मुख्य कार्य अल्पावधि ऋण देना है।
(ii)
ऋण सामान्यतया ऋणी की निजी जमानत पर दिये जाते हैं
(iii)
साहूकार सामान्यतया अपनी निधियाँ उधार देते हैं।
(iv)
साहूकार अपने ऋणियों से ऊँची ब्याज दर लेते
साहूकार का महत्व (Importance of Moneylender)
कुल
कृषि साख में गैर संस्थागत एजेन्सियों अर्थात् महाजन तथा साहूकारों का योगदान लगभग
35% बना हुआ है। संस्थागत साख एजेन्सियों की तुलना में महाजनों से ऋण लेना किसानों
को अधिक सुविधाजनक लगता है, क्योंकि-
(अ)
साहूकार बिना प्रतिभूति गारण्टी के भी ऋण प्रदान करते हैं।
(ब)
साहूकार मूलधन पुनर्भुगतान पर अधिक जोर नहीं देते, यदि उन्हें समय पर ब्याज का भुगतान
मिलता रहे।
(स)
साहूकारों द्वारा ऋण प्रदान करते समय अधिक औपचारिकताएँ नहीं करायी जाती और ऋण देने
में कम समय लगाया जाता है।
(द)
पुराने ऋणों का दबाव बना रहने के कारण भी ग्रामीण समुदाय साहूकार से ऋण प्राप्त करने
के लिए बाध्य होता है।
(य)
साहूकार की सेवाएँ ग्रामीण ऋण प्राप्तकर्ताओं को हर समय उपलब्ध रहती हैं।
2. देशी बैंकर (Indigenous Bankers)
परिभाषा
(Definition) भारतीय ग्रामीण वित्त व्यवस्था में देशी बैंकरों का महत्वपूर्ण स्थान
है। केन्द्रीय बैंकिंग जाँच समिति के अनुसार, “देशी बैंकर उन व्यक्तियों या निजी फर्मों
को कहते हैं जो निक्षेपों को स्वीकार करते हैं, ऋण देते हैं और देशो हुण्डियों में
व्यवसाय करते हैं।"
देशी बैंकरों के कार्य (Functions of Indigenous Bankers)—देशी बैंकरों
के कार्यों को दो
भागों
में बाँटा जा सकता है-
(अ)
बैंकिंग से सम्बन्धित कार्य और (ब) गैर बैंकिंग कार्य।
बैंकिंग
कार्यों में निक्षेपों को स्वीकार करना, ऋण देना तथा हुण्डियों का व्यवसाय शामिल होता
है। ये प्रायः निक्षेपों पर आधुनिक बैंकों से अधिक ब्याज देते हैं और इसी प्रकार ऋणों
की ऊँची ब्याज दर लेते हैं। सामान्यतः सुरक्षित ऋणों पर इनकी ब्याज दर 6 से 18% तक
होती है और असुरक्षित ऋणों पर 18 से 50% तक ब्याज लिया जाता है। ये बैंक कुछ गैर-बैंकिंग
कार्य भी करते हैं। जैसे- व्यापार, उद्योग, सट्टा आदि । देशी बैंकर कभी-कभी व्यापारिक
बैंकों के प्रतिनिधि के रूप में भी कार्य करते हैं।
देशी
बैंकरों पर अभी तक रिजर्व बैंक नियन्त्रण स्थापित नहीं कर पाया है, यद्यपि इस सम्बन्ध
में 1937, 1951 तथा 1970 में प्रयास किये जा चके हैं।
II.
संस्थागत स्त्रोत (INSTITUTIONAL SOURCE)
1. सरकार (Government) कृषि-वित्त को आवश्यकताओं
को देखते हुए सरकार ने अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन ऋणों को व्यवस्था की है। ये ऋण तकावी
ऋण कहे जाते हैं। सरकार भू-सुधार ऋण अधिनियम, 1883 के अन्तर्गत तथा कृषक ऋण अधिनियम,
1884 के अधीन अल्पकालीन ऋण, बाढ़, सूखा, फसलों, पशुओं की बीमारियों आदि के समय पर बीज,
कृषि यन्त्र, हल, बैल आदि के लिए तकावी ऋण दिये जाते हैं। सरकारी ऋण अधिक लोकप्रिय
नहीं रहे हैं।
2. सहकारी साख समितियाँ (Cooperative Credit Societies —किसानों
को महाजनों के शोषण से बचाने के लिए सहकारी साख आन्दोलन का प्रारम्भ 1904 में हुआ था
परन्तु इस आन्दोलन को गति स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् प्राप्त हुई है।
भारत
में सहकारी समितियों का त्रिस्तरीय ढाँचा है। सबसे नीचे ग्राम स्तर पर प्राथमिक सहकारी
साख समिति होती है। उनके कार्यों का समन्वय तथा इन्हें वित्त प्रदान करने के लिए जिला
स्तर पर केन्द्रीय सहकारी बैंक तथा राज्य स्तर पर राज्य सहकारी बैंक होता है।
प्राथमिक सहकारी समितियाँ (Primary Cooperative Societies — गाँव
के कोई भी दस व्यक्ति मिलकर प्राथमिक सहकारी समिति की स्थापना कर सकते हैं। इनका क्षेत्रफल
बहुत ही सीमित होता है और इनको कार्यशील पूँजी सदस्यों के सदस्यता शुल्क जन-निक्षेप,
केन्द्रीय सहकारी बैंक से ऋण आदि के रूप में प्राप्त होती है।
31
मार्च, 2014 को भारत में कुल 93,042 प्राथमिक सहकारी समितियाँ कार्यरत् थौं। जिनकी
कार्यशील पूँजी र 2,12,429 करोड़ थी। इन समितियों द्वारा वितरित बकाया ऋणों में ₹
61,376 करोड़ के कृषि ऋण तथा ₹ 49,679 करोड़ के गैर-कृषि ऋण थे। मात्र 43,327 समितियाँ
ही लाभ अर्जित करने वाली थीं।
केन्द्रीय या जिला सहकारी बैंक (Central Cooperative Bank) भारत
में केन्द्रीय सहकारी बैंक की स्थापना सन् 1912 के सहकारी अधिनिया के अन्तर्गत हुई।
ये बैंक जिला स्तर पर कार्य करते हैं तथा प्राथमिक कृषि साख सनितियों को वित्तीय साधन
उपलब्ध कराते हैं। इन बैंकों का मुख्य कार्य प्राथमिक सहकारी समितियों को ऋण प्रदान
करना है।
मार्च
2015 के अन्त में देश में 370 केन्द्रीय सहकारी बैंक कार्यरत थे। इनमें से 331 लाभ
में तथा 39 हानि पर चल रहे थे।
राज्य सहकारी बैंक (State Cooperative Bank)—इस
बैंक को राज्य का शीर्ष सहकारी बैंक (Apex Co-operulive Bank) भी कहते हैं। यह बैंक
राज्य के केन्द्रीय सहकारी बैंकों को ऋण देता है और उनके कार्यों का नियन्त्रण करता
है। यह भारतीय रिजर्व बैंक से ऋण प्राप्त करता है। इस प्रकार यह बैंक रिजर्व बैंक,
केन्द्रीय सहकारी बैंक तथा प्राथमिक सहकारी समितियों के मध्य एक महत्वपूर्ण वित्तीय
कड़ी का कार्य सम्पन्न करता है।
भूमि विकास या भू-बन्धक बैंक (Land Development Banks or Land
Mortgage Banks)—भारत में दीर्घकालीन कृषि वित्त प्रदान करने
के लिए इस प्रकार के बैंकों की स्थापना की गयी है। यह बैंक कृषक की भूमि गिरवी रखकर
ऋण सुविधाएँ प्रदान करते हैं। यह ऋण लम्बी अवधि के लिए, जैसे-कुएँ खुदवाने, पम्पसेट
लगवाने, खेती सम्बन्धी यन्त्र व ट्रैक्टर खरीदने आदि के लिए दिये जाते हैं। इन बैंकों
का ढाँचा द्वि-स्तरीय होता है। राज्य स्तर पर केन्द्रीय भूमि विकास बैंक तथा जिला स्तर
पर प्राथमिक भूमि विकास बैंक होते हैं। यद्यपि नियोजन काल में इन बैंकों का विस्तार
हुआ है तथापि इनकी प्रगति को सन्तोषजनक नहीं कहा जा सकता है।
सहकारी साख की प्रमुख समस्याएँ (Main Problems of Cooperative
Credits)
सहकारी
साख से सम्बन्धित प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-
(i)
दिये गये ऋण की वापसी कृषक एवं ग्रामीण क्षेत्र के अन्य बर्ग समय पर नहीं कर पाते।
(ii)
छोटे एवं सीमान्त किसानों को पर्याप्त साख-सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हो पा रही है।
(iii)
सहकारिताओं के समक्ष प्रबन्धकीब अपर्याप्तता व संगठनात्मक कुशलता के अभाव की समस्या
है।
(iv)
सहकारी साख संस्थाओं के पास वित्तीय साधनों की कमी है।
(v)
प्राथमिक कृषि साख समितियों के सीमित कार्य-क्षेत्र और सदस्य संख्या के कारण समितियों
को पर्याप्त काम नहीं मिल पाता।
(vi)
सहकारी समितियों के क्षेत्रीय वितरण में भी भारी असमानताएँ हैं।
(vii)
भूमि विकास बैंक का विकास भी सन्तोषजनक नहीं रहा। यह देश के कुछ स्थानों पर ही केन्द्रित
है।
सुधार के लिए सुझाव (Suggestions for Improvement)
(i)
सहकारी समितियों के क्षेत्र व्यापक विस्तार किया जाए।
(ii)
ऋण देने की विधि सरल और उदार बनायी जाए।
(iii)
पर्याप्त मात्रा एवं उचित समय पर ऋण दिए जाएँ
(iv)
अल्पकालीन तथा मध्यकालीन ऋण बिना किसी जमानत के दिए जाने चाहिए।
(v)
जनता से अधिक जमाएँ (Deposits) प्राप्त करने के लिए अपेक्षाकृत ऊँची ब्याज-दर देगी
चाहिए।
(vi)
सदस्यों को अधिक अंश क्रय करने हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
(vii)
सरकार को सहकारी साख समितियों को हिस्सा पूँजी में योगदान करना चाहिए।
(viii)
बकाया ऋण वसूली की समुचित व्यवस्था की जाए।
(ix)
राजनीतिक हस्तक्षेप एवं गुटबन्दी पर रोक लगायी जाए।
(x)
कुशल, प्रशिक्षित एवं ईमानदार कर्मचारियों की नियुक्ति की जाए।
3. व्यापारिक या वाणिज्यिक बैंक (Commercial Bank)-पहले
व्यापारिक बैंक कृषि वित्त में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं देते थे लेकिन 14 व्यापारिक
बैंकों का 1969 को व 6 बैंकों का 15 अप्रैल, 1980 को राष्ट्रीयकरण हो जाने के पश्चात्
इन बैंकों द्वारा अब कृषि वित्त में महत्वपूर्ण योगदान दिया जाने लगा है। ये बैंक अल्पकालीन
और मध्यकालीन दोनों ही प्रकार के ऋण प्रदान करते हैं।
व्यापारिक बैंकों की साख की समस्याएँ (Problems of Credit of
Commercial Banks)
यद्यपि
राष्ट्रीयकरण के पश्चात् कृषि साख में व्यापारिक बैंकों का योगदान बढ़ा है तथापि इनकी
कार्यावधि में अनेक कमियाँ रही हैं जिनमें प्रमुख हैं-
(i)
व्यापारिक बैंकों की बकाया ऋणों की वसूली की समस्या ने विशेष रूप से 1990 में कृषि
ऋणों को माफ कर देने के बाद से भयावह रूप धारण कर लिया है
(ii)
विगत वर्षों में इन बैंकों के प्रशासनिक व्ययों में अत्यधिक वृद्धि हुई है जिसका लाभदायकता
पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
(iii)
ग्रामीण क्षेत्रों में द्रुत गति से शाखाओं का विस्तार किये जाने से उनको प्रबन्धकय
कार्य-कुशलता में कमी आयी है।
(iv)
इन बैंकों ने शहरों तथा कस्बों के निकट के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक साख आबण्टित
की है।
(v)
इन बैंकों से छोटे व सीमान्त किसान तथा कृषि मजदूरों को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ है।
(vi)
एक ही क्षेत्र में काम कर रही विभिन्न बैंकों की शाखाओं के बीच, बैंकों एवं सहकारी
समितियों के बीच तथा बैंकों एवं सरकारी विभागों के बीच सहयोग या तालमेल में अक्सर गंभीर
कठिनाइयाँ पैदा हो जाती हैं।
(vii)
व्यापारिक बैंकों ने भी अपनी ऋण सेवाओं का विस्तार अधिकतर उन्हीं क्षेत्रों में किया
है जिनमें पहले से ही सहकारी समितियाँ कार्यरत थीं ( उदाहरण के लिए देश में पश्चिमी
व दक्षिणी क्षेत्र तथा पंजाब व हरियाणा राज्य)।
(viii)
कई ग्रामीण शाखाएँ साख विकास के कार्यक्रमों को बनाने व उन्हें लागू करने में असफल
रहो हैं क्योंकि उनके पास स्टाफ की कमी है तथा तकनीकी विशेषज्ञों की उपयुक्त मात्रा
में सेवाएँ उपलब्ध नहीं हैं
(ix)
बिना व्यावसासिक सम्भावनाओं पर ध्यान दिए अन्धाधुंध ग्रामीण खाएँ खोलते जाने से जहाँ
एक ओर प्रशासनिक खर्च बढ़े हैं वहीं दूसरी ओर बहुत- ऋण दिए गए हैं जिनकी अदायगी की
सम्भावनाएँ बहुत कम है।
4. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (Regional Rural Banks) — क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों (आरआरबी) की स्थापना 1975 में 26 सितम्बर 1975 को जारी अध्यादेश द्वारा किया गया था और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक अधिनियम 1976 के प्रावधानों के अनुसार इसका उद्देश्य ग्रामीण अर्थतंत्र को कृषि, व्यापार, वाणिज्य, उद्योग और अन्य उत्पादन गतिविधियों से जोड़कर, ऋण और अन्य सुविधाएं प्रदान कर, विशेषतः लघु और सीमांत कृषकों, कृषि श्रमिकों, कलाकारों और छोटे उद्यमियों को तत्संबंधी गतिविधियों में सहयोग प्रदान कर विकसित करना था।
कार्य (Functions)
क्षेत्रीय
ग्रामीण बैंकों के निम्नलिखित कार्य
(i)
ग्रामीण क्षेत्र का विकास तथा इस क्षेत्र के पिछड़े हुए वर्गों को रियायती दर पर वित्तीय
सुविधा उपलब्ध कराना। पिछड़े वर्ग में छोटे व सीमान्त कृषक, ग्रामीण कारीगर, खेतिहर
मजदूर, खुदरा व्यापारी स्वरोजगार में संलग्न व्यक्ति आदि शामिल किये जाते हैं।
(ii)
ग्रामीण क्षेत्र में साख-सुविधाओं की कमी को दूर करने का प्रयत्न करना।
(iii)
ग्रामीण बैंकों के कार्य-क्षेत्र की वित्तीय आवश्यकताओं के अनुरूप कर्मचारियों की नियुक्ति,
क्षेत्र विशेष की समस्याओं का अध्ययन एवं साख आवश्यकताओं के आकलन के पश्चात् साख की
व्यवस्था करना। इन बैंकों का प्रमुख लद्देश्य है।
(iv)
ग्रामीणों को ऋणग्रस्तता को दूर करने का प्रयत्न करना आदि ।
ग्रामीण बैंक एवं व्यापारिक बैंकों में अन्तर (Difference between
Rural Banks and Commercial Banks)
ग्रामीण
बैंक एवं व्यापारिक बैंकों में अन्तर निम्न प्रकार हैं-
(i)
व्यापारिक बैंकों का कार्य-क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत रहता है, जबकि ग्रामीण बैंकों का
कार्य-क्षेत्र एक या दो जिलों तक ही सीमित रखा गया है।
(ii)
ग्रामीण बैंकों का प्रमुख उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र के कमजोर वर्गों की साख आवश्यकताओं
को पूरा करना है, जबकि व्यापारिक बैंक इन वर्गों के साथ-साथ अन्य वर्गों को भी वित्तीय
सुविधाएँ प्रदान करने लिए स्वतन्त्र हैं।
ग्रामीण
बैंकों का विलय-क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को एक करने तथा उन्हें और सशक्त बनाने के
विचार के साथ भारत सरकार ने सितम्बर, 2005 में चरणबद्ध तरीके से इन बैंकों को मिलाने
की प्रक्रिया शुरू की। 31 अगस्त, 2006 तक 134 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को मिलाकर
42 नये बैंक गठित किये गये हैं। इन बैंकों को 16 राज्यों में 18 बैंकों ने प्रायोजित
किया है। अब इनकी संख्या 196 से घटकर कुल 101 रह गयी है। विलय प्रक्रिया अभी जारी है।
कृषि
को संस्थागत ऋण का प्रवाह-विगत वर्षों में कृषि क्षेत्र को संस्थागत ऋणों के प्रवाह
में निरन्तर वृद्धि हुई है। आगे सारणी में कृषि के संस्थागत ऋण में विभिन्न संस्थाओं
का सापेक्षिक हिस्सा दर्शाया गया है।
सारणी : कृषि क्षेत्र की वितरित एजेन्सीवार साख (% में)
उपर्युक्त सारणी के अंकों से स्पष्ट होता है कि-
(i)
ग्रामीण ऋण में सहकारी बैंकों का योगदान प्रतिशत रूप में घटता जा रहा है। 2000 (01
में 89.4 प्रतिशत से 2015 16 में 17.48% प्रतिशत रह गया ।
(ii)
इसी अवधि में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का भाग महत्वहीन है। 8.0 प्रतिशत से 13.60 प्रतिशत
के बीच ही बना रहा है।
(iii)
वाणिज्यिक बैंकों के भाग में लगातार वृद्धि हुई है। 52.6 प्रतिशत से 2015-16 में
68.9 प्रतिशत तक यह अच्छा होगा कि यदि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक वाणिज्यिक बैंकों के
अनुषंगी (Subsidiaries) बना दिए गए।
कृषिगत
ऋण के प्रवाह को बढ़ाने के लिए 2014-15 में र 8,000 करोड़ के लक्ष्य के मुकाबले
2015-16 के लिए ऋण लक्ष्य ₹ 8,50,000 करोड़ नियत कर दिया है लक्ष्य के मुकाबले
2014-15 में यह उपलब्धि ₹ 8,45,328.23 करोड़ (अनन्तिम) है जबकि 2013-14 में यह उपलब्धि
र 7.30.122.62 करोड़ है, वर्ष 2016-17 के लिए कृषि साख प्रवाह का लक्ष्य ₹9,00,000
करोड़ निर्धारित किया गया था। वर्ष 2016-17 में सितम्बर 2016 तक निर्धारित लक्ष्य की
84% राशि वितरित कर दी गई थी, जबकि वर्ष 2015-16 में सितम्बर 2015 तक निर्धारित राशि
का केवल 59% भाग ही वितरित किया गया था।
5. कृषि एवं ग्रामीण विकास का राष्ट्रीय बैंक-नाबार्ड (National
Bank for Agriculture and Rural Development : NABARI) देश
में कृषि एवं ग्रामीण विकास कार्यों की वित्त व्यवस्था करने के लिए 12 जुलाई, 1982
को एक शीर्षस्थ बैंक के रूप में राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की
स्थापना उल्लेखनीय ऐतिहासिक घटना है। नाबाई का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र में कृषि,
लघु एवं कुटीर उद्योग, दस्तकारी एवं ग्रामीण कला के विकास हेतु वित्तीय सुविधा प्रदान
करना है।
नाबार्ड
के तीन मुख्य कार्य हैं-पुनर्वित्त, संस्थात्मक विकास तथा अन्य बैंकों की कार्यविधि
का निरीक्षण । परन्तु इस बैंक ने पुनर्वित्त पर ही ज्यादा जोर दिया है और अन्य दो कार्यों
पर कम ध्यान दिया है।
6. व्यष्टि वित्त Micro Finance) व्यष्टि वित्त गरीबों
के साथ बैंकिंग की एक नयी पद्धति है। इन व्यष्टि वित्त उपायों का मुख्य बल स्व सहायता
समूहों (Self Help Groups), गैर सरकारी संस्थाओं (Non-Government Organisations :
NGO) की स्थापना को बढ़ावा देना है। दूसरी ओर पुनर्वित्त परिक्रामी निधि
(Refinance Revolving Fund) सहायता एवं अनुदान द्वारा इसे बढ़ावा दिया है।
7. किसान क्रेडिट कार्ड योजना (Kisan Credit Card Scheme) किसान
को अल्पकालीन ऋण सहायता प्रदान करने के लिए 1998-99 से किसान क्रेडिट कार्ड योजना शुरू
की गई। इस योजना का कार्यान्वयन वाणिज्यिक बैंकों, केन्द्रीय सहकारी बैंकों और क्षेत्रीय
ग्रामीण बैंकों के माध्यम से किया
8. स्वर्ण-जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना अधीन पुनर्वित्त
(Retinance: Under SGSY)- SGSY के अधीन बैंकों को सलाह दी गई है कि वह
SGSY समूहों को वर्गीकृत करने के लिए आवश्यक मापदण्ड तैयार करने के लिए कृषि और ग्रामीण
विकास के राष्ट्रीय बैंक द्वारा मापदण्डों की निदर्शी सूची (Illustrative List) को
ध्यान में रखें।
9. सहकारी विकास फण्ड (Co-operative Development Fund)-कृषि
और ग्रामीण विकास के राष्ट्रीय बैंक ने 1993 में सहकारी विकास फण्ड की स्थापना की।
इस फण्ड का उद्देश्य सहकारी साख संस्थाओं की संगठनात्मक संरचना, मानव संसाधन विकास,
संसाधन एकत्रण, ऋणों की वसूली इत्यादि गतिविधियों में सुधार व मजबूती लाना है।
10. फसल ऋण (Crop Loan)—किसानों को वर्ष 2006-07 से
ही रियायती ब्याज दरों पर फसल ऋण (Crop Loan) सरकार द्वारा उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
अपने अल्पकालिक ऋणों की समय पर अदायगी करने वालों को ३ प्रतिशत बिन्दु की विशेष रियायत
सरकार द्वारा 2013-14 में उपलब्ध कराई गई, जिससे किसानों के लिए प्रभावी व्याज दर
1 प्रतिशत सालाना रही। 2009-10 में यह विशेष सरकारी सहायता 1 प्रतिशत थी, जिसे बढ़ाकर
10-11 में 2 प्रतिशत तथा 2011-12 में 3 प्रतिशत किया गया था।
11. फसल कृषि उत्पाद ऋण योजना (Crop Agriculture Produce Loan
Scheme- CAPL) किसानों को अपनी उपज का बेहतर मूल्य प्राप्त होने तक उपज
को रोकने में सक्षम बनाने के लिए कॉर्पोरेशन बैंक द्वारा एक नई कृषि ऋण योजना 1 अप्रैल,
2005 से प्रारम्भ की गई है। फसल कृषि उत्पाद ऋण योजना (Crop Agriculture Produce
Loan : CAPL) नाम की यह ऋण योजना मल्टी को मोडिटी एक्सचेंज ऑफ इण्डिया (MCX) के सहयोग
से प्रारम्भ की गई है। इस ऋण योजना के चलते किसानों ने अपनी उपज का सेण्ट्रल वेयर हाउसिंग
कॉर्पोरेशन किसी गोदाम में अथवा एमसीएक्स द्वारा मान्यता प्राप्त किसी गेदाम में भण्डारण
करके उसकी रसीद के आधार पर कॉर्पोरेशन बैंक से ऋण प्राप्त कर सकते हैं।
कृषि साख की समस्याएँ (PROBLEMS OF AGRICULTURAL CREDIT)
भारत
में कृषि साख की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-
1. साख वाली संस्थाओं का अभाव (Lack of Financing Institutions)-ग्रामीण
क्षेत्रों में साख प्रदान करने वाली संस्थाओं का अभाव है। अत: यहाँ महाजन व साहूकार
ही प्रमुख रूप से ऋण प्रदान करने वाले स्रोत बने हुए हैं।
2. समन्वय का अभाव (Lack of Co-ordination) कृषि
वित्त सम्बन्धी आपूर्ति करने वाली विभिन्न संस्थाओं के कार्य-कलापों में समन्वय का
अभाव है।
3. अधिक लागत (More Cost) कृषकों को ऋण लेने के लिए
अपने भूमि सम्बन्धी कागजात 'नो ड्यूज सर्टिफिकेट' से सम्बन्धित लेख प्राप्त करके जमा
करने होते हैं। इस कार्य के लिए सम्बन्धित कर्मचारियों को सुविधा शुल्क देना होता है।
अतः ऋण की वास्तविक लागत बढ़ जाती है।
4. समय व धन की हानि (Loss of Time and Money)-कृषकों
को ऋण प्राप्त करने में प्रायः अनेक बार वित्तीय संस्थाओं के चक्कर लगाने पड़ते हैं
जिसमें समच तथा धन की हानि होती है।
5. कृषि भण्डारण की समस्या (Problem of Agriculture Warehousing)—ग्रामीण
क्षेत्र में कृषि उत्पादन के भण्डारण की उचित व्यवस्था नहीं की जा सकी है जिसके परिणामस्वरूप
कृषक अपनी उपज को गोदामों में जमानत के रूप में रखकर ऋण प्राप्त नहीं कर पाते हैं।
6. ऊँची ब्याज दर (High Rate of Interest) ग्रामीण
क्षेत्रों में जो साहूकार व महाजन साख प्रदान करते हैं, वे किसानों से ऊँची दर से ब्याज
लेते हैं।
7. ऋण आवश्यकतानुसार एवं उचित समय पर नहीं (Non-availability of
Loan at Proper Time)—कृषकों को आवश्यकतानुसार एवं उचित समय पर ऋण
नहीं मिल पाता।
8. कार्य-प्रणाली में विभिन्नता (Differences in Working System)—वित्त
प्रदान करने वाली संस्थाओं को कार्य-प्रणाली में विभिन्नता पायी जाती है जिससे कृषकों
को ऋण प्राप्त करने में नई-नई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
बारहवीं योजना में कृषि वित्त (AGRICULTURAL FINANCE IN TWELFTH
PLAN)
1.
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को अधिक सुदृढ़ व एकीकृत किया जाएगा।
2.
किसानों को पर्याप्त मात्रा में उचित समय पर वित्तीय सहायता उपलब्ध करवाई जाएगी।
3.
सहकारी साख संरचना का पुनर्गठन किया जाएगा ताकि दराज व ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों
की बैंकिंग संस्थाओं तक सुगम पहुँच बन पाए।
4.
भूमिहीन/सीमान्त किसानों के पास ऋण लेने के लिए प्रतिभूति हेतु सम्पत्ति नहीं होती,
अतः ₹ 1,00,000 तक के ऋणों को प्रतिभृति/प्रतिभूति की अनिवार्यता में मुक्त रखा जाएगा।
5.
किसान क्रेडिट कार्ड OCs) के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाएगा।
6.
बारहवीं योजना में ₹ 35 लाख करोड़ से ₹ 42 लाख करोड़ तक की कृषि साख सुविधा उपलब्ध
करवाने का प्रावधान बनाया गया है।
कृषि
ऋण प्रवाह को बेहतर करने के लिए 2016-17 में कृषि ऋणों का लक्ष्य १५ लाख करोड़ का था
जो एक वर्ष पूर्व 2015-16 में ₹ 8.5 लाख करोड़ का था। आर्थिक समीक्षा में बताया गया
है कि 2016-17 में कृषिगत ऋणों के कुल लक्ष्य का 84 प्रतिशत सितम्बर 2016 तक हासिल
कर लिया गया था। 2015-16 में सितम्बर माह तक प्राप्ति 59 प्रतिशत हो थी।
कृषि वित्त प्रणाली में सुधार के उपाय (MEASURES FOR IMPROVEMENT
IN AGRICULTURAL FINANCE SYSTEM)
कृषि
वित्त व्यवस्था में विद्यमान दोषों को दूर करना कृषि और कृषक समुदाय की उन्नति के लिए
आवश्यक है। इसके लिए निम्नलिखित कदम उठाये जा सकते हैं-
1. संस्थागत साख का विस्तार (Expansion of Institutional Credit)—कृषकों
को महाजनों व साहूकारों से मुक्ति प्रदान करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में संस्थागत
साख का तेजी से विस्तार किया जाना चाहिए। इसके लिए क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों व सहकारी
वित्तीय संस्थाओं, जैसे-सहकारी समितियों का विस्तार किया जाना चाहिए जिससे कि प्रत्येक
गाँव का कृषक इनसे लाभ उठा सके।
2. व्यापारिक बैंकों का ग्रामीण क्षेत्र में विस्तार (Expansion of
Commercial Bunks in Rural Areas)—कृषि वित्त के क्षेत्र में
वाणिज्य के योगदान में भारी वृद्धि लाना आवश्यक है। यह योगदान विभिन्न दिशाओं से बढ़ाया
जा सकता है। एक आवश्यक बात यह है कि ये बैंक ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी शाखाएँ बढ़ायें
और अधिकाधिक मात्रा में वहाँ बचत की राशियों को इकट्ठा करें।
3. जमानत पर जोर देना (Emphasis on Pledge) छोटे
कृषकों को ऋण देते समय जमानत देने पर अधिक जोर न दिया जाय बल्कि इस बात का ध्यान रखा
जाय कि कृषकों की ऋण चुकाने की क्षमता कैसी है ?
4. विभिन्न वित्तीय संस्थाओं में समन्वय (Co-ordination in
Different Financial Institutions)—विभिन्न वित्तीय संस्थाओं में
आपस में प्रभावी समन्वय होना चाहिए जिससे कि वे उन्हीं स्थानों पर विस्तार कर सकें
जहाँ विस्तार की आवश्यकता है।
5. ऋण की मात्रा, उपलब्धि एवं समय (Quantity, Availability and
Time of Loans)- कृषि सम्बन्धी विभिन्न कार्यों के लिए आवश्यक
मात्रा में ऋण का उपलब्ध होना आवश्यक है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि ऋण कम ब्याज पर
और यथासमय उपलब्ध हो, ताकि उसका उचित प्रयोग किया जा सके।
6. ऋण प्रणाली में एकरूपता (Uniformity in Credit Policy)—सभी
वित्तीय संस्थाओं को ऋण प्रदान करने सम्बन्धी कार्य-प्रणाली में एकरूपता तथा सरलीकरण
करना आवश्यक है जिससे कि अशिक्षित एवं ऋण लेने वाले कृषकों को कठिनाइयों का सामना करना
न पड़े।
7. ऋण का उत्पादक कार्यों में प्रयोग (Use of Credit for Productive Purposes)— ऋण के समुचित प्रयोग के लिए ऐसी उचित व्यवस्था होनी चाहिए जिससे कि ऋण का प्रयोग उत्पादन कार्यों के लिए हो सके।