भूमि सुधार (LAND REFORMS)

भूमि सुधार (LAND REFORMS)

भूमि-व्यवस्था (LAND TENURE)

भूमि व्यवस्था का अर्थ (Meaning of Land Tenure) भूमि व्यवस्था से तात्पर्य उस व्यवस्था से है जिसमें किसानों के भूमि सम्बन्धी अधिकारों एवं उत्तरदायित्वों की व्यवस्था होती है। अधिक स्पष्ट शब्दों में, भूमि-व्यवस्था से आशय (i) भूमि के स्वामी, (ii) भूमि को जोतने वाले का भूमि के प्रति कर्तव्य, अधिकार एवं दायित्व तथा (ii) मालगुजारी देने के लिए राज्य से सम्बन्ध को व्याख्या से है। इस प्रकार भूमि-व्यवस्था से तात्पर्य भूमि के स्वामित्व और उसके प्रबन्ध की प्रणाली से है।

भूमि-सुधार का अर्थ एवं उद्देश्य (MEANING AND OBJECTIVES OF LAND REFORM)

भूमि सुधार का अर्थ (Meaning of Land Reform) अर्थशास्त्री भूमि-सुधार शब्द का उपयोग दो अर्थों में करते हैं-(अ) संकुचित अर्थ में और (ब) व्यापक अर्थ में।

संकुचित अर्थों में, भूमि-सुधार शब्द का प्रयोग उन सब सुधारों के लिए किया जाता है जिनका सम्बन्ध भूमि स्वामित्व (Land Ownership) तथा भूमि जोत (Land Holding) दोनों से होने वाले सुधारों से है।

विस्तृत अर्थों में, भूमि-सुधार शब्द का प्रयोग भूमि-व्यवस्था सम्बन्धी उन सुधारों के लिए किया जाता है जिनके फलस्वरूप कृषि की उत्पादकता बढ़ती है। जैसे-साख, विपणन, मध्यस्थों की समाप्ति, लागत सम्बन्धी सुधार आदि।

डॉ. बी. बी. सिंधु के अनुसार, "पट्टेदारी तथा कृषि ढाँचे की प्रणाली में किसी विशेष उद्देश्य के लिए किये जाने वाले परिवर्तनों को भूमि सुधार कहा जाता है।"

मिर्डेल के अनुसार, “मनुष्य तथा भूमि में पाए जाने वाले सम्बन्ध के योजनात्मक तथा संस्थागत पुनर्गठन को भूमि सुधार कहते हैं।"

संक्षेप में, "भूमि सुधारों का आशय भूमि के स्वामिल, काश्त तथा प्रबन्ध से सम्बन्धित नीतियों में किये गये सभी प्रकार के परिवर्तनों से है।"

सामान्यत: भूमि सुधार के अन्तर्गत निम्नलिखित बातें सम्मिलित हैं- 1. मध्यस्थों की समाप्ति, 2. काश्तकारी कानूनों में सुधार, 3. जोत की अधिकतम सीमा निर्धारित करना, 4. उपविभाजन तथा अपखण्डन को रोकना, 5. सहकारी कृषि को बढ़ावा देना तथा 6. चकबन्दी।

भूमि-सुधार के उद्देश्य (Oujectives of Land Reforms) भूमि सुधार अलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है-

1. कृषि उत्पादन में वृद्धि (Increase in Agricultural Production)-भूमि सुधार का प्रमुख उद्देश्य कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए कृषि में निहित बाधाओं को दूर करना है।

2. सामाजिक न्याय (Social Justice) — भूमि-सुधार का दूसरा उद्देश्य कृषि पद्धति में विद्यमान शोषण तथा सामाजिक अन्याय के सभी तत्वों को समाप्त करना है, ताकि किसान को सुरक्षा प्राप्त हो सके।

3. राजनीतिक उद्देश्य (Political Objectives) भूमि-सुधार का तृतीय उद्देश्य राजनीतिक है जिसके अन्तर्गत ग्रामीण जनसमूह को अपने पक्ष में करने के लिए इस प्रकार की योजनाएँ बनायी जाती हैं और कार्य रूप में परिणित की जाती हैं।

भारत में भूमि-सुधार नीति (LAND REFORMS POLICY IN INDIA)

भारत में भूमि-सुधार नीतियों को मुख्यतया दो भागों में बाँटा जा सकता है-(I) स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पूर्व भूमि सुधार नीति तथा (II) स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भूमि सुधार नीति।

I. स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पूर्व भारत में मुख्यतया तीन प्रकार की भूमि व्यवस्थाएँ पायी जाती थी-

1. जमींदारी व्यवस्था (Zamindari System)—इस व्यवस्था में भूमि का स्वामित्व कुछ ही हाथों में होता था जिन्हें जमींदार कहा जाता था। इस व्यवस्था में किसान जमींदारों से पट्टे पर जमीन लेते थे और बदले में वे जींदार को लगान के रूप में उत्पादन का हिस्सा देते थे। जमींदार इसमें से कुछ भाग सरकार को मालगुजारी के रूप में देते थे तथा बाकी अपने पास रखते अत: जमींदार सरकार और किसान के बीच बिचौलिये का काम करते थे।

2. महालवारी व्यवस्था (Mahalwari System)—इस व्यवस्था में सरकार द्वारा पूरे वर्ष के लिए एक निश्चित राशि मालगुजारो के रूप में निश्चित कर दी जाती थी जिसको शुगतान करने का दायित्व ग्राम समुदाय का होता था अर्थात् इस व्यवस्था में भूमि पर सरे ग्राम समुदाय का अधिकार होता था तथा जमीन गाँव के सभी लोगों में बाँट दी जाती थी और वे उस पर खेती करते थे।

3. रैयतवारी व्यवस्था (Rayatwari System) इस व्यवस्था में खेती करने वाला किसान स्वयं सरकार को मालगुजारी देता था जब तक वह नियमित रूप से मालगुजारी देता रहता था, तब तक उसे बेदखल नहीं किया जाता था। उसे भूमि बेचने का भी अधिकार होता था।

II. स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् सरकार द्वारा पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से भूमि-सुधार नीतियों का क्रियान्वयन किया जाने लगा।

प्रथम पंचवर्षीय योजना में राज्यों द्वारा भूमि-सुधार योजना को रूपरेखा बनाने के लिए कहा गया, जबकि दूसरी योजना मध्यस्थ किरायेदारों की समाप्ति, काश्तकारी व्यवस्था में सुधार, भूमि की उच्चतम सीमाओं का निर्धारण, चकबन्दी और कृषि व्यवस्था के पुनर्गठन की बात कही गयी। तीसरी, चौथी व पाँचवीं योजनाओं में भूमि-सुधार कार्यक्रमों को तेजी से लागू करने पर जोर दिया गया।

छठी पंचवर्षीय योजना में भू-स्वामित्व के सम्बन्ध में वैधानिक उपाय, जोतों की सीमाबन्दी, अभिलेखों को नवीनतम करने तथा राज्यों में चकबन्दी कार्यक्रम चलाये जाने की बात कही गयी।

सातवीं पंचवर्षीय योजना में वर्तमान भूमि कानूनों को कड़ाई से लागू करने की बात कही गयी।

आठवीं पंचवर्षीय योजना में भी भूमि सुधार को गरीबी विरोधी कार्यक्रम का अभिन्न अंग स्वीकार किया गया। जिन राज्यों में काश्तकारों के सुरक्षा व लगान नियमन के अधिनियम नहीं बनाये गये थे, उनमें इस दिशा में कार्य करने की बात कही गयीं। आठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान भूमि के संस्थानात्मक ढाँचे को पुनर्गठित करके उसे सीमान्त उत्पादों के समीप लाने का प्रयास किया गया।

नौवीं एवं दसवीं पंचवर्षीय योजना में भूमि रिकाडो के अभिलेखों के नियमित संशोधन एवं कम्प्यूटरीकरण पर बल दिया गया।

भारत में भूमि-सुधार कार्यक्रमों के लिए उठाये गये कदम (STEPS TAKEN FOR LAND REFORMS IN INDIA)

भारत में भूमि सुधार के अनेक कार्यक्रम चलाये गये हैं जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-

I. मध्यस्थों या जींदारों का उन्मूलन,

II. काश्तकारी व्यवस्था में सुधार-

1. लगान नियमन, 2. भूमि-धारक की सुरक्षा, 3. काश्तकारों का भूमि के स्वामी बनने का अधिकार,

III. जोतों की सीमा का निर्धारण,

IV. जोतों की चकबन्दी,

V. सहकारी कृषि,

VI. भू-दान,

VII. भूमि सम्बन्धी नवीनतम् रिकॉर्ड

I. मध्यस्थों या जमींदारों का उन्मूलन (ABOLITION OF INTERMEDIARIES OR ZAMINDARS)

भूमि-सुधार प्रयत्नों में सबसे पहला प्रयत्न मध्यस्थों व जमींदारों की समाप्ति के लिए किया गया। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय लगभग 40 प्रतिशत भूमि इस व्यवस्था के अन्तर्गत थी। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् प्रत्येक राज्य में जींदारी उन्मूलन के लिए राज्य स्तर पर कानून पास किये गये। सन् 1954 तक देश के सभी राज्यों ने जमींदारी उन्मूलन सम्बन्धी कानून बना लिये गये थे। जमींदारों के उन्मूलन के फलस्वरूप 4 करोड़ से अधिक किसानों का सरकार से सीधा सम्बन्ध स्थापित हुआ। कृषि योग्य बंजर भूमि का बड़ा भाग जो पहले बिचौलियों के अधीन था, राज्य सरकारों द्वारा ले लिया गया है और उसे भूमिहीन कृषकों में बाँट दिया गया है।

विभिन्न राज्यों द्वारा जींदारी उन्मूलन के लिए जो कानून बनाये गये, उनमें समेकित रूप से निम्नलिखित समानताएँ थीं.

1. राज्य तथा किसानों के बीच से मध्यस्थों का उन्मूला।

2. भू-स्वामियों को क्षतिपूर्ति का भुगतान । जम्मू एवं कश्मीर राज्य को छोड़कर शेष सभी राज्यों में जौंदारी प्रथा का उन्मूलन कर दिया गया तथा इसके बदले में उन्हें क्षतिपूर्ति दी गयीं। क्षतिपूर्ति का आधार, दरें तथा भुगतान की रीति सभी राज्यों में अलग अलग थीं।

3. लगभग सभी राज्यों में ऐसी भूमि जिस पर जमींदार लगन ही नहीं ले रहे थे तथा जिस भूमि पर उनके द्वारा स्वयं या उनकी देख-रेख में श्रमिकों द्वारा खेती की जा रही थी, को उनकी खुदकाश्त मान लिया गया और वह भूमि उनके स्वामित्व में ही बनी रहने दी गयी।

जमींदारी के उन्मूलन के प्रभाव (Effects of Abolition of Zuminduri)

भारत में जमींदारी उन्मूलन अधिनियम में अनेक कमियाँ थीं फिर भी इससे अर्थव्यवस्था पर निम्नलिखित अच्छे प्रभाव पड़े-

1. शोषण का अन्त जमींदारी द्वारा काश्तकारों का जो शोषण किया जाता था, उसका सान्त जमींदारी उन्मूलन से हो गया है।

2. उत्पादन में वृद्धि-जमींदारी उन्मूलन प्रथा से करोड़ों काश्तकारों को भूमि का स्वामित्व प्राप्त हुआ है जिससे वे अब कृषि भूमि में स्थाई सुधार करने लगे हैं।

3. सरकारी आय में वृद्धि-जमींदारो उन्मूलन से सरकारी आय में भी वृद्धि हुई है क्योंकि पहले जो आय मध्यस्थों द्वारा हड़प ली जाती थी, वह अब सरकार को प्राप्त होने लगी।

4. सामन्तवाद का अन्त-जमींदरी के अन्त से सामन्तवाद का अन्त हो गया है।

5. कृषकों का सरकार से सीधा सम्बन्ध-जींदारी उन्मूलन से कृषकों का सरकार से सीधा सम्बन्ध स्थापित हो गया है जिससे उन्हें सरकारी सहायता मिलने में आसानी रहती है।

6. भूमिहीन किसानों को भूमि-जर्मीदारी उन्मूलन के फलस्वरूप अब तक लगभग एक करोड़ काश्तकारों को भूमि पर स्वामित्व का अधिकार प्रदान किया जा चुका है।

II. काश्तकारी व्यवस्था में सुधार (REFORMS IN TENANCY SYSTEM)

जब कृषि भूमि पर उसका स्वामी खुद खेती नहीं करता बल्कि दूसरे व्यक्ति को लगान पर जोतने के लिए दे देता है तो उस व्यक्ति को काश्तकार ( Tenant) कहते हैं तथा इस प्रथा को काश्तकारी प्रथा कहते हैं।

भारत में काश्तकारी प्रथा काफी समय से पाई जाती रही है। उसमें सुधार करने के लिए स्वतन्त्रता के बाद विशेष कानून पास किये गये जिनकी मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. लगान का नियमन (Regulation of Rent)—स्वन्त्रता से पूर्व जमींदारी प्रथा में काश्तकारों से साधारणतया उनकी कुल उपज का आधा या इससे अधिक भाग लगान के रूप में लिया जाता था। इससे कृषकों के पास उपज का बहुत कम हिस्सा रह पाता था। स्वतन्त्रता के पश्चात् लगान की अधिकतम मात्रा निर्धारित करने के सम्बन्ध में कानून पास कर दिये गये हैं। लगान की मात्रा को कुल उपज के 20 से 25 प्रतिशत भाग तक सीमित रखा गया।

2. भू-धारक की सुरक्षा या पट्टे की सुरक्षा (Security of Tenure) — भूमि-धारण को सुरक्षा का अभिप्राय काश्तकारों को स्थाई भूमि अधिकार मिलने से है, ताकि उन्हें बेदखल नहीं किया जा सके। भू-धारण की सुरक्षा हेतु विभिन्न राज्यों ने मोटे तौर पर निम्न कानून बनाये हैं ताकि

(i) सभी काश्तकारों को 'पट्टे की पूर्ण सुरक्षा' दी जाये। यह नियम उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और दिल्ली में लागू किया गया।

(ii) भू-स्वामियों को एक सीमित क्षेत्र पर 'खुदकश्त' का अधिकार दिया जाय। यह नियम गुजरात, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, असम और पंजाब में लागू किया गया।

3. काश्तकारों का भूमि के स्वामी बनने का अधिकार (Right. of Ownership for Tenants) 'भूमि जोतने वाले की हो' यह भूमि सुधार का एक प्रमुख उद्देश्य रहा है। कई राज्यों में पट्टेदारों को स्वामित्व अधिकार दिलाने के लिए वैधानिक व्यवस्था की गयी है जिसके अन्तर्गत पट्टेदार निधारित शतिपूर्ति के बाद भूमि पर स्वामित्व अधिकार कर सकता है। इस सम्बन्ध में अभी आन्ध्र प्रदेश, बिहार, असग, हरियाणा, जम्मू एवं कश्मीर, पंजाब में ऐसे अधिनियग नहीं हैं।

ऐसा अनुमान लगाया गया है कि काश्तकारों को भू स्वामित्व अधिकार देने से विभिन्न राज्यों में 124.20 लाख काश्तकारों को लगभग 63.20 लाख हेक्टेअर भूमि प्राप्त हुई है। काफी समय तक बहुत-से काश्तकारों ने अपनी काश्त अधीन भूमि को खरीदने के लिए कोई कदम नहीं उठाए। इसके मुख्य रूप से दो कारण थे-(i) बहुत-से काश्तकारों के पास भूमि स्वरीदने के लिए धन की व्यवस्था नहीं थी तथा (ii) बहुत-से काश्तकारों ने भूमि खरीदने की अनिच्छा व्यक्त को।

III. जोतों की सीमा-निर्धारण (CEILING OF LAND HOLDINGS

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भूमि-सुधार कार्यक्रम के अन्तर्गत जोतों की अधिकतम समा का निधारण किया गया है। इसके दो उद्देश्य थे-प्रथम, जोत की अधिकतम सीमा का निर्धारण करना जिससे भूमि का केन्द्रीकरण रोका जा सके। द्वितीय, इस अधिकतम सीमा से अधिक भूमि रखने वाले भू स्वामियों से सीमा से अधिक भूमि लेकर छोटे कृषकों एवं भूमिहीन कृषकों में उसका वितरण करना जिससे उन्हें सामाजिक न्याय मिल सके।

1. सहकारी कृषि (Co-operative Agriculture)—बड़ी जोतों को समाप्ति में समानता आयेगी तथा सहकारी कृषि को प्रोत्साहन मिलेगा

2. रोजगार में वृद्धि (Increase in Employment)—अधिकतम जोत-निर्धारण से जोत लघु एवं मध्यम आकार की रह जायेगी जिससे रोजगार में वृद्धि होगी।

3. चकबन्दी को प्रोत्साहन (Encouragement to Consolidation of Holdings)- अधिकतम जोत-निर्धारण के नियमों के कारण जोतों का आकार छोटा हो जाता है जिससे चकबन्दी कार्यक्रम को प्रोत्साहन मिलता है

4. गहन खेती को प्रोत्साहन (Encouragement to Intensive Agriculture) अधिकतम जोत निर्धारण से गहन खेती को प्रोत्साहन मिलेगा और कृषि उत्पादकता में वृद्धि होगी।

5. भूमि के असमान वितरण में कमी (Reduction in Inequality in Distribution)- अधिकतम जोत सीमा-निर्धारण से भूमि वितरण की विषमताएँ दूर हो जायेंगी।

IV. जोतों की चकबन्दी (CONSOLIDATION OF HOLDINGS)

आशय (Concept) खेत की चकबन्दी से हमारा अभिप्राय खेतों के उस पुनर्संगठन से है जिसमें भूमि के बहुत छोटे छोटे अथवा बिखरे हुए टुकड़ों को एक स्थान पर एकत्रित किया जा सके। स्क्रिटलैण्ड के अनुसार, "चकबन्दी वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा स्वामित्वधारी काश्तकारों को इस बात के लिए मनाया अथवा बाध्य किया जाता है कि वे इधर-उधर बिखरे र हुए टुकड़ों को त्यागकर उनके बदले में उसी किस्म के उतने ही आकार के एक या दो चक (खेत) ले लें।"

चकबन्दी के प्रकार (Kinds of Consolidation)

चकबन्दी दो प्रकार से की जा सकती है-

1. ऐच्छिक चकबन्दी व 2. अनिवार्य चकबन्दी।

1. ऐच्छिक चकबन्दी (Voluntary Consolidation)—यह कृषकों की परस्पर सहमति से की जाती है। इसकी शुरुआत सहकारी समितियों द्वारा 1921 में पंजाब में की गई लेकिन इसमें वांछनीय सफलता प्राप्त नहीं हुई

2. अनिवार्य चकबन्दी Compulsory Consolidation)—कानून द्वारा जब चकबन्दी अनिवार्य रूप में की जाती है तो उसे अनिवार्य चकबन्दी कहते हैं। यह दो प्रकार की हो सकती है-

(i) आंशिक अनिवार्यता (Partial Compulsion)—इसके अनुसार यदि गाँव के अधिकतर लोग चकबन्दी को तैयार हों तो बाकी लोगों को भी कानून के अनुसार चकबन्दी जरूर करनी पड़ती है। इसका कानून सबसे पहले मध्य प्रदेश में 1923 में पास हुआ था। पंजाब में इसी प्रकार का कानून 1936 में पास हुआ था। इसके अनुसार यदि किसी गाँव के कुछ किसान जिनके पास भूमि है, चकबन्दी के लिए तैयार हो जायें तो बाकी को तैयार होना पड़ता है।

(ii) पूर्ण अनिवार्यता (Complete Compulsion)—इसमें कानून बनाकर सरकार अपनी ओर से ही अनिवार्य चकबन्दी करती है। इसके लिए सबसे पहला कानुन 1947 में पास किया गया था। पंजाब में यह कानून 1948 में पास कर दिया गया। अब तो कई राज्यों में यह कानून पास कर दिया गया है।

प्रगति (Progress) भारत में सभी राज्यों में (गोवा तथा उत्तर-पूर्व के राज्यों को छोड़कर) अधिकतम सोमा कानून पारित किए जा चुके हैं परन्तु कानूनों को कड़ाई से लागू नहीं किया जा सका। अत: भारत में चकबन्दी की प्रगति बड़ी धीरे-धीरे हो रही है। अभी तक केवल पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश में चकबन्दी का काम खत्म हुआ है। उत्तर प्रदेश में 482 लाख हेक्टेअर तथा महाराष्ट्र में 527 लाख हेक्टेअर भूमि पर चकबन्दी की गई है। 31 मार्च, 2001 तक भारत में 1,633 लाख हेक्टेअर भूमि पर चकबन्दी का कार्य पूरा हो चुका है।

जोतों की सीमा निर्धारण की आवश्यकता निम्नलिखित घटकों के सन्दर्भ में अनुभव की गई-

1. रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना, 2. कृषि आय असमानताओं में कमी लाना, 3. भूमि की सीमितता के कारण भूमि पर उचित सन्तुलन स्थापित करना।

बारहवीं पंचवर्षीय योजना के अनुसार,अब तक केवल 30 लाख हेक्टेअर भूमि को अतिरिक्त (surplus) घोषित किया जा सका है जो भारत के निवल बोए गए क्षेत्र (net sown area) का मात्र 2 प्रतिशत है। इस भूमि का भी लगभग 30 प्रतिशत वितरित नहीं किया जा सका है क्योंकि वह कानूनी विवादों में फंसा है। इसके अलावा बेनामी व चोरी छुपे किए गए आदान-प्रदानों के कारण भूमि के काफी बड़े हिस्से पर सीमाबंदी से अधिक भूमि पर कुछ लोगों ने कब्जा जमा रखा है। इस तरह के समाचार बड़े पैमाने पर मिलते रहते हैं कि भूमिहीन परिवारों को जो भूमि हस्तान्तरित की है उसका बहुत-सा हिस्सा बंजर व अनुत्पादक है। इस भूमि को ये परिवार बेचने को मजबूर होते हैं क्योंकि उनके पास इस भूनि को उत्पादक बनाने के लिए निवेश करने की क्षमता नहीं होती। ऐसा भी हुआ है कि लाभभोगियों को भूमि के पट्टे तो दिए गए परन्तु पट्टे में लिखी भूमि पर उन्हें अधिकार नहीं दिया गया या भूमि रिकॉर्डों में अनुरूप परिवर्तन नहीं किए गए।

इसके अलावा, जैसाकि बारहवीं पंचवर्षीय योजना में स्वीकार किया गया है, ग्रामीण भारत में भूमिहीन व गरीब लोगों के खिलाफ शक्तियों का पलड़ा इतना भारी है कि सीमाबन्दी कानूनों को लागू करना मुश्किल है। यह स्पष्ट है कि जब तक ग्रामीण निर्धनों को बड़े पैमाने पर संगठित (mobilise) नहीं किया जाता और स्थानीय प्रशासन-व्यवस्था को मजबूत व कारगर नहीं बनाया जाता तब तक इस दिशा में कोई खास सफलता मिलने की आशा नहीं है। इस सन्दर्भ में पश्चिम कंगाल उदाहरण है जिसमें सीमाबन्दी से लाभान्वित देश के कुल लोगों का 50 प्रतिशत से अधिक है यह राज्य इस बात का प्रतीक है कि प्रशासन की इच्छाशक्ति यदि मजबूत है तो क्या कुछ किया जा सकता है।

विभिन्न राज्यों के कानूनों में एकरूपता लाने के लिए जुलाई 1972 में मुख्यमन्त्रियों को एक बैठक बुलाई गई। इस बैठक में हुए विचार-विमर्श के आधार पर उच्चतम सीमा के बारे में नई नीति बनाई गई। इस नीति की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं-

1. उच्चतम सीमा निर्धारण के लिए परिवार को इकाई माना जाएगा। इस प्रकार जिन राज्यों में व्यक्तियों की इकाई माना गया था उनसे कहा गया कि वे कानूनों के संशोधन करके परिवार को इकाई स्वीकार करें।

2. उच्चतम सोमा कानूनों से रियायतों व छूटों को कम किया जाएगा।

3. उच्चतम सीमा को जल उपलब्धि वाले क्षेत्रों में 18 एकड़ तथा असिंचित क्षेत्रों में 54 एकड़ तक सीमित कर दिया गया।

4. न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से बाहर करने के लिए इन कानूनों को संविधान की नौवीं सूची में शामिल कर दिया गया है। इसलिए अब जिन लोगों से भूमि ली जाएगी वे मौलिक अधिकारों के हनन को लेकर न्यायालयों का दरवाजा नहीं खटखटा सकेंगे।

5. बेनामी हस्तान्तरणों को रोकने के दृष्टिकोण से कानून को पहले की किसी अवधि से लागू माना जाएगा (retrospective application of law) इससे लाभ यह होगा कि उस समय के बाद से हुए सारे बेनामी हस्तान्तरण गैर-कानूनी करार दिए जा सकेंगे।

अधिकतम जोत सीमा-निर्धारण के पक्ष में तर्क (Arguments in Favour of Ceiling of Land Holdings)

1. समाजवादी अर्थव्यवस्था में सहायक (Helpful in a Socialistic Economy)—यह नियम केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करते हैं और समाजवादी अर्थव्यवस्था में सहायता देते हैं तथा राजनीतिक जागृति की आकांक्षाओं को पूरा करते हैं।

2. कृषि आय का समान वितरण (Equal Distribution of Agriculture Income)- इससे कृषि आय का समान वितरण करने में सुविधा होगी।

चकबन्दी के गुण (Merits of Holdings)

शाही कृषि कमीशन के शब्दों में, "भारतीय कृषकों को भूमि के उपविभाजन और अपखण्डन की समस्या से छुटकारा दिलाने का एकमात्र साधन चकबन्दी ही है।" संक्षेप में, चकबन्दी से निम्नलिखित लाभ हैं-

1. वैज्ञानिक कृषि-इससे खेतों का आकार बढ़ जाने से वैज्ञानिक कृषि की सम्भावना प्रबल हो जाती है।

2. भूमि अपव्यय की बचत-भिन्न-भिन्न स्थानों के खेतों में बाउण्ड्री लगानी पड़ती है जिससे भूमि का अच्छा खासा हिस्सा निकल जाता है लेकिन जब सभी खेत एक-चक होते हैं तो कम भूमि बाउण्ड्री में निकलती है। इस प्रकार भूमि का अपव्यय न होने से बचत होती है।

3. भूमि की उचित व्यवस्था-छोटे-छोटे खेतों की रखवाली करना कठिन होता है लेकिन जब ये खेत एक-चक के रूप में हो जाते हैं तो उसको उचित देखभाल की जा सकती है।

4. पारस्परिक विवादों में कमी-चकबन्दी से पारस्परिक झगड़े समाप्त होकर प्रेम और सहयोग की भावना बढ़ती है।

5. रहन-सहन में सुधार-चकबन्दी से कृषि उत्पादन में वृद्धि होती है, फलतः कृषकों की आय बढ़ती है और उनके जीवन-स्तर में सुधार होता है।

6. पूँजीगत उपकरणों का पूर्ण उपयोग-चकबन्दी के कारण कृषकों के द्वारा अपने पूँजीगत उपकरणों हल, बैल, यन्त्र आदि का पूरा पूरा उपयोग किया जा सकता है।

7. श्रम एवं अन्य साधनों की बचत-चकबन्दी के कारण एक खेत से दूसरे खेत पर जाने में नष्ट होने वाला श्रम और धन बच जाता है।

जोतों की चकबन्दी में कठिनाइयाँ (Difficulties in Consolidation of Holdings)

भारत में भूमि की चकबन्दी के कार्य में बहुत सो कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है जिनमें प्रमुख निम्नलिखित है-

1. भूमि का मूल्यांकन-चकबन्दी में भूमि के मूल्यांकन का कार्य अत्यन्त आवश्यक है, ताकि क्षतिपूर्ति का अनुमान लगाया जा सके।

2. भूमि अधिकार सम्बन्धी दोषयुक्त अभिलेख-अभी तक देश के कई क्षेत्रों में भूमि अधिकार सम्बन्धी अभिलेख अपूर्ण हैं तथा कई क्षेत्रों में वे दोषपूर्ण हैं।

3. प्रशिक्षित कर्मचारियों का अभाव भारत में प्रशिक्षित कर्मचारियों का अभाव है।

4. किसानों की निरक्षरता व अज्ञानता-भारत में अधिकांश किसान अभी अशिक्षित एवं रूढ़िवादी हैं जिसके फलस्वरूप वे चकबन्दी के लाभों को ठीक तरह नहीं समझ पाते।

5. वित्त का अभाव-चकबन्दी कार्यक्रम को सफलतापूर्वक कार्यान्वित करने के लिए पर्याप्त वित्त का अभाव है जिसके कारण चकबन्दी कार्य में शिथिलता आ जाता है।

चकबन्दी की सफलता के लिए सुझाव (Suggestions for the Success of Consolidation)

भारत में चकबन्दी की सफलता के लिए निम्नलिखित सुझाब दिये जाते हैं-

1. चकबन्दी को कानून द्वारा अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए।

2. चकबन्दी का कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व प्रत्येक गाँव की समस्त भूमि का सर्वेक्षण किया जाना चाहिए।

3. एकसमान उपजाऊ तथा सिंचाई सुविधाओं वाले क्षेत्रों में चकबन्दी कार्यक्रमों को प्राथमिकता दी जाय जिससे चकबन्दी के लाभ शीघ्र दृष्टिगोचर होने लगें।

4. जोतों के न्यूनतम आकार के कम हो जाने पर उसके पुन: उपविभाजन तथा विखण्डन पर कानूनी रोक लगायी जाय, तभी चकबन्दी के लाभों में स्थायित्व सम्भव होगा।

5. प्रत्येक राज्य में चकबन्दी कार्यक्रम एक सीमित क्षेत्र में किया जाना चाहिए, ताकि चकबन्दी अधिकारियों को अनुभव प्राप्त हो सके और उसके आधार पर राज्य के अन्य क्षेत्रों में चकबन्दी कार्यक्रमों का प्रसार किया जाना चाहिए।

V. सहकारी कृषि (CO-OPERATIVE FARMING)

सहकारी कृषि का सामान्य अर्थ उस व्यवस्था से है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का अपनी भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व बना रहता है किन्तु खेती संयुक्त रूप से की जाती है। समस्त व्यय एक सम्मिलित कोष में से किये जाते हैं और कुल आय में से व्यय घटाने के बाद जो शेष अतिरेक (Surplus or Profit) के रूप में बचता है, उसे विभिन्न सदस्यों में उनके भूमि के अनुपात में बाँट दिया जाता है।

भारत में सहकारिता का प्रयोग विफल रहा। यह इस बात से स्पष्ट है कि कृषित भूमि के आधे प्रतिशत से भी कम भूमि पर सहकारी खेती को अपनाया गया। इसके अतिरिक्त बहुत-सी समितियाँ बोगस थी और केवल सरकारी सहायता प्राप्त करने के लिए बनाई गई थी। कुछ परिवारों ने जोतों की सीमाबन्दी अधिनियमों से बचने के लिए परिवार के सदस्यों की ही सहकारी कृषि समितियाँ बना डाली थीं। इस कार्य में सहकारी समितियों के रजिस्ट्रारों ने भी उन्हें सहायता प्रदान की।

वास्तव में सहकारी समितियाँ भारत में भ्रष्टाचार के केन्द्र बनी हुई हैं। अत: इनको कार्य-प्रणाली में सुधार अपेक्षित है, तभी लोग सहकारी खेती के प्रति आकर्षित हो सकेंगे।

VI. भू-दान (BHOODAN)

भू-दान आन्दोलन का सूत्रपात आचार्य विनोबा भावे ने सन् 1951 में किया। भूदान का अर्थ है-"स्वेच्छा से भूमि का दान करना ।" इसके अन्तर्गत भू स्वामी से उसकी भूमि का 1/5 या 1/6 भाग स्वेच्छा से दान के रूप में लिया जाता है। भू-स्वामियों से दान में प्राप्त इस भूमि को भूमिहीनों में वितरित किया जाता है। इस प्रकार भूमि के पुनर्वितरण का यह एक अहिंसात्मक प्रयास है।

इस भू-दान आन्दोलन की शुरुआत आचार्य विनोबा भावे द्वारा 18 अप्रैल, 1951 को तेलंगाना (आन्ध्र प्रदेश) के पोचमपल्ली नामक गाँव से हुई थी। अभी तक कुल 45.9 लाख एकड़ भूमि ही प्राप्त को जा सकी है। इसमें से 23.2 लाख एकड़ भूमि ही वितरित की जा सकी है इस आन्दोलन के सूत्रधार भावे की मृत्यु हो जाने के कारण अब इस आन्दोलन में कोई प्रगति होने की सम्भावना प्रतीत नहीं होती है।

VII. भूमि सम्बन्धी नवीनतम रिकॉर्ड (UP-TO-DATE LAND RECORDS)

भूमि सम्बन्धी नवीनतम रिकॉर्ड की भूमि सुधारों को लागू करने में विशेष महत्व है अत: भारत में भूमि के स्वामित्व, काश्तकारों के अधिकार, उपज में भागीदारी आदि से सम्बन्धित रिकॉर्ड को व्यवस्थित करने के विशेष प्रबन्ध किये गए हैं। वर्तमान में भूमि रिकॉर्ड के कम्प्यूटरीकरण की योजना के देश के सभी 625 जिलों में लागू कर दिया गया है।

राष्ट्रीय भू-अभिलेख आधुनिकीकरण प्रबन्धन कार्यक्रम-पूर्व के दो कार्यक्रमों की खामियों को ध्यान में रखकर ग्रामीण विकास मन्त्रालय के भू-संसाधन विभाग ने राष्ट्रीय भू-अभिलेख आधुनिकीकरण कार्यक्रम यानी एन.एल.आर.एम.पी (National Land Records Modernization Programme : NLRMP) के नाम से एक नया कार्यक्रम आरम्भ किया गया। जो ई-प्रशासन सम्बन्धी एक बड़ी पहल है।

आधुनिक भूमि सुधार कार्यक्रमों का भारतीय कृषि पर प्रभाव (EFFECTS OF MODERN LAND REFORM PROGRAMMES ON INDIAN AGRICULTURE)

संक्षेप में आधुनिक भूमि सुधार कार्यक्रमों के अन्तर्गत निम्नलिखित उपाय किए गए हैं-

1. जींदारी का उन्मूलन

2. काश्तकारी सुधार होना

3. भूमि स्वामित्व की उच्चतम सीमा का निर्धारण किया जाना।

4. भूमि की चकबन्दी

5. सहकारी खेती का प्रोत्साहन

6. भूमि रिकॉर्ड का कम्प्यूटरीकरण

उपर्युक्त उपायों के कारण भारतीय कृषि पर निम्नलिखित अच्छे प्रभाव पड़े है-

1. कृषि उत्पादन में वृद्धि

2. बहुफसली कार्यक्रम को बढ़ावा

3. भूमिहीन कृषकों की भूमि

4. कृषि में यन्त्रीकरण को बढ़ावा

5. नकदी फसलों में वृद्धि

6. सहकारी कृषि को प्रोत्साहन

7. कृषि से सरकारी आय में वृद्धि।

भूमि-सुधार कार्यक्रमों का मूल्यांकन (EVALUATION OF LAND REFORM PROGRAMMES)

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से भूमि सुधार कायक्रमों को बड़े उत्साह के साथ प्रारम्भ किया गया। भूमि-सुधार के लिए अनेक कार्यक्रम प्रारम्भ किये गये तथा विभिन्न राज्यों में अधिनियम पारित किये गये। इन सबके बावजूद भी भूमि-सुधार की प्रगति बहुत ही धीमी रही।

भूमि-सुधार कार्यक्रमों की कमियाँ या आलोचनाएँ या धीमी गति के कारण भारत मैं भूमि सुधारों की कमियाँ या आलोचनाएँ या धीमी गति के कारण निम्नलिखित हैं-

1. असमन्वित (Uncoordinated) भूमि सुधार को धीरे-धीरे और असमन्वित रूप से लागू किया गया। विभिन्न उपार्यों को अलग-अलग लागू किया गया. इस कारण समस्या का पूरा हल नहीं हो सका। जमींदारी उन्मूलन जैसे सुधारों में ही 10 वर्ष लग गये। अन्य सुधारों की प्रगति और भी धीमी रही।

2. राजनीतिक इच्छा-शक्ति की कमी (Lack of Political Will) राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में भूमि-सुधार कार्यक्रमों को लागू नहीं किया जा सका है। इन कार्यक्रमों से बड़े-बड़े किसानों को नुकसान हो रहा था। अतः उन्होंने अपने राजनीतिक प्रभावों का उपयोग कर, इनका क्रियान्वयन रुकवाया । स्थानीय कृषकों, राजस्व अधिकारियों एवं राजनीतिक लोगों की परस्पर साठ-गाँठ से ये कार्यक्रम प्रभावी नहीं हो पाये हैं।

3. भूमि-सुधार सम्बन्धी कानूनों में विभिन्नता (Variation in Land Reform Laws)- भूमि-सुधार की धीमी गति का एक यह भी कारण है कि विभिन्न राज्यों में भूमि-सुधार सम्बन्धी कानून भिन्न भिन्न हैं। इसके फलस्वरूप इन्हें राष्ट्रीय स्तर पर एक साथ लागू नहीं किया जा सकता।

4. कानूनी रुकावटें (Legal Constraints)—यद्यपि भूमि-सुधार के लिए अनेक कानून बनाये गये परन्तु भू-स्वामियों ने कानून की खामियों का लाभ उठाया तथा मुकदमेबाजी का सहारा लेकर कानून से बचते रहे।

5. सरकारी कार्यक्रम (Government Programme)— भूमि सुधार कार्यक्रम एक सरकारी कार्यक्रम बनकर रह गया है। काश्तकारों, निर्धन किसानों, भूमिहीन कृषि मजदूरों द्वारा इसे लागू करने के लिए कोई जोर नहीं डाला जाता। वे अपनी अज्ञानता तथा निर्धनता के कारण इस कार्यक्रम को लागू कराने में असमर्थ हैं।

6. भूमि सम्बन्धी प्रलेखों की अपूर्णता (Incomplete Land Records)-भूमि-सुधार की धीमी प्रगति का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि भूमि सम्बन्धी आँकड़े और प्रलेख पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं हैं जिससे स्वामित्व के निर्धारण में कठिनाई होती है।

7. भूमि के स्वामित्व का परिवर्तन (Transfer of Land Ownership)—कई वर्षों के भूमि-सुधार कार्यक्रमों के उपरान्त भी भूमि के स्वामित्व में विशेष परिवर्तन नहीं आया है। सीमा निर्धारण के अधिनियमों के क्रियान्वित न किये जाने से स्वामित्व को स्थिति पहले जैसी ही बनी हुई है। कार्यशील जोतों के वितरण में भी विशेष अन्तर नहीं आया है।

8. वित्त का अभाव (Lack of Finance)—भारत में भूमि-सुधारों के कारण जहाँ भूमिहीन किसानों को भूमि का अधिकार प्राप्त हुआ है, वहाँ उन्हें कृषि के अन्य साधनों के

को पूर्ति के लिए कोई वित्तीय सहायता नहीं दी गई है। इसके फलस्वरूप निर्धन किसान इन : का कोई लाभ नहीं उठा सके हैं। भारत में कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए केवल भूमि के पूर्ण वितरण से लाभ नहीं होगा। इसके लिए कृषि के ढाँचे में परिवर्तन करना आवश्यक है।

9. भूमि के वितरण में परिवर्तन का अभाव (Lack of Change in Distribution of Land)—कई वर्षों के भूमि-सुधारों के बाद भी भूमि के वितरण में विशेष परिवर्तन नहीं आया है। सीमा निर्धारण के कानूनों के लागू न होने से स्वामित्व की स्थिति बहुत कुछ पहले जैसी ही बनी हुई है। कार्यशील जोतों के वितरण में भी विशेष अन्तर नहीं आया है।

10. समन्वय का अभाव (Lack of Co-ordination)-भूमि-सुधार के विभिन्न कार्यक्रम एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु इनमें परस्पर समन्वय का अभाव है। इसके अतिरिक्त कुछ राजनीतिक तत्व भी इसे दृषित कर रहे हैं।

11. जनता का असहयोग (Non-Cooperation of Public) कोई भी नीति कितनी ही अच्छी क्यों न हो, जब तक जन सहयोग नहीं मिलेगा, उसकी सफलता संदिग्ध हो रहती है।

भूमि-सुधार कार्यक्रम की सफलता के लिए सुझाव (SUGGESTIONS FOR SUCCESS OF LAND REFORM PROGRAMME)

1. कानूनी विधियों को सरल बनाना-भूमि-सुधार कानूनों की कानूनी विधियों को सरल बनाना चाहिए, ताकि कानून अपना कार्य बिना किसी गतिरोध के कर सके।

2. कार्यक्रमानुसार क्रियान्वयन भूमि सुधार कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए एक निर्धारित कार्यक्रमानुसार क्रियान्व्यन किया जाना चाहिए।

3. कानूनों का प्रचार-भूमि सुधार कानूनों का क्षेत्रीय भाषाओं के समाचार पत्रों और आकाशवाणी के माध्यम से प्रचार किया जाना चाहिए, ताकि जना इन कानून को समझकर उनसे लाभान्वित हो सके।

4. भूमि-सुधार अदालतों की स्थापना- भूमि-सुधार अदालतें स्थापित की जानी चाहिए। इसके लिए गरीबों से कोई शुल्क नहीं लिया जाना चाहिए।

5. वित्तीय व्यवस्था का प्रबन्ध-जिन नये कृषकों को भूमि दी जाच, उन्हें वित्तीय व्यवस्था भी उपलब्ध करायी जानी चाहिए, ताकि वे उस भूमि का समुचित उपयोग कर सकें।

6. खेतिहर श्रमिकों व बँटाई वालों के संघ की स्थापना-खेतिहर श्रमिकों व बँटाई बालों के संगठन बनाये जायें तथा उनके प्रतिनिधियों को भूमि सुधार कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में सम्मिलित किया जाये।

7. कुशल प्रशासनिक मशीनरी की स्थापना-राज्य, जिला व तहसील स्तर पर कुशल प्रशासनिक मशीनरी की स्थापना की जानी चाहिए लेकिन इसमें पटवारी की भूमिका को नियन्त्रित रखा जाना चाहिए।

8. नवीन रिकॉर्ड तैयार करना भूमि के सम्बन्ध में नवीन रिकॉर्ड तैयार किया जाना चाहिए, ताकि स्वामित्व के प्रश्न पर मतभेद न हो सके।

9. उच्चतम सीमा के फलस्वरूप प्राप्त भूमि का शीघ्न वितरण भूमि पर उच्चतम सीमा लागू करने से जो अधिक भूमि प्राप्त होती है, उसका निर्धन तथा भूमिहीन किसानों में तुरन्त वितरण किया जाना चाहिए। उन किसानों को खेतो सम्बन्धी अन्य साधन भी दिये जाने चाहिए जिससे वह उस भूमि का उचित उपयोग कर सकें

10. गैर-कृषकों को भूमि हस्तान्तरण पर रोक-भूमि-सुधारों में यह कड़ी व्यवस्था की जाय कि गैर कृषकों की भूमि का हस्तान्तरण न हो सके और एक निश्चित सीमा से नीचे भूमि का अपखण्डन न हो।

11. ग्राम समितियाँ- भूमि सुधारों को कुशलतापूर्वक लागू करने के लिए ग्राम समितियाँ स्थापित की जानी चाहिए। इन समितियों में उन लोगों को भी सदस्य बनाया जाये जिन्हें भूमि-सुधार के लाभ प्राप्त होने हैं। यह समितियाँ भूमि-सुधारों को लागू करने के विषय में उचित कदम उठायेंगी।

12. नया संरक्षण बल-भूमि-सुधार कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करने तथा गरीबों को उनका कानूनी हक दिलाने की दृष्टि से एक विशिष्ट नया संरक्षण बल गठित करने का प्रस्ताव किया गया है जिसे क्रियान्वित करने के लिए शीघ्रातिशीघ्र कदम उठाये जाने चाहिए।

अधिग्रहण अधिनियम, 2013 (LAND ACQUISITION ACT, 2013)

लोक सभा ने अन्ततः भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्थापना में उचित क्षतिपूर्ति पाने का अधिकार एवं पारदर्शिता विधेयक, 2012(The Right to Fair compensation and transparency in Land Acquisition, Rehabilitation and Resettlement Bill, 2012) 29 अगस्त, 2013 को पारित कर दिया। यह विधेयक अंग्रेजी शासनकाल में बनाए गए भू-अधिग्रहण अधिनियम, 1894 का स्थान लेगा। नया अधिनियम 1 जनवरी, 2014 से प्रभावी हो गया।

मुख्य प्रावधान (Main Provisions)

1. विधेयक में भूमि के बदले भूमि, आवास, रोजगार, एकमुश्त क्षतिपूरक भुगतान के अतिरिक्त वार्षिक वृत्ति, उन लोगों को प्रदान की जाएगी, जिनकी भूमि अधिग्रहित की जाएगी।

2. कोई भी कानून ग्राम सभाओं को अनुमति के बिना अधिसूचित क्षेत्रों में भूमि का अधिग्रहण नहीं कर सकेगा।

3. अधिग्रहित भूमि से किसी भी व्यक्ति को उस समय तक बेदखल नहीं किया जा सकेगा, जब तक कि सभी भुगतान नहीं कर दिए जाते।

4. यदि अधिग्रहित भूमि का उपयोग उसी मद में नहीं किया जाता, जिसके लिए वह अधिग्रहित की गई, तो उसे कृषकों को वापस लौटा दिया जाएगा।

5. निजी परियोजनाओं, निजी सार्वजनिक परियोजनाओं तथा सरकारी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहित की जा सकेगी।

6. निजी परियोजनाओं तथा निजी सार्वजनिक परियोजनाओं (PPP) के लिए भूमि का अधिग्रहण तभी किया जा सकेगा, जब क्रमश: 80% तथा 70% भू-स्वामी इसके लिए सहमत हों।

7. यह विधेयक संविधान की समवर्ती सूची के तहत् है, जिस पर राज्य इस विधेयक के आलोक में स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप अपना अपना भू अधिग्रहण कानून बना सकते हैं।

8. मुसलमानों के हितों को संरक्षण प्रदान करते हुए विधेयक में प्रावधान किया गया कि वक्फ सम्पत्ति का अधिग्रहण नहीं किया जा सकेगा।

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