ऐतिहासिक विकास–भारत में सीमेण्ट उद्योग का विकास 1904 में हुआ, जब मद्रास (चेन्नई) में साउथ इण्डियन इण्डस्ट्रियल लिमिटेड की स्थापना हुई लेकिन शीघ्र ही यह प्रयास असफल हो गया। प्रथम महायुद्ध काल तक भारत में सीमेण्ट का विदेशों से आयात होता रहा। 1913-14 के बीच तीन बड़े सीमेण्ट के कारखाने मध्य प्रदेश में कटनी, राजस्थान में लखेरी तथा गुजरात में पोरबन्दर नामक स्थान पर स्थापित किये गये।
सन्
1919 से 1924 के बीच गुजरात, मध्य प्रदेश और बिहार में तीन नवीन सीनेण्ट कारखानों
की स्थापना की गयीं और पुरानी तीनों इकाइयों का विस्तार किया गया। 1926 में भारतीय
सीमेण्ट निर्माता संघ बनाया गया, ताकि उनकी पारस्परिक प्रतियोगिता का अन्त हो
जाये। 1950-51 में सीमेण्ट के 21 कारखाने थे। सन् 1982 में सीमेण्ट पर आशिक
नियन्त्रण की घोषणा की गयी। 1991 में सीमेण्ट उद्योग को लाइसेन्स से मुक्त किया
गया तथा 1989 में इसे पूर्णतया विनियन्त्रित किया गया। 1927 में उत्पादन का
विज्ञापन तथा वितरण करने के लिए 'कंकरीट एसोसियेशन ऑफ इण्डिया' गठित किया गया।
1930 में सीनेण्ट मार्केटिंग कम्पनी ऑफ इण्डिया को स्थापना हुई। 1936 में एक महत्वपूर्ण
संस्था एसोसिएटेड सीमेण्ट कम्पनी (A.C.C.) की स्थापना की गयी। |
1938 में भद्रावती (कर्नाटक) में सार्वजनिक क्षेत्र में पहला सीमेण्ट कारखाना
लगाया गया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय देश में सीमेण्ट के कारखानों की संख्या 23
थी जिसमें से 5 विभाजन के बाद पाकिस्तान में चले गये।
योजनाकाल में सीमेण्ट उद्योग का विकास व वर्तमान स्थिति
(Development of Cement Industries in Five
Year Plan and Present Position)
1. मिलों की संख्या एवं स्थापित क्षमता- भारत
2017 के अनुसार देश में 64 कम्पनियों के अधीन 190 बड़े सीमेण्ट
प्लाण्ट कार्यरत हैं जिनकी स्थापित क्षमता 324.5 मिलियन टन वार्षिक है।
2. उत्पादन-वर्ष 2015-16 में इनका उत्पादन 270.3 मिलियन
टन रहा। देश में 360 मझौले/छोटे सीमेण्ट प्लाण्ट हैं जिनकी
स्थापित क्षमता 11.7 मिलियन टन वार्षिक है तथा 2015-16 में इनका उत्पादन 33.66
मिलियन टन रहा। बारहवीं योजना के अन्त तक (अर्थात् नार्च 2017 के अन्त तक) देश में
सीमेण्ट का उत्पादन 407 मिलियन टन तक पहुँचने का अनुमान है।
3. छोटे सीमेन्ट प्लाण्ट-देश में इस समय 350 से अधिक
छोटे सीमेन्ट प्लाण्ट हैं जिनकी कुल उत्पादन क्षमता 111 लाख टन
के आस-पास है। अधिकतर छोटे सीमेन्ट प्लाण्ट आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश,
गुजरात तथा राजस्थान में केन्द्रित हैं।
4. पूँजी विनियोग एवं रोजगार-इस उद्योग में लगभग ₹
1,000 करोड़ की पूँजी लगों है तथा 3 लाख श्रमिक कार्यरत हैं।
5. प्रति व्यक्ति उपभोग-भारत में 1951 में प्रति व्यक्ति
सीमेण्ट उपभोग 4.4 किग्रा. था जो अब बढ़कर 85 किग्रा. हो गया है
लेकिन यह अन्य देशों की तुलना में अभी भी कम है। चीन में प्रति व्यक्ति खपत 120
किग्रा., जापान में 700 किग्रा. जबकि विश्व का औसत 217 किग्रा. है।
6. निर्यात-सीगेण्ट उद्योग ने टेक्नोलॉजी के विकास
और आधुनिकीकरण के साथ पूरा तालागेल रखा। वर्तमान में सीमेण्ट का
निर्यात 46.1 लाख टन रहा। बेहतर क्वालिटी के कारण भारतीय सीमेण्ट ने बांग्लादेश,
इण्डोनेशिया, मलेशिया, नेपाल, म्यांमार, पश्चिम एशिया और दक्षिण-पूर्व देशों के
बाजार में अपनी पहुँच बना ली है।
7. वर्तमान मूल्य नीति-1 मार्च, 1989 से सीमेण्ट उद्योग
को मूल्य एवं वितरण की दृष्टि से नियन्त्रण मुक्त कर दिया गया था तथा साथ ही 1991 में
घोषित नई उदारवादी औद्योगिक नीति के अन्तर्गत सीमेण्ट उद्योग को लाइसेंस मुक्त कर दिया
गया है।
8. समामेलन एवं स्वामित्वहरण (Mergers and Acquisitions)—विगत
वर्षों में समामेलन एवं स्वामित्वहरण सीमेन्ट उद्योग में काफी महत्वपूर्ण बन गए हैं।
उद्योग के नेताओं को यह अधिक मितव्ययी प्रतीत होता है कि वे नयी कम्पनी चालू करने की
अपेक्षा किसी अल्पप्रयुक्त (Under Utilised) कुप्रबन्धित कम्पनी का स्वामित्व अपने
हाथ में ले।
सीमेण्ट उद्योग की समस्याएँ (Problems of Cement Industry)
भारत
के सीमेण्ट उद्योग के समक्ष निम्नलिखित समस्याएँ हैं जिनका तत्काल समाधान आवश्यक है-
1. विकास की धीमी गति (Slow Growth Rate)—भारत
एक विकासोन्मुख देश है और यहाँ आर्थिक विकास के लिए सीमेण्ट का बहुत महत्व है। आर्थिक
नियोजन के अन्तर्गत जिस गति से बहुमुखी योजनाओं तथा भवनों का निर्माण कार्य कार्यान्वित
किया जाता है, उसको देखते हुए सीमेण्ट का उत्पादन अत्यन्त तेजी से बढ़ाया जाना आवश्यक
है परन्तु भारत में सीमेण्ट उद्योग का विकास निम्नलिखित कारणों से तीव्र गति से नहीं
हो सका है-
(i) निम्न लाभदायकता (Low Profitability)—सीमेण्ट
उद्योग में लाभ अन्य उद्योगों की अपेक्षा काफी कम है। लाभों की कमी के कारण उद्योग
आन्तरिक कोषों का सृजन नहीं कर पाता है। सीमेण्ट एक पूँजी सघन उद्योग है और जब तक समुचित
प्रत्याय का आकर्षण नहीं होगा, तब तक इसे समुचित मात्रा में पूँजी भी प्राप्त नहीं
हो सकेगी।
(ii) अत्यधिक नियन्त्रण (Excessive Control)-उद्योग
की मन्द गति से प्रगति होने का एक मूल कारण यह भी है कि इस उद्योग पर सरकार का अत्यधिक
नियन्त्रण रहा है। इसकी स्थापना, इसकी कीमत, ईधन, वितरण और यहाँ तक इसकी पैकिंग भी
सरकार द्वारा नियन्त्रित की जाती है। इन अत्यधिक एवं अनावश्यक प्रतिबन्धों ने उद्योग
के विकास को रोका है तथा नये उपक्रमों की स्थापना को हतोत्साहित किया है।
(iii) अव्यावहारिक औद्योगिक लाइसेन्स प्रथा (Impractical
Industrial Licencing System) सरकार की औद्योगिक लाइसेन्स देने की प्रथा
सीमेप्ट उद्योग के सम्बन्ध में बड़ी अव्यावहारिक रही है। लाइसेन्स के साथ अनेक शर्ते
लगा दी जाती हैं, विदेशी विनिमय कम मात्रा में किया जाता है जिसके कारण उद्यमा इस उद्योग
की स्थापना में अधिक रुचि नहीं लेते।
2. कच्चे माल की कमी (Shortage of Raw Material)—सीमेण्ट
उद्योग की एक अन्य समस्या कच्चे माल की कमी है। सीमेण्ट के निर्माण के लिए आवश्यक कच्चा
माल केलकरिया पदार्थ (चूने के पत्थर, केलकेरियस रेत तथा सामुद्रिक शेल्ल) तथा अन्य
पदार्थ (क्ले, शेल, बॉक्साइट, जिप्सम, कोयला तथा फर्नेस तेल) हैं। वास्तविकता यह है
कि ठच्च कोटि का कच्चा माल देश के सभी प्रदेशों में उचित रूप में बिखरे होने की बजाय
कुछ ही क्षेत्रों में केन्द्रित है। इसके कारण यातायात व्यय अधिक पड़ता है अत: घटिया
किस्म के कच्चे माल का प्रयोग होता है।
3. क्षमता का अल्प उपयोग (Under Utilisation of Capacity) देश
में सीमेण्ट की पर्याप्त माँग होने पर भी सीमेण्ट उद्योग की 88 प्रतिशत स्थापित क्षमता
का उपयोग हो रहा है।
4. प्रादेशिक असन्तुलन (Regional Imbalances) सीमेण्ट
उद्योग प्रादेशिक असन्तुलन अर्थात् दोषपूर्ण क्षेत्रीय वितरण की समस्या से भी ग्रस्त
है। यह उद्योग मुख्य रूप से दक्षिणी एवं पश्चिमी क्षेत्र में केन्द्रित है जिससे इन
दो क्षेत्रों में उत्पादन का आधिक्य है लेकिन पूर्वी क्षेत्र तथा उत्तरी क्षेत्र में
सीमेण्ट का अभाव है। सीमेण्ट जैसे भारी यातायात व्यय करने वाले उद्योग में इन क्षेत्रीय
असमानताओं को कम करने की आवश्यकता है।
5. परिवहन की कठिनाइयाँ (Transportation Dilliculties)—सीमेण्ट
उद्योग का कच्चा तथा पक्का माल दोनों ही भारी हैं, इसलिए बातायात की काफी सुविधाओं
की आवश्यकता है परन्तु परिवहन की कठिनाइयों के कारण यातायात ढंग से नहीं हो पाता।
6. ऊँची उत्पादन लागत (Iligh Production Cost)—भारत
में सीमेण्ट को प्रति टन उत्पादन लागत अन्य देशों की अपेक्षा बहुत अधिक है। बढ़ती हुई
उत्पादन लागत से सीमेण्ट उत्पादकों के लाभ में कमी आयी है क्योंकि सीमेण्ट का और अधिक
मूल्य बढ़ाना सम्भव नहीं है।
7. मशीनरी का अभाव (Shortage of Machinery) सीमेण्ट
उद्योग का विकास करने हेतु अभी भी अधिकांश मशीनरी का हमें विदेशों से आयात करना पड़ता
है। इस हेतु विदेशी मुद्रा की उपलब्धि में कठिनाई होती है। देश में सात स्वदेशी फर्फे
इस मशीनरी का उत्पादन करती हैं परन्तु घरेलू मशीनरी को न केवल कीमत अधिक है बल्कि इसका
उत्पादन भी मांग की अपेक्षा कम है, फिर भी सीमेण्ट मशीनरी के उत्पादन में तेजी से वृद्धि
हो रही है।
8. अनुसन्धान एवं तकनीकी सेवाओं की आवश्यकता (Need for Research
and Technical Services)—सीमेण्ट उद्योग के लिए अनुसन्धान और तकनीकी का
भी पर्याप्त महत्व है। सभी प्रमुख उत्पादन इकाइयों में शोध की व्यवस्था है जिसमें सीमेण्ट
के उत्पादन के सम्बन्ध में अनुसन्धान किया जाता है परन्तु आवश्यकता इस बात की है कि
एक केन्द्रीय सीमेण्ट शोधन संस्था की स्थापना की जानी चाहिए जो सीमेण्ट के नये-नये
कच्चे माल तथा उत्पादन तकनीकी अनुसन्धानों की व्यवस्था करे।
9. प्रशिक्षित मानव-शक्ति की कमी (Shortage of Trained Man-Power)—सीमेण्ट
उद्योग के तीव्र गति से विकास होने के फलस्वरूप तकनीकी कर्मचारियों की कमी महसूस होने
लगी है। इसका उद्योग के प्रबन्ध, उत्पादकता तथा विस्तार पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
10. निर्यात सम्भावना का कम प्रयोग (Leas Exploitation of Export
Potentials)- सीमेण्ट उद्योग अपनी निर्यात सम्भावना का पूर्ण उपयोग नहीं
कर पाया है। 1988-89 में 78 हजार टन सीमेण्ट का निर्यात किया गया था। 2011-12 में यह
बढ़कर 46.1 लाख टन हो गया। भारत द्वारा नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका तथा पाकिस्तान
आदि देशों के निर्यात की काफी सम्भावनाएँ हैं, इन्का पूर्ण उपयोग करने से निर्यात की
मात्रा में काफी वृद्धि की जा सकती है।
11. अन्य समस्याएँ (i) सीमेन्ट कारखाना लगाने
की बढ़ती लागते,
(ii)
कारखानों की आधुनिकीकरण की समस्या, (iii) सीमेन्ट का प्रति व्यक्ति कम उपयोग।
सुझाव (Suggestions)
इस
उद्योग के विकास के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-
1.
वर्तमान संस्थापित क्षमता के अप्रयुक्त भाग का अधिक-से-अधिक प्रयोग करके उत्पादन में
वृद्धि की जानी चाहिए।
2.
विद्यमान इकाइयों के विस्तार को प्राथमिकता के आधार पर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
3.
कार्यक्षमता में वृद्धि करने तथा लागत व्यय को कम करने के उद्देश्य से उद्योग को अपनी
मशीनों का आधुनिकीकरण करना चाहिए।
4.
राज्य सरकारों को चाहिए कि दीर्घकालीन पट्टे देकर इस उद्योग की उन्नति में सहायता दें।
5.
अभी तक सीमेण्ट निर्माण में चूना पत्श्चर का ही प्रयोग किया जाता है परन्तु इसके लिए
अन्य कच्चे माल, जैसे-स्लेग (लोहा एवं इस्पात उद्योग का अवशिष्ट भाग) आदि के प्रयोग
को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
6.
उचित मूल्य नीति द्वारा उपलब्ध तकनीकी ज्ञान का उपयोग नये कारखानों की स्थापना में
किया जाना चाहिए।
7.
विद्युत्-शक्ति के प्रसार एवं प्रयोग से दक्षिण में इस उद्योग के प्रसार की सम्भावनाएँ
बढ़ गई हैं। अत: इस उद्योग को सस्ती कीमत पर बिजली उपलब्ध करायी जानी चाहिए।
8.
सीमेण्ट की पैकिंग की लागत कम करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।
9.
सीमेण्ट रिसर्च इन्स्टीट्यूट (Cement Research Institute) का अधिक उचित ढंग से विकास
किया जाना चाहिए।
10.
केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों को सड़कों के निर्माण तथा नहरों को पक्का करने के लिए,
सीमेण्ट का अधिक प्रयोग किया जाना चाहिए। इसके फलस्वरूप सीमेण्ट की माँग में काफी वृद्धि
होगी।
11.
सीमेण्ट उद्योग को इस प्रकार की उत्पादन तकनीक का प्रयोग करना चाहिए जिसके फलस्वरूप
बिजली की बचत (Less Energy Consumption) हो सके। सीमेण्ट की उत्पादन लागत में 45% बिजली
की लागत का होता है।
12.
सीमेण्ट उद्योग का आधुनिकीकरण (Modernisation) किया जाना चाहिए। इसके फलस्वरूप सीमेण्ट
उद्योग की उत्पादकता में वृद्धि होगी तथा सीमेण्ट की गुणवत्ता (Quality) में सुधार
होगा। सीमेण्ट उद्योग को अपना स्वयं का रिसर्च तथा डवलपमेण्ट (r and D) विकसित करना
चाहिए।
13.
विश्व बैंक और डेनमार्क की अन्तर्राष्ट्रीय संस्था डानिडा की सहायता से सीमेण्ट की
प्रशिक्षित कर्मचारियों की आवश्यकता को एक प्रशिक्षण कार्यक्रम आरम्भ किया गया है।
भविष्य (Future)
भारत
में समेण्ट उद्योग का भविष्य उन्बल है क्योंकि (i) पक्के मकानों के निर्माण के लिए
सीमेण्ट की माँग बढ़ेगी; (ii) सड़कों व बाँधों के निर्माण हेतु भी सीमेण्ट की अधिकाधिक
जरूरत होगी; (iii) विदेशों में भी भारतीय सीमेण्ट की माँग में निरन्तर वृद्धि हो रही
है।
इसके अतिरिक्त, आस-पास के देशों ( जैसे-श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, इत्यादि) को भी भारत सीमेण्ट का काफी निर्यात कर सकता है। कई अन्य एशियाई देशों तथा मध्य-पूर्व के देशों में निर्माण गतिविधि जोर पकड़ रही है जो भारत के लिए निर्यात-आय का अच्छा स्रोत बन सकती है। 1989 में भारत ने 1.6 लाख टन सोनेण्ट का निर्यात किया था जो बढ़ते-बढ़ते 1996-97 में 17 लाख टन तथा 2009-10 में 2,007 लाख टन हो गया। भविष्य में इसमें और वृद्धि होने की सम्भावना है।