उपर्युक्त परिभाषा से कुटीर उद्योग की निम्नलिखित विशेषताओं का
आभास होता है-
1.
ये उद्योग पूर्णत: या मुख्यतः परिवार के सदस्यों की सहायता से चलाये जाते हैं।
2.
ये पूर्णकालिक या अंशकालिक व्यवसाय के रूप में चलाये जाते हैं।
3.
इन उद्योगों में प्राय: परम्परागत विधियों से परम्परागत वस्तुओं का उत्पादन किया जाता
है।
4.
इनमें स्थानीय कच्चे माल व कुशलता का प्रयोग होता है।
5.
इनमें प्राय: स्थानीय बाजार की मैंग की पूर्ति की जाती है। कुटीर
उद्योगों में सूत कातना, गुड़ बनाना, बीड़ो बाँधना, रस्सी और चटाई बनाना, रंग और
छपाई, हस्तशिल्प आदि को शामिल किया जाता है।
लघु उद्योग (SMALL SCALE INDUSTRIES)
2
अक्टूबर, 2006 से प्रभावी सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उपक्रम विकास अधिनियम, 2006 उद्यमों
के लिए तीन स्तरों अर्थात् छोटे, लघु एवं मझोले के एकीकरण के लिए
अपनी तरह की पहली कानूनी रूपरेखा विहित करत है। अधिनियम के अन्तर्गत उद्यमों को
मुख्य रूप से दो श्रेणियों में विभक्त किया गया है यथा-
विनिर्माण उद्यम-(क) सूक्ष्म या अति लघु
उद्यम- 25 लाख तक निवेश; (ख) लघु उद्यम- निवेश ₹ 25 लाख से अधिक और ₹5 करोड़ तक;
(ग) मध्यम उद्यम-निवेश 5 करोड़ से अधिक और र 10 करोड़ तक।
सेवा उद्यम-(क) व्यष्टि उद्यम-निवेश ₹
10 लाख तक; (ख) लघु उद्यम-निवेश ₹ 10 लाख से अधिक एवं र2 करोड़ तक और (ग) मध्यम
उद्यम-निवेश र 2 करोड़ से अधिक और ₹5 करोड़ तक।
भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर एवं लघु उद्योगों का महत्व (SIGNIFICANCE OF COTTAGE AND SMALL SCALE INDUSTRIES IN INDIAN
ECONOMY)
भारतीय
अर्थव्यवस्था में कुटीर व लघु उद्योगों का विशेष महल है। डॉ. श्यामाप्रसाद मुकर्जी
के शब्दों में, "भारत गाँवों का देश है। अत: सरकार को सन्तुलित अर्थव्यवस्था
की दृष्टि से कुटीर तथा छोटे पैमने के उद्योग के विकास को सर्वाधिक महत्व
प्रदान करना चाहिए।" योजना आयोग के अनुसार, "ग्रामीण उद्योगों को विकसित
करने का प्राथमिक उद्देश्य कार्य के अवसरों में वृद्धि करना, आय एवं रहन-सहन के स्तर
को ऊँचा उठाना तथा एक अधिक सन्तुलित एवं समन्त्रित अर्थव्यवस्था का निर्माण करना है।"
महात्मा गाँधी के शब्दों में, "भारत का मोक्ष उसके कुटीर उद्योग में निहित है।"
संक्षेप में, कुटीर व लघु उद्योगों के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये
जाते हैं-
1. रोजगार सम्बन्धी तर्क (Employment Argument) लघु
उद्योगों में उत्पादन की श्रम प्रधान विधि अपनायी जाती है अर्थात् पूँजी का कम उपयोग
किया जाता है। भारत जैसे अर्द्ध-विकसित देश में जहाँ श्रमिक बहुत अधिक मात्रा में हैं
और पूँजी की कमी है, कुटीर तथा लघु उद्योग ही अधिक उपयुक्त हैं। अत: वर्तमान परिस्थितियों
के अन्तर्गत देश में बेकारी की समस्या के समाधान के लिए कुटीर और लघु उद्योगों का विकास
होना चाहिए।
2. आर्थिक समानता का तर्क (Economic Equality Argument) लघु
तथा कुटीर उद्योग धन के रूमान वितरण में भी सहायक होते हैं, क्योंकि घरेलू उद्योग छोटे-छोटे
पैमाने पर चलाये जाते हैं। उद्योगों में आर्थिक शोषण भी सम्भव नहीं हो पाता है। अत:
कुछ थोड़े-से व्यक्तियों के हाथ में आर्थिक सत्ता का केन्द्रीकरण या शोषण जैसी सामाजिक
समस्याएँ लघु उद्योगों में उत्पन्न नहीं होती।
3. विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था सम्बन्धी तर्क (Decentralisation
Argument) लघु एवं कुटीर उद्योग विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना
करते हैं, क्योंकि ये देश के कोने कोने में फैले हुए होते हैं। इससे देश के सभी भाग
औद्योगिक वस्तुओं में आत्म-निर्भर हो सकते हैं। अत: एक विकेन्द्रित विकसित आर्थिक समाज
की स्थापना होती है।
4. कलात्मक वस्तुओं का उत्पादन तर्क (Production of Artistic Coods
Argument) यह भी कहा जाता है कि कलात्मक, सुन्दर व कीमती मुख्यत: हस्तशिल्प
वस्तुओं का उत्पादन लघु एवं कुटीर उद्योगे में ही हो सकता है, क्योंकि ऐसी वस्तुओं
का उपभोग तथा बाजार सीमित होने के कारण आवश्यकता कम रहती है। अत: इनका उत्पादन बड़े
पैमाने पर नहीं हो सकता।
5. वर्ग-संघर्ष से बचाव (Protection from Class struggle) कुटीर
व लघु उद्योगों में प्राय: छोटे-छोटे कारीगर स्वयं मालिक व श्रमिक भी होते हैं व मजदूरी
पर जो श्रमिक लगाते हैं, वे कम
संख्या
में होने से मालिक मजदूरों में व्यक्तिगत सम्पर्क रहता है तथा उनके परस्पर सम्बन्ध
भी अच्छी रहते हैं। अत: वर्ग-संघर्ष की सम्भावना कम रहती है।
6. तकनीकी ज्ञान की कम आवश्यकता (Less Requirement of Technical
Knowledge)-बड़े उद्योगों में पूँजो की बड़ी मात्रा व आधुनिक तकनीकी
ज्ञान की आवश्यकता होती है किन्तु भारत जैसे विकासशील देशों में इन दोनों का ही अभाव
है। अतः इस दृष्टि से भी लघु उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रखते
हैं।
7. शहरीकरण व औद्योगीकरण के प्रभाव से सुरक्षा (Protection from
Bad Effects of Urbanization and Industrialisation)—कुटीर
एवं लघु उद्योग प्रायः ग्रामीण एवं अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में स्थापित होते हैं। परिणामस्वरूप
बड़े उद्योगों की समस्याओं, जैसे-आवास की समस्या, यातायात की समस्या, पानी व जल निकास
की समस्या, दूषित वातावरण की समस्या आदि से मुक्ति मिल जाती है।
8. आयात पर कम निर्भरता (Less Dependence on Imports) लघु
उद्योग की आयातों पर कम निर्भरता होने पर कारण ये उद्योग देश में भुगतान सन्तुलन की
प्रतिकूलता को कम करने में सहायक होते हैं।
9. देश के निर्यात में महत्वपूर्ण स्थान (Himportant Place in
Country's Export) वर्तमान में लघु उद्योग देश के कुल निर्यात
मूल्य में एक निर्णायक सहयोग देते हैं।
10. अन्य महत्व (Other Significance)-
(i)
विगत वर्षों में लघु उद्योगों में फूड प्रोसेसिंग इकाइयों को काफी प्रोत्साहन दिया
गया है। इस क्षेत्र में फल एवं सब्जियों की इकाइयों, दुग्ध उत्पादों एवं मछली उत्पादों
की इकाइयों के वार्षिक उत्पादन व निर्यात में तेजी से वृद्धि हुई है। आशा है कि यह
आगामी वर्षों में भी जारी रहेगी।
(ii)
लघु इकाइयाँ बहुधा कच्चे माल की कमी आदि के कारण थोड़े समय के लिए रुग्ण (Sick) होती
हैं, जबकि बड़ो इकाइयाँ रुग्णता से लम्बी अवधि तक प्रभावित होती हैं। इसलिए लघु इकाइयों
की रुग्णता की समस्या को हल करना अपेक्षाकृत अधिक आसान होता है।
(iii)
वर्तमान में निर्धनता-उन्मूलन कार्यक्रम के अन्तर्गत ग्रामीण एवं लघु उद्योगों के विकास
पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा है। इनके माध्यम से रोजगार व आमदनी बढ़ाये जा सकते हैं।
इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं में इनके विकास के कार्यक्रम रखे जाते हैं।
निष्कर्ष (Conclusion)
अत:
निष्कर्षत: यह स्पष्ट है कि लघु एवं कुटीर उद्योग हमारी सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था की एक
ऐसी महत्वपूर्ण इकाई है। जिन पर भारतीय अर्थव्यवस्था में एक सन्तुलित क्षेत्रीय विकास
की नींव रखी जा सकती है।
मध्यम, लघु एवं सूक्ष्म उद्योगों की प्रगति एवं वर्तमान स्थिति
(PROGRESS OF SMALL SCALE INDUSTRIES AND PRESENT POSITION)
लघु
उद्योगों की प्रगति का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
1. इकाइयों की संख्या, रोजगार व विनियोग-भारत
की अर्थव्यवस्था का सूक्ष्म, लघु एवं मध्य उत्पादन एवं रोजगार एवं विनिवेश में महत्वपूर्ण
स्थान रहा है। जैसा कि भारत में सकल घरेलू उत्पाद में 37.54 प्रतिशत का योगदान करता
है और इस तरह देशभर में 3.61 करोड़ यूनिटों के जरिए 8.05 करोड़ नौकरियों के अवसर मुहैया
कराता है।
सूक्ष्म
एवं लघु तथा मध्यम उद्योगों में 94.94% उद्यम सूक्ष्म आकार के 4.89% उद्यम लघु आकार
के तथा 0.17%, मध्यम आकार के हैं 45% उद्यम ग्रामीण क्षेत्र में तथा 55%, उद्यम शहरी
क्षेत्र में 16.78% सेवा क्षेत्रक में तथा 16.13% रिपेयरिंग एवं अनुरक्षण के क्षेत्र
में हैं।
2. कुल विनिर्माणी उत्पाद में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों का हिस्सा
एवं GDP में प्रतिशत योगदान-सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों का विनिर्माण
क्षेत्र और उद्देश्य के GDP में महत्वपूर्ण योगदान है। जैसा कि निम्नलिखित सारणी से
स्पष्ट हो जाएगा-
सारणी-1.
वर्ष |
विनिर्माण क्षेत्रक के कुल उत्पाद में MSME क्षेत्रक के विनिर्माण उत्पाद का प्रतिशत हिस्सा |
GDP में हिस्सा |
2011-12 |
33.12 |
29.97 |
2012-13 |
33.22 |
30.40 |
2013-14 |
33.27 |
30.64 |
2014-15 |
33.40 |
30.74 |
3. वृद्धि दर-पिछले पाँच वर्षों में माइक्रो एवं लघु
उद्यम-क्षेत्र में 12% की वृद्धि दर दर्ज की जोकि औद्योगिक क्षेत्र की समग्र वृद्धि
दर से अधिक है।
4. निर्यात में योगदान-लघु उद्योगों का कुल निर्यात में योगदान
1971-72 में 9.6% से बढ़कर 2014-15 में लगभग 40% हो गया।
कुटीर तथा लघु उद्योगों की समस्याएँ (PROBLEMS OF COTTAGE AND
SMALL SCALE INDUSTRIES)
भारतीय
कुटीर एवं लघु उद्योगों की कुछ समस्याएँ निम्न प्रकार हैं-
1. पूँजी का अभाव (Shortage of Capital) भारतीय
कारीगर निर्थन हैं। उनके पास इतनी पूँजी नहीं है कि वे उसके द्वारा अपने कार्यों को
सुचारू रूप से चला सकें चूंकि उनके पास उपयुक्त प्रकार की प्रतिभूति नहीं होती, इसलिए
वे उपयुक्त वित्तीय सहायता राज्य वित्त निगम जैसी संस्थाओं से प्राप्त नहीं कर पाते।
अत: अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए साहूकारों, व्यापारियों व मध्यस्थों के पास आ
जाते हैं जो कि बहुत अधिक ब्याज लेते हैं और अन्य प्रकार से शोषण करते हैं।
2. उत्पादन की अविकसित प्रणाली (Undeveloped Production System)—भारतीय
कारीगरों के यन्त्र एवं कार्य करने के ढंग अति प्राचीन हैं जिससे एक तो अधिक वस्तुओं
का उत्पादन सम्भव नहीं हो पाता और दूसरे, इन वस्तुओं को उत्पादन लागत अक्सर अधिक होती
है।
3. कच्चे माल की समस्या (Troblem of Raw-Material)—इस
सम्बन्ध में भारतीय कारीगरों को तीन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है-(अ) उन्हें सस्ते
मूल्य पर आसानी से कच्चा माल नहीं मिलता। (ब) अच्छी श्रेणी का कच्चा माल बड़े उद्योगपतियों
के द्वारा खरीद लिये जाने के कारण कुटीर उद्योग को अच्छा माल नहीं मिल पाता और (स)
उन गरीब कारीगरों की साख इतनी फैली हुई नहीं होती कि उन्हें कच्चा माल उधार मिल सके।
4. संगठित बाजार का अभाव( Lack of Organised Market)—कुटीर
तथा छोटे पैमाने की वस्तुओं की बिक्री के लिए लुसंगठित बाजार का अभाव है जिसके कारण
कारीगरों को अपनी बनायी गयी वस्तुओं की बिक्री के लिए-(अ) इधर-उधर जाना पड़ता है जिससे
समय और शक्ति की बर्बादी होती है और अपनी वस्तुओं के लिए अच्छे मूल्य नहीं मिल पाते।
(ब) अनेक चालबाज मध्यस्थों पर निर्भर रहना पड़ता है जो पूरी तरह उनका शोषण करते हैं।
5. बड़े उद्योगों से प्रतियोगिता (Competition from Big Industries) भारतीय
कुटीर उद्योगों के सामने बड़े पैमाने के उद्योगों से प्रतियोगिता की समस्या भी है।
चूंकि बड़े पैमाने पर उत्पादित वस्तुएँ अपेक्षाकृत सस्ती होती हैं, इसलिए कुटीर उद्योगों
की वस्तुओं की बिक्री बाजार में मुश्किल से हो पाती है।
6. शिक्षा का अभाव (Lack of Education) अधिकांश
कारीगर अनपढ़ होते हैं। अत: वे अपनी वस्तु निर्मित करने में पुराने तरीकों का ही प्रयोग
करते हैं। वे अपनी वस्तु की किस्म व डिजाइन आदि में शिक्षा के अभाव के कारण कोई सुधार
या आविष्कार नहीं कर पाते हैं जिसके फलस्वरूप उनकी वस्तु की माँग में वृद्धि नहीं हो
पाती।
7. प्रमाणिकता का अभाव (Lack of Standardisation)—जिन
वस्तुओं का निर्माण कुटीर उद्योगों के द्वारा होता है, उनमें एकरूपता का अभाव रहता
है। अतः प्रमाणिकता के अभाव में वस्तुओं की उचित कीमत निश्चित न होने से उनकी संगठित
रूप से बिक्री नहीं हो पाती। एकरूपता को कमी के कारण उपभोक्ताओं को भी कठिनाई होती
है और कारीगर भी वस्तुओं के गुण में सुधार नहीं कर पाते।
8. निर्यात की उपेक्षा (Export Neglected) कुटीर
उद्योग-धन्धों से सम्बन्धित कुछ वस्तुओं की विदेशी मांग भी होती है परन्तु इस सम्बन्ध
में अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। चूँकि वस्तुओं में भिन्नता पायी जाती है इसलिए उनका
ग्रेड व नमूना देना भी सम्भव नहीं होता।
9. उपभोक्ताओं की अरुचि (Disinterest. of Consumers)—कुटीर
और लघु उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुओं को उपभोक्ता पसन्द नहीं करते। इसलिए उनके द्वारा
निर्गित वस्तुओं की बिक्री नहीं हो पाती।
10. समय पर भुगतान नहीं मिलना (Non-receipt of Payment in Time) लघु
पैमाने की इकाइयों को अपने माल का शुगतान समय पर नहीं मिलने से भी काफी वित्तीय कठिनाई
का सामना करना पड़ता है। भुगतान में विलम्ब प्राय: सरकारी विभागों की खरीद तथा निजी
क्षेत्र में बड़ी इकाइयों की खरीद-दोनों में पाया जाता है।
11. लघु उद्योगों में रुग्णता (Sickness in Small Industries) —कुटीर
उद्योगों के सामने रुगणता की समस्या भी अत्यन्त गम्भीर है। मार्च 2004 के अन्त में
देश में कुल 3.1 लाख लघु औद्योगिक इकाइयाँ रुग्णता का शिकार थीं। इनमें सर्वाधिक इकाइयाँ
बिहार में व दूसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश में थीं।
कुटीर व लघु उद्योगों के विकास के लिए सरकारी नीति (GOVERNMENT
POLICY REGARDING DEVELOPMENT OF COTTAGE AND SMALL SCALE INDUSTRIES :
सरकार
ने लघु उद्योगों के विकास के लिए निम्नलिखित उपाय किये हैं-
1. अखिल भारतीय परिषद् (All India Board) विशिष्ट
प्रकार के लघु उद्योगों को सहायता पहुँचाने के लिए भारत सरकार ने विभिन्न प्रकार की
संस्थाओं एवं समितियों की स्थापना की है; जैसे-(i) केन्द्रीय सिल्क परिषद् सन्
1945, (ii) अखिल भारतीय हस्तशिल्प परिषद् सन् 1952, (iii) अखिल भारतीय हस्तकरघा परिषद्,
liv) अखिल भारतीय खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग, सन् 1955, (v) अखिल भारतीय खादी एवं ग्रामोद्योग
मण्डल, सन् 1951, (vi) लघु उद्योग प्रमण्डल, सन् 1954, (vii) नारियल जटा बोर्ड, सन्
1954 ।
2. तकनीकी सहायता (Technical Assistance) तकनीकी
सहायता की उपलब्धि के लिए केन्द्रीय सरकार ने लघु उद्योग सेवा संस्थान स्थापित किया
है जिसका उद्देश्य उद्योगपतियों को उत्पादन इकाइयों की स्थापना, कार्यान्वयन तथा अन्य
समस्याओं सम्बन्धी सलाह देना है। लघु तथा कुटीर उद्योगों सम्बन्धी अनुसन्धान को प्रोत्साहित
करने के लिए लघु आविष्कार विकास बोर्ड स्थापित किया गया है। इसके अतिरिक्त, औद्योगिक
डिजाइन संस्थान की भी स्थापना की गयी। लघु उद्योगों को प्राविधिक सहायता देने के लिए
एक कार्यक्रम केन्द्रीय सरकार ने औद्योगिक विस्तार सेवा के नाम से प्रारम्भ किया है।
3. औद्योगिक बस्तियाँ Industrial Estates) परिवहन,
बिजली, पानी, गैस, अच्छे स्थान आदि की सामान्य सामूहिक सेवाओं एवं अन्य सुविधाओं से
लाभ उठाने में इन उद्योगों को समर्थ बनाने के लिए सरकार औद्योगिक बस्तियों की स्थापना
कर रही है। इन बस्तियों का प्रमुख उद्देश्य लघु औद्योगिक संस्थानों को शहरी क्षेत्रों
से हटाकर उपयुक्त स्थानों में ले जाना है।
4. बाजार क्रिया में सहायता (Help in Marketing Process) लघु
एवं कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुओं की बिक्री के लिए सरकार ने लघु निगम स्थापित
किया है। इसने बड़े नगरों में विक्रय डिपो स्थापित किये हैं। इसके अतिरिक्त, खादी तथा
ग्रामोद्योग द्वारा फुटकर दुकानें स्थापित की गयीं हैं।
5. ग्रामीण औद्योगिक परियोजनाएँ (Rural Industrial Projects) वर्ष
1962-63 में ग्रामीण उद्योग परियोजनाओं के लिए एक केन्द्रीय योजना आरम्भ की गयी। इसका
प्रमुख उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र के विकसित वातावरण में व्यवहार्य औद्योगिक इकाइयों
की स्थापना के लिए तकनीकों का विकास करना है। इसका एक अन्य उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों
के विकास में विद्यमान असमानताओं को कम करना तथा लाभप्रद रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना
है।
6. खादी तथा ग्रामोद्योग आयोग (Khadi and Village Industries
Commission)—इस आयोग को खादी, अनाज एवं दालों के विधायन, तेल पेरना, साबुन
बनाना, गुड़ बनाना, मधुमबखी, पालन, हस्त निर्मित कागज, गोबर गैस, मिट्टी व चीनी के
बर्तन बनाना तथा बढ़ई और लुहार के कार्य से सम्बन्धित उद्योग आदि के विकास का उत्तरदायित्व
सौंपा गया है। यह आयोग पंजीकृत संस्थाओं एवं सहकारी समितियों को वित्तीय तथा अन्य सहायताएँ
प्रदान करता है। राज्य खादी ग्राम उद्योग बोर्डों का संगठन भी इसी आयोग के कार्य-क्षेत्र
में शामिल है।
7. कच्चे माल एवं शक्ति की व्यवस्था Arrangement of Raw Material
and Power)— भारत सरकार द्वारा इन उद्योगों के लिए अच्छे यन्त्रों एवं
उचित मूल्य पर उचित परिमाण में उचित गुण के कच्चे माल की उपलब्धि के लिए लघु उद्योग
निगम तथा राज्य व्यापार निगम की स्थापना की गयी है।
8. प्रशिक्षण की व्यवस्था (Provision of Training)– श्रमिकों
के प्रशिक्षण के लिए बहुत-से उत्पादन एवं प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किये गये हैं तथा
लघु उद्योग सेवा संस्थान द्वारा भी विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण कोर्स चलाये जाते हैं।
9. लघु उद्योगों का आधुनिकीकरण (Modernisation of Small
Industries)—अगले पाँच वर्षों में 50 हजार लघु उद्योग यूनिटों के आधुनिकीकरण
के उपाय करने की घोषणा बहुत सामयिक है। लघु उद्योग क्षेत्र के यूनिटों में आधुनिक करण
की आवश्यकता बहुत समय से महसूस की जा रही थी। आधुनिकीकरण का यह कार्यक्रम 'नेवालकर
समिति' की सिफारिशों पर आधारित है। पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में लघु उद्योग सम्बन्धी
और बड़े-बड़े प्रस्ताव हैं।
10. अधिक वित्तीय सहायता (Greater Financial Assistance) लघु
तथा ग्रामीण उद्योगों को अधिक मात्रा में वित्तीय सहायता प्रदान की जा रही है। बैंकों,
निगम एवं अन्य संस्थानों द्वारा लघु उद्योगों के विकास तथा आधुनिकीकरण के लिए सहायता
प्रदान की जा रही है।
11. राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम लिमिटेड-प्रधानमन्त्री
नरेन्द्र मोदी के 'Make in India' आह्वान को साकार करने के लिए भारत सरकार ने पूँजीगत
वस्तु क्षेत्रक में लघु एवं मध्यम उद्यमों की प्रतिस्पर्धात्मकता में वृद्धि लाने के
लिए ₹ 20,000 करोड़ की एक नई योजना प्रारम्भ किए जाने की घोषणा 15 सितम्बर, 2014 को
की गई।
12. राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम लिमिटेड (NSICL)
1955 में अपने अस्तित्व में आने से लेकर अब तक राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम लिमिटेड सूक्ष्म
एवं लघु उद्योग के लिए प्रोत्साहन सहायता एवं पोषण के अपने मिशन के लिए कार्य कर रहा
है।
13. सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों में विनिर्माण हेतु अनन्य उत्पाद
सूची समाप्त-अप्रैल 2015 में सरकार ने अन्ततः उत्पादों के आरक्षण की यह
व्यवस्था पूरी तरह से समाप्त कर दी ऐसा निवेश एवं प्रौद्योगिकीय उन्नतिकरण को बढ़ावा
देने के उद्देश्य से किया गया है इस सूची के समाप्त हो जाने से अब इन उत्पादों का विनिर्माण
बड़े पैमाने पर होने लगा है।
लघु उद्योगों के प्रोत्साहन हेतु नवीनतम् पैकेज और उपाय (RECENT
PACKAGE AND MEASURES TO ENCOURAGE SMALL SCALE INDUSTRIESI)
विगत
वर्षों में कुटीर व लघु उद्योगों के विकास के लिए जो कदम उठाये गये हैं वे संक्षेप
में निम्नलिखित हैं-
1. उत्पादन शुल्क से छूट की सीमा में वृद्धि (Echancing the Excise
Exemption Limit)-2005-06 के बजट में 20 सितम्बर, 2000 से लघु
क्षेत्र के लिए उत्पादन शुल्क से छूट की सीमा को ₹ 3 करोड़ से बढ़ाकर 4 करोड़ कर दिया
गया है।
2. निवेश सीमा में वृद्धि (Raising of Investment Limit) वर्ष
2006 से पहले लघु उद्योग क्षेत्रों के लिये उच्चतम निवेश सीमा र 1 करोड़ थी जिसे
MSMED अधिनियम, 2006 में बढ़ाकर 15 करोड़ कर दिया गया है। ऐसा प्रौद्योगिकी में सुधार
की आवश्यकता को ध्यान में रखकर किया गया है ताकि ये उद्योग प्रतिस्पर्द्धात्मक शक्ति
को और बढ़ा सकें।
3. समेकित आधारभूत विकास योजना का विस्तार (Extension of
Integrated Infirastructure Development Scheme)—समेकित आधारभूत विकास
योजना का विस्तार करके इसे पूरे देश में लागू किया गया है (ग्रामीण क्षेत्रों के लिए
50% आरक्षण की व्यवस्था की गई है)।
4. प्रौद्योगिकी में सुधार के लिए योजना (Scheme for Technology
Upgradation)- प्रौद्योगिकी में सुधार को प्रोत्साहित करने के लिए, सरकार
ने प्रौद्योगिकी सुधार के लिए साख सम्बन्धी पूँजी सहायता योजना (Credit Linked
Capital Subsidy Scheme) की शुरूआत की है।
5. ऋणाधार (या जमानत) सम्बन्धी समस्याओं के समाधान हेतु योजना
(Scheme to Address the Problem of Collaterals) लघु क्षेत्र के उद्योगों
को जमानत (Collaterail) प्रदान करने में जो कठिनाई होती है उसका समाधान करने के लिए
एक साख गारण्टी फण्ड (स्कीम) की शुरूआत की गई है।
6. बाजार विकास सहायता (Market Development Assistance) लघु
व कुटीर उद्योग के लिए एक बाजार विकास सहायता योजना आरम्भ की गई है।
7. अनारक्षण की नीति (Polity of Dereservation)—हाल
के वर्षों में सरकार ने लघु क्षेत्र के लिए आरक्षण हटाने की नीति का पालन किया है।
अनारक्षण की नीति के परिणामस्वरूप लघु ब कुटीर उद्योगों के लिए आरक्षित पदों की संख्या
जो जुलाई, 1989 में 836 तक पहुंच चुकी थी, कम होकर मार्च, 2007 में 114 रह गई। अब लघु
क्षेत्र के लिए आरक्षित मदों की संख्या केवल 14 है।
8. सरकारी खरीद की नीति (Public Procurement Policy)
1 नवम्बर, 2011 को सरकार ने अपनी नई खरीद नीति की घोषणा की जिसमें व्यवस्था है कि सभी
सरकारी विभाग तथा सार्वजनिक उद्यम, वस्तुओं व सेवाओं की अपनी खरीद में लघु व अति लघु
इकाइयों द्वारा उत्पादित वस्तुओं को प्राथमिकता देंगे। यह अनिवार्य कर दिया जायेगा
कि तीन वर्षों की अवधि में सरकारी खरीद में लघु व अति लघु उद्योगों की वस्तुओं का हिस्सा
कम-से-कम 20%, होगा (अर्थात् कुल खरीद का पांचवां हिस्सा)। यह भी निर्णय लिया गया कि
इसमें से 1% (अर्थात् पाँचवां हिस्सा) अनुसूचित जातियों के अनुसूचित जनजातियों के उद्यमियों
द्वारा उत्पादित वस्तुओं का होगा।
आबिद हुसैन समिति की सिफारिशें (RECOMMENDATIONS OF ABID TUSSAIN
COMMITTEE)
लघु
उद्योगों के सुधार के लिए आबिद हुसैन ने जो सिफारिशें की हैं वे संक्षेप में निम्नलिखित
हैं-
(i)
लघु उद्योगों के लिए मदों की आरक्षण पद्धति की समाप्ति।
(ii)
लघुत्तर इकाई में निवेश सीमा ₹ 5 लाख व्तमान स्तर से बढ़ाकर 25 लाख की जाए।
(iii)
लघु उद्योगों में निवेश की सीमा ₹ 60-75 लाख से बढ़ाकर ₹ 3 करोड़ किये जाएँ।
(iv)
विदेशी पूँजी विनियोग की 24% की निवेश सीमा को समाप्त किया जाए।
(v)
अगले 5 वर्षों में लघु उद्योर्गों के लिए सरकार द्वारा ₹ 2,500 करोड़ के विशेष पैकेज
की घोषणा की जाए।
(vi)
अति-लघु उद्योगों की सहायता के लिए रिवॉल्विंग फण्ड की स्थापना हो।
(vii)
लघु औद्योगिक इकाइयों पर नजर रखने के लिए उद्योग मन्त्री की अध्यक्षता में एक संचालन
समिति का गठन किया जाए।
(viii)
सेवा क्षेत्र की लघु-स्तर की इकाइयों को भी लघु उद्योगों में सम्मिलित किया जाय तथा
लघु औद्योगिक क्षेत्र को लघु स्तरीय उद्यम क्षेत्र के नाम से जाना जाय।
(ix)
एक ही प्रकार के एक ही स्थान पर केन्द्रीय लघु स्तरीय उद्यम समूहों के लिए, क्रेडिट
रेटिंग प्रणाली विकसित को जाय ।
आर्थिक उदारीकरण और लघु औद्योगिक क्षेत्र (ECONOMIC LIBERALISATION
AND SMALL INDUSTRY SECTOR)
आबिद
हुसैन समिति की सिफारिशों के आधार पर सुधारों का क्रियान्वयन प्रारम्भ हुआ। आज आरक्षित
मद सूची में मार्च 2010 तक लगभग 21 मद शेष रह गए हैं।
सरकार ने निम्न अन्य नीतिगत निर्णय भी लिये हैं-
(i)
लघु उद्योग क्षेत्रों में टेक्सटाइल और हौजरी से सम्बन्धित :30 मदों की पहचान की गई
है, जिसमें विकास की पर्याप्त सम्भावनाएँ हैं।
(ii)
लघु उद्योग विकास बैंक ऑफ इण्डिया (SIDBI) ने र 500 करोड़ की लघु एवं मध्यम उद्यम निधि
को स्थापना की है।
(iii)
इसके अतिरिक्त सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को यह निर्देश दिया है कि वे लघु
एवं मध्यम उद्यमियों को उपलब्ध कराए जने वाली साख की मात्रा में 20% वार्षिक की दर
से न्यूनतम वृद्धि करें और अगले पाँच वर्ष में लघु उद्योगों के लिए उपलब्ध साख की वर्तमान
मात्रा को दोगुना करें। व्यापार और सेवाओं को भी लघु उद्योग में शामिल करने की घोषणा
की गई है।
कुल
मिलाकर वर्तमान सरकार का दृष्टिकोण आरक्षण प्रणाली को समाप्त करते हुए लघु उद्योग को
वित्तीय एवं तकनीकी समर्थन देना और विपणन सहायता करते हुए और विकास की सम्भावनाओं को
तलाशने का है। इससे इनकी आर्थिक कार्यकुशलता बढ़ेगी और वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा
हो सकेगी।
कुटीर एवं लघु उद्योगों की समस्याओं के समाधान हेतु सुझाव
(SUCCESTIONS FOR SOLVING THE PROBLEMS OF COTTAGE AND SMALL SCALE INDUSTRIES)
यद्यपि
देश की केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारें लघु एवं कुटीर उद्योगों की समस्याओं की ओर उचित
ध्यान दे रही हैं लेकिन फिर भी भावी विकास की दृष्टि से निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते
हैं-
1. उत्पादन तकनीक में सुधार (Improvement in Production Techniqucs)—कुटीर
एवं लघु उद्योगों को उत्पादन तकनीक में सुधार किया जाना चाहिए, तभी ये उद्योग बड़े
उद्योगों की प्रतियोगिता का सामना करते हुए उपभोक्ताओं को अच्छी सेवाएँ उपलब्ध करा
सकेंगे।
2. विशेष कोष (Special Fund)—सरकार को यह प्रावधान बना देना
चाहिए कि प्रत्येक लघु इकाई अपनी वार्षिक आय का 10% एक विशेष कोष में स्थानान्तरित
करे जिसका उपयोग आधुनिकीकरण के कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने के लिए किया जाय और
यह कोष कर से मुक्त होना चाहिए।
3. अनुसन्धान कार्यक्रमों पर विशेष ध्यान (Special Emphasis on
Research Programme) लघु उद्योग की उत्पादकता बढ़ाने और वस्तुओं
की किस्म में सुधार करने की दृष्टि से अनुसन्धान कार्यक्रमों को व्यवस्था की जानी चाहिए।
4. सलाहकार फर्मों की व्यवस्था (Establishment of Consultancy
Firms)
पर्याप्त सलाहकार सेवाओं की व्यवस्था की जानी चाहिए जो लघु उद्योगों की स्थापना करने,
विकास करने और मशीन इत्यादि के सम्बन्ध में अपना परामर्श दें।
5. उत्पादन किस्म पर नियन्त्रण (Control on Quality of Production) लघु
उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं का निर्यात करने और उपभोक्ताओं में विश्वास बनाये
रखने के लिए इन उद्योगों की उत्पादन किस्म पर उचित नियन्त्रण रखा जाना चाहिए।
6. कृषि पदार्थों का विधायन (Processing of Agricultural Goods)—बड़ी
संख्या में लोगों को पूर्णकालिक रोजगार के अवसर प्रदान करने के लिए औद्योगिक इकाइयों
की स्थापना की जानी चाहिए । इस प्रकार के उद्योगों में कपास, जिनिंग दुध आदि का विधायन,
तेल निकालना, जूट के सामान का निर्माण करना, खांडसारी आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
7. कृषि के उत्पादन का प्रयोग करने वाले उद्योग (Industries Using
Agricultural Production)—कुटीर एवं लघु उद्योगों के विकास के लिए यह आवश्यक
है कि कृषि के गौण उत्पादन का निर्माण उद्योगों में कच्चे माल के रूप में प्रयोग करने
के सम्बन्ध में तकनीकों का विकास किया जाय । इस प्रकार के उत्पादन में शोरे से ऐल्कोहॉल,
धान की भूसी से गते बनाना, टूटे हुए चावल से शराब बनाना, चावल को भूसो से तेल निकालना
आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
8. लघु उद्योग सहकारी समितियों का विकास (Development of Small
Industry Co- operative Societies) लघु उद्योग सहकारी समितियों
का अधिकाधिक विकास किया जाना चाहिए
और
इन सहकारी समितियों को अपने सदस्यों को उचित मूल्य पर अच्छे उपकरण और कच्चा माल उपलब्ध
कराना चाहिए।
9. उचित समन्वय (Proper Co-ordination)—जहाँ
तक सम्भव हो सके, विशाल एवं लघु उद्योगों में उचित समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।
10. कच्चे माल की पूर्ति (Supply of Raw Material) लघु
उद्योगों को कच्चे माल की निरन्तर पूर्ति मिलते रहने के लिए विशेष प्रयत्न किये जाने
चाहिए।
11. साख सुविधाएँ (Credit Facilities) लघु
उद्योगों को बैंकों द्वारा दिये जाने वाले ऋणों के लिए जमानत तथा गारण्टी की जरूरत
पड़ती है। इसके फलस्वरूप बहुत कम उद्योग इन ऋणों का लाभ उठा पाते हैं। इन बैंकों को
लघु उद्योगों की सम्भावित साख शक्ति के अनुसार ऋण देने चाहिए। बैंकों तथा अन्य साख
संस्थाओं को अधिक उदार शर्तों पर लघु उद्योगों को ऋण देने चाहिए।
12. उत्तमता नियन्त्रण तथा नये उत्पादन (Quality Control and New
Production)—इन उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं की उत्तमता का स्तर
भी निश्चित किया जाना चाहिए। उपभोग पदार्थ; जैसे- सुरक्षित फल, शर्बत, खेल के सामान,
प्रसाधन की वस्तुएँ इन उद्योगों द्वारा ही बनायी जानी चाहिए।
13. आधुनिकीकरण (Modernisation)—स्वतन्त्रता के पश्चात्
लघु उद्योग कई प्रकार का उच्च कोटि का सामान; जैसे- मोटर के पुर्जे, बिजली का सामान,
मशीनी औजार, फाउण्डरी का सामान, हौजरी आदि बनाने लगे हैं। इन कारखानों के आधुनिकीकरण
की बहुत आवश्यकता है जिससे लागत कम हो सके तथा उत्पादन की कोटि को बढ़ाया जा सके। बारहवीं
पंचवर्षीय योजना में MSME क्षेत्र के विभिन्न पहलू सम्मिलित हैं और इसकी सिफारिशें
छः व्यापक शीर्षों के अन्तर्गत आती हैं-
(i)
वित्त एवं ऋण
(ii)
प्रौद्योगिकी
(iii)
अवसंरचना
(iv)
विपणन एवं खरीद
(v)
कौशल विकास एवं प्रशिक्षण
(vi) संस्थागत ढाँचा।