भारत का विदेशी व्यापार (FOREIGN TRADE OF INDIA)

भारत का विदेशी व्यापार (FOREIGN TRADE OF INDIA)

 किसी देश की अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है। वास्तव में, विदेशी व्यापार अर्थव्यवस्था में आर्थिक क्रियाओं के स्तर तथा स्वरूप का परिचायक होता है। देश किस तरह की वस्तु का निर्यात करता है, किस तरह की वस्तु का आयात करता है, कितनी मात्रा में निर्यात करता हैं, कितनी मात्रा में आयात करता है, किन देशों में अपनी वस्तुएँ बेचता है तथा किन देशों से वस्तुएँ खरीदता है, इन सबसे सम्बन्धित जानकारी आर्थिक व्यवस्था की सही दशा का बोध कराती है।

भारतीय विदेशी व्यापार की आधुनिक (MODERN TRENDS OF INDIAN FOREIGN TRADE)

अथवा

पंचवर्षीय योजनाओं में भारत का विदेशी व्यापार (FOREIGN TRADE OF INDIA DURING FIVE YEAR PLANS)

भारत के विदेशी व्यापार की आधुनिक प्रवृत्ति का अध्ययन हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते हैं :

I. विदेशी व्यापार का आकार और मूल्य (Size and Value of Foreign Trade),

II. विदेशी व्यापार का स्वरूप या संरचना (Composition of Foreign Trade),

III. विदेशी व्यापार दिशा (Direction of Foreign Trade),

I. विदेशी व्यापार का आकार और मूल्य (SIZE AND VALUE OF FOREIGN TRADE)

भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् नियोजन काल में विदेशी व्यापार की मात्रा तथा मूल्य में तीव्र गति से वृद्धि हुई है। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाकाल में निर्यात के बढ़ने के बाद भी भारत का व्यापार घाटा एक ऊँचे स्तर पर बना हुआ है जैसा कि निम्न सारणी में दर्शाया गया है :

सारणी 1–भारत का विदेशी व्यापार (₹ करोड़ में)

पूर्व पृष्छंकित सारणी की विवेचना हम निम्नलिखित बिदुओं के आधार पर करेंगे :

1. कुल विदेशी व्यापार के मूल्य में वृद्धि वर्ष 1990-91 में कुल विदेशी व्यापार (आयात और निर्यात जोड़कर) ₹ 76,761 करोड़ था जिसमें कुछ वर्षों को छोड़कर निरंतर वृद्धि होती रही। वर्ष 2016-17 के दौरान भारत का विदेशी व्यापार (आयात + निर्यात) बढ़कर ₹ 44,27,095 करोड़ तक पहुँच गया।

2. आयातों में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धिदर-कुल आयात का मूल्य जो 1990-91 मैं ₹ 43,198 करोड़ थे वे धीरे धीरे बढ़कर 2000-01 में ₹ 2,30,873 करोड़ हो गए इसके पश्चात् आयातों में अपेक्षाकृत और अधिक तीव्र गति से वृद्धि हुई और वह 2016-17 में बढ़कर ₹ 25,77,666 करोड़ हो गए।

भारत के आयातों में वृद्धि के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं :

(i) तीव्र औद्योगीकरण के कारण मशीनी उपकरणों, तकनीकी ज्ञान व औद्योगीकरण कच्चे माल का आयात

(ii) खाद्यान्नों का नियमित आयात।

(iii) 1990-91 से अपनायी जाने वाली उदार आयात-निर्यात नोति ।

(iv) वस्तुओं को बढ़ती हुई कीमतें।

3. निर्यातों में साधारण वृद्धि-भारत में आर्थिक सुधार के बाद निर्यातों में वृद्धि है। वर्ष 1990-91 में भारत का कुल नियात १ 32,553 करोड़ था जो 2016-17 में बढ़कर ₹ 18,19,429 करोड़ हो गया फिर भी आयातों में वृद्धि दर निर्यातों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक रही है।

हमारे निर्यात-आयात की तुलना में अपेक्षाकृत कम बढ़ने के प्रमुख कारण निम्न प्रकार थे :

(i) निर्यात सम्बर्द्धन के अपर्याप्त उपाय

(ii) विकसित देशों की संरक्षणवादी नीति

(iii) प्राथमिक वस्तुओं के अपेक्षाकृत कम मूल्य

(iv) घरेलू उपभोग में वृद्धि

भारत में निर्यात व आयात की वृद्धि दर को नीचे सारणी 2 में दर्शाया गया है :

सारणी—भारत के निर्यात-आयात में वार्षिक संवृद्धि दर (प्रतिशत में)

4. व्यापार घाटा-चूँकि भारत के आयात, निर्यातों को अपेक्षा लगभग प्रत्येक वर्ष में अधिक रहे हैं इसलिए हमारे व्यापार संतुलन के घाटे में निरन्तर वृद्धि होती गयी है। व्यापार संतुलन का घाटा जो 1990-1991 में ₹ 10,645 करोड़ था वह बढ़कर 2016-17 में ₹ -7,28,237 करोड़ हो गया।

विश्व व्यापार में भारत का अंश या भागीदारी (Indian Share in World Trade)

विश्व के कुल निर्यात व्यापार में भारत के निर्यात का अंश 1948 में 2.2 प्रतिशत था जो क्रमश: गिरकर 1980-81 में 0.42 प्रतिशत हो गया। हाल के वर्षों में भारत के निर्गत व्यापार के सापेक्षिक अंश में कुछ वृद्धि हुची और वह 2000 में 0.7 प्रतिशत, 2009 में 1.3, 2010 में 1.5 तथा 2011 में 1.7 प्रतिशत हो गया। इसी प्रकार विश्व के कुल आयात व्यापार में 1948 में भारत का अंश 3.1 प्रतिशत था जो क्रमशः घटकर 1973 में 0.5 प्रतिशत हो गया। के वर्षों में पुनः आयातों में वृद्धि हुयो और विश्व के कुल आयात में भारत का अंश 2002 में 0.3% में 2015 में 2.2 प्रतिशत तथा 2016 में 2.5% हो गया।

II. विदेशी व्यापार का स्वरूप या संरचना (COMPOSITION OF FOREIGN TRADE)

विदेशी व्यापार की संरचना से आशय आयात-निर्यात की वस्तुओं से है। व्यापार की संरचना किसी देश के विदेश सम्बन्धों की परिचायक होती है। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत के विदेशी व्यापार का स्वरूप औपनिवेशिक था। इस अवधि में भारत के विदेशी व्यापार की संरचना की निम्नलिखित दो प्रमुख विशेषताएँ थीं :

1. भारत से कच्चे माल का निर्यात होता था।

2. भारत को निर्मित माल का आयात होता था।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् विदेशी व्यापार की संरचना में महत्वपूर्ण मौलिक परिवर्तन हुए हैं। व्यापार के औपनिवेशिक ढाँचे को पूर्णतया बदल दिया गया है। भारत का ब्देिशी व्यापार विकासात्मक अर्थव्यवस्था का परिचय देता है। भारत के निर्यात में विविधता आयी है। परम्परागत वस्तुओं के नये उत्पादनों के निर्यात में क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं। अब हम भारत के प्रमुख आयात-निर्यात की मदों की चर्चा करेंगे।

सारणी 3-आयात की प्रमुख वस्तुओं की संरचना

भारत के प्रमुख आयात (Main Imports of India)

वर्तमान में भारत के प्रमुख आयात निम्न प्रकार हैं:

1. पेट्रोलियम एवं लुब्रिकेंट-औद्योगिक विकास के साथ-साथ भारत में खनिज तेल और खनिज पदार्थों की माँग में वृद्धि हो रही है। भारत में खनिज का भण्डार तथा उत्पादन बहुत ही कम है। अत: भारत को अपनी आवश्यकता को पूर्ति हेतु काफी मात्रा में खनिज पदार्थों का आवात करना पड़ता है। पेट्रोलियम एवं लुब्रिकेंट का आयात संयुक्त अरब अमीरात, ईरान, अमेरिका आदि देशों से किया जाता है।

2. पूँजीगत वस्तुएँ-औद्योगीकरण की आवश्यकताओं के कारण सबसे अधिक आयात पूँजीगत वस्तुओं का किया जाता है। इन पूँजीगत वस्तुओं का अमेरिका, जर्मनी, जापान, इंग्लैंड, रूस तथा पूर्वी यूरोप से आयात किया जाता है।

3. उर्वरक व कीटनाशक दवाएँ-कृषि विकास को प्राथमिकता देने के कारण भारत कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए उर्वरकों एवं कीटनाशक दवाओं का आयात करता है।

4. लोहा एवं इस्पात-भारत अभी तक लोहा एवं इस्पात के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं हुआ है। अतः प्रतिवर्ष काफी इस्पात विदेशों से मंगवाना पड़ता है। यह अधिकतर जर्मनी, इंग्लैंड, इटली, अमेरिका तथा फ्रांस से मँगवाया जाता है।

5. खाद्य तेल-पिछले कुछ वर्षों से देश में तिलहनों का उत्पादन उनकी माँग के अनुरूप न होने के कारण भारत को खाद्य तेलों का आयात करना पड़ता है।

6. मोती एवं बहुमूल्य पत्थर-जवाहरात एवं आभूषण (जो अब एक प्रमुख निर्यात लघु उद्योग है) की बढ़ती हुई माँग को देखकर मोती एवं बहुमूल्य रत्नों के आयात में काफी वृद्धि हुई है।

7. अन्य आयात वस्तुएँ-आयात की जाने वाली कुछ प्रमुख अन्य वस्तुएँ ये हैं-मशीन व औजार, प्लास्टिक का सामान, कपास, ऊन एवं जूट के रेशे, अलौह वस्तुएँ व दवाइयाँ।

देश में आयात की जाने वाली प्रमुख वस्तुओं को नीचे सारणी में दर्शाया गया है :

संक्षेप में भारत के कुल आयात में प्रमुख वस्तुओं का प्रतिशत सारणी 4. के अनुसार था :

सारणी 4–प्रमुख वस्तुओं का आयात (प्रतिशत हिस्सा)

आयात व्यापार में परिवर्तन (Changes in Import Trade)

भारत को आयात संरचना में हुए परिवर्तनों का हम निम्नलिखित के अंतर्गत अध्ययन कर सकते हैं:

1. आयात में वृद्धि वाली वस्तुएँ

(i) पेट्रोलियम तथा पेट्रोलियम पदार्थ-यद्यपि भारत में पेट्रोलियम तथा पेट्रोलियम पदार्थ निकाले जा रहे हैं, फिर भी इनका लगातार आयात बना हुआ है और आयात व्यापार में इनका हिस्सा बढ़ा भी है।

(ii) अन्य-मशीनों, विद्युत उपकरण एवं गैर-विधुत उपकरण तथा मशीनी उपकरणों के आयात में भी कुछ वृद्धि हुई है।

2. आयात में कमी वाली वस्तुएँ

(i) रसायन तथा उर्वरक-रसायनों तथा उर्वरकों के आयात में गिरावट आयी है।

(ii) खाद्य एवं सम्बन्धित उत्पाद-खाद्य एवं सम्बन्धित उत्पादों के आयात में बहुत गिरावट आयी है। इनमें प्रमुख हैं- अनाज, दालें, दुग्ध उत्पाद, फल तथा सब्जियाँ।

(iii) विनिर्मित वस्तुएँ-इनमें प्रमुख चमड़ा तथा उत्पाद, जूट तथा लोहा इस्पात आदि सम्मिलित हैं।

भारत के प्रमुख निर्यात (Main Exparts of India)

भारत के प्रमुख निर्यातों को सारणी 5 द्वारा दर्शाया गया है :

सारणी 5-विदेशी निर्यात व्यापार की संरचना

वर्तमान में भारत से निर्यात की जाने वाली वस्तुएँ निम्नलिखित हैं :

1. जूट की वस्तुएँ—जूट भारत की परम्परागत निर्यात वस्तुओं में से एक है। पहले जूट पर भारत का लगभग एकाधिकार था, लेकिन देश के विभाजन के बाद यह एकाधिकार नहीं रहा। लेकिन आज भी भारत जूट की वस्तुओं के निर्यात में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

2. चाय-भारत चाय उत्पादों एवं निर्यातकों में एक प्रमुख देश है। यहाँ की कुल उत्पादित चाय का एक अच्छा भाग निर्यात कर दिया है।

3. कॉफी—भारत से काफी का निर्यात बराबर बढ़ रहा है।

4. सिले-सिलाये वस्त्र भारत से सिले-सिलाये कपड़ों का निर्यात जा रहा है। वर्ष 1960-61 में ₹ 1 करोड़ का निर्यात किया गया था।

5. रसायन व सम्बद्ध वस्तुएँ-भारत में प्रगति के साथ-साथ कई प्रकार के रासायनिक पदार्थों का निर्यात ईरान, युगांडा, सूडान आदि देशों में किया जाता है।

6. रल एवं आभूषण-भारत से किये जाने वाले निर्यातों में सबसे अधिक वृद्धि जवाहरात के निर्यात में हुई। भारत इनका कच्चा माल विदेशों से मँगवाता है तथा इन्हें तैयार करके विदेशों को ही निर्यात कर देता है। इसका कारण यह है कि भारत में श्रम बहुत सस्ता है।

7. इंजीनियरिंग वस्तुएँ—आज भारत में अनेक प्रकार के औद्योगिक संयंत्र और मशीनें, भारी परिवहन उपकरण, पंखे, मोटर साइकिलें बनायी जाती हैं और उन्हें विदेशों को निर्यात किया जाता है। भारत के निर्यात 1 व्यापार में इंजीनियरिंग सामान महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता जा रहा है। भारत से इंजीनियरिंग का सामान अफ़्रीकी देशों, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन आदि देशों को निर्यात किया जाता है।

8. पेट्रोलियम उत्पाद कच्चे तेल के उत्पादन के मामले में भारत भले ही वैश्विक आपूर्ति पर निर्भर है। लेकिन पेट्रोलियम उत्पादों के निर्यातों में भारी वृद्धि हो रही है।

9. फार्मास्यूटीकल्स (दवाइयाँ)-भारत का फामास्यूटीकल्स भी निर्यात के मामले में बेहतर प्रदर्शन कर रहा है।

10. सूचना प्रौद्योगिकी निर्यात में भारत का यह सर्वथा नवीन क्षेत्र है। विगत दो दशकों में भारत में आई संचार क्रांति की बदौलत भारत ने वैश्विक सॉफ्टवेयर बाजार में अपनी उपस्थिति धमाकेदार तरीके से दर्ज की है।

11. ऑटोमोबाइल ऑटोमोबाइल भारत का उच्च संवृद्धि दर वाला क्षेत्र है। आर्थिक तथा उदारीकरण के दौर में उदार नीतियों का लाभ उठाते हुए आज विश्व की लगभग सभी बड़ी ऑटोमोबाइल कम्पनियों ने भारत में अपनी विनिमाण इकाइयाँ स्थापित की हैं। इसी उद्योग के सहायक के रूप में ऑटोमोबाइल् कल पुर्जे बनाने वाली इकाइयों ने भी वैश्विक दर्जा हासिल कर लिया है।

संक्षेप में भारत में प्रमुख वस्तुओं का कुल निर्यात में प्रतिशत हिस्सा निम्नलिखित सारणी में दिया जा रहा है:

सारणी 6–प्रमुख वस्तुओं का निर्यात

2015-16 में देश की प्रमुख निर्यात वस्तुओं में केवल रसायन व सम्बन्धित उत्पादों के निर्यात में ही वृद्धि (0.6 प्रतिशत) दर्ज की गई थी; जबकि अधिकांश उत्पादों के निर्यातों में वृद्धि ऋणात्मक ही रही, इनमें टेक्सटाइल्स (-3.3 प्रतिशत), इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएँ (-5.3) प्रतिशत, चमड़ा (- 10.3 प्रतिशत), समुद्री उत्पाद (- 13.5 प्रतिशत), खनिज (-16.4 प्रतिशत), इंजीनियरिंग उत्पाद (-17.0 प्रतिशत), कृषिगत व सहायक उत्पाद (- 17.6 प्रतिशत) व पेट्रोलियम उत्पादों के निर्यात (- 46.2 प्रतिशत) शामिल हैं।

निर्यात व्यापार में परिवर्तन (Changes in Exports Trade)

भारत में निर्यात व्यापार में परिवर्तन को निम्नांकित तथ्यों के आधार पर समझा जा सकता है :

1. कृषि पदार्थों के निर्यात के प्रतिशत में कमी (Declinc in Percentage of Exports of Agricultural Products)—स्वतन्त्रता के पश्चात् कृषि पदाधों के निर्यातों का कुल निर्यात में प्रतिशत भाग कम होता जा रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि देश की जनसंख्या में बहुत अधिक वृद्धि हो जाने के कारण कृषि पदार्थों की घरेलू माँग काफी अधिक बढ़ गई है। इसके फलस्वरूप कृषि पदार्थ निर्यात के लिए उपलब्ध नहीं हो पाते हैं।

2. परम्परागत वस्तुओं के निर्यात के प्रतिशत में कमी (Decline in Percentage of Exports of Conventional Itein)—भारत के अधिकतर निर्यात परम्परागत वस्तुओं जैसे-चाय, जूट, खाद्यान्न, आदि कृषि पदार्थों तथा खनिज पदार्थों के हैं। परन्तु अब कुल निर्यातों में इनका प्रतिशत कम हो रहा है। इसका मुख्य कारण इन पदार्थों की घरेलू माँग में वृद्धि हो जाने के कारण निर्यात के लिए कम मात्रा का उपलब्ध होता है। देश के औद्योगीकरण में वृद्धि हो जाने के कारण कच्चे माल को देश में ही खपत बढ़ गई है।

3. इंजीनियरिंग के सामान, हस्तकला तथा चमड़े के सामान निर्यातों में वृद्धि (Increase in Export of Engineering Goods, Handicrafts and Leather Product) भारत के निर्यातों में इंजीनियरिंग के सामान, हस्तकला तथा चमड़े के सामान का निर्यात काफी बढ़ गया है।

4. सर्वाधिक तेजी से बढ़ने वाले निर्यात क्षेत्र (Fastest Developing Export.Segments)- विगत वर्षों में सर्वाधिक तेजी से बढ़ने वाले निर्यातक क्षेत्र हैं : 1. पेट्रोल उत्पाद, 2. सॉफ्टवेयर, 3. रत्न और आभूषण, 4. मशीनें तथा उपकरण, 5. दवाइयाँ, फार्मास्यूटिकल्स तथा फाइन रसायन ।

5. संरचनात्मक परिवर्तन (Structural Changes) नियोजन काल में भारत के विदेशी व्यापार में निम्नलिखित संरचनात्मक परिवर्तन हुए हैं :

(i) नियांतों में विविधता आयी है तथा गैर-पारम्परिक निर्यात का महत्व बढ़ा है।

(ii) अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में माँग की अनुकूल स्थिति एवं आकर्षक मूल्य स्थिति का लाभ उठाने की क्षमता अब भारत में है।

(iii) इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं एवं सॉफ्टवेयर के निर्यात में वृद्धि विदेशी व्यापार हेतु एक शुभ संकेत है।

(iv) नयी कृषि नीति की घोषणा के पश्चात् कृषि-वस्तुओं के निर्यात पर बल दिया जा रहा है।

इसके फलस्वरूप चावल, फल एवं सब्जियाँ तथा खाद्य पदार्थ (Processed Foods) भी

हमारे निर्यात के महत्वपूर्ण अंग बनते जा रहे हैं।

III. विदेशी व्यापार की दिशा (DIRECTION OF FOREIGN TRADE)

इसका आशय इस बात से है कि भारत का व्यापार किन देशों के साथ है। दूसरे शब्दों में, भारत किन देशों से माल आयात करता है और किन देशों को अपना माल निर्यात करता है। अनेक देशों के साथ

भारत व्यापार करता है और समय-समय पर उसमें परिवर्तन होते हैं। हम आयात और निन्यांत को अलग-अलग लेकर भारत के व्यापार की दिशा का अध्ययन करेंगे।

(A) आयात की दिशा (Direction of Import)

सारणी 7 में भारत की विदेशी व्याणर की दिशा को दर्शाया गया है :

सारणी 7 व्यापार की दिशा (आयात का प्रतिशत)

उपर्युक्त सारणी से स्पष्ट है :

1. आर्थिक सहयोग तथा विकास संगठन (Organisation of Economic Co-operation and Development : OECD)—इस संगठन के अन्तर्गत फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम, ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका, नीदरलेण्ड, जापान तथा ऑस्ट्रेलिया को सम्मिलित किया जाता है। यद्यपि OECD देशों में भारत का आयात अधिक बना रहा था परन्तु धीरे-धीरे उसमें कमी आयी है। भारत का आयात इन देशों से जो कुल आयात का 1990-91 में 51% था वह घटकर 2014-15 में 26.9% रह गया है।

2. पेट्रोल निर्यातक देश संगठन (Organisation of Petroleum Exporting Countries : OPEC)—इस संगठन के अन्तर्गत ईरान, इराक, कुवैत तथा सऊदी अरबिया आते हैं। भारत के कुल आयातों में OPEC देशों के हिस्से में धीरे-धीरे वृद्धि हुई है फलत: भारत का कुल आयात में इस संगठन का हिस्सा जो 1990-91 में 16.3% था वह 2014-15 में बढ़कर 30.6% हो गया।

3. पूर्वी यूरोप (Eastern Europe)—इसमें रोमानिया, रूस तथा जी. डी. आर. को सम्मिलित किया जाता है। इन देशों का भारत के कुल आयात में जो प्रतिशत 1990-91 में 7.8% था वह घटकर 2014-15 में 1.7% रह गया।

4. विकासशील देश (Developing Countries)—इसमें तेल नियोतक राष्ट्रों को छोड़कर एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के देश आते हैं। भारत के कुल निर्यात में विकासशील देशों का हिस्सा 1990-91 में 18.6% था जो 2014-15 में 39.0% हो गया।

5. अन्य देश (Other Countries) भारत के आयात व्यापार में अन्य देशों के साथ जो 1990- 91 में 35% था वह 2014-15 में घटकर 1.8% हो गया।

देशानुसार आयात (Countrywise Import) भारत में आयातों का मुख्य स्रोत 2013-14 में चीन था जिसका भारत के कुल आयात में 11.3% भाग था। इसके बाद भारत के प्रमुख आयातक देश इस प्रकार थे-सऊदी अरब (8.1%), यूनाइटेड अरब अमीरात (UAE) (6.5%) व अमेरिका (5.0%) |

संक्षेप में भारत के आयात को मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

(i) विगत वर्षों में तेल उत्पादक देशों ( ईरान, कुवैत तथा सऊदी अरब) से बड़ी मात्रा में आयात के लिए बाध्य होना पड़ा है जिसका कारण पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में असाधारण वृद्धि है।

(ii) विगत वर्षों में जर्मनी, बेल्जियम, कनाडा, फ्रांस तथा जापान से हमारे आयात में वृद्धि हुई है।

(iii) पूर्वी यूरोप के देशों से हमारा आयात बढ़ा है परंतु सोवियत संघ के विघटन के बाद इसमें कमी

(iv) विकासशील देशों जैसे अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका और केरेबियन से भारत के आयात व्यय में हिस्सा बढ़ा है।

आयात की दिशा में परिवर्तन के कारण (Reasons of Changes in the Direction of Imports)-भारत के विदेशी व्यापार के आयात की दिशा में आने वाले परिवर्तनों के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

(i) ब्रिटेन के अलावा अन्य देशों से मिलने वालो बड़ो बड़ी सहायताएँ तथा अनुदान जिसमें कुछ निश्चित देशों के साथ निबद्ध सहायता भी शामिल है।

(ii) ब्रिटेन के अलावा अन्य देशों में आवश्यक गुण की तथा कम कीमत पर वस्तुओं का उपलब्ध होना।

(iii) व्यापार घाटे, विदेशी मुद्रा को कठिनाइयों एवं योजना की आवश्यकताओं के कारण समाजबादी देशों से रुपयों में भुगतान करने का समझौता किया गया जिससे व्यापार के संतुलन तथा विस्तार को मदद मिली।

(iv) विकास के कारण उत्पन्न हुई भारतीय अर्थव्यवस्था की जरूरतों में विविधता से व्यापार की दिशा में विविधता जरूरी बन गई है।

(B) निर्यात की दिशा (Direction of Exports)

निर्यात को दिशा के अध्ययन के लिए भारत के व्यापारी साझेदारों को निम्नलिखित पाँच समूहों में बाँटा जाता जैसा कि नीचे सारणी में दशाया गया है:

सारणी 8-भारत के निर्यात व्यापार की दिशा (प्रतिशत में)

उपर्युक्त सारणी के अंकों से स्पष्ट होता है कि

1. भारत का OECD देशों को निर्यात जो 1991 में कुल निर्यात में 58.5% भागीदारी थी व घटकर 2014-15 में 35.2% हो गयी। इस प्रकार भारत से निर्यात इन देशों को कम हो रहे हैं।

2. OPEC संगठन के देशों को भारत के निर्यात में वृद्धि हो रही है। भारत के कुल निर्यात में इस संगठन के देशों की भागीदारी 1990 91 में मात्र 5.6% थी जो कि 2014-15 में बढ़कर 18.1% हो गयी।

3. पूर्वी यूरोप के देशों को हमारा निर्यात तेजी से घट रहा है। उदाहरण के लिए 1990-91 में इन देशों का कुल निर्यात में भाग 17.9% था जो घटकर 2014-15 में 1.1% रह गया

4. विकासशील देशों की भारत के कुल निर्यात में भागीदारी तीव्र गति से बढ़ी है। 1990-91 में विकासशील देशों को हमारे कुल निर्यात का 16.8%, इन देशों को निर्यात किया जाता था जो बढ़कर 2014-15 में 43.9% हो गया है।

5. अन्य देशों का निर्यात भी घटा है भारत के कुल निर्यात में इन देशों का हिस्सा 1990-91 में 6.2%था वह घटकर 2014-15 में 1.7% रह गया।

वैश्विक वृद्धि में आई शिथिलता ने भारत के विदेशी व्यापार की दशा को भी विगत वर्षों में प्रभावित किया है। आर्थिक समीक्षा 2015-16 में बताया गया था कि 2001-05 से 2014-15 के दौरान भारत के निर्यातों में अमेरिका (उत्तरी अमेरिका व लेटिन अमेरिका सहित) यूरोप, सी. आई. एस. व बाल्टिक राष्ट्रों की हिस्सेदारी जहाँ घटी है वहीं एशियाई व अफ्रीकी क्षेत्रों की हिस्सेदारों में इन वर्षों में वृद्धि हुई है, आगे दी गई सारिणी में दर्शाया गया है-

सारणी:9

देशानुसार निर्यात वर्ष 2013-14 में भारत के कुल निर्यात में जहाँ अमेरिका का भाग (12.5%) था उसके बाद क्रमश: UAE का 9.7%, चीन का 4.7%, सिंगापुर व हाँगकांग प्रत्येक 4% |

राज्यवार निर्यात-वर्ष 2013-14 में भारत के निर्यात में पाँच शीर्षस्थ राज्य महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश और कर्नाटक थे। इस दौरान इन प्रदेशों का भारत के कुल निर्यात में 63.4 % का योगदान था।

संक्षेप में भारत के निर्यात को मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

1. भारत के निर्यात में अधिक विविधता आ गयी है।

2. हमारे निर्यात पूर्वी देशों में बड़ी तेजी से बढ़े हैं। इसका मुख्य कारण जापान तथा एसिवान (ASEAN) राष्ट्रों में विकास दर अच्छी रहने के कारण माँग का स्तर ऊँचा बना रहना है।

3. भारत के दृष्टिकोण से सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह रहा है कि अफ्रीका, एशिया तथा लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों का उसके निर्यात में हिस्सा बढ़ रहा है।

निर्यात की दिशा में परिवर्तन के कारण (Reasons of Change in the Direction of Export)- भारत के विदेशी व्यापार के निर्यात की दिशा में आने वाले परिवर्तनों के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं:

(i) आयोजन तथा सन्तुलित व्यापार के लिए स्थायी बाजारों की आवश्यकता के प्रभाव से भारत व अन्य देशों के बीच हुए व्यापारिक समझौतों ने इन देशों में निर्यात के विस्तार को सुनिश्चित कर दिया।

(ii) अन्य देशों में विकास । दर ब्रिटेन से कहीं ज्यादा ऊँची थी जिसके कारण उन देशों में भारतीय माल की माँग में अधिक वृद्धि हुई।

(iii) भारत की अर्थव्यवस्था का विविधीकरण जिसके फलस्वरूप माल की बिक्री के लिए बाजारों का विविधीकरण जागरूक बन गया।

भारतीय व्यापार में प्रमुख देशों का आयात निर्यात में हिस्सा (Share of Some Major Countries in Import and Export of Indian Trade)

भारतीय बाजार में प्रमुख क्षेत्रों देशों का निर्यात और आयात हिस्सा निम्नलिखित सारणी में दर्शाया गया है:

सारणी 10 भारतीय व्यापार में प्रमुख देशों की भागेदारी

विदेशी व्यापार की मुख्य विशेषताएँ (MAIN FEATURES OF FOREIGN TRADE)

स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत के विदेश व्यापार की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

1. कुल विदेशी व्यापार के मूल्य में वृद्धि — भारत में आर्थिक नियोजन के कारण विदेशी व्यापार के मूल्य में निरन्तर बृद्धि होती रही हैं। कुल विदेशी व्यापार जो 1990-91 में ₹ 75,751 करोड़ था, वह 2013-14 में ₹ 47,46,992 करोड़ हो गया।

2.आयातों में निरन्तर वृद्धि का रुख—भारत में योजनाबद्ध विकास के लिए आयातों में अनिवार्यता के कारण आयातों की निरन्तर तेजी से वृद्धि हो रही है।

3. निर्यातों में अपेक्षाकृत वृद्धि भारत के निर्यातों में निरन्तर वृद्धि हो रही है तथा गियांतों की वृद्धि की दर आयातों के मुकाबले अधिक है।

4. कुल राष्ट्रीय आय का बढ़ता हुआ प्रतिशत—भारत के विदेशी व्यापार का कुल राष्ट्रीय आय में काफी महत्व है। 1950-51 में भारत का विदेशी व्यापार (आयात + नियांत) शुद्ध राष्ट्रीय आय का 12 प्रतिशत था। जे 2014-15 में यह बढ़कर 50% प्रतिशत शुद्ध राष्ट्रीय आय का हो गया।

5. विश्व व्यापार में भारत की रैंक-विश्व व्यापार में भारत की रैंक को नीचे सारणी में दर्शाया गया है :

सारणी 11-विश्व व्यापार (2015) में भारत की रैंक

6. निर्यात-आयात अनुपात—नियांत-आयात से अभिप्राय है कि निर्यात से प्राप्त होने वाली आय के द्वारा कुल आयात को कितने प्रतिशत मूल्य का भुगतान किया जा सकता है। निर्यात-आयात अनुपात 1990-91 में 66.2 प्रतिशत से बढ़कर 2002-03 में यह 83.4 प्रतिशत आकलित किया गया था. किन्तु 2014-15 में यह घटकर 70% प्रतिशत रह गया।

7. विदेशी व्यापार के घाटे में निरन्तर वृद्धि–भारत के विदेशी व्यापार सन्तुलन को निरन्तर प्रतिकूलता विदेशी विनिमय के संकट का कारण रही है।

8. आयात संरचना में परिवर्तन देश में योजनाकाल के दौरान विदेशी व्यापार की संरचना में हुए परिवर्तन का अध्ययन किया जाये तो निम्नलिखित बातें दृष्टिगोचर होती हैं :

(i) आयोजन काल के आरंभिक वर्षों में लोहा, इस्पात, मशीन, परिवहन, उपस्कर आदि पूँजीगत सामान का बड़ी मात्रा में आवात किया गया। इन आयातित वस्तुओं का प्रयोग देश के पूँजीगत वस्तुओं के स्टॉक में वृद्धि करने के लिए किया गया।

(ii) विकास के दूसरे चरण में अब देश में पूँजीगत उद्योगों का ढाँचा तैयार हो चुका है। पूँजीगत वस्तुओं के स्थान पर औद्योगिक कच्चे माल, मध्यवर्ती तथा अनुरक्षण वस्तुओं का अधिक मात्रा में आयात किया जा रहा है।

(iii) 1990 के दशक से उदारवादी की नीति को अपनाने के पश्चात् भारतीय आयात की रचना में परिवर्तन आये हैं। विदेशी विनिमय कोष की स्थिति में सुधार के कारण आयात का सहन-स्तर (Tolerance Level) काफी ऊँचा हो गया है। इस कारण आयात-प्रतिस्थापन की नीति को त्यागने तथा प्रगतिशील लाभ (Dynamic Advantage) के आधार पर व्यापार प्रोत्साहन की नीति को अपनाने के कारण आवश्यक आयात में अन्य प्रकार के अन्तर महत्वहीन हो गये हैं।

9. निर्यात व्यापार की संरचना में परिवर्तन भारत के निर्यात व्यापार के स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ है। विगत वर्षों में कृषि पदार्थों व परम्परागत वस्तुओं के निर्यात के प्रतिशत में कमी आयो है। परन्तु पेट्रोल पदार्थ, सॉफ्टवेयर, ऑटोमोबाइल व फॉर्मास्यूटिकल्स आदि क्षेत्रों में अत्यधिक वृद्धि हुई है।

10. विदेशी व्यापार की दिशा (Direction) में नया मोड़-विगत 67 वर्षों में भारत के विदेशी व्यापार में भी क्रांतिकारी मोड़ आया है जहाँ पहले भारत के विदेशी व्यापार में ब्रिटेन व अमेरिका का सर्वोच्च स्थान था। वहाँ अब भारत के विदेशी व्यापार में अमेरिका के साथ विकासशील देशों तथा तेल उत्पादक देशों का महत्वपूर्ण स्थान है।

11. समुद्री मार्ग की प्रमुखता भारत में विदेशी व्यापार का अधिकांश (लगभग 92 प्रतिशत) भाग समुद्रो मार्गों द्वारा होता है। स्थल मार्गों का महत्व नगण्य है, क्योंकि अफगानी सत्ता राजनीतिक संकट में है, चीन एवं पाकिस्तान के साथ भी सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं हैं, अत: अधिकांश विदेशी व्यापार समुद्री मार्ग से ही होता है।

12. विदेशी कम्पनियों का प्रभुत्व तथा भारतीयकरण की प्रवृत्ति भारत के विदेशी व्यापार का अधिकांश भाग अभी तक विदेशी आयात-निर्यात कम्पनियों, जहाजी कम्पनियों, जहाजी बीमा कम्पनियों और विनिमय बैंकों के हाथ में है तथा वे ही अधिकांश लाभ अर्जित करते हैं।

13. विदेशी व्यापार पर सरकार का नियंत्रण–भारत सरकार विदेशी व्यापार पर पूर्ण नियंत्रण रखती है। सरकार को विदेशी व्यापार की नीति का प्रमुख उद्देश्य निर्यात को बढ़ावा देना है। अनावश्यक वस्तुओं का आयात बिल्कुल बंद है। निर्यात को बढ़ाने के लिए कई संस्थाएँ स्थापित की गई हैं। जैसे- (i) व्यापार बोर्ड (Board of Trade), (ii) निर्यात विकास समितियों, (Export. Promotion Councils),(iii) नियांत निरीक्षण सलाहकार समितियाँ, Export Inspeetion Advisory Councils), (iv) निर्यात साख तथा गारण्टी निगम, (Export Credit and Guarantee Corporation), (v) प्रदर्शनी निर्देशक (Director of Exhibition) आदि ।

14. निर्यात सम्बर्द्धन प्रयत्नों में वृद्धि-भारत में विदेशी विनिमय संकट से मुक्ति तथा विदेशी व्यापार घाटे के समापन के लिए निरन्तर निर्यात सम्बर्द्धन (Export Promotion) प्रयत्नों को तेज किया गया है।

15. विदेशी व्यापार नीतियों में क्रांतिकारी रुख-भारत के विदेशी व्यापार में आयात प्रतिस्थापन तथा निर्यात सम्बर्द्धन की नीतियों के द्वारा एक विकासोन्मुख रुख अपनाया गया है। 1970-71 से ही भारत की आयात-निर्यात नीतियों को विकास तथा निर्यातोन्मुखी (Development-cum-Export- oriented) बनाया गया है।

भारत में निर्यात में धीमी वृद्धि के कारण (CAUSES OF SLOW GROWTII RATE TARGET IN INDIA)

भारत से निर्यात में धीमी वृद्धि के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं :

1. भारत को अपने परम्परागत निर्यातों के सम्बन्ध में भी अधिक सीमा में विदेशी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है।

2. कई वस्तुओं का उत्पादन मूल्य दूसरे देशों को तुलना में काफी अधिक है।

3. भारत से निर्यात की जाने वाली कई वस्तुओं की क्वालिटी दूसरे देशों के उत्पादन की तुलना में घटिया है।

4. भारत द्वारा निर्यात की जाने वाली कई वस्तुओं; जैसे-सूती कपड़े आदि के विदेशों में स्थानापन्न उपलब्ध होने लगे हैं

5. भारतीय वस्तुओं का विदेशों में प्रचार बहुत ही कम है।

6. भारतीय माल के आयात पर विकसित देशों द्वारा संरक्षणवादी नीतियाँ अपनायी जाती हैं।

निर्यात सम्बर्द्धन के लिए सुझाव (SUGGESTIONS FOR EXPORT PROMOTION)

निर्यात को बढ़ाने के लिये हमें निम्नलिखित दिशाओं में प्रयत्न करने होंगे :

1. उत्पादन में वृद्धि-नियात कार्यक्रम को पूरा करने के लिए यह आवश्यक है कि कृषि, खनिज एवं औद्योगिक क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ाया जाये। उत्पादन बढ़ाकर हो निर्यात के योग्य बचत में वृद्धि की जा सकती है।

2. घरेलू उपभोग पर प्रतिबन्ध-कुछ वस्तुओं को निर्यात के लिए पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराने के लिए वित्तीय एवं अन्य तरीकों से घरेलू उपभोग पर प्रतिबन्ध लगाना होगा। इसका अर्थ यह नहीं कि इसका कुल उपभोग अथवा प्रति व्यक्ति वर्तमान उपभोग कम कर दिया जायेगा बल्कि हमें उन वस्तुओं के घरेलू उपयोग पर आवश्यक रोक लगानी होगी। विदेशी मुद्रा अर्जित करने के लिए यह त्याग आवश्यक है।

3. परोक्ष करों में कमी-सभी प्रकार के परीक्ष करों को, जैसे-नियति कर, ब्रिकी कर आदि निर्यात को जाने वाली वस्तुओं के साबन्ध में लौटा देना चाहिए। आजकल ऐसा केवल नियात करों के लिए किया जा रहा है। अन्य परोक्ष करों के सम्बन्ध में नहीं जो कि अभी भी विशाल राशि के हैं।

4. कच्चे माल की अन्तर्राष्ट्रीय मूल्यों पर उपलब्धि-निर्यात वस्तुओं के मूल्य को प्रतिस्पर्धात्मक स्तर पर लाने के लिए यह आवश्यक है कि निर्यातित उद्योगों को आयातित कच्चे माल आदि अन्तर्राष्ट्रीय मूल्यों पर उपलब्ध कराये जायें। अभी कुछ थोड़े कच्चे माल ही राजकीय व्यापार निगम द्वारा उपलब्ध कराये जाते हैं।

5. निर्यात में विविधता-भारत के लिए निर्यात में विविधता और नयी मण्डियाँ ढूँढ़ना अत्यन्त आवश्यक है। भारत को विदेशी गाँग के अनुसार नये नये पदार्थों का विकास करना होगा। हमारे पस कई एक ऐसे कच्चे पदार्थ हैं-कच्चा लोहा, एल्युमीनियम इत्यादि जिनसे हम अविकसित अथवा निर्मित वस्तुएँ विदेशों को भेज सकते हैं। अत: इस ओर सरकार को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

6. निर्यात सम्बन्धी सूचना का उचित प्रबन्ध-देश में निर्वान सम्बन्धी सूचना का अधिक विस्तार किया जाना चाहिए। लोगों को यह ज्ञान होना चाहिए कि किस देश को कौन-सी वस्तुओं का निर्यात किया जा सकता है।

7. निर्यात क्षेत्र को प्राथमिक क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए-निर्यात क्षेत्र को देश का प्राथमिकक्षक्षेत्र घोषित कर दिया जाना चाहिए। इसका व्यापक प्रचार किया जाना चाहिए जिससे देश में उत्पादित हस्तकला आदि बहुत-सी वस्तुओं का निर्यात किया जा सके निर्यात करने वालों को कई प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए, जैसे (i) बिजली की निरन्तर आपूर्ति; () करों में रियायतें; (ii) माल शीघ्रता से भेजने की सुविधाएँ; (iv) कच्चे माल की उचित मात्रा में उपलब्धिः (v) उत्पादन क्षमता के विस्तार की स्वीकृति।

8. निर्यात विपणन का प्रशिक्षण–देश में निर्यात व्यापार की ट्रेनिंग का अधिक प्रचार किया जाना चाहिए । भारतीय विदेशी व्यापार संस्थान (Indian Institute of Foreign Trade) द्वारा इस विषय में विशेष प्रयत्न किये जाने चाहिए। इस संस्थान को विभिन्न विश्वविद्यालयों में निर्यात विपणन के सम्बन्ध में प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए।

9. भारत में विदेशी उद्यम विदेशी उद्यमियों को भारत में अधिक से अधिक निर्यात उद्योग स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। बहुराष्ट्रीय (Multinational) कम्पनियों इस दिशा में काफी उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। भारतीय उद्योग घरानों को भी विदेशी सहयोग प्राप्त करना चाहिए।

10. विदेशों में संयुक्त उद्यम-भारत में उद्यमियों तथा सरकार को विदेशों में संयुक्त उद्यम स्थापित करने चाहिए। इसका हमारे निर्यातों पर काफी अनुकूल प्रभाव पड़ेगा।

11. बहुपक्षीय तथा द्विपक्षीय समझौते-विदेशी विनिमय की अधिक प्राप्ति के लिए द्विपक्षीय समझौते, जिनमें रुपये के रूप में वस्तुओं का आयात तथा निर्यात किया जाता है, के स्थान पर बहुपक्षीय समझौतों को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए। इसके फलस्वरूप विदेशी विनिमय की अधिक प्राप्ति हो सकेगी।

12. निर्यात उत्पादन नियोजन-निर्यात की जाने वाली वस्तुओं के सम्बन्ध में एक उचित योजना बनायी जानी चाहिए। विदेशी माँग को ध्यान में रखते हुए नई वस्तुओं का उत्पादन काफी बड़े पैमाने पर किया जाना चाहिए।

13. खुली अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन-निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए एक अधिक खुली अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। इस हेतु निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं :

(i) ऐसे वातावरण का सृजन करना जो निर्यात बाजार को अधिक-से-अधिक आकर्षक बना सके।

(ii) घरेलू विक्री की तुलना में निर्यात क्षेत्र में अधिक लाभ प्राप्त हो, ताकि निर्यात के लिए अधिक उत्पादन हो सके।

(iii)देश की आयात आवश्यकता को पूरा करने हेतु निर्यात द्वारा पर्याप्त आय प्राप्त करने के लिए आवश्यक अतिरेक का सृजन।

(iv) ऐसा आधार जो बाह्य प्रतिस्पर्धा का मुकाबला कर सके।

(v) व्यापार को जाने वाली वस्तुओं तथा सेवाओं के विस्तृत उत्पादन अधार का सृजन।

भारत के विदेशी च्यापार क्षेत्र की मध्यम और दीर्घकालीन चुनौतियाँ (CHALLENGES FOR INDIA'S FOREIGN TRADE SECTOR IN THE MEDIUM AND LONG TERMS)

भारत के विदेशी व्यापार के क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं:

1. विश्व व्यापार में प्रमुख भागीदार बनने की चुनौती (Challenge of becoming a major player in world trade) 2002-03 से 2007-08 तक अपने निर्यात में 20% से अधिक की वृद्धि प्राप्त करने की उल्लेखनीय उपलब्धि के बावजूद, भारत ने विश्व व्यापार में हिस्से की दृष्टि से अधिक प्रगति नहीं की है। यदि भारत विश्व निर्यात में चीन के हिस्से का कम से कम आधा भी हासिल कर सके तो इसकी रोजगार और विनिर्माण गतिविधि पर बेतहाशा प्रभाव होगा। व्यापार नीतिगत उपायों, कुछ बाजारों और उत्पादों पर ध्यान केन्द्रित करने, व्यापार सुगमीकरण, टैरिफ सुधारों आदि ने जहाँ कुछ हद तक मदद की है वहीं यदि भारत को विश्व निर्यात में महत्वपूर्ण हिस्सा हासिल करना है तो बहुत अधिक प्रयासों की आवश्यकता होगी।

2. भारत के निर्यात के वास्तविक विविधीकरण की चुनौती (Challenge of real diversification of India's exports)–भारत जहाँ विगत वर्षों के दौरान अपने निर्यात बास्केट तथा निर्यात बाजारों में विविधता लाया है, वहीं वैश्विक माँग के अनुरूप यहाँ पर्याप्त विविधीकरण नहीं हो पाया है। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार वैश्विक माँग के शीर्ष मदों में भारत की मौजूदगो हीरे और आभूषण, टी शर्ट पुरुषों को, लड़कों के ट्राउजर्स, फ्लैट रोल्ड लौह उत्पाद और मक्का जैसी कुछ मदों को छोड़कर नगण्य है। विश्व के शीर्ष 100 आयातों में अनेक इलेक्ट्रॉनिक, इलेक्ट्रीकल म (तीन ई) है जहाँ भारत की मौजूदगी नगण्य है।

3. निर्यात प्रतिस्पर्धा बढ़ाने की चुनौती (Challenge of increasing export competitiveness)—भारत के निर्यात प्रतिस्पर्धात्मकता को न केवल चीन और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों बल्कि नए उभरते हुए एशियाई देशों बांग्लादेश जैसे कम विकसित देशों, वियतनाम जैसे छोटे देशों से टेक्सटाइल जैसी मदों में चुनौती मिल रही है। इसका मुख्य कारण है हमारो वस्तुओं अधिक होना और नौकरशाही के करण लेन देन की लागत (Transaction) का अधिक होना अत: विश्व स्तर पर वस्तु की कीमतों में कमी लाकर तथा लेन-देन की लागतों को कम करके भारत की निर्यात प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ाया जा सकता है।

4. टैरिफ सुधारों से सम्बन्धित चुनौतियाँ (Challenges related to tariff reforms)-भारत क्रमिक रूप से अधिकतम सीमाशुल्क दरों को कम कर रहा है। अधिकतम शुल्क में गिरावट से राजस्व संग्रहण में अत्यधिक कमो की आशंका निर्मूल साबित हुई है। शुल्क में कटौतियों से न तो घरेलू विनिर्माण क्षेत्र प्रभावित हुआ है और न हो इसके परिणामस्वरूप बेरोजगारी बढ़ी है, जैसे कि कइयों के द्वार पूर्वानुमान लगाया जा रहा था। आंकड़े दर्शाते हैं कि क्रमिक शुल्क कटौतियों से सीमा शुल्क संग्रहण बढ़ते हैं। तथापि अधिकतम दर तथा कुल शुल्क दोनों के लिए एसियान (ASEAN) से तुलनीय स्तरों पर पहुँचने के लिए न्यूनतम राजस्व हानि सहित साहसिक टैरिफ सुधारों की आवश्यकता है।

5. सेवा व्यापार से सम्बन्धित चुनौतियाँ (Challenges related to services trade) सेवा व्यापार एक उन्मुक्त क्षेत्र है जिसमें पर्याप्त अवसर और चुनौतियाँ हैं। सेवाओं में व्यापार के लिए एक अधिक अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं :

(i) सेवाओं में प्रत्यक्ष विदेशी विनियोग (F.D.I) को उदार बनाकर नौपरिवहन और दूरसंचार सेवाओं में करों को युक्ति संगत बनाकर सरलीकरण करारों के साथ आगे बढ़कर : लाइसेंसिंग अपेक्षाओं और प्रक्रियाओं, तकनीकी मानकों और विनियामक पारदर्शिता जैसे घरेलू विनियोग को कारगर बनाना जिससे सेवाओं की वृद्धि और निर्यात में सहायता मिल सकती है।

(ii) बहुपक्षीय तथा द्विपक्षीय वार्ताओं में सेवाओं पर ध्यान केन्द्रित करना जारी रखकर सेवाओं में व्यापार के लिए एक अधिक अनुकूल वातावरण तैयार किया जा सकता है।

(iii) सेवाओं का व्यवस्थित विपणन, सेवाओं के लिए एक पोर्टल की स्थापना करके, बाजार सूचना का संग्रहण और प्रसार सेवा डाटा प्रणाली को सुप्रबाही अनाकर और संलिप्त विभिन्न एजेन्सियों द्वारा एक अधिक केन्द्रित, समन्वित और सामंजस्यपूर्व नोति से सेवा क्षेत्र को आगे ले जाने में मदद मिल सकती है।

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