( संकल्पना और रोजगार अपलब्धियों में वित्तीय नीति की भूमिका, स्थिरता
और आर्थिक विकास)
राजकोषीय नीति
सार्वजनिक
आय, व्यय, ऋण सम्बन्धी क्रियाओं तथा होनार्थ प्रबन्धन से सम्बन्धित नीतियों को ही
राजकोषीय नीति (Fiscal Policy) कहते हैं। यह नीति देश विदेश की आर्थिक
परिस्थितियों के स्वरूप पर निर्भर करती है। इसका मुख्य उद्देश्य आर्थिक स्थिरता
तथा आर्थिक विकास सम्बन्धी कार्यक्रमों की सफलता में सहायक होने से सम्बन्धित है।
ध्यातव्य है कि स्थिरता तथा विकास के दो विरोधी तत्वों में सामंजस्य बनाए रखना कोई
सरल कार्य नहीं है।
उपर्युक्त
उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए राजकोषीय उपायों का सक्रिय प्रयोग करना होता है।
‘क्रियाशील वित्त' (Functional Finance) के सिद्धान्त के अन्तर्गत सार्वजनिक आय और
व्यय की नीतियों का स्वरूप क्रियाशील होना चाहिए, अर्थात् इनका प्रयोग निश्चित
उद्देश्यों को सामने रखकर किया जाना चाहिए। सार्वजनिक व्यय का उद्देश्य केवल
प्रत्यक्ष लाभ प्राप्त करना ही न हो, बल्कि इसके उत्पादन, आय तथा रोजगार पर पड़ने
वाले प्रभावों को भी ध्यान में रखा जाए। आवश्यकता पड़ने पर घाटे के बजट (Deficit
budget) बनाना पूर्णतः उचित है। अतिरिक्त व्यय के लिए साधन सार्वजनिक ऋण को बढ़ाकर
प्राप्त किए जा सकते हैं। अर्द्ध-विकसित देशों में जब और कोई साधन प्राप्त न हो
सके तो हीनार्थ प्रबन्धन (Deficit financing) का सहारा लिया जा सकता है। इसी
प्रकार, सार्वजनिक आय का स्वरूप भी ‘क्रियात्मक' होना चाहिए। करारोपण (Taxation)
का उद्देश्य केवल राजस्व प्राप्त करना ही न हो, बल्कि प्रभावपूर्ण माँग को
नियन्त्रित करना होना चाहिए। इसके द्वारा जनता को उपलब्ध क्रय-शक्ति की मात्रा को
नियन्त्रित किया जा सकता है तथा स्थिरता के उद्देश्य से प्राप्त किया जा सकता है।
राजकोषीय
नीति अपना प्रभाव कुछ उपायों के प्रयोग से उत्पन्न करती है। ये उपाय देश का बजट,
करारोपण, सार्वजनिक व्यय तथा ऋण हैं।
राष्ट्रीय बजट
वार्षिक
बजट सरकार की प्राप्तियों तथा व्ययों का ब्योरा है। इससे सम्बन्धित नीति बजट का
रूप निर्धारित करती है तथा राजकोषीय नीति के एक प्रमुख साधन के रूप में कार्य करती
है।
1. घाटे का बजट (Deficit Budget)-घाटे के बजट में सरकार
द्वारा प्रस्तावित व्यय का आकार उसकी प्रस्तावित प्राप्तियों की
राशि से अधिक होता है। घाटे की पूर्ति संचित कोषों से राशि निकालकर अथवा ऋण लेकर
की जाती है। यह ऋण यदि देश के केन्द्रीय बैंक से लिया जाता है तो मुद्रा का
विस्तार होता है। बैंकों अथवा जनता से ऋण लेने पर उनके निष्क्रिय मौद्रिक साधन
सक्रिय हो जाते हैं तथा चलन में मुद्रा की मात्रा बढ़ती है।
घाटे
का बजट मन्दी की स्थिति में अथवा आर्थिक विकास के लिए साधन जुटाने के उद्देश्य से
बनाया जाता है। इस बजट का कुल माँग पर विस्तारात्मक प्रभाव पड़ता है। व्यय को
मात्रा आय से अधिक होने पर वास्तविक सरकारी व्यय की मात्रा की अपेक्षा राष्ट्रीय
आय में अधिक वृद्धि होती है।
घाटे
के बजट के विरोध में यह तर्क दिया जाता है कि इसका प्रभाव स्फीतिकारी
(Inflationery) होता है। परन्तु यह सदैव सही नहीं है। मन्दीकाल में तो यह एक ऐसा
उपाय है जो अर्थव्यवस्था को मन्दी के जाल से बाहर निकालने में सहायक हो सकता है।
2. करारोपण (Taxation)-करारोपण एक ऐसा सशक्त साधन
है जिसमें परिवर्तनों के द्वारा प्रयोज्य आय (Disposable
income), उपभोग तथा निवेश को प्रभावित किया जा सकता है जिससे
अर्थव्यवस्था
का सामान्य स्तर प्रभावित होता है। प्रत्यक्ष करों में परिवर्तन प्रयोज्य आय
(Disposable income), निवेश तथा उत्पादन को प्रभावित करते हैं, जबकि परोक्ष करों
में परिवर्तन का कीमतों तथा उपभोग पर प्रभाव पड़ता है।
प्रायः
यह माना जाता है कि मन्दीकाल (Depression) में करों में कमी करने से लोगों की व्यय
करने की क्षमता बढ़ती है। प्रत्यक्ष करों में कमी करने पर प्रयोज्य आय में तो
वृद्धि होगी परन्तु यह निश्चित नहीं है कि निवेश बढ़ेगा अथवा नहीं। निवेश का बढ़ना
देश की आर्थिक स्थिति और भविष्य की सम्भावनाओं निर्भर करता है। यदि मान लिया जाए
कि उपभोग तथा निवेश में वृद्धि होती है तो भी यह कहना कठिन है कि बेरोजगारी में
कितनी कमी होगी। यदि रोजगार नहीं बढ़ता तो करों में बार-बार कमी करनी होगी।
इसके
विपरीत मुद्रा-स्फीति (Inflation) की स्थिति में कर नीति का उद्देश्य, स्फीतिक
अन्तर को समाप्त करना होता है जिसके अतिरिक्त क्रय-शक्ति तथा उपभोग की माँग को कम
किया जा सके। कर की दरों में वृद्धि करना आवश्यक होगा, परन्तु कर की दरें अधिक
ऊँची होने पर इसके प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकते हैं। प्रयोज्य आय में बहुत अधिक कमी
होने पर माँग इतनी कम होगी कि शिथिलता (Recession) की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। व्यावहारिक
रूप में, करों में वृद्धि भी एक निश्चित सीमा तक ही की जा सकती है। यदि करदान
क्षमता (Taxable capacity) की सीमा का उल्लंघन किया जाए तो इसका न केवल विरोध किया
जाता है, बल्कि इससे अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ने लगता है। करों की
चोरी (Tax evasion) बढ़ जाती है और 'काली मुद्रा' (Black money) का आकार बढ़ता है
जिसे नियन्त्रित करना एक कठिन समस्या बन जाती है।
आर्थर
लैफर (Arthur Laffcr) ने इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है कि एक सीमा के बाद कर की
दरों में वृद्धि राजस्व में वृद्धि के बजाय कमी करती है क्योंकि इससे श्रम की
पूर्ति तथा पूँजी-निर्माण के आकार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
उपर्युक्त
तथ्य ध्यान में रखते हुए आवश्यकता इस बात की होती है कि सरकार द्वारा एक उपयुक्त
कर नीति निर्धारित की जाए, करों के ढाँचे को सन्तुलित किया जाए तथा करारोपण का एक अनुकूलतम
स्तर निश्चित किया जाए।
3. सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure)-सार्वजनिक
व्यय किसी अर्थव्यवस्था को वाछित दिशा में अग्रसर करने का
प्रभावी माध्यम है। यह अर्थव्यवस्था के स्वरूप में परिवर्तन ला देता है। सरकार द्वारा
किए गए व्यय का आर्थिक क्रियाओं के स्तर पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। व्यय में
वृद्धि होने पर आय, उत्पादन तथा रोजगार पर उसी प्रकार गुणक प्रभाव पड़ता है जैसा
कि निवेश में वृद्धि का होता है। मुद्रा-स्फीति का एक मुख्य कारण व्यय में वृद्धि
का होना है। अत: मुद्रा-स्फीति की स्थिति में व्यय में कमी तथा मन्दी की स्थिति
में वृद्धि करना आवश्यक होता है।
मन्दी
का उपचार करों में कमी के द्वारा भी सम्भव है, परन्तु इस विषय पर विवाद है कि व्यय
में वृद्धि तथा करों में कमी के बीच अधिक उपयुक्त उपाय क्या होगा?
सार्वजनिक ऋण
सार्वजनिक
ऋण आधुनिक सरकारों की वित्त व्यवस्था का एक प्रमुख अंग है। सार्वजनिक ऋण सरकार
द्वारा लिया गया वह ऋण है जो किसी आकस्मिक व अस्थाई आवश्यकताओं, उत्पादन कार्यक्रमों
एवं सामाजिक विकास कार्यक्रमों को पूरा करने के लिए लिया जाता है।
भुगतान
सन्तुलन के घाटे को पूरा करने के लिए भी सार्वजनिक ऋण लिया जाता है। स्रोत के आधार
पर सार्वजनिक ऋण को आन्तरिक और बाह्य ऋण के रूप में विभक्त किया जाता है। अपने ही
देश के भीतर से प्राप्त ऋण आन्तरिक ऋण और अन्य देशों की सरकारों, संस्थाओं, व्यक्तियों
और अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से प्राप्त ऋण, बाह्य ऋण कहलाता है। सामान्यतः
सरकारें अपनी वित्त व्यवस्था हेतु दोनों प्रकार के ऋण लेती है।
(A) आन्तरिक ऋण
देश
के अंदर से अल्प बचत योजनाओं आदि से लिया गया ऋण आंतरिक होता है।
यथा-1,
बाजार उधारी (तिथित प्रतिभूति), 2. रिजर्व बैंक द्वारा निर्गत विशिष्ट
प्रतिभूतियाँ, क्षतिपूरक व अन्य बॉण्ड, 3. रिजर्व बैंक द्वारा राज्य सरकारों,
व्यापारिक बैंकों एवं अन्य वित्तीय संस्थाओं को निर्गत ट्रेजरी बिल्स, 4. रिजर्व बैंक
द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को निर्गत गैर ब्याज एवं गैर-विक्रय
प्रतिभूतियाँ आदि आंतरिक ऋण के उदाहरण हैं।
(B) विदेशी ऋण (External Debt)
देश
के बाहर से लिए गए बहुपक्षीय, द्विपक्षीय, वाणिज्यिक उधार आदि बाह्य ऋण की श्रेणी
में आते हैं।
यथा-1.
भारत सहायता संघ (बाह्य ऋण मुख्य स्त्रोत), 2. संयुक्त राष्ट्र एजेंसियाँ, 3.
यूरोपियन बाजार, 4. नारडिक निवेश बैंक, 5. एशियाई विकास बैंक, 6. द्विपक्षीय
समझौता, 7. अनिवासी भारतीय आदि बाह्य ऋण के उदाहरण हैं।
(C) अन्य देयताएँ
यथा-1.
रिजर्व कोष जमा. 2. डाकघर बचत बैंक जमा खाता, 3. प्राविडेण्ट फण्ड जमा, 4. अल्प
बचत जमा योजना, 5. डाक घर प्रमाण पत्रों के माध्यम से ऋण आदि।
भारत
सरकार की बजट व्यवस्था में केन्द्र सरकार द्वारा लिए गए ऋण सम्मिलित हैं जिसमें
आन्तरिक ऋण, बाह्य ऋण और अन्य देयताएँ सम्मिलित हैं। इनका योग केन्द्र सरकार की
कुल देयताएँ कहलाता है। सार्वजनिक ऋण से प्राप्त राशि भारत की समेकित निधि
(Consolidated Fund of India) में जाती है। संविधान के अनुच्छेद-292 के
अनुसार संसद का भारत की समेकित निधि के अन्तर्गत सुरक्षित
सार्वजनिक ऋण सीमा-निर्धारित करने का प्रावधान है। राज्यों के सार्वजनिक ऋण में
केन्द्र सरकार से प्राप्त उधार एवं अग्रिम, बाजार उधार, बैंक एवं
अन्य संस्थाओं से प्राप्त उधार, राज्य भविष्य निधि एवं अन्य कोष सम्मिलित हैं।
संविधान के अनुच्छेद-293 के अनुसार राज्य की विधायिका को राज्य की समेकित निधि के
अन्तर्गत सुरक्षित ऋण सीमा निर्धारित करने का अधिकार है।
मौद्रिक
नीति की भाँति भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में राजकोषीय नीति का प्रयोग निम्नलिखित
प्रकार से किया जा सकता है। यथा-
मन्दीकाल
(Depression) में राजकोषीय नीति का उद्देश्य उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि करने के
उपाय करना तथा सार्वजनिक व्यय अथवा निवेश में वृद्धि करना होगा।
मुद्रा
स्फीति काल में राजकोषीय नीति के अन्तर्गत कर जाल की गहराई तथा आकार में वृद्धि
होनी चाहिए। ये कर इस प्रकार के होने चाहिए कि इनके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में
कुल उपभोग व्यय में कमी को जा सके। इसके साथ-साथ बचत में वृद्धि होनी चाहिए तथा निवेश
की मात्रा नहीं बढ़नी चाहिए। स्फीति को नियन्त्रित करने के लिए करारोपण का उपाय
तभी सम्भव हो पाता है जब अधिक करों के परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में व्यक्तियों
तथा व्यवसायों की व्यय-योग्य आय (Disposable income) इतनी कम हो जाए कि कुल उपभोग पर
केवल इतना व्यय किया जा सके कि कुल माँग तथा पूर्ति के बीच सन्तुलन स्थापित हो
जाए।
क्राउडिंग
आउट प्रभाव (Crowding out Effect)-मन्दी के उपचार के लिए सरकार द्वारा व्यय बढ़ाने
पर कुल माँग, राष्ट्रीय आय तथा ब्याज दर में वृद्धि हो सकती है। ब्याज दरों में
वृद्धि का निजी निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। यदि सरकारी व्यय में वृद्धि के
कारण निजी व्यय अथवा निवेश में कमी होती है तो इसे काउडिंग आउट प्रभाव कहते हैं।
राजकोषीय तथा मौद्रिक नीतियों में सम्बन्ध
राजकोषीय
नीति तथा मौद्रिक नीति के उद्देश्यों में काफी समानता रहती है। दोनों ही एक दूसरे
के पूरक हैं। इसके बावजूद दोनों के संचालन तथा प्रभावों में अग्रलिखित अन्तर हैं-
•
राजकोषीय नीति का निर्धारण सरकार की बजट नीति के अधीन होता है
जिसके लिए संसद की स्वीकृति लेना आवश्यक होता है। मौद्रिक नीति का निर्धारण तथा
संचालन केन्द्रीय बैंक द्वारा किया जाता है। राजकोषीय उपायों में उतनी आसानी से
परिवर्तन नहीं किया जा सकता है जितनी आसानी से मौद्रिक उपायों में परिवर्तन किया
जाता है।
•
राजकोषीय नीति जनता के हाथों में क्रय-शक्ति को प्रत्यक्ष रूप में प्रभावित करती है। अलग-अलग करों के द्वारा सभी वर्गों को प्रभावित किया
जा सकता है। मौद्रिक नीति के प्रभाव परोक्ष रूप में पड़ते हैं, क्योंकि यह
मुद्रा-बाजार, विशेष रूप से वाणिज्यिक बैंकों के माध्यम से संचालित होती है।
•
राजकोषीय नीति माँग पक्ष को प्रभावित करती है। इसके विपरीत मौद्रिक
नीति का प्रभाव लागत पर पड़ता है, क्योंकि ऋण की लागत उत्पादन लागत का अंश होती
है। बढ़ी हुई लागत की, बढ़ी हुई कीमतों के रूप में उपभोक्ता पर बोझ जा सकता है।
•
राजकोषीय नीति के प्रभाव प्रायः अधिक निश्चित होते हैं। यदि बैंक
साख की मात्रा को नियन्त्रित किया जाए तो मुद्रा बाजार के अन्य अंगों से ऋण
प्राप्त किए जा सकते हैं। राजकोषीय नीति के प्रभावों से कोई भी उत्पादक नहीं बच
पाता है और अलग-अलग क्षेत्रों तथा वस्तुओं को प्रभावित किया जा सकता है। मौद्रिक
नीति के द्वारा अर्थव्यवस्था का केवल संगठित क्षेत्र प्रभावित होता है, जबकि राजकोषीय
नीति असंगठित क्षेत्र को भी समान रूप से प्रभावित करती है।
•
राजकोषीय नीति के प्रभाव तात्कालिक होते हैं, जबकि मौद्रिक नीति के
प्रभाव समय-अन्तराल (Time lags) से उत्पन्न होते हैं।
•
मन्दी की स्थिति का उपचार करने में मौद्रिक नीति विफल रहती है, जबकि
राजकोषीय नीति को पर्याप्त सफलता मिलती है। इसी आधार पर केन्स ने मौद्रिक नीति की
तुलना में राजकोषीय नीति को अधिक महत्वपूर्ण माना था।
उपर्युक्त
व्याख्या के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता हैंकि राजकोषीय नीति तथा मौद्रिक नीति का सम्मिलित रूप से प्रयोग ही आर्थिक
स्थिरता लाने में प्रभावपूर्ण ढंग से कार्य कर सकता है। दोनों ही नीतियों को
एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता होती है। यदि सरकार हीनार्थ प्रबन्धन की नीति के
अन्तर्गत मुद्रा का विस्तार करती जाए तो आर्थिक स्थिरता प्राप्त करने के उद्देश्य
से अपनाए गए मौद्रिक उपाय सफल नहीं हो पाएँगे।
इसी
प्रकार, राजकोषीय उपायों की सफलता भी इस बात पर निर्भर करती है कि मौद्रिक नीति के
उद्देश्यों की प्राप्ति में कहाँ तक सफलता मिल रही है। दोनों नीतियाँ एक-दूसरे की
पूरक हैं, इसलिए अर्थव्यवस्था में आर्थिक स्थिरता एवं विकास प्राप्त करने के लिए
इनका सम्यक प्रयोग करना चाहिए।
रोजगार प्राप्ति में राजकोषीय नीति की भूमिका
भारत
जैसे विकासशील देश में राजकोषीय नीति की भूमिका चाहे-अनचाहे लोगों के लिए
रोजगारपरक रही है। भारत में नियोजन का पूरा ध्यान दीर्घकाल में उत्पादन की ऊँची
विकास दरों को पाने पर केन्द्रित रहता है। रोजगारपरक लोगों के सम्बन्ध में मूलभूत
मान्यता यह थी कि पूँजीगत माल के अभाव से अर्थव्यवस्था के विकास में आधारभूत बाधा
उत्पन्न हो जाती है। इसी कारण योजना-प्रक्रिया किसी प्रकार की स्वतंत्र
रोजगार-नीति को परिभाषित नहीं कर पाती। रोजगार की स्थिति सुधारने के लिए आर्थिक विकास
पर ध्यान केन्द्रित करने को जरूरी माना गया है। आरम्भ में श्रम-शक्ति के प्रसार को
इस सम्बन्ध में समस्या की तरह नहीं देखा गया। अतः पंचवर्षीय योजनाओं में रोजगार की
उपलब्धता को, विकास-प्रक्रिया के एक भाग के रूप में माना गया। भारत के सार्वजनिक
क्षेत्र के उद्योगों ने भी रोजगार उपलब्ध कराने की दिशा में उल्लेखनीय भूमिका
निभाई है।
सरकारी
क्षेत्र का रोजगार में भाग सरकारी क्षेत्र के रोजगार के दो महत्वपूर्ण वर्ग हैं-
(क)
सरकारी प्रशासन और प्रतिरक्षा एवं अन्य सरकारी सेवाएँ, जैसे-स्वास्थ्य,
शिक्षा, अनुसन्धान और आर्थिक विकास प्रोन्नत करने की विभिन्न क्रियाएँ आदि।
(ख)
विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र अर्थात् केन्द्र, राज्य एवं स्थानीय सरकार के स्वामित्वाधीन आर्थिक उद्यम।
1971
में सरकारी क्षेत्र में कुल 107 लाख श्रमिक कार्य करते थे परन्तु
मार्च, 1992 में उनकी संख्या बढ़कर 192 लाख हो गई। कुल श्रम-शक्ति के अनुपात के
रूप में यह केवल 6.6 प्रतिशत है। परन्तु ध्यान देने योग्य बात यह है कि श्रम शक्ति
का 90 प्रतिशत तो असंगठित क्षेत्र (Unorganised Sector) में लगा हुआ है और केवल 10
प्रतिशत संगठित क्षेत्र में। चूँकि सार्वजनिक क्षेत्र का रोजगार केवल संगठित
क्षेत्र तक ही सीमित है, इसलिए यह कहना अधिक उचित होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था के
संगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों में से 71 प्रतिशत सरकारी क्षेत्र में
लगे हुए हैं।
संगठित
क्षेत्र (सरकारी क्षेत्र और गैर-सरकारी क्षेत्र) में कुल रोजगार में सरकारी
क्षेत्र के भाग से पता चलता है कि परिवहन एवं संचार, बिजली, गैस और पानी एवं
निर्माण में सार्वजनिक क्षेत्र का भाग 94.98 प्रतिशत की सीमा में है, अतः इसका
प्रभुत्व है। कोयले की खानों के राष्ट्रीयकरण और 20 बड़े बैंकों को सरकार के अधीन
लाने के पश्चात् सार्वजनिक क्षेत्र की स्थिति में महत्वपूर्ण उन्नति हुई है। कुल
मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सरकारी क्षेत्र, जहाँ तक भारतीय अर्थव्यवस्था के
संगठित क्षेत्र का सम्बन्ध है, एक बड़ा नियोजक (Employer) है।
अर्थव्यवस्था
में गैर-सरकारी क्षेत्र का प्रभुत्व अभी भी बना हुआ है। कृषि एवं लघु-स्तर पर
उद्यम कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें सरकारी क्षेत्र का भाग लगभग शून्य हैं। किन्तु
बीमा, नागरिक विमान, परिवहन, प्रतिरक्षा सामान,तेल उत्पादन आदि में सरकारी
स्वामित्व शत-प्रतिशत सामरिक एवं राष्ट्रीय महत्व के उद्योगों को अधिकाधिक राजकीय
स्वामित्वाधीन लाया जा रहा है।
गरीबी
उपशमन व रोजगार उत्पन्न करने वाले कार्यक्रम तथा नीतियाँ-बेरोजगारी से निपटने के
लिए समय-समय पर दृष्टिकोण बदलता रहा है। नियोजन के आरम्भिक वर्षों में इसे मूलतः
तेज औद्योगिक विकास व जनसंख्या नियंत्रण की अपेक्षाओं के लिए विश्वसनीय माना गया।
ये अपेक्षाएँ फलीभूत नहीं हुई और देखा गया कि रोजगार के विकास की दर सामान्यतः
अर्थव्यवस्था की सकल विकास दर (GDP) से कम ही रही। गम्भीर सूखे और मानसून के अभाव
से जनसंख्या के बड़े भाग को व्यापक हानि हुई है। इसलिए आगामी नियोजनों, रणनीतियों,
नीतियों व कार्यक्रमों में रोजगार उत्पन्न करने पर बल देने को विशिष्ट उद्देश्य के
रूप में पुनः प्रारूपित किया गया। सत्तर व अस्सी के दशकों में जनकल्याणकारी
कार्यक्रमों के द्वारा एनआईपी, आरएलईजीपी जैसी विशिष्ट योजनाओं का प्रादुर्भाव
हुआ। साथ ही उद्यमिता व स्वरोजगार को प्रोत्साहित करने के लिए बेरोजगार और गरीबों
को परिसम्पत्ति, दक्षता व अन्य सहायता उपलब्ध करायी गयी। यद्यपि सत्तर अस्सी के
दशकों मेंरोजगार विभिन्न स्तरों पर धीरे-धीरे
फैलता गया, रोजगार की विकास दर श्रम-शक्ति से पिछड़ी रही। शिक्षितों में बेरोजगारी
का प्रसार पाया गया। रोजगार की स्थिति का अन्य लक्षण आय और उत्पादकता के निचले
स्तरों पर कार्यरत नियोजितों का विशाल अनुपात भी है। अस्सी के दशक मेंप्रतिस्पर्धा से असम्बद्ध सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार की तत्कालीन
कार्य नीतियों में कमियाँ उजागर हुईं।
गरीबी
हटाओ रणनीति में गरीबी-उपशमन और रोजगार सृजन कार्यक्रमों की विविध कड़ियाँ हैं।
जिनमें से कई तो अनेक वर्षों से रोजगार पैदा करने, उत्पादक परिसम्पत्तियाँ बनाने,
तकनीकी और उद्यमिता कौशल बढ़ाने तथा गरीबों की आय में वृद्धि को सुदृढ़ कर रही है।
इन योजनाओं के अन्तर्गत गरीबी रेखा के नीचे जीने वाले लोगों को वेतन रोजगार व
स्वरोजगार दिए जाने का प्रावधान किया गया है। वर्ष 1998-99 में विभिन्न
गरीबी-उपशमन व रोजगारोत्पादक कार्यक्रमों को, स्वरोजगार व वेतन रोजगार योजनाओं को
दो विस्तृत श्रेणियों में बाँटा गया। अच्छे परिमाण पाने के लिए निधि व संगठनात्मक
ढाँचों का भी निर्धारण किया गया। ये कार्यक्रम मूलतः गरीबी हटाने के लिए हैं और
साधारणत: यह स्थायी रोजगार सृजन में सहायक नहीं रहे हैं।
राजकोषीय स्थायित्व तथा आर्थिक विकास
भारत
की राजकोषीय स्थिति (India Fiscal Situation) दिसम्बर,
1985 में भारतीय सरकार ने संसद में एक दीर्घ अवधि के वित्तीय नीति का प्रस्ताव रखा। यह भारत के इतिहास में पहली बार था जब किसी राजकोषीय
मुद्दे पर सरकार द्वारा संसद में 'दीर्घावधिक राजकोषीय नीति' (Long term
Fiscal Policy) पर कोई दस्तावेज/पत्र प्रस्तुत किया गया। इसमें सरकारी
व्यय की नीति भी शामिल थी। प्रस्ताव में सुधार के लिए कुछ विशेष लक्ष्य रखे गए। इस
प्रस्ताव के बाद देश भर में इस मुद्दे पर बहस शुरू हो गई तथा वर्ष, 1987 में सरकार
दो ठोस कदमों के साथ सामने आई-(i) सरकारी व्यय पर लगभग रोक लगा दी गई तथा (ii) बजट
घाटे की ऊपरी सीमा (Ceiling) तय की गई।
उपर्युक्त
कदमों का स्थिति पर एक सकारात्मक प्रभाव पड़ा, लेकिन यह अस्थायी रहा तथा वर्ष 1988
के मध्य से स्थिति बिगड़ने लगी। वर्ष 1990 के अन्त का भुगतान-सन्तुलन
संकट का आंशिक रूप से कारण अधिक राजकोषीय घाटा तथा विदेशी ऋण की
बढ़ती मात्रा थी। इस संकट से लड़ने के लिए IMF से सहायता मिली, जो शर्तों के साथ जुड़ी
हुई थी। आर्थिक सुधार की प्रक्रिया (जिसकी शुरुआत 1991-92 में की गई) के साथ सरकार
ने यह घोषणा की कि 1990 के दशक के मध्य तक वित्तीय घाटे को कम कर 3-4 प्रतिशत कर
दिया जाएगा। अर्थव्यवस्था को स्थिरता प्रदान करने के लिए सरकार द्वारा किए गए उपायों
में से यह एक था। किन्तु निम्नांकित तीन कारणों से सरकार यह लक्ष्य हासिल नहीं कर
पायी-
(i) राजनीतिक कारक-राजनीतिक दबाव, क्षेत्रीय राजनीति तथा सब्सिडी (छूट) इसका प्रमुख कारण है, जिसके कारण सरकारी व्यय बढ़ता गया।
(ii) संस्थागत कारक-प्रशासनिक आकार तथा अधिक संकेन्द्रण
इसका कारण है। वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन एवं सुपुर्दगी की
जगह रिपोर्टिंग, लेखाकरण तथा पर्यवेक्षण को अधिक महत्व दिया गया।
(iii) नीतिपरक कारक-यह एक महत्वपूर्ण कारक रहा,
जिसके कारण सरकारी व्यय को आम जन-समर्थन मिलता है। इस प्रकार के व्यय
में सब्सिडी (छूट), गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम, रोजगार प्रदान करने वाले कार्यक्रम,
शिक्षा, स्वास्थ्य तथा सामाजिक सेवा शामिल हैं। इस प्रकार के सरकारी खर्च के पीछे
यह तर्क दिया जाता है कि सरकार को गरीबों के संरक्षक के रूप में कार्य करना चाहिए,
उन्हें रोजगार के अवसर प्रदान करना चाहिए। जिसका अर्थ यह हुआ कि इस प्रकार की
सरकारी खर्च गरीबों के हित में है।
अनुदान
अनुदान व राज सहायता किसी आर्थिक क्षेत्र, संस्था व व्यवसाय को वित्तीय समर्थन देना है। यह आमतौर पर आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों को लाभ पहुँचाने और बढ़ावा देने के उद्देश्य से दी जाती है। बजट 2020-21 में कुल 262,108,76 करोड़ रुपए का अनुदान प्रस्तावित है, जो कुल व्यय का 8.62% है। भारत में सर्वाधिक अनुदान खाद्य मद में दिया जाता है। वर्ष 2020-21 हेतु प्रस्तावित कुल सब्सिडी में खाद्य, उर्वरक, पेट्रोलियम आदि प्रमुख मदें हैं।
वर्ष
2020-21 में राजकोषीय घाटा, प्राथमिक घाटा एवं राजस्व घाटा GDP का क्रमशः 3.5%,
0.4%, एवं 2.7% रहने का अनुमान है।
भारत में राजकोषीय समेकन
भारत
जैसे विकासशील देश के लिए राजकोषीय स्थायित्व को बनाए रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य
रहा है। विकास संबंधी चुनौतियों व राजनैतिक बाध्यताओं के कारण राजकोषीय घाटा का
आकार हमेशा से चिंता का कारण रहा है। इन प्रयासों के मुख्य अंशनिम्न हैं
• राजस्व व्यय में कटौती संबंधी उपाय-
(i)
वेतन, पेंशन एवं आकस्मिक निधियों के भार में कमी की गई।
(ii)
सब्सिडी में कटौती की गई।
(iii)
ब्याज मद में कटौती (निम्नतर उधारी को प्राथमिकता) आदि।
• राजस्व प्राण्तियों को बढ़ाने संबंधी उपाय-
(i)
कर सुधारों की शुरुआत।
(ii)
सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों का विनिवेश।
(iii)
राज्यों को अपनी योजनागत व्यय की पूर्ति के लिए बाजार से ऋण लेने
की अनुमति।
• सरकार के ऋण कार्यक्रम पर नियंत्रण, 12वें वित्त आयोग की सलाह आदि इस दिशा में महत्वपूर्ण कारक रहे हैं।