सार्वजनिक व्यय (PUBLIC EXPENDITURE)

प्राचीन काल में राज्य के सीमित कार्यों की संकल्पना की गयी थी जिसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक व्यय को विशेष महत्व नहीं प्रदान किया जाता था। प्राचीन अर्थशास्त्रियों द्वारा जिन कारणों से सार्वजनिक व्यय के महत्व को अस्वीकार किया गया था वे कार्य इस प्रकार हैं-

(1) उनका विचार था कि राज्य का कार्य क्षेत्र न्याय, पुलिस तथा सेना तक ही सीमित रहना चाहिए अर्थात् राज्य का प्रमुख कार्य बाह्य आक्रमण से रक्षा करना तथा आतरिक शांतिको बनाए रखना मात्र था।

(2) उस समय यह विश्वास किया जाता था कि सार्वजनिक व्यय अनुत्पादक तथा अपव्ययपूर्ण होता है । धन का उपयोग सरकार की अपेक्षा व्यक्ति द्वारा अधिक अच्छे ढंग से किया जा सकता है।

(3) प्राचीन काल में सार्वजनिक व्यय को इसलिए भी अनावश्यक समझा जाता था क्योंकि राज्य के क्रियाकलापों में विस्तार से व्यक्तिगत स्वतंत्रता बाधित होती थी।

इस सम्बन्ध में राबर्ट पील (Robrt Peel) ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा कि, “धन सरकार की अपेक्षा लोगों के हाथों में अधिक फलदायी सिद्ध हो सकता है।"

पारनेल (Parnell) का तो यहाँ तक कहना था कि "जितना धन समाज में व्यवस्था को बनाए रखने तथा विदेशी आक्रमण से सुरक्षा के लिए व्यय करना आवश्यक है, उससे तनिक भी अधिक व्यय करना अपव्यय हैं और जनता के ऊपर अत्याचार है।"

इन विचारों का समर्थन करते हुए जे0 बी0 से (J.B. Say) ने कहा था कि "राजस्व की वहीं योजना सबसे अच्छी है जिसके अंतर्गत कम से कम व्यय किया जाता है और करों में वही कर सबसे मात्रा सबसे कम है।"

प्राचीन अर्थशास्त्रियों के विचार हो सकता है कि उस काल एवं व्यवस्था के अनुकूलरहे हो परन्तु आज के प्रजातंत्र एवं समाजवादी विचारधारासे ओत - प्रोत विश्व के संदर्भ में वह प्राचीन विचारधारा प्रासंगिक नहीं है अब यह महसूस किया जाने लगा है कि 'न तो हर प्रकार का कर बुरा होता है और न ही राज्य द्वारा किया जाने वाला व्यय सदा अनुत्पादक और व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला व्यय सदा उत्पादक ही होता है । जैसे- व्यक्तियों द्वारा शराब, जुआ तथा घुड़दौड़ पर किया जाने वाला व्यय अनुत्पादक ही होताहै जबकि स्वास्थ्य, शिक्षा तथा समाज के उत्थान के लिए किए गए सार्वजनिक व्ययों में सामाजिक कल्याण में वृद्धि होती है।

इस तरह एक लम्बे समय से 19 वीं शताब्दी तक आर्थिक जगत में जो अबंध - नीति व्याप्त थी, उसमें धीरे-धीरे परिवर्तन होना प्रारम्भ हो गया । राज्य हस्तक्षेप जो पहले सीमित था, धीरे-धीरे, लोकतंत्रीय शासन प्रणाली तथा कल्याणकारी राज्यों की स्थापना से राज्य के कार्य क्षेत्र में बढ़ोत्तरी होती गयी जिसके फलस्वरूप लोक व्यय बढ़ने लगा।

इसी बीच कुछ प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों जैसे- वैगनर, फ्रेडरिक लिस्ट, कार्ल मार्क्स तथा जे०एम० कीन्स आदि ने व्यक्तिवादी विचारधारा की कटु आलोचना करते हुए सरकारी हस्तक्षेप की सराहना की तथा आर्थिक विकास हेतु सार्वजनिक व्यय को आवश्यक बताया। इन विचारों का प्रभाव यह हुआ कि लगभग 19 वीं शताब्दी बीतते व्यक्तिवाद के सिद्धान्त ने घुटने टेक दिए। 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में तीव्र आर्थिक विकास की लालसा और आर्थिक नियोजन की लहर ने इस नीति पर अधिक कारगर और घातक प्रहार किया तथा सरकारी हस्तक्षेप प्रगतिशील एवं कल्याणकारी राज्य की निशानी समझा जाने लगा।

आज स्थिति यह है कि राज्य मानव जीवन से सम्बन्धित हर क्षेत्र में प्रवेश कर गया है और उसके कार्यों में विस्तार होने के साथ-साथ उसका व्यय भी तेजी से बढ़ता जा रहा है इस तरह आज राज्य आर्थिक क्रियाओं के प्रति सजग है और देश के आर्थिक विकास में सक्रिय योगदान दे रहा है। यह कहना उचितहोगा कि तीन गति से देश का आर्थिक विकास करना तथा वितरण व्यवस्था को न्यायपूर्ण बनाना आधुनिक राज्यों का सर्वोपरि लक्ष्य है। द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत जैसे-जैसे देश स्वतंत्र होते गए, उनकी प्रमुख समस्या गरीबी से छुटकारा प्राप्त करने की थी। अधिकांश अर्थव्यवस्थाओं का विकास अवरुद्ध होचुका था । अतः इन अर्थव्यवस्थाओं को गति प्रदान करने की आवश्यकता थी । यदिआर्थिक विकास की पूंजीवादी प्रणाली को अपनाया जाता तो आर्थिक विकास की गति मंद रहती तथा यह प्रणाली वितरणात्मक न्याय की प्राप्ति में बाधक होती । यदि आर्थिक विकास की समाजवादी प्रणाली का अनुसरण किया जाता तो उसके लिए उत्पादन के साधनों को एकदम निजी क्षेत्र में मोड़ने की आवश्यकता थी जो बिना सार्वजनिक इच्छा शक्ति के संभव न हो पाता। अतः प्रायः सभी देशों ने आर्थिक विकास के लिए आर्थिक नियोजन की प्रणाली को अपनाया। इसके अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार का प्रावधान किया गया जिसके लिए सार्वजनिक व्यय की आवश्यकता महसूस की गयी।

स्पष्टतया, जब राज्य के कार्य क्षेत्र सीमित थे तब राज्य का व्यय भी सीमित था । जैसे - जैसे राज्य के कार्य बढ़ते गए वैसे-वैसे राज्य का व्यय भी बढ़ता गया । राज्य के कार्य क्षेत्र में इस प्रकार बृद्धि के कारण ही सार्वजनिक व्यय अध्ययन का एक महत्वूपर्ण विषय बन गया है। आज कल्याणवादी राज्य के समक्ष अनेक उद्देश्य होते हैं जिसको पूरा करने के लिए उनके पास सीमित साधन होते हैं। अब महत्वपूर्ण प्रश्न यहउठता है कि इस सीमित साधनों को किस प्रकार विभिन्न उद्देश्यों पर व्यय किया जाय ताकि अधिकतम लाभ की प्राप्ति हो सके अर्थात, सीमित साधनों को वैकल्पिक उपयोगों के मध्य प्रयुक्त करने की समस्या है । यही कारण है कि सार्वजनिक व्यय अध्ययन का महत्वपूर्ण क्षेत्र बन गया है।

सार्वजनिक व्यय का अर्थ (Meaning of Public Expenditure)

किसी सरकार द्वारा देश में आतरिक शान्ति को बनाए रखने, विदेशी आक्रमण सुरक्षा, आर्थिक विकास, सामाजिक कल्याण, विदेशों से सद्भावनापूर्ण सम्बन्ध बनाए रखने तथा राज - कार्य के सफल संचालन एवं अन्य वांछित कार्यों को पूरा करने हेतु जो व्ययकिया जाता है, उसे सार्वजनिक व्यय कहते हैं । स्पष्टतया, सार्वजनिक व्यय अधिकतम् सामाजिक कल्याण सिद्धान्त का एक महत्वपूर्ण अवयव है । सार्वजनिकव्यय का उद्देश्य करारोपण से उत्पन्न होने वाली अनुपयोगिता की क्षतिपूर्ति करना तथा कुल सामाजिक कल्याण को अधिकतम् करना होता है।

सार्वजनिक व्यय का महत्त्व (IMPORTANCE OF PUBLIC EXPENDITURE)

सार्वजनिक व्यय लोकवित्त का एक महत्वपूर्ण अवयव तथा बजट नीति का प्रमुख घटक है । अर्थव्यवस्था के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हुई आज की सरकारें सार्वजनिक व्यय को आर्थिक विकास के प्रमुख तंत्र के रूप में प्रयुक्त करती हैं। आज लोककल्याण के लिए प्रतिबद्ध सरकारें उन मदों पर व्यय के लिए भी तत्पर रहती हैं जिन पर लोग स्वयं व्यय नहीं कर पाते । कोई भी व्यक्ति सामूहिक शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, सड़क परिवहन तथा सुरक्षा आदि पर व्यय नहीं कर सकता है । अतः सार्वजनिक व्यय द्वारा ही इन महत्वपूर्ण योजनाओं का सम्पादन किया जासकता है । इसतरह सार्वजनिक व्यय के माध्यम से उन आवश्यकताओं कोसंतुष्टकिया जा सकता है जो व्यक्तिगत रूप से संतुष्ट नहीं की जा सकती हैं।

सार्वजनिक व्यय के महत्व को निम्नवत् व्यक्त किया जा सकता है :-

1. राज्य की आर्थिक क्रियाओं में वृद्धि- वर्तमान समय में राज्य की आर्थिक क्रियाओं मेंतेजी से वृद्धि होती जा रही है। विकास की तीव्र लालसा से सरकारों ने आर्थिक नियोजन की पद्धति को अपनाया है। आर्थिक नियोजन की सफलता के लिए सरकारों को भारी मात्रा में धन व्यय करना पड़ता है । आर्थिक विकास की प्रक्रिया में सरकार को स्वयं अनेक आर्थिक एवं वाणिज्यिक उपक्रमों का संचालन करना पड़ता है जिसके लिए भारी मात्रा में सार्वजनिक व्यय करना पड़ता

आर्थिक विकास के लिए पूंजी निर्माण की गति में सतत वृद्धि करना आवश्यक होता है । इसमें सार्बजनिक व्यय महत्वपूर्ण भूमिकानिभाता है । विकासशील देशों में पूजी निर्माण की समस्या विद्यमान रहती है। इन अर्थव्यवस्थाओं में गरीबी के दुश्चक्र के कारण आय निवेश का स्तर निम्नबना रहता है। इस दुश्चक्र को तोड़े बिना आर्थिक विकास को गति प्रदान करना संभव नहीं होता। आर्थिक विकास के प्रारंभिक चरणों में पूजी निर्माण के लिए सार्बजनिक व्यय को प्रयुक्त किया जाता है । मः इस दृष्टि से भी सार्वजनिक व्यय महत्वपूर्ण बनता जा रहा है।

2. कल्याणकारी राज्य की स्थापनाः- आज के युग में कल्याणकारी राज्य की स्थापना को एक आदर्श के रूप में स्वीकार किया जाता है । कल्याणकारी राज्य की स्थापना के फलस्वरूप सामाजिक एवं आर्थिक कल्याण का सारा दायित्व सरकार पर आ पड़ा है। सरकार को आज शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, वृद्धावस्था पेंशन, बेरोजगारी भत्ता तथा लोगों की न्यूनतम् आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सार्वजनिक व्यय का सहारा लेना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक व्यय के महत्व में वृद्धि हुई है।

3. सामाजिक न्यायः- सामाजिक न्याय के प्रति जितनी जागरूकता वर्तमान समय में है उतनी पहले कभी नहीं थी। आज सरकारें समाज में आय एवं सम्पत्ति की असमानताओं को कम करने के प्रति तत्पर दिखती हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु सार्वजनिक व्ययअत्यधिक सहायक होता है । सार्वजनिक व्यय के सम्बंध में उचित नीति का अनुसरण करते हुए उसे निर्धनों के पक्ष में अधिक व्यय करके उनके आय एवं रहन- सहन के स्तर में वृद्धि की जा सकती है।

4. आर्थिक उच्चावचनों पर नियंत्रण:- सार्वजनिक व्यय को अर्थव्यवस्था में आने वाले उच्चावचनों को नियंत्रित करने के लिए भी प्रयुक्त किया जाता है । मंदी की दशा में जब आर्थिक गतिविधियाँ सुस्त पड़ी रहती हैं तब निवेश, पूंजी निर्माण, रोजगार में वृद्धि के लिए तथा अर्थव्यवस्था को मंदी के प्रभाव से मुक्तिदिलाने के लिए सार्बजनिक व्यय का सहारा लिया जाता है । विपरीत दशा में जब मुद्रास्फीति की स्थिति व्याप्त रहती है तब उत्पादक एवं शीर्ष फलदायक योजनाओं परसार्वजनिक व्यय को बढ़ाकर स्फीति के प्रभावों को कम किया जा सकता है। । इस प्रकार सार्वजनिक व्यय की सहायता से मंदी तथा स्फीति को नियंत्रित करके आर्कि स्थायित्व को बनाए रखा जा सकता है।

5. क्षेत्रीय विकास की असमानता को कम करना:- विकासशील देशों में पिछड़े व अर्द्धविकसित क्षेत्रों के विकास की समस्या रहती है । सार्वजनिक व्यय के माध्यम से इन देशों के पिछड़े एवं अर्धविकसित क्षेत्रों का विकास किया जा सकता है तथा आधारभूत संरचना का निर्माण किया जा सकता है।

6. सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार में सहायकः- आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आज सार्वजनिक क्षेत्र के विकास का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। निजी क्षेत्र की बुराइयों को दूर करने तथासामाजिक हित के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सार्वजनिक उद्योगों की स्थापना की जाती है, जिसके लिए सरकार को भारी मात्रा में सार्वजनिक व्यय करना पड़ता है। अतः इस दृष्टि से भी सार्वजनिक व्यय महत्वपूर्ण है।

7. नागरिकों की प्रत्याशाएँ :- आज देश के नागरिक यह इच्छा रखते हैं कि उनके कल्याण एवं रहन-सहन के स्तर में उत्थान हेतु सरकार सतत प्रयास करती रहे तथा उन्हें सबसे अच्छी सुविधाएँ उपलब्ध कराए । लोगों की इन आकांक्षाओं में सार्वजनिक व्यय महत्वपूर्ण भूमिका निभातहै ।

निजी तथा सार्वजनिक व्यय में अन्तर (Difference Between Private and Public Expenditure)

निजी व सार्वजनिक व्यय की समस्या प्रायः एक सी है। दोनों में ही आय एवं व्यय के बीच प्रायः सामंजस्य स्थापित किया जाता है, दोनों में ही आय-व्यय के सम्बंध में प्राय: एक सी नीति अपनाई जाती है तथा दोनों पर आर्थिक नियम समान रूप से लागू होते हैं। इसतरह दोनों में ही वित्त व्यवस्था का रूप एक-सा होता है, फिर भी यह कहा जा सकता है कि सार्वजनिक व्यय सरकार द्वारा आर्थिक व सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। निजी तथा सार्वजनिक व्यय के बीच अर्थशास्त्रियों द्वारा निम्न अंतर बताया गया है

1. उद्देश्य का अंतर:- निजी व्यय का उद्देश्य सीमित होता है क्योंकि वह व्यक्तिगत हित तथा आर्थिक लाभ की भावना से किया जाता है। इसके विपरीत सार्वजनिक व्यय समाज एवं राष्ट्र हित की दृष्टि से किया जाता है।

2. आय - व्यय का समायोजन:- निजी व्यय सदैव आय के आधार पर समायोजित किया जाता है जबकि सार्वजनिक व्यय के अंतर्गत सरकार व्यय के अनुसार आय के स्रोतों को ढूँढती है । इसतरह सरकार व्यय के आधार पर आय का समायोजन करती है। इसका कारण यह है कि व्यक्ति के आय के साधन सीमित होते हैं जबकि सरकार की आय के साधन पर्याप्त विस्तृत होते हैं।

3. लोच का अंतर:- निजी व्यय सार्वजनिक व्यय की अपेक्षा लोचदार होता है | व्यक्ति अपने व्यय को परिस्थितियों के अनुरूप घटा अथवा बढ़ा सकता है क्योंकि ऐसा करने के प्रति वह स्वयं उत्तरदायी होता है। सरकारी व्यय बेलोच होते हैं क्योंकि एक बार बजट पारित हो जाने के बाद आय - व्यय में सहजता से परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।

4. प्रकृति का अंतर:- निजी व्यय ऐच्छिक होता है और उसको इच्छानुसार आगे - पीछे टाला जा सकता है। इसके विपरीत सार्वजनिक व्यय अनिवार्य होता है तथा एक बार निर्णय लेने के बाद उसे पूरा करना आवश्यक हो जाता है।

5. व्यय के क्षेत्र में अंतर:-निजी व्यक्ति का क्षेत्र अत्यन्त सीमित होता है तथा उसके व्यय की मर्दै सीमित रहती हैं। इसके विपरीत सार्वजनिक क्षेत्र में व्यय का क्षेत्र व दिशाएँ पर्याप्त होती हैं।

6. प्रभाव सम्बन्धी अंतर:- निजी व्यय का प्रभाव सीमित होता है। निजी व्यय का प्रभाव एवं भार व्यक्ति या परिवार विशेष तक ही सीमित रहता है। सार्वजनिक व्यय का प्रभाव काफी विस्तृत होता है। इसका प्रभाव सारे समाज पर पड़ता है । सार्बजनिक व्यय यदि सावधानीपूर्वक नहीं किया जाता तब सम्पूर्ण सामाजिक जीवन अस्त -व्यस्त हो जाता है, देश का आर्थिक विकास अवरुद्ध हो जाता है तथा जनता पर आर्थिक भार बढ़ने की संभावना रहती है।

7. नियत्रंण सम्बंधी अंतर:- निजी व्यय पर प्रायः व्यक्ति विशेष का ही नियंत्रण बना रहता है । इसके विपरीत सार्वजनिक व्यय पर संसद तथा महाअंकेक्षक (Parliament and Auditor General) का पूर्ण एवं कठोर नियंत्रण होता है। इसतरह सार्वजनिक ब्यय स्वतंत्रतापूर्वक तथा मनमाने ढंग से नहीं किया जा सकता

सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के कारण (Reasons for increasing Public Expenditure)

वर्तमान समय में राज्य के कार्यों में उत्तरोत्तर होने वाली वृद्धि के फलस्वरूप सार्वजनिक व्यय के परिमाण में गहन एवं व्यापक वृद्धि होती जा रही है। 19 वीं शताब्दी के अंत तक जिस व्यय को अनुत्पादक अपव्ययपूर्ण तथा अनुचित माना जाता था उसमें आधुनिक समय में अप्रत्याशितवृद्धि किन कारणों से तथा क्यों होती जा रही है, इस पर प्रकाश डालना उचित होगा।

सार्वजनिक व्यय में वृद्धि की प्रवृत्ति 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ही दृष्टिगोचर होने लगी थी। इस तथ्य की जानकारी हमें उस समय के जर्मन अर्थशास्त्री एडोल्फ वैगनर (Adolph Wagner) के इस कथन से प्राप्त होती है- "विभिन्न देशों तथा विभिन्न कालों का सामयिक विश्लेषण यह प्रकट करता कि प्रगतिशील राष्ट्रों में केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारों की क्रियाओं में नियमित रूप से वृद्धि होने की प्रवृत्ति पाई जाती है । यह वृद्धि गहन तथा व्यापक दोनों प्रकार की होती है। केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारें एक तरफ लगातार नए कार्यों को अपनाती हैं तो दूसरी ओर वे पुराने कार्यों को पहले की अपेक्षा दक्षता व कुशलता के साथ सम्पन्न करती हैं।" वैगनर के इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ही राज्यों की आर्थिक क्रियाओं में वृद्धि होनी प्रारंभहो गयी थी जिसके फलस्वरूप सार्वजनिक व्यय में भी वृद्धि परिलक्षित होने लगी थी।

सार्वजनिक व्यय में होने वाली अप्रत्याशित वृद्धि पर टिप्पणी करते प्रो) ने लिखा है कि, "बीसवीं शताब्दी में सार्वजनिक व्यय में जिस अंश तक वृद्धि हुई है यदि वृद्धि कुछ वर्षों पूर्व हुई होती तो इसे वित्तीय पागलपन तथा विश्व-साख टूटने की आवश्यक निशानी समझा गया होता।"

इसतरह वर्तमान समय में आधुनिक राज्यों के कार्यों में गहन तथा व्यापक दोनों ही दृष्टियों से बृद्धि होने के फलस्वरूप ही सार्वजनिक व्यय में तेजी से वृद्धि हुई है । गहन वृद्धि से हमारा तात्पर्य राज्य के परम्परागत कार्यों (आंतरिक सुरक्षा तथा वाह्य आक्रमण से रक्षा) में होने वाली वृद्धि से हैं जिस पर वर्तमान समय में पहले की अपेक्षा कई गुना अधिक व्यय किया जाता है, जबकि व्यापक वृद्धि से अर्थ उन कार्यों से है जो राज्य द्वारा आधुनिक समय में किए जा रहे हैं जैसे सामाजिक सुरक्षा पर व्यय, नए - नए व्यवसायों व औद्योगिक इकाइयों की स्थापना, लोगों को उत्पादन कार्यों के सम्पादन हेतु दी जाने वाली आर्थिक सहायता तथा आर्थिक एवं तकनीकी विकास हेतु चलाए जाने वाले अन्य सरकारी प्रयास आदि । सार्बजनिक व्यय में तेजी से होने वाली वृद्धि के संदर्भ में डाल्टन का कथन है कि - "अन्य क्षेत्रों में आधुनिक विकास ने लोकसत्ताओं को नवीन कार्यों को अपनाने के लिए बाध्य कर दिया है जोकि वास्तव में निजी उद्यम द्वारा पूरे नहीं किए जा सकते थे।"

इसतरह डॉ0 डाल्टन ने सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के मुख्य तीन कारण बताए हैं:-

1. अधिक कुशलताः- आधुनिक विकास कार्यों के कुछ क्षेत्र ऐसे होते हैं जिनमें निजी संस्थाओं की अपेक्षा सरकारी संस्थाएँ अधिक कुशलता तथा दक्षतासे कार्य कर सकती हैं।

2. निजी संस्थाओं की असमर्थता:- निजी संस्थाएँ वहीं व्यय करने को तत्पर होती हैं जहाँ उन्हें लाभ की प्रत्याशा होती है । जहाँ भारी मात्रा में व्यय बावजूद लाभ की संभावना कम रहती है अथवा एक लम्बे अर्से के बाद होने की संभावना रहती है, उस क्षेत्र में विनियोग करने हेतु निजी संस्थाएँ तैयार नहीं होती, जैसे- सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाएँ, सफाई एवं पेय जल व्यवस्था तथा विकास हेतु आधारभूत संरचना का विकास आदि। इन जनहितकारी सेवाओं पर सरकार को स्वतः व्यय करना पड़ता है।

3. सार्वजनिक उपयोग का क्षेत्र:- निजी व्यय मुख्यतः वस्तुओं एवं सेवाओं केयक्तिगत एवं अपवर्जी उपयोग से सम्बन्धित होता है जबकि सार्वजनिक व्यय का सम्बंध सार्वजनिक उपयोग से होता है, जैसे- पार्क, सार्वजनिक पुस्तकालय तथा अजायबघर आदि।

श्रीमती हिक्स के अनुसार आर्थिक एवं सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में होने वाली व्यय में वृद्धि ही सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का कारण है।

एलेन तथा ब्राउनली (Allen and Brownlee) के अनुसार सार्वजनिक व्यय के मुख्यतः चार कारण हैं- सामान्य मूल्य स्तर में वृद्धि जनसंख्या एवं राज्य के क्षेत्र में वृद्धि जटिल समाज की बढ़ती हुई आवश्यकताएँ तथा युद्ध।

सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के कारणों की व्याख्या करते हुए प्रो0 टेलर (Taylor) ने लिखा है कि सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का वास्तविक पता हम तब लगा सकते हैं, जब मूल्यों में होने वाले परिवर्तन के प्रभावों को निकाल दिया जाय । उनका कथन है कि राज्य के कार्यों में गहन तथा विस्तृत दोनों ही दृष्टियों से वृद्धि के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

1. राज्य का कल्याणवादी स्वरूप:- राज्यों ने वर्तमान समय में कल्याणकारी राज्य का रूप धारण कर लिया है तथा समस्त राष्ट्र अपने नागरिकों को किसी न किसी रूप में सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने को तत्पर हैं। आज सरकारों को शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, बेरोजगारी एवं गरीबी उन्मूलन, वृद्धावस्था पेंशन, मातृ - शिशु कल्याण तथा अन्य सामाजिक सुरक्षा एवं जन कल्याणकारी योजनाएं चलानी पड़ती हैं जिनके लिए भारी मात्रा में सार्वजनिक व्यय की व्यवस्था करनी पड़ती है।

2. आर्थिक क्षेत्र में सरकारों की सक्रियता:- वर्तमान समय में आर्थिक विकास का पूरा उत्तरदायित्व राज्य को सौंपा जा चुका है। राज्यों ने आर्थिक क्षेत्र में सक्रिय रूप से भाग लेना प्रारंभ कर दिया है तथा आर्थिक विकास हेतु नियोजन की प्रक्रिया को अपना रखा है । आर्थिक नियोजन के अतंर्गत सार्वजनिक क्षेत्र का निरंतर विकास होता जा रहा है। चूंकि विशाल परियोजनाओं तथा विशालस्तरीय उद्योगों का विधिवत्विकास निजी क्षेत्र की शक्ति से परे की बात है, फलतः तीब्र गति से आर्थिक विकास के लिए सरकारों को निवेश करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली, जिसमें उत्पादन के साधनों पर निजी व्यक्तियों का अधिकारnहोता है, निवेश सदैव लाभ की संभावनाओं को ध्यान में रखकर किया जाता है |इसके फलस्वरूप सामाजिक दृष्टि से आवश्यक बहुत सी परियोजनाओं पर निवेश नहीं हो पाता । ऐसे कई आधारभूत क्षेत्र होते हैं जिनका विकास समस्त अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक होता है, परन्तु इन क्षेत्रों की पक्वनावधि (Gestation Period) लम्बी होती है व उनमें लाभ की संभावनाएँ अपेक्षाकृत कम व अनिश्चित होती हैं । अतः व्यक्तिगत निवेश इन क्षेत्रों की उपेक्षा करता है। इसतरह ऐसे मुख्य क्षेत्रों में जब निजी निवेश नहीं होता तो राज्य को निवेश करना पड़ता है। आधुनिक समय में भी अर्थव्यवस्थाओं में राज्य एक सक्रियनिवेशकर्ता के रूप में कार्य कर रहा है। इस कारण भी राज्य के व्यय में वृद्धि हो रही है।

3. प्रशासनिक व्ययों में वृद्धिः- विश्व के अधिकांश देशों ने शासन की लोकतंत्रीय पद्धति को अपनाया है जिसके फलस्वरूप सार्वजनिक व्ययों में वृद्धि हुई है। लोकतंत्रीय व्यवस्था के अंतर्गत सरकार को संसद विधान सभाओं तथा स्थानीय निकायों के चुनावों, कमेटियों तथा आयोगों के गठन, मंत्रियों, सांसदों एवं विधायकों के आवास एवं भत्तों पर पर्याप्त मात्रा में धन व्यय करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त राज्यों के कार्यों में वृद्धि होने के कारण प्रशासनिक मशीनरी का भी बहुत अधिक विस्तार हुआ है जिसके कारण भी सार्वजनिक व्यय में पर्याप्त वृद्धि हुई है।

4. प्रतिरक्षा व्यय में वृद्धिः- वर्तमान समय में युद्ध संचार का कार्य बहुतखर्चीला हो गया है। शांति काल हो अथवा युद्धकाल, आज प्रत्येक राष्ट्र प्रतिरक्षा हेतु हरसंभव प्रयास के प्रति सजग है। आज के आणविक युग में युद्ध लड़ने अथवा उसके लिए तैयारी करने के लिए बहुत मात्रा में धन व्यय करना पड़ता है। नवीन अस्त्रों के विकास तथा युद्धकला की नवीन तकनीकों ने युद्ध का व्यय बहुत बढ़ा दिया है। प्रतिरक्षा व्यय में केवल सैनिक तथा सैन्य सामग्नी का व्यय ही सम्मिलित नहीं किया जाता बल्कि सैनिकों की पेन्सन तथा युद्ध हेतु लिए गए ऋणों पर ब्याज भी सम्मिलित रहता है।

आज के युग में विभिन्न राष्ट्रों के बीच आर्थिक एवं राजनैतिक कारणों से परस्पर तनाव एवं टकराव की संभावना बनी रहती है जिससे प्रत्येक राष्ट्र की सरकारें युद्ध की तैयारी तथा नए - नए हथियारों के अविष्कार तथा आयात पर बड़ी मात्रा में धन व्यय करती हैं। सुरक्षा व्यय के कारणों को स्पष्ट करते हुए टेलर ने लिखा है कि, "सैन्य कला तथा विज्ञान की इतनी तीव्र प्रगति हुई है कि युद्ध के यंत्रों को क्रयकरना अत्यंत महंगा हो गया है और उसके नष्ट होने की दर बहुत ऊँची है। सरकार द्वारा युद्ध - पीड़ित व्यक्तियों और उनके परिवारों की देखभाल करने तथा उनके बोनस, पुनर्वास आदि का उत्तरदायित्व स्वीकार कर लेने के कारण सरकार की युद्ध सम्बन्धी लागत बहुत बढ़ गयी है। इस तरह बढ़ते प्रतिरक्षा व्यय ने सार्वजनिक व्यय में पर्याप्त वृद्धि कर दी है।

5. जनसंख्या में वृद्धि:- वर्तमान समय में विश्व के अधिकतर राष्ट्रों की जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। जनसंख्या के आकार व स्वरूप में वृद्धि के कारण सार्वजनिक व्यय में भी बृद्धि हुई है । जनसंख्या की वृद्धि के फलस्वरूप राज्य को सार्वजनिक सेवाओं के परिमाण में वृद्धि करनी पड़ती है । जनसंख्या वृद्धि के कारण सरकार को उसके भोजन, वस्त्र, आवास, रोजगार, शिक्षा तथा स्वास्थ्य पर बड़ी मात्रा में धन व्यय करना पड़ता हैं। इसतरह जनसंख्या में होने वाली वृद्धि से सरकार का दायित्व जनता के प्रति और बढ़ जाता है जिसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हो जाती है।

6. आवश्यकताओं की सामूहिक संतुष्टि:- प्राचीन काल में सामाजिक सुरक्षा के संदर्भ में सरकार का कार्यक्षेत्र अत्यंत सीमित था । व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने कार्यों का निष्पादन स्वयं करता था जिससे नागरिकों को व्यक्तिगत असुविधा का सामना करना पड़ता था परन्तु वर्तमान समय में सामूहिक आवश्यकताओं की पूर्तिसरकार करने लगी है। जन उपयोगी सेवाओं का संचालन सरकार द्वारा करने पर शोषण का भय नहीं रहता । सम्मिलित किया जाता है जिन सामूहिक संतुष्टि वालीसेवाओं के अंतर्गत बिजली पानी, यातायात, गैस आदि पर आधुनिक सरकारों को भारी मात्रा में व्यय करना पड़ता है।

7. आर्थिक उतार - चढ़ावों के कारण व्ययः- अनियंत्रित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में समय- समय पर आर्थिक उतार - चढ़ाव आते रहते हैं। इन उतार - चढ़ावों के कारण अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । इस अस्थिरता की दशा को सुधारने के लिए सरकार अनेक तरह के प्रयास करती है, जैसे- मंदी काल में सरकार नवीन योजनाओं पर भी मात्रा में व्यय करके उत्पादन, रोजगार एवं आय में वृद्धि करने का प्रयास करती है, जबकि मुद्रा प्रसार की दशा में जन्न मूल्यों मेंवृद्धि हो जाती है तब सरकार को कर्मचारियों को महँगाई भत्ता देना ब समय - समय पर उनके वेतन में वृद्धि करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त प्रशासनिक एवं परियोजनाओं की लागत में भी पर्याप्त वृद्धि हो जाती है । इसतरह मंदी तथा मुद्रा प्रसार दोनों ही दशाओं में सरकार के व्यय में वृद्धि हो जाती है।

8. आर्थिक सहायताः- वर्तमान समय में राष्ट्रों के बीच सहयोग बढ़ता जा रहा है । प्रायः विकसित राष्ट्र अल्पविकसित तथा पिछड़े राष्ट्रों को आर्थिक सहायता तथा अनुदान देने का कार्य तो करते ही हैं, साथ ही विकासशील राष्ट्र भी अपनी सामर्थ्य व क्षमता के अनुसार पिछड़े एवं निर्धन राष्ट्रों को आर्थिक सहायता प्रदान करते हैं। कभी कभी प्राकृतिक आपदाओं से ग्रस्त राष्ट्रों को आर्थिक सहायता प्रदान करना अन्य राष्ट्रों का नैतिक दायित्व बन जाता है। इसतरह इन कारणों से भी सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हो रही है।

9. अंतर्राष्ट्रीय सम्बंध:- आज प्रत्येक राष्ट्र आर्थिक एवं राजनैतिक कारणों से अन्य देशों के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बंध बनाए रखने हेतु प्रयत्नशील है। इसके लिए प्रत्येक देश के जनप्रतिनिधि एवं सरकारी सेवक एक दूसरे के यहाँ आते जाते रहते हैं, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक सम्बंधों का आदान-प्रदान करते हैं । प्रत्येक देश अन्य देशों में अपना दूतावास खोलता है जिसकेमाध्यम से उस देश से नजदीकी सम्बन्ध बनाए रखने का प्रयास करता है। इन सबकी देखभाल के लिए अलग से सभी देशों में विदेश विभाग होता है । इसतरह अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को के लिए सरकारों को भारी मात्रा में धन व्यय करना पड़ता है।

10. आर्थिक एवं क्षेत्रीय विषमता को दूर करने कादायित्व:- आज जनकल्याणकारी सरकारों की प्रमुख लक्ष्य अंतर्खेत्रीय विषमता को दूर करना तथा समाजवादी समाज की स्थापना करना है ताकि समाज के गरीब व पिछड़े वर्ग का शोषण न हो तथा समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता दूर हो । गरीब वपिछड़े वर्ग के स्तर को ऊपर उठाने के लिए सरकार तरह - तरह की योजनाएँ चलाती है तथा उन्हें प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से आर्थिक सहायता प्रदान करती है। क्षेत्रीय असमानता को दूर करने के लिए सरकार पिछड़े क्षेत्रों मेंतरह - तरह के विकास कार्यक्रम चलाती है। इसके फलस्वरूप सरकारी व्यय में वृद्धिहुई है।

11. तकनीकी परिवर्तन के फलस्वरूप व्यय:- सरकारी व्यय में वृद्धि का एक महत्वपूर्ण कारण तकनीकी क्षेत्र में होने वाली प्रगति भी है। वैज्ञानिक आविष्कारों के साथ-साथ बड़ी तेजी से प्रौद्योगिक परिवर्तन हो रहे हैं। नई-नई वस्तुओं का उत्पादन बढ़ रहा है। परिवहन, दूस्संचार तथा सामरिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण तकनीकी प्रगति हुई है। इस कारण इन क्षेत्रों में व्यय में वृद्धि हो रही है। आज जब राज्य आर्थिक क्षेत्र में सक्रिय भागीदारी निभा रहा है तथा तकनीकी परिवर्तन आधुनिक आर्थिक विकास का एक अभिन्न अंग है, इन परिवर्तनों के कारण राज्य के व्यय में वृद्धि होना स्वाभाविक है।

12. नगरीकरणः- आर्थिक विकास के साथ-साथ नगरीकरण भी बढ़ता जाता है । नगरों में रहने वाले नागरिकों को मूलभूत सुविधाओं को उपलब्धकराना सरकार का दायित्व होता है । इन सुविधाओं पर राज्य को भारी मात्रा में व्यय करना पड़ता है, जैसे- बड़े-बड़े शहरों में सुरक्षा, यातायात नियंत्रण, रात्रि में रोशनी की व्यवस्था, जल व्यवस्था, सफाई व्यवस्था तथा चिकित्सा सुविधा आदि पर बहुत बड़े परिमाण में व्यय करना पड़ता है। इसतरह स्पष्ट है कि आर्थिक विकास व राज्य के कार्यों में विस्तार होने के साथ - साथ सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होती जा रही है।

सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के सिद्धांत (Principles For Increase In Public Expenditure)

सार्वजनिक व्यय में निरंतर होती जा रही वृद्धि के कारणों पर प्रकाश डालने के सम्बंध में जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है उनमें से प्रमुखनिम्नवत् हैं :-

1. वैगनर का राज्य के बढ़ते क्रिया - कलापों का सिद्धांत।

2. पीकाक वाइजमैन परिकल्पना।

3. सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का विकास मूलकसिद्धांत।

1. बैगनर का राज्य के बढ़ते क्रिया - कलापों का सिद्धांत (Wagner's Law of Increasing State Activities):-

सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के सन्दर्भ में जर्मन अर्थशास्त्री एडोल्फ बैगनर ने 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अनुभवजन्य विश्लेषण पर आधारित एक सिद्धांत का प्रतिपादन किया जो वैगनर का राज्य के बढ़ते क्रिया- कलापों का (नियम) सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धांत के द्वारा वैगनर ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि आर्थिक विकास के स्तर में होने वाली वृद्धि के साथ साथ राज्य के क्रियाकलापों अर्थात् सार्वजनिक व्यय में तेजी से वृद्धि होती जाती है। वैगनर के अनुसार, "विभिन देशों तथा कालों का सामयिक विश्लेषण यह प्रकट करता है कि प्रगतिशील राष्ट्रों में केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारों की क्रियाओं में नियमितरूप से वृद्धि होने की प्रवृत्ति पाई जाती है । यह वृद्धिगहन तथा व्यापक दोनों प्रकार की होती है। केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारें एक तरफ नए कार्यों को अपनाती हैं तो दूसरी तरफ पुराने कार्यों को वे पहले की अपेक्षा अधिक दक्षता व कुशलता के साथ सम्पन्न करती हैं ।" इसतरह इस नियम के अनुसार अर्थव्यवस्थाओं के विकास के साथ- साथ राज्य के व्यय के सभी मदों में वृद्धि हो जाती है।

वैगनर के अनुसार, राज्यों के विभिन्न मदों में वृद्धि की प्रवृत्ति के दो कारण

प्रथम- राज्य की सेवाओं के प्रति मांग की लोच एक से अधिक होती है तथा

द्वितीय- जैसे-जैसे आर्थिक विकास होता जाता है, सार्वजनिक क्षेत्र का महत्व निजी क्षेत्र की अपेक्षा बढ़ता जाता है। वैगनर ने राज्य के कार्यों को दो वर्गों में विभाजित किया है :-

(1) आंतरिक व बाह्य सुरक्षा सम्बंधी कार्य तथा (2) कल्याणकारी कार्य । वैगनर की धारणा है कि आर्थिक विकास के साथ - साथ समाज में जटिलता तथा विषमता की वृद्धि होती है। समाज में अपराध बढ़ते हैं। इसके परिणामस्वरूप समाज में कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आंतरिक व बाह्य सुरक्षा पर व्यय निरंतर बढ़ाना पड़ता है। जैसा कि पूर्वमें कहा जा चुका है आधुनिक समय में देश की प्रतिरक्षा हेतु किया जाने वाला व्यय सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का एक प्रमुख कारण है। राज्य के कल्याणकारी कार्यों में भी निरंतर वृद्धि होती जा रही है। उदाहरण के लिए, शिक्षा एवं स्वास्थ्य आज के प्रगतिशील एवं सभ्य समाज की एक अनिवार्यता है। आधुनिक राज्य अपनी आय का निरंतर बढ़ता हुआ भाग शिक्षा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य पर व्यय करते हैं क्योंकि एक ओर जहाँ औद्योगीकरण, नगरीकरण एवं जनघनत्व में वृद्धि के फलस्वरूप वातावरण प्रदूषित होता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि हेतु श्रमिकों को शिक्षित व कुशल बनाना आवश्यक हो गया है।

अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र का निरंतर विकास भी आधुनिक राज्य की एक अनिवार्यता है। बाजार तंत्र समाज की आर्थिक आवश्यकताओं को पूराकरने में सक्षम नहीं है, यह एक तथ्यपरक कथन हैं । यहाँ यह उल्लखनीय है कि वैगनर का सिद्धांत यह स्पष्ट नहीं करता कि राज्य की बढ़ती आर्थिक क्रियाओं अथवा सार्वजनिक व्यय में वृद्धि से तात्पर्य (i) सार्वजनिक व्यय के निरपेक्ष स्तर से था अथवा (ii) सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) के सार्वजनिक व्यय के प्रतिशत से था अथवा (i) अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्रों के अनुपात से था । यही कारण है किवैगनर के नियम को अनेक रूपों में व्यक्त किया जा सकता है। इस सम्बंध में फ्रेडेरिक एल0 प्रियर (Frederic L. Pryar) का कथन है कि वैगनर का नियम इतना अस्पष्ट है कि इसकी व्याख्या कई रूपों में की जा सकती है।

इसतरह वैगनर के नियम को विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने भिन्न रूपों में देखा है। जैसे- पीकॉक एवं वाइजमैन वैगनर के नियम की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि, "इस नियम के अनुसार,सार्वजनिक व्यय, सकल राष्ट्रीय उत्पाद की वृद्धि दर की अपेक्षा तेज दर से बढ़ता है।" अन्य शब्दों में, सार्वजनिक व्यय सकल राष्ट्रीय उत्पाद का फलन होता है।

P.E=f (GNP)

तथा सकल राष्ट्रीय उत्पाद के संदर्भ में सार्वजनिक व्यय की लोच एक से अधिक होती है। "इस प्रकार जैसे-जैसे सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि होती है सार्वजनिक व्यय में अपेक्षाकृत अधिक तेजी से वृद्धि होती जाती है।

मसग्रेव के अनुसार, बैगनर के नियम को सार्वजनिक क्षेत्र के निरंतर बढ़ते हुए हिस्से या सार्वजनिक व्यय का सकल राष्ट्रीय उत्पादन से अनुपात तथा किसी देश के निम्न प्रति ब्यक्ति आय से उच्च प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के साथ सम्बंधित किया जाना चाहिए । इसतरह मसग्रेव के अनुसार वैगनर का नियम इस धारणा पर आधारित है कि-

सार्वजनिक सकल राष्ट्रीय उत्पाद = f (प्रतिव्यक्ति आय)

यदि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि की अनुक्रिया के फलस्वरूप सार्वजनिक व्यय का सकल राष्ट्रीय उत्पाद से अनुपात, (P.E./GNP)) में होने वाली वृद्धि का अनुपात जिसे सार्वजनिक व्यय की लोच कहा जा सकता है, इकाई से अधिक हो तो वैगनर का नियम क्रियाशील होगा, अर्थात् यदि GNP में होने वाली वृद्धि की अपेक्षा P.E. (सार्वजनिक व्यय) में होने वाली वृद्धि अधिक होती है तब वैगनर का नियम लागू होता है।

फ्रेडेरिक एन. प्रियर बैगनर के नियम की व्याख्या करते हुए स्पष्ट करते हैं कि इस नियम के अनुसार प्रति व्यक्ति सार्वजनिक व्यय, प्रति व्यक्ति का आय फलन होता है। यदि सार्वजनिक व्यय की लोच को हम निम्नवत् व्यक्त करें, अर्थात्

तथा सार्वजनिक व्यय की यह लोच इकाई से अधिक हो, अर्थात् प्रति व्यक्ति आय में आनुपातिक परिवर्तन की अपेक्षा प्रति व्यक्ति सार्वजनिक व्यय में आनुपातिक परिवर्तन अधिक हो तब वैगनर का नियम लागू होगा। इस तरह यह कहा जा सकता है कि वैगनर के नियम के अनुसार जैसे- जैसे देश का विकास होता जाता है तथा जैसे - जैसे प्रति व्यक्ति आय बढ़ती है, उसके सार्वजनिक व्यय में अपेक्षाकृत तेजी से वृद्धि होती जाती है डाल्टन के अनुसार वैगनर का नियम लागू होने के मुख्य तीन कारण हैं:-

1. अधिक कुशलताः- विकास की प्रक्रिया के कुछ क्षेत्र ऐसे होते हैं जिसमें निजी संस्थाओं की तुलना में सरकारी संस्थाएँ कुशलता के साथ कार्य कर सकती हैं । डाल्टन का कथन है कि निजी एजेंसियों की तुलना सरकारी एजेंसियों का चयन बुद्धिमत्तापूर्ण हो सकताहै।

2. निजी संस्थाओं कीअसमर्थता:- विकास की प्रक्रिया के कुछ क्षेत्र ऐसे होते हैं जिसमें निजी क्षे निवेश करने में रुचि नहीं दिखाते । इन क्षेत्रों में जो जनोपयोगी तथा आवश्यक होते हैं, सरकार को अनिवार्य रूप से व्यय करना पड़ता है। इसका एक उपयुक्त उदाहरण बड़े नगरों में जन- स्वास्थ्य सेवाओं से सम्बंधित कार्य है।

3. सामूहिक उपयोगः- सार्वजनिक व्यय का सम्बंध मुख्यतः सामूहिक उपयोगी वस्तुओं एवं सेवाओं होता है जबकि निजी व्यय का सम्बंध वस्तुओं एवं सेवाओं के व्यक्तिगत उपयोग से सम्बंधित होता है। पार्क अजायबघर, सार्वजनिक पुस्तकालय आदि जो सार्वजनिक उपयोग से सम्बंधित हैं, पर व्यय सरकार द्वारा किया जाता है

वैगनर के नियम की समीक्षा:- सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होने की वैगनर की अवधारणा में सत्यता के अंश परिलक्षित होते हैं। आज लगभग सभी विकसित, विकासशील तथा पिछड़े देशों के सार्वजनिक व्यय में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। इस आधार पर अनेक अर्थशास्त्रियों ने यह मत व्यक्त किया है कि बैगनर का नियम जो उन्होंने जर्मनी के ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर प्रतिपादित किया था, वह आज भी सभी देशों में समान रूप से लागू हो रहा है। डब्यू० ए० लेविस, जे० जी० विलियमसन तथा एलिसन मार्टिन जैसे अर्थशास्त्रियों ने अपने अध्ययनों के आधार पर वैगनर की परिकल्पना की पुष्टि करते हुए स्पष्ट किया है कि जैसे- जैसे प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद बढ़ता जाता है, वैसे - वैसे सकल राष्ट्रीय उत्पाद में सार्वजनिक व्यय का भाग बढ़ता जाता है। इसके विपरीत, मसग्नेव ने अल्पविकसित देशों के संदर्भ में किए गए अध्ययन के आधार पर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि सार्वजनिक व्यय के हिस्से तथा प्रति व्यक्ति आय में सकारात्मक सम्बंध नहीं है अर्थात प्रति से लागू व्यक्ति आय में वृद्धि केसाथ - साथ सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होते जाना आवश्यक नहीं

वैगनर के सिद्धांत की यथार्थता, ऐतिहासिक प्रमाण सिद्ध तो करते हैं, परन्तु इसका आधार व प्रमाण दोनों ही अपर्याप्त है । ऐतिहासिक प्रमाण के लिए बैगनर ने जो समयावधि ली है वह अपर्याप्त है तथा यह भी संभव नहीं है कि जो बात देशों के सम्बन्ध में सत्य हो , वह सभी देशों में भी समान रूप से लागू होगी। इसके अतिरिक्त यह सिद्धांत सार्वजनिक व्यय में वृद्धि की प्रक्रिया पर भी स्पष्ट प्रकाश नहीं डालता।

वैगनर के सिद्धांत के सम्बंध में यह बात भी उल्लेखनीय है कि यह सार्वजनिक व्यय की चिरकालिक प्रवृत्ति को तो स्पष्ट करता है परन्तु सार्वजनिक व्यय के अन्य पहलुओं कठपेक्षा करता है । जैसे- सार्वजनिक व्यय की दीर्घकालिक प्रवृत्ति को तो वैगनर ने स्पष्ट किया है परन्तु व्यय वृद्धि के प्रभाव पर वह ध्यान देने में असफल रहा।

उपरोक्त कमियों के बावजूद यह कहा जा सकता है कि सार्वजनिक व्ययके सम्बंध में वैगनर का नियम आज भी यथार्थ, उपयोगी एवं व्यावहारिक है । वर्तमान समय में लगभग सभी प्रगतिशील राज्य कल्याणकारी राज्य की भूमिका निभारहे हैं, अतः आर्थिक विकास के साथ - साथ उनके सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होते जाना अवश्यम्भावी है।

2. पीकॉक वाइजमैन परिकल्पना (Peacock - Wiseman Hypothesis):-

एलेन टी0 पीकॉक तथा जैक वाइजमैन नामक ब्रिटेन के दो अर्थशास्त्रियों 1890 से 1950 के दौरान ब्रिटेन के सार्वजनिक व्यय में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन कर सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के संदर्भमें अपना एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जिसे पीकाक-वाइजमैन परिकल्पना के नाम से जाना जाता है। पीकॉक वाइजमैन विश्लेषण सार्वजनिक व्यय निर्धारण के राजनैतिक सिद्धांत पर आधारित है । उनके अनुसार, सार्वजनिक व्यय के बारे में निर्णय राजनैतिक आधार पर लिए जाते हैं । सार्वजनिक विचारधारा जो मतपेटी के माध्यम से व्यक्त होती हैं, सार्वजनिक व्यय के सम्बंध में लिए गए राजनैतिक निर्णयों को प्रभावित करती है। अन्य शब्दों में, सार्वजनिक व्यय का स्तर जनमत अथवा मतदान द्वारा प्रभावित होता है। यह कथन यथार्थपरक है क्योंकि वास्तविक जीवन में हम देखते हैं कि सार्वजनिक व्यय को नागरिक अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से प्रभावित करते हैं। चुनाव के पश्चात् गरीबी उन्मूलन हेतु किए जाने वाले व्यय कार्यक्रम तथा किसी प्रतिनिध विशेष के चुनाव क्षेत्र का विकास इसके उदाहरण हैं । प्रजातंत्र में नागरिक उमप्रतिनिधियों का चयन करना चाहते हैं जिनसे उन्हें अधिकतम लाभ मिल सकता हो, प्रतिनिधि भी राज्य के व्यय कार्यक्रम को इसतरह प्रभावित करना चाहते हैं ताकि उनका प्रतिनिधित्व सरकार में बना रहे।

पीकॉक एवं वाइजमैन की धारणा है कि मतदाता सार्वजनिक वस्तुओं एवं सेवाओं का लाभ तो प्राप्त करना चाहता है परन्तु कर नहीं देना चाहता। अत: व्यय का निर्धारण करते समय सरकार यह ध्यान रखती हैं कि सम्बंधित कराधान के प्रस्ताव पर मतदाताओं की क्या प्रतिक्रियाहोगी। इस तरह, उनका विचार है कि कराधान का एक सहन स्तर होता है। इस स्तर से अधिक लोग कर नहीं देना चाहते परन्तु आपाताकाल परिस्थितियों जैसे, युद्ध के समय लोग अधिक कर देने के लिए तैयार हो जाते हैं, फलतः सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हो जाती है यद्यपि युद्धोपरांतसार्वजनिक व्यय में कमी आती है फिर भी वह युद्ध- पूर्व स्तर से अधिक ही रहता है क्योंकि युद्ध की समाप्ति के बाद युद्ध के दौरान लगाए गए सभी कर समाप्त नहीं हो जाते तथा कुछ कर लगे ही रह जाते हैं। इसतरह, करारोपण तथा सार्वजनिक व्यय दोनों ही पुराने स्तर को नहीं प्राप्त होते बल्कि कुछ उच्च स्तर पर स्थिर हो जाते हैं । सार्वजनिक व्यय की वृद्धि में इन अनिरंतरताओं (Discontinuities) को ही पीकॉक : वाइजमैन ने 'विस्थापना प्रभाव' (Displacement Effect) की संज्ञा प्रदान की है।

उल्लेखनीय है कि वैनगर का नियम सकल राष्ट्रीय उत्पाद के संदर्भ में सार्वजनिक व्यय की दीर्घकालीन वृद्धि से सम्बंधित था जबकि पीकॉक वाइजमैन की अवधारणा मूलतः सार्वजनिक व्यय की वृद्धि के स्वरूप तथा ढाँचे में परिवर्तन के विश्लेषण से सम्बंधित रही। पीकॉक तथा वाइजमैन अपने अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि 'युद्ध के उपरांत ब्रिटेन केसरकारी व्यय में कमी आयी, परन्तु यह घट कर युद्ध के पूर्व के स्तर पर नहीं आई तथा राष्ट्रीय उत्पाद में सरकारी व्यय का अनुपात युद्ध के तुरंत पहलेके स्तर की तुलना में बहुत अधिक रहा ।' राष्ट्रीय उत्पाद में सार्वजनिक व्यय के अनुपात में इस स्थायी वृद्धि को पीकॉक तथा वाइजमैन ने विस्थापन प्रभाव कहा।

विस्थापन प्रभाव के कारण सार्वजनिक व्यय में स्थिर वृद्धि (Stable growth) नहीं होती है बल्कि अनियमित रूप से मकान की सीढ़ियों की तरह कई चरणों में होती है जैसा कि चित्र 7.1 में प्रदर्शित किया गया है-

रेखाचित्र में क्षैतिज रेखाएँ (AB, EF) सामान्य अवधि में सार्वजनिक व्यय के स्तर को तथा क्षतिज रेखाएँ युद्धकाल के दौरान वाले सार्वजनिक व्यय को प्रदर्शित करती हैं। मान लीजिए युद्ध पूर्व सामान्य दशा में सकल राष्ट्रीय उत्पाद के प्रतिशत के रूप में सार्वजनिक व्यय का स्तर AB है। युद्ध की दशा में आपातकालीन परिस्थितियों में अतिरिक्त करारोपण से सरकार की आय बढ़ जाने के फलस्वरूप सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होती है तब व्यय का स्तर ऊपर उठकर CD हो जाता है। अब युद्ध समाप्त होने के उपरांत (मान लीजिए D समयावधि में युद्ध समाप्त हो जाता है) दो स्थितियाँ संभव हो सकती हैं। एक तो यह हो सकता है कि युद्ध के बाद भी कर का वही स्तर विद्यमान रहे जो युद्ध के दौरानथा, ऐसी दशा में सार्वजनिक व्यय का स्तर CD स्तर पर बना रहेगा। दूसरी दशा में इस बात की संभावना अधिक रहती है कि युद्ध के उपरांत कुछ कर समाप्त पूर्ववत् कर दिए जाय। ऐसी दशा में, सार्वजनिक व्यय का स्तर CD से कुछ नीचे आ सकता है जैसा कि EF स्तर से प्रदर्शित है। परन्तु व्यय का यह स्तर अब भी AB स्तर से ऊपर है। ऐसी स्थितियों की पुनरावृत्ति संभव हो सकती है, जैसा कि चित्र में प्रदर्शित किया गया है।

पीकॉक वाइजमैन की अवधारणा का अनुमोदन मसग्रेव दम्पत्ति ने भी किया है। उनके शब्दों में, "युद्ध जैसे राष्ट्रीय आपातकाल में सार्वजनिक व्यय में अस्थायी, परन्तु बलात वृद्धि की आवश्यकता का अनुभव किया जाता है और इसके लिए मतदाता पुराने कर की स्थिति को पार करने को तैयार हो जाते हैं तथा कर के स्तर में ऐसी वृद्धि को स्वीकार कर लिया जाता है जिसकापहले विरोध किया जाता था।” सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के कारणों की व्याख्या के सिलसिले में जैसे आपातकालीन संकट की भूमिका के महत्व को भी स्वीकार करते हैं। इस संदर्भ में जे० एम० बुकानन (Buchanan) का कथन है कि सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण अकेला तत्व यदि कोई है तो वह युद्ध की आशंका है । आधुनिक युद्ध तथा प्रतिरक्षा की लागत अत्यंत बढ़ गयी है जिसके कारण केन्द्रीय सरकारों के बजट का एक बड़ा भाग सेना के विभिन्न अंगों पर खर्च किया जाता है

मसग्नेव ने अपनी पुस्तक Fiscal System में इस तथ्य के परीक्षण का प्रयास किया है कि युद्धकाल में सार्वजनिक व्यय में जो बलात् वृद्धि होती है युद्धोपरांत उस सार्वजनिक व्यय की प्रवृत्ति क्या होती है ? सार्बजनिक व्यय उसी स्तर पर बना रहता है, युद्ध के पूर्व की स्थिति आ जाता है अथवा दोनों के बीच के किसी स्तर को प्राप्त कर लेता है। इस स्थिति को निम्न चित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है :-

रेखाचित्र में शांति के समय सामान्य परिस्थितियों में सार्वजनिक व्यय A बिन्दु के अनुरूप होता है परन्तु युद्ध के कारण प्रतिरक्षा व्यय में बलात् वृद्धि होने के फलस्वरूप व्यय बढ़कर B बिन्दु पर पहुँच जाता है। अब प्रश्न यह उठता है कि युद्धोत्तर काल मेंसार्वजनिक व्यय का स्तर क्या हो ? इस सम्बंध में तीन संभावनाएँ हो सकती है :-

(1) युद्धोपरान्त सार्वजनिक व्यय D बिन्दु पर आकर पुनः अपने पुराने स्त DE को ग्रहण कर सकता है,

(2) सार्वजनिक व्यय युद्धकालीन व्यय के स्तर पर युद्धोत्तरकाल में भी CF पथ पर चलता रहे।

(3) युद्धोत्तर काल में सार्वजनिक व्ययका पथ CF तथा DE के बीच CGH के अनुरूप रहे।

इससे यह प्रदर्शित होता है कि युद्ध के उपरान सार्वजनिक व्यय में कमी आती है, फिर भी वह युद्धपूर्व के स्तर से अधिक रहता है । पीकॉक वाइजमैन अवधारणा इसी संभावना को अधिक सही मानती है। युद्धकाल में लगाए गए नए करों में से कुछ युद्ध की समाप्ति के बाद भी लगे रह सकते हैं। परिणामस्वरूप युद्धोत्तर काल में सार्वजनिक व्यय में स्थायी वृद्धि हो जाएगी, परन्तु युद्धकाल की तुलना में कम

पीकॉक वाइजमैन परिकल्पना की आलोचना

पीकॉक वाइजमैन की धारणा है कि युद्ध आदि आपातकालीन परिस्थितियों में ही करारोपण व सार्वजनिक व्यय उच्च स्तर प्राप्त करते हैं जो स्थिति सामान्य होने पर भी उच्च स्तर पर बने रहते हैं । पीकॉक वाइजमैन की अवधारणा के अनुसार यदि उपरोक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती तो सार्वजनिक व्यय में वृद्धि स्थिर गति से होगी। परन्तु ध्यानपूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि वर्तमान समय में सार्वजनिकळ्यय में वृद्धि असामान्य घटनाओं अथवा परिस्थितियों के कारण नहीं बल्किराज्य के क्रियाकलापों में क्रमबद्ध व नियमित रूप से वृद्धि होने के कारण ही हो रही है। हाँ, युद्ध या संकटकालीन स्थितियाँ सार्वजनिक व्यय को प्रभावित करने वाली अनेक कारकों में एक हो सकती हैं। आज समस्त राष्ट्र आर्थिक विकास में सक्रिय योगदान करने के साथ-साथ कल्याणकारी पहलू के प्रति भी सचेष्ट हैं । बढ़ती हुई जनसंख्या आधारभूत संरचना का विकास, नगरीकरण, राज्य का कल्याणकारी स्वरूप, रोजगार के अवसरों में वृद्धि, बाजार यंत्र की विफलता तथा मूल्य स्तर में वृद्धि आदि सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का कारण बनते हैं जिन्हें पीकॉक तथा वाइजमैन ने अनदेखा किया।

1960 के दशक के अंतिम चरण में पश्चिमी देशों में सार्वजनिक व्यय में बहुत तेजी से वृद्धि हुई जबकि उक्त अवधि में युद्ध या अन्य कोई संकटकालीन परिस्थितिइन देशों में उत्पन्न न हीं हुई थी। इस तरह यह कहा जा सकता है कि पीकॉक वाइजमैन अवधारणा सार्वजनिक वृद्धि के संदर्भ में मात्र संकेत करती है इसकी कोई ठोस व्याख्या प्रस्तुत नहीं करती। इसके अतिरिक्त, पीकॉक वाइजमैन ने विस्थापन प्रभाव की जो अवधारणा विकसित की, वह ब्रिटेन के सार्वजनिक व्यय के आंकड़ों के सांख्यिकीय विश्लेषण पर आधारित थी। एक परिकल्पना एक सामान्य सिद्धान्त के रूप में तभी स्वीकार की जा सकती है जब इसकी पुष्टि अन्य देशों में उपलब्ध आँकड़े भी करें।

3. सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का विकासमूलक सिद्धान्त (Growth Oriented Theory of Public Expenditure):-

प्रो० रोस्टोव एवं प्रो० मसनेव की धारणा थी कि सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के कारणों की व्याख्या आर्थिक विकास के संदर्भ में की जानी चाहिए । यही कारण है कि इनकी व्याख्या को विकासमूलक सिद्धांत कहा जाता है । आर्थिक बिकास की प्रारंभिक अवस्थाओं में होने वाले कुल निवेश में सार्वजनिकक्षेत्र का अनुपात अधिक होता है । इसका कारण यह है कि आर्थिक विकास के लिएआवश्यक आधारभूत संरचना का विकास सार्वजनिक क्षेत्र के अन्तर्गत किया जाता है। उदाहरण के लिए सड़क, रेल, यातायात, दूरसंचार विद्युत शक्ति, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य व सफाई आदि कार्यक्रमों पर व्यय सरकार द्वारा किया जाता है ताकि आर्थिक विकास एवं जनकल्याण कार्यक्रमों को गति प्रदान किया जा सके । आर्थिक विकास को गति प्रदान करने के लिए सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ता है।

रोस्टोव के अनुसार जब अर्थव्यवस्था परिपक्वता की अवस्था को प्राप्त कर लेती है तब सार्वजनिक व्यय के स्वरूप में परिवर्तन आ जाता है । अब व्यय आधारभूत संरचनाओं के निर्माण पर नहीं किया जाता बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य कल्याणकारी कार्यक्रमों पर अधिकाधिक व्यय किया जाने लगता है । अधिकाधिक उपभोग की अवस्था में आय अनुरक्षण कार्यक्रमों एवं कल्याण सम्बंधी कार्यों के पुनर्वितरण से सम्बद्ध नीतियों का महत्व बढ़ जाता है। अब इन पर्दो पर राष्ट्रीय आय एवं सार्वजनिक व्यय का अधिकांश भाग व्यय किया जाने लगता है।

इसी तरह मसग्नेव ने अपना मत व्यक्त किया कि आर्थिक विकास के प्रारम्भिक चरण में पूंजीगत वस्तुओं के निर्माण पर सार्वजनिक व्ययका अधिकांश भाग खर्च किया जाता है। परन्तु जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था विकास के मार्ग पर अग्रसर होती जाती है वैसे-वैसे आय में वृद्धि के साथ-साथ बचतों में वृद्धि होती है जिससे निजी उद्योग एवं कृषि में पूंजी स्टाक बढ़ता है। परन्तु मसनेव की धारणाहै कि जब आर्थिक विकास काफी हो जाता है तो उसके साथ कुछ ऐसी समस्याएँ भी उत्पन्न हो जाती हैं कि सार्वजनिक व्यय में वृद्धि करना आवश्यक हो जात है, जैसे- औद्योगीकरण से शहरीकरण को बढ़ावा मिलता है, शहरीकरण से उत्पन्न जटिलताओं को दूर करने के लिए सरकार को आगे आना पड़ता है। सार्वजनिक व्यय मानव पूंजी के विकास के लिए आवश्यक समझा जाता लिए है। स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल आदि की व्यवस्था सरकार को करना पड़ता है। यह सब सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का कारण बनते हैं।

इस तरह रोस्टोव तथा मसग्नेव दोनों ही अर्थशास्त्रियों के मॉडल विकास प्रक्रिया के फलस्वरूप सार्वजनिक व्यय के बढ़ते अनुपात पर व्यापक विचार प्रस्तुत करते हैं। विकास की प्रक्रिया मेंतत्पर विभिन्न विकासशील देशों के सार्वजनिक व्यय के आंकड़ों के अध्ययन एवं विश्लेषण से रास्टोब एवं मसग्रेव की इस विचारधारा की पुष्टि होती है कि विकास की प्रक्रिया के दौरान न केवल सार्वजनिक व्यय के अनुपात में वृद्धि होती है बल्कि सार्वजनिक व्यय के स्वरूप में भी परिवर्तन हो जाता है।

निष्कर्ष:-

सार्वजनिक व्यय में वृद्धि से सम्बंधित उपरोक्त सिद्धांतों के अध्ययन एवं विश्लेषण के उपरांत यह कहा जा सकता है कि सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का कोई भी एक सामान्य सिद्धान्त ऐसा नहीं है जो सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के लिए उत्तरदायी कारणों की स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत करता हो। इसका कारण यह है कि विभिन्न देशों की आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं जिसके कारण सार्वजनिक व्यय के आकार एवं संरचना के लिए किसी एक कारक को उत्तरदायी सिद्ध करना संभव नहीं है । इसके अतिरिक्त, समय एवं परिस्थितियों के साथ विभिन्न देशों की निर्णय प्रक्रिया में भी परिवर्तन होता रहता है, अतः सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के लिए अनेक कारक उत्तरदायी हैं जैसा कि पूर्व मेंवर्णित है। इस सम्बन्ध में प्रो० मसग्रेव का कथन है कि सार्वजनिक व्यय का सिद्धान्त मनोहर, किन्तु कुछ - कुछ पकड़ में न आने वाली समस्या बना रहेगा। यदि केवल आर्थिक कारकों पर ही विचार किया जाय तब भी व्यय सम्बंधी नियम पर पहुँचना दुरूह होगा।

बढ़ते सार्वजनिक व्यय के प्रति दृष्टिकोण (Attitude Towards Public Expenditure)

देश की अर्थव्यवस्था में सरकार की निरंतर बढ़ती जा रही भूमिका तथा उसके कल्याणकारीकार्यों में हो रही वृद्धि के फलस्वरूप राज्यों के व्यय में तेजी से वृद्धि होती जा रही है। राज्यों के इस तरह बढ़ते सार्वजनिक व्यय के प्रति कुछ लोगों ने निम्न आधारों पर चिंता व्यक्त की है

(A) सार्वजनिक व्यय प्रकृति से अनुत्पादकतथा अपव्ययपूर्ण होते हैं।

(B) विरोधी दलों को यह शंका बनी रहती है कि सत्तारूढ़ दल सार्बजनिक धन का उपयोग अपने शासन को स्थायी बनाने के लिए तो नहीं कर रहा है।

(C) यह भी चिंता बनी रहती है कि सरकार के कार्यक्षेत्र में विस्तार से व्यक्तिगत निजी उद्यम के क्षेत्र पर अतिक्रमण हो सकता है।

प्रथम चिंता इस धारणा पर आधारित है कि-

(1) प्रशासनिक दृष्टि से सरकार स्वभावतः अपव्ययी तथा अकुशल होती है तथा

(2) सरकारी कार्य लाभकारी न होकर समाज के ऊपर बोझ होते हैं।

ये तर्क उचित नहीं प्रतीत होते हैं कि हर बड़ा संगठन चाहे वह सामाजिक, व्यावसायिक अथवा सरकारी हो, उसमें अपव्यय व अकुशलता का पाया जाना एक सामान्य बात हो सकती है। यह तर्क भी आधारहीन है कि सरकारी कार्य से जनता पर अनावश्यक हो बोझ बढ़ता है। सरकारी कार्य सामान्यतया उन सेवाओं के रूप में होते हैं जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से समाज की उत्पादन क्षमता में वृद्धि करते हैं, भले ही उनसे सरकार को प्रत्यक्ष रूप से आय प्राप्त न होती विरोधी दलों की इस चिंता में सत्यता का कुछ अंश परिलक्षित होता है कि सार्वजनिक व्यय का उपयोग शासक दल मतदाताओं को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिएकर सकता है ताकि वह चुनाव में पुनः जीत सके। फिर भी इस आधार पर शासक दलद्वारा सार्वजनिक व्यय किए जाने की आलोचना नहीं की जा सकती। शासक दल जनता से मत प्राप्त कर शासन करने की शक्ति प्राप्त करता है। अत: सार्वजनिक व्यय की नीति अपनाने के पीछे जनता की स्वीकृति रहती है। इसी तरह, सरकारी क्षेत्र का विस्तार भी निजी उपक्रमों के लिए अभिशाप न होकर वरदान ही साबित हुआ है । आतंरिक शान्ति व बाह्य आक्रमण से सुरक्षा तथा आर्थिक विकास हेतु आधारभूत संरचना का विकास जैसे- यातायात एवं संचार के माध्यमों का विकास, शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर किया गया व्यय, गैर सरकारी अर्थव्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

सार्वजनिक व्यय की सीमाएँ ( Limitations of Public Expenditure)

आज विभिन्न कारणों से सार्वजनिक व्यय में तेजी से वृद्धि होती जा रही है । अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि सार्वजनिक व्यय की क्या सीमा होनी चाहिए ? अथवा राष्ट्रीय आय का अधिकतम् कितना भाग सार्वजनिक व्यय के रूप में होना चाहिए? सार्वजनिक व्यय उस सीमा तक उचित समझा जाता है जहाँ तक वह समाज को अधिकतम् सामाजिक लाभ प्रदान करने में सक्षम होता है । प्रत्येक देश की सरकार को सरकारी धन खर्च करते समय कुछ मदों पर विशेष ध्यान रखना पड़ता है। जैसे- देश में आतंरिक सुरक्षा तथा शासन व्यवस्था पर व्यय, देश की सीमाओं की रक्षा पर व्यय सामाजिक कल्याण, आर्थिक विकास, अंतराष्ट्रीय सम्बन्धों को अनुकूल बनाए रखने तथाअंतराष्ट्रीय व्यापार से संबंधित व्यय आदि । प्रो0 व्यु हलर का मत है कि "राष्ट्रीय आय का कोई निश्चित प्रतिशत सार्वजनिक व्यय के लिए निश्चित नहीं किया जा सकता क्योंकि यह सीमा समाज की इच्छा तथा आवश्यकताओं परसार्वजनिक व्यय प्रभावों तथा उसे पूरा करने के लिए उपलब्ध साधनों तथा सम्पत्ति व आय के वितरण पर आर्थिक स्थिति एवं अन्य तत्वों पर निर्भर करती है ।" इस तरह सार्वजनिक व्यय की सीमा निर्धारण करना सहज नहीं है क्योंकि यह अनेक कारकों से प्रभावित होता है जैसे-

(1) समाज की आवश्यकताएँ तथा इच्छाएँ,

(2) जनसंख्या का आकार तथा गुण

(3) जनता की करदान क्षमता,

(4) देश के आर्थिक विकास की अवस्था,

(5) जन - कल्याण में वृद्धि हेतुसरकार की इच्छा शक्ति,

(6) जनता की राज्य पर निर्भरता की मात्रा,

(7) देश का पड़ोसी देशों से सम्बन्ध आदि ।

इस सम्बंध में ब्रिचलर ने लिखा है कि, "कुछ व्यक्तियों की दृष्टि में सार्वजनिक व्यय की प्रत्येक वृद्धि एक अभिशाप है जबकि कुछ की दृष्टि में यह प्रसन्नता की बात मानी जाती है और कुछ इसके प्रति उदासीन हैं। सरकारी व्यय की समुचित सीमा के रूप में राष्ट्रीय आय के किसी निश्चित प्रतिशत का नाम लेना असंभव है क्यों ऐसी सीमा तुलनात्मक परिस्थितियों पर निर्भर करती है।''

सार्वजनिक व्यय के आदर्श (Ideals of Public Expenditure)

सार्वजनिक व्यय किस सीमा तक बढ़ाया जाना चाहिए । इस सम्बंध में डाल्टन का मत है कि, "सार्वजनिक व्यय इस ढंग से किया जाना चाहिए कि सीमांत सामाजिक लाभ प्रत्येक दिशा में समान हो।"सार्वजनिक व्यय के प्रमुख आदर्श निम्नलिखित हैं-

1. सार्वजनिक व्यय को प्रत्येक दिशा में उस सीमा तक बढ़ाते रहना चाहिए, जब तक कि इस व्यय से उत्पन्न होने वाला संतोष, राज्य द्वारा लगाए गए करों से उत्पन्न होने वाले असंतोष के बराबर न हो जाय,

2. सार्वजनिक व्यय को प्रत्येक क्षेत्र अथवा दिशा में इस प्रकार किया जाना चाहिए कि व्यय की प्रत्येक इकाई से प्राप्त होने वाला अतिरिक्त लाभ समान रहे।

सार्वजनिक व्यय से उत्पन्न होने वाला लाभ तथा करों से पड़ने वाले भार को भी मापना कठिन है। परन्तु इस बात को स्वीकार करना पड़ेगा कि यह आदर्श केवल सैद्धांतिक हैं इनको व्यावहारिक रूप देना सहज नहीं है। सार्वजिक व्यय से उत्पन्न होने वाला लाभ तथा करों से पड़ने वाला भर को भी मापना कठिन है।

डा0देवेंद्र प्रसाद ,सहायक प्राध्यापक अर्थशास्त्र विभाग,संत कोलोम्बा महाविद्यालय, हजारीबाग

Post a Comment

Hello Friends Please Post Kesi Lagi Jarur Bataye or Share Jurur Kare