
आधुनिक
झारखण्ड: अंग्रेजों का आगमन व जनजातीय विद्रोह
अंग्रेजों का झारखण्ड में आगमन
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12 अगस्त, 1765 को मुगल शासक शाहआलम द्वितीय ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल, बिहार
और उड़ीसा की जिम्मेदारी सौंपी तथा अंग्रेजों का झारखण्ड में प्रवेश 1767 ई. में आरम्भ
हुआ।
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1765 ई. में छोटानागपुर का क्षेत्र ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत आया था ।
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झारखण्ड में अंग्रेजों का प्रवेश सर्वप्रथम सिंहभूम की ओर से हुआ। उस समय सिंहभूम में
प्रमुख राज्य ढालभूम, पोरहाट तथा कोल्हान थे।
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मार्च, 1766 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी सरकार ने यह निर्धारित किया कि यदि सिंहभूम के
राजागण कम्पनी की अधीनता तथा वार्षिक कर देना स्वीकार कर लेते हैं, तो उन पर सैनिक
कार्यवाही नहीं की जाएगी।
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सिंहभूम के राजाओं ने कम्पनी की शर्तों को मानने से इनकार किया। फलस्वरूप 1767 ई. में
फर्ग्युसन के नेतृत्व में सिंहभूम पर आक्रमण किया गया ।
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उस समय छोटानागपुर का पहाड़ी क्षेत्र विद्रोही जमींदारों का सुरक्षित आश्रय स्थल था
।
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छोटानागपुर में कम्पनी के प्रवेश का मुख्य कारण इसकी सीमा को मराठा आक्रमणों से सुरक्षा
प्रदान करना था।
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ढालभूम पर अधिकार स्थापित होने के बाद अंग्रेजों ने 1773 ई. में पोरहाट राज्य के राजा
के साथ सन्धि की तथा सन्धि की शर्त में यह निर्धारित किया गया कि पोरहाट राजा को कम्पनी
विरोधी कार्यों में संलिप्त नहीं पाया जाएगा।
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सिंहभूम क्षेत्र में आंशिक सफलता के बाद अंग्रेजों ने पलामू क्षेत्र की तरफ प्रवेश
किया।
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मार्च, 1771 ई. में अंग्रेजों ने तत्कालीन चेरो के राजा चिरंजीत राय पर आक्रमण किया,
जिससे चेरों राजा ने आत्म-समर्पण कर दिया। इसके उपरान्त अंग्रेजों ने जुलाई, 1771 ई.
में गोपाल राय को राजा बनाकर 12 हजार वार्षिक मालगुजारी पर निर्धारित किया ।
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अंग्रेजों ने हजारीबाग क्षेत्र में प्रवेश किया तथा 1774 ई. में रामगढ़ का राजा ठाकुर
तेज सिंह को घोषित कर; रामगढ़, पलामू, छोटानागपुर खास के तीनों राज्यों को मिलाकर इसका
प्रभारी कैमक को बना दिया।
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इसके पश्चात् अंग्रेजों ने झारखण्ड के मानभूम, सरायकेला-खरसावाँ इत्यादि क्षेत्रों
में अधिकार स्थापित किया ।
झारखण्ड के प्रमुख विद्रोह
ढाल
विद्रोह (1767-1770 ई.)
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झारखण्ड में अंग्रेजों का प्रवेश सर्वप्रथम सिंहभूम की ओर से हुआ, इसलिए उनके विरुद्ध
सर्वप्रथम विद्रोह भी इसी क्षेत्र से 1767-1770 हुआ। यह झारखण्ड का प्रथम विद्रोह था
|
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दीवानी प्राप्त होने के बाद सिंहभूम क्षेत्र में अंग्रेजों ने अपना अधिकार स्थापित
करने की कोशिश की, फलतः फर्ग्युसन ने अपनी सेना लेकर ढालभूम राजा पर आक्रमण कर दिया
तथा ढाल राजा को बन्दी बनाकर मिदनापुर में कैद कर दिया।
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अंग्रेजों ने ढालभूम की जिम्मेदारी ढाल राजा के भतीजे जगन्नाथ ढाल को ₹5,500 वार्षिक
कर देने के तहत सौंप दी ।
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जगन्नाथ स्वाभिमानी प्रवृति का था, अतः इसके नेतृत्व में राज्य की समस्त जनता ने विद्रोह
किया और 1777 ई. में जगन्नाथ ढाल सत्ता पर पुनः आसीन हुआ।
चुआर
विद्रोह (1769-1805 ई.)
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इस विद्रोह के प्रमुख नेता रघुनाथ महतो ने अपना गाँव अपना राज, दूर भगाओ विदेशी राज
का नारा 1769 में दिया था ।
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1798 ई. में लगान नहीं देने के कारण पंचेत राज्य को नीलाम कर दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप
चुआरों ने विद्रोह कर दिया।
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चुआर विद्रोह के प्रमुख नेताओं में रघुनाथ महतो, श्याम गंजम, सुबल सिंह, दुर्जन सिंह
आदि थे। अंग्रेजों को विवश होकर चुआर एवं पाइक सरदारों को उनसे छीनी जमीन एवं सारी
सुविधाएँ वापस देनी पड़ीं।
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इस विद्रोह का प्रमुख कारण पंचेत का उत्तराधिकार था ।
घटवाल
विद्रोह (1772-73 ई.)
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यह विद्रोह 1772-73 ई. में हुआ था। रामगढ़ राजा मुकुन्द सिंह के राज्य पर जब तेजसिंह
ने अपना अधिकार जताया, तो अंग्रेजों ने तेजसिंह का साथ दिया एवं कैमक की सेना ने मुकुन्द
सिंह के खिलाफ कार्यवाही की।
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मुकुन्द सिंह ने आन्द्रगरबा घाटी के घटवाल तथा लोरंगा एवं दुनदुना घाटी के घटवाल के
साथ मिलकर कैमक का विरोध किया।
रामगढ़
विद्रोह (1772-1778 ई.)
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यह विद्रोह रामगढ़ के राजा मुकुन्द सिंह के नेतृत्व में शुरू हुआ। हजारीबाग क्षेत्र
में अंग्रेजों का सबसे अधिक विरोध रामगढ़ राज्य ने ही किया था ।
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अंग्रेजों ने तेज सिंह के साथ मिलकर 25 अक्टूबर, 1772 को रामगढ़ राज्य में दो तरफ से
घेराबन्दी की, जिसमें छोटानागपुर खास की ओर अंग्रेज अधिकारी कैप्टन जैकब, कैमक एवं
इवासा थे, तो वहीं दूसरी ओर से तेज सिंह ने रामगढ़ राज्य पर आक्रमण कि जिसके कारण मुकुन्द
सिंह को राज्य छोड़कर जाना पड़ा।
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इसके पश्चात् तेज सिंह को राजा बनाया दिया गया। सितम्बर, 1774 में इसकी मृत्यु हो जाने
के पश्चात् इसके पुत्र पारसनाथ सिंह को राजा बनाया गया था।
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अंग्रेजों ने 18 मार्च, 1778 को मुकुन्द सिंह व उसकी रानी को पलामू में पकड़ लिया गया,
जिसके कारण 1778 ई. के अन्त तक पूरे क्षेत्र में हिंसा व अशान्ति की स्थिति बनी रही।
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मुकुन्द सिंह के समर्थक ठाकुर रघुनाथ सिंह ने राज्य में विद्रोह की शुरुआत की तथा इनके
नेतृत्व में विद्रोहियों ने पारसनाथ सिंह के द्वारा नियुक्त जागीरदारों को हराकर चार
परगनों पर अधिकार स्थापित कर लिया ।
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रघुनाथ सिंह के नेतृत्व में इन विद्रोहियों का दमन करने के लिए कैप्टन एकरमन व लेफ्टिनेंट
डेनिएल ने संयुक्त रूप से मिलकर इस विद्रोह का दमन किया तथा रघुनाथ सिंह को चटगाँव
भेज दिया।
पहाड़िया
विद्रोह (1776-1824 ई.)
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पहाड़िया जनजाति राजमहल, गोड्डा एवं पाकुड़ क्षेत्रों में निवास करती थी।
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सन्थाल परगना प्रमण्डल की प्राचीनतम जनजाति पहाड़िया हैं। इनकी तीन उपजातियाँ हैं—
माल, सौरिया और कुमार भाग ।
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इस जनजाति ने अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक विद्रोह किए, जिनमें 1766, 1772, 1778 व
1779 ई. के विद्रोह प्रमुख थे।
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अंग्रेजों ने पहाड़िया जनजाति के विद्रोह को दबाने हेतु 1824 ई. में इनकी भूमि को दामिन-ए-कोह
का नाम देकर सरकारी सम्पत्ति घोषित कर दिया ।
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इस विद्रोह में महेशपुर की रानी ने सहयोग दिया था।
तिलका
माँझी विद्रोह (1783-85 ई.)
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इस विद्रोह की शुरुआत 1783-85 ई. में तिलका माँझी के नेतृत्व में हुई । तिलका माँझी
को जाबरा पहाड़िया भी कहा जाता था । =
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इस विद्रोह का प्रमुख उद्देश्य इस क्षेत्र से अंग्रेजों को भगाना तथा आदिवासी स्वायत्तता
की रक्षा करना था।
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ये लोग अंग्रेजी खजाना लूटकर जरूरतमंद – गरीबों में बाँटते थे ।
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तिलका माँझी विद्रोह का संदेश सखुआ (साल) पत्ते के माध्यम से घर-घर पहुँचाते थे। वे
विद्रोह का नेतृत्व सुल्तानगंज की पहाड़ियों से किया करते थे ।
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वर्ष 1784 में तिलका ने भागलपुर में अंग्रेज कलेक्टर आगस्टस कवीवलैण्ड को अपने तीर
से निशाना बनाया।
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भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के पहले विद्रोही नेता जो शहीद हुए, तिलका माँझी थे ।
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1785 ई. में तिलका को गिरफ्तार कर, में फाँसी पर लटका दिया गया। भागलपुर
तमाड़
विद्रोह (1789-1794 ई.)
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इस विद्रोह का मुख्य कारण आदिवासियों को भूमि से वंचित किया जाना, अंग्रेजी कम्पनी,
जमीदारों, तहसीलदारों व गैर आदिवासियों द्वारा उनका शोषण किया जाना था।
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राज्य में इस विद्रोह का प्रारम्भ 1789 ई. में छोटानागपुर की उराँव जनजाति द्वारा हुआ,
जो 1794 ई. तक चला।
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ठाकुर भोलानाथ सिंह के नेतृत्व में इस आन्दोलन की शुरुआत हुई।
चेरो
विद्रोह (1800-1802 ई.)
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यह विद्रोह किसानों और चेरो राजाओं द्वारा अन्य चेरो राजाओं के विरुद्ध 1800 में प्रारम्भ
हुआ था। 1770-71 ई. में पलामू के चेरो शासक चित्रजीत राय एवं उनके दीवान जयनाथ सिंह
का पलामू की राजगद्दी के दावेदार गोपाल राय की ओर से लड़ रहे अंग्रेजों के विरुद्ध
एक विद्रोह था। वस्तुतः यह पलामू की राजगद्दी की लड़ाई थी।
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अंग्रेजों ने गोपाल राय को पलामू का शासक बना दिया, परन्तु गोपाल राय को विद्रोही चेरो
के साथ मिल जाने से अंग्रेजों ने इसे बन्दी बनाकर पटना जेल में डाल दिया तथा चूड़ामन
राय को शासक बना दिया।
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चूड़ामन के शासनकाल में सरदार भूषण सिंह के नेतृत्व में विद्रोह हुआ, जिसे अंग्रेजों
ने 1802 ई. में दबाते चेरो विद्रोही नेताओं हुए को फाँसी की सजा दे दी।
हो
विद्रोह (1821-1837 ई.)
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1821-22 ई. में इस विद्रोह की शुरुआत सिंहभूम के राजा जगन्नाथ सिंह के विरुद्ध छोटानागपुर
की हो जनजाति द्वारा की गई।
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‘हो’ जनजाति के लोगों का जगन्नाथ सिंह के प्रति मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध था, परन्तु सिंहभूम
का राजा अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ‘हो’ लोगों से दुर्व्यव्हार करने लगा, इससे
क्षुब्ध होकर हो लोगों ने विद्रोह किया । • 1820-21 ई. में मेजर रूसेज (रफसेज) द्वारा
व 1837 ई. में कैप्टन विलकिंसन द्वारा इस विद्रोह का दमन किया गया तथा कुछ शर्तों व
करों के साथ क्षेत्र में शान्ति स्थापित की गई ।
कोल
विद्रोह (1831-32 ई.)
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यह झारखण्ड का पहला सुसंगठित एवं व्यापक जनजातीय विद्रोह था।
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इसमें मुण्डा, चेरो, हो एवं उराँव जनजातियों की प्रधानता थी । ऐसा माना जाता है कि
वास्तव में यह मुण्डाओं का विद्रोह था।
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इस विद्रोह में उराँव जनजाति का नेतृत्व बुद्धो (बुद्ध) भगत ने किया।
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इस विद्रोह का प्रभाव सिंहभूम, रांची, हजारीबाग, पलामू तथा मानभूम क्षेत्र में था।
विद्रोह का मुख्य कारण आदिवासियों की भूमि पर गैर-आदिवासियों द्वारा अधिकार से उत्पन्न
असन्तोष था।
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इस विद्रोह के कारण प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार आया तथा छोटानागपुर में विलकिंसन
कानून 1834 ई. में लागू किया गया। इसके तहत छोटानागपुर खास, पलामू, रामगढ़ इत्यादि
को रामगढ़ जिले से अलग कर दक्षिणी-पश्चिमी सीमान्त एजेन्सी का नाम दिया गया।
भूमिज
विद्रोह (1832-38 ई.)
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इस विद्रोह का आरम्भ 1832 ई. में वीरभूम से हुआ तथा यह 1833-34 ई. में तीव्र हो गया।
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इस विद्रोह का नेतृत्व बड़ाभूम की जागीर के एक दावेदार गंगानारायण ने किया। गंगानारायण
को सिंहभूम के लड़ाकू कोल तथा हो जनजातियों का समर्थन प्राप्त था ।
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इस विद्रोह को अंग्रेजों ने गंगानारायण का हंगामा की संज्ञा दी थी ।
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भूमिज विद्रोह बड़ाभूम के राजा एवं उसके दीवान, पुलिस अधिकारियों, मुंसिफ तथा अन्य दिकुओं
के विरुद्ध हुआ।
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विद्रोह के पश्चात् 1838 ई. में मानभूम का मुख्यालय मान बाजार के स्थान पर पुरुलिया
को बनाया गया। जिले
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इस विद्रोह के पश्चात् प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार किया गया, प्रशासन के समस्त कार्यों
को गवर्नर के अधीन कर दिया गया।
सन्थाल
विद्रोह (1855-56 ई.)
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इस विद्रोह की शुरुआत 1855-56 ई. में सिद्धू-कान्हू के नेतृत्व में की गई थी, जनजातीय
आन्दोलनों में यह विद्रोह प्रमुख था। इस विद्रोह को हूल आन्दोलन, सन्थाल हूल इत्यादि
नामों से भी जाना जाता है।
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इस विद्रोह का प्रमुख कारण अंग्रेजों की साम्राज्यवाद नीति, महाजनों व साहूकारों का
शोषण था।
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30 जून, 1855 को लगभग 400 आदिवासी गाँवों के लगभग दस हजार लोगों ने भगनाड़ीह में एकत्र
होकर वहाँ सभा की तथा सभा में अपना देश एवं अपना राज का नारा दिया गया।
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इस सभा में आदिवासियों के समूहों ने सिद्धू (सिदो) को अपना राजा घोषित किया तथा कान्हू
को मन्त्री, चाँद को प्रशासक व भैरव को सेनापति नियुक्त किया।
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यह विद्रोह 1856 ई. में सन्थाल क्षेत्र से बाहर बांकुड़ा, हजारीबाग व वीरभूम क्षेत्रों
में फैल गया। अंग्रेजी प्रशासन ने अब इस विद्रोह को दमन करने का आदेश दे दिया।
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अंग्रेजी सेना ने सन्थालों के गाँवों को जला दिया गया, सन्थाल विद्रोहियों के नेताओं
को बन्दी बना लिया तथा अधिकांश विद्रोहियों के नेताओं को मार दिया गया ।
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इस आन्दोलन के प्रणेता सिद्धू व कान्हू को अंग्रेजों ने बड़हैत में फाँसी दे दी तथा
चाँद व भैरव को महेशपुर के युद्ध में गोली मार दी। इस विद्रोह का सफलतापूर्वक दमन करने
में अंग्रेज अधिकारी कैप्टन अलेक्जेन्डर, लेफ्टिनेन्ट थॉमसन व लेफ्टिनेन्ट रीड का महत्त्वपूर्ण
योगदान रहा।
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इस विद्रोह के दमन के बाद सन्थाल क्षेत्र को एक नया नॉन- रेगुलेशन जिला बनाया गया तथा
इसे सन्थाल परगना नाम दिया गया। इस जिले का प्रथम जिलाधीश एशली एडेन को बनाया गया ।
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1860 ई. में सन्थाल परगना काश्तकारी अधिनियम पारित कर यहाँ की जमीनों पर सन्थालों समेत
अन्य स्थानीय लोगों के अधिकारों की पुनः वापसी हुई। तथा प्रशासन की ओर से उन्हें सुरक्षा
प्रदान की गई।
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ब्रिटिश शासन के दौरान 1824 ई. में सन्थाल क्षेत्र (वर्तमान साहेबगंज, पाकुड़, गोड्डा)
को विशेष रियासत का दर्जा प्रदान था, जिसे दामिन-ए-कोह कहा जाता था ।
सफाहोड़
आन्दोलन (1870 ई.)
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सन्थाल विद्रोह की विफलता के बाद इस आन्दोलन का उदय हुआ। इस आ का नेतृत्व लाल हेम्ब्रम
उर्फ लाला बाबा ने किया था।
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आन्दोलनकारी सन्थालों को सफेद झण्डी देते थे तथा उन्हें जनेऊ पहनाकर माँस-मदिरा के
सेवन से रोकते थे तथा ‘राम-नाम’ मन्त्र जपने को कहते थे ।
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इस आन्दोलन से डर कर अंग्रेजों ने राम-नाम का जप तथा आँगन से तुलसी चौरा बनाने पर पूर्णतः
प्रतिबन्ध लगा दिया।
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लाल बाबा ने सन्थाल परगना में देशोद्धारक दल का निर्माण किया ।
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इस आन्दोलन में प्रमुख विद्रोही पैका, मुर्मू, भतू सोरेन एवं रसिक लाल सोरेन व पगान
मराण्डी थे।
जनजातीय सुधारवादी आन्दोलन
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झारखण्ड में हुए प्रमुख जनजातीय सुधारवादी आन्दोलन निम्नलिखित हैं –
खरवार
आन्दोलन (1874-1881 ई.)
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खरवार आन्दोलन ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था के विरुद्ध भागीरथ माँझी के नेतृत्व में
1874 ई. में प्रारम्भ हुआ। भागीरथ माँझी आदिवासियों में ‘बाबा’ के नाम से प्रसिद्ध
थे। 1881 ई. में जनगणना के विरुद्ध दुविधा गोसाई तथा पटेल सिंह
के नेतृत्व में खरवार आन्दोलन पुनः प्रारम्भ हुआ तथा इनकी गिरफ्तारी एवं दमन के
साथ समाप्त हुआ।
सरदारी
आन्दोलन (1858-95 ई.)
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यह आन्दोलन तीन चरणों में सम्पन्न हुआ, जो इस प्रकार है ऑफ
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भूमि आन्दोलन (1858-81 ई.) छोटानागपुर खास में 1858 ई. में जो व्यापक उपद्रव हुए उनका
सम्बन्ध भूमि से था। यह उपद्रव धीरे-धीरे बढ़ते हुए सोनपुर, वसिया, दोईसा और खुरबरा
तक फैल गया था। अक्टूबर, 1858 में अनेक गाँवों के ईसाइयों ने अपने उत्पीड़क जमींदारों
का विरोध किया। नवम्बर, 1858 में कई जागीरदारों और उनके रैयतों के बीच लड़ाई हुई।
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पुराने मूल्यों की पुनर्स्थापना का आन्दोलन (1881-98 ई.) सरदारी आन्दोलन के इतिहास
का दूसरा चरण 19वीं शताब्दी के नवें दशक में बीता। जर्मन और कैथोलिक दोनों की मिशनों
से सरदारों ने बाद में अपना सम्बन्ध तोड़ लिया।
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राजनीतिक आन्दोलन (1890-95 ई.) 1890 ई. के बाद सरदारी आन्दोलन का स्वरूप राजनीतिक हो
गया। 1892 ई. में ठेकेदारों और मिशनरियों को मारने का एक षड्यन्त्र रचा गया, लेकिन
नेतृत्व के अभाव में यह षड्यन्त्र फेल हो गया। अतः सरदारों ने अपने आन्दोलन का मुण्डा
आन्दोलन में विलय कर लिया ।
बिरसा
मुण्डा आन्दोलन (1895-1900 ई.)
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बिरसा आन्दोलन झारखण्ड राज्य का सबसे विस्तृत एंव सुसंगठित आन्दोलन था। इस आन्दोलन
को उलगुलान आन्दोलन भी कहा जाता था। इसका प्रमुख केन्द्र खूँटी में था ।
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इस आन्दोलन के प्रमुख नायक बिरसा मुण्डा थे, जिन्हें इस आन्दोलन के दौरान भगवान के
अवतार के रूप में मान्यता मिली थी।
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यह आन्दोलन मुण्डा जनजाति द्वारा किया गया था। इनके विद्रोह का मुख्य कारण अंग्रेजों
द्वारा इन पर उत्पीड़न करना व इनकी संस्कृति पर दूसरी संस्कृतियों का प्रभाव पड़ना
था ।
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बिरसा मुण्डा ने मुण्डा जनजाति का नेतृत्व किया व विद्रोह आगे बढ़ाया तथा 1895 ई. तक
लगभग छः हजार मुण्डाओं को इकट्ठा किया, जिसके परिणामस्वरूप एक बड़े दल का निर्माण हुआ।
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बिरसा मुण्डा ने मुण्डा जनजाति को विद्रोह के मुख्य उद्देश्य बताएं, जिनमें अंग्रेजी
सरकार का पूर्ण रूप से दमन कर देना, छोटानागपुर सहित राज्य के अन्य क्षेत्रों से दिक्कुओं
से (गैर-आदिवासियों) को निष्कासित करना तथा स्वतन्त्र मुण्डा राज्य की स्थापना करना
था ।
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25 दिसम्बर, 1897 में क्रिसमस के दिन मुण्डाओं ने ईसाइयों व उन मुण्डाओं पर हमला किया
जो ईसाई धर्म अपना चुके थे। इसके पश्चात् कम्पनी ने अपनी सेना विद्रोह को दबाने व बिरसा
मुण्डा को गिरफ्तार करने के लिए सेना भेजी |
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3 फरवरी, 1900 को अंग्रेजों ने चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से बरा मुण्डा को गिरफ्तार
कर राँची जेल में डाल दिया तथा इसी जेल में मुण्डा की 9 जून, 1900 को असामयिक मृत्यु
हो गई ।
> ₹500 ईनाम के लालच में बदगाँव के जगमोहन सिंह के
लोगों वीरसिंह महली आदि ने बिरसा मुण्डा को गिरफ्तार करवाया था ।
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इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप कम्पनी ने अपने कानूनों में कुछ परिवर्तन किए तथा वर्ष
1908 में छोटानागपुर में काश्तकारी कानून लागू किया गया।
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इसके द्वारा खूँटकटी (सामूहिक काश्तकारी) अधिकारों को पुनर्स्थापित किया गया, बैठबेगारी
( बन्धुआ मजदूरी) पर प्रतिबन्ध लगाया गया तथा लगान की दरें कम की गईं ।
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बिरसा आन्दोलन के कारण 1902 ई. में गुमला को तथा 1903 ई. में खूँटी को अनुमण्डल बना
दिया गया।
ताना
भगत आन्दोलन (1914 ई.)
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ताना भगत आन्दोलन अप्रैल, 1914 में जतरा भगत के नेतृत्व में एक पन्थ के रूप में प्रारम्भ
हुआ। यह आन्दोलन उराँव जनजाति की एक शाखा से सम्बन्धित था ।
>
इस आन्दोलन के मुख्य क्षेत्र कूडू, माण्डर, चैनपुर एवं विशुनपुर थे। सिसई थाने की
‘देवमनिया’ नामक महिला ने इस आन्दोलन में प्रशंसनीय भूमिका निभाई थी।
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ताना भगतों ने सर्वप्रथम गाँधीजी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया। वर्ष
1921 में गाँधीजी द्वारा चलाए गए ‘असहयोग आन्दोलन’ में ताना भगतों ने ‘सिद्धू भगत’
के नेतृत्व में भाग लिया।
राज्य का 1857 की क्रान्ति में योगदान
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छोटानागपुर क्षेत्र में इस विद्रोह का प्रारम्भ 12 जून, 1857 को देवघर जिले के रोहिणी
गाँव के सैनिकों के विद्रोह से हुआ तथा मेजर लैसली की हत्या कर दी गई ।
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1857 ई. की क्रान्ति में सम्पूर्ण सिंहभूम क्षेत्र में क्रान्तिकारियों के प्रमुख नेता
राजा अर्जुन सिंह थे।
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अगस्त, 1857 को लेफ्टिनेंट ग्राहम के अधीन सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। इसका नेतृत्व
सूबेदार माधव सिंह और सूबेदार नादिर अली खाँ कर रहे थे।
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पलामू में इस विद्रोह के नेता नीलाम्बर और पीताम्बर भोगता थे ।
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अप्रैल, 1859 में लेसलीगंज में पलामू क्षेत्र के प्रमुख नेता नीलाम्बर एवं पीताम्बर
को फाँसी दे दी गई।
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5 अगस्त, 1857 को पुरुलिया स्थित 64 सैनिकों तथा 12 घुड़सवारों ने विद्रोह कर दिया।
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3 सितम्बर, 1857 को भगवान सिंह तथा रामनाथ सिंह के नेतृत्व में विद्रोह का झण्डा फहराकर
इन लोगों ने सरकारी खजाने से 20 हजार रुपये लूटे तथा जेल से 250 कैदियों को छुड़ाने
के बाद ये रांची चले गए।
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चकला के भवानी बख्श राय 26 सितम्बर, 1857 को इस विद्रोह में शामिल हो गए। रांची तथा
हजारीबाग में सैनिक विद्रोह का नेतृत्व भगवान सिंह तथा रामनाथ सिंह ने किया। इस विद्रोह
में पोरहाट के राजा अर्जुन सिंह ने भी सहयोग दिया।
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हजारीबाग स्थित रामगढ़ बटालियन ने 30 जुलाई, 1857 को विद्रोह कर दिया। सरकारी बंगलों
व कार्यालयों में आग लगा दी गई तथा कैदियों को मुक्त कराया गया, सरकारी खजाने को लूट
लिया गया।
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सम्बलपुर के सुरेन्द्र शाही के नेतृत्व में सैनिकों ने रांची की ओर से कूच किया। सन्थालों
ने कई गाँवों को लूटने के बाद झारपों के जमींदार का निवास स्थल घेर लिया। 300 रांची
में विद्रोही सैनिकों ने जमादार माधव सिंह, सूबेदार नादिर अली खाँ एवं सूबेदार जयमंगल
पाण्डेय के नेतृत्व में अधिकारियों की कोठियाँ जलाई गई।
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रांची के कमिश्नर डाल्टन की सलाह पर अगस्त, 1857 के अन्तिम दिनों में छोटानागपुर में
मार्शल लॉ लागू किया गया ।
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विश्वनाथ शाही तथा पाण्डेय गणपत राय के नेतृत्व में अंग्रेजों के सभी बंगले जला दिए
गए। विद्रोह का समर्थन रतन जिया के रामस्वरूप सिंह व शेख पहलवान ने किया ।
> मोहराबादी में टैगोर हिल के निकट उमराव सिंह और शेख भिखारी को 8 जनवरी, 1858 को फाँसी दे दी गई, जिसे आज भी टुंगरी फाँसी के नाम से जाना जाता है।