जनसंख्या
एवं विकास में परस्पर सम्बन्ध होता है। जनसंख्या का आर्थिक विकास पर प्रभाव पड़ता है
तो दूसरी ओर आर्थिक विकास का भी जनसंख्या पर प्रभाव पड़ता है। जनसंख्या का विकास
पर जहाँ विस्तारक प्रभाव (Spread effect) पड़ता है, वहीं संकोचक प्रभाव
(Backwasheffect) भी पड़ता है। के संकोचक प्रभाव के कारण ही यह व्यक्तियों और समाज
अथवा देश दोनों ही स्तरों पर एक निषध (Taboo) बन
जाती है। अतः यह आवश्यक है कि हम आर्थिक विकास एवं जनांकिकीय विश्लेषण की प्रमुख
अवधारणाय की जानकारी प्राप्त करें जिससे जनांकिकी विश्लेषण की क्रिया को समझने में
आसानी हो सके। जिससे जनांकिकी विश्लेषण की क्रिया को समझने में आसानी हो सके।
प्रस्तुत अध्याय में जनांकिकी विश्लेषण की आधारभूत अवधारणाओं, यथा-विकास सम्बन्धी
प्रमुख अवधारणाएँ, जनसंख्या पिरामिड, जनसंख्या का घनत्व, लिग अनुपात, जनसंख्या
वृद्धि, जनसंख्या जाल आदि की विवेचना की गई है।
(I) विकास संबंधी प्रमुख अवधारणाएँ
(Basic concepts Related to Development)
विकास
संबंधी प्रमुख अवधारणाओं के अंतर्गत आर्थिक विकास, आर्थिक वृद्धि, आर्थिक प्रगति
एवं धारणीय या पोषित विकास की अवधारणाओं को सम्मिलित किया जाता है। इनका अध्ययन दो
शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है, यथा- (A) आर्थिक वृद्धि, आर्थिक विकास एवं
आर्थिक प्रगति की अवधारणाएँ, (B) धारणीय या पोषित विकास की अवधारणा।
इन अवधारणाओं की विस्तृत विवेचना निम्नानुसार है-
(A) आर्थिक वृद्धि,
आर्थिक विकास एवं आर्थिक प्रगति की अवधारणाएँ (Concepts of Economic Growth,
Economic Development & Economic Progress)
एक
सामान्य व्यक्ति के लिए आर्थिक वृद्धि, आर्थिक प्रगति एवं आर्थिक विकास में अन्तर
नहीं होता और वह इन्हें पर्यायवाची मानता है, किन्तु अनेक अर्थशास्त्रियों ने इन
शब्दों का प्रयोग अलग-अलग अर्था में किया है। इन अर्थशास्त्रियों में प्रो.
शुम्पीटर, श्रीमती उर्सला हिक्स, प्रो. बोने, प्रो. मेयर एवं बाल्डविन, प्रो. बाइट
सिंह आदि प्रमुख हैं।
इन
अर्थशास्त्रियों के अनुसार आर्थिक वृद्धि उन्नत देशों की समस्याओं से तथा आर्थिक
विकास अल्पविकास देशों की समस्याओं से सम्बन्ध रखता है। डॉ. डी.ब्राइट सिंह के
शब्दों में, "उच्च आय वाले पूँजीवादी राष्ट्रों में आर्थिक विस्तार प्रायः
प्राकृतिक व स्वचालित होता है, परन्तु पिछड़ी अर्थव्यवस्था में बाह्य प्रेरणा और
सरकार के निर्देशन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार आर्थिक वृद्धि शब्द का उपयोग कि
वृद्धि की प्रकृति स्वाभाविक होती है, जबकि विकास में ऐसा सम्भव नहीं है। विकसित
अर्थव्यवस्था वाले राष्ट्रों के लिए ही किया जाता है। प्रोफेसर ए.बोन ने विचार
व्यक्त किये हैं कि वृद्धि की प्रकृति स्वाभाविक होती है, जबकि
विकास में ऐसा सम्भव नहीं है।
प्रो. उर्सला
हिक्स ने
आर्थिक वृद्धि एवं आर्थिक विकास में अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखा है, “अल्पविकसित देशों
की सम्भावनाएँ उपयोग में न लाए गए साधनों के विकास से संबंध रखती है, भले ही उनके उपयोग
भली-भाँति ज्ञात हों, जबकि उन्नत देशों की समस्याएँ वृद्धि से संबंधित रहती हैं जिनके
बहुत सारे साधन पहले से ज्ञात और किसी सीमा तक विकसित होते हैं।' इस परिभाषा से स्पष्ट
है कि 'विकास' शब्द का संबंध पिछड़े हुए देशों अथवा अल्पविकसित या विकासशील देशों से
है जहाँ पर साधनों का पूर्ण उपयोग नहीं हुआ और उनके विकास की संभावना है। जबकि 'वृद्धि'
शब्द का प्रयोग आर्थिक दृष्टिकोण से विकसित देशों से है।
प्रो. ए. मैडिसन
(A. Maddison) की परिभाषा द्वारा किया गया भेद सबसे सरल है। उसके शब्दों
में "आय स्तरों को ऊँचा करना सामान्यतया अमीर देशों में आर्थिक वृद्धि कहलाता
है, जबकि गरीब देशों में यह आर्थिक विकास कहलाता है।'' इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय
है कि कभी-कभी अल्पविकसित के पर्याय के रूप में पिछड़े अथवा गरीब शब्द का भी प्रयोग
किया जाता है। 'गरीब' शब्द का प्रयोग प्रति व्यक्ति आय के नीचे स्तर से है।
प्रो. शुम्पीटर
(J.A. Schumpeter) के मतानुसार 'विकास' और 'वृद्धि' शब्दों का अर्थव्यवस्था
के प्रकार से कोई संबंध नहीं है। दोनों में भेद, परिवर्तन की प्रकृति और कारणों से
है। शुम्पीटर दोनों शब्दों में भेद को स्पष्ट करते हुए कहता है कि विकास स्थिर अवस्था
में एक निरंतर और स्वतः प्रेरित परिवर्तन है जो पहले से वर्तमान संतुलन अवस्था में
हमेशा के लिए परिवर्तित और विस्थापित करता है, जबकि वृद्धि दीर्घकाल में होने वाले
क्रमिक तथा सतत परिवर्तन है जो बचतों और जनसंख्या की दर में धीरे-धीरे वृद्धि द्वारा
आता है।
प्रो. बारैर
(Barrere) ने वृद्धि एवं विकास में अन्तर करते हुए लिखा है, "वृद्धि
से आशय प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि तथा विकास से आशय जनसंख्या एवं कुल वास्तविक आय
में वृद्धि से होता है।' आमतौर पर आर्थिक विकास का अर्थ केवल आर्थिक वृद्धि होता है।
इस शब्द का प्रयोग वर्तमान अर्थव्यव्या के मात्रात्मक मापों का वर्णन करने हेतु नहीं,
बल्कि उन आर्थिक, सामाजिक या अन्य परिवर्तनों के वर्णनों के लिए होता है जो कि वृद्धि
की ओर ले जाते हैं।
प्रो. किंडलबर्गर
और
हैरिक (C.P.Kindleberger and Prof. Herick) के
अनुसार, आर्थिक विश्लेषण में कभी-कभी 'वृद्धि' और 'विकास'को पर्यायवाची के रूप में
प्रयुक्त किया जाता है। अक्सर ऐसा प्रयोग मान्य है लेकिन जहाँ दोनों धारणाएँ प्रयुक्त
की जाती हैं वहाँ विशेषतया अलग अर्थ लिया जाता है। स्पष्ट और अस्पष्ट रूप से सामान्य
तौर से इनका प्रयोग इस प्रकार से है - "आर्थिक वृद्धि का मतलब अधिक उत्पादन है
जबकि आर्थिक विकास का अर्थ है अधिक उत्पादन तथा तकनीकी और संस्थानिक व्यवस्थाओं में
परिवर्तन जिनके द्वारा यह उत्पादित और वितरित होता है।''
आर्थिक प्रगति
(Economic Progress):-
आर्थिक प्रगति एक व्यापक शब्द
है और इसका उपयोग आर्थिक इकाई के लिए किया जाता है। आर्थिक प्रगति का सम्बन्ध किसी
देश के आर्थिक साधनों में वृद्धि एवं गतिशीलता से है। आर्थिक प्रगति में आर्थिक साधनों
से होने वाली, मनुष्य एवं राष्ट्र की उन्नति भी सम्मिलित है। देश की समृद्धि आर्थिक
प्रगति की सूचक है। अर्थिक प्रगति से देश में आर्थिक क्षेत्र साथ-साथ सामाजिक व राजनीतिक
विकास भी होता है। इसके विपरीत आर्थिक अवनति अनेक सामाजिक व राजनीतिक समस्याओं को जन्म
देती है जिसमें आवास, स्वास्थ्य व बेरोजगारी की समस्या प्रमुख है। उर्सला हिक्स के
अनुसार "प्रगति अविकसित क्षेत्रों में सम्बन्धित होनी चाहिए, जहाँ पर प्रयोग न
किये साधनों का उपयोग एवं विकास करने की सम्भावना है।'' प्रोफेसर बोन ने भी यह कहा
है, "प्रगति में कुछ निर्देशन, नियन्त्रण एवं सलाह की आवश्यकता होती है जिसमें
विस्तार की शक्तियों को बनाये रखना होता है। अधिकांशतया अविकसित राष्ट्रों के लिए सत्य
होता है।"
संक्षेप में, आर्थिक वृद्धि
का संबंध देश की प्रति व्यक्ति आय या उत्पादन में एक मात्रात्मक निरंतर वृद्धि से है
जो कि उसकी श्रम शक्ति, उपभोग, पूँजी और व्यापार की मात्रा में प्रसार के साथ होती
हैं दूसरी ओर आर्थिक विकास एक विस्तृत धारणा है। यह आर्थिक आवश्यकताओं, वस्तुओं, प्रेरणाओं
और संस्थाओं में गुणात्मक परिवर्तनों से संबंधित है। यह प्रौद्योगिकी और संरचनात्मक
परिवर्तनों जैसे वृद्धि के अंतर्निहित निर्धारकों का वर्णन करता है। विकास में वृद्धि
और ह्रास दोनों सम्मिलित होते हैं। एक अर्थव्यवस्था वृद्धि कर सकती है परन्तु यह विकास
नहीं कर सकती, क्योंकि प्रौद्योगिकी और संरचनात्मक परिवर्तनों के अभाव के कारण गरीबी,
बेरोजगारी और असमानताएँ निरंतर विद्यमान रहती है।
आर्थिक वृद्धि
एवं आर्थिक विकास में अन्तर (Difference between Economic Growth and Economic
Development)
आर्थिक विकास एवं आर्थिक वृद्धि
की धारणाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि दोनों में समानताएँ होने के कारण इन
शब्दों का प्रयोग पर्यायवाची के रूप में किया जाता है। इन दोनों में प्रमुख समानताएँ
हैं- (i) राष्ट्रीय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि, (ii) वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन
में वृद्धि, (iii) दीर्घकालीन प्रवृत्ति का होना, (iv) वृद्धि की सतत् प्रक्रिया का
पाया जाना, (v) जनसंख्या में वृद्धि आदि। किन्तु वास्तविक रूप में ये दोनों धारणाएँ
अलग-अलग हैं। संक्षेप में, आर्थिक विकास एवं आर्थिक वृद्धि के अन्तर को निम्न प्रकार,
सरलता से समझा जा सकता है-
आर्थिक विकास |
आर्थिक वृद्धि |
(i) आर्थिक विकास की धारणा का प्रयोग सामान्यतः अर्धविकसित या विकासशील राष्ट्रों के सन्दर्भ में किया जाता है। |
(i) आर्थिक वृद्धि एक संकुचित धारणा है और इसमें राष्ट्रीय एवं प्रति-व्यक्ति आय जैसे आर्थिक घटकों को ही सम्मिलित किया जाता है। |
(ii) आर्थिक विकास एक व्यापक धारणा है जिसमें राष्ट्रीय एवं प्रति-व्यक्ति आय में वृद्धि के साथ-साथ संस्थागत एवं संरचनात्मक परिवर्तनों को भी सम्मिलित किया जाता है। |
(ii) आर्थिक वृद्धि अपेक्षाकृत एक संकुचित धारणा है। कारण यह है कि इसके अन्तर्गत केवल आर्थिक कारकों का ही अध्ययन किया जाता है। |
(iii) आर्थिक विकास के अन्तर्गत आय एवं उत्पादन जैसे आर्थिक कारकों के साथ-साथ सामाजिक,सांस्कृतिक, राजनैतिक आदि कारकों का भी अध्ययन किया जाता है। |
(iii) आर्थिक वृद्धि का सामाजिक न्याय से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसमें केवल क्षेत्रात्मक वृद्धि या उसके सम्बन्धित आर्थिक चरों में वृद्धि को सम्मिलित किया जाता है। |
(iv) आर्थिक विकास के लिए उत्पादन तथा आय में वृद्धि के साथ-साथ सामाजिक न्याय भी आवश्यक है। आर्थिक विकास के अन्तर्गत सम्पूर्ण वृद्धि का अध्ययन किया जाता है। |
(iv) आर्थिक वृद्धि में पूर्व निर्धारित विशिष्ट लक्ष्य या उद्देश्य नहीं होते। फलतः अर्थव्यवस्था के निर्देशन का प्रश्न ही नहीं उठता। |
(v) आर्थिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अनतर्गत विकास के लक्ष्य पूर्वनिर्धारित होते हैं और उन्हीं के अनुरूप अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को निर्देशित किया जाता है। |
(v) आर्थिक वृद्धि का भाव सकारात्मक होने के साथ-साथ नकारात्मक
(Negetive) भी होता है। उदाहरणार्थ राष्ट्रीय आय या प्रति-व्यक्ति आय में वृद्धि या कमी होती रहती है। |
(vi) सामान्यतः आर्थिक विकास का भाव सकारात्मक
(Positive) ही होता है। दूसरे शब्दों में विकास से आशय समाज को उच्चतम स्तर पर ले जाने से है। |
(vi) सामान्यतः आर्थिक वृद्धि की धारणा का प्रयोग विकसित राष्ट्रों के सन्दर्भ में किया जाता है। |
धारणीय या पोषित
विकास की अवधारणा (Concept of Sustainable Development)
सामान्यतः आर्थिक विकास की
प्रक्रिया में प्राकृतिक संसाधनों का बड़ी मात्रा में प्रयोग होता है और परिणामस्वरूप
जहाँ एक ओर पुनर्उत्पादनीय एवं गैर- पुनर्उत्पादनीय, दोनों प्रकार के, प्राकृतिक संसाधनों
में कमी आती है, वहीं विकास की प्रक्रिया से उत्पन्न विषैली गैसों एवं अन्य अपशिष्ट
पदार्थों से पर्यावरण
दूषित होता है। अतः स्पष्ट
है कि वर्तमान में जो विकास की प्रक्रिया अपनाई जा रही है, उससे न केवल भावी विकास
की दर पर बुरा प्रभाव पड़ेगा वरन् प्रदूषित पर्यावरण से मानव-जीवन की गुणवत्ता पर भी
प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों से धारणीय या पोषित विकास
को अपनाने पर जोर दिया जा रहा है।
धारणीय या पोषणीय विकास की
धारणा में संसाधनों के आर्थिक और पारिस्थितिकी या पर्यावरण से सम्बंधित पहलुओं दोनों
को साथ में लेकर चला गया है। इसके साथ ही धारणीय विकास में अपशिष्ट पदार्थों के प्रबन्धन,
प्राकृतिक संसाधनों के पुर्नजनन, प्रजाति दुर्लभता का नियंत्रण और भावी पीढ़ियों के
कल्याण हेतु विनियोग भी सम्मिलित है।
प्रतिष्ठित और नव-प्रतिष्ठित
आर्थिक विकास सिद्धांतों में भूमि, पूँजी एवं श्रम को उत्पाद के प्रमुख घटक माना गया
हैं प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के द्वारा उत्पादन में वृद्धि को ही विकास का माप
समझा गया है। अतः ये सिद्धांत धारणीय विकास से भिन्न है, क्योंकि इनमें विकास के कारण
पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को सम्मिलित नहीं किया गया है।
प्रतिष्ठित एवं नवप्रतिष्ठित
अर्थशास्त्रियों के अनुसार विकास की प्रमुख विशेषता उत्पादन एवं उपभोग में वृद्धि का
होना है। यह वृद्धि मुख्यतः कार्यक्षमता में वृद्धि के कारण होती है। अतः इन अर्थशास्त्रियों
ने अपने विकास सिद्धांत में उन बातों को भी सम्मिलित किया है जो अर्थव्यवस्था की कार्यक्षमता
को प्रभावित करते हैं। किन्तु इन विकास सिद्धांतों में प्रकृतिदत्त पुर्नउत्पादनीय
एवं गैर-पुनउत्पादनीय संसाधनों को पूँजी- संचय एवं पूँजी-स्टॉक के रूप में नहीं माना
गया है। धारणीय विकास में इस पहलु को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
धारणीय या पोषणीय
विकास की परिभाषा (Definition of Sustainable Development)
सभी पीढ़ियों की जीवन-दशाओं
में वृद्धि करना धारणीय विकास का मूल मार्गदर्शी सिद्धान्त है। दूसरे शब्दों में, प्रकृति
से प्राप्त पुनर्डत्पादनीय एवं गैर पुनर्ऋत्पादनीय साधनों का आवंटन वर्तमान पीढ़ी एवं
भावी पीढ़ियों के मध्य इस प्रकार से हो कि इन साधनों का उपयोग सभी के द्वारा किया जा
सके। उदाहरण के लिए नर्मदा नदी भूत, वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों के लिए है। अतः इस नदी
के जल का उपयोग इस प्रकार से किया जाना चाहिए कि भावी पीढ़ियाँ इसके उपयोग से वंचित
न रह जाएँ। स्पष्ट है कि धारणीय विकास एक अत्यधिक विस्तृत धारणा है और इसे परिभाषा
में बाँधना कठिन कार्य है। इसे निम्न प्रकार से परिभाषित किया जाता है।
(1) पर्यावरण
एवं विकास पर विश्व आयोग प्रतिवेदन (1987) में कहा गया है,
"धारणीय विकास वह विकास है जो वर्तमान आवश्यकताओं को, भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं
को सन्तुष्ट करने की क्षमता से, समझौता किए बगैर सन्तुष्ट करता है।'
धारणीय विकास की उपर्युक्त
परिभाषा में वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ भावी पीढ़ियों के कल्याण के लिए भी चिन्तन किया
गया है। इस प्रतिवेदन में आगे कहा गया है, "संक्षेप में, धारणीय विकास परिवर्तन
की वह प्रक्रिया है जिसमें संसाधनों का दोहन, निवेश की दिशा, तकनीकी विकास का दिशा
निर्देशन और संस्थागत परिवर्तन सभी सुसंगत रूप में हैं और मानवीय आवश्यकताओं और आकांक्षाओं
को सन्तुष्ट करने हेतु विद्यमान और भावी, दोनों संभावनाओं में वृद्धि होती हैं।'
यह परिभाषा स्वयं विकास प्रक्रिया
की रूपरेखा, तकनीकी चयन, संसाधनों और संभावित सामाजिक दशाओं में परिवर्तन के लिए संस्थागत
ढाँचे के सूत्र प्रदान करती है। पर्यावरण और विकास पर विश्व आयोग द्वारा धारणीय विकास
की जो परिभाषा दी गई है, उसे आर्थिक सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में पुनः निम्न प्रकार
से परिभाषित किया जा सकता है।
“पोषणीय विकास आर्थिक गतिविधियों
की एक प्रक्रिया है, जो पर्यावरणीय गुणवत्ता स्तर को, उस नीति के अनुरूप अखंड रखती
है जो आर्थिक विकास के शुद्ध लाभों को वर्तमान और भावी पीढ़ी के लिये अधिकतम यह मानते
हुये करती है कि प्राकृतिक संसाधन की सेवाओं और गुणवत्ता में एक समय में कोई परिवर्तन
नहीं होता है।"
इस परिभाषा का अर्थ यह है कि
यह कार्यक्षमता को पोषणीयता की अन्य विशेषताओं के साथ जोड़ने का प्रयास करती है। भावी
पीढ़ी के अवसरों को संरक्षित करना, अन्तर-पीढ़ीगत न्याय के भाव को न्यूनतम करता है,
जो कि जान लॉक के न्यायोचित अर्जन' (Jast acquisition) के समरूप है। वर्तमान पीढ़ी
को विद्यमान संसाधन आधारों द्वारा प्रदत्त अवसरों को कम करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि
वे इसके स्वामी नहीं हैं।
(2) प्रो. जे.एम.
हार्टविक (1977) के अनुसार उत्पादन प्रक्रिया में पुर्नउत्पादनीय संसाधनों,
गैर- पुर्नउत्पादनीय संसाधनों और मानव निर्मित पूँजी के उपयोग के मध्य सन्तुलन बनाए
रखा जाना चाहिए। प्रो. हार्टविक के शब्दों में, “जब तक निकाले गए गैर-पुर्नउत्पादनीय
संसाधनों से प्राप्त सभी लाभों को या तो मानव निर्मित पूँजी निर्माण या पुनर्डत्पादनीय
संसाधनों के पुर्नजनन में पुनः निवेश किया जाता है, तब तक पीढ़ी पर्यन्त उपभोग की धारा
समान बनी रहेगी।'' इसी विकास प्रक्रिया को धारणीय विकास प्रक्रिया कहा जा सकता है।
(3) प्रो. एच.
डाली (1990)
ने धारणीय विकास के लिए कुछ मार्गदर्शक सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं। ये सिद्धांत चार
हैं, यथा- (i) मानव परिमाण (जनसंख्या) को उस स्तर पर रखना जो, नद्यपि अनुकूलतम नहीं
हो फिर भी संवहनीय क्षमता के अनतर्गत हो और इसलिए पोषणीय या धारणीय भी ।। (ii) धारणीय
विकास में तकनीकी प्रगति, परिणाम के बजाय कुशलता में वृद्धिदायक होनी चाहिए। (iii)
संसाधनों की दोहन की दर पुनर्जनन की दर से अधिक नहीं होना चाहिए और अपशिष्ट पदार्थों
का उत्सर्जन पर्यावरण को समाहित करने की क्षमता के परे नहीं होना चाहिए। (iv) गैर-पुनउत्पादनीय
संसाधनों का दोहन उस सर्वश्रेष्ठ दर पर किया जाना चाहिए, जो पुनईत्पादनीय स्थानापन्नों
के निर्माण के बराबर हो।
प्रो. डाली ने धारणीय विकास
के उपर्युक्त सिद्धांतों की विवेचना पृथ्वी की संवहनीय क्षमता द्वारा निर्देशित जनसंख्या
नियंत्रण और हार्टविक के विचारों को समाहित करते हुए की है। वे पुनउत्पादनीय एवं गैर-पुर्नउत्पादनीय
संसाधनों के उपयोग में अपशिष्ट पदार्थों के व्यवस्थित प्रबंधन के साथ-साथ कार्यक्षमता
में सुधार करने का सुझाव देते हैं।
प्रो. रोबर्ट
सोलो (Robern
Solow) ने संसाधनों के आवंटन को धारणीय विकास का आधार बताया है। उनके अनुसार विकास
प्रक्रिया में संसाधनों का आवंटन वर्तमान एवं भविष्य के मध्य होता है। यदि इन संसाधनों
का उपयोग वर्तमान पीढ़ी के द्वारा अधिक मात्रा में कर लिया जाता है तो भावी विकास के
लिए इन संसाधनों की कमी हो जायेगी और परिणामस्वरूप भावी पीढ़ियों के लिए उपभोग हेतु
कम वस्तुयें और सेवाएँ उपलब्ध होगी। अतः प्रो सोलो के अनुसार मुख्य समस्या वर्तमान
उपभोग एवं भावी विकास के लिए संसाधनों को छोड़ने की है। अतः वर्तमान पीढ़ी को उत्पादन
में उतने ही संसाधनों का प्रयोग करना चाहिए जिनसे भावी पीढ़ियों पर प्रतिकूल प्रभाव
न पड़े।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट
है कि धारणीय विकास प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग से सम्बन्धित है। इन संसाधनों का
उपयोग वर्तमान में इस प्रकार से किया जाना चाहिए कि भविष्य में भी इनकी उपलब्धता बनी
रहे। धारणीय विकास का मूल मंत्र यह है कि अपने आप को इतना ही अच्छा बनाओं कि आने वाले
हमसे अच्छे हो सकें। दूसरे शब्दों में प्रकृति ने कुछ हमें दिया है, हम उसका इस प्रकार
से उपयोग करें कि आने वाली पीढ़ियों को इनकी कमी महसूस न हो। इसके साथ ही धारणीय विकास
में सामाजिक न्याय की प्राप्ति विहामान असमानताओ को कम करना और सभी स्तरों पर जन साधारण
की भागीदारी को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया है।
(II) जनसंख्या पिरामिड
(Population Pyramid)
जनांकिकी विश्लेषण की प्रक्रिया
में जनसंख्या संरचना के अध्ययन के लिए जनसंख्या पिरामिड की सहायता ली जाती है। जनसंख्या
पिरामिड के द्वारा हम जनसंख्या की आयु एवं लिंग संरचना का अध्ययन कर सकते है। यदि आयु
एवं लिंग संरचना का आरेखीय चित्रण प्रस्तुत किया जाये तो यह एक पिरामिड का आकार ले
लेता है। इस रेखीय चित्रण को आयु-लिंग पिरामिड या जनसंख्या पिरामिड कहते हैं।
जनसंख्या पिरामिड को परिभाषित
करते हुए प्रो. थाम्पसन तथा लेविस (Thompson and Lewis) ने कहा है कि “जब जनसंख्या
की आयु तथा लिंग संरचना को ग्राफ द्वारा दर्शाया जाता है, तब पिरामिड बन जाता है, दीर्घ
आधार सबसे कम आयु की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है तथा एक ओर की रेखाएँ धीरे-धीरे
एक बिन्दु को ओर झुकती जाती है जो कि मृत्यु के कारण अनेक आगामी आयु वर्ग में घटती
हुई जनसंख्या को प्रदर्शित करती है।'' जब जनसंख्या के आयु तथा लिंगानुपात को ग्राफ
पर दर्शाया जाता है, तब जनसंख्या पिरामिड बन जाता है।
जनसंख्या पिरामिड
की रचना (Plotting of Population Pyramids)
जनसंख्या पिरामिड रेखाचित्र
में प्रदर्शित किया गया है। जनसंख्या पिरामिड की रचना करते समय जनसंख्या को लिंगानुसार
पुरुषों तथा स्त्रियों में विभाजित कर लिया जाता है। ग्राफ के X-अक्ष पर व्यक्तियों
की संख्या को तथा Y-अक्ष पर उनकी आयु को दर्शाया जाता है। X-अक्ष पर जनसंख्या को लिंगानुसार
दर्शाया जाता है। X-अक्ष के बायीं ओर पुरुषों को तथा दायीं ओर स्त्रियों को प्रदर्शित
किया जाता है। X-अक्ष पर एक ओर पुरूषों को तथा दूसरी ओर स्त्रियों को प्रदर्शित करने
तथा Y-अक्ष पर आयु को अंकित करने से जो दण्ड-चित्र (Bar-diagram) प्राप्त होता है,
उसकी आकृति पिरामिड के समान होती है, इसीलिये उसे जनसंख्या पिरामिड कहा जाता है।
जनसंख्या पिरामिड की रचना वास्तव
में ज्यामितिक रचना हैं जनसंख्या पिरामिड की रचना वास्तव में जनांकिकी का विषय तो नहीं
है, किन्तु फिर भी इन पिरामिडों के आधार पर जनसंख्या की तुलना आयु तथा लिंगानुसार करना
जनांकिकी की विषय-वस्तु अवश्य होती है।
जनसंख्या पिरामिडों का स्वरूप
जनसंख्या पिरामिडों की रचना
के दो प्रमुख आधार हैं- प्रथम निरपेक्ष आँकड़े (Absolute Data) तथा द्वितीय अनुपात
(Proportion)। यदि जनसंख्या पिरामिड की रचना निरपेक्ष आँकड़ों के आधार पर की जाती है,
तब इससे जनसंख्या के आकार तथा संरचना की विशेषताओं को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है
यदि हमारा उद्देश्य दो ऐसे देशों की जनसंख्या की संरचना की तुलना करना है जो जनसंख्या
के आकार की दृष्टि से असमान हैं, जैसे- भारत तथा श्रीलंका, तब निरपेक्ष आँकड़ों के
आधार पर जनसंख्या पिरामिड की रचना करना उपयुक्त नहीं होगा। इसका कारण यह है कि देखने
में भारत का पिरामिड तो बहुत बड़ा होगा किन्तु श्रीलंका का आकार में बहुत छोटा। इस
स्थिति में जनसंख्या पिरामिड प्रतिशत के आधार पर बनाना अधिक उपयुक्त होगा क्योंकि इस
प्रकार के पिरामिड का स्वरूप तो भिन्न हो सकता है किन्तु आकार नहीं होता।
प्रो. थाम्पसन
तथा
लेविस (Thompson and Lewis) के अनुसार "जनसंख्या
हमेशा बदलती रहती है, जब पिरामिड एक स्थिर चित्र है। विभिन्न आयु तथा लिंग श्रेणियां
में लोगों के अनुपात में मृत्यु, प्रजननता तथा देशान्तरण के कारण परिवर्तन होता रहता
है। जनसंख्या पिरामिड समय के किसी एक विशिष्ट क्षण पर समय की इस गति को स्थिर कर देता
है। कुछ दूसरे परिप्रेक्ष्य में पिरामिड को जनसंख्या के जैविकीय इतिहास के रूप में
देखा जा सकता है, जो कि 100 वर्षों के जन्म, मृत्यु तथा देशान्तरण का परिणाम है।"
जनसंख्या पिरामिड
की असमानताएँ (Abnormalities in Population Pyramid)
सामान्यतः जनसंख्या के पंचवर्षीय
पिरामिड जनसंख्या का चलचित्र-सा प्रस्तुत करते हैं। यदि जनसंख्या में किसी एक वर्ष
में कोई असामान्य घटना घटित हो जाए, तब इसके परिणामस्वरूप आगामी पंचवर्षीय पिरामिड
में उसका प्रभाव दिखाई देगा। असामान्य घटनाओं के परिणामस्वरूप जनसंख्या पिरामिड के
उभार (Bulges) तथा गड्डे (Dent) दिखाई दे सकते हैं। जनसंख्या पिरामिड की इस प्रकार
की असमानताओं को एक जनांकिक उस देश के इतिहास के ज्ञान के आधार पर समझा सकता हैं।
उदाहरण, द्वितीय विश्वयुद्ध
के कारण 1940 से 1945 के बीच बहुत कम शिशुओं का जन्म हुआ। जिससे 20-25 वर्ष की आयु
समूह में 20-25 वर्ष के पश्चात् के आयु वर्ग में गड्ढा दिखाई देगा। यदि जन्म दर तथा
मृत्यु-दर स्थिर है तब जनसंख्या पिरामिड सममित (Symmetrical) होगा। इस प्रकार के पिरामिड
का आधार चौड़ा होता है तथा जैसे-जैसे आयु वर्ग में वृद्धि होती है, वह शंकु
(Conical) के आकार का हो जाता है।
जनसंख्या पिरामिडों
की प्रकृति का विश्लेषण (Analysis of the Nature of Pyramids)
प्रो. थाम्पसन तथा लेविस
(Thompson and Lewis) ने आयु तथा लिंग संरचना के आधार पर पाँच प्रकार के जनसंख्या पिरामिडों
का उल्लेख किया है, ये निम्न प्रकार हैं-
(1) प्रथम प्रकार
(First
Type)- प्रथम प्रकार के पिरामिड की आकृति त्रिभुजाकार होती है। इसका आधार विस्तृत होता
है किन्तु यह धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ता है तथा प्रारम्भ से अन्त तक लगभग एक-सा रहता
है। इस प्रकार का जनसंख्या पिरामिड ऊँची जन्म-दर तथा मृत्यु-दर को दर्शाता है। यह पिरामिड
यह भी व्यक्ति करता है कि औसत आयु भी कम है। यह विकास से पूर्व की जनसंख्या संरचना
को प्रदर्शित करता है। विश्व के अनेक देशों के जनसंख्या पिरामिड 1650 के पूर्व इसी
प्रकार थे।
(2) द्वितीय
प्रकार (Second
Type)- इस पिरामिड का आधार प्रथम प्रकार के पिरामिड की तुलना में अधिक होता है।
0-4 वर्ष के आयु-वर्ग के पश्चात् दोनों भुजाओं का ढाल बढ़ने लगता है। इस प्रकार की
जनसंख्या की संरचना उन देशों की होती है जिसमें शिशु तथा बाल मृत्यु-दर तो घट चुकी
हो किन्तु प्रजननता में किसी प्रकार की कोई कमी न हुई हो। इस प्रकार के देशों की जनसंख्या
अन्य देशों की तुलना में अत्यधिक तीव्र गति से बढ़ती है। इन देशों में आश्रित अनुपात
(Dependence Ratio) भी सर्वाधिक होता है।
(3) तृतीय प्रकार
(Third
type)- इस प्रकार के पिरामिड का स्वरूप पुराने ढंग के मुधमक्खी के छत्तेनुमा होता है।
यह पिरामिड उन देशों की जनसंख्या संरचना को दर्शाता है जिनकी जन्म-दर तथा मृत्यु- दर
दोनों ही कम है, इसीलिए इस प्रकार के पिरामिड का आधार तो छोटा होता है किन्तु भुजाएँ
आयताकार रूप में लम्बवत् बढ़ती है। अधिकांश पश्चिमी यूरोपीय देशों जनसंख्या पिरामिडों
का स्वरूप द्वितीय विश्वयुद्ध तक इसी प्रकार का था। इस प्रकार के जनसंख्या पिरामिड
की तीन प्रमुख विशेषताएँ हैं
(i) सबसे अधिक औसत आयु,
(ii) न्यूनतम आश्रित अनुपात,
तथा
(iii) आश्रितों में बच्चों
की तुलना में वृद्ध व्यक्तियों की अधिकता।
(4) चतुर्थ प्रकार
(Fourth
Type)- इस पिरामिड का स्वरूप घण्टी के आकार का होता है। इस प्रकार का पिरामिड हाल ही
के वर्षों की देन है तथा यह संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा आदि देशों की जनसंख्या संरचना
को प्रदर्शित करता है। इन देशों में 100 वर्ष से अधिक समय तक जन्म-दर तथा मृत्यु- दर
तो निम्न रही जबकि प्रजननता बढ़ रही है। इस प्रकार के जनसंख्या पिरामिड की अनेक विशेषताएँ
हैं, जैसे- जनसंख्या की वृद्धि, घटती हुई औसतं आयु, बढ़ता हुआ कुल आश्रित अनुपात। अनेक
जनसंख्या- शास्त्रियों ने इसे संक्रमण काल कहा है।
(5) पंचम प्रकार(Fifth
Type)- यह पिरामिड उन देशों की जनसंख्या संरचना को प्रदर्शित करता है जहाँ प्रजननता
में बहुत तेजी के साथ कमी आयी है। यदि प्रजननता में इसी प्रकार की कमी हुई तो आगामी
वर्षों में इन देशों में श्रम संख्या की कमी उत्पन्न हो जायेगी। इस प्रकार की जनसंख्या
में मृत्यु निम्नतम होती है। इस प्रकार की स्थिति में जापान, फ्रांस आदि देश हैं।
(III) जनसंख्या का घनत्व
(Density of Population)
किसी भी देश में भूमि का क्षेत्रफल, वन सम्पदा, खनिज-पदार्थ, जल एवं अन्य प्राकृतिक साधन सीमित मात्रा में होते हैं। इन प्राकृतिक साधनों के विदोहन का स्तर देश में व्यक्तियों की संख्या पर निर्भर करता है। प्रत्येक देश में विकास हेतु योजना बनाने के लिए उस देश की जनसंख्या की सघनता की जानकारी प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक होता है। जनसंख्या की इसी सघनता का अध्ययन जनसंख्या के घनत्व के रूप में किया जाता है। प्रायः एक देश में निवास करने वाले मनुष्यों और उस देश के क्षेत्रफल के पारस्परिक अनुपात को जनसंख्या का घनत्व कहते हैं। दूसरे शब्दों में, "जनसंख्या घनत्व एक सरल अनुपात होता है, जो किसी क्षेत्र विशेष की जनसंख्या को उस क्षेत्र के क्षेत्रफल से भाग देने पर प्राप्त होता है। जनसंख्या का घनत्व किसी देश या क्षेत्र विशेष में जनसंख्या के दबाव का सूचक होता है।" जनसंख्या के घनत्व को निम्न सूत्र की सहायता से परिकलित किया जाता है-
जनसंख्या के घनत्व को 'मनुष्य-भूमि अनुपात' (Man-land Ratio) भी कहते हैं तथा इसकी सहायता से किसी भी स्थान, क्षेत्र, देश पर मनुष्य के भार को ज्ञात किया जाता है। जनांकिकी में कभी-कभी देशों एवं क्षेत्रों की तुलना की दृष्टि से 'प्रति व्यक्ति भूमि प्राप्तता' (Per Capita Availability of Land) की गणना भी की जाती है। यह जनसंख्या घनत्व का प्रतिलोम होती है। इसे निम्न सूत्र द्वारा परिकलित किया जाता है-
संक्षेप में प्रत्येक देश अपने
आर्थिक एवं सामाजिक विकास हेतु योजना बनाते समय इस बात पर ध्यान देता है कि उस देश
या क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व कितना है।
जनसंख्या घनत्व
के प्रकार (Types of Density of Population)
सामान्यतया जनसंख्या का घनत्व
किसी क्षेत्र विशेष में जनसंख्या के दबाव को दर्शाता है। जनसंख्या के दबाव को हमेशा
भौगोलिक क्षेत्रफल से सम्बद्ध करना ही वैज्ञानिक नहीं है, क्योंकि जनसंख्या घनत्व का
एक विशिष्ट अंक किसी विशेष परिस्थिति में अधिक समझा जाता है तो किसी अन्य परिस्थिति
में कम। उदाहरणार्थ, यदि प्रति वर्ग किलोमीटर जनसंख्या का घनत्व कृषि में 100 है तो
अधिक ही समझा जायेगा, किन्तु यदि यही घनत्व औद्योगिक क्षेत्र में है तो वह कम माना
जाता है। सामान्यतः जनांकिकी में पाँच प्रकार के जनसंख्या घनत्व का प्रयोग किया जाता
है, ये निम्न प्रकार हैं
(1) अंकगणितीय घनत्व (Arithmetic Density)- सामान्यतः अंक गणितीय घनत्व को ही जनसंख्या घनत्व की संज्ञा दी जाती है। यह मनुष्य-भूमि अनुपात का सबसे सरल रूप है जिसे व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर के द्वारा परिभाषित किया जाता है। इसकी गणना के लिए किसी क्षेत्र विशेष की जनसंख्या को उस क्षेत्र के क्षेत्रफल से भाग दिया जाता है। सूत्र रूप में,
उदाहरण, मान लीजिए किसी देश की कुल जनसंख्या = 800 मिलियन तथा क्षेत्रफल = 3 मिलियन वर्ग किलोमीटर है, तो जनसंख्या घनत्व होगा
इस प्रकार जनसंख्या घनत्व
= 267 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है।
(2) कृषि घनत्व (Agricultural density)- कृषि घनत्व किसी भी देश की कृषि में कार्यरत जनसंख्या को उस देश की कृषि योग्य भूमि के क्षेत्रफल से भाग देने पर प्राप्त होता है। सूत्र रूप में,
(3) आर्थिक घनत्व (Economic Density) किसी भी देश की जनसंख्या का वहाँ पर उपलब्ध समस्त संसाधनों से क्या अनुपात है, यह आर्थिक घनत्व कहलाता है। किसी देश में जीवन-यापन के अनेक स्त्रोत होते हैं जिन्हें आर्थिक स्त्रोत की संज्ञा दी जाती है, उदाहरणार्थ - व्यापार, सेवा, उद्योग आदि। देश में उपलब्ध समस्त आर्थिक स्त्रोतों से जीवन-यापन किया जा सकता है इसलिए समस्त आर्थिक साधनों और प्राकृतिक संसाधनों के योग को जनसंख्या से विभाजित किया जाता है, इसके साथ-साथ उस देश के निवासियों की कार्यकुशलता, तकनीकी ज्ञान, वैज्ञानिक प्रगति, श्रम विभाजन एवं शासन व्यवस्था को भी `सम्मिलित किया जाता है। सूत्र रूप में,
(4) कार्यिक घनत्व (Physiological Density)- प्रत्येक देश में कुछ क्षेत्र ऐसे हो सकते हैं जहाँ पर लोग निवास नहीं करते। अतः किसी देश में जनसंख्या का वास्तविक भार ज्ञात करने के लिए सम्पूर्ण क्षेत्र को नहीं बल्कि केवल उन क्षेत्रों को ही सम्मिलित किया जाता है जिन पर कृषि की जा सकती है। जैसे- पहाड़, रेगिस्तान, नदी, तालाब एवं बाँध इत्यादि को जनसंख्या का भार ज्ञात करने में इन क्षेत्रों का उपयोग करना उचित नहीं होगा। अतः कार्मिक अनुपात की गणना हेतु किसी क्षेत्र या देश के कुल क्षेत्रफल में से कृषि अयोग्य भूमि का क्षेत्रफल घटा देते है जिससे कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल ज्ञात हो जाता है। कृषि योग्य भूमि के क्षेत्रफल में समस्त जनसंख्या से भाग देने पर 'मानव कृषि योग्य भूमि अनुपात' या कार्मिक घनत्व ज्ञात किया जा सकता है। सूत्र रूप में,
(5) पोषण घनत्व (Nutrition Density)— कृषि में प्रयुक्त होने वाली भूमि की एक इकाई से भोजन प्राप्त करने वाले व्यक्तियों की संख्या को पोषण घनत्व कहते हैं। इसे ज्ञात करने के लिए कुल जनसंख्या में कुल खेती की गई भूमि के क्षेत्रफल से भाग दिया जाता है। सूत्र रूप में,
(IV) लिंग अनुपात (Sex
Ratio)
लिंग अनुपात से तात्पर्य किसी
जनसंख्या में सभी आयु वर्गों की कुल स्त्रियों व पुरूषों का अनुपात है। लिंग अनुपात
किसी क्षेत्र की वर्तमान एवं आर्थिक दशाओं का सूचकांक होता है तथा प्रादेशिक विश्लेषण
के लिए उपयोगी साधन है। इसका प्रभाव जनसंख्या वृद्धि, विवाह-दर तथा व्यावसायिक संरचना
जैसे अन्य जनांकिकी गुणों पर भी पड़ता है। किसी जनसंख्या में रोजगार व उपभोग के प्रतिरूप
सामाजिक आवश्यकताएँ और उसकी मनोवैज्ञानिक विशेषताओं को समझने में लिंग अनुपात का अध्ययन
उपयोगी होता है। किसी क्षेत्र में लिंग अनुपात में परिवर्तन से विभिन्न आयु स्तरों
पर पुरुषों व स्त्रियों की जन्म व मृत्यु-दर में परिवर्तन तथा प्रवास के स्वरूप का
ज्ञान होता है। इससे सामाजिक एवं आर्थिक जीवन की प्रवृत्ति विश्लेषण और जनांकिकी तत्वों
के प्रभाव को समझने में सहायता मिलती है। फ्रैंकलिन के अनुसार, "लिंग अनुपात किसी
क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का एक सूचक है तथा प्रादेशिक विश्लेषण के लिए अत्यन्त लाभदायक
यंत्र है।''
ट्रिवार्था के
अनुसार, "किसी भी क्षेत्र के भौगोलिक विश्लेषण के लिए दोनों लिंगों का अनुपात
आधारभूत है क्योंकि यह न केवल स्थलरूप का एक महत्वपूर्ण लक्षण है, अपितु यह अन्य जनांकिकीय
तत्वों को भी महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। अतः क्षेत्रीय स्थलरूप के विश्लेषण
का यह एक अतिरिक्त माध्यम बन सकता
लिंगानुपात परिकलन की विधियाँ - लिंग अनुपात किसी विशिष्ट समय पर किसी देश, स्थान या जाति विशेष के स्त्री तथा पुरुषों की संख्या के बीच अनुपात को प्रदर्शित करता है। इसका परिकलन भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। कुछ देशों में लिंग अनुपात को पुरुषों अथवा स्त्रियों की जनसंख्या के प्रतिशत रूप में व्यक्त किया जाता है। इसे निम्न सूत्रानुसार ज्ञात किया जाता है-
लिंगानुपात = `\frac MP`X 100 अथवा `\frac FP`X100
जहाँ, M= पुरुषों की संख्या
F = स्त्रियों की संख्या
P=कुल जनसख्या
संयुक्त राज्य अमेरिका में
लिंग अनुपात प्रति 100 त्रियों पर पुरुषों की संख्या के रूप में किया जाता है। इसकी
गणना निम्नानुसार की जाती है
लिंगानुपात = `\frac MP`X 100
न्यूजीलैण्ड में लिंग अनुपात
का परिकलन प्रति 100 पुरुषों पर स्त्रियों के रूप में किया जाता है।
लिंगानुपात = `\frac FM`X 100
भारत में प्रति एक हजार पुरुषों
पर स्त्रियों की संख्या को लिंगानुपात कहा जाता है। यहाँ 2011 की जनगणना के अनुसार
लिंगानुपात 940 है। इसे ज्ञात करने के लिए स्त्रियों की संख्या में पुरुषों की संख्या
का भाग देकर भागफल में 1000 से गुणा किया जाता है, यथा -
लिंगानुपात = `\frac FM`X 100
भारत में 2011 के जनगणनानुसार
स्त्रियों की संख्या 58.64 करोड़, पुरुषों की संख्या 62.37 करोड़
अतः सूत्रानुसार = `\frac{58.64}{62.37}\times1000=940`
यदि लिंग अनुपात एक से अधिक
है, तो इसका अर्थ है कि समाज में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या अधिक है।
यदि यह अनुपात एक से कम है तो इसका अर्थ है कि स्त्रियों की संख्या पुरुषों की तुलना
में कम है। यदि यह अनुपात एक आता है तो इसका अर्थ है कि समाज में स्त्रियों तथा पुरुषों
की संख्या बराबर है।
लिंग अनुपात
के प्रकार (Types of Sex Ratio)
समय के आधार पर लिंगानुपात
को निम्नांकित रूपों में समझा जा सकता है -
(1) प्राथमिक
लिंगानुपात (Primary Sex Ratio)- यह लिंगानुपात गर्भधारण के समय का होता
है। आनुवांशिक विज्ञान की मान्यता है कि गर्भधारण के समय प्रत्याशित लिंगानुपात समान
नहीं होता है। जैव वैज्ञानिकों का मत है कि पुरुषों के Y शुक्राणु स्त्री के X शुक्राणु
से हल्के और तेज होते हैं जिससे उनका शीघ्र निषेचन हो जाता है। अतः गर्भधारण में पुरुष
शिशुओं की संख्या अधिक होती है।
(2) द्वितीयक
लिंगानुपात (Secondary Sex Ratio)- यह लिंगानुपात जन्म के समय का होता
हैं सामान्यतः जन्म के समय पुरुष शिशुओं की संख्या अधिक होती है।
(3) तृतीयक लिंगानुपात
(Tertiary Sex Ratio)- यह लिंगानुपात वह होता है जो जनगणना के समय प्राप्त किया जाता
है। वास्तव में, यही वास्तविक लिंगानुपात को प्रदर्शित करता है। इसकी गणना विश्व के
विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार से की जाती है।
(V) जनसंख्या वृद्धि (Population
Growth)
जनांकिकीय घटनाओं की व्याख्या
और उनके विश्लेषण के लिए जनांकिकीय दरों की गणना की जाती है। इस हेतु कुछ प्रमुख जनांकिकीय
दरें निम्न प्रकार है .
(1) प्रजनन दरें
(Fertility
Rates)-किसी भी देश के निवासियों के प्रजनन व्यवहार को ज्ञात करने विशिष्ट जन्म दर
आदि की गणना की जाती है। हेतु मुख्य रूप से अशोधित जन्म दर, कुल प्रजनन दर, शुद्ध पुनरुत्पादन
दर, सकल पुनरुत्पादन दर, आयु-
(2) मृत्यु दरें
(Mortality
Rates)- किसी भी देश में मरणशीलता के अध्ययन में मृत्यु दरें मुख्य भूमिका निभाती है।
देश में मरण संबंधी माप ज्ञात करने के लिए अशोधित मृत्यु दर, प्रामाणिक मृत्यु दर एवं
आयु विशिष्ट मृत्यु दरों की गणना की जाती है।
जनसंख्या वृद्धि
की माप (Measurement of Population Growth)
किसी भी देश की जनसंख्या वृद्धि
का अध्ययन जनांकिकीय दृष्टिकोण के साथ ही उस देश के आर्थिक विकास एवं संवृद्धि से भी
महत्व रखता है। किसी देश की जनसंख्या वृद्धि दर को निम्नालिखित विधियों की सहायता से
ज्ञात किया जा सकता है
(A) प्रथम विधि
-
जनसंख्या वृद्धि की माप की इस विधि के अन्तर्गत यदि किसी देश की जनसंख्या की अशोधित
मृत्यु दर (Crude Death Rate) को अशोधित जन्म दर (Crude Birth Rate) में से घटा दिया
जाए तो जनसंख्या वृद्धि का अनुमान लगाया जा सकता है। इसे जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि
की अशोधित- दर (Crude Rate of Natural Increase) अथवा स्वाभाविक जनसंख्या वृद्धि दर
(Natural Rate of Population Growth) कहते हैं। इसे निम्न सूत्र की सहायता से ज्ञात
किया जाता है
स्वाभाविक जनसंख्या वृद्धि दर `=\frac BP.K-\frac DP.K`
`=\left(\frac{B-D}P\right).K`
इस सूत्र में,
B = किसी वर्ष विशेष में जन्मे
बच्चों की पंजीकृत संख्या
D= उसी वर्ष विशेष में पंजीकृत
मृत्युएँ
P = संबंधित वर्ष की मध्य तिथि
(एक जुलाई) पर सम्पूर्ण जनसंख्या
K= स्थिरांक (=1,000)
(B) द्वितीय
विधि -
इस विधि के अन्तर्गत सर्वप्रथम किसी भी देश के दो समयों ( एवं 1,) पर प्राप्त जनसंख्या
के अन्तर की गणना करते हैं। तत्पश्चात इस समयान्तर में जनसंख्या वृद्धि-दर की गणना
की जाती है। इस रीति की गणना में प्रयुक्त दोनों समयों की जनसंख्या को या तो जनगणना
द्वारा अथवा पंजीकरण द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
माना कि किसी स्थान विशेष में
समय t1 पर कुल जनसंख्या = Pt1
एवं पुनः उसी स्थान पर समय
t2 पर कुल जनसंख्या = Pt₂
समय अन्तराल (t2-t1)
में जनसंख्या वृद्धि = (Pt₂-
Pt1)
जनसंख्या में सापेक्षिक वृद्धि दर `=\left(\frac{Pt_2-Pt_1}{Pt_1}\right)`
अथवा`\left(\frac{Pt_2}{Pt_1}-1\right)`
जनसंख्या वृद्धि को सामान्यतः
प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है।
अतः जनसंख्या में प्रतिशत वृद्धि = `\left(\frac{Pt_2}{Pt_1}-1\right)\times100`
अब चूँकि जनसंख्या में यह प्रतिशत
परिवर्तन समय अन्तराल (t2-t1) में हुआ है, इसलिए जनसंख्या में
वार्षिक वृद्धि ज्ञात करने हेतु इसे समय अन्तराल से भाग देते हैं। इस प्रकार,
जनसंख्या में वार्षिक वृद्धि दर= `\frac1{t_2-t_1}\left(\frac{Pt_2}{Pt_1}-1\right)\times100`
अथवा, `\frac1t\left(\frac{Pt_2}{Pt_1}-1\right)\times100`
(अगर t2-t1=
t मान लिया जाए )
किन्तु, उपरोक्त सूत्र से जनसंख्या
वृद्धि दर की गणना कर व्यावहारिक परिणाम प्राप्त करना सरल नहीं है क्योंकि समान मात्रा
में जनसंख्या वृद्धि क्रमशः जनसंख्या में परिवर्तन नहीं उत्पन्न करती। चूँकि जनसंख्या
चक्रवृद्धि दर से बढ़ती है इसलिए स्थिर जनसंख्या वृद्धि दर से जनसंख्या ज्ञात करने
पर प्रायः जनसंख्या की निरपेक्ष वृद्धि में अन्तर उत्पन्न हो जाता है जो क्रमशः बढ़ता
ही जाता है, इसलिये जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि-दर ज्ञात करने हेतु निम्नलिखित सूत्र
का प्रयोग किया जाता है -
`\frac{Pt_2}{Pt_1}=\left(1+r\right)^{t_2-t_1}`
Pt1-समय t1
पर कुल जनसंख्या
Pt2 = समय t2
पर कुल जनसंख्या
r= वार्षिक वृद्धि दर
t2-t1=
समय अन्तराल
इस प्रकार उपरोक्त सूत्र के
द्वारा वृद्धि r की गणना की जा सकती है।
(VI) जनसंख्या जाल (Population
Trap)
अल्पविकसित एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं
में अशिक्षा, अंधविश्वास एवं रूढ़ियों की समस्या पायी जाती है। इसके परिणामस्वरूप बच्चे
इन देशों में दायित्व (Liability) के स्थान पर सम्पत्ति (Assets) समझे जाते हैं। जिससे
जनसंख्या वृद्धि की दर भी अधिक होती है। अधिकांश विकासशील देशों में जनसंख्या बढ़ते-बढ़ते
'जनसंख्या विस्फोट' की स्थिति में पहुँच जाती है। जनसंख्या विस्फोट का अभिप्राय उस
स्थिति से होता है, जबकि देश की जनसंख्या के जीवन-स्तर में सुधार के सभी प्रयास तीव्र
जनसंख्या वृद्धि के कारण निष्फल हो जाते हैं। हार्वे लेबेन्सटाइन (Harvey Leibenstein)
ने इस स्थिति की "निम्नस्तरीय जनसंख्या जाल" (Low Level Equilibrium
Population Trap) कहा जाता है। इस प्रकार इस स्थिति में राष्ट्रीय आय में तो वृद्धि
होती है, किन्तु इसके साथ ही साथ जनसंख्या में भी वृद्धि हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप
प्रति व्यक्ति आय एक निम्न स्तर पर बनी रहती है।
लैबेन्सटाइन का मत है कि आय में वृद्धि के साथ-ही-साथ मृत्यु-दर में भी कमी हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि होती है। लैबेन्सटाइन के इस विचार को रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
रेखाचित्र में X-अक्ष पर जनसंख्या तथा आय वृद्धि को प्रतिशत के रूप में प्रदर्शित किया गया है तथा Y-अक्ष पर प्रति व्यक्ति आय को दर्शाया गया है। जब जनसंख्या वृद्धि की दर आय में वृद्धि की दर से अधिक होती है, तब चित्र के अनुसार आय वक्र II जनसंख्या वक्र PP1P2 को Q बिन्दु पर काटते हुए ऊपर की ओर उठ जाता है, जिससे Q बिन्दु पर प्रति व्यक्ति आय कम हो जायेगी। लैबेन्सटाइन ने इस स्थिति को निम्नस्तरीय जनसंख्या-जाल साम्य कहा है। इस प्रकार यदि आय में वृद्धि होती भी है, तब जनसंख्या वृद्धि के परिणामस्वरूप आय में वृद्धि निरस्त हो जाती है तथा इस कारण अर्थव्यवस्था पुनः जीवन निर्वाह स्तर पर वापस आ जाती है। इस स्थिति में आय तथा जनसंख्या दोनों में ही वृद्धि हो रही है किन्तु प्रति व्यक्ति आय स्थिर है। आय के स्तर को ऊपर उठाने तथा जनसंख्या जाल से बचने के लिए अर्थव्यवस्था का सर्वांगीण विकास आवश्यक है।