विश्व
में नगरीयकरण (Urbanization in India)
नगरीयकरण
कोई नई प्रक्रिया या संकल्पना नहीं है बल्कि नगरीयकरण यह प्राचीन काल में भी थी परन्तु
प्राचीन काल में ग्रामीण क्षेत्रों की अधिकता के कारण नगरीयकरण नहीं हो सका।
परन्तु वर्तमान में नगरीयकरण की प्रक्रिया तीवगति से बढ़ती जा रही है। किसी प्रदेश
की सम्पूर्ण जनसंख्या में नगरीय जनसंख्या के अनुपात
को या इन अनुपात की वृद्धि की प्रक्रिया को नगरीकरण कहते हैं। वस्तुतः नगरीयकरण,
नगरीय जनसंख्या के अधिक आनुपातिक वृद्धि को कहते है। किसी समय विशेष के संदर्भ में
इन अनुपातों की मात्र का प्रतिशत या अन्य इकाइयों में ज्ञात कर सकते हैं। नगरीयकरण
का प्रभाव, नगरीय वृद्धि पर, कुछ दशाओं को छोड़कर, सभी दशाओं में अनिवार्य है।
पुनः नगरीयकरण पर नगरीय वृद्धि का प्रभाव पड़ना अनिवार्य भी नहीं है। प्रायः भौतिक
नगरीयकरण और जनसंख्या वृद्धि के बिना ही नगरीय विस्तार हो जाता है जबकि कुछ नगरों
में बिना किसी नगरीय विस्तार या फैलाव के ही जनसंख्या में वृद्धि दृष्टिगोचर होता
है, इसलिए यदि एक दूसरे तथ्य को जनसंख्या के नगरीयकरण के स्थान पर भूमि या क्षेत्र
के नगरीयकरण के रूप में देखते हैं तो जनसंख्या वृद्धि, अनिवार्यतः नगरीय वृद्धि का
सूचक नहीं। यदि किसी प्रदेश की ग्रामीण जनसंख्या, नगरीय जनसंख्या की तुलना में
सामान्य या अधिक दर से बढ़ती है तो नगरीय जनसंख्या में वृद्धि होने से नगरीय
वृद्धि तो होगी किन्तु नगरीकरण की मात्रा में कोई वृद्धि या नगरीयकरण नहीं होगा।
अर्थात् नगरीयकरण एक अनुपातिक वृद्धि है। या दूसरे शब्दों में, नगरीयकरण, मूलतः
नगरीय जनसंख्या की तीव्रतर तुलनात्मक वृद्धि को एक प्रक्रिया है। इसे 'नगरीयकरण की
मात्रा' नगरीयकरण पैमाना अथवा नगरीयकरण अनुपात कहते हैं।
विश्व
में नगरीयकरण की कालिक प्रवृत्ति
औद्योगिक
क्रांति के पूर्व नगरों की संख्या तथा नगरीय जनसंख्या बहुत कम थी। प्राचीन नगरों
का प्रमुख आधार उपजाऊ कृषि क्षेत्र थे। सन् 1850 ई. तक विश्व की लगभग 4% जनसंख्या
ही नगरीय थी। धीरे-धीरे नगरों के विकास में राजीतिक आधार के साथ आर्थिक आधार
महत्वपूर्ण होता गया। आधुनिक नगरीकरण औद्योगिक क्रांति के साथ प्रारम्भ हुई। इसका
सूत्रपात 18वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में हुआ तथा वहाँ से यूरोप के दूसरे क्षेत्रों
में तीव्रता से फैला इसलिए इंग्लैण्ड को नगरीयकरण की जन्मभूमि भी कहा जाता है।
औद्योगिक केन्द्रों में रोजगार के अनेक अवसर उपलब्ध होने के कारण ग्रामीण
क्षेत्रों से इन केन्द्रों की ओर भारी स्थानान्तरण हुआ, जिससे नगरीय जनसंख्या बहुत
अधिक बढ़ी। रोजगार के अवसर के अतिरिक्त नगरों में शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी
सुविधाएँ, कार्य संबंधी उत्तम दशाएँ, समुचित आवास व्यवस्था, सांस्कृतिक एवं
मनोरंजन के साधनों, नागरिक सेवा तथा समाज कल्याण आदि कार्यों ने भी ग्रामीण
जनसंख्या को अधिक आकर्षित किया और विश्व में नगरीयकरण की प्रवृत्ति बढ़ने लगी
विश्व में नगरीयकरण की प्रवृत्ति का हम निम्न तालिका से अध्ययन कर सकते हैं।
विश्व
में नगरीयकरण की कालिक प्रवृत्ति
क्र. |
वर्ष |
विश्व की कुल जनसंख्या (मिलियन में) |
कुल नगरीय जनसंख्या (मिलियन में)20 हजार से अधिक जनसंख्या वाले नगर |
कुल जनसंख्या में नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत |
दशाब्दि वृद्धि दर प्रतिशत में |
1. |
1800 |
906 |
21.7 |
2.4 |
- |
2. |
1850 |
1171 |
50.4 |
4.3 |
26.5 |
3. |
1900 |
1608 |
147.9 |
9.2 |
38.7 |
4. |
1950 |
2503 |
502.6 |
20.0 |
48.0 |
5. |
1960 |
3027 |
753.7 |
24.9 |
50.0 |
6. |
1980 |
4415 |
1408.0 |
31.9 |
41.6 |
7. |
1990 |
5295 |
2277.0 |
43.0 |
61.7 |
8. |
2008 |
6672 |
3860 |
- |
- |
9. |
2012 |
7000 |
4113 |
- |
- |
विश्व
में नगरीयकरण का प्रतिशत
विश्व में नगरीयकरण का स्वरूप- विश्व में नगरीय जनसंख्या
के वितरण में भी व्यापक असमानता पायी जाती है। अल्पविकसित, विकासशील व विकसित देशों
में नगरीयकरण की मात्रा में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है।
विश्व
में नगरीकरण की मात्रा के आधार पर 4 क्षेत्र प्रमुख हैं-
1. अति उच्च नगरीयकरण के क्षेत्र- जिन क्षेत्रों में
75% से अधिक जनसंख्या नगरों में रहती है वह प्रदेश अति उच्च नगरीयकरण के क्षेत्र कहलाते
हैं। इसमें संयुक्त राज्य अमेरिका व कनाडा, उत्तर-पश्चिम यूरोप के देश, दक्षिण अमेरिका
का अर्जेण्टाइना, वेनेजुएला, ब्राजील, जापान, आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैण्ड आदि सम्मिलित
हैं।
2. उच्च नगरीयकरण के क्षेत्र- इस क्षेत्र के अन्तर्गत वे
देश सम्मिलित हैं जहाँ 50% से 75% जनसंख्या नगरीय केन्द्रों में निवास करती है। ऐसे
देशों में दक्षिणी तथा पूर्वी यूरोप के देश, रूस, कोलंबिया, इक्वेडोर, पीरू, बोलीविया,
मध्य अमेरिकी देश, दक्षिण-पूर्व एशिया, इराक, सीरिया आदि प्रमुख है।
3. मध्यम नगरीयकरण के क्षेत्र- इसके अन्तर्गत ऐसे देश सम्मिलित
हैं जहाँ की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान है तथा सामान्य औद्योगीकरण की प्रवृत्ति पाई
जाती है। विश्व के मध्यम नगरीकरण के निम्नांकित 5 प्रमुख क्षेत्र हैं, जहाँ 25% से
50% नगरीय जनसंख्या निवास करती है।
(i)
दक्षिणी व दक्षिण-पश्चिम एशियाई क्षेत्र में भारत, पाकिस्तान।
(ii)
पूर्वी व दक्षिण-पूर्व एशिया में चीन, इण्डोनेशिया, मलेशिया, म्यांमार, फिलिपाइन्स;
(iii)
उत्तरी अफ्रीका में मिस्र व मोरक्को;
(iv)
पश्चिमी अफ्रीका में नाइजीरिया, घाना, आइवरी कोस्ट से होते हुए सेनेगल तक का क्षेत्र,
(v)
मध्य अफ्रीकी देश तथा पूर्वी अफ्रीका के जांबिया, जिम्बाब्वे, मोजाम्बिक तथा दक्षिण
अफ्रीका के नामीबिया व बोत्सवाना।
4. निम्न नगरीकरण के क्षेत्र- विश्व के 25% से कम नगरीय
जनसंख्या वाले क्षेत्रों में पूर्वी अफ्रीकी, दक्षिण एशियाई व दक्षिण-पूर्वी एशियाई
देश सम्मिलित हैं। ये देश कृषि व पशुपालन प्रधान हैं।
नगरीयकरण
की अवस्थाएँ (Stages of Urbanisation)
किंग्सले
डेविस ने इसे नगरीयकरण चक्र के रूप में परिभाषित करते हुए कहा है कि नगरीकरण एक अन्तयुक्त
(सदा चलने वाली) प्रक्रिया है, अथवा यह एक ऐसा चक्र है जिसमें राष्ट्र कृषि प्रधान
समाज से औद्योगिक नगरीय समाज की ओर परिवर्तित होते हैं। किसी देश की नगरीकरण की प्रवृत्ति
को लेखाचित्र पर दिखाने वाला वक्र दाहिनी तरफ झुके हुए और फैलाए हुए S(s) आकृति में
होता है। ग्राफ के लम्बवत् अक्ष पर नगरीकरण की मात्रा प्रतिशत में तथा क्षैतिज रेखा
पर समय (वर्ष) दर्शाते हैं। इस नगरीकरण वक्र की तीन प्रमुख तथा स्पष्ट, चक्रीय अवस्थाएँ
होती हैं।
1. प्रारम्भिक अवस्था (Initial Stage) में
आर्थिक संरचना परम्परागत एवं कृषि प्रधान प्रकार की होती है और जनसंख्या का एक छोटा
भाग (25 प्रतिशत से कम) नगरों में रहता है।
2. तीव्र वृद्धि की अवस्था (Acceleration Stage) में आर्थिक क्रियाओं के अधिक विकसित और स्थानीयकृत होने तथा अप्राथमिक कार्यों में जनसंख्या के अधिक संलग्न हो जाने के कारण नगरीकरण अनुपात अति तीव्र दर से बढ़ता है और शीघ्र ही जनसंख्या का 50 प्रतिशत से अधिक 60-70 प्रतिशत भाग नगरीय क्षेत्रों में रहने लगता है।
3. अन्तिम अवस्था (Terminal Stage) मन्द वृद्धि की यह
अवस्था S के ऊपरी छोर के रूप में पुनः दिखाई पड़ती है। क्रमशः नगरीकरण स्थिर सा या
ह्रोसान्मुख भी हो सकता है, जो औद्योगिक राष्ट्रों में दृष्टिगत होता है।
जनसंख्या
संकेन्द्रण (Population Con-centration)- गिब्स के अनुसार जनसंख्या
संकेन्द्रण निम्न पांच अवस्थाओं में वर्णन किया है-
1. प्रथम अवस्था में नगरों का उद्गम होता है, किन्तु ग्रामीण
जनसंख्या वृद्धि दर, नगरीय जनसंख्या वृद्धि दर के बराबर अथवा उससे अधिक होती है।
2. द्वितीय अवस्था में ग्रामीण जनसंख्या की तुलना
में नगरीय जनसंख्या की वृद्धि दर अधिक हो जाती है जिसके लिए ग्रामीण-नगरीय स्थानान्तरण
प्रायः अधिक उत्तरदायी होता है। यद्यपि यह खाद्यापूर्ति तथा परिवहन में विकास द्वारा
प्रोत्साहित होता है। यह अवस्था, प्रथम अवस्था की धीमी नगरीय वृद्धि के जमाव को प्रतिबिम्बित
करता है और इस प्रकार समुचित बड़े नगरों का उदय होता है।
3. तृतीय अवस्था ग्रामीण-नगरीय स्थानान्तरण, ग्रामीण जनसंख्या
के घटते प्राकृतिक वृद्धि से अधिक हो जाता है।
4. चतुर्थ अवस्था में ग्रामीण-नगरीय स्थानान्तरण की मात्रा
के क्षीयमाण होने के साथ ही वृहत् नगरों का छोटे नगरों, कस्बों पर आकर्षण सुदृढ़ होने
लगता है जो स्थानान्तरण का नवीन स्रोत बन जाता है।
5. पंचम अवस्था में संकेन्द्रण उस समय तक चलता रहता है
जब तक कि सभी छोटे बड़े केन्द्र एक वृहत नगरीय क्षेत्र में समाहित नहीं हो जाते। संचार
माध्यमों में सुधार के कारण, जनसंख्या उच्च संकेन्द्रण के अभाव में भी रहने योग्य हो
जाती है, फलतः बाह्यवर्ती गतिशीलता या उच्च घनत्व क्षेत्रों में आवासीय विकेन्द्रीकरण
या बिखरना प्रारम्भ हो जाता है। इस प्रकार जनसंख्या का क्षेत्रिक वितरण अधिक सम हो
जाता है क्योंकि बसाव क्षेत्र, मुख्य केन्द्र से काफी देर तक फैल जाता है।
कुछ
लोगों के विचार से यह सिद्धान्त व्यावहारिक उपयोगिता विहीन हो सकता है क्योंकि कोई
भी जनसंख्या स्वदेशी और एकांकी नहीं होती और कोई भी परिकल्पित क्रम का पूर्णतः अनुसरण
नहीं करती। दूसरी ओर यह सिद्धान्त वृहत् राष्ट्रीय इकाइयों में सुसंगत हो सकता है।
नगरीकरण तथा औद्योगीकरण के बीच संबंधों को देखते हुए कुछ देशों में नगरीकरण के स्तर
को अति नगरीकृत कहा जाने लगा है जिसके लिए तर्क दिया जाता है कि सघन बसाव तथा गरीब
ग्रामीण क्षेत्रों से प्रवासियों का दबाव अधिक रहा है यथा, मिस तथा दक्षिणी कोरिया
में विकसित देशों की अपेक्षा विकासशील देशों में नगरीकरण तथा औद्योगीकरण के बीच निकटतम
संबंध रहा है, किन्तु ऐसा उन देशों के भावी नगरीकरण में वाणिज्य तथा प्रशासनिक कार्यों
से अधिक संबंधित हो सकता है।
नगरीय
पदानुक्रम (Urban Hierarchy)
जर्मन
विद्वान क्रिस्टालर ग्रामीण क्षेत्र के भीतर एक नगर को केन्द्रीय स्थल के रूप में स्वीकारते
हैं। बाद में वहीं के लॉश ने भी, नगरों के कार्यात्मक आकार-वर्ग-पदानुक्रम को उनके
क्षेत्रीय संगठन कार्य तथा आकार के विश्लेषण का आधार माना। आधारभूत धारणा यह है कि
एक ग्रामीण क्षेत्र एक नगर को सहायता प्रदान करता है जिसके बदले में नगर ग्राम की सेवा
करता है तथा छोटे क्षेत्रों में छोटा केन्द्र एवं बड़े क्षेत्र में वृहद् केन्द्र होता
है। क्रिस्टालर आकार के अनुसार नगरों के एकीकृत प्रणाली की कल्पना करते हैं जो सिद्धान्ततः
सम-अन्तर पर होनी चाहिए। इन्होंने नगरों के पदानुक्रम को मानकर प्रत्येक अगले वर्ग
के नगरों या केन्द्रों की बढ़ती हुई संख्या और घटती हुई जनसंख्या को K= 3 नियम से समझाया,
K जनसंख्या का एक प्राथमिक नगर होगा जिसका रैंक (r)=1 होगा; K/3 जनसंख्या जनसंख्या
के तीन नगर होंगे जबकि उनके r=2 होंगे; K/9 जनसंख्या के 9 नगर होंगे जिनमें से प्रत्येक
की कोटि 13 होगी; K/27 जनसंख्या के 27 नगर होंगे जिनमें से प्रत्येक की कोटी r=4 होगी।
इस प्रकार यहाँ पदानुक्रम वर्ग अनिवार्य होते हैं तथा प्रत्येक आगे के निचले वर्ग में
नगरों की संख्या कुल मिलाकर 3 गुनी बढ़ जाती है, परन्तु उसकी जनसंख्या तीन गुनी घट
जाती है, जिससे निचली श्रेणी के नगरों की कुल जनसंख्या मिलकर अगली बड़ी श्रेणी के केन्द्र,
अर्थात् K के बराबर हो जाती है।
'बेरी'
और 'गैरिसन' नगरीय स्थलों के सामान्य स्थानीकरण सिद्धान्तों को कोटि आकार नियमों के
वैकल्पिक स्कीम के रूप में पाते हैं तथा उनके विचार से कोटि आकार नियम में आनुभविक
सत्यता पाई जाती है। किन्तु कारणात्मक विश्लेषण स्पष्ट नहीं। स्टीवर्ट नगर आकारों के
असातत्य वितरण के पक्षधर है तथा क्रिस्टालर के स्थिर र विचार की पुष्टि करते हैं। कोटि-आकार
नियम के परीक्षणार्थ उन्होंने अनेक देशों का अध्ययन किया, किन्तु उनमें तर्कसंगत आधार
का अभाव पाया। सबसे बड़े तथा सबसे छोटे नगरों के बीच यह नियम टूट जाता है फलतः इसे
मध्यम आकार नगरों के लिए प्रयोजनीय समझा। पुनः यह नियम छोटे समाँगी क्षेत्र की तुलना
में, वृहत् वैविध्यपूर्ण क्षेत्रों के लिए अधिक उपयुक्त पाया है।
पुनश्च,
स्वीवर्ट नगरीय केन्द्र के एक पदानुक्रम सिद्धान्त की पुष्टि का कोई प्रमाण नहीं पाते
हैं। विभिन्न कार्यात्मक वर्गों (K) में नगरों के आनुपातिक आकार तथा संख्याएँ आर्थिक
विकास के स्तर के साथ-साथ बदलती रहती हैं। जीवन स्तर K-मान को निश्चित करने का सर्वोत्तम
सूचकांक है। जीवन स्तर ही में वृद्धि K-मान को कम करने, विभिन्न कार्यात्मक वर्गों
में नगरों की जनसंख्या में अन्तर को बढ़ाने और वृहत्तर नगरों में अधिक कार्यों को ले
जाने या स्थानान्तरित करने में सहायक होता है। साथ ही साथ वृहत् नगरीय संरचनायुक्त
क्षेत्रों में नगर आकार वितरण S आकृति को धारण करने की प्रवृत्ति रखता है न कि रैखिक
लघुगणकीय वितरण की। बेरी आर्थिक विकास के स्थान पर, स्वीटर्स से विपरीत, नगरीय समाज
को आयु तथा संश्लिष्टता को कोटि आकार वितरण का आधार मानते हैं। ब्राउनिंग तथा गिब्स
ने स्थल संख्या तथा जनसंख्या दोनों की गणना कर कोटि-आकार संबंधों तथा इससे विचलन को
प्रदर्शित करने की विधि प्रतिपादित किया है।
नगरीय
जनसंख्या का घनत्व (Urban Population Densities)
नगरों
के आकार तथा उनके भीतर औसत घनत्व के बीच एक स्थिर सहसम्बन्ध पाया जाता है। नगरों में
भूमि उपयोग की व्यवस्था चाहे जो भी क्रम हो, आन्तरिक जनसंख्या वितरण की दृष्टि से उनमें
एक सामान्य प्रारूप का बोध होता है। कोलिन क्लार्क 1955 ने इस प्रक्रिया के सांख्यिकीय
विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकाला कि नगर केन्द्र से दूरी-वृद्धि के संदर्भ में नगरीय
जनसंख्या का घनत्व ऋणात्मक घातीय रीति से कम होता है। यह मानक प्रतिरूप स्थानीय कारकों
के प्रभाव से परिवर्तित होता रहता है, परन्तु एक भी ऐसा नगर नहीं जो इस प्रवणता प्रतिरूप
को यथावत प्रदर्शित करता है। इस विषय का अध्ययन उन्होंने दो मान्य परिकल्पनाओं से प्रारम्भ
किया है:
1.
प्रत्येक बड़े नगरों में, केन्द्रीय वाणिज्य क्षेत्र को छोड़कर, जहाँ कम निवासी रहते
हैं, आन्तरिक भाग में सघन जनसंख्या के क्षेत्र होते हैं, तथा ज्यों-ज्यों नगरबाह्य
की ओर बढ़ते हैं। जनसंख्या घनत्व में तीव्र ह्रास होता है।
2.
अधिकांश नगरों में समयावधि में अत्यधिक सघन आन्तरिक नगर बाह्य में घनत्व गिरना प्रारम्भ
होता है तथा बाह्य-नगर बाह्य में बढ़ने लगता है। सम्पूर्ण नगर स्वतः बाह्य भाग की ओर
फैलने की प्रवृत्ति धारण कर लेता है।
उन्होंने
पुनः बताया कि सभी अध्ययनगत नगरों के लिए नगरबाह्य भाग में घनत्व का ह्रास एक सरल गणितीय
घातीय ह्रास समीकरण का अनुसरण करता है।
भारत
में नगरीयकरण (Urbanization in India)
नगरीकरण
एक जनांकिकी प्रक्रिया है जिसके तहत् प्रदेश या देश की जनसंख्या का बढ़ रहा भाग नगरीय
क्षेत्र में निवास करता है। यह एक व्यावसायिक प्रक्रिया है। इसे नगर के क्षेत्रफल एवं
नागरिकों को संख्या में वृद्धि से प्रकट किया जाता है। इसमें नगर के सामाजिक, आर्थिक
तथा सांस्कृतिक संगठन और उनका क्षेत्रीय वितरण एवं विभेदीकरण का अध्ययन भी सम्मिलित
है जो नगर नियोजन में सहायक है। नगरीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें एक ग्रामीण जनसंख्या
नगरीय जनसंख्या में बदल जाती है। इससे कुल जनसंख्या में नगरीय जनसंख्या के अनुपात में
वृद्धि होती है।
किंग्सले डेविस के अनुसार, “सम्पूर्ण जनसंख्या में नगरीय
अधिवासों में निवास करने वाली जनसंख्या के अनुपात या इस अनुपात में वृद्धि नगरीकरण
कहलाती है।"
(The
proportion of the total population concentrated in urban settlements or else to
rise in this proportion is called urbanization)
जी.टी.ट्रिवार्था के अनुसार, 'कुल जनसंख्या में नगरीय जनसंख्या
के अनुपात में वृद्धि को नगरीकरण प्रक्रिया कहा जाता है।"
(The
urbanization process denotes an increase in the fraction of a population which
is urban)
क्लार्क के अनुसार, "नगरीकरण वह सामाजिक प्रक्रिया
है जिसके माध्यम से नगरीकरण प्रेरित होती है।
(Urbanization
is a social process by which urbanization is introduced to population.)
नगरीकरण प्रवृत्ति के लिए उत्तरदायी कारक- औद्योगिक
क्रान्ति के बाद विश्व में नगरीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है। वस्तुतः नगरीय संस्कृति
ग्रामीण संस्कृति पर अनेक प्रकार से प्रभाव बढ़ाती रही है। नगरों में रोजगार की सम्भावना,
सुरक्षा, मनोरंजन, शिक्षा, स्वास्थ्य और चमक-दमक के कारण बहुधा ग्रामीण लोग नगरों की
ओर आकर्षित होते हैं जो नगरीकरण के कारकों में सर्वप्रधान है। इस प्रकार नगरीकरण की
प्रक्रिया में प्रधानतः दो शक्तियाँ अपनी भूमिका निभाती हैं। प्रथम शक्ति आकर्षण की
शक्ति है तथा दूसरी शक्ति विकर्षण की है। आकर्षण शक्ति के अन्तर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य,
यातायात तथा अन्य नगरीय कारको को सम्मिलित किया जाता है जो ग्रामीण व्यक्तियों को अपनी
ओर आकर्षित करते हैं। नगरों में रोजगार के भी अनेक अवसर होते है जो लोगों को अपनी ओर
आकर्षित करते हैं। ये कारक अनुकूल कारक भी कहलाते है जिनसे प्रभावित होकर व्यक्ति नगरों
की ओर आकर्षित होता है तथा प्रवास करता है।
विकर्षण के अन्तर्गत, धार्मिक भेदभाव, शिक्षा, स्वास्थ्य
एवं रोजगार के अवसरों का अभाव, असुरक्षा आदि कारको को सम्मिलित किया जाता है। ये तत्व
ऐसे हैं जो ग्रामीण लोगों को नगरों की ओर धक्का देते है। या उन्हें नगरों में रहने
के लिए मजबूर करते हैं। इन्हें प्रतिकूल कारक भी कहते हैं। गाँवों में बेरोजगारी, गरीबी,
अशिक्षा तथा कुस्वास्थ्य के कारण लोगों का गाँव से मोहभंग हो जाता है, फलतः लोग अन्यत्र
नगरों में जाने के लिए बाध्य हो जाते हैं। यही कारण है कि छोटे नगरों की तुलना में
बड़े नगरों का आकर्षण अधिक लोगों को आकर्षित करता ही जा रहा है।
भारत
में नगरीकरण की प्रवृत्ति- भारत में नगरीकरण की प्रवृत्ति को निम्न
समय काल में विभाजित कर अध्ययन किया जा सकता है-
(A) कालिक प्रवृत्ति (Temporal Trend)- भारत
के नगरों के विकास का एक दीर्घकालीन इतिहास रहा है। ईसा से 2000 वर्ष पूर्व सिन्धु
घाटी में मोहन जोदड़ो और हड़प्पा जैसे सुनियोजित ढंग से बसाये गये नगर विकसित अवस्था
में थे। सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन के साथ ही नगरीय सभ्यता का भी पतन हो गया था। इसके पश्चात् आर्य सभ्यता के विकसित होने
पर तक्षशिला और इन्द्रप्रस्थ जैसे विशाल नगरों का उदय हुआ जिनकी उत्पत्ति सम्भवतः महाभारत
काल के पूर्व हुई थी। इन्द्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली) का विकास पांडवों की राजधानी के
रूप में लगभग 1450 ईसा पूर्व हुआ था। हिन्दूकाल में पाटलीपुत्र, कन्नौज, मुगलकाल में
आगरा, दिल्ली, और ब्रिटिश काल में कलकत्ता, इलाहाबाद आदि नगरों का विकास नगर के रुप
में हुआ था। भारत के प्रागैतिहासिक नगरों में मथुरा, काशी, प्रयाग, अयोध्या आदि देश
के महान तीर्थ स्थल थे। प्राचीन काल (700 ई. पूर्व से 700 ई. तक) में नगरीय विकास राजधानियों,
प्रशासकीय दुर्गों या गढ़ों तथा धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्रों के रूप में हुआ।
प्राचीनकाल में कौशाम्बी, अयोध्या व मगध एक विशाल नगर के रूप में प्रसिद्ध थे। उस काल
में विकसित अन्य नगरों में श्रावस्ती, वैशाली, उज्जैन,राजगृह, अयोध्या, तक्षशिला, काशी,
श्रीनगर, जालन्धर, त्रिचिनापल्ली आदि प्रमुख थे। 7वीं शताब्दी के पश्चात् राजपूत राजाओं
ने राजधानी तथा दुर्ग नगर के रूप में अनेक नगरों की स्थापना की थी। मुस्लिम काल
(1200 से 1700 ई.) या मध्य काल में प्रशासकीय उद्देश्य से अनेक नगरों की स्थापना की
गयी तथा बहुत से पूर्ववर्ती नगरों का जीर्णोद्धार भी किया गया। इस काल में मुगल शासकों
ने प्रशासकीय केन्द्रों तथा प्रादेशिक राजधानियों के रूप में नगरों के विकास का उल्लेखनीय
प्रयास किया था। मुगल काल में विकसित नगरों में उत्तर भारत में दिल्ली, इलाहाबाद, फतेहपुर
सीकरी, आगरा, शाहजहाँपुर, मुगलसराय, लखनऊ, जौनपुर आदि और दक्षिणी भारत में बंगलौर,
हैदराबाद, बेल्लोर आदि प्रमुख थे।
आधुनिक
काल (1700 ई. के पश्चात्) में नगरीय विकास को एक नयी दिशा ब्रिटिश शासन की अवधि में
मिली। इस काल में प्रशासनिक केन्द्र, परिवहन केन्द्र, व्यापारिक केन्द्र, औद्योगिक
केन्द्र और पत्तन या नदी के पत्तन के रूप में अनेक नगरों की उत्पत्ति एवं विकास हुआ।
ग्रीष्म कालीन राजधानी तथा मनोरंजन केन्द्र के रूप में नैनीताल, शिमला, दार्जलिंग जैसे
पहाड़ी नगरों का विकास इसी काल में हुआ। चांदलर तथा फाक्स (1974) के अनुसार सन्
1800 में भारत में 1 लाख से अधिक जनसंख्या वाले 13 नगर थे जिनमें लखनऊ (3 लाख), पटना
(2.35 लाख), कोलकाता (2 लाख) और हैदराबाद (2 लाख की जनसंख्या 2 लाख या अधिक थी। ऐसे
अन्य नगर क्रमशः (अवरोही क्रम में) बनारस, मुम्बई, सूरत, दिल्ली, मद्रास, श्रीनगर,
पूना और उज्जैन (1 लाख) थे। उस समय अहमदाबाद, नागपुर, अमृतसर, जोधपुर, त्रिचनापल्ली
आदि अन्य प्रमुख नगर थे जिनकी जनसंख्या 60 हजार से अधिक थी।
उन्नीसवीं
शताब्दी के उत्तरार्द्ध में देश में रेलमार्गों तथा सड़कों का उल्लेखनीय विस्तार हुआ
और अनेक प्रशासकीय, परिवहन तथा शैक्षिक केन्द्रों के रूप में नगरों का जन्म हुआ। औद्योगीकरण
की यह प्रवृति 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों तक जारी रही। अब तक अहमदाबाद, चेन्नई,
कोलकाता, मुम्बई, नागपुर, शोलापुर, कानपुर आदि प्रमुख औद्योगिक नगर के रूप में विकसित
हो चुके थे। स्वतंत्रता प्राप्ति (1947) के पश्चात् देश में नियोजित ढंग से तीव्र आर्थिक
विकास आरम्भ हुआ। नियोजन काल में नये-नये उद्योगों की स्थापना एवं विकास पर विशेष बल
दिया गया जिसके परिणामस्वरूप अनेक नये-नये नगरों की स्थापना हुई तथा ग्रामों से नगरोंन्मुख
(गाँवों से नगरों में प्रवास) की गति तीव्र होने से वर्तमान नगरों की जनसंख्या में
तीव्र वृद्धि हुई।
नगरीय
जनसंख्या के अनुसार भारत का विश्व में चीन, भूतपूर्व सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका
के पश्चात् चौथा स्थान है। 20वीं शताब्दी के आरम्भ में भारत में 2.58 करोड़ लोग नगरों
में निवास करते थे जो कुल जनसंख्या का 11.0 प्रतिशत था। भारत में विभिन्न जनगणना वर्षों
में नगरीय जनसंख्या तथा उसकी दशकीय भिन्नता, नगरों की संख्या, कुल जनसंख्या में नगरीय
जनसंख्या के प्रतिशत (नगरीकरण स्तर) को प्रदर्शित किया गया है। नगरीकरण के विकास की
दृष्टि से 1901 से 2011 तक की अवधि को निम्नलिखित तीन कालों में विभक्त किया जा सकता
है-
(1) मन्द वृद्धि काल (1901-1931)-20वीं शताब्दी के आरम्भ
में भारत की कुल नगरीय जनसंख्या लगभग 2.56 करोड़ थी। प्रथम दशक में देश व्यापी प्लेग
जैसे महामारियों तथा अन्य प्राकृतिक प्रकोपों से असंख्य व्यक्तियों के असामयिक मृत्यु
से जनसंख्या में काफी ह्रास हुआ। 1911 तक नगरीय जनसंख्या लगभग स्थिर रही। दूसरे दशक
में इन्फ्लूएंजा के महामारी के रूप में फैलने से भी जनसंख्या में अधिक ह्रास हुआ किन्तु
कुछ वृद्धि के साथ 1921 में नगरीय जनसंख्या 2.81 करोड़ अंकित की गयी। तृतीय दशक
(1921-31) में जनसंख्या ह्रास के नकारात्मक कारकों का प्रभाव कम होने पर नगरीय और ग्रामीण
दोनों क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि हुई। इससे 1931 में नगरीय जनसंख्या 3.35 करोड़
तक पहुँच गयी। सन् 1901 में भारत की कुल जनसंख्या का 10.84 प्रतिशत नगरों में था। इस
अनुपात में आगामी तीन दशकों में साधारण वृद्धि के फलस्वरूप 1911, 1921 और 1931 में
नगरीय जनंसख्या का प्रतिशत क्रमशः 10.29, 11.17 और 11.99 था। अतः इस शताब्दी के प्रथम
तीन दशकों को नगरीकरण के मन्द विकास की अवधि कहा सकता है। नगरों की कुल संख्या जो
1901 में 1834 थी बढ़कर 1931 में 2049 हो गयी थी।
भारत
में नगरीकरण की प्रगति (1901-2011)
वर्ष |
नगरों की संख्या |
कुल नगरीय जनसंख्या (दस लाख में) |
कुल जनसंख्या से नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत |
1901 |
1834 |
25.85 |
10.84 |
1911 |
1776 |
25.94 |
10.29 |
1921 |
1920 |
2o.09 |
11.17 |
1931 |
2049 |
33.46 |
11.99 |
1941 |
2210 |
44.15 |
13.86 |
1951 |
2844 |
62.44 |
17.29 |
1961 |
2330 |
78.94 |
17.97 |
1971 |
2531 |
109.11 |
19.91 |
1981 |
3245 |
159.46 |
23.31 |
1991 |
3609 |
217.61 |
26.31 |
2001 |
3799 |
286.12 |
27.81 |
2011 |
4041 |
377.01 |
31.16 |
(2) मन्द वृद्धि काल (1931-1969)- महामारियों तथा प्राकृतिक
प्रकोपों के प्रभावों के कम होने से ग्रामीण और नगरीय जनसंख्या चौथे दशक से तीव्रता
से बढ़ने लगी। रेल्वे के विकास तथा सड़कों के विस्तार और औद्योगीकरण में नवीन मोड़
आने से नगरीय जनसंख्या में वृद्धि पहले से काफी तीव्र हो गयी और बहुत से नये नगर भी
स्थापित हुए। वर्ष 1931 में जो नगरीय जनसंख्या 3.35 करोड़ थी वह 20 वर्षों में लगभग
दो गुनी (6.24 करोड़) हो गयी। चौथे और पाँचवें दशक में नगरीय जनसंख्या में क्रमशः
31.97 प्रतिशत और 41.43 प्रतिशत की वृद्धि हुई। ग्राम्य-नगरीय प्रवास कारण नगरीय जनसंख्या
की वृद्धि दर ग्रामीण जनसंख्या से तीव्र थी। इस प्रकार 1951 तक देश की 17.29 प्रतिशत
जनसंख्या नगरों में रहने लगी थी जबकि 1931 में यह प्रतिशत 11.99 था। वर्ष 1961 में
कुल नगरीय जनसंख्या (7.89 करोड़) कुल जनसंख्या की 17.97 प्रतिशत थी। नगरों की कुल संख्या
1931 में 2049 थी जो अगली जनगणना (1941) में बढ़कर 2210 हो गयी। स्वतंत्र भारत की प्रथम
जनगणना (1951) में नगर की परिभाषा अधिक शिथिल कर दी गयी थी जिससे कई हजार ग्राम जो
पहली परिभाषा के अनुसार नगर नहीं बन सकते थे, वे भी नगरों की श्रेणी में आ गये। इस
प्रकार नगरों की संख्या एकाएक बढ़कर 2844 तक पहुँच गयी। जनगणना 1961 में नगर की परिभाषा
अपेक्षाकृत कठोर बना दी गयी जिससे पूर्व जनगणना (1951) के सैकड़ों लघु नगर अवर्गीकृत
होकर नगरीय श्रेणी से पृथक् कर दिये गये और नगरों की कुल संख्या 2330 रह गयी।
(3) अति तीव्र वृद्धि काल (1961-2011)- स्वतंत्रता
प्राप्ति के पश्चात् नियोजन काल में उद्योग, कृषि, परिवहन आदि के साथ ही अन्य आर्थिक
क्षेत्रों के विकास पर विशेष बल दिया जाने लगा जिससे
आर्थिक
विकास की गति निरन्तर बढ़ती गयी। इससे प्रति दशक उद्योग, व्यापार, शिक्षा परिवहन, पर्यटन
आदि केन्द्रों के रूप में नये-नये नगर विकसित हुए। ग्रामों के आकार में तीव्र वृद्धि
होने से वे नगरों को श्रेणी में आते गये और ग्रामीण क्षेत्रों से रोजगार, शिक्षा, मनोरंजन
आदि नगरीय सुविधाओं के आकर्षण से भी अपार जनसंख्या नगरों में जाकर बसती रही। इस प्रकार
इस अवधि में देश में नगरीकरण का अति तीव्रता से विकास हुआ। 1961 की नगरीय जनगणना
(7.89 करोड़) से बढ़कर 1971 में 10.91 करोड़, 1981 में 15.95 करोड़, 1991 में
21.76 करोड़ और 2001 में 28.61 करोड़ तथा 2011 में नगरीय जनसंख्या 377.1 (दस लाख) तक
तक पहुँच गयी।
नगर
की परिभाषा जनगणना 1961 से 2001 तक लगभग समान रही है, अतः नगरों की संख्या की सही तुलना
सम्भव है। 1961 में भारत में सभी श्रेणी के कुल 2330 नगर थे जिनकी संख्या बढ़कर
1981 में 3245, 1991 में 3609 और 2001 में 3799 तक एवं 2011 में इन नगरों की संख्या
4041 तक पहुँच गयी है। इनमें नगरीय समूहों (Urban Agglomerations) को एकल नगरीय इकाई
माना गया है अन्यथा नगरों की कुल संख्या 5161 है।
(B) आकारीय वर्ग के अनुसार नगरीय विकास (Urban Growth According to
Size-Classes)- भारत की समस्त जनगणनाओं में नगरों को उनके जनसंख्या आकार
के आधार पर निम्नांकित वर्गों में विभक्त किया है-
नगरों
का आकार- भारत में नगरों का आकार बढ़ता जा रहा है। भारतीय नगरों को उनकी जनसंख्या के
आधार पर निम्नांकित वर्गों में रखा गया है-
वर्ग |
जनसंख्या |
I |
100000 या
अधिक |
ll |
50000 से
99999 |
lll |
20000 49999 |
lV |
10000 से
19999 |
V |
5000 से
9999 |
Vl |
5000 से
कम |
भारत
के नगरीय क्षेत्र
नगरीय
क्षेत्रों को निम्नांकित भागों में बाँटा गया है-
(1) ऊपरी मैदानी क्षेत्र- ऊपरी मैदानी क्षेत्र का विस्तार
तीन क्षेत्रों में है। इनमें प्रथम क्षेत्र का विस्तार पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश,
दिल्ली तथा उत्तराखण्ड में है। इस क्षेत्र के प्रमुख नगर लुधियाना, अमृतसर चण्डीगढ़,
शिमला, मेरठ, गाजियाबाद तथा दिल्ली आदि हैं। यहीं भारत के सर्वाधिक जनसंख्या घनत्व
वाले 2011 की जनगणना के अनुसार दिल्ली (11297 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी.) तथा चण्डीगढ़
(9252 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी.) स्थित हैं।
मध्य
गंगा का मैदानी भाग इस क्षेत्र का द्वितीय महत्वपूर्ण भाग है जो प्रधानतः कृषि-प्रधान
क्षेत्र है। इस क्षेत्र के प्रमुख नगर कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, वाराणसी, गोरखपुर, पटना
तथा जौनपुर आदि हैं। ऊपरी मैदानी भाग के पूर्वी भाग का विस्तार गंगा के पूर्वी भाग
में है। इस भाग में प्रमुख नगरीय केन कोलकाता, हावड़ा, खड़गपुर, बड़नगर, जमशेदपुर,
वर्द्धमान, धनबाद, झरिया तथा बोकारो आदि हैं। यह नगरीय क्षेत्र सबसे विकसित क्षेत्र
है। इसी क्षेत्र में भारत का द्वितीय सबसे बड़ा नगरीय क्षेत्र स्थित है। इस सम्पूर्ण
क्षेत्र में उद्योग-धन्धों की अधिकता है। अतः यहाँ जनसंख्या का जमाव ग्रामीण क्षेत्र
की तुलना नगरीय केन्द्रों में अधिक पाया जाता है।
(2) ऊपरी गंगा-यमुना नगरीय क्षेत्र- इस नगरीय क्षेत्र का
विस्तार दक्षिणी उत्तराखण्ड तथा पश्चिम उत्तर प्रदेश में पाया जाता है। यहाँ के प्रमुख
नगर आगरा, मथुरा, अलीगढ़, बुलन्दशहर, एटा, हाथरस आदि है।
(3) मुम्बई-अहमदाबाद नगरीय क्षेत्र- ऊपरी मैदानी क्षेत्र
के पूर्वी भाग की भाँति इस नगरीय क्षेत्र में भी औद्योगिक विकास बहुत हुआ है, परिणामतः
नगरीय जनसंख्या की वृद्धि अधिक हुई है। इस क्षेत्र में भारत के सबसे बड़े नगरीय क्षेत्र
मुम्बई के अलावा पुणे, नासिक, उल्हासनगर, शोलापुर, अकोला, थाणे, अहमदाबाद, सूरत, वड़ोदरा,
तथा गांधीनगर आदि है। औद्योगिक विकास के साथ ही यहाँ खनिज तेल उत्खनन का भी कार्य बड़े
पैमाने पर किया जाने लगा है। अतः जनसंख्या का जमाव नगरीय केन्द्रों में अधिक होने लगा
है।
(4) दक्षिण भारत नगरीय क्षेत्र- इस नगरीय क्षेत्र में
कर्नाटक, तमिलनाडु तथा केरल राज्य के नगरीय क्षेत्र सम्मिलित हैं। यहाँ की उत्तम जलवायु,
सामुद्रिक स्थिति, व्यापारिक फसलों का उत्पादन, उद्योग- धन्धों का विकास, शिक्षा के
उच्च स्तर तथा पाश्चात्य देशों के प्रभाव आदि कारकों के कारण यहाँ नगरीय जनसंख्या में
अधिक वृद्धि हुई है। इस नगरीय क्षेत्र के प्रमुख केन्द्र चेन्नई, एर्नाकुलम, कोट्टायम,
कोजीकोड़, अलप्पूजा मदुरै, तिरुवनंतपुरम, कोयम्बटूर, सलेम, रामनाथपुरम, तिरुचिरापल्ली,
तंजावूर, मैसुरू तथा बंगालुरू आदि हैं।
(5) कृष्णा-गोदावरी डेल्टा नगरीय क्षेत्र- इस
नगरीय क्षेत्र का विस्तार कृष्णा तथा कावेरी नदियों के डेल्टाई प्रदेश में है। यहाँ
के प्रमुख नगर विशाखापटनम, राजमुन्द्री, हैदराबाद, कुर्नूल, गुण्दूर, मचिलीपट्टनम,
काकिनाडा तथा वारंगल आदि हैं। यह क्षेत्र कृषि की दृष्टि से सम्पन्न है तथा यहाँ विविध
उद्योग-धन्धों का पर्याप्त विकास हुआ है जिससे नगरीय जनसंख्या में अधिक वृद्धि हुई
है।
(6) ऊपरी कृष्णा नगरीय क्षेत्र- कृष्णा नदी के ऊपरी
अपवाह क्षेत्र में इसका विस्तार है। इसके प्रमुख नगर हुबाली, बेलगामी, कोल्हापुर तथा
धारवाड़ आदि हैं। यह क्षेत्र खनिज सम्पत्ति की दृष्टि से सम्पन्न है अतः यहाँ विभिन्न
उद्योग-धन्धों का विकास हुआ है। इसका परिणाम यह हुआ है कि यहाँ नगरीय जनसंख्या में
वृद्धि हुई है।
भारत
में नगरीकरण की प्रमुख प्रक्रियाएँ (Main Processes of Urbanization in India)
भारत
में नगरीकरण का अध्ययन करते हुए वी.एल.एस. प्रकाशराव ने भारत में नगरीकरण की तीन प्रक्रियाओं
का उल्लेख किया है जो निम्नलिखित हैं-
(1) महानगरीकरण (The Metropolitanization)- देश
के बृहत् नगर और बृहदाकार होते जा हैं और वे महानगर बनने की प्रक्रिया में हैं। एक
जनगणना वर्ष से दूसरे जनगणना वर्ष में महानगरों की संख्या तीव्रता से बढ़ती जा रही
है। इस प्रकार कुल नगरीय जनसंख्या में महानगरों या बड़े नगरों का हिस्सा तेजी से बढ़
रहा है। तालिका 7.7 से विदित है कि सन, 1951 में एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले (प्रथम
श्रेणी) नगरों में कुल नगरीय जनसंख्या का 44.31 प्रतिशत सम्मिलित था जो बढ़कर 1981
में 60.37 प्रतिशत और 1991 में 65.20 प्रतिशत तथा 2011 में नगरीय जनसंख्या
377105760 (अर्थात 31.16) हो गरीब है।
(2) वाणिज्यीकरण (Commercialization) या मध्यवर्ती नगरीकरण
(Intermcediate Urbanization)- इस प्रक्रिया के अन्तर्गत लघु नगर मध्यम
आकार के नगरों और मध्यम श्रेणी के नगर बृहत् नगरों के रूप में परिवर्तित हो रहे हैं।
इस आन्तरिक परिवर्तन के कारण मध्यम आकार के नगरों में नगरीय जनसंख्या के अनुपात में
कोई विशेष परिवर्तन नहीं होने पाता है। यद्यपि लघु नगरों की संख्या और उनके हिस्से
में कमी आने की प्रवृत्ति पायी जाती है।
(3) ग्रामीण नगरीकरण या निर्वाहमूलक नगरीकरण (Rural Urbanization
or Subsistence Urbanization)- यह प्रक्रिया नवीन नगरों की उत्पत्ति से
सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत नये नगरों की स्थापना अथवा ग्रामों के आकार एवं सुविधाओं
में वृद्धि के परिणामस्वरूप उनके नगर के रूप में परिवर्तित होने की प्रक्रिया को सम्मिलित
किया जाता है। कुछ ग्रामों या बस्तियों को प्रशासनिक या राजनीतिक निर्णयों से भी नगर
का दर्जा प्राप्त होता है। अतः प्राकृतिक जनसंख्या वृद्धि से प्रति जनगणना वर्ष में
सैकड़ों ग्राम नगरीय श्रेणी में सम्मिलित हो जाते हैं और नगरों की संख्या और नगरीय
जनसंख्या दोनों में वृद्धि करते हैं। अत्यन्त लघु आकार के कारण नगरीय जनसंख्या की वृद्धि
में इन नगरों का अपेक्षाकृत कम महत्व किन्तु नगरों को संख्या इनके जुड़ जाने से काफी
बढ़ जाती है।
भारतीय
नगरीकरण की प्रमुख विशेषताएँ (Main Characteristics of Indian Urbanization)
नगरीकरण
से सम्बन्धित मुख्य विशेषताएँ-
(1)
भारत में नगरीकरण का आरम्भ आज से लगभग 4000 वर्ष पूर्व में हो गया था और प्राचीन भारत
में अनेक नगर विकसित अवस्था में थे। प्राचीन एवं मध्यकालीन नगरों का विकास मुख्यतः
प्रशासनिक, सैन्य तथा धार्मिक सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में हुआ था।
(2)
भारत में नगरीकरण पाश्चात्य देशों की भाँति औद्योगीकरण का सहगामी नहीं है। यहाँ औद्योगीकरण
के अभाव में भी नगरीकरण तेजी से हो रहा है। नगरीय विकास मुख्यतः तृतीयक क्रियाओं-व्यापार,
परिवहन, प्रशासन, पर्यटन, शिक्षा आदि के विकास पर आधारित है।
(3)
भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक तक अत्यन्त मन्द थी किन्तु
इसके पश्चात् इसकी वृद्धि दर क्रमशः तेज होती गयी और स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात्
नगरीकरण अतितीव्र गति से होने लगा।
(4)
भारत में नगरीय जनसंख्या की वृद्धि में नगरीय जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि का विशेष
योगदान नहीं है क्योंकि यह ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में लगभग एक सी है। तीव्र नगरीकरण
ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय केन्द्रों की ओर जनसंख्या प्रवास तथा ग्रामों का नगर के
रूप में परिवर्तन का परिणाम है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त निर्धनता, बेरोजगारी
तथा अन्य अभावों के कारण असंख्य लोग गाँव छोड़कर रोजगार, शिक्षा आदि की प्राप्ति के
उद्देश्य से निकटवर्ती नगरों में चले जाते हैं जिससे नगरीय जनसंख्या में वृद्धि होती
जाती है।
(5)
तीव्र जनसंख्या वृद्धि के परिणामस्वरूप बड़े ग्राम कस्बा का स्वरूप पाते जा रहे हैं।
यही कारण है कि प्रत्येक जनगणना में सैकड़ों नये नगर नगरीय श्रेणी में जुड़ जाते है।इससे
नगरों की जनसंख्या में काफी वृद्धि हो जाती है।
(6)
नगरों में जनसंख्या का अधिक संकेन्द्रण सामान्यतः नगरीय सुविधाओं तथा कार्यावसरों की
उपलब्धता एवं श्रम की माँग का परिणाम नहीं है बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त
निर्धनता तथा बेरोजगारी के कारण ग्रामीण दबाव का प्रतिफल है। ग्रामों से आये हुए असंख्य
लोग नगरों में रोजगार, आवास आदि के अभाव में अपने ग्रामीण जीवन से निम्न जीवन स्तर
बिताते हुए भी नगरों में पड़े रहते हैं जिसका नगरीय जीवन स्तर पर विपरीत प्रभाव पड़ता
है।
(7)
भारत में महानगरीकरण की प्रवृत्ति अधिक तीव्र है जिसके कारण बृहत् नगरों में जनसंख्या
वृद्धि अधिक तेजी से हो रही है और लघु नगरों की वृद्धि अपेक्षाकृत अल्प तथा सीमित है।
कुल नगरीय जनसंख्या में बृहत् नगरों का अनुपात निरन्तर तीव्रता से बढ़ता जा रहा है।
बड़े नगर महानगर बनने के लिए उद्यत हैं जबकि मुम्बई, कोलकाता और दिल्ली जैसे विशाल
महानगर मेगोलोपोलिस (1 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले नगर) बन गये है।
(8)
भारत में नगरीकरण कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में अधिक हुआ है जबकि अनेक क्षेत्र अल्पनगरीकृत
है। उच्च नगरीकृत क्षेत्रों में प्रायः बड़े-बड़े नगर या महानगर स्थित है। उच्च नगरीकरण
की दो मुख्य पेटियाँ हैं- (1) दक्षिण भारत का पश्चिमी तथा दक्षिणी भाग जिसका विस्तार
उत्तर में गुजरात से लेकर दक्षिण में केरल तथा तमिलनाडु तक है। अहमदाबाद, मुम्बई, नागपुर,
पुणे, सूरत, चेन्नई, बंगलरू, कोचीन आदि महानगर इसी के अन्तर्गत स्थित है। (2) उत्तर
भारतीय पेटी जो पश्चिम में पंजाब हरियाणा से लेकर पूर्व में पश्चिमी बंगाल तक विस्तृत
है। इसके पश्चिमी क्षेत्र (दिल्ली-चंडीगढ़) और पूर्वी क्षेत्र (निचला पश्चिम बंगाल)
उच्च नगरीकृत है किन्तु मध्यवर्ती भाग (उत्तर प्रदेश-बिहार) में बिखरे हुए नगर है जिनका
विकास मुख्यतः प्रशासनिक, शैक्षिक या व्यापारिक केन्द्रों के रूप में हुआ है।
नगरीकरण
की समस्याएँ (Problems of Urbanization)
बढ़ते
हुए नगरीकरण ने भारत में कई परिवर्तनों को जन्म दिया है। इन परिवर्तनों के कारण कुछ
लाभकारी परिणाम सामने आए हैं तो दूसरी ओर कई नयी समस्याओं ने भी जन्म लिया है। नगरीकरण
से जनित कुछ समस्याएँ इस प्रकार हैं-
(1) स्वास्थ्य की समस्या- सामान्य धारणा यह है कि गाँव
के लोग नगरीय लोगों की तुलना में हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ होते हैं। नगरों में स्वच्छ
वातावरण का अभाव होता है। मकानों की भीड़-भाड़, वायु प्रदूषण, मिल, फैक्ट्री का धुआँ,
स्थान की कमी, बन्द मकान, रोशनी एवं स्वच्छ हवा का अभाव, गड़गड़ाहट एवं बहरा कर देने
वाला शोरगुल, खटमल, मच्छर आदि की अधिकता, छूत के रोग, बदबूदार एवं सोलन भरे कमरे आदि
सभी मिलकर स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालते हैं। नगरों में मृत्यु-दर गाँवों की तुलना
में अधिक होने के ये प्रमुख कारण हैं। स्वास्थ्य की सुविधा जुटाने के लिए वहाँ पार्क,
बगीचों एवं खेलकूद की सुविधा जुटायी जाती है। मुम्बई सर्वेक्षण में यह पाया गया कि
61 प्रतिशत लोगों ने मुम्बई में आने के बाद बीमार रहने की शिकायत की। 30 प्रतिशत लोगों
ने परिवारजनों की मृत्यु के लिए नगर में आने के बाद लगी बीमारी को उत्तरदायी माना है।
कई लोगों ने अपच एवं भूख न लगने की शिकायत की। नगरीकरण मानसिक स्वास्थ्य पर भी कुप्रभाव
डालता है और लोग अनिद्रा एवं चिन्ता से परेशान रहते हैं।
(2) अपराधों में वृद्धि- गाँवों की तुलना में नगरों
में अपराध अधिक होते हैं। नगरों में परिवार, धर्म, पड़ोस, रक्त सम्बन्ध एवं जाति के
नियन्त्रण में शिथिलता के कारण अपराध बढ़ जाते हैं। नगर में अपरिचितता के कारण भी अपराध
के लिए पृष्ठभूमि तैयार होती है। वहाँ अपराधी गिरोह अपराध में प्रशिक्षण देने का कार्य
करते हैं। वहाँ चोरी, डकैती, बैंकों को लूटना, आत्महत्याएँ एवं हत्याएँ, दुर्घटनाएँ,
लड़कियों को भगा ले जाने, बच्चों को उठा ले जाने, धोखाधड़ी, ठगी आदि की घटनाएँ अधिक
होती हैं। समाचार- पत्रों में आए दिन इस प्रकार के अपराध की घटनाएं छपती ही रहती हैं।
(3) मनोरंजन की समस्या-नगरों में मनोरंजन का व्यापारीकरण
पाया जाता है। सिनेमा, टेलीविजन, खेलकूद, पार्क एवं बगीचों के लिए काफी पैसा खर्च करना
होता है। यहाँ व्यापारिक संस्थाओं द्वारा मनोरंजन जुटाया जाता है। गाँवों में खेलकूद,
नृत्य, भजन, गायन आदि के माध्यम से सुगमता से लोगों का मनोरंजन होता है।
(4) सामाजिक विघटन- व्यक्तिवादिता के कारण नगरों
में सामाजिक नियन्त्रण शिथिल हुआ है। यहाँ परिवार, धर्म, ईश्वर, रक्त सम्बन्धी एवं
जाति के नियन्त्रण के अभाव में समाज विरोधी कार्य अधिक होते हैं। नगरों में नित्य परिवर्तन
होने से परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों से लगाव नहीं होता। नगरों में सामाजिक एवं सांस्कृतिक
प्रतिस्पर्द्धा एवं संघर्ष देखने को मिलते हैं जो सामाजिक विघटन पैदा करते हैं। गरीबी,
भिक्षावृत्ति, तलाक, बाल-अपराध और अपराध नगरीय जीवन की प्रमुख समस्याएँ हैं। तोड़-फोड़,
हड़ताल, नारेबाजी, नगरीय जीवन की आम घटनाएँ हैं।
(5) आवास की समस्या- नगरों में एक भयंकर समस्या
मकानों की है। नगरों में हवा एवं रोशनदान युक्त मकानों का अभाव होता है। कई लोग सड़क
के किनारे झोपड़ियाँ बनाकर रहते हैं। कानपुर जैसे कई औद्योगिक नगरों में तो एक कमरे
में दस से पन्द्रह तक व्यक्ति रहते हैं। इन मकानों में पाखाना एवं पेशाव घर का अभाव
होता है। मकान किराया अधिक होने के कारण किराए पर मकान लेना सम्भव नहीं हो पाता। नगरीय
क्षेत्रों में कई मकान तो बीमारियों के घर होते हैं।
(6) भिक्षावृत्ति- नगरों में भिक्षावृत्ति अधिक
है। सड़क के किनारे मन्दिर, मस्जिद एवं धार्मिक स्थानों के पास, रेल्वे स्टेशन, बस
स्टैण्ड एवं सार्वजनिक स्थानों पर भिखारियों की भीड़ देखी जा सकती है। भिक्षावृत्ति
नगरों में व्याप्त गरीबी का सूचक है।
(7) मानसिक तनाव एवं संघर्ष- नगरों में मानसिक तनाव एवं
संघर्ष अधिक है जिनसे मुक्ति पाने हेतु लोग नींद की गोलियाँ या प्रमाद गुटिकाएँ
(Happy Pills) लेते हैं। मानसिक बेचैनी से मुक्ति पाने का यह उपाय वास्तव में बड़ा
महँगा है। धीरे-धीरे यह व्यक्ति को मृत्यु के मुँह में धकेलता है।
(8) वेश्यावृत्ति- नगरों में वेश्यावृत्ति अधिक
पायी जाती है। यहाँ यौन अपराधों की अधिकता एवं नैतिक मूल्यों में ह्रास पाया जाता है।
इस प्रकार नगरीकरण ने मानव के सदियों से चले आ रहे जीवन में अनेक परिवर्तन किए हैं
और नई समस्याओं को जन्म दिया है।
(9) बढ़ती जनसंख्या- नगरों में बढ़ती जनसंख्या
ने यातायात, शिक्षा, प्रशासन एवं सुरक्षा की समस्या पैदा की है। सभी के लिए शिक्षा
की व्यवस्था करना, यातायात एवं सुरक्षा के स्थान जुटाना नगर प्रशासन चलाना एक कठिन
कार्य हो गया है।
नगरीय समस्याओं के समाधान के लिए नगर नियोजन (Town Planning) आवश्यक है। नगर नियोजन द्वारा निवास, यातायात, सड़कों, बगीचों, चिकित्सालयों, शिक्षण संस्थाओं, बाजारों, मण्डियों एवं कारखानों का स्थान-निर्धारण इस प्रकार से किया जाता है कि नगरीय जीवन सुविधाजनक एवं आनन्ददायक बन सके, नगरीय समस्याओं का समाधान हो सके तथा उद्योगों का विकेन्द्रीकरण किया जा सके।