सार्वजनिक व्यय के नियम (CANONS OF PUBLIC EXPENDITURE)
सार्वजनिक व्यय का सामाजिक कल्याण तथा धन के उत्पादन एवं वितरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है । अतः सार्वजनिक व्यय का दुरूपयोग न हो सके तथा सरकार अधिकतम् सामाजिक कल्याण की प्राप्ति में सफल हो सके, इस तथ्य को ध्यान रखते हुए अर्थशास्त्रियों ने सार्वजनिक व्यय के नियमों का प्रतिपादन किया है जिनका पालन सरकार को करना चाहिए । फिंडले शिराज ने अपनी पुस्तक “The Science of Public Finance” में सार्वजनिक व्यय के निम्न चार नियमों का वर्णन किया है । शिराज के अनुसार सार्वजनिक व्यय इन नियमों को ध्यान में रख कर किया जाना चाहिए-
1. लाभ का
नियम (Canon of Benefit) :- इस नियम के अनुसार सरकार को अपनी आय को विभिन्न मदों पर इस
प्रकार व्यय करना चाहिए ताकि समाज का कुल लाभ अथवा सामजिक कल्याण अधिकतम् हो सके ।
इसतरह,
इस नियम से यह स्पष्ट होता है कि सार्वजनिक व्यय को
सम्पूर्ण समाज के लाभ को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए । यह व्यक्तिगत हित की
बात नहीं करता । इस नियम का आधार है- “अधिक से अधिक लोगों को ज्यादा से ज्यादा से
लाभ” किसी व्यय के कारण किसी व्यक्ति को अनुपयोगिता प्राप्त हो सकती है अथवा उसके
कल्याण में वृद्धि नहीं भी हो सकती है परन्तु सरकार किसी विशेष व्यक्ति के कल्याण
में होने वाली कमी पर ध्यान नहीं देती । यदि सार्वजनिक व्यय के फलस्वरूप कुल
सामाजिक कल्याण में वृद्धि होती है तो किसी व्यक्ति के कल्याण में कमी होने के
बावजूद भी सार्वजनिक व्यय उचित होगा । प्रो ० निकल्सन ने नियम की कसौटी का वर्णन
करते हुए लिखा है कि, “लाभ के सिद्धांत के आधार लोक - व्यय का आदर्श तभी प्राप्त किया जा सकता है
जब प्रत्येक मद पर होने वाले सीमांत व्यय से प्राप्त सामाजिक संतुष्टि लगभग बराबर
हो ।” शिराज के अनुसार, “अन्य बातें समान रहने पर, सार्वजनिक व्यय इस प्रकार होना चाहिए कि इससे समाज को
महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त हो ; यथा उत्पादन में वृद्धि हो, देश में आंतरिक शान्ति व्यवस्था कायम रहे,
विदेशी आक्रमण से देश सुरक्षित रहे तथा यथासंभव आय की असमानता
में कमी आए । संक्षेप में, सार्वजनिक कोषों का उपयोग उन दिशाओं में किया जाना चाहिए जो सार्वजनिक हित के
लिए उपयुक्त हों अर्थात् सार्वजनिक व्यय से अधिकतम् उपयोगिता प्राप्त हो ।
2. मितव्ययिता
का नियम (Canon of Economy) :- सरकार कर के रूप में जनता से जो धन प्राप्त करती है वह एक
तरह से जनता की धरोहर होती है । अतः इस धन को सरकार को बहुत सावधानी से
मितव्ययितापूर्वक व्यय करना चाहिए । मितव्ययिता का अर्थ यह है कि सरकार को केवल
उन्हीं मदों पर और उसी समय व्यय करना चाहिए जहाँ आवश्यक हो तथा उस व्यय से समाज को
अधिकतम् लाभ की प्राप्ति हो । यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि मितव्ययिता का
अर्थ व्यय को बिल्कुल कम करना नहीं है बल्कि फिजूलखर्ची को रोकना है । फिण्डले
शिराज का कथन है कि अधिकारियों की लापरवाही, अपर्याप्त वित्तीय नियंत्रण, दूरदर्शिता का अभाव तथा कमजोर प्रशासन के कारण इस नियम की प्रायः
अवहेलना की जाती है जिसके फलस्वरूप सार्वजनिक धन का अपव्यय होता है । ध्यान रहे,
सरकार की स्थिति एक ट्रस्टी की भाँति होती है जिसके कारण
उसका यह नैतिक दायित्व है कि वह जनता के धन का अपव्यय न होने दे ।
मितव्ययिता
के नियम के अनुसार सरकार को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि- (i)
किसी भी मद पर आवश्यकता से अधिक व्यय नहीं होना चाहिए,
(ii) किसी धन का अपव्यय नहीं होना चाहिए,
(iii) सार्वजनिक व्यय इस प्रकार होना
चाहिए ताकि उत्पादन शक्ति में वृद्धि हो, (iv) वर्तमान तथा भविष्य की आवश्यकताओं पर व्यय का बँटवारा अनुकूलतम्
हो तथा (v)
भविष्य में आय - वृद्धि की संभावना बनी रहे । 3. स्वीकृति
(अनुमोदन) का नियम (Canon of Sanction) :- इस नियम का अर्थ है कि कोई भी सार्वजनिक व्यय तब तक नहीं
किया जाना चाहिए जब तक कि उसके व्यय करने की स्वीकृति उच्च अधिकारी से नहीं प्राप्त
हो जाती है । इस नियम का उद्देश्य सार्वजनिक व्यय पर कठोर वित्तीय नियंत्रण रखना
है ताकि धन का दुरुपयोग न होने पाए । यह नियम जहाँ मितव्ययिता को जन्म देता है
वहाँ काम की दोबारगी तथा फिजूलखर्ची पर भी रोक लगाता है । इस नियम के अनुसार यह
आवश्यक है कि:- (i) स्वीकृति धनराशि से अधिक व्यय न किया जाय, (ii) व्यय उपयुक्त अधिकारी द्वारा और वह भी पूर्व स्वीकृति के
बाद ही किया जाय, (ii) व्यय की गयी राशि का उचित लेखा परीक्षण किया जाय ताकि
अनुचित ढंग से धन व्यय न किया जा सके और विभिन्न अधिकारी अपने अधिकारों का अनुचित उपयोग
और अपनी सीमाओं का उलंघन न कर सकें । लोकतंत्रीय शासन प्रणाली में स्वयं सरकार को
विधानसभा अथवा संसद से प्रत्येक व्यय की स्वीकृति प्राप्त करनी होती है । इसी
प्रकार प्रत्येक विभाग अपने मंत्रालय से और प्रत्येक अधिकारी अपने उच्च अधिकारी से
स्वीकृति प्राप्त करता है । इसमें समय कुछ अवश्य नष्ट होता है परन्तु यह सामाजिक
हित को अधिकतम करने तथा फिजूलखर्ची को रोकने के लिए नितांत आवश्यक है ।
4. आधिक्य
(बचत) का नियम (Canon of Surplus):- शिराज के आधिक्य के नियम से तात्पर्य यह है कि सरकार का
व्यय उसकी आय से अधिक नहीं होना चाहिए । अन्य शब्दों में,
शिराज संतुलित बजट के ही समर्थक नहीं थे बल्कि आधिक्य के
बजट के पक्षधर थे । शिराज के अनुसार- “राजकीय संस्थाओं को अपनी आय की प्राप्ति एवं
व्यय सामान्य व्यक्तियों की ही भाँति करना चाहिए । व्यक्तिगत बजट की भांति सरकार
को भी संतुलित बजट की सामान्य नीति का ही पालन करना चाहिए ।
प्रो0 शिराज ने सन् 1920 में ब्रूसेल्स के अंतर्राष्ट्रीय वित्त सम्मेलन के एक
प्रस्ताव को अपनी पुस्तक में इस प्रकार व्यक्त किया है,
“वह देश जो घाटे के बजटों की नीति
को स्वीकार करता है वह उस फिसलने वाले मार्ग पर चलता है ; जो सर्वनाश
की ओर ले जाता है, उस मार्ग से बचने के लिए कोई भी त्याग बड़ा नहीं
है ।” इसी तरह का विचार व्यक्त करते हुए ग्लैडस्टोन ने लिखा है- “भविष्य
के नाश, क्रांति एवं गड़बड़ी से बचने के लिए बजट में संतुलन होना
आवश्यक है ।”
उपरोक्त
विचार उचित भी प्रतीत होता है क्योंकि घाटे के बजट से ऋण का भार जनता पर बढ़ जाता
है और देश तथा विदेशों में सरकार का विश्वास कम हो जाता है । परन्तु आलोचकों का मत
है कि बचत का बजट बनाना सदैव आवश्यक व वांछनीय नहीं है । मंदीकाल में घाटे का बजट
बनाकर मूल्य - स्तर की गिरावट को रोका जा सकता है तथा देश में रोजगार के अवसरों को
उत्पन्न किया जा सकता है । इसीतरह आर्थिक नियोजन काल में घाटे के बजटों द्वारा
आर्थिक क्रियाओं के स्तर को ऊँचा किया जा सकता है । युद्धकाल में भी सरकार को घाटे
की वित्त व्यवस्था का सहारा लेना पड़ता है । आधिक्य का बजट भी उचित नहीं होता,
क्योंकि ऐसे बजटों से जनता के मन में यह विचार उत्पन्न होने
लगता है कि उस पर कर का भार अधिक है । इसतरह आधिक्य का बजट अथवा संतुलित बजट का
अनुकरण करना व्यावहारिक दृष्टि से न्यायोचित नहीं है । अतः मंदीकाल,
आर्थिक नियोजन तथा युद्ध के समय घाटे का बजट स्फीति काल में
आधिक्य का बजट तथा सामान्य परिस्थितियों में संतुलित बजट बनाया जाना चाहिए ।
प्रो0 आर0
एन0 भार्गव ने आधिक्य को एक अन्य तरीके से व्यक्त करते हुए लिखा है कि,
“फिर भी,
यह एक विचार है जिसमें राज्य को व्यय करते समय आधिक्य रखना
चाहिए तथा किए गए व्यय पर संतुष्टि का आधिक्य होना चाहिए । इस तरह,
यदि राज्य दस रुपए व्यय करता है तो समाज को मिलने वाला लाभ
दस रुपये से अधिक होना चाहिए तथा राज्य का उद्देश्य इस अंतर को अथवा आधिक्य को
जितना अधिक हो सके, करना चाहिए । इस प्रकार समाज का कल्याण अधिकतम सीमा तक बढ़ाया जा सकता है ।
आधिक्य
का यह विचार तर्कसंगत भी है क्योंकि इसके अंतर्गत व्यय को अधिकतम लाभ की प्राप्ति
को ध्यान में रखकर किया जाने का विचार दिया गया है । इसतरह,
शिराज ने आधिक्य का जो विचार व्यक्त किया है,
वह लाभ का व्यय पर आधिक्य है । सार्वजनिक व्यय के संदर्भ
में दिए गए उपर्युक्त नियमों में से प्रथम नियम तो अधिकतम् सामाजिक लाभ के
सिद्धांत के अनुरूप ही है । चौथे नियम की आधुनिक आर्थिक परिस्थितियों में अधिक
उपयोगिता नहीं है । द्वितीय व तृतीय नियम वस्तुतः इसी सिद्धांत के समुचित
क्रियान्वयन के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले विभाग माने जा सकते हैं । इसतरह
सार्वजनिक व्यय के लिए जो सिद्धांत लागू किया जाना चाहिए,
वह “अधिकतम् सामाजिक लाभ’’ का सिद्धांत है ।
5. अन्य
नियम (Other Canons):- प्रो0
शिराज द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त नियमों के अतिरिक्त आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने
कुछ अन्य नियमों की चर्चा की है जो इस प्रकार हैं :-
(A) लोच का नियम (Canon of
Elasticity) :- इस नियम के अनुसार सार्वजनिक व्यय में पर्याप्त लोच होनी चाहिए । अर्थात्,
आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुरूप व्यय में आवश्यक
परिवर्तन करना संभव होना चाहिए, क्योंकि अधिकतम् सामाजिक लाभ की प्राप्ति हेतु यह आवश्यक
हैं कि व्यय का सामान्य ढाँचा लचीला हो । व्युहलर
के अनुसार - व्यय के परिणामों का अनुमान लगाते समय उस परिणामों की ओर ध्यान देना
होगा जो उस व्यय की पूर्ति के सम्बन्ध में करारोपण अथवा आय के अन्य उपभोगों के
परिणामस्वरूप सामने आ सकते हैं । अतः यह आवश्यक है कि समयानुसार सार्वजनिक व्यय
में परिवर्तन किया जाना चाहिए ताकि उनसे सामाजिक लाभ को क्षति न पहुँचे । ऐसे
सार्वजनिक व्यय को उत्तम कहा जा सकता है । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सार्वजनिक व्यय
में वृद्धि करना अत्यधिक कठिन होता है । अतः सार्वजनिक व्यय का ढाँचा इस प्रकार का
होना चाहिए कि बिना कठिनाई के व्यय के कुछ भाग को घटाया जा सके । सार्वजनिक व्यय
में लोच बना रखने का एक सुगम उपाय यह है कि स्थायी प्रकृति के व्यय में धीरे -
धीरे वृद्धि की जानी चाहिए क्योंकि अस्थायी रूप से बढ़ाया गया व्यय तो घटाया जा
सकता है जबकि स्थायी व्यय को घटाने पर जनता में असंतोष उत्पन्न होने लगता है ।
(B) उत्पादकता का नियम (Canon of Productivity):- इस नियम के अनुसार सार्वजनिक व्यय की नीति इस तरह की होनी
चाहिए जिससे कि उत्पादन क्षमता में वृद्धि हो, देश में नए - नए उद्योगों की स्थापना हो,
रोजगार के अवसरों में वृद्धि तथा पूंजी निर्माण को भरसक
प्रोत्साहन मिल सके । व्यय की उत्पादकता की दो कसौटियाँ हो सकती हैं- अर्थव्यवस्था
का सुदृढ़ होना तथा जनता के जीवन स्तर में सुधार होना । इस सम्बन्ध में प्रो0 हेन्सन का मत है कि कोई भी आधुनिक राष्ट्र,
सामाजिक और सार्वजनिक सेवाओं में वृद्धि किए बिना अपने
वर्तमान स्वरूप को प्रगतिशील नहीं बना सकता ।”
(C) समान वितरण का नियम (Canon of
Equitable Distribution):- इस
नियम के अनुसार, सार्वजनिक
व्यय इस तरह करना चाहिए ताकि समाज में धन के वितरण की विषमता कम हो तथा
अर्थव्यवस्था का संतुलित विकास हो । अन्य शब्दों में- समान वितरण से तात्पर्य है, पिछड़े वर्गों एवं क्षेत्रों में सार्वजनिक व्यय का अधिक से
अधिक लाभ पहुँचाना ।
(घ) समन्वय का नियम (Canon of Co-ordination):- संघीय अथवा प्रजातंत्रीय शासन प्रणाली के अंतर्गत सार्वजनिक
व्यय तीन स्तरों केन्द्रीय प्रान्तीय व स्थानीय आधार पर किया जाता है । इन सरकारों
के आय के स्रोत तथा व्यय की मदें अलग - अलग होती हैं । समन्वय के नियम से तात्पर्य
यह है कि अधिकतम् सामाजिक लाभ प्राप्त करने के लिए इन सरकारों की व्यय नीति में
पूर्ण समन्वय व सामंजस्य होना चाहिए । इससे व्यय की दोबारगी व परस्पर विरोधाभास की
संभावना कम हो जाती है ।
भारत में
सार्वजनिक व्यय नियमों की कसौटी पर अब हम देखने का प्रयास करेंगे कि भारत सरकार की
व्यय नीति में उपर्युक्त का किस सीमा तक पालन किया गया है:-
भारत ने
आर्थिक विकास की नियोजन प्रणाली को अपनाया है जिसके परिणामस्वरूप भारतीय
अर्थव्यवस्था में विगत कुछ दशकों से आर्थिक सुदृढ़ता आयी है । विगत वर्षों में
भारत सरकार ने कृषि, उद्योग, परिवहन,
संचार, स्वास्थ्य, परिवार कल्याण कार्यक्रमों तथा गरीब एवं पिछड़े लोगों एवं
क्षेत्रों के विकास पर भारी मात्रा में धन व्ययकिया है इससे सम्पूर्ण समाज
लाभान्वित हुआ है । पंचवर्षीय योजनाओं में होने वाले सार्वजनिक व्यय का अधिकांश
भाग पिछड़े एवं कम विकसित क्षेत्रों के विकास पर किया गया है । इससे यह स्पष्ट होता
है कि सरकार देश का संतुलित विकास करना चाहती है ।
इसतरह,
योजनाकाल में अपनाई गयी क्षेत्रीय विकास की नीति लाभ के
सिद्धान्त का प्रतीक है क्योंकि इससे कम विकसित विशेषकर ग्रामीण जनसंख्या का काफी
हित हुआ है । यह उल्लेखनीय है कि शिथिल वित्तीय प्रशासन के फलस्वरूप देश की
सार्वजनिक व्यय नीति ने मितव्ययिता तथा स्वीकृति के नियमों का उचित ढंग से पालन
नहीं किया है । उदाहरण के लिए- विदेशों को जाने वाले प्रतिनिधि मंडलों, दूतावासों,
मंत्रियों के यात्रा भत्तों आदि पर आवश्यकता से अधिक राशि
व्यय की जाती है । इसतरह, भारत में अनेक व्यय मितव्ययिता के नियम के अनुरूप नहीं किए जाते हैं । इसीतरह, बिना स्वीकृति के अधिक धनराशि खर्च करना
तथा व्यय के मदों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर लेना भी यहाँ एक सामान्य बात है ।
भारत में
तीव्र आर्थिक एवं सामाजिक विकास की लालसा से भारी मात्रा में आय से अधिक व्यय किया
जाता है जिसके लिए सरकार घाटे की वित्त व्यवस्था का सहारा लेती है । घाटे की वित्त
व्यवस्था का सहारा लेना केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के लिए एक सामान्य बात हो
चुकी है ।
आज
स्थिति यह है कि जनता की करदान क्षमता समाप्त चुकी है तथा और अधिक कर भार सहन करने
की उसमें क्षमता नहीं रह गयी है । एक तरफ सार्वजनिक व्यय नीति में लोच की
अनुपस्थिति तथा दूसरी तरफ देश में करदान योग्यता के अभाव का हल सरकार ने नोट छापकर
निकाला जिसका परिणाम यह हुआ कि देश में मुद्रास्फीति को प्रोत्साहन मिला तथा
वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य में अत्यधिक वृद्धि हो गयी । यह संतोष की बात है कि
सरकार की व्यय नीति कुछ सीमा तक ' उत्पादकता ' तथा ' न्यायपूर्ण वितरण ' के नियमों को अपनाने में सफल अवश्य रही है फिर भी,
सरकार की व्यय नीति में सुधार की अभी पर्याप्त गुंजाइश है ।
सार्वजनिक - व्यय का वर्गीकरण (CLASSIFICATION OF PUBLIC EXPENDITURE)
विभिन्न
राष्ट्रों की आर्थिक आवश्यकताओं के अनुरूप, आर्थिक संरचनाओं के निर्माण में सार्वजनिक व्यय का महत्वपूर्ण योगदान
होता है । सभी विकासशील राष्ट्र अपने सीमित साधनों का निर्धारित उद्देश्यों के लिए
इष्टतम् प्रयोग करना चाहते हैं । इसके लिए सार्वजनिक व्यय का नियमन आवश्यक है ।
सरकार द्वारा अनेक तरह के व्यय किए जाते हैं जिसमें उद्देश्य, मात्रा, समय की अवधि तथा प्रभाव की भिन्नता पाई
जाती है । अतः आवश्यकता इस बात की होती है कि सार्वजनिक व्ययों को इस प्रकार
विभाजित किया जाय ताकि उनसे सम्बंधित समस्याओं का विश्लेषण सहजता से किया जा सके ।
सार्वजनिक व्यय के विभाजन की इस क्रिया को ही सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण कहते हैं
। इसतरह ‘सार्वजनिक व्यय के वर्गीकरण से अभिप्राय राजकीय
कार्यों को क्रम से सूचीबद्ध करना है जिससे राजकीय कार्यों की प्रकृति तथा इन पर
होने वाले व्यय के बारे में सहजता से जानकारी उपलब्ध हो सके ।’
सार्वजनिक
व्यय के वर्गीकरण की आवश्यकता इसलिए होती है क्योंकि सार्वजनिक व्यय के उपयुक्त
वर्गीकरण के आधार पर ही भावी व्यय के लिए नीति निर्धारित की जा सकती है । जो व्यय
कार्यक्रम सम्पन्न किए जा चुके हैं, इन कार्यक्रमों में क्या कमियाँ रही है?, सार्वजनिक व्यय आर्थिक व सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति में कहाँ तक सहायक
रहे हैं? आदि के बारे में जानकारी व्यय के वर्गीकरण से प्राप्त की जा सकती है । यदि
वर्तमान कार्यक्रमों में विसंगतियाँ हैं तो उन्हें किस प्रकार दूर किया जा सकता है
। किस कार्यक्रम पर आवश्यकता से अधिक व्यय हो रहा है तथा कार्यक्रम में किस तरह का
परिवर्तन आवश्यक है, यह व्यय के वर्गीकरण के परीक्षण से निश्चित किया जा सकता है ।
सार्वजनिक
व्यय से सम्बंधित अनेक आँकड़े उपलब्ध हो सकते हैं परन्तु नीति निर्धारण के लिए
प्रयुक्त करने से पूर्व उनका वर्गीकरण करना आवश्यक होता है । वर्गीकरण के अभाव में
व्यय का विश्लेषण करना संभव नहीं होता । यदि किसी देश के विभिन्न क्षेत्रों के
व्यय कार्यक्रमों अथवा विभिन्न देशों के व्यय कार्यक्रमों का तुलनात्मक अध्ययन
करना है तो यह व्यय के वर्गीकरण से सरलतापूर्वक किया जा सकता है । आज जब एक
राष्ट्र अपने विभिन्न क्षेत्रों में सार्वजनिक व्यय के माध्यम से क्षेत्रीय
असमानता को दूर करना चाहता है तो उसके लिए विभिन्न क्षेत्रों के व्यय कार्यक्रमों
का अध्ययन आवश्यक होता है । बिना उपयुक्त वर्गीकरण के व्यय कार्यक्रमों का अध्ययन
उचित प्रकार से नहीं किया जा सकता । वर्गीकरण सीमित आँकड़ों को बोधगम्य बना देता
है ।
प्रो० लुट्ज (Lutz) के अनुसार, “सार्वजनिक व्यय के वर्गीकरण का मुख्य उद्देश्य विभिन्न हितों
एवं कार्यों के बीच एक उचित संतुलन स्थापित करना है, जिनकी
पूर्ति का वित्तीय उत्तरदायित्व सरकार ने अपने ऊपर लिया है ।”
इसतरह,
सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण किसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु
आवश्यकतानुसार किया जाता है । अन्य शब्दों में सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण भिन्न -
भिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भित्र-भित्र प्रकार से किया जा सकता है ।
अर्थव्यवस्था की प्रकृति व निर्धारित लक्ष्यों के अनुरूप विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं
में सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण एक जैसा नहीं हो सकता । साथ ही कोई भी वर्गीकरण
सर्वकालिक तथा सर्वमान्य नहीं हो सकता । काल एवं परिस्थितियों के अनुसार इसमें
परिवर्तन होता रहता है । आर्थिक विकास की जिस अवस्था से अर्थव्यवस्था गुजर रही
होती है । उसी के अनुरूप नीति बनाई जाती है और इस नीति के उद्देश्यों की प्राप्ति
के लिए आवश्यकतानुसार सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण करना पड़ता है ।
सार्वजनिक व्यय के वर्गीकरण के विभिन्न रूप:- सार्वजनिक व्यय के वर्गीकरण के बारे में कई
अर्थशास्त्रियों ने अपने - अपने विचार व्यक्त किए हैं तथा भिन्न - भित्र प्रकार से
सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण किया है । अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण कुछ प्रमुख
वर्गीकरण निम्नवत् हैं:-
1. लाभ
अथवा कल्याण के आधार पर वर्गीकरण:- 19 वीं शताब्दी के जर्मन अर्थशास्त्री काहन (Kahn) तथा अमेरिकी अर्थशास्त्रीय प्लेहन
(Plehn) ने सार्वजनिक व्यय को समाज के विभिन्न वर्गों को प्राप्त होने वाले लाभ अथवा
कल्याण के आधार पर वर्गीकृत किया हैं । प्लेहन तथा काहन ने सार्वजनिक व्यय को
निम्न चार भागों में बाँटा है:-
(A) वह व्यय जिससे सारे समाज को लाभ पहुँचता
है, जैसे-
शिक्षा,
स्वास्थ्य तथा सुरक्षा सम्बंधी व्यय ।
(B) वह
व्यय जो किसी वर्ग विशेष के लिए किया जाता है परन्तु परोक्ष रूप से उससे सारा समाज
लाभान्वित होता है । ये व्यय प्रायः उन व्यक्तियों पर किए जाते हैं जो स्वयं अपनी
सहायता नहीं कर पाते हैं, जैसे- बेरोजगारी बीमा,
वृद्धावस्था पेन्सन तथा बीमारी बीमा आदि ।
(C) वह
व्यय जो कुछ व्यक्तियों को विशिष्ट लाभ पहुँचने के साथ - साथ सम्पूर्ण समाज को भी
लाभ पहुँचाता है जैसे- पुलिस व न्याय व्यवस्था पर व्यय
(D) वह
व्यय जिससे कुछ विशेष व्यक्तियों को ही लाभ पहुँचता है अर्थात् ऐसा व्यय जिससे
केवल उन्ही लोगों को लाभ पहुँचता है जो उन सेवाओं का मूल्य चुकाते हैं,
उदाहरणार्थ- राजकीय उद्योग, जैसे- रेल, डाक तार आदि पर व्यय ।
आलोचना:- यह वर्गीकरण स्पष्ट तथा वैज्ञानिक नहीं है क्योंकि ये
वर्गीकरण एक दूसरे से पूरी तरह पृथक नहीं किए जा सकते हैं । इसतरह,
इस प्रकार के आधार पर सरकारी व्यय में भेद करना सरल नहीं है,
क्योंकि लगभग हर तरह का सरकारी व्यय एक ओर तो सामूहिक लाभ
पहुंचाता है तो दूसरी तरफ वही व्यय कुछ विशेष व्यक्तियों व वर्गों को लाभ पहुंचाता
है ।
2. आय के
आधार पर वर्गीकरण:- प्रो0 निकलसन
ने सार्वजनिक व्यय से राज्य को प्राप्त होने वाली आय के आधार पर राजकीय व्यय का
वर्गीकरण किया है । उन्होंने भी सार्वजनिक व्यय को निम्न चार वर्गों में विभाजित
किया है:-
(A) वह
व्यय जिससे राज्य को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष किसी तरह की आय नहीं प्राप्त होती है
जैसे- युद्ध तथा निर्धनों को दी जाने वाली सहायता आदि ।
(B) वह
व्यय जिससे सरकार को कोई प्रत्यक्ष आय तो नहीं प्राप्त होती परन्तु परोक्ष रूप से
सरकारी आय में वृद्धि होती है, उदाहरणार्थ- शिक्षा पर किए जाने वाले व्यय से व्यक्तियों की
कार्यकुशलता तथा उत्पादन शक्ति में वृद्धि होती है जिससे अंततः उनकी करदान क्षमता
बढ़ती जाती है ।
(C) वह
व्यय जिससे राज्य को आंशिक रूप से प्रत्यक्ष लाभ प्राप्त होता है, जैसे- न्यायालयों तथा सशुल्क शिक्षा आदि पर किया गया व्यय ।
(D) वह
व्यय जिससे सरकार को लागत से अधिक आय प्राप्त होती है, जैसे-
राज्य द्वारा संचालित सभी जनोपयोगी सेवाएँ रेल,
डाक - तार आदि पर किया गया व्यय ।
आलोचना:- यह वर्गीकरण भी दोष रहित नहीं है जैसे- (i)
यह वर्गीकरण सार्वजनिक व्यय की प्रकृति विशेषताओं को स्पष्ट
नहीं करता । (ii) वास्तव
में,
सार्वजनिक व्यय की कोई भी मद ऐसी नहीं होती है जिससे राज्य
की आय में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में वृद्धि होती हो ।
3. कार्य
के आधार पर वर्गीकरण:-
एडम्स (Adams)
ने सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण राज्य के कार्यों के आधार पर
किया है । कार्यानुसार सार्वजनिक व्यय तीन प्रकार का हो सकता है :-
(A) वह
व्यय जो देश के नागरिकों की जान और माल की रक्षा के लिए किया जाता है,
जैसे- पुलिस , सेना , न्यायालयों व जेल आदि पर किए जाने वाले व्यय ।
(B) वह
व्यय जो व्यापार व वाणिज्य की उन्नति के लिए किए जाते हैं,
जैसे- रेल, डाक,
संचार तथा यातायात आदि पर किया गया व्यय ।
(C) वह
व्यय जो देश के विकास व नागरिकों के कल्याण के लिए किए जाते हैं,
जैसे- शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक बीमा तथा सार्वजनिक निर्माण कार्य आदि पर व्यय ।
बैस्टेबल तथा नित्ती ने भी
एडम्स के मत को स्वीकार किया है ।
आलोचना:- एडम्स द्वारा किया गया यह वर्गीकरण भी दोषपूर्ण है,
जैसे- कार्य के अनुसार व्यय - मदों का विभाजन भ्रमात्मक है
क्योंकि एक वर्ग में किए जाने वाले व्यय को दूसरे वर्ग में किए जाने वाले व्यय से
किसी ठोस आधार पर अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि एक ही व्यय विभिन्न दृष्टिकोणों
से सुरक्षात्मक, व्यावसायिक तथा
विकासात्मक हो सकता है ।
4. आवश्यकता
एवं ऐच्छिक व्यय:- प्रो० जे० एस०
मिल ने सार्वजनिक व्यय को निम्न दो भागों में वर्गीकृत किया है:-
(A) आवश्यक व्यय:- आवश्यक व्यय के अंतर्गत राज्य द्वारा किया जाने वाला वह
व्यय सम्मिलित किया जाता है जिसे राज्य ने कानूनी करार दे दिया है अथवा जिसे राज्य
परम्परा से करता आ रहा है । ऐसे व्यय को आवश्यक व्यय माना जाता है क्योंकि राज्य
द्वारा इस व्यय को करना ही पड़ता है । इस व्यय को न करने के लिए राज्य सोच नहीं
सकता,
जैसे- रक्षा, न्याय आदि पर व्यय ।
(B) ऐच्छिक व्यय:- इसके अंतर्गत उन व्ययों को सम्मिलित किया जाता है जिसे
करने के लिए राज्य बाध्य नहीं होता । ये व्यय राज्य की इच्छा पर निर्भर करते हैं
इस तरह के व्यय को राज्य परिस्थितियों के अनुरूप घटा - बढ़ा सकता है अथवा स्थगित
कर सकता है, जैसे- रेलों,
सार्वजनिक उपक्रमों आदि पर व्यय ।
आलोचना:- सार्वजनिक व्यय का यह वर्गीकरण उपयुक्त नहीं है । राज्य
द्वारा किया जाने वाला कौन सा व्यय आवश्यक है व कौन सा व्यय ऐच्छिक है,
इसका निर्णय करना कठिन है । राज्य के आवश्यक व्यय में नए -
नए कानूनों के आधार पर परिवर्तन हो सकता । कई व्यय जिन्हें ऐच्छिक समझा जाता है,
परिस्थितियों में परिवर्तन व सामाजिक आवश्यताओं के कारण वे
अनिवार्य बन सकते हैं । राज्य द्वारा सुरक्षा व आंतरिक शान्ति पर किया जाने वाला
व्यय आवश्यक कहा जा सकता है तथा शिक्षा व गरीबों की सहायता आदि पर किया जाने वाला
व्यय ऐच्छिक माना जा सकता है । परन्तु आज राज्य के कल्याणकारी स्वरूप के अंतर्गत
जितना उत्तरदायित्व राज्य का बाह्य आक्रमण से सुरक्षा के लिए है,
उतना ही उत्तरदायित्व समाज को शिक्षित बनाने तथा उसे
चिकित्सा की सुविधाएँ प्रदान करने का भी है । अतः मिल द्वारा दिया गया यह वर्गीकरण
अनुपयुक्त व असंतोषजनक है । राज्य के आधुनिक स्वरूप के संदर्भ में यह वर्गीकरण
सर्वथा अमान्य है ।
5. प्राथमिक
एवं गौण व्यय:- प्रो0 शिराज ने
राज्य के कार्यों के आधार पर सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण किया है । उनके अनुसार
सार्वजनिक व्यय को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:-
(A) प्राथमिक व्यय:- प्राथमिक व्यय में वह व्यय सम्मिलित किया जाता है जो राज्य
को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए व अपने मूलभूत उत्तरदायित्वों को पूरा करने के
लिए करना पड़ता है । जैसे- वाह्य आक्रमण में सुरक्षा तथा आंतरिक शांति स्थापित
हेतु किया जाने वाला व्यय राज्य का प्राथमिक व्यय है ।
(B) गौण व्यय:- समाज कल्याण - शिक्षा, बेरोजगारी दूर करने आदि से सम्बंधित व्यय जो सरकार द्वारा
किए जाते हैं, उन्हें
गौण व्यय में सम्मिलित किया जाता है ।
आलोचना:- शिराज द्वारा प्रस्तुत यह वर्गीकरण भी संतोषजनक नहीं है
क्योंकि दोनों प्रकार के व्ययों के बीच स्पष्ट विभाजन करना संभव नहीं है ।
6. हस्तांतरित
तथा अहस्तांतरित व्यय:-
प्रो० ए० सी० पीगू (A.C.
Pigou) ने सार्वजनिक व्यय को
निम्न दो श्रेणियों में बाँटा है:-
(A) हस्तांतरित व्यय:- पीगू का कथन है कि राज्य समाज से कर के रूप में आय प्राप्त
करता है और इस आय को ही पेंशन, बीमारी, बेरोजगारी बीमा व आर्थिक सहायता के रूप में व्यय करके समाज
को वापस लौटा देता है । सरकार का व्यय ही हस्तांतरित व्यय कहा जाएगा ।
(B) अहस्तांतरित व्यय:- वे व्यय जो सरकार द्वारा अपने लाभ के लिए किए जाते हैं,
अहस्तांतरण व्यय कहलाते हैं, जैसे- सेना, न्यायालय एवं नागरिक प्रशासन आदि पर होने वाला व्यय आदि ।
पीगू द्वारा दिया गया यह वर्गीकरण यद्यपि संतोषजनक है परन्तु हस्तांतरित व
अहस्तांतरित व्यय का वर्ग विभाजन पूर्णतया स्पष्ट नहीं है ।
7. स्थिर
व परिवर्तनशील व्यय:-
प्रो० जे० के० मेहता ने सार्वजनिक व्यय को निम्न दो भागों में बांटा है:- (A) स्थिर व्यय:- वह व्यय है जिसका परिमाण उपभोक्ताओं द्वारा निर्धारित नहीं
होता । राज्य द्वारा सम्पन्न की जाने वाली कुछ ऐसी सेवाएँ जिनका यदि उपभोक्ता अधिक
या कम उपभोग करें तो उसका उस सेवा पर किए जाने वाले व्यय पर कोई प्रभाव नहीं
पड़ेगा । उदाहरण के लिए - सुरक्षा पर किया जाने वाला व्यय या रात को सड़कों पर
रोशनी की व्यवस्था पर किया जाने वाला व्यय ।
(B) परिवर्तनशील व्यय:- यह व्यय उपभोक्ताओं की इच्छा से प्रभावित होता है ।
उपभोक्ता यदि किन्हीं सेवाओं का अधिक उपयोग करना चाहेंगे तो उन पर राजकीय व्यय
बढ़ेगा व यदि उनका कम उपभोग करना चाहेंगे तो राजकीय व्यय घटेगा । अन्य शब्दों में,
उपभोक्ता के निर्णय का इस व्यय के परिमाण पर प्रभाव पड़ता
है,
जैसे- डाक सेवाओं एवं शिक्षा आदि पर व्यय । प्रो० मेहता के अनुसार,
“स्थिर व्यय वह है जिसकी मात्रा उन सेवाओं के प्रयोग करने के आधार पर
निर्धारित नहीं होती जिनके सम्बंध में व्यय किया गया है । इसके विपरीत,
परिवर्तनशील व्यय वह है जो उनसे सम्बद्ध सेवाओं के प्रयोग
से घटता - बढ़ता है ।”
आलोचना:- इस वर्गीकरण का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसके आधार पर एक
वर्ग को दूसरे वर्ग से अलग नहीं किया जा सकता । यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता
कि अमुक व्यय स्थिर है तथा अमुक व्यय परिवर्तनशील है । इस कठिनाई को प्रो० मेहता
ने स्वयं भी स्वीकार किया है । प्रत्येक व्यय का कुछ भाग स्थिर हो सकता है तो कुछ
परिवर्तनशील । उदाहरण के लिए - डाक पर होने वाले व्यय । यदि डाक सेवा की मांग बढ़ जाये तो
सार्वजनिक व्यय बढ़ जाएगा । डाकघर की बिल्डिंग पर जो व्यय होगा वह स्थिर होगा जबकि
परिवर्तनशील व्यय डाक सेवा की मांग में वृद्धि के फलस्वरूप नए कर्मचारियों की
नियुक्ति के कारण बढ़ जाएगा।
8. आवश्यकता
के आधार पर वर्गीकरण:-
जर्मन अर्थशास्त्री प्रो० रोशर (Roscher) ने सार्वजनिक व्यय को निम्न तीन श्रेणियों में बाँटा है:-
(A) आवश्यक व्यय:- वह है जिसे सरकार को आवश्यक रूप से करना पड़ता है तथा किसी
भी दशा में इस व्यय को स्थगित नहीं किया जा सकता है ।
(B) उपयोगी अथवा लाभदायक व्यय:- उपयोगी या लाभदायक व्यय वह है जिसे समय पर परिस्थिति के
अनुसार टाला या स्थगित किया जा सकता है ।
(C) अनावश्यक व्यय:- इसके अंतर्गत वे व्यय सम्मिलित रहते हैं जिसे करने या न
करने का कोई विशेष महत्व नहीं होता । सरकार चाहें तो ऐसे व्यय करे व चाहें तो न
करे ।
आलोचना:- रोशर का यह वर्गीकरण उचित नहीं प्रतीत होता है क्योंकि
आवश्यक उपयोगी अनुपयोगी व्यय के बीच स्पष्ट विभाजन करना कठिन है ।
9. डाल्टन
का वर्गीकरण:- डाल्टन ने सार्वजनिक
व्ययों को दो भागों में विभक्त किया है:-
(A) अनुदान:-
राज्य द्वारा किया जाने वाला वह व्यय जिसके बदले में सरकार को प्रतिफल के रूप में
कुछ भी नहीं प्राप्त होता, उसे डाल्टन ने अनुदान व्यय कहा है, जैसे- बाढ़ पीड़ितों या सूखा पीड़ितों को दी गयी सहायता व वृद्धावस्था पेंशन
आदि ।
डाल्टन
ने अनुदान को पुनः दो भागों में बाँटा है - प्रत्यक्ष अनुदान व अप्रत्यक्ष अनुदान ।
प्रत्यक्ष अनुदान वे हैं जो उन्ही व्यक्तियों को लाभ पहुंचाते हैं जिनको वे दिए गए
हैं । जैसे छात्रों को दी गयी छात्रवृत्ति । अप्रत्यक्ष अनुदान वे है जिसमें
अनुदान प्राप्तकर्ता व्यक्ति के साथ - साथ अन्य व्यक्तियों को भी लाभ पहुँचता है ।
जैसे- आर्थिक सहायता (Subsidy) का आंशिक लाभ क्रेता को कम कीमत के रूप में मिलता है ।
डाल्टन
के अनुसार राजकीय व्यय के अंतर्गत निम्न मदों को सम्मिलित किया जा सकता है:-
1. देश
के राजप्रमुख व विदेशों में कूटनीतिक कार्यों पर व्यय ।
2.
विदेशी आक्रमण से सुरक्षा तथा आंतरिक शांति बनाए रखने के
लिए सेना तथा पुलिस पर व्यय ।
3. नागरिक प्रशासन सम्बंधी व्यय,
जैसे- कार्यपालिका तथा विधानसभा पर व्यय ।
4. न्याय
व्यवस्था सम्बंधी व्यय ।
5
. कृषि उद्योग तथा वाणिज्य के विकास
एवं इसीतरह अन्य विकास सम्बन्धी व्यय, जैसे- यातायात, डाक तार टकसाल आदि के विकास पर व्यय ।
6.शिक्षा, जन स्वास्थ्य, पेन्शन तथा सामाजिक सुरक्षा सम्बंधी व्यय ।
7.
सरकारी ऋण सेवाओं पर व्यय ।
आलोचना:- डाल्टन द्वारा प्रस्तुत यह वर्गीकरण अधिक वैज्ञानिक एवं
अतिक्रमण के दोष से बहुत हद तक मुक्त प्रतीत होता है । अधिकांशतः जो व्यय अनुदान
के अंतर्गत आता है, वह क्रय कीमत के अंतर्गत नहीं आता । इस दृष्टि से यह वर्गीकरण अन्य वर्गीकरणों
से श्रेष्ठ है । फिर भी यदि ध्यान से देखा जाय तो यह वर्गीकरण भी दोष रहित नहीं है
। डाल्टन ने भी इसे स्वीकार किया है कि सार्वजनिक व्यय में अनुदान व क्रय कीमत के
अंश को निर्धारित करना आसान नहीं होता ।
10. श्रीमती
उर्सुला हिक्स का वर्गीकरण:-
श्रीमती हिक्स ने सार्वजनिक व्यय को चार भागों में बाँटा है:-
(i) सुरक्षा सम्बंधी व्यय,
(ii)
नागरिक प्रशासन सम्बन्धी व्यय,
(iii)
आर्थिक व्यय, जैसे- सरकारी उपक्रमों पर किए गए व्यय,
निजी उद्योगों को दिए गए अनुदान व आर्थिक सहायता,
(iv)
सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी व्यय ।
11. ग्रोब्स
का वर्गीकरण:- ग्रोब्स ने सार्वजनिक
व्यय को निम्न भागों में विभक्त किया है:-
(A) स्वतः परिसमाप्य व्यय (Self - Liquidating):- यह राज्य द्वारा किया जाने वाला वह व्यय है जिसके बदले समाज
राज्य को प्रत्यक्ष भुगतान करता है । उदाहरणार्थ- राज्य द्वारा परिवहन पर किया
जाने वाला व्यय । (B) पुनरुत्थान व्यय:- इसके अंतर्गत वे व्यय आते हैं जो अर्थव्यवस्था की उत्पादन
क्षमता को बढ़ाते हैं । उदाहरणार्थ- शिक्षा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य पर व्यय ।
(C) उत्पादक व्यय:- उत्पादक व्यय वह माना गया है जो वर्तमान जीवन को सुखमय
बनाता है, जैसे- सार्वजनिक मनोरंजन आदि पर व्यय ।
(D) अनुत्पादक व्यय:- इस व्यय को फिजूल भी कहा गया है, जैसे- अस्त्र - शस्त्रों पर आवश्यकता से
अधिक किया जाने वाला व्यय ।
ग्रोब्स
द्वारा किया गया सार्वजनिक व्यय का उपरोक्त वर्गीकरण उचित नहीं है । इसमें विभिन्न
प्रकार के व्ययों के बीच स्पष्ट श्रेणी विभाजन करना सरल नहीं है ।
12. आर्थिक
एवं कार्यमूलक वर्गीकरण:-
सार्वजनिक व्यय राज्य की राजकोषीय नीति का एक महत्वपूर्ण अंग होता है जिसका प्रभाव
समस्त अर्थव्यवस्था पर पड़ता है । सार्वजनिक व्यय के माध्यम से सरकार अर्थव्यवस्था
को वांछित दिशा में मोड़ सकती है । सामाजिक लेखांकन के प्रचलन के फलस्वरूप अब
सार्वजनिक व्ययों का वर्गीकरण इसतरह से किया जाने लगा है ताकि सरकार की सार्वजनिक
वित्त से सम्बंधित क्रियाओं को समझा जा सके । अमेरिका ने सर्वप्रथम सार्वजनिक व्यय
के आर्थिक एवं कार्यमूलक वर्गीकरण पर अपनी पुस्तिका प्रकाशित की । इस वर्गीकरण के
अनुसार व्यय को निम्न मदों में विभाजित किया गया है:-
(i) राष्ट्रीय सुरक्षा, (ii) अंतर्राष्ट्रीय मामले, (iii) सैनिक सेवाएँ तथा लाभ, (iv) श्रम तथा कल्याण, (v) कृषि, (vi) प्राकृतिक संसाधन, (vii) वाणिज्य तथा आवास, (viii) सामान्य प्रशासन तथा (ix) ब्याज । इस वर्गीकरण के अंतर्गत सरकार की सभी प्राप्तियों तथा खर्चों,
जिसमें पूंजीगत व्यय भी सम्मिलित हैं इसका आर्थिक आधार पर
वर्गीकरण किया जाता है ।
जब तक
राज्य के व्यय कार्यक्रमों को आर्थिक व कार्यमूलक आधार पर वर्गीकृत नहीं किया जाता,
भावी व्यय के लिए नीति निर्धारित करना कठिन है । राज्य को
अपने व्यय कार्यक्रम में रोजगार, राष्ट्रीय आय आदि पर प्रभाव डालने के लिए क्या परिवर्तन
करने हैं,
यह तभी जाना जा सकता है जबकि व्यय को आर्थिक व कार्यमूलक
आधार पर वर्गीकृत किया गया हो ।
विश्लेषण
की दृष्टि से आजकल भारत में सार्वजनिक व्यय को निम्न आधार पर वर्गीकृत किया जाता
है:-
(A)
निवेश व्यय तथा उपभोग व्यय ।
(B)
विकास व्यय तथा विकासेत्तर व्यय ।
(C)
योजना व्यय तथा गैर - योजना व्यय ।
निवेश
व्यय के अंतर्गत सरकार द्वारा किया गया वह व्यय सम्मिलित किया जाता है जो भौतिक पूंजी
के निर्माण में सहायक होता है । इससे देश की भौतिक पूँजी में वृद्धि होती है ।
उपभोग व्यय के अंतर्गत वे व्यय आते हैं जो राज्य द्वारा समाज को प्रदान की जाने
वाली विभिन्न सेवाओं हेतु वस्तुओं के क्रय तथा मजदूरी के भुगतान पर करना पड़ता है
। उदाहरणार्थ- औद्योगिक उपक्रमों में मशीनों, भवनों आदि के निर्माण पर किया जाने वाला व्यय निवेश व्यय है
जबकि श्रमिकों की मजदूरी पर किया जाने वाला व्यय उपभोग व्यय होता है ।
कार्यमूलक
विश्लेषण की दृष्टि से किए गए वर्गीकरण में विकास व विकासेत्तर व्यय आते हैं ।
विकास व्यय में उन सब व्ययों को सम्मिलित किया जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक
विकास व सामाजिक कल्याण के लिए किए जाते हैं । अन्य सभी प्रकार के व्यय विकासेत्तर
व्यय में सम्मिलित किए जाते हैं । उल्लेखनीय है कि निवेश व उपभोग दोनों तरह के
व्यय विकास व्यय के अंतर्गत आते हैं । उदाहरण के लिए - स्वास्थ्य सेवा के अंतर्गत
अस्पताल के भवन के निर्माण तथा मशीनों एवं अन्य चिकित्सा यंत्रों आदि पर किया गया
व्यय निवेश व्यय के अंतर्गत आएगा जबकि अस्पताल के कर्मचारियों के वेतन पर खर्च
किया जाने व्यय उपभोग व्यय के अंतर्गत आएगा । ये दोनों ही तरह के व्यय विकास व्यय
के अंतर्गत आएँगे । तीसरे प्रकार का वर्गीकरण सामान्यतया योजना आयोग द्वारा किया
जाता है । योजना व्यय के अंतर्गत वे व्यय आते हैं जो चालू योजना के अंतर्गत
क्रियान्वित होने वाले कार्यक्रमों को पूरा करने के लिए किए जाते हैं । गैर योजना
व्यय में वे व्यय शामिल होते हैं जो वर्तमान योजनाओं से सम्बंधित नहीं होते ।
निष्कर्ष:- सार्वजनिक व्यय के उपरोक्त विभिन्न वर्गीकरणों के अध्ययन
से यह स्पष्ट है कि सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण करना एक जटिल प्रक्रिया है अब तक
प्रस्तुत किया गया सार्वजनिक व्यय का कोई भी वर्गीकरण संतोषजनक नहीं कहा जा सकता ।
इसका कारण यह है कि आज राज्य के कार्यों में इतना अधिक विस्तार हो चुका हैं है तथा
राज्य के विभिन्न कार्यों का क्षेत्र इतना अस्पष्ट रूप लिए हुए हैं कि सार्वजनिक
व्यय का कोई सुनिश्चित एवं युक्तिकारक वर्गीकरण करना सहज नहीं रह गया है । फिर भी
कहा जा सकता है कि सार्वजनिक व्यय का सबसे उपयुक्त वर्गीकरण वही है जो व्यय के उन
सार्वजनिक उद्देश्यों पर प्रकाश डालता है जिनसे अधिकतम् लोकहित की साधना होती है ।
डा0देवेंद्र प्रसाद
सहायक प्राध्यापक अर्थशास्त्र विभाग
संत कोलोम्बा महाविद्यालय, हजारीबाग