सार्वजनिक व्यय के प्रभाव (EFFECTS OF PUBLIC EXPENDITURE)

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प्राचीन अर्थशास्त्री सार्वजनिक व्यय को अनुत्पादक तथा अपव्ययपूर्ण समझते थे परन्तु आज उनकी यह धारणा निर्मूल सिद्ध हो चुकी है । प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उत्पन्न बेरोजगारी की समस्या तथा 1930 की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी ने सार्वजनिक व्यय के महत्व को आज पूर्णतया स्पष्ट कर दिया है । कीन्स की यह धारणा कि सार्वजनिक व्यय के माध्यम से प्रभावपूर्ण माँग में वृद्धि करके उत्पादन, आय एवं रोजगार के स्तर को ऊँचा उठाया जा सकता है, आज एक मत से स्वीकार की जाने लगी है । आज यह स्पष्ट हो चुका है कि सार्वजनिक व्यय वितरण की विषमताओं को कम करके, उत्पादन, आय एवं रोजगार में वृद्धि करके स्थिरता के साथ विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । इस सम्बन्ध में डॉ० डाल्टन का कथन है कि,  जिस प्रकार करारोपण को उत्पादन में कम से कम कमी करनी चाहिए, ठीक उसी प्रकार सार्वजनिक व्यय को उत्पादन में अधिक से अधिक वृद्धि करनी चाहिए ।  सार्वजनिक व्यय के प्रभावों का अध्ययन निम्न शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है:- (A) उत्पादन पर प्रभाव (B) वितरण पर प्रभाव (C) अन्य प्रभाव ।

(A) सार्वजनिक व्यय का उत्पादन एवं रोजगार पर प्रभाव (EFFECTS OF PUBLIC EXPENDITURE ON PRODUCTION AND EMPLOYMENT)

डॉ0 डाल्टन के अनुसार, सार्वजनिक व्यय का उत्पादन पर निम्न तीन प्रकार से प्रभाव पड़ता है -

1. काम करने तथा बचत करने की क्षमता पर प्रभाव,

2. काम करने तथा बचत करने की इच्छा पर प्रभाव,

3. आर्थिक साधनों के स्थानान्तरण पर प्रभाव ।

1. काम करने तथा बचत करने की क्षमता पर प्रभाव (Effects Upon Ability to Work and Save) :- सार्वजनिक व्यय से लोगों की कार्य करने तथा बचत करने की क्षमता बढ़ जाती है । जब सरकार सामाजिक एवं आर्थिक सुविधाओं के रूप में, जैसे- शिक्षा, स्वास्थ्य, वृद्धावस्था पेंशन, बेरोजगारी उन्मूलन कार्यक्रम, बेरोजगारी भत्ता आदि पर धन व्यय करती है तो इससे लोगों की आय बढ़ जाती है । सरकार के व्ययों में वृद्धि होने से उनका जीवन - स्तर ऊपर उठने लगता है । इससे उनके शारीरिक व मानसिक कल्याण में वृद्धि होती है । फलस्वरूप उनकी कार्यक्षमता व कार्यकुशलता में वृद्धि होती है । कार्यकुशलता में वृद्धि से उनकी आय में बढ़ोत्तरी होती है और इसतरह बढ़ी हुई आय उनकी बचत करने की क्षमता में वृद्धि कर देती है । डॉ० डाल्टन ने स्पष्ट शब्दों कहा है कि - “जिस प्रकार करारोपण व्यक्ति के काम करने की शक्ति को घटाता है, ठीक उसी प्रकार सार्वजनिक व्यय व्यक्ति के कार्य करने की शक्ति को बढ़ा देता है ।” 

इसतरह के व्यय तो गरीबों एवं उनके बच्चों के लिए बहुत लाभदायक होता है । बच्चों को बाल्यावस्था में ही यथेष्ट मात्रा में पैष्टिक भोजन तथा अनिवार्यता की अन्य वस्तुएँ मिलने से उनका स्वास्थ्य ठीक रहता है तथा युवावस्था में अधिक कार्यकुशल हो जाते हैं । वे यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि सार्वजनिक व्यय से लोगों की कार्यक्षमता में वृद्धि होगी कि नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि सरकारी धन जनता के पास किस रूप में पहुँचता है । यदि सरकार लोगों को धन नकद सहायता के रूप में देती है तो इससे उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि नहीं होगी, बल्कि यह बिना परिश्रम की आमदनी लोगों को निकम्मा और खर्चीला बना देगी । यह हो सकता है कि निर्धन व्यक्ति अपनी इस बढ़ी हुई आय को अपनी कार्यकुशलता बढ़ाने वाली वस्तुओं पर न खर्च करके शराब, जुआ आदि हानिकारक तथा कार्यकुशलता को घटाने वाले पदार्थों पर व्यय कर दे । इस प्रकार उनकी कार्य करने तथा बचत करने की शक्ति बढ़ने की अपेक्षा घट जाएगी । इसके विपरीत, यदि सरकार यह सहायता सस्ते मकानों, निःशुल्क शिक्षा एवं निःशुल्क चिकित्सा आदि के रूप में देती है तो इससे लोगों की कार्यकुशलता में निश्चित ही वृद्धि होगी तथा साथ ही साथ आय बढ़ने से उनकी बचत करने की क्षमता भी बढ़ जाएगी । इसतरह, राज्य अपने व्ययों द्वारा निर्धन व्यक्तियों को वस्तुएँ व सेवाएँ प्रत्यक्ष रूप से प्रदान करके उनकी कार्यक्षमता को बढ़ा सकता है ।

राज्य अपने व्यय द्वारा ऐसी सुविधाएँ प्रदान कर सकता है जिनकी सहायता से व्यक्ति अधिक अच्छी तरह उत्पादन कर सकता है । जैसे- रेल, सड़क, सिंचाई, विद्युत आदि के विकास पर व्यय प्रत्यक्ष रूप से उत्पादन को प्रोत्साहित करता है । बचत दो प्रकार से की जा सकती है, प्रथम - उपभोग को कम करके तथा द्वितीय - आय को बढ़ाकर । चूंकि सार्वजनिक व्यय से लोगों की क्रयशक्ति (आय) में वृद्धि होती है, अतः लोग अधिक बचत करने के लिए समर्थ हो जाते हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि सार्वजनिक व्यय का उत्पादन तथा बचत करने की शक्ति पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है ।

2. काम करने तथा बचत करने की इच्छा पर प्रभाव (Effects on Desire to Work and Save):- सार्वजनिक व्यय का लोगों के कार्य करने तथा बचत करने की इच्छा पर भी महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है इसका अध्ययन निम्न दो रूपों में किया जा सकता है:-

(A) वर्तमान व्यय का प्रभाव:- सरकार द्वारा किए जाने वाले वर्तमान व्यय से लोगों के काम करने व बचत करने की इच्छा को प्रोत्साहन मिलता है जिसके फलस्वरूप उनकी आय व जीवन स्तर में वृद्धि हो जाती है । इसके विपरीत, कुछ लोगों का मत है कि वर्तमान व्यय से व्यक्तियों की आय में वृद्धि होने की वजह से उनके काम करने तथा बचत करने की इच्छा कम हो जाती है क्योंकि वे कम काम करके ही पर्याप्त धन प्राप्त कर लेते हैं जिससे उनकी सारी आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं । परन्तु यह तर्क उचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि मनुष्य सदैव महत्वाकांक्षी होता है । वह प्रगति करने तथा ऊँचे जीवन स्तर की प्राप्ति हेतु सदैव तत्पर रहता है । इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं । यदि एक निश्चित जीवन स्तर प्राप्त करने के बाद व्यक्ति शिथिल हो जाता है, तो इस कठिनाई को उसकी आय में धीरे - धीरे वृद्धि करके दूर किया जा सकता है स्पष्टतया, सार्वजनिक व्यय से लोगों के काम करने तथा बचत करने की इच्छा में वृद्धि होती है ।

(B) भावी व्यय का प्रभाव:- सार्वजनिक व्यय से भविष्य में प्राप्त होने वाली लाभ की आशा लोगों के काम करने तथा बचत करने की इच्छा पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है । यदि लोगों को यह विश्वास हो जाय कि सरकार जिन मदों पर व्यय करती है उनसे सदा लाभ मिलता रहेगा अथवा भविष्य में भी सरकार इन मदों पर व्यय करती रहेगी तब लोगों में काम करने तथा बचत करने की इच्छा कम हो जाएगी क्योंकि उन्हें यह विश्वास है कि उनको मिलने वाला लाभ निश्चित रूप से मिलता रहेगा । उदाहरण के लिए - सामाजिक बीमा के अतंर्गत जब श्रमिकों को बीमारी, बेरोजगारी, दुर्घटना तथा वृद्धावस्था का लाभ मिलता रहेगा तब वे भविष्य के लिए कम बचत करेंगे क्योंकि उनके भविष्य की सुरक्षा हो चुकी है । हाँ ! यदि यह लाभ कुछ शर्तों के अधीन किए जाय, जैसे- श्रमिकों के अंशदान या चंदा देने पर, तब व्यक्तियों के काम करने तथा बचत करने की इच्छा पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा । इसतरह के व्यय के सम्बंध में डाल्टन का कथन है कि सच तो यह कि भले ही कितने नियम व शर्ते बना ली जाय । जब तक लोगों को यह आशा लगी रहती है कि आवश्यकता पड़ने पर सरकार से सहायता मिल जाएगी, तब तक उनके कार्य करने व बचत करने की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता । वे लिखते हैं- अतः जहाँ आय की मांग बेलोचदार होती है, वहाँ काम करने तथा बचत करने की इच्छा पर कुछ रोक अवश्य रहेगी ।

3. आर्थिक साधनों के स्थानांतरण पर प्रभाव (Effects on Diverson of Resources):- सार्वजनिक व्यय के फलस्वरूप आर्थिक साधनों का एक व्यवसाय अथवा क्षेत्र से दूसरे व्यवसाय अथवा क्षेत्र में स्थानान्तरण अथवा पुनर्वितरण होता है आर्थिक साधनों का स्थानांतरण दो प्रकार से हो सकता है प्रत्यक्ष तथा परोक्ष ।

            प्रत्यक्ष स्थानांतरण में राज्य व्यक्तियों के धन का उपयोग स्वयं करता है यदि राज्य ऐसा न करे तो यही धन व्यक्तियों द्वारा बिल्कुल ही भिन्न प्रकार से खर्च किया जाएगा । अतः राज्य प्रत्यक्ष स्थानांतरण द्वारा व्यक्तियों की उत्पादन क्षमता को बढ़ाता है । वह उन कार्यों पर व्यय करता है जिन पर लोग अपने व्यक्तिगत साधनों की कमी के कारण नहीं कर सकते, जैसे- सुरक्षा नागरिक प्रशासन, समाजिक सेवाओं, सिंचाई परियोजनाओं, खाद व सीमेन्ट के कारखानों, रेल व सड़क यातायात आदि पर किया जाने वाला व्यय ।

            परोक्ष स्थानांतरण में राज्य व्यक्तियों के धन का उपयोग स्वयं नहीं करता बल्कि व्यक्तियों में इस बात के लिए रुचि पैदा कर देता है कि वे अपने धन को खर्च करने का ढंग बदल दें । सड़कों तथा रेलों के निर्माण से व्यक्ति उन स्थानों पर भी व्यापार तथा उद्योग शुरू कर देते हैं जहाँ पहले नहीं करते थे इसका कारण यह है कि लोग सड़कों तथा रेलों के माध्यम से आसानी से माल एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जा सकते हैं । इसीतरह विद्युत शक्ति के विकास से व्यक्तियों में यह इच्छा उत्पन्न हो सकती है कि वे अपना धन अन्य तरह से न व्यय करके उद्योगों को खोलने में लगाएँ । सरकार के कुछ व्यय इस प्रकार के होते हैं जिससे उत्पादन के साधन वर्तमान उपयोगों से भावी उपयोगों में स्थानांतरित हो जाते हैं, जैसे- सरकार जब रेलवे, यातायात, संचार, सिंचाई तथा शक्ति आदि के विकास की योजना बनाती है तो इससे देश में स्थायी पूंजी में वृद्धि होती हैं तथा भावी उत्पादन शक्ति का विकास होता है ।

            साधनों के स्थानांतरण के सम्बंध में इस बात को भी स्पष्ट किया जा सकता है कि जब साधनों को मानवीय संसाधनों के विकास की ओर स्थानांतरित किया जाता है तब उत्पादन के स्तर में अनुकूल प्रभाव दिखाई देने लगता है । इस संदर्भ में डाल्टन का कथन है कि “जब सरकार स्वास्थ्य, सुरक्षा तथा मकानों पर व्यय करती है या बच्चों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान करती है तो यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण विनियोग होता है जो भौतिक पूंजी के स्थान पर मानव पूँजी की निर्माण करता है ।”  इसीतरह, हैन्सन का मत है कि -वर्तमान समय में पहले की अपेक्षा, अभौतिक सम्पत्ति जैसे - वैज्ञानिक ज्ञान, योग्यता, तकनीकी प्रशिक्षण, व्यक्तिगत स्वास्थ्य एवं कार्यक्षमता, सामाजिक एकता तथा सहयोग स्थापित करने की क्षमता अधिक महत्व रखती है ।”

            प्राचीन अर्थशास्त्री इसतरह के स्थानांतरण को अनावश्यक ही नहीं बल्कि हानिप्रद भी मानते थे । उनकी धारणा थी कि स्वतंत्र उपक्रम अर्थव्यवस्था (पूंजीवादी अर्थव्यवस्था) में कीमतयंत्र की धारणा तथा स्वहित की भावना के फलस्वरूप साधनों का बँटवारा सर्वोत्तम ढंग से होता है । राज्य द्वारा किया जाने वाला प्रत्येक हस्तक्षेप इस आवंटन को दोषपूर्ण बनाकर उत्पादन को कम कर देगा । परन्तु आज यह विचारधारा निर्मूल सिद्ध हो चुकी है । अब यह स्वीकार किया जाने लगा है कि राज्य के हस्तक्षेप के कारण साधनों का पुनर्वितरण उत्पादन की मात्रा में वृद्धि करके समाज के लिए लाभदायक हो सकता है । उदाहरण के लिए - सरकार जब कोई नया उद्योग स्थापित करती है, विद्यमान उद्योगों को संरक्षण, अनुदान अथवा सहायता प्रदान करती हैं, पिछड़े एवं अविकसित क्षेत्रों में पूंजीगत विनियोग करता है तो इसके फलस्वरूप आर्थिक संसाधनों को पुनर्वितरण होता है जो वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन को निश्चित रूप से बढ़ाता है । इस तरह, उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि सार्वजनिक व्यय का उत्पादन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है ।

 (B) सार्वजनिक व्यय का वितरण पर प्रभाव (EFFECTS OF PUBLIC EXPENDITURE ON DISTRIBUTION)

            सार्वजनिक व्यय समाज में व्याप्त धन के वितरण की असमानता को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । डाल्टन के अनुसार, सार्वजनिक व्यय की वह पद्धति श्रेष्ठ मानी जाती है जो आय की असमानता को कम करने की शक्शिाली क्षमता रखती हो ।” इस कथन के अनुसार सरकार को अपनी व्यय नीति इस प्रकार बनानी चाहिए कि उससे निर्धनों को अधिक लाभ पहुँचे तथा इस व्यय की पूर्ति अमीरों से कर के रूप में की जाय । राष्ट्रीय कल्याण की दृष्टि से भी यह विचार उचित प्रतीत होता है । यदि आय से प्राप्त होने वाली उपयोगिता के आधार पर राष्ट्रीय कल्याण की व्याख्या की जाय तो यह स्पष्ट होता है कि आय की असमानता के फलस्वरूप राष्ट्रीय कल्याण में कमी आ जाती है । यह व्याख्या इस तथ्य पर आधारित है कि जैसे - जैसे किसी व्यक्ति के पास निरंतर आय की मात्रा बढ़ती जाती है तो एक निश्चित सीमा के बाद उससे मिलने वाली उपयोगिता क्रमशः घटने लगती है । स्पष्टतया आय की सीमांत उपयोगिता धनी व्यक्तियों की अपेक्षा गरीबों में अधिक होती है । इसतरह, यदि धनी व्यक्तियों की आय निरंतर बढ़ती रहती है तो कुल राष्ट्रीय कल्याण में कमी आएगी । इसके विपरीत यदि यही आय निर्धन व्यक्तियों को प्राप्त होती है तो समाज के कुल कल्याण में वृद्धि होगी । यही कारण है कि आधुनिक सरकारों ने राजस्व की क्रियाओं द्वारा धन की असमानताओं को दूर करने के लिए विशेष प्रयत्न किए हैं सरकार धन वितरण में समानता स्थापित करने के लिए कराधान करती है और विशेष दशाओं में व्यय सम्पन्न करती है । कराधान द्वारा धनी व्यक्तियों के धन को कम करती है तथा व्यय द्वारा निर्धनों के धन को बढ़ाती है ।

            पीगू के अनुसार, कोई भी कार्य जो गरीबों की वास्तविक आय के कुल भाग में वृद्धि करता हो बशर्ते किसी भी दृष्टिकोण से राष्ट्रीय आय के आकार में कमी न आए, सामान्यतया आर्थिक कल्याण में वृद्धि करेगा।” इसतरह, पीगू ने मत व्यक्त किया कि लोक कल्याण में वृद्धि राष्ट्रीय लाभांश के वितरण द्वारा समाज में धन की असमानता को दूर करके की जा सकती है ।

            सरकार धन के वितरण की असमानता को दो प्रकार से दूर कर सकती है करारोपण द्वारा तथा सार्वजनिक व्यय द्वारा । यद्यपि यह दोनों क्रियाएँ एक - दूसरे पर अवलम्बित हैं, परन्तु यहाँ हम अपना अध्ययन सार्वजनिक व्यय के प्रभावों तक सीमित रखेंगे । धन के वितरण पर सार्वजनिक व्यय के पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करते समय डाल्टन ने करों की ही भाँति सार्वजनिक व्यय को भी तीन प्रकार का बताया है:-

1. प्रतिगामी व्यय (Regressive Expenditure):- कोई राजकीय व्यय प्रतिगामी तब कहा जाएगा जब व्यय होने पर कम आय वालों को लाभ कम तथा अधिक आय वालों को अधिक लाभ प्राप्त होता है ।

2. आनुपातिक व्यय (Proportional Expenditure):- यदि विभिन्न वर्गों को उनकी आय के अनुपात में ही सार्वजनिक व्यय से लाभ प्राप्त होता है तो इस व्यय को आनुपातिक व्यय कहते हैं ।

3. प्रगतिशील व्यय (Progressive Expenditure):- किसी वर्ग की आय जितनी ही कम है, सार्वजनिक व्यय से प्राप्त होने वाले लाभ का अनुपात उसे उतना ही अधिक मिलता है तो व्यय प्रगतिशील होगा ।

उदाहरण- यदि महंगाई भत्ते की दर आय बढ़ने के साथ - साथ बढ़ती जाय तब यह प्रतिगामी व्यय होगा । यदि सभी आय वर्ग के लिए महँगाई भत्ते की दर समान अथवा स्थिर है तो यह आनुपातिक व्यय होगा । यदि आय बढ़ने के साथ - साथ महँगाई भत्ते की दर कम होती जाय तथा एक निश्चित आय के बाद महँगाई भत्ता न बढ़े तब यह व्यय प्रगतिशील होगा ।

            उपरोक्त तीनों प्रकार के व्ययों में प्रतिगामी व्यय से आर्थिक असमानता घटने के बजाय बढ़ जाएगी । आनुपातिक व्यय भी असमानताओं को दूर करने में सफल नहीं होगा । प्रगतिशील व्यय ही धन के वितरण की असमानताओं को बहुत हद तक दूर कर सकता है । अतः सामाजिक कल्याण की दृष्टि से आवश्यक है कि सार्वजनिक व्यय में प्रगतिशील अनुदान की नीति का पालन किया जाय ।

प्रगतिशील व्यय के निम्र रूप हो सकते हैं:-

(A) नकदी के रूप में आर्थिक सहायता (Cash Grants):- नकदी के रूप में आर्थिक सहायता जैसे वृद्धावस्था पेन्सन, दुर्घटना लाभ, बेकारी एवं बीमारी लाभ आदि । ऐसी आर्थिक सहायता देने के लिए अनेक देशों ने आज कानून भी बना लिए हैं । उदाहरण के लिए भारत में राज्य कर्मचारी बीमा योजना, रेल व हवाई दुर्घटना, लाभ तथा अमेरिका में रोजगार कानून आदि ।

(B) निःशुल्क या सस्ती वस्तुएँ एवं सेवाएँ प्रदान करना (Free or cheap goods and services):- नकदी सहायता प्रदान करने के साथ - साथ सरकार निर्धन व्यक्तियों को निःशुल्क या सस्ती वस्तुएँ तथा सेवाएँ भी उपलब्ध कराती है, जैसे- निःशुल्क शिक्षा तथा चिकित्सा सुविधाएँ, सस्ता मकान, अनाज तथा स्कूल में बच्चों को मुफ्त पौष्टिक आहार आदि । निर्धन वर्ग को इसतरह की सुविधाएँ उपलब्ध कराकर आय की असमानता को कम किया जा सकता है तथा उनके जीवन स्तर को ऊँचा उठाया जा सकता है ।

(C) व्यक्तियों की आवश्यकताओं से समायोजन ( Adjustment to Individual Needs ):- धन के वितरण की असमानता को कम करने का एक तरीका यह भी है कि सार्वजनिक व्यय व्यक्तियों की आवश्यकता के अनुसार किया जाय । जैसे- व्यक्तियों के परिवार के आकार के अनुरूप उसे आर्थिक सहायता प्रदान की जाय। बड़े परिवार को आर्थिक सहायता अधिक तथा छोटे परिवार को कम दी जा सकती हैं परन्तु इस रीति में बहुत सी व्यावहारिक कठिनाईयाँ हैं । अतः उचित यही होगा कि सरकार को सदैव नकद सहायता के स्थान पर सस्ती अथवा निःशुल्क सेवाओं के रूप में दी जाने वाली सहायता को ही प्राथमिकता देनी चाहिए क्योंकि नकद सहायता का अपव्यय हो सकता है तथा उससे काम करने की इच्छा पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है ।

            इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का तर्क है कि सार्वजनिक व्यय से लोगों को अधिक सुविधाएँ मिलने से उनकी काम करने तथा बचत करने की इच्छा कम हो जाती है, परिणामस्वरूप इन सेवाओं से यदि तरफ धन के वितरण में समानता आती है, तो दूसरी तरफ उत्पादन कम होने लगता है और राष्ट्रीय आय कम हो जाती है जिससे प्रति व्यक्ति आय भी गिरने लगती है । इसके अतिरिक्त, सार्वजनिक व्यय को पूरा करने के लिए भारी करारोपण करना पड़ता है जिससे उत्पादन हतोत्साहित होता है ।

            वितरण पर सार्वजनिक व्यय के पड़ने वाले प्रभावों पर विचार व्यक्त करते हुए प्रो० लुट्ज ने लिखा है कि, धन के वितरण को समान करने वाली नीति को स्थायी रूप देने पर देश को हानि ही होगी क्योंकि इस उद्देश्य हेतु सरकार को अधिकांश व्यय अनुत्पादक कार्यों पर करना पड़ेगा, जिससे पूँजी निर्माण तथा उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा । परन्तु लुट्ज का यह विचार तर्कसंगत नहीं है क्योंकि मानव पूंजी के विकास पर किया जाने वाला कोई भी व्यय उत्पादन व आर्थिक विकास को अवरुद्ध नहीं कर सकता । जहाँ तक पूँजी संचय का प्रश्न है, हो सकता है कि इससे थोड़े बहुत पूँजीपतियों की बचत करने और कार्य करने की क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़े परन्तु दूसरी तरफ इस नीति से समाज के एक बहुत बड़े वर्ग की व्यय करने तथा बचत करने की क्षमता में वृद्धि करने की क्षमता में वृद्धि अवश्य हो जाएगी । इस सम्बंध में व्युहलर का कथन है कि, धन के वितरण की असमानताओं को कम करने के लिए सरकार को गरीबों पर उदारतापूर्वक व्यय तथा धनी वर्ग पर अधिक करारोपण की नीति को कुछ समय तक लागू करना ही होगा ।” धन के पुनर्वितरण का समर्थन करते हुए कीन्स ने तर्क दिया है कि, गरीबों में धनी व्यक्तियों की अपेक्षा उपभोग करने की प्रवृत्ति अधिक होती है, अतः जब धनी व्यक्तियों से धन लेकर गरीबों पर व्यय किया जाएगा तो देश में कुल व्यय किए हुए धन की मात्रा में वृद्धि होगी और देश में कुल उत्पादन तथा रोजगार की मात्रा में वृद्धि हो जाएगी ।

 (C) सार्वजनिक व्यय के अन्य प्रभाव (OTHER EFFECTS OF PUBLIC EXPENDITURE):- सार्वजनिक व्यय के अन्य प्रभावों को निम्नवत् व्यक्त किया जा सकता है:-

1. सार्वजनिक व्यय और मंदीकाल (Public Expenditure and Depression):- मंदीकाल में आर्थिक क्रियाओं में व्यापक निराशा का वातावरण उत्पन्न हो जाता है । वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन, रोजगार, आय, माँग तथा कीमतों में पर्याप्त कमी आ जाती है । वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्यों में गिरावट आने से उत्पादकों को हानि होने लगती है जिससे वे अपने कारोबार को समेटने लगते हैं तथा नए कारोबार भी शुरू नहीं करते । इस क्रिया से कल-कारखानों में छँटनी होने लगती है । रोजगार के अवसर बंद होने से बेरोजगारी बढ़ने लगती है । इससे मांग और कम हो जाती है, उत्पादन और नीचे गिरता है तथा बेरोजगारी बढ़ने लगती है । मंदीकाल दुर्भाग्य के बीज बो देता है । इसतरह, प्रभावपूर्ण मांग में कमी के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली बेरोजगारी का विषैला चक्र धीरे-धीरे विस्तृत होने लगता है तथा सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को अपने शिकंजे में जकड़ लेता है परन्तु मंदी और बेरोजगारी का यह विषैला चक्र सार्वजनिक व्यय के माध्यम से तोड़ा जा सकता है ।

            मंदीकाल में लोगों की क्रयशक्ति में आई कमी से मांग में कमी आती है । ऐसी दशा में सरकार को सार्वजनिक व्यय की ऐसी नीति अपनानी चाहिए ताकि लोगों की क्रय शक्ति में बढ़ोत्तरी हो सके । यदि सार्वजनिक व्यय द्वारा लोगों की क्रयशक्ति को बढ़ाया जा सके, तो यह मंदी को समाप्त करने वाला हो सकता है। कीन्स का मत है कि सार्वजनिक व्यय में वृद्धि करके मंदी काल में व्याप्त बेरोजगारी को दूर किया जा सकता है । मंदी से छुटकारा प्राप्त करने के लिए सरकार सार्वजनिक निर्माण कार्य शुरू कर सकती है या कुछ नए उद्योगों का स्वयं संचालन कर सकती है । सरकार को चाहिए कि उन बड़ी-बड़ी परियोजनाओं पर धन व्यय करे जिनमें लम्बी अवधि के पश्चात् उत्पादन प्रारंभ हो । इसतरह लगातार व्यय होने से मुद्रा का चलन वेग बढ़ेगा जिससे कुल क्रयशक्ति में वृद्धि होगी । इससे अतिरिक्त सरकार यातायात के साधनों, जैसे - रेल, सड़क निर्माण आदि पर खर्च कर सकती है । इससे लोगों को रोजगार प्राप्त होगा जिसके कारण उनकी आय बढ़ेगी, आय बढ़ने से उपभोग में वृद्धि का अर्थ है माँग में वृद्धि, माँग में वृद्धि होने पर उत्पादन में वृद्धि होती है । इससे लोगों को रोजगार मिलने लगता है । इसतरह, आय एवं रोजगार में वृद्धि का यह सकारात्मक चक्र, अर्थव्यवस्था को मंदी के चंगुल से मुक्त कर देता है ।

            निजी व्यय की कमी को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा जो व्यय किया जाता है उस सार्वजनिक व्यय को 'क्षतिपूरक व्यय' (Compensatory expenditure) कहा जाता है । टेलर के अनुसार, क्षतिपूरक व्यय का अर्थ यह है कि आय का वांछित स्तर पर लाने के लिए निजी व्यय की कमी को सरकारी व्यय द्वारा पूरा किया जाय ।”

            यदि सरकार यह देखती है कि इस पूरक व्यय से वांछित सफलता नहीं प्राप्त हो रही हैं तब सरकार आय एवं रोजगार में वृद्धि के लिए एक बड़े पैमाने पर 'पूरक व्यय' करती है जिसे 'पम्प प्राइमिंग व्यय' (Pump Priming Expenditure) कहते हैं । इस व्यय नीति का स्वरूप भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न होता है । मंदी काल में सार्वजनिक निर्माण कार्यों पर सरकारी व्यय बहुत अधिक किया जाना चाहिए । पुनरुत्थानकाल में सरकारी व्यय उसी अनुपात में कम होते जाना चाहिए जिस अनुपात में निजी व्यय बढ़ रहा हो तथा समृद्धिकाल में सार्वजनिक व्यय को बिल्कुल कम कर देना चाहिए ताकि बजट में आधिक्य प्राप्त हो ।

            मंदीकाल में होने वाले सार्वजनिक व्यय को तीन भागों में बाँटा जा सकता है:-

(A) उपभोग को प्रभावित करने वाले व्यय:- मंदी काल में प्रभावपूर्ण मांग में कमी रहती है जिसके फलस्वरूप उपभोग का स्तर काफी नीचा रहता है । अतः सरकार को उन व्यक्तियों की सहायता हेतु प्रत्यक्ष धन व्यय करना चाहिए जिनके आय का स्तर काफी नीचा रहता है । उदाहरणार्थ- लोगों को वृद्धावस्था पेन्शन, बेकारी भत्ता, दिव्यांगों को सहायता आदि के रूप में आर्थिक सहायता देकर उनकी प्रभावी मांग को बढ़ाने का प्रयास किया जा सकता है ।

(B) निजी विनियोग को प्रभावित करने वाले व्यय:- प्रभावपूर्ण मांग में कमी का दूसरा मुख्य कारण निजी विनियोग में कमी का होना है । इससे बेरोजगारी में वृद्धि होती हैं । अतः सरकार को ऐसा प्रयास करना चाहिए जिससे कि निजी विनियोजन प्रोत्साहित हो । इसके लिए निम्न कार्य किया जा सकता है:-

 (i) निजी विनियोजन को प्रेरित करने के लिए सरकार को अपनी नीति के द्वारा ब्याज की दर कम कर देनी चाहिए ।

(ii) सीमांत उद्योगों को आर्थिक सहायता प्रदान की जानी चाहिए ताकि वे उत्पादन प्रक्रिया में बने रहें ।

(iii) उद्योगों के नवीनीकरण के लिए आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए ।

(C) सार्वजनिक विनियोग:- मंदी काल में बेरोजगारी को रोकने के लिए सरकार को सार्वजनिक व्यय में वृद्धि कर प्रभावपूर्ण मांग में वृद्धि का प्रयास करना चाहिए । इसके लिए सार्वजनिक व्यय निम्न प्रकार का हो सकता है:-

(i) लीफ रैकिंग व्यय (Leaf Racking Expenses):- सार्वजनिक व्यय के माध्यम से जनता के हाथ में क्रयशक्ति देकर माँग में वृद्धि करने के लिए यदि सरकार के पास उत्पादक कार्य न हो तो उसे अनुत्पादक कार्यो में ही व्यय करना चाहिए ताकि लोगों की क्रयशक्ति बढ़े तथा मांग का सृजन हो । कीन्स ने विकसित राष्ट्रों की समस्या के समाधान के लिए यहाँ तक सुझाव दिया था कि यदि विकास कार्य करने को न हो तो भी सरकार को गड्ढे खुदवाने चाहिए तथा पुनः उसे मिट्टी से पटवाना चाहिए । ऐसा करने से लोगों को कुछ रोजगार मिलेगा जिससे उनकी क्रयशक्ति बढ़ जाएगी ।

(ii) सामाजिक कल्याण के लिए विनियोग:- स्कूल, सड़क, पुल, बांध आदि का निर्माण करना । इसके अतिरिक्त विकासशील देशों में विकास की अनेक संभावनाएँ हो सकती हैं जैसे- कृषि, सिंचाई, नदी घाटी योजना आदि पर व्यय करके उत्पादन व रोजगार को बढ़ाया जा सकता है ।

(iii) उत्पादक उद्योगों के लिए विनियोग:- जब सरकार सार्वजनिक क्षेत्र में उद्योग खोलती है तो उससे लोगों को रोजगार प्राप्त होता है जिससे उनकी आय बढ़ती है तथा उपभोग वस्तुओं की मांग में वृद्धि होती है इसतरह, सार्वजनिक व्यय मंदी को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । आय के स्तर एवं रोजगार की मात्रा पर सार्वजनिक व्यय के पड़ने वाले प्रभाव को निम्न रेखाचित्र द्वारा भी स्पष्ट किया जा सकता है :-

उपर्युक्त चित्र में OX- अक्ष पर राष्ट्रीय आय तथा OY- अक्ष पर उपभोग तथा विनियोग की मांग प्रदर्शित की गयी है । OS आय रेखा है जो उपभोग व विनियोग रेखा ( C + I ) को E बिन्दु पर काटती । अतः E संतुलन का बिन्दु है तथा OY आय का संतुलन स्तर है । यदि सरकार द्वारा किसी तरह का व्यय नहीं किया जाता तब रोजगार का स्तर OY आय के बराबर होगा । मान लिया सरकार अपना व्यय - विनियोग EK के बराबर बढ़ा देती है । इससे माँग वक्र C + 1 से बढ़कर C + I + G हो जाएगा । नया संतुलन बिन्दु E1 होगा तथा राष्ट्रीय आय OY से बढ़कर OY1 स्तर पर पहुँच जाएगी । इसके फलस्वरूप रोजगार का स्तर, आय वृद्धि के अनुपात में बढ़कर OY से OY1 हो जाएगा ।

            इस प्रकार स्पष्ट है कि मंदी काल में सार्वजनिक व्यय के द्वारा आय व रोजगार के स्तर में वृद्धि की जा सकती है । इससे लोगों की क्रयशक्ति बढ़ेगी, समग्र मांग में वृद्धि होगी । मांग बढ़ने के फलस्वरूप उत्पादन एवं रोजगार बढ़ेगा तथा अर्थव्यवस्था अवसाद या मंदी के गर्त से बाहर निकल जाएगी । इस सम्बंध में कीन्स ने सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही कि सरकार जितना व्यय करेगी, आय में उतनी ही वृद्धि नहीं होगी बल्कि गुणक प्रभाव के कारण आय में सार्वजनिक व्यय की कई गुना वृद्धि होगी । इसप्रकर, कम व्यय से ही बहुत अधिक लाभ मिलेगा । गुणक प्रभाव के कारण आय में वृद्धि  ΔY = K. ΔI होगी ।

            जहाँ ;

                        K = गुणक ,

                        ΔY = आय में वृद्धि तथा

                        ΔI = सार्वजनिक व्यय में वृद्धि ।

परन्तु, मंदी काल में सार्वजनिक व्यय की उक्त नीति तभी सफल हो सकती है जब निम्न बातों को ध्यान में रखा जाय:-

(i) सरकार बढ़े हुए व्यय की व्यवस्था हीनार्थ प्रबंधन से करे क्योंकि अत्यधिक करारोपण से लोगों की क्रयशक्ति में कमी आ जाएगी जिससे आर्थिक क्रिया बाधित होगी ।

(ii) सरकार द्वारा व्यय की पूर्ति बैंक से ऋण लेकर की जानी चाहिए, व्यक्तियों से नहीं ।

(iii) सरकार द्वारा व्यक्तियों को जो आर्थिक सहायता प्रदान की जाय उसे उन्हें तुरंत व्यय कर देना चाहिए ।

(iv) जनता को सरकार की क्षमता पर विश्वास रहना चाहिए ।

(v) सरकार को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि क्षतिपूरक व्यय, निजी व्यय का स्थानापन्न नहीं हो सकता । अतः सरकार द्वारा निजी क्षेत्र को सहायता देनी चाहिए ।

2. सार्वजनिक व्यय और मुद्रास्फीति (Public Expenditure and Inflation):- एक विकसित अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक व्यय का प्रयोग मुद्रा प्रसार को नियंत्रित करने के लिए भी किया जा सकता है । मुद्रास्फीति काल में वस्तुओं एवं सेवाओं की अपेक्षा चलन में मुद्रा एवं साख की मात्रा अधिक होती है । अन्य शब्दों में, अर्थव्यवस्था में वस्तुओं एवं सेवाओं की पूर्ति की तुलना में मुद्रा की पूर्ति अथवा क्रयशक्ति अधिक होती है । परिणामस्वरूप मूल्यों में वृद्धि दृष्टिगोचर होती है । ऐसी दशा में यदि सार्वजनिक व्यय कम कर दिये जाय तो मुद्रास्फीति पर काफी हद तक नियंत्रण लगाया जा सकता है । सरकारी व्यय को कम करने के लिए कई उपाय किए जा सकते हैं, जैसे-

(i) सरकार व्यय के ढाँचे में इस प्रकार हेर - फेर करे कि मुद्रा प्रसार का दबाव कम हो जाय अर्थात् वह उन सब योजनाओं को बंद कर दे जो मुद्रा संकुचन की परिस्थिति के लिए उचित थीं परन्तु मुद्रा प्रसार की स्थिति के लिए अनुपयुक्त हैं ।

(ii) सरकार ऐसी वस्तुओं के उत्पादकों को आर्थिक सहायता प्रदान कर सकती है जिनकी कीमतें बढ़ रही हैं ताकि वे उन वस्तुओं के उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रेरित हों अथवा उन्हें नीची कीमत पर बेचें ।

            जहाँ तक इस उपाय का सम्बंध है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि सरकार द्वारा दी गयी आर्थिक सहायता मुद्रास्फीति की अवस्था को नियंत्रित करने में सफल होगी । अतः उचित होगा कि सरकार अपने व्यय को स्थगित करें । तेजी काल में जब निजी क्षेत्र का व्यय स्तर तेजी के साथ बढ़ता जाता है, सरकारी खर्च नकारात्मक हो जाना चाहिए, अर्थात् कराधान अधिक हो तथा व्यय कम, विशेष कर उस व्यय को अवश्य बंद कर देना चाहिए जिससे लोगों की आय तो बढ़ती हो लेकिन उस व्यय सम्बंधित वस्तुओं के उत्पादन में कोई विशेष वृद्धि न होती हो । सरकार को चाहिए कि स्फीतिकाल में केवल ऐसे क्षेत्र में पूंजी विनियोग करे जिनसे उत्पादन में तत्काल और यथेष्ट मात्रा में वृद्धि हो तथा वस्तुओं की स्वल्पता समाप्त हो जाय । इसतरह स्पष्ट है कि सार्वजनिक व्यय में वृद्धि करके मंदी से बचा जा सकता है तथा सार्वजनिक व्यय में कमी करके मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखा जा सकता है ।

सार्वजनिक व्यय और आर्थिक विकास (PUBLIC EXPENDITURE AND ECONOMIC GROWTH)

            विकसित देशों की मुख्य समस्या 'आर्थिक स्थिरता' को बनाए रखना होता है और इस दृष्टि से सार्वजनिक व्यय मंदी व तेजी को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । इसके विपरीत, विकासशील देशों की मुख्य समस्या तेजी के साथ आर्थिक विकास करना होता है । पूँजी की कमी विकासशील देशों के आर्थिक विकास हेतु आधारभूत संरचना जैसे- यातायात, दूर-संचार, रेल, सड़क तथा शक्ति योजनाओं के विकास, कृषि हेतु सिंचाई एवं अन्य सुविधाओं के विकास, औद्योगीकरण तथा लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध कराने, नवीन तकनीकों को उपलब्ध कराने आदि सब कार्यों के लिए वित्तीय साधनों की आवश्यकता पड़ती है । हम जानते हैं कि अल्पविकसित देशों के पिछड़ेपन का मुख्य कारण पूंजीगत साधनों व तकनीकी ज्ञान का अभाव है । ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो जाता है कि आर्थिक विकास को गति प्रदान करने हेतु अतिरिक्त उत्पादन का बढ़ता हुआ अनुपात, पूंजी निर्माण के काम में लाया जाय । इसके लिए सरकार को अपने बजट में दो परिवर्तन करने चाहिए । एक सरकार को अपना बजट बढ़ाना चाहिए ताकि बढ़ी हुई राशि को विकास कार्यों में प्रयुक्त किया जा सके तथा दो सार्वजनिक आय का अधिक से अधिक भाग विकास कार्यों पर लगाया जाना चाहिए ।

            आर्थिक विकास के लिए पर्याप्त पूंजी की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति अकेले निजी क्षेत्र नहीं कर सकता । अतः इस कमी को पूरा करने के लिए सरकारी व्यय को क्षतिपूरक व्यय की भूमिका निभानी पड़ती है । फलतः दिन प्रतिदिन सार्वजनिक व्यय का महत्व बढ़ता जा रहा है । आधारभूत उद्योगों के विकास एवं सामाजिक कल्याण से सम्बंधित क्षेत्रों में व्यय करने से लोग हिचकते हैं क्योंकि-

(1) ऐसे मदों पर व्यय की जाने वाली राशि बहुत अधिक होती है,

(ii) ऐसे उपक्रमों से लाभ प्राप्त करने की संभावना कम रहती है,

(iii) इससे लाभ मिलने में पर्याप्त समय लग जाता है ।

            अतः सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा ही ऐसे मदों पर विशाल मात्रा में धन व्यय किया जा सकता है ।

            साथ ही आर्थिक विकास के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु सार्वजनिक व्यय की रूपरेखा को बदलना होगा । जैसे- (i) प्रशासन सम्बंधी व्यय को कम करना चाहिए और उसको अधिक कार्यकुशल बनाया जाना चाहिए । (ii) अल्पविकसित देशों में सुरक्षा पर व्यय कम करके विकास की योजनाओं पर अधिक व्यय करना चाहिए, (iii) आर्थिक विकास के लिए सामाजिक व सांस्कृतिक मदों पर व्यय किया जाना चाहिए । इसके अतिरिक्त ऐसे उद्योग, जिनमें जोखिम अधिक होने के कारण निजी पूंजीपति उन पर व्यय - विनियोग करने के लिए तैयार नहीं होते, सरकार को अपने हाथ में ले लेने चाहिए । इस सम्बंध में रैगनर नर्क्स ने लिखा है कि,  अल्पविकसित देशों में राज्य को साहसियों की भूमिका अदा करनी चाहिए जिनका इन देशों में प्रायः अभाव होता है ।” स्टीग्लर ने भी इसी तरह का मत व्यक्त करते हुए कहा है कि, सरकार बहुत से कार्य स्वयं करके स्वयं साहसियों की कमी पूरा कर सकती है, जो कार्य इस वर्ग (साहसियों) के द्वारा किए जा सकते थे ।” परन्तु ध्यान रहे, सार्वजनिक व्यय निजी क्षेत्र के पूरक के रूप में होना चाहिए न कि प्रतियोगी रूप में, अन्यथा अन्य मोर्चे पर आर्थिक विकास लड़खड़ा जाएगा मात्र सार्वजनिक व्यय से समग्र आर्थिक विकास नहीं किया जा सकता, अतः निजी क्षेत्र को भी साथ लेकर चलना होगा । इस प्रकार, निजी व सार्वजनिक क्षेत्र को एक दूसरे के पूरक के रूप में कार्य कर आर्थिक विकास के कार्यक्रम को सम्पन्न किया जाना चाहिए । स्पष्टतया, व्यय का मुख्य उद्देश्य निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना होना चाहिए । इसके लिए निम्न बातों को लागू किया जा सकता है:-

(i) निजी क्षेत्र को उनकी आवश्यकतानुसार ऋण तथा आर्थिक सहायता प्रदान करना ।

(ii) निजी उद्योगों को कम ब्याज दर पर पर्याप्त धन उपलब्ध कराने के लिए सरकार द्वारा वित्तीय संस्थाओं की स्थापना करना ।

(iii) निजी उद्योगों पर से कर को कम कर देना चाहिए ।

(iv) यातायात के साधनों तथा मानव संसाधन विकास पर पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए । संक्षेप में, सार्वजनिक व्यय अल्पविकसित देशों के आर्थिक विकास में निम्नवत् योगदान देता है :-

1. आधारभूत संरचना का विकास:- किसी भी देश के आर्थिक विकास के लिए आधारभूत संरचना का निर्माण जैसे- यातायात, संवादवाहन, शक्ति व सिंचाई आदि का होना जरूरी है । चूँकि इन सब विकास कार्यों के लिए बड़ी मात्रा में पूँजी की आवश्यकता होती है जो निजी साधनों द्वारा पूरी नहीं हो पाती, इसलिये सरकार इनकी पूर्ति अपने साधनों से करती है ।

2. मानव पूँजी निर्माण:- सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा व तकनीकी प्रशिक्षण पर बड़ी मात्रा में व्यय करके देश में मानव पूंजी के निर्माण में भी सहयोग देती है जोकि आर्थिक विकास की एक आवश्यक शर्त है ।

3. सन्तुलित विकास:- सन्तुलित विकास से आशय सभी क्षेत्रों का समान ढंग से विकास करना है ताकि देश का कोई भी क्षेत्र दूसरों की तुलना में पिछड़ा व उपेक्षित न बना रहे पिछड़े क्षेत्रों के विकास पर होने वाला सारा व्यय विनियोग सरकार द्वारा किया जाता है क्योंकि यह उत्तरदायित्व राज्य का ही माना गया है ।

4. आर्थिक सहायता एवं अनुदान:- आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए सरकार निजी क्षेत्र के साहसियों को प्रोत्साहन देने के लिए आर्थिक सहायता व अनुदान प्रदान करती है ताकि उत्पादन एवं निर्यात के लक्ष्य पूरे किये जा सकें ।

5. कृषि एवं औद्योगिक विकास:- अल्पविकसित देशों में सरकार को कृषिगत विकास हेतु शक्ति, सिंचाई, उर्वरक व भंडार गृहों के निर्माण पर भारी मात्रा में व्यय करना पड़ता है । इसी प्रकार औद्योगिक विकास की दृष्टि से सरकार द्वारा भारी उद्योगों की स्थापना पर भी विशाल धन राशि का विनियोग किया जाता है ।

6. खोज और अनुसंधान:- सरकार को खोज एवं अनुसंधान पर भी बड़ी मात्रा में व्यय करना पड़ता है । विशेष रूप से, खनिज साधनों की खोज और उनके शोषण पर सरकार के बजट बड़ा भाग व्यय हो जाता है ।

 सार्वजनिक व्यय एवं रोजगार (PUBLIC EXPENDITURE AND EMPLOYMENT)             अल्पविकसित देशों में व्यापक रूप से बेरोजगारी की स्थिति पाई जाती है । यहाँ उत्पादन के प्राकृतिक संसाधनों एवं मानवीय साधनों का समुचित उपयोग नहीं हो पाता है इन देशों में अति जनसंख्या होने के कारण स्थिति अधिक गंभीर बनी रहती है । विकसित देशों में व्यापार - चक्रों के प्रभाव से जनित बेरोजगारी होती है जिसे सार्वजनिक व्यय के माध्यम से समाप्त किया जा सकता है । विकासशील देशों में व्याप्त पूर्ण बेरोजगारी के साथ - साथ अल्प बेरोजगारी तथा प्रच्छन्न बेरोजगारी पाई जाती है जो संसाधनों के अल्प विदोहन के फलस्वरूप व्याप्त रहती है ।

            इन देशों में विभिन्न कारणों से सरकारी व्यय भी अधिक कारगर नहीं सिद्ध हो पाता है । इसके बावजूद भी इन देशों में रोजगार का स्तर ऊँचा उठाने में सार्वजनिक व्यय महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । सरकार सार्वजनिक निर्माण कार्यों में वृद्धि करके, सार्वजनिक सेवाओं में वृद्धि कर, निजी उद्योगों एवं कृषि क्षेत्र को प्रोत्साहित कर रोजगार के अवसरों में वृद्धि कर सकती है । देश में रोजगार के अवसरों में वृद्धि के लिए आवश्यक है कि सरकार सार्वजनिक व्यय के माध्यम से देश में अप्रयुक्त एवं अशोषित संसाधनों का विदोहन करे । इसतरह, निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सार्वजनिक व्यय देश के आर्थिक विकास, रोजगार एवं पूंजी निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । 

डा0देवेंद्र प्रसाद

सहायक प्राध्यापक अर्थशास्त्र विभाग

संत कोलोम्बा महाविद्यालय, हजारीबाग

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