Hawtrey's Pure Monetary Theory

Hawtrey's Pure Monetary Theory

व्यापार - चक्र के सिद्धान्त (Theories of Business Cycle)

 व्यापार - चक्र का अध्ययन एक जटिल विषय है, क्योंकि यह अनेक कारणों से प्रभावित होता है और सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है । व्यापार - चक्र के कारणों की व्याख्या के सम्बन्ध में अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किये जा चुके हैं । ये सिद्धान्त मुख्य रूप से दो प्रकार के हैं :- (1) बाह्य सिद्धान्त (External Theories), तथा (2) आन्तरिक सिद्धान्त (Internal Theories)

बाह्य एवं आन्तरिक सिद्धान्त

 बाह्य सिद्धान्त व्यापार चक्र के बहिर्जनक कारणों (Exogenous Factors) की व्याख्या करते हैं । स्टेनले जेवन्स (Stanley Jevons) ने बताया था कि कुछ काल के बाद सूर्य के धरातल पर कुछ धब्बे (Sun spots) बढ़ जाते हैं, जिनके परिणामस्वरूप वर्षा होती है, और इसका कृषि उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है जिससे व्यापार भी प्रभावित होता है । व्यापार - चक्र के कुछ अन्य बहिर्जनक कारण भी हो सकते हैं, जैसे:-  युद्ध, क्रान्तियाँ, राजनीतिक घटनाएँ, जनसंख्या की वृद्धि - दर, स्वर्ण की खोज, नये क्षेत्र और साधनों की खोज तथा वैज्ञानिक एवं तकनीकी आविष्कार व सुधार । शुम्पीटर का नव - प्रवर्तन सिद्धान्त (Innovation Theory) व्यापार - चक्रों का मुख्य कारण साहसियों द्वारा नव - प्रवर्तन की प्रस्तुति को मानता है । वास्तविकता यह है कि उपर्युक्त बाह्य कारण अर्थव्यवस्था पर प्रहार तो करते हैं परन्तु ये उतार - चढ़ाव उत्पन्न नहीं कर सकते हैं । गड़बड़ी तो आन्तरिक कारणों से ही उत्पन्न होती है ।

 आन्तरिक सिद्धान्त अर्थव्यवस्था में व्यापार - चक्र उत्पन्न करने वाले अन्तर्जनित कारणों (Endogenous Factors ) की व्याख्या करते हैं । ये सिद्धान्त अर्थव्यवस्था की आन्तरिक क्रियाओं की ओर ध्यान दिलाते हैं । हॉट्रे (Hawtrey) ने बैंक - साख के संकुचन तथा विस्तार के आधार पर विशुद्ध मौद्रिक सिद्धान्त (Pure Monetary Theory) प्रतिपादित किया है । हायक (Hayek) के मौद्रिक अति - निवेश सिद्धान्त (Monetary Over - Investment Theory) के अनुसार, मौद्रिक कारणों के प्रभाव में जब निवेश अत्यधिक बढ़ जाता है तो आर्थिक संकट उत्पन्न हो जाता है और नीचे की ओर पतन आरम्भ हो जाता है । हाँट्रे तथा हायक के व्यापार - चक्र के सिद्धान्त व्यापार - चक्र के मौद्रिक सिद्धान्त (Monetary Theories) कहे जा सकते हैं । स्फीथोप (Spiethoff), कैसल (Cassel) तथा रॉबर्टसन (Robertson) ने वास्तविक अति - निवेश सिद्धान्त (Real Over - investment Theory) की व्याख्या प्रस्तुत की है । हॉबसन (Hobson), स्वीजी (Sweezy), फॉस्टर (Foster) तथा कैचिंग्स (Catchings) ने आय के वितरण की असमानताओं के कारण उपभोग में कमी अथवा बचत में वृद्धि को व्यापार चक्र का कारण माना है और अल्प - उपभोग सिद्धान्त (Under - consumption Theory) प्रस्तुत किया है । पीगू (Pigou), बेजहॉट (Bagehot) तथा बेवरिंज (Beveridge) जैसे अर्थशास्त्रियों ने मनोवैज्ञानिक कारणों (व्यापारिक आशावादिता तथा निराशावादिता) को व्यापार चक्र का आधार मानते हुए मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त (Psychological Theory) प्रस्तुत किया है । ये सभी सिद्धान्त किसी एक आन्तरिक कारण के आधार पर व्यापार - चक्र की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं, इसलिए केवल आंशिक रूप में ही सत्य हैं । केन्स (Keynes) ने आर्थिक उतार - चढ़ाव उत्पन्न करने वाले अनेक आन्तरिक तत्वों की व्याख्या एक साथ प्रस्तुत की है, परन्तु पूँजी की सीमान्त क्षमता की अस्थिरता को उतार - चढ़ाव का मुख्य कारण माना है । आधुनिक अर्थशास्त्री हिक्स (Hicks) ने व्यापार - चक्र को गुणक एवं त्वरक की परस्पर क्रिया (multiplier acceleration interaction) का परिणाम माना है ।

उपर्युक्त सभी सिद्धान्तों को दो भागों में बाँटा जा सकता है :- मौद्रिक सिद्धान्त (monetary theories) तथा अमौद्रिक सिद्धान्त (non - monetary theories)

हाट्रे का विशुद्ध मौद्रिक सिद्धान्त (Hawtrey's Pure Monetary Theory)

व्यापार चक्र के विशुद्ध मौद्रिक सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रसिद्ध अंग्रेज अर्थशास्त्री R.G. Hawtrey ने किया है । उनके अनुसार- व्यापार चक्र एक विशुद्ध मौद्रिक घटना है ।” (The Trade Cycle Is A Purely Monetary Phenomenon) उनके अनुसार अमौद्रिक कारण जैसे:- युद्ध, भूकम्प, बाढ़ केवल कुछ समय के लिए मंदी या तेजी की स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं लेकिन व्यापार चक्र जैसी पेचीदा घटना का सृजन नहीं कर सकते ।

मौद्रिक साम्य की स्थिति(Monetary Equilibrium Position): हॉट्रे के अनुसार अर्थव्यवस्था में मौद्रिक साम्य के भंग होने से व्यापार चक्र की व्यापक आर्थिक घटना उत्पन्न होती है । मौद्रिक साम्य का विश्लेषण करते हुए हॉट्रे ने बताया कि अर्थव्यवस्था में दो प्रकार के चक्रीय प्रवाह (circular flows) होते हैं:- (1) मुद्रा का चक्रीय प्रवाह (Circular Flows of Money) (2) वस्तुओं एवं सेवाओं का चक्रीय प्रवाह (Circular Flow of Goods and Services)

मुद्रा, जो उपभोक्ताओं को आय के रूप में प्राप्त होती है, उपभोक्ताओं के द्वारा खर्च करने पर व्यापारी वर्ग के पास पहुंचती है । व्यापारी के द्वारा व्यय करने पर उत्पादकों के पास पहुंच जाती है और वहाँ से पुनः व्यय करने पर उपभोक्ताओं (उत्पत्ति के साधनों) के पास आय के रूप में वापस आ जाती है ।

वस्तुओं का चक्रीय प्रवाह इसके विपरीत घूमता है । उत्पत्ति के साधनों द्वारा वस्तुओं का निर्माण होता है जो उत्पादकों से व्यापारियों और फिर उपभोक्ताओं के पास पहुंचती है ।

मुद्रा तथा वस्तुओं के ये चक्रीय प्रवाह विपरीत दिशाओं में एक दूसरे का पीछा करते हैं । यदि वस्तु प्रवाह की तुलना में मुद्रा प्रवाह बढ़ जाता है, तो कीमतें बढ़ने लगती हैं । इसके विपरीत यदि वस्तु प्रवाह की तुलना में मुद्रा प्रवाह छोटा हो जाता है तो कीमतें गिरने लगती हैं । मुद्रा की मात्रा में कमी से मुद्रा संकुचन तथा मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होने से मुद्रास्फीति की दशाएं उत्पन्न होती हैं ।

मौद्रिक साम्य की स्थिति में मुद्रा तथा वस्तुओं का चक्रीय प्रवाह एकरूप होते हैं अर्थात्, दोनों का आकार बराबर होता है । हॉट्रे के विचारानुसार-  व्यापार चक्र मौद्रिक साम्य भंग होने का परिणाम है । (The business cycle is the result of a breach of monetary equilibrium.)

व्यापार चक्र का विश्लेषण (Business Cycle Analysis)

 हॉट्रे के विशुद्ध मौद्रिक सिद्धान्त के अनुसार मौद्रिक साम्य को भंग करने वाले तत्व निम्नलिखित हैं :-

(1)  मुद्रा के चक्रीय प्रवाह में परिवर्तन (Changes in the Circular flow of money)

(2)  उपभोक्ताओं की आय तथा व्यय (Consumer's income and outlay)

(1मुद्रा के चक्रीय प्रवाह में परिवर्तन (Changes in the Circular flow of money)

मुद्रा के प्रवाह में परिवर्तन करने वाले अर्थात् मुद्रा प्रवाह का विस्तार व संकुचन करने वाले दो घटक हैं:- (1) व्यापारी वर्ग, (2) बैंकर्स अथवा बैंक साख ।

 व्यापार चक्र की विभिन्न अवस्थाओं को उत्पन्न करने में इनकी भूमिका इस प्रकार है :-

 पुनरुथान, विस्तार की अवस्था तथा समृद्धि काल (Stage of Revival, Expansion and Prosperity):-

            व्यापारी वर्ग विशेष कर थोक व्यापारी का कार्य अपने पास माल का स्टॉक रखना है । माल का स्टॉक रखने में दो प्रकार की लागतें आती हैं:- (1) गोदाम का किराया तथा अन्य खर्चे, (2) माल खरीदने हेतु लिए गए ऋणों पर ब्याज । हॉट्रे का विचार है कि स्टॉक करने की लागतों में ब्याज की दर का प्रमुख स्थान है । ब्याज की ऊंची दर पर लोग माल का स्टॉक कम रखते हैं तथा नीची ब्याज दर पर स्टॉक बढ़ाते हैं ।

            हॉट्रे अपना विश्लेषण मंदी की अवस्था से प्रारम्भ करते हैं । ऐसी स्थिति में जब व्याज की दरें नीची हो जाती है तो थोक व्यापारी स्टॉक बढ़ाने को प्रेरित होते हैं । इस हेतु ये उत्पादकों को ऑर्डर भेजते हैं । उत्पादक इन ऑर्डरों पर माल सप्लाई करने के लिए उत्पादन बढ़ाते हैं, जिससे निवेश (बैंक से उधार लेकर) बढ़ता है । इससे रोजगार तथा आय के स्तर में वृद्धि होने लगती है । बाजार में मांग बढ़ती है, कीमतें ऊपर उठती है और लाभ का मार्जिन ऊँचा होने लगता है । व्यापारी वर्ग और अधिक माल का स्टॉक करना चाहते हैं, वे उत्पादकों को बड़े ऑर्डर भेजते हैं । यह स्थिति पुनरुथान (Recovery) की अवस्था उत्पन्न करती है । शीघ्र ही एक वृद्धिमूलक प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है और अर्थव्यवस्था विस्तार एवं समृद्धि (Prosperity) की ओर अग्रसर होने लगती है ।

            ऐसा होने का कारण यह है कि मंदीकाल में बैंकों के पास पर्याप्त नकद कोष रहते हैं और चालू ब्याज दूर पर कोई उधार लेने वाला नहीं रहता है । फलतः वे नीची ब्याज की दर पर साख का विस्तार करने को तैयार हो जाते हैं, और जैसे - जैसे साख की मांग (थोक व्यापारी वर्ग तथा उत्पादक वर्ग द्वारा) बढ़ती जाती है. साख का अधिकाधिक विस्तार दिया जाता है । ब्याज की दरें ऊंची होती जाती है, परन्तु लाभ की दरों के ऊँची रहने के कारण बैंक ऋणों की मांग में कमी नहीं आती है । भारी मात्रा में निवेश की वृद्धि तथा बैंक साख के प्रसारण के फलस्वरूप मुद्रा का चक्रीय प्रवाह विस्तृत होने लगता है तथा अभिवृद्धि की दशाएं उत्पन्न होती हैं ।

संकट, अवरोध तथा मंदी (Crisis, Depression and Recession):-

            अर्थव्यवस्था जब समृद्धि के शिखर बिन्दु की ओर बढ़ रही होती है, तभी रुकावटें आने लगती हैं । जब

 एक व्यापारी वर्ग (थोक व्यापारी एवं उत्पादक) को बैंकों से ऋण मिलता रहता है आर्थिक प्रणाली ठीक से कार्य करती रहती है । परन्तु बैंकों की साख निर्माण क्षमता की एक सीमा होती है । जब उन्हें यह पता चलता है कि वे इस सीमा को पार कर गए हैं तब वे साख निर्माण करना बन्द कर देते हैं । यही नहीं वे व्यापारी वर्ग से पुराने ऋणों की वसूली भी शुरू कर देते है । इसका कारण यह है कि बैंकों के नकद कोष निरन्तर घटते जाते हैं ।

            बैंक की साख नीति में उत्पन्न यह आकस्मिक परिवर्तन संकट उत्पन्न कर देता है । बैंकों द्वारा वसूली का नोटिस दिए जाने पर व्यापारी वर्ग में घबराहट उत्पन्न हो जाती है जिसके फलस्वरूप एक ओर वे कीमतें घटाकर जल्दी जल्दी माल बेचने लगते हैं, दूसरी ओर वे उत्पादकों को नए ऑर्डर देना बन्द कर देते हैं । यहाँ तक कि पुराने दिए गए ऑर्डरों को भी रद्द कर देते हैं । परिणामस्वरूप उत्पादक वर्ग निवेश घटाने लगते हैं । इससे उत्पादन घटता है, उत्पत्ति के साधनों में बेरोजगारी फैलती है, जिससे आय के स्तर में कमी आती है, आय घटने से माँग घटती है इससे कीमतें गिरने लगती हैं और लाभ का मार्जिन कम होने लगता है । व्यापारी अपना संग्रह और तेजी से घटाते हैं । उत्पादन और घटने लगता है, बेरोजगारी बढ़ती है । आय, मांग और कीमतों में गिरावट आती है । अवरोध की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । साख के संकुचन एवं निवेश में गिरावट के कारण मुद्रा का चक्रीय प्रवाह संकुचित होने लगता है और मंदी उत्पन्न हो जाती है ।

2. उपभोक्ताओं की आय तथा व्यय (Consumers' Income and Expenditure):-

            हॉट्रे के विचारानुसार, मौद्रिक साम्य की आधारभूत शर्त उपभोक्ताओं के व्यय में स्थिरता है । उपभोक्ताओं का कुल व्यय सामान्य मांग का पर्यायवाची है । यदि सामान्य मांग स्थिर रहे, तो साम्य रह सकता है । उपभोक्ताओं के व्यय की स्थिरता के लिए आवश्यकता है कि मुद्रा की मात्रा तथा उसकी प्राथमिक चलन गति में परिवर्तन न हो । अन्य शब्दों में, इसका अर्थ है कि उपभोक्ताओं की मौद्रिक आय में स्थिरता रहे तथा उनकी कुल मौद्रिक आय कुल व्यय के बराबर हो । हॉट्रे के मौद्रिक साम्य विश्लेषण के अनुसार, उपभोक्ताओं के व्यय में स्थिरता साम्य की आवश्यक शर्त है लेकिन यह शर्त सदैव पूरी नहीं होती । हॉट्रे के अनुसार, उपभोक्ताओं के व्यय में कमी होने से मंदी उत्पन्न होती है । इसका मुख्य कारण है मुद्रा की मात्रा तथा इसकी चलन गति में कमी हो जाना । यह उस समय होता है जब बैंक (अभिवृद्धि की अवस्था में) अपनी साख निर्माण शक्ति के समाप्त हो जाने से साख निर्माण करना बन्द कर देते हैं तथा व्यापारी वर्ग से पुराने ऋणों की वापसी की मांग करने लगते हैं । परिणामस्वरूप निवेश घटने लगता है, उत्पादन कम होने लगता है बेरोजगारी फैलती है । जिससे उपभोक्ताओं (उत्पत्ति के साधनों) की आय में कमी हो जाती है । फलस्वरूप उपभोक्ता वर्ग का व्यय कम हो जाता है । इससे सामान्य माँग में गिरावट आ जाती है और मंदी का प्रारम्भ होने लगता है इस सिद्धान्त के अनुसार, ऐसी स्थिति में, (आय के घटने पर) यदि उपभोक्ता अपनी पुरानी बचतों को निकाल कर व्यय करने लग जाय जिससे कुल व्यय में कमी न हो तो सामान्य मांग में, कमी नहीं आएगी और मंदी के आगमन को रोका जा सकता है परन्तु ऐसा होना सम्भव नहीं है । उपभोक्ताओं के पास पुरानी बचतें इतनी बड़ी मात्रा में नहीं होतीं ।

            इसी प्रकार, पुनरुथान तथा अभिवृद्धि की दशाएं भी उपभोक्ताओं के व्यय बढ़ने का परिणाम होती है । उपभोक्ताओं की मौद्रिक आय में वृद्धि होने पर वे अधिक व्यय करते हैं । यह वृद्धि मुद्रा की मात्रा तथा प्रचलन वेग में वृद्धि के परिणामस्वरूप होती है । स्मरणीय है कि बैंकों द्वारा जब कम ब्याज दर पर साख का निर्गमन किया जाता है तब व्यापारी वर्ग अपना स्टॉक बढ़ाने लगता है जिससे उत्पादक भी अपना उत्पादन बढ़ाने लगता है । इससे निवेश की मात्रा में वृद्धि होती है, उत्पादन क्रिया का विस्तार होता है तथा रोजगार बढ़ता है । परिणामस्वरूप उपभोक्ता वर्ग की मौद्रिक आय तथा व्यय बढ़ने लगता है । मुद्रा का चक्रीय प्रवाह विस्तृत होने लगता है । अर्थव्यवस्था पुनरुथान तथा अभिवृद्धि की ओर अग्रसर होने लगती है ।

सिद्धान्त की आलोचनाएं (Criticism of the Theory):-

(1) हॉट्रे के व्यापार चक्र सिद्धान्त में ब्याज की दरों में परिवर्तन को केन्द्रीय स्थान दिया गया है । उनके अनुसार अल्पकालीन ब्याज दरें ही स्टॉक सम्बन्धी और उत्पादन सम्बन्धी निर्णयों को प्रभावित कर निवेश की मात्रा में परिवर्तन लाती हैं । परन्तु निवेश की मात्रा केवल ब्याज की दर तथा ऋण प्राप्ति की सुविधाओं पर ही निर्भर नहीं करती । कोई भी उत्पादक या व्यापारी केवल इस कारण ऋण लेकर निवेश नहीं बढ़ाता कि ब्याज दर कम है । बल्कि इससे भविष्य में लाभ कमाने की सम्भावनाओं पर विचार करता है । यदि लाभ प्राप्ति कमाने की सम्भावना होगी तो लोग ऊंची ब्याज दर पर भी निवेश बढ़ाएंगे । मंदी के दिनों में जब भविष्य धूमिल होता है, तो ब्याज दरों के कम होने पर भी निवेश में वृद्धि नहीं होती ।

 (2) हॉट्रे ने मुद्रा के चक्रीय प्रवाह के परिवर्तनों की तो व्याख्या की है परन्तु वस्तुओं के चक्रीय प्रवाह के परिवर्तनों की समुचित विवेचना नहीं की है ।

(3) हॉट्रे ने अमौद्रिक कारणों की सर्वथा उपेक्षा की है जबकि वास्तविकता यह है कि अमौद्रिक कारण भी मुद्रा के चक्रीय प्रवाह में परिवर्तन लाकर अर्थव्यवस्था में व्यापार चक्र की घटना उत्पन्न कर सकते हैं । यद्यपि मौद्रिक परिवर्तन चक्रीय प्रक्रिया के आवश्यक अंग हैं किन्तु ये स्वयं अमौद्रिक शक्तियों का परिणाम होते हैं । हॉट्रे का सिद्धान्त एकांगी अथवा अधूरा कहा जा सकता है ।

(4) हॉट्रे के अनुसार, यदि बैंक साख की पूर्ति स्थिर रखी जाय तो व्यापार चक्र की घटना को समाप्त किया जा सकता है । पर यदि ऐसा सम्भव हो तब भी व्यापार चक्र उत्पन्न हो सकते हैं । जैसा कि केन्स ने कहा है कि, सारी कठिनाई पूँजी की सीमान्त उत्पादकता जिसमें अल्पकालीन अस्थिरता तथा दीर्धकालीन गतिहीनता की प्रवृत्ति होती है, इसमें परिवर्तन के कारण होती है और इस पर बैंकों का कोई नियन्त्रण नहीं होता ।

(5) व्यापार चक्रों को रोकने के लिए हाट्रे उपभोक्ताओं की आय तथा व्यय स्थिर बनाना चाहते थे । परन्तु यह एक नितान्त अव्यावहारिक बात है । निवेश की मात्रा बढ़ने पर उपभोक्ताओं की आय में अवश्य वृद्धि होगी । दूसरे, उपभोक्ताओं के व्यय सम्बन्धी निर्णयों पर मौद्रिक घटकों के अलावा बाह्य कारणों का भी प्रभाव पड़ता है। अतः हॉट्रे द्वारा सुझाई गयी अर्थनीति व्यापार चक्रों का उपचार करने में असमर्थ रहेगी ।

(6) हॉट्रे ने थोक विक्रेताओं अथवा व्यवसायियों की भूमिका पर आवश्यकता से अधिक बल दिया है । अर्थव्यवस्था के सभी अंगों की ओर ध्यान न देना हॉट्रे के सिद्धान्त की सबसे बड़ी दुर्बलता है ।

(7) माल के स्टॉक में परिवर्तन अर्थव्यवस्था पर इतना अधिक प्रभाव नहीं डालते हैं कि उनके कारण प्रमुख व्यापार - चक्र उत्पन्न हो जायें । अधिक से अधिक लघु चक्र उत्पन्न हो सकते हैं ।

(8) बैंक - साख व्यापार - चक्रों को आरम्भ करने का कारण नहीं है, बल्कि व्यापार - चक्रों का परिणाम होती है। साख का विस्तार प्रायः व्यापारिक विस्तार के बाद होता है और व्यापारिक संकुचन की स्थिति उत्पन्न होने पर साख का भी संकुचन होता है ।

            इस प्रकार हॉट्रे द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त अपूर्ण होते हुए भी इस दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है कि वह मुद्रा की पूर्ति की लोच को आर्थिक उतार - चढ़ाव के क्रम के साथ संबन्धित करता है । 

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