जनसंख्या जनांकिकी-प्रजननता व मर्त्यता (जन्मदर व मृत्युदर) POPULATION DEMOGRAPHIC - FERTILITY & MORTALITY)

जनसंख्या जनांकिकी-प्रजननता व मर्त्यता (जन्मदर व मृत्युदर) POPULATION DEMOGRAPHIC - FERTILITY & MORTALITY)

किसी भी देश में जनसंख्या के आँकड़ों का अध्ययन करने में जनांकिकीय आँकड़ों का विशेष योगदान होजनांकिको मानव समाज को जनसंख्या अध्ययन सम्बन्धी ज्ञान की एक नवीन शाखा है। जनांकिकी सावी शताब्दी का विज्ञान माना गया है। जनांकिकी में हम विभिन्न जनसंख्या के आधार , घनत्व, विकास, वितरण, प्रवास एवं समंक तथा उन पर पड़ने वाले सामाजिक-आर्थिक प्रभावों का अध्ययन करते हैं। जनसंख्या प्रक्रियाओं में प्रमुख रूप से प्रजनन, मृत्युक्रम या मरणशीलता और प्रवास या देशान्तरण आदि को रखा जाता है। प्रो. बोग के जनांकिकी ने विषय क्षेत्र के बारे में लिखा है कि, “जनांकिकी पाँच प्रकार की जनांकिकीय प्रक्रियाओं- प्रजननता, मृत्युक्रम, विवाह, देशान्तरण एवं सामाजिक गतिशीलता का परिमाणात्मक अध्ययन है।"

लेकिन प्रमुख रूप से जनसंख्या की तीन प्रक्रियायें- प्रजननता, मृत्युक्रम एवं देशांतरण ही जनसंख्या के आकार, संरचना तथा विभाजन को प्रभावित एवं निर्धारित करती हैं। यदि किसी समाज या समुदाय की जनसंख्या संरचना के किसी भी पक्ष में कोई परिवर्तन आता है तो ये तीनों प्रक्रियायें ही उसका प्रमुख कारण होती हैं। अतः यहाँ हम इन तीन प्रमुख जनांकिकीय प्रक्रियाओं का विस्तृत वर्णन करेंगे।

प्रजननता (जन्मदर)

 "किसी भी मनुष्य के जीवन में माता अथवा पिता बनने से महत्वपूर्ण कोई घटना नहीं हो सकती है तथा किसी भी समाज के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए अपनी प्रजननता को पर्याप्त बनाये रखने से महत्वपूर्ण कोई बात नहीं हो सकती।" जब कभी जनसंख्या की वृद्धि-दर में परिवर्तन होता है तो उससे अनेक क्षेत्रों एवं तत्वों में परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है। जनसंख्या की वृद्धि के साथ ही प्रत्येक आयु वर्ग के उपभोक्ताओं की संख्या बदल जाती है। विभिन्न स्तरों की शिक्षा की माँग में परिवर्तन आ जाता है, श्रम-शक्ति में नवयुवकों का प्रवाह होने लगता है, नव दम्पतियों के लिए आवास की माँग में वृद्धि होने लगती है। यहाँ तक कि वद्धों की संख्या तथा सेवानिवृत्त व्यक्तियों के लिए वित्तीय सहायता की माँग बढ़ती है। अतः प्रत्येक नीति निर्माता के लिए प्रजननता एवं उसका विश्लेषण समझना आवश्यक हो जाता है।

प्रजननता अथवा जनन-क्षमता के रूप में हम जन्म तथा उससे संबंधित घटकों का अध्ययन करते है। जन्म-दर की माप, जन्म-दर को प्रभावित करने वाले तत्व, जन्म दर में परिवर्तन के कारण, संतानोत्पादन क्षमता आदि किसी भी समाज के महत्वपूर्ण विषय हैं। जैसे ही एक परिवार में शिशु का जन्म होता है तो परिवार के सभी सदस्यों की भमिका बदल जाती है, अधिकार तथा कर्तव्यों में नया मोड़ आ जाता है। प्रजननता संबंधी ज्ञान उन सभी विषयों के अध्ययन में सहायक होता है जिनका संबंध 'मानव' से है। समाजशास्त्र, जैवकीय विज्ञान, आनुवंशिकी, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, चिकित्सा एवं जनस्वास्थ्य विज्ञान सभी इन सूचनाओं से लाभ उठाते हैं। जनांकिकी विज्ञान की यह सबसे महत्वपूर्ण शाखा है।

प्रो. थॉम्पसन एवं लेविस का विचार है कि प्रजननता जनता के लिये प्रारम्भ से ही महत्वपूर्ण विषय था। प्राचीनकाल में यज्ञ आदि क्रियाओं से औरतों में प्रजननता का संचार किया जाता था। इस प्रकार के

यज्ञ के धार्मिक कृत्यों से प्रजननता स्थिर रखने में सफलता नहीं मिली तो अनेक समाजिक रीति-रिवाजों को इस प्रकार मोड़ दिया गया कि वंश चलता रहे, जैसे-विधवा विवाह, बहुपत्नी प्रथा आदि। दूसरी ओर ऊँची प्रजननता के ऐसे परिणाम भी सामने आने लगे जिससे समुदाय के कल्याण में कमी आने लगी और यही कारण है कि सामाजिक रीति-रिवाजों से ऐसे परिवर्तन भी लाए गए जिससे बच्चों की संख्या कम हो. जैसे-गर्भपात, देर से विवाह, विवाह के उपरान्त भी अलगाव बनाये रखना, दीर्घकाल तक बच्चे को दूध पिलाना, यहाँ तक, कि शिशु-हत्या विशेषकर लड़कियों की हत्या के भी उल्लेख मिलते हैं।

प्रजननता का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning & Definition of Fertility)

प्रजननता का आशय उतना सरल नहीं है जितना कि सामान्यतया प्रतीत होता है। प्रजननता का अभिप्राय किसी स्त्री या उनके समूह के द्वारा किसी समयावधि में कुल सजीव जन्म बच्चों की वास्तविक संख्या से है। यदि कभी भी किसी स्त्री ने बच्चे को जन्म दिया हो तो वह प्रजननीय कहलायेगी। प्रजननता की माप बच्चों की संख्या से होती है, अथवा एक दी हई अवधि पर सजीव जन्में बच्चों की बारम्बारता ही प्रजननता का माप है। प्रजननता एवं सन्तानोत्पादकता में अन्तर है। सन्तानोत्पादकता से आशय औरतों के बच्चों में जन्म देने की शक्ति से है। चाहे उसने बच्चों को जन्म दिया हो या न दिया हो, किन्तु प्रजननता से आशय वास्तव में बच्चों को जन्म देने से है, अर्थात् समस्त औरतों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-वे औरतें जिनमें सन्तानोत्पादन शक्ति है उन्हें 'संतानोत्पादक' कहा जाता है तथा वे औरतें जिनमें संतानोत्पादन की शक्ति न हो, उन्हें 'सन्तानोत्पादकहीन' कहा जायेगा।

प्रो. बर्कले का विचार है कि प्रजननता एक जटिल एवं विवादास्पद विषय है। भिन्न-भिन्न उद्देश्यों के लिये जन्म को अलग-अलग तरह से परिभाषित किया जाता है। अतः प्रजननता की माप के लिये किस उद्देश्य से एकत्र किये गये आँकड़ों को लिया जाए? परंतु सोचने की बात यह है कि प्रजननता को मापने के उद्देश्य से आँकड़े प्रायः एकत्र ही नहीं किये जाते हैं, अतः प्रजननता अध्ययन एवं विश्लेषण की प्रथम समस्या स्वस्थ एवं निष्पक्ष आँकड़ों की उपलब्धता है। फिर भी प्रजननता को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है, “प्रजननता का मूलभूत अर्थ जनसंख्या के वास्तविक स्तर एवं उस स्तर द्वारा किसी समय विशेष में जन्मित शिशु संख्या के वास्तविक स्तर एवं उस स्तर द्वारा किसी समय विशेष में जन्मित शिशु संख्या से है, जबकि सन्तानोत्पादक क्षमता जनसंख्या की बच्चों को जन्म देने की शक्ति से संबंधित है। यह क्षमता गर्भधारण करने एवं जन्म देने की शारीरिक क्षमता का माप है। प्रजननता को जन्म के आँकड़ों से मापा जा सकता है जबकि सन्तानोत्पादन क्षमता का कोई प्रत्यक्ष माप नहीं है।"

जहाँ प्रजननता को मापना एक सरल कार्य है, वहाँ सन्तानोत्पादन शक्ति का कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं रखता है। प्रजननता जीवित प्रसवों की बारम्बारता है। इसके संबंध में दो प्रश्न पैदा होते हैं कि यह बारम्बारता किस अवधि से संबंधित है- किसी औरत के पूरे जीवनकाल से, प्रजनन आयु वर्ग से अथवा किसी अन्य काल से संबंधित है? तथा दूसरा प्रश्न इस बात से संबंधित है कि यह अनुपात किस जनसंख्या से निकाला जाये- कुल जनसंख्या, कुल विवाहित, कुल पुनरुत्पादन आयु वर्ग के व्यक्तियों की संख्या अथवा अन्य किसा वर्ग से अनुपात मालूम किया जाए? प्रो. हाउजर एवं डन्कन का विचार है कि अमेरिका के जनांकिकोवत्ता प्रजननता एवं सन्तानोत्पादकता शब्दों को भ्रमात्मक मानते हैं, अतः प्रजननता के लिये वे फटिलिटा क स्थान पर 'Natality' शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त समझते हैं, इसलिए 'प्रजननता' अपने-आप में एक जटिल विषय है। इसका अध्ययन करने के लिये हमें शरीर विज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीति विज्ञान, मानव विज्ञान एवं आयुर्विज्ञान की सहायता लेनी पड़ती है।

जन्म संबंधी आँकड़ों की कुछ विशेषताएँ

यद्यपि जन्म एक जैवकीय प्रक्रिया का परिणाम है, किन्त जन्म-दर केवल जैवकीय तत्वों से हा प्रमा नहीं होती, वरन जन्म-दर को सामाजिक परिस्थितियों का फलन माना जाना चाहिये। जन्म-दर का सबधा हजार व्यक्तियों में बच्चों की संख्या से है, किन्तु जन्म संबंधी आँकड़ों की अपनी कुछ विशेषताए है-

1. एक स्त्री-पुरुष को सन्तान उत्पन्न करने का अवसर अनेक बार मिलता है, किन्तु जैसे-जैसे उम्र बदती है, सन्तानोत्पत्ति की सम्भावनाएँ घटती हैं।

2. शिशु प्रजनन की बारम्बारता, औरतों की उम्र, स्वास्थ्य एवं बच्चों के लिंग पर निर्भर करती है।

3. यद्यपि जन्म से माता-पिता दोनों का संबंध है, किन्तु प्रजननता केवल माँ के ही अनुपात से निकाली जाती है।

4. जुडवा बच्चे जन्म-दर के परिकलन में समस्या पैदा करते हैं।

5. एक नवजात शिशु के संबंध में अनेक सम्भावनाएँ हो सकती हैं। वह एक लड़का हो सकता है अथवा एक लड़की। वह जीवित प्रसव हो सकता है अथवा मृत प्रसव हो सकता है।

6. शिशु के जन्म पर माता-पिता दोनों का संबंध होने के बावजूद भी प्रजननता दर केवल एक से ही निकल आती है, कोई भी विधि दोनों को शामिल नहीं कर सकती है। माँ के आधार पर मातृत्व दर एवं पिता के आधार पर पितृत्व दर निकाली जा सकती है।

7. किसी वर्ष में प्रजननता का भविष्य संबंधी अनुमान लगाने में व्यक्तियों की प्राथमिकता एवं मनोवृत्ति में अत्यधिक अन्तर होने के कारण असंगतता रह जाती है। जहाँ तक मृत्यु संबंधी प्रवृत्ति का प्रश्न है, प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह सत्य है कि वह मरने की अपेक्षा प्रत्येक दिन, माह एवं वर्ष अधिक जीना चाहता है, जबकि प्रत्येक व्यक्ति दिन, माह एवं वर्ष नया बच्चा नहीं चाहता है। वे बच्चों की संख्या एवं अवधि में भी एकमत नहीं होते हैं। जो भी धारणायें होती हैं वे समय एवं स्थान के अनुसार बदलती रहती हैं।

8. प्रजननता की माप का आधार 'प्रजनन आयु वर्ग की जनसंख्या' है। 'प्रजनन आयु वर्ग की जनसंख्या' स्वयं एक अस्पष्ट विचार है, क्योंकि 'प्रजनन आयु वर्ग' का आशय उस जनसंख्या से है जो शिशुजन्म का जोखिम सहन कर रही है। वह इस जोखिम से मुक्त भी हो सकती है। एक दिये हुए वर्ष में शिशु का जोखिम कितनी औरतों ने वहन किया, इसका अनुमान लगाना कठिन कार्य है।

9. प्रजननता एव मृत्यु-क्रम में विशेष अन्तर है। जहाँ मृत्यु केवल एक बार होती है वहाँ शिशु-जन्म अनेक बार होता है। प्रो. बर्कले ने लिखा है- "उन व्यक्तियों के लिये जो शिशु-जन्म के जोखिम से ग्रस्त हैं, माता-पिता बनने का अवसर एक से अधिक बार आ सकता है। सांख्यिकीय अभिलेखों की दृष्टि से मृत्युजनित समस्या अपेक्षाकृत सरल है, क्योंकि यह घटना केवल एक बार होती है।

प्रजननता का विश्व प्रतिमान (World Fertility Pattern)

हालांकि विश्व में प्रजननता का सही-सही अनुमान लगाना कठिन कार्य है फिर भी प्रजननता का विश्व प्रतिमान निम्न प्रकार है -

1. आधुनिकीकरण औद्योगीकरण के पहले शुद्ध जन्म दर सभी यूरोपीय देशों में अधिक थी।

2. आधुनिकीकरण के पश्चात लगभग सभी यूरोपीय देशों में शुद्ध जन्म दर अर्थात् प्रजननता घटी है। इसका कारण संचालित वैवाहिक प्रतिरूप, कुछ भागों में स्वेच्छा नियंत्रित प्रजननता और उल्लेखनीय सामाजिक-आर्थिक विकास है। उदाहरण स्वरूप अठारहवीं शताब्दी में स्वीडन एवं डेनमार्क में शट जन्म दर 30-33 प्रति हजार थी जो सन् 1900 के बाद 20 या उससे भी कम प्रति हजार हो गयी।

3. इनके विपरीत यरोपीय देशों के कछ कोयला उत्खनन क्षेत्रों, जैसे ब्रिटेन के दक्षिणी केल्या कोयला उत्खनन क्षेत्रों में प्रजननता में वृद्धि हुई है।

4. उत्तरी अमेरिका में 1800 ई. में शुद्ध जन्म दर 55 प्रति हजार थी लेकिन इस अवधि के बाद प्रजननता में कमी आयी। 1850 में प्रजननता 43 प्रति हजार, 1900 ई. में 30 प्रति हजार तथा 1940 में 18 प्रति हजार रह गयी।

5. आस्ट्रेलिया में प्रजननता में कमी 1880 ई. के पश्चात् प्रारम्भ हो गयी।

6. जापान में भी प्रजननता दर पहले यूरोप की तरह ऊँची थी परन्तु 1850 ई. के बाद औद्योगीकरण के कारण यहां भी प्रजननता दर में कमी आयी है। उदाहरणार्थ 1880 ई. में प्रजननता 38 प्रतिहजार 1930 ई. में 30 प्रति हजार तथा 1940 में 33 प्रति हजार पायी गयी जो तीव औटोपी नगरीकरण के परिणाम स्वरूप सम्भव हुई।

7. प्रायः सभी देशों में 1950 ई. के बाद वैवाहिक आयु में वृद्धि, तीव्र सामाजिक आर्थिक विकास नगरीकरण, स्त्री रोजगार में वृद्धि, धार्मिक प्रतिबन्धों में छूट इत्यादि कारणों से प्रजननता में कमी परिलक्षित हुई।

8. तृतीय विश्व के अधिकांश देशों में प्रजननता में कमी 1960 के बाद आयी जब इनके यहां का औद्योगीकरण नगरीकरण एवं आधुनिकीकरण प्रारम्भ हो गया था। इसके अतिरिक्त वैवाहिक आय में वृद्धि तथा परिवार नियोजन कार्यक्रम का भी इसे कम करने में योगदान था।

9. लैटिन अमेरिका, अफ्रीका तथा एशिया के अधिकांश देशों में प्रजननता दर ऊँची है। जबकि विकसित देशों में प्रजननता न्यूनतम है। 1980-85 ई. के मध्य अनुमानित प्रजननता से उपरोक्त तथ्य साबित हो जाता है। उदाहरण स्वरूप इस अवधि में विश्व की औसत प्रजननता 27 प्रति हजार रही। विकसित देशों में 1980-85 ई. में शुद्ध जन्म दर 15 प्रति हजार तथा अल्प विकसित क्षेत्रों में 31 प्रति हजार पायी गयी है। अफ्रीका महाद्वीप में प्रजननता सबसे अधिक 46 प्रति हजार है। सबसे कम शुद्ध जन्म दर 14 प्रति हजार यूरोप महाद्वीप में पायी गयी है। उत्तरी अमेरिका और आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैण्ड में भी प्रजननता कम (16 प्रति हजार) मिलती है।

विश्व में प्रजननता प्रतिमान जनसंख्या

प्रजननता पर प्रभाव डालने वाले कारक (Factor Effective of Fertility)

प्रजननता को प्रभावित करने वाले कारक निम्न हैं

1. जनांकिकीय कारक- प्रजननता को नियंत्रित करने वाले प्रमुख जनांकिकीय कारक हैं- आयु संरचना, लिंग संरचना, नगरीकरण का स्तर, विवाह की अवधि तथा स्त्रियों की कार्मिक और अकामिक दशाएं। आयु संरचना मानव प्रजननता में एक मूल तत्व है। अफ्रीका, एशिया तथा लैटिन अमेरिका के अधिकांश देश इसी  श्रेणी में आते है। उम्र संरचना से विवाह की अवधि अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित है। विवाह की अवधि उम्र संरचना से जितना ही अधिक होगी प्रजननता दर उतनी ही ऊँची मिलेगी। उदाहरण के लिए भारतवर्ष में विवाह कम उम्र में ही हो जाता है जिसका धनात्मक सहसंबंध प्रजननता के साथ पाया गया है। लिंग संरचना का भी महत्वपर्ण योगदान होता है। जिन नगरों में पुरुषों का स्थानान्तरण अधिक हुआ है वहा स्त्रियों की कमी के कारण जन्म दर कम मिली है। यह भी पाया गया है कि नगरीय भागों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में जन्म दर अधिक होती है क्योंकि नगरीय क्षेत्रों में ग्रामीण जीवन से भिन्न जीवन शैली पायी जाती है। स्त्रियों के कार्य करने की दशा भी मानव प्रजननता को प्रभावित करती है। काम करने वाली स्त्रियों की अपेक्षा काम न करने वाली स्त्रियों की प्रजननता अधिक होती है।

2. जैविक कारक- प्रमुख जैविक कारक निम्न हैं

(a) प्रजाति- यह प्रमुख जैविकीय कारक है जिसमें जन्म दर में बहुत अधिक विभिन्नता मिलती है। लेकिन प्रजाति समूह इतने मिले जुले हैं कि उनकी भूमिका को अलग करना कठिन है। ब्राजील में सफेद; रंगीन: पीला तथा काला प्रकार की सभी प्रजातियां एक साथ मिलती हैं।

(b) स्त्रियों की प्रजनन शक्ति- यह भी एक महत्वपूर्ण जैविकीय कारक है। स्त्रियों की प्रजनन शक्ति पुनरुत्पादक अवधि तक सीमित रहती है जो औरतों के रजस्वला होने से शुरू होकर उनके मासिक धर्म के समाप्त होने तक चलती है।

(c) पुरुषों की प्रजननता- पुरुषों की प्रजननता 8 वर्ष से ही आरंभ हो जाती है तथा शायद ही कभी समाप्त होती है। पुरुष की प्रजननता उनके स्वास्थ्य से नियंत्रित होती है। सामान्य रूप से शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से स्वस्थ्य पुरुष की प्रजननता अधिक होती है।

3. आर्थिक कारक- आर्थिक कारक भी प्रजननता को प्रभावित करते हैं। इसमें परिवार की आर्थिक स्थिति प्रमुख कारक है। निम्न आय वर्ग के परिवारों में जहां बच्चे आय के साधन माने जाते हैं जन्म दर अधिक मिलती है। उच्च आय वर्ग में निम्न जन्म दर पायी जाती है।

4. सामाजिक कारक- धार्मिक पृष्ठभूमि; प्रजाति संरचना; शैक्षणिक स्तर, विवाह के समय की उम्र, वैवाहिक स्थिति, जीवन से संबंधित रीति रिवाज; व्यक्तिगत प्राथमिकता, परिवार नियंत्रण पर लोगों की प्रवृत्ति पुनििप्त की प्रकृति तथा सरकारी नीतियां आदि किसी व्यक्ति की मानसिक प्रवृत्ति को नियंत्रित करती है कि वह अपने परिवार का आकार कैसा रखे। यद्यपि सभी धर्म मानव प्रजननता पर पूर्ण नियंत्रण का विरोध करते हैं। लेकिन इसकी मात्रा धर्मानुसार परिवर्तित होती रहती है।

शैक्षणिक स्तर एवं प्रजननता में भी विलोम सहसंबंध पाया जाता है। विशेष रूप से स्त्रियों की शिक्षा इसमें बहुत मददगार हई है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण विभाग द्वारा किये गये सर्वेक्षण से पता चलता है कि अगर स्त्री ने 12वीं तक शिक्षा ग्रहण की है और उसे औसतन 2 बच्चे हैं, 4,6 बच्चे 10 वर्ष शिक्षा ग्रहण करने वाली महिला के, 5 बच्चे 8 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करने वाली महिला के तथा 6,6 बच्चे 5 वर्ष तक शिक्षा या अशिक्षित स्त्री की दशा में। बी गार्नियर का संयुक्त राज्य अमेरिका में 4 साल विश्वविद्यालय शिक्षा प्राप्त स्त्री को औसतन 1.86 बच्चे. 3.06 बच्चे सात अथवा आठ साल शिक्षा तथा 4.82 बच्चे उन स्त्रियों को है जो कभी स्कूल नहीं गयी।

मानव प्रजननता पर विवाह के समय की उम्र का भी उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है। जिस समाज म विवाह जल्दी हो जाता है उसमें जन्म दर अधिक पाई जाती है। हमारे देश में अगर लड़कियों का विवाह 19 वर्ष के बाद किया जाये तो जन्म दर एक तिहाई कम की जा सकती है। विवाह के समय की उम्र वैवाहिक अवधि से संबंधित होती है। बहपति एवं बहपत्नी प्रथा में स्त्रियों की प्रजनन शक्ति कम होने से प्रजननता प्रभावित होती है। व्यक्तिगत लोगों की प्राथमिकता भी प्रजननता पर प्रभाव डालती है। उदाहरणतः मुस्लिम देशों में इसके विपरीत पर्दा प्रथा के कारण अधिक प्रजननता पायी जाती है। समाज में जिसका स्तर जितना ही उच्च होता है उसमें छोटे परिवार रखने की इच्छा पाई जाती है। यहां तक कि बच्चे भी अभिभावक को छोटा परिवार रखने के लिए सलाह देते हैं। समाज के पृथक-पृथक वर्गों में परिवार नियोजन संबंधी विधियों का भिन्न उपयोग मिलता है। इसी कारण देश में जन जातीय जनसंख्या, हिन्दुओं एवं मुसलमानों में विभिन्न तरह की प्रजननता मिलती है।

मर्त्यता (मृत्यु दर)

(Mortality)

मनुष्य सहित संसार के सभी प्राणी मर्त्य हैं अर्थात् जिनका जन्म होता है उनकी मृत्यु भी अवश्यम्भावी है। मृत्यु सामान्यतया अनैच्छिक होती है और इसकी एक निश्चित प्रवृत्ति पायी जाती है यद्यपि इसमें अस्थाई उतार-चढ़ाव अथवा दीर्घ कालीन विचलन भी पाये जा सकते हैं। जीवित जन्म के पश्चात् किसी भी समय जीवन लीला की समाप्ति को मृत्यु की संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि मृत्यु की घटना जीवित जन्म के पश्चात् ही सम्भव है। अतः मर्त्यता या मृत्यु संख्या की गणना के उद्देश्य से जन्म से पूर्व की भ्रूण मृत्यु अथवा जन्म के समय की मृत्यु को मर्त्यता के अन्तर्गत सम्मिलित नहीं किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की परिभाषा के अनुसार जन्म के पश्चात् किसी भी समय पर हमेशा के लिए जीवन प्रतीक का समापन मर्त्यता कहलाती है। मर्त्यता जीवन की एक प्रमुख घटना होती है जो किसी क्षेत्र की जनसंख्या के आकार में कमी लाती है और उसकी संरचना तथा वितरण को प्रभावित करती है। यह किसी व्यक्ति विशेष नहीं बल्कि व्यक्तियों के समूह से संबंधित होती है। जनांकिकी, जनसंख्या अध्ययन और जनसंख्या भूगोल में मर्त्यता के अध्ययन का विशेष महत्व है क्योंकि यह जनसंख्या परिवर्तन का एक आधारभूत कारक है और इससे आयु तथा लिंग संरचना में होने वाले कालिक परिवर्तनों की जानकारी प्राप्त होती है।

प्रजननता की भांति मर्त्यता संबंधी आंकड़ों को जन्म-मृत्यु पंजीयन विधि से एकत्रित किया जाता है। इसकी सार्थकता तथा विश्वसनीयता पंजीयन पद्धति पर निर्भर करती है। सही मर्त्यता आंकड़े तभी प्राप्त हो सकते हैं जब देश में जन्म और मृत्यु पंजीयन विधिक रूप में अनिवार्य माना जाता है। मृत्यु पंजीयन के लिए मृतक के अन्तिम संस्कार के पहले या बाद में उसके संबंधियों द्वारा पंजीयन कार्यालय में मृत्यु की सूचना देकर मृत्यु प्रमाण-पत्र लेना होता है।

विभिन्न सामाजिक, आर्थिक तथा वैयक्तिक अवरोधों के कारण जन्म दर को नियंत्रित करना कठिन होता है किन्तु मृत्यु दर का नियंत्रण अपेक्षाकृत सुगम होता है। मृत्यु नियंत्रण से प्रायः किसी भी समुदाय या सामाजिक वर्ग का विरोध नहीं होता है। स्वास्थ्य तथा चिकित्सा सुविधाओं के प्रसार से विकासशील देशों की मृत्युदर में पिछले 40-50 वर्षों में तीव्र ह्रास की प्रवृत्ति रही है किन्तु इसकी तुलना में जन्म दर में बहुत कम कमी आ पायी है जिसके कारण तीव्र जनसंख्या वृद्धि हुई और अनेक देशों में जनसंख्या विस्फोट और अतिजनसंख्या की स्थिति उत्पन्न हो गयी है, इसलिए जनसंख्या अध्ययन में मर्त्यता के महत्व पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा है।

मर्त्यता की माप

(Measurement of Mortality)

जनसंख्या वृद्धि का एक आधारभूत घटक होने के कारण जनसंख्या भूगोलवेत्ता के लिए मर्त्यता का माप का अधिक महत्व है जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं:

(1) अशोधित मृत्यु दर (Crude Death Rate)

अशोधित मृत्यु दर सर्वाधिक सरल और प्रचलित विधि है जो एक वर्ष में कुल मृत्युओं और कुल जनसंख्या के अनुपात को प्रदर्शित करती है। इसकी गणना के लिए एक नियत समयावधि (सामान्यतः एक वर्ष) में घटित कुल मृत्युओं को वर्ष के प्रारम्भ की जनसंख्या अथवा मध्य वर्ष की जनसंख्या से विभाजित करके उसमें 1000 से गुणा किया जाता है। इस प्रकार प्रति हजार जनसंख्या पर मृत्युओं की संख्या प्राप्त होती है। अशोधित मृत्यु दर के परिकलन का सूत्र इस प्रकार है-

विश्व के विभिन्न देशों में कुल मृत्युओं और कुल जनसंख्या के आंकड़ों की सर्वसुलभता तथा गणना की सरलता के कारण अशोधित मृत्यु दर सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रचलित है। अशोधित मृत्यु दर के आधार पर हम सार्थक और संतोषप्रद परिणाम की अपेक्षा तभी कर सकते हैं जब इसका प्रयोग समान संरचना -समान आयु, लिंग, जाति वाली जनसंख्या के लिए किया जाता है।

(i) किसी क्षेत्र की कुल जनसंख्या में भिन्न-भिन्न जन समुदाय सम्मिलित होते हैं जिनकी मृत्यु दरें एक दूसरे से भिन्न होती हैं।

(ii) इसकी गणना में आयु वर्ग पर ध्यान दिया जाता है जबकि मृत्युदर पर सर्वाधिक प्रभाव आयु वर्ग का ही होता है। प्रारम्भिक आयु वर्ग (0-4) और ऊपरी आयु वर्ग (60+) में मृत्युदर सर्वोच्च पायी जाती है किन्तु अशोधित मृत्युदर की गणना में सम्पूर्ण जनसंख्या को एक समान मान लिया जाता है।

(iii) अशोधित मृत्युदर केवल औसत दशा को ही प्रदर्शित करती है और इस पर पराकाष्ठा आयु वर्गों का प्रभाव अधिक होता है जो मध्यवर्ती आयु वर्गों के वास्तविक मृत्युदर को कई गुना तक बढ़ा देता है।

(iv) अशोधित मृत्युदर से लिंग, जाति, आर्थिक दशा आदि के अनुसार मृत्यु के कारणों का पता नहीं चल पाता है जिसके कारण इसकी उपयोग नीति निर्धारण अथवा किसी अन्य सार्थक उपयोग के लिए भ्रामक सिद्ध हो सकता है।

(2) शिशु मृत्यु दर (Infant Mortality Rate)

इसका संबंध आयु के प्रथम वर्ष में होने वाली शिशु मृत्युओं से है। यह किसी वर्ष में एक वर्ष से कम आयु वाले शिशुओं की मत्यु संख्या और उसी वर्ष में जन्म लेने वाले कुल जीवित शिशुओं की संख्या के अनुपात को प्रदर्शित करता है। शिशु मृत्यु दर के परिकलन हेतु निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है।

कुल शिशुओं में नर शिशु और स्त्री शिशु दोनों सम्मिलित होते हैं। दोनों की मृत्यु दर में अन्तर पाया जाता है। अतः नर शिशु मृत्यु दर और स्त्री शिशु मृत्यु दर की गणना पृथक्-पृथक् की जा सकती है जो अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी तथा सार्थक हो सकती है। नर शिशु मृत्यु दर की गणना में केवल नर शिशुओं की मृत्यु संख्या को कुल नर जन्मों से विभाजित किया जा सकता है। इसी प्रकार स्त्री शिशुओं की मृत्यु संख्या में स्त्री शिशुओं के कुल जन्मों से भाग दिया जाता है और परिणाम में 1000 से गुणा किया जाता है।

आर्थिक रूप से विपन्न क्षेत्रों तथा विकासशील देशों में कुपोषण, अंधविश्वास, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी, निर्धनता आदि के कारण शिशु मृत्यु दर उच्च पायी जाती है। किसी-किसी विकासशील देश में प्रति 1000 जन्में शिशुओं पर मृत शिशुओं की संख्या 200 से 250 तक पायी जाती है। शिशु मृत्यु दर की गणना में सबसे बड़ी समस्या शिशु मृत्यु संबंधी सही आंकड़ों की अनुपलब्धता की होती है। जीवन के प्रथम वर्ष विशेष रूप से एक महीने के भीतर ही मृतक शिशुओं के मृत्युओं का पंजीकरण आवश्यक रूप से नहीं किया जाता है। अतः सामान्यतः शिशु मृत्युओं की वास्तविक संख्या के स्थान पर अनुमानित संख्या से ही काम चलाना पड़ता है।

(3) मातृ मृत्यु दर (Maternal Mortality Rate)

यह एक निश्चित समयावधि (प्रायः एक वर्ष) में माताओं की मृत्यु संख्या और कुल जीवित जन्मों के अनुपात की घोतक होती है। इसकी गणना के लिए गर्भावस्था, सन्तानोत्पत्ति के समय अथवा शिशु जन्म से संबंधित कारणों से होने वाली माताओं की कुल मृत्यु संख्या को कुल जीवित जन्मों से विभाजित करके उसमें 10,000 से गुणा किया जाता है। इस प्रकार प्रति 10 हजार जीवित जन्मों पर प्रसव कारणों से होने वाली माताओं की मृत्यु संख्या का आकलन किया जाता है। इसके परिकलन का सूत्र इस प्रकार है।

मातृ मृत्यु दर मुख्यतः माताओं की मृत्यु संख्या से संबंधित है और माताओं की मृत्यु का प्रत्यक्ष संबंध स्त्रियों के पोषण स्तर, सामान्य स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धि से है।

(4) आयु विशिष्ट मृत्यु दर (Age Specific Mortality Rate)

किसी विशिष्ट आयु वर्ग के लिए ज्ञात की जाने वाली मृत्यु दर को आयु विशिष्ट मृत्यु दर कहते हैं। यह अशोधित मृत्यु दर का ही एक रूप है जिसकी गणना विभिन्न आयु वर्गों के लिए अलग-अलग की जाती है। इसकी गणना का सूत्र इस प्रकार है

आरेखीय प्रदर्शन करने पर आयु विशिष्ट मृत्युदर की आकृति आंग्ल भाषा के U अक्षर के समान दिखायी पड़ती है। जीवन काल के प्रथम वर्ष में मृत्यु दर सर्वाधिक होती है जो प्रायः दूसरे से आठवें-नौवें वर्ष तक तीव्रता से गिरती जाती है और इसके पश्चात् 40 वर्ष की आयु तक लगभग स्थिर (निम्न) रहती है। 40 वर्ष के पश्चात् इसमें उत्थान होने लगता है और 60 वर्ष के बाद यह अधिक उच्चता प्राप्त कर लेती है। इसी प्रवृत्ति के कारण आयु विशिष्ट मृत्यु दर की वक्र की आकृति U अक्षर के समान हो जाती है।

(5) आयु एवं लिंग विशिष्ट मृत्यु दर (Age and Sex Specific Mortality Rate)

आयु विशिष्ट मृत्यु दर की गणना में स्त्री और पुरुष के सम्मिलित आंकड़े का प्रयोग किया जाता है जिससे उनकी अलग-अलग मृत्यु दरों की गणना की जाती है। इसे आयु एवं लिंग विशिष्ट मृत्यु दर कहते हैं। इसके परिकलन हेतु एक वर्ष में किसी विशिष्ट आयु वर्ग में स्त्रियों अथवा पुरुषों की कुल मृत्यु संख्या को उसी आयु वर्ग एवं लिंग की कुल संख्या से विभाजित किया जाता है और परिणाम में 1000 से गुणा किया जाता है। इसकी गणना के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है।

आयु और लिंग के अनुसार मृत्युओं के आंकड़ों की उपलब्धता में कठिनाई के कारण उपयोगी होते हुए भी इसका प्रचलन अधिक नहीं है।

(6) जीवन सारणी (Life Table)

यह भिन्न-भिन्न आयु पर मृत्यु दर की माप की परोक्ष विधि है। क्रमागत आयु विशिष्ट मृत्युदर के समान ही जीवन सारणी का भी निर्माण किया जाता है जिसके लिए पर्यवेक्षित मृत्यु दशाओं का ज्ञान आवश्यक होता है। जीवन सारणी के द्वारा भिन्न-भिन्न आयु वर्गों में व्यक्ति के जीवित रहने तथा मृत्यु के संबंध में सम्भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है। जनांकिकी में मृत्यु दर गणना की यह एक परम्परागत विधि है जिसकी शुद्धता जीवन पंजीकरण तथा जनगणनाओं की विश्वसनीयता पर निर्भर करती है। यहा कारण है कि इसकी गणना विकसित देशों के लिए ही अधिक उपयोगी और विश्वसनीय हो सकती है जहाँ विकसित तकनीक, उच्च शैक्षिक स्तर, सामाजिक जागरूकता आदि के फलस्वरूप इस प्रकार के विश्वसनीय आंकडे एकत्रित किये जा सकते हैं।

उत्तरजीविता दर (Survival Rate) की गणना एक निश्चित अन्तराल (सामान्यतः 1 वर्ष या 5 वर्ष) पर निर्मित जीवन सारणी के रूप में की जाती है। एक वर्ष के वय-अन्तराल पर बनायी गयी सारणी को संक्षिप्त जीवन सारणी (Abridged Life Table) के नाम से जाना जाता है। जीवन सारणी की रचना करते समय गणना की सुगमता तथा तुलनीयता के उद्देश्य से प्रायः 10,000 जनसंख्या को आधारी जनसंख्या मानकर गणना आरंभ की जाती है। एक वर्ष के समय अन्तराल अनुसार जीवन सारणी के निर्माण की प्रक्रिया को तालिका में प्रदर्शित किया गया है और इसके द्वारा प्रतिवर्ष होने वाली मृत्यु सम्भाविताओं के परिकलन की विधि को समझाया गया है।

साधारण जीवन सारणी (काल्पनिक)

आयु

एक वर्ष के अन्तराल पर उत्तर जीविता संख्या

क्रमागत वर्ष के मध्य मृत्यु संख्या

क्रमागत वर्ष के मध्य संभाविता प्रति 1000

1

2

3

4

0

10,000

2,000

200

1

8,000

1,000

125

2

7,000

1,000

143

4

6,000

500

83

5

5,500

500

36

6

5,300

200

39

7

5,200

100

19

8

4,900

-

-

-

-

-

-

40

4,000

100

25

41

3,900

-

-


मृत्यु सम्भाविता की गणना निम्नलिखित सूत्र द्वारा की जाती है-

(7) कारण विशिष्ट मृत्यु दर (Cause Specific Mortality Rate)

यह मृत्यु दर कारण के अनुसार मृत्यु दर को प्रदर्शित करती है। यह किसी नियत समयावधि (प्रायः 1 वर्ष) में किसी विशेष कारण से होने वाली मृत्युओं की कुल संख्या और उसी अवधि की औसत जनसंख्या अनुपात की सूचक होती है। किसी बीमारी या अन्य कारणों से एक वर्ष में होने वाली मृत्युओं की संख्या कुल जनसंख्या के अनुपात में अति निम्न होती है। अतः इस अनुपात को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करने के उद्देश्य से प्राप्त अनुपात में 10,000 या 1,00,000 से गुणा कर दिया जाता है। इस प्रकार मृत्युदर की गणना प्रति 10 हजार अथवा प्रति 1 लाख जनसंख्या पर की जाती है। इसके परिकलन के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है-

कारण विशिष्ट मृत्युदर की गणना आयु तथा लिंग के अनुसार भी की जा सकती है। विशेष आयु के लिए किसी आयु वर्ग की विशिष्ट कारण से होने वाली मृत्युओं और उसी आयु वर्ग की कुल जनसंख्या के अनुपात का परिकलन किया जाता है।

मर्त्यता के निर्धारक तत्व

(Determinants of Mortality)

प्रत्येक जन्म लेने वाले मनुष्य की मृत्यु अवश्यंभावी होती है किन्तु विभिन्न व्यक्तियों के मृत्यु के समय तथा उसके लिए उत्तरदायी कारणों में भिन्नता हो सकती है। मर्त्यता स्थान, काल, आयु आदि के अनुसार परिवर्तनशील होती है। मर्त्यता के निर्धारक तत्वों को दो भागों में बांटा जाता है।

(1) आंतरिक कारक- आन्तरिक कारक मूलतः जैविक होते हैं और उनसे व्यक्ति की शारीरिक क्रियाशीलता में तीव्रता से होने वाले परिवर्तन के कारण जीवन शक्ति में ह्रास होने लगता है और अन्ततः जीवन समाप्त हो जाता है। इसके अंतर्गत आयु, लिंग, आनुवांशिक रोग, असाध्य शारीरिक रोग, संचरण तंत्र बीमारियों आदि को सम्मिलित किया जा सकता है।

(2) बाह्य कारक- बाह्य कारक मुख्यतः पर्यावरण से संबंधित होते हैं। पर्यावरण के बुरे प्रभावों से भी मृत्यु होती है जिनमें पर्यावरणी प्रदूषण, संक्रामक रोग, तापमान में तीव्र परिवर्तन, बाढ़, सूखा, भूकम्प, ज्वालामुखी उद्गार आदि प्राकृतिक कारकों के अतिरिक्त अनेक सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक कारकों का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है।

मर्त्यता को प्रभावित करने वाले बाह्य कारकों पर विशेष रूप से सामाजिक आर्थिक कारकों पर एक सीमा तक नियंत्रण पाया जा सकता है किन्तु जैविक तथा प्राकृतिक कारकों पर नियंत्रण कठिन और कभी-कभी असंभव हो जाता है। मर्त्यता को प्रभावित करने वाले आन्तरिक कारक सर्वत्र लगभग समान रूप से क्रियाशील होते हैं किन्तु बाह्य कारकों का प्रभाव वहाँ अधिक होता है जो क्षेत्र प्रौद्योगिकी की दृष्टि से पिछड़े हुए होते हैं तथा स्वास्थ्य एवं चिकित्सा संबंधी सविधाएं अपर्याप्त होती हैं। मृत्युदर को निम्नलिखित घटक प्रभावित करते हैं।

(A) जनांकिकीय कारक- मृत्युदर को प्रभावित करने वाले जनांकिकीय कारकों में प्रमुख हैं-

(i) आयु- मृत्युदर को प्रभावित करने वाला सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक आयु है। जनांकिकीय आंकड़े इसके प्रमाण हैं कि जीवन के प्रथम वर्ष में मृत्युदर किसी भी अन्य आयु वर्ग से अधिक पायी जाती है। अति उच्च आयु वर्ग में भी मृत्यु दर उच्च रहती है। मृत्यु का सर्वाधिक खतरा जन्म के प्रथम महीने में होता है। इसके पश्चात् बच्चे की आयु में वृद्धि के साथ सामान्यतः मृत्युदर घटती जाती है। युवा आयु वर्ग (15-35) में मृत्यु दर न्यूनतम रहती है किन्तु प्रौढ़ वर्ग (35-39) से पुनः मृत्युदर में वृद्धि आरम्भ होती है और उच्च आयु वर्गों में क्रमशः बढ़ती जाती है। यही कारण है कि जिस प्रदेश में बच्चों का अनुपात उच्च होता है वहाँ मृत्युदर भी उच्च होती है।

(ii) मृत्यु - स्त्रियों और पुरुषों के मृत्युदर में भी भिन्नता पायी जाती है। एक महत्वपूर्ण जनांकिकीय तथ्य यह है कि किसी भी आयु वर्ग में रोगों से लड़ने की क्षमता तथा जीवन संभावित पुरुषों की तुलना में स्त्रियों में अधिक पायी जाती है। विकसित देशों में पुरुष मर्त्यता प्रायः स्त्रियों से अधिक है जिसका कारण सम्भवतः यह है कि पुरुषों को औद्योगिक तथा व्यावसायिक जोखिम अधिक वहन करना पड़ता है और साथ ही वहाँ पुरुषों और स्त्रियों के जीवन मूल्यों तथा जीवन पद्धति में अन्तर का होना है। वहाँ स्त्रियों का शैक्षिक स्तर तथा जीवन स्तर ऊँचा है।

(iii) नगरीकरण- मर्त्यता को प्रभावित करने वाले जनांकिकीय कारकों में नगरीकरण का भी महत्वपूर्ण स्थान है। ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में लोगों के व्यावसाय, जीवन-स्तर, जीवन पद्धति, आवासीय दशाओं, चिकित्सा आदि में उल्लेखनीय भिन्नता के कारण दोनों क्षेत्रों की मर्त्यता में भी अन्तर पाया जाता है। विकसित देशों में स्वास्थ्य तथा चिकित्सा सुविधाएँ ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में लगभग समान रूप से मिलती हैं। जबकि नगरों में प्रदूषण तथा दुर्घटना आदि का खतरा अधिक होता है। संभवतः इसी कारण से ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में नगरीय क्षेत्रों में औसत मृत्युदर अधिक है।

(B) सामाजिक कारक

मर्त्यता को प्रभावित करने वाले सामाजिक कारकों में सामाजिक प्रथाएं, शैक्षिक स्तर, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सुविधाएं, स्वच्छता एवं आवासीय स्थिति, पोषण दशाएं आदि प्रमुख हैं। बाल हत्या, सती प्रथा आदि सामाजिक प्रथाएं, अशिक्षा, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, प्रदूषित पर्यावरणीय दशाएं आदि मर्त्यता की वृद्धि में सहायक होती हैं। इन अवांक्षित दशाओं में सुधार के परिणामस्वरूप मृत्यु दर में ह्मस की प्रवृत्ति पायी जाती है।

(1) विश्व के विभिन्न देशों तथा समाजों में कुछ ऐसी प्रथायें मिलती हैं जो प्रत्यक्ष रूप से मृत्युदर को प्रभावित करती हैं। कुछ दशक पहले तक जापान के कुछ मानव समुदायों में जनसंख्या को कम करने के उद्देश्य से सामूहिक बाल हत्या का प्रचलन था। परन्तु वर्तमान में नहीं के बराबर है। गर्भस्थ शिशु कन्या होने पर गर्भपात कराने की प्रवृत्ति पिछले 20-25 वर्षों से अधिक बढ़ गयी है। इस प्रकार के स्त्री भ्रूण हत्या का प्रचलन नगरों में ही अधिक है किन्तु ऐसी घटनाओं को मृत्यु दर में सम्मिलित नहीं किया जाता है।

(2) चिकित्सा और स्वास्थ्य सुविधाएँ मृत्यु दर को प्रभावित करने वाली प्रमुख कारक हैं। विकसित देशों में जहाँ चिकित्सा की अच्छी व्यवस्था होती है और स्वास्थ्य संबंधी विविध सुविधाएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होती हैं, वहाँ बीमारियों तथा रोगों पर नियंत्रण करने में सुगमता होती है और सामान्य जन-स्वस्थ्य उत्तम रहता है।

(3) आवासीय तथा पर्यावरणीय दशाएं भी मर्त्यता को प्रभावित करती हैं। विकासशील देशों में ग्रामीण और नगरीय दोनों क्षेत्रों में आवास की गम्भीर समस्याएं पायी जाती हैं। नगरों में विकसित होने वाली मलिन बस्तियों में गंदगी के कारण मानव जीवन नारकीय हो जाता है।

(4) अशिक्षा पिछड़े समाज की एक प्रमुख विशेषता है। अशिक्षित समाज में अंधविश्वास, रूढ़िवादिता धर्मान्धता आदि के व्याप्त होने के कारण जनता को रोगों तथा बीमारियों के फैलने के कारणों, उनसे बचाव के उपाय, स्वच्छता के महत्व, स्वास्थ्य सविधाओं आदि की समुचित जानकारी नहीं हो पाती है और अन्ततः महामारियों आदि के प्रकोप से मृत्यु दर में वृद्धि होती है।

(C) आर्थिक कारक

आर्थिक विकास के फलस्वरूप प्रति व्यक्ति आय बढ़ती है, परिवारों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है, पोषण क्षमता बढ़ती है और जीवन स्तर तथा जनस्वास्थ्य में सुधार होता है। अतः आर्थिक समृद्धि में प्रायः मर्त्यता में हास होता है। निर्धनता बढ़ने पर मृत्यु दर में वृद्धि की प्रवृत्ति पायी जाती है। यूरोप में औद्योगिक क्रांति के होने से आज से लगभग 150 वर्ष पहले आर्थिक स्थिति में उल्लेखनीय सुधार हुआ जिससे पोषण और स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। इससे मृत्यु-दर निरन्तर घटती गयी और जो कभी 60 प्रति हजार से ऊपर थी वह घटकर आज 10 प्रति हजार के नीचे आ गयी है।

(D) राजनीतिक कारक

किसी देश की मृत्यु दर पर सरकारी नीति, प्रयत्न आदि का प्रभाव देखा जा सकता है। युद्ध, सामूहिक हत्या आदि के कारण मृत्युदर में वृद्धि होती है। युद्ध में लिप्त देश में भारी संख्या में सैनिकों के मारे जाने से मृत्यु दर बढ़ जाती है। द्वितीय विश्व युद्ध की अवधि में जर्मनी, फ्रांस, इटली आदि देशों में मृत्यु दर सामान्य से अधिक हो गयी थी। इसी प्रकार अपराधियों को भारी संख्या में मृत्यु दण्ड देने की सरकारी नीति से भी मृत्यु दर बढ़ती है। इतना ही नहीं, विभिन्न देशों में राजनीतिक कारणों से फैले आतंकवाद के कारण प्रति वर्ष असंख्य लोग मारे जाते हैं जिससे सामान्य मृत्यु दर में वृद्धि हो जाती है।

(E) प्राकृतिक कारक

विभिन्न प्राकृतिक कारणों जैसे बाढ़, सूखा (अकाल) भूकम्प, महामारी आदि से प्रति वर्ष असंख्य जन जीवन समाप्त हो जाता है जिससे मृत्यु दर में वृद्धि होती है। नदियों के किनारे सागर के तटवर्ती भागों में बाढ़ों के आने से काफी धन-जन की क्षति होती है। वर्षा के अभाव या तापमान में तीव्र परिवर्तन हो जाने से फसलें नहीं उग पाती हैं अथवा नष्ट हो जाती हैं और खाद्यान्नों की कमी से अकाल फैल जाता है जिसका परिणाम सामूहिक मृत्यु के रूप में प्रकट होता है। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यवर्ती दशकों में यूरोप में कई बार अकाल आये जिससे लाखों लोग असमय मृत्यु को प्राप्त हो गये। एशिया के मानसूनी प्रदेशों में मानसून की अनिश्चितता तथा अनियमितता के कारण प्रायः कभी बाढ़ तो कभी सूखा का प्रकोप होता रहता है जिससे जन-जीवन बुरी तरह प्रभावित होता है।

इस प्रकार अनेकानेक ऐसे तत्व हैं जो मृत्युदर को प्रभावित करते हैं।

मृत्युता का विश्व प्रतिमान (World Pattern of Mortality)

सन् 1962 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने जीवन प्रत्याशा 65 निर्धारित की थी। 1974 में विश्व जनसंख्या सम्मेलन के अनुसार 1985 तक विश्व में जीवन प्रत्याशा 62 वर्ष तथा सन् 2000 ई. तक 74 वर्ष हो गई। 2005 में जीवन प्रत्याशा 72 मानी जा रही थी। यह इस आधार पर निश्चित किया गया था कि जहां विकसित देश जैविकीय कारकों के साथ अपने को उस समय तक स्थिर कर लेंगे वहीं बाद में अविकसित देश भी इस स्तर को प्राप्त कर लेंगे। 1984 में विश्व जनसंख्या चार्ट में विश्व की शुद्ध मृत्यु दर 11 प्रति हजार दर्शायी गई है। मृत्युक्रम के अनुसार विकसित तथा अविकसित देशों में अन्तर बहुत कम रह गया। विकसित देशों में मृत्युक्रम 10 प्रति हजार परन्तु अविकसित देशों में 11 प्रति हजार है। इस अवधि में अफ्रीका महाद्वीप में अधिकतम मृत्युक्रम 16 प्रति हजार पाया जाता है। यूरोप 11 प्रति हजार के साथ दूसरे स्थान पर प्रदर्शित किया गया है। एशिया में मृत्युक्रम 10, उत्तरी अमेरिका में 9, लैटिन अमेरिका तथा ओसेनिया में 8 प्रति हजार मिलता है। सोवियत संघ में मृत्युक्रम 9 प्रति हजार है।

शिशु मृत्युक्रम में उत्तरी अमेरिका में 12 प्रति हजार से लेकर अफ्रीका में 114 प्रति हजार तक का अन्तर मिलता है। पूरे विश्व के लिए औसत शिशु मृत्युक्रम 81 प्रति हजार है। अधिक विकसित देशों में

शिशु मृत्युदर

 औसत शिशु मृत्यु दर 17 प्रति हजार तथा अविकसित देशों में 92 प्रति हजार है। अफ्रीका महाद्वीप सबसे कम जीवन प्रत्याशा तथा उच्च मृत्युक्रम के साथ उच्च शिशु क्रम को दर्शाता है। एशिया महाद्वीप में शिश मत्यक्रम 80 प्रति हजार तथा लैटिन अमेरिका में 63 प्रति हजार है। ओसेनिया में शिशु मृत्युक्रम 39 प्रति हजार और यूरोप में 16 प्रति हजार मिलता है। सोवियत संघ में शिशु मृत्युक्रम 25 हजार पाया जाता है। शिशु मृत्युक्रम, शुद्ध मृत्यु दर की अपेक्षा सामाजिक आर्थिक विकास का सबसे बड़ा परिचायक है।

विकसित एवं विकासशील देशों में शिशु मृत्युक्रम पर दृष्टिपात करने से पूर्ण अन्तर स्पष्ट हो जाता है। उत्तरी अमेरिका, यूरोप, सोवियत संघ, चीन, जापान, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, अर्जेन्टाइना, चिली, युरुग्वे, पराग्वे, वेनेजुएला, गुयाना तथा सूरीनाम में शिशु मृत्युदर 50 प्रति हजार से कम है। अफ्रीका महाद्वीप में शिशु मृत्यु दर 100 से ऊपर तथा प्रायः 140 प्रति हजार से अधिक मिलती है। लैटिन अमेरिका एवं एशिया महाद्वीप में भी 50 से 100 प्रति हजार शिशु मृत्युदर मिलती है। भारत में शिशु मृत्युदर 118 प्रति हजार आंकी गयी है। अविकसित देशों में भी अफ्रीका महाद्वीप, एवं द. एशिया, लैटिन अमेरिका तथा पूर्वी एशिया की अपेक्षा अधिक शिशु मृत्युदर मिलती है। कुछ अविकसित देश जैसे चीन, क्यूबा, श्रीलंका, मलेशिया तथा थाइलैंड ने सामुदायिक स्तर पर प्राथमिक स्वास्थ्य सावधानियों द्वारा शिशु मृत्युक्रम को कम कर लिया है।

भारत में मर्त्यता

(Mortality in India)

भारत विकासशील देशों का एक उत्कृष्ट प्रतिनिधि है। अन्य विकासशील देशों की भाँति यहाँ भी 70-80 वर्ष पहले मृत्युदर बहुत ऊँची थी किन्तु उत्तरवर्ती वर्षों में इसमें क्रमशः कमी आती गयी। भारतीय जनगणना के प्रारम्भिक तीन दशकों (1891-1901, 1901-11 और 1911-21) में क्रमशः अकाल, प्लेग, और इन्फ्लूएन्जा के देशव्यापी महामारियों के फैलने से असंख्य लोग असमय मृत्यु के मुँह में चले जाते थे जिसके परिणामस्वरूप मत्यदर अधिक ऊँची थी। बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशक में अशोधित मृत्युदर 43 प्रति हजार थी जो दूसरे दशक में बढ़कर 47 प्रति हजार तक पहुँच गयी। स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार तथा महामारियों, संक्रामक बीमारियों, प्राकृतिक संकटों पर किये गये नियंत्रण के प्रयासों के परिणाम स्वरूप तीसरे दशक से मृत्युदर 36 और चौथे दशक में 33 प्रति हजार अंकित की गयी। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश की मृत्युदर 27 प्रति हजार थी। इसके पश्चात् विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत देश का बहुमुखी विकास आरम्भ हुआ। नियोजन काल में चिकित्सा और स्वास्थ्य सुविधाओं में उल्लेखनीय प्रगति हुई और अकाल, महामारी, संक्रामक रोगों, कुपोषण आदि से निपटने के लिए अनेक कारगर कार्यक्रमों के निर्माण और तत्परता से उनके क्रियान्वयन द्वारा मृत्युदर में कमी लाने के उल्लेखनीय प्रयास किये गये शिक्षा के प्रसार से महमारियों और जानलेवा रोगों तथा बीमारियों की रोकथाम में सहायता मिली है। महामारी के रूप में फैलने वाली बीमारियों प्लेग, चेचक, मलेरिया, मियादी ज्वर आदि के उन्मूलन के प्रयास सफल हुए

है जिससे असमय होने वाली मृत्युओं में बहुत कमी हो गयी है। इसके परिणामस्वरूप मृत्युदर घटने की प्रवृत्ति निरन्तर जारी है।

भारत में मर्त्यता की प्रवृत्ति (1901-2011)

दशक

अशोधित मृत्युदर (प्रति हजार)

दशक

अशोधित मृत्युदर (प्रति हजार)

1901-11

43

1951-61

23

1911-21

47

1961-71

19

1921-31

36

1971-81

15

1931-41

33

1981-91

10

1941-51

27

1991-2001

8.5

 

 

2011

8


मर्त्यता का क्षेत्रीय प्रतिरूप

भारत के विभिन्न राज्यों में अशोधित मृत्युदर में बहुत अधिक अन्तर नहीं पाया जाता है किन्तु उच्चतम और निम्नतम मर्त्यता में 7 प्रति हजार का अंतर है। सम्पूर्ण भारत की औसत मृत्युदर 8 प्रति हजार है। देश की सर्वोच्य मृत्युदर (10.5) उड़ीसा में है और निम्नतम मृत्युदर (3.9) चंडीगढ़ के लिए अंकित की गयी है। अन्य राज्य एवं केन्द्रशासित क्षेत्र इन्हीं के बीच में आते हैं। भारत में मृत्युदर के प्रादेशिक वितरण को देखते हुए सम्पूर्ण राज्यों एवं केन्द्रशासित क्षेत्रों को निम्नांकित तीन बृहत् वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-

(1) उच्च मृत्युदर वाले क्षेत्र- देश के 3 बड़े राज्यों उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में मृत्यु दर 10 प्रति हजार से अधिक है। देश की सर्वोच्च मृत्युदर (10.5 प्रति हजार) उड़ीसा में अंकित की गयी। ये सभी राज्य देश के पिछड़े हुए क्षेत्र है जहाँ ग्रामीण जनसंख्या तथा कृषि की प्रधानता है और साक्षरता का स्तर निम्न है।

(2) मध्यम मृत्युदर वाले क्षेत्र- सामान्यतः देश के अधिक बड़े और अधिक लघु आकार वाले राज्यों को छोड़कर अधिकांश राज्यों में मृत्युदर मध्यम (7 से 10 प्रति हजार) है। इस श्रेणी के राज्यों में सर्वोच्च मृत्युदर असम तथा छत्तीसगढ़ (9.6) की है जिसके पश्चात् मेघालय, झारखण्ड, बिहार, राजस्थान, असम, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, दादर एवं नगर हवेली, कर्नाटक, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, गोआ, गुजरात, पंजाब और महाराष्ट्र आते हैं। इन राज्यों में सामान्यतः साक्षरता और नगरीकरण का स्तर भी मध्यम प्रकारका है। इस श्रेणी के अन्य राज्यों में शिशु मृत्यु दर 45 और 65 प्रति हजार के मध्य पायी गयी है।

(3) निम्न मृत्यु दर वाले क्षेत्र- इसके अन्तर्गत सम्मिलित सभी राज्य लघु आकार वाले हैं। सबसे कम मृत्युदर चंडीगढ़ (3.9) में अंकित की गयी है। इसके पश्चात् आरोही क्रम में क्रमशः अंडमान एवं निकोबार, दिल्ली, मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर, दमन एवं दीव, लक्षद्वीप, सिक्किम, केरल और अरुणाचल प्रदेश का स्थान है। इन प्रदेशों में साक्षरता दर उच्च है और अधिकांश राज्यों में नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत राष्ट्रीय स्तर से अधिक है। दिल्ली, चंडीगढ़, पांडिचेरी और लक्षद्वीप में 55 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या‌नगरों में निवास करती है।

भारत में उच्च मृत्यु दर के कारण

भारत में मृत्यु के लिए उत्तरदायी कारणों के अनुसार मृत्यु के विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। किन्तु सामान्य अनुमान के आधार पर देश में उच्च मृत्यु दर के कारणों में निर्धनता, प्राकृतिक प्रकोपों तथा संक्रामक रोगों की व्यापकता, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, अशिक्षा, सामाजिक रूढ़िवादिता, अंधविश्वास तथा अज्ञानता, शिशु एवं मातृ मृत्युओं की अधिकता, पर्यावरण प्रदूषण आदि प्रमुख है।

(1) शिशु तथा मातृ मृत्युओं की अधिकता- भारत में अल्पायु में विवाह की परम्परा अधिक व्यापक है। कम आयु में दाम्पत्य जीवन आरम्भ हो जाने से स्त्रियां अपरिपक्व अवस्था में ही गर्भ धारण कर लेतो है जिससे वे स्वयं तो कमजोर और रोगग्रस्त हो ही जाती है उनसे उत्पन्न शिशु भी प्रायः दुर्बल, रोगी और क्षीण आयु वाले होते हैं। इस प्रकार प्रति वर्ष हजारों स्त्रियाँ प्रसव के कारण ही मर जाती हैं और असंख्य नवजात शिशु पहले महीने में या कुछ ही महीनों के भीतर मर जाते हैं।

(2) अशिक्षा- स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश में साक्षरता क्रमशः बढ़ रही है किन्तु अभी भी अशिक्षित व्यक्तियों को भारी संख्या देश के विभिन्न भागों विशेषतः सघन बसे हुए प्रदेशों के ग्रामीण क्षेत्रों तथा जनजातीय क्षेत्रों में पायी जाती है। अशिक्षा के कारण लोग अज्ञानता और अंधविश्वास के शिकार होते हैं। संतुलित भोजन के विषय में जानकारी के अभाव में भी अनेक बार बीमारियां जान लेवा बन जाती हैं।

(3) सामाजिक रूढ़िवादिता, अंधविश्वास तथा अज्ञानता- भारत के परम्परागत समाज में सामाजिक रूढ़िवादिता और अंधविश्वास अधिक प्रबल है जिसके कारण बहुत से लोग रोगियों तथा बीमार व्यक्तियों का सही इलाज न कराकर जादू टोने, झाड़-फूंक आदि का सहारा लेते है जिससे असंख्य रोगी मृत्यु का शिकार हो जाते है। अज्ञानता के कारण लोग रोगों तथा बीमारियों से बचाव के उपायों, स्वच्छता के महत्व एवं तरीकों आदि से परिचित नहीं होते है जिसके कारण अनेक बार साधारण बीमारियाँ भी भयंकर रूप लेकर जान-लेवा बन जाती हैं।

(4) चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव- निर्धनता पिछड़ी प्रौद्योगिकी के कारण भारत में पश्चिमी देशों की तुलना में चिकित्सा सुविधाओं की बहुत कमी है। देश में हजारों व्यक्ति उचित चिकित्सा के अभाव में मर जाते हैं। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में तो प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र भी अधिक दूर-दूर है। अनेक सुदूर दुर्गम क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधाओं का पूर्णतया अभाव है।

(5) प्राकृतिक प्रकोप और संक्रामक बीमारियाँ- भारत में मृत्यु दर ऊँची होने में प्राकृतिक प्रकोपों जैसे बाढ़, सूखा, भूकम्प आदि की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले तक प्राकृतिक संकटों तथा संक्रामक बीमारियों के प्रकोप अधिक भयंकर होते थे किन्तु देश में कल्याणकारी सरकार की स्थापना के पश्चात् इन प्रकोपों से निपटने के सफल प्रयासों से उनसे होने वाली मृत्युओं की संख्या बहुत कम हो गयी है। पुरानी संक्रामक बीमारियों प्लेग, चेचक, हैजा, मलेरिया आदि का लगभग उन्मूलन किया जा चुका है किन्तु यदा-कदा ये बीमारियाँ उभरती ही रहती है। कभी-कभी ऐसी नयी बीमारियां महामारी का रूप ले लेती हैं जिनकी रोकथाम के लिए उपयुक्त दवाएं तथा चिकित्सा उपलब्ध नहीं हो पाती है।

(6) निर्धनता- भारत में निर्धनता देश व्यापी है। आर्थिक साधनों की कमी के कारण अधिकांश भारतीयों को पर्याप्त संतुलित आहार और रहने के लिए स्वास्थ्यकर आवास उपलब्ध नहीं हो पाता है। कुपोषण के कारण देश में विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों तथा नगरीय मलिन बस्तियों में नवजात शिशुओं तथा प्रसवं वाली माताओं को मृत्यु अधिक होती है। निर्धनता के कारण असंख्य लोग चिकित्सा के अभाव में असमय मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।

मृत्युदर को कम करने के उपाय

भारत सहित अन्य विकासशील देशों में मृत्यु दर घटने की प्रबल सम्भावनाएं हैं। अतः जीवन प्रत्याशा को बढ़ाने तथा शिशु मृत्यु दर में कमी लाना नितान्त आवश्यक है। भारत में मृत्यु दर में अपेक्षित कमी लाने के उद्देश्य से निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं-

1. संक्रामक बीमारियों पर शीघ्र नियंत्रण किया जाना अनिवार्य है क्योंकि इससे प्रति वर्ष हजारों-लाखों लोगों की मृत्यु हो जाती है।

2. कृषि तथा उद्योगों में नवीन वैज्ञानिक शोधों तथा प्रौद्योगिकी के प्रयोग से उत्पादन में त्वरित वृद्धि के सरकारी तथा सामाजिक प्रयास की जानकारी की आवश्यकता है।

3. शिक्षा का प्रसार सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों तक किया जाना चाहिए और परिवार कल्याण संबंधी शिक्षा तथा प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

4. देश के समस्त क्षेत्रों विशेषतः ग्रामीण क्षेत्रों और नगरीय मलिन बस्तियों में सफाई और चिकित्सा सुविधाओं को बढ़ाने के कारगर प्रयास किये जाने चाहिए।

5. चिकित्सा विज्ञान में नवीन शोधों के प्रयासों के साथ ही चिकित्सकों, नर्सों, दाइयों आदि के प्रशिक्षण और दवाओं के निर्माण पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

6. पीने के लिए स्वच्छ जल और रहने के लिए स्वच्छ आवास की व्यवस्था भी अनिवार्य है क्योंकि इसके बिना बीमारियों पर नियंत्रण करना अत्यंत कठिन होगा।

إرسال تعليق

Hello Friends Please Post Kesi Lagi Jarur Bataye or Share Jurur Kare