15.
संविधान का निर्माण - एक नए युग की शुरुआत
उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)
प्रश्न 1. उद्देश्य प्रस्ताव में किन आदर्शो पर जोर दिया गया था?
उत्तर:
उद्देश्य प्रस्ताव' में आजाद भारत के संविधान के मूल आदर्शों की रूपरेखा पेश की गई
थी। इस प्रस्ताव के माध्यम से उस फ्रेमवर्क को प्रस्तुत किया गया था, जिसके अनुसार
संविधान निर्माण के कार्य को आगे बढ़ाना था। यह उद्देश्य प्रस्ताव 13 दिसम्बर,
1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के सामने प्रस्तुत किया। इस प्रस्ताव में भारत
को एक स्वतंत्र, सम्प्रभु गणराज्य घोषित किया गया था। नागरिकों को न्याय, समानता एवं
स्वतंत्रता का आश्वासन दिया गया था और यह वचन दिया गया था कि अल्पसंख्यकों, पिछड़े
एवं जनजातीय क्षेत्रों और दमित एवं अन्य पिछड़े वर्गों के लिए पर्याप्त रक्षात्मक प्रबंध
किए जाएँगे।
प्रश्न 2. विभिन्न समूह अल्पसंख्यक शब्द को किस तरह परिभाषित कर रहे
थे? ।
उत्तर:
विभिन्न समूह 'अल्पसख्यक' शब्द को निम्नलिखित तरह से परिभाषित कर रहे थे
1.
कुछ लोग मुसलमानों को ही अल्पसंख्यक कह रहे थे। उनका तर्क था कि मुसलमानों के धर्म,
रीति रिवाज़ आदि हिंदुओं से बिलकुल अलग हैं और वे संख्या में हिंदुओं से कम हैं।
2.
कुछ लोग दलित वर्ग के लोगों को हिंदुओं से अलग करके देख रहे थे और वह उनके लिए अधिक
स्थानों का आरक्षण चाहते थे।
3.
कुछ लोग आदिवासियों को मैदानी लोगों से अलग देखकर आदिवासियों को अलग आरक्षण देना चाहते
थे।
4.
लीग के कुछ सदस्य सिख धर्म के अनुयायियों को अल्पसंख्यक का दर्जा देने और अल्पसंख्यक
की सुविधाएँ देने की माँग कर रहे।
5.
मद्रास के बी पोकर बहादुर ने अगस्त, 1947 में संविधान सभा में अल्पसंख्यकों को पृथक्
निर्वाचिका देने की बजाय संयुक्त निर्वाचिका की वकालत की और कहा उसी के भीतर एक ऐसा
राजनीतिक ढाँचा बनाया जाए जिसके अंतर्गत अल्पसंख्यक भी जी सकें और अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक
समुदायों के बीच मतभेद कम हो।"
6.
मुसलमान बुद्धिजीवी भी जब पृथक् निर्वाचक की हिमायत करने लगे तो आर० वी० धुलेकर और
सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे लोगों ने पृथक निर्वाचिका का विरोध करते हुए जो शब्द कहे,
उनका भावार्थ था अंग्रेज तो चले गए, मगर जाते-जाते हिंदू-मुसलमानों फूट डालकर शरारत
का बीज बो गए।
7.
गोविंद वल्लभ पंत ने संविधान में अल्पसंख्यकों के लिए अलग निर्वाचिका का विरोध करते
हुए कहा कि मेरा मानना है कि पृथक् निर्वाचिका अल्पसंख्यकों के लिए आत्मघातक साबित
होगी।" उन्होंने आगे कहा निष्ठावान नागरिक बनने के लिए सभी लोगों को समुदाय और
खुद को बीच में रखकर सोचने की आदत छोड़नी होगी।"
18.
एन० जी० रंगा ने जवाहर लाल नेहरू द्वारा पेश किए गए उद्देश्य प्रस्ताव का स्वागत करते
हुए कहा कि अल्पसंख्यकों के बारे में बहुत बातें हो रही हैं। अल्पसंख्यक कौन हैं? तथाकथित
पाकिस्तानी प्रांतों में रहने वाले हिंदू, सिख और यहाँ तक मुसलमान भी अल्पसंख्यक नहीं
हैं। जी नहीं, असली अल्पसंख्यक तो इस देश की जनता है। यह जनता इतनी दबी कुचली और इतनी
उत्पीडित है कि अभी तक साधारण नागरिक के अधिकारों का लाभ भी नहीं उठा पा रही है।
प्रश्न 3. प्रांतों के लिए ज्यादा शक्तियों के पक्ष में क्या तर्क दिए
गए।
उत्तर:
केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों अर्थात् प्रांतों के अधिकारों के प्रश्न पर भी संविधान
सभा में पर्याप्त बहस हुई। सविधान सभा के कुछ सदस्य शक्तिशाली केन्द्र के समर्थक थे,
जबकि कुछ अन्य सदस्य प्रांतों के लिए अधिक शक्तियों के पक्ष में थे। ऐसे सदस्यों द्वारा
प्रांतों को अधिक शक्तियाँ दिए जाने के पक्ष में अनेक महत्त्वपूर्ण तर्क दिए गए। संविधान
के मसविदे में तीन सूचियों केंद्रीय सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची को बनाया गया
था। केन्द्रीय सूची के विषय केवल केंद्र सरकार और राज्य सूची के विषय केवल राज्य सरकारों
के अधीन होने थे। समवर्ती सूची के विषय केंद्र और राज्य दोनों की संयुक्त जिम्मेदारी
थे। उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय सूची में बहुत अधिक विषयों को रखा गया था। इसी प्रकार
प्रांतों की इच्छाओं की कोई परवाह न करते हुए समवर्ती सूची में भी बहुत अधिक विषयों
को रख दिया गया था।
मद्रास
के सदस्य के० सन्धनम ने राज्य के अधिकारों की पुरजोर वकालत की। उन्होंने न केवल प्रांतों
अपितु केन्द्र को भी शक्तिशाली बनाने के लिए शक्तियों के पुनर्वितरण की आवश्यकता पर
बल दिया। उनका तर्क था कि आवश्यकता से अधिक जिम्मेदारियाँ होने पर केन्द्र
प्रभावशाली
रूप से कार्य करने में समर्थ नहीं हो पाएगा। केंद्र के कुछ दायित्वों में कमी करके
उन्हें राज्य सरकारों को सौंप देने से अधिक शक्तिशाली केंद्र का निर्माण किया जा सकता
था। सन्धनम ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह दलील देना कि "संपूर्ण शक्तियों केंद्र
को सौंप देने से वह शक्तिशाली हो जाएगा केवल एक गलतफहमी है। सन्धनम का तर्क था कि शक्तियों
का विद्यमान वितरण विशेष रूप से राजकोषीय प्रावधान, प्रांतों को पंगु बनाने वाला था।
इसके अनुसार भू राजस्व के अतिरिक्त अधिकांश कर केंद्र सरकार के अधिकार में थे। इस प्रकार,
धन के अभाव में राज्यों में विकास परियोजनाओं को कार्यान्वित करना संभव नहीं था। शक्तियों
के प्रस्तावित वितरण के विषय में सन्धनम ने स्पष्ट शब्दों में कहा, 'मैं ऐसा संविधान
नहीं चाहता जिसमें इकाई को आकर केंद्र से यह कहना पड़े कि मैं अपने लोगों की शिक्षा
की व्यवस्था नहीं कर सकता।
मैं
उन्हें साफ-सफाई नहीं दे सकता, मुझे सड़कों में सुधार और उद्योगों की स्थापना के लिए
खैरात दे दीजिए। प्रांतों को अधिक शक्तियों दिए जाने के पक्ष में के० सन्धनम का तर्क
था कि केन्द्रीय नियंत्रण में बहुत अधिक विषयों को रखे जाने तथा बिना सोचे-समझे शक्तियों
के प्रस्तावित वितरण को लागू किए जाने के परिणाम अत्यधिक हानिकारक होंगे, इसके परिणामस्वरूप
कुछ ही वर्षों में सारे प्रांत केन्द्र के विरुद्ध विद्रोह' पर उतारू हो जाएंगे। प्रातों
के अनेक अन्य सदस्य भी चाहते थे कि प्रांतों को अधिक शक्तियों प्रदान की जाएँ। मैसूर
के सर ए० रामास्वामी मुदालियार भी प्रांतों को अधिक शक्तियाँ दिए जाने के पक्ष में
थे। उनका विचार था कि संविधान में शक्तियों के अत्यधिक केंद्रीयकरण के परिणामस्वरूप
केंद्र बिखर जाएगा। ऐसे सदस्यों ने समवर्ती सूची एवं केंद्रीय सूची में कम-से-कम विषयों
को रखे जाने पर बल दिया। इस प्रकार प्रांतों को अधिक शक्तियाँ दिए जाने के पक्ष में
अनेक तर्क प्रस्तुत किए गए।
प्रश्न 4. महात्मा गाँधी को ऐसा क्यों लगता था कि हिन्दुस्तानी राष्ट्रीय
भाषा होनी चाहिए ?
अथवा : हिन्दुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में गाँधीजी द्वारा प्रस्तावित
करने के कारणों की परख कीजिए।
उत्तर:
भाषा विचारों के आदान-प्रदान का सशक्त माध्यम है। अतः किसी भी देश में राष्ट्रीयता
की भावना को विकसित करने हेतु एक भाषा का होना आवश्यक है। भारत बहुभाषा-भाषी देश है
तथा यहाँ विभिन्न संस्कृतियों को आश्रय प्राप्त हुआ है। अतः यहाँ अनेक भाषाएँ बोली
जाती हैं। भाषा के सन्दर्भ में गाँधीजी का मानना था कि सभी भारतवासियों को एक ऐसी भाषा
बोलनी चाहिए जिसे लोग आसानी से समझ सकें। हिन्दी और उर्दू के संयोग अर्थात् मेल से
बनी हिन्दुस्तानी भाषा भारत के बहुत बड़े हिस्से में बोली जाती है।
यह
विभिन्न संस्कृतियों के शब्दों को अपने में संजोये एक ऐसी गतिमान भाषा थी जो नित नवीन
रूप धारण किये जा रही थी। इस भाषा की समृद्धता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। अतः गाँधीजी
को लगता था कि यह बहुसांस्कृतिक भाषा विविध समुदायों के मध्य संचार की आदर्श भाषा बन
सकती है। यह भाषा उत्तर तथा दक्षिण को एवं हिन्दू तथा मुसलमानों को एकजुट कर सकती है।
इन सभी कारणों से गाँधीजी को लगता था कि 'हिन्दुस्तानी' ही राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए।
निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 230-300 शब्दों में)
प्रश्न 5. वे कौन-सी ऐतिहासिक ताकतें थीं जिन्होंने संविधान का स्वरूप
तय किया ?
उत्तर:
निश्चय ही संविधान को दिशा देने में अनेक शक्तियों का योगदान रहा है, इसे हम निम्नलिखित
बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं
1.
भारत में शिक्षा का प्रचार विशेषकर अंग्रेजी शिक्षा के कारण एक नवीन मध्यम वर्ग का
उदय हुआ।
2.
इस मध्यम वर्ग ने अनेक सामाजिक तथा सांस्कृतिक बुराइयों के विरुद्ध आन्दोलन चलाये,
जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक जागरूकता उत्पन्न हुई। इस कारण अनेक नियम-कानून भी बनाये
गये।
3.
राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानन्द तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयासों से महिलाओं
के उत्थान के लिये अनेक प्रयास हुए जिनके परिणामस्वरूप तत्कालीन राजनेता भी सकारात्मक
रूप से प्रभावित हुए और उन्होंने संविधान निर्माण में महिलाओं के अधिकारों का विशेष
ध्यान रखा।
4.
भारत में अंग्रेजों के दमन के कारण 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अत्यधिक
राजनैतिक चेतना जाग्रत हुई जिसके फलस्वरूप दमित वर्ग, पिछड़े वर्ग तथा आदिवासियों के
क्षेत्र से अनेक नेता उभरकर सामने आये जिन्होंने अनेक सफल आन्दोलनों का भी संचालन किया।
5.
रंगा, पेरियार, अम्बेडकर इत्यादि अनेक वर्गों के नेताओं ने तीव्र आन्दोलन चलाये।
6.
स्वामी विवेकानन्द ने जब हिन्दू धर्म में सुधार के लिये अभियान चलाया तो वह धर्मों
को और अधिक न्यायसंगत बनाने का प्रयास कर रहे थे। महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले ने
दमित जातियों के उत्पीड़न का प्रश्न उठाया, साम्यवादी तथा समाजवादियों ने श्रमिकों
एवं कृषकों को एकजुट किया। इस प्रकार ये सभी आर्थिक तथा सामाजिक न्याय के लिये ही संघर्ष
कर रहे थे।
7.
राष्ट्रीय आन्दोलन निश्चित रूप से एक दमनकारी सरकार के विरुद्ध लोकतन्त्र एवं न्याय
की स्थापना का संघर्ष था।
प्रश्न 6. दमित समूहों की सुरक्षा के पक्ष में किए गए विभिन्न दावों
पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
दमित समूहों की सुरक्षा के पक्ष में किए गए विभिन्न दावे निम्नलिखित हैं
(1)
डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने राष्ट्रीय आन्दोलन के समय पृथक निर्वाचिकाओं की माँग दमित
वर्ग के लिए की थी। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने इसका यह कहते हुए विरोध किया कि ऐसा
करने से यह समुदाय स्थायी रूप से शेष समाज से कट जायेगा। संविधान सभा में इस प्रश्न
पर अत्यधिक विवाद हुआ।
(2)
संविधान सभा में उपस्थित दमित जातियों के प्रतिनिधियों का आग्रह था कि अस्पृश्यों की
समस्या को केवल संरक्षण एवं बचाव के द्वारा ही हल नहीं किया जा सकता। उनकी अपंगता के
पीछे जातियों में विभाजित समाज के सामाजिक नियम-कानून एवं नैतिक मूल्यों व मान्यताओं
का हाथ है। समाज ने अपनी स्वार्थ साधना हेतु उनका पर्याप्त उपयोग किया है लेकिन सामाजिक
रूप से
उन्हें
अपने से दूर रखा है। अन्य जातियों के लोग उनसे मिलने में हिचकिचाहट महसूस करते हैं।
वे उनके साथ भोजन नहीं करते हैं तथा उन्हें मन्दिरों में भी प्रवेश नहीं करने दिया
जाता है।
(3)
मद्रास के एक सदस्य जे. नागप्पा ने कहा था, "हम सदा कष्ट उठाते आये हैं किन्तु
अब हम और अधिक कष्ट उठाने को तैयार नहीं हैं। हमें अपने उत्तरदायित्वों का अहसास हो
चुका है। हम जानते हैं कि हमें अपनी बात कैसे मनवानी है। जे. नागप्पा ने कहा कि संख्या
की दृष्टि से दलितवर्ग अल्पसंख्यक नहीं है। जनसंख्या में उनका कुल अनुपात लगभग
20-25 प्रतिशत है। उनकी समस्या का कारण यह है कि उन्हें सदैव समाज तथा राजनीति में
हाशिए पर रखा गया है जिसका कारण यह है कि उनकी न तो शिक्षा तक सही पहुँच थी और न ही
शासन में भागीदारी।
(4)
इस सम्बन्ध में श्री. के. जे. खांडेलकर का निम्नलिखित कथन महत्वपूर्ण है "हमें
हजारों साल तक दबाया गया है।...दबाया गया...इस सीमा तक दबाया गया कि हमारे दिमाग, हमारी
देह काम नहीं करते तथा अब हमारां हृदय भी भावशून्य हो चुका है। अब हमारी स्थिति आगे
बढ़ने योग्य नहीं रह गयी है। यही हमारी वस्तुस्थिति
(5)
डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने बँटवारे की हिंसा के उपरान्त पृथक निर्वाचन की माँग छोड़ दी।
उन्होंने संविधान सभा को निम्नलिखित सुझाव दिए
1.
स्पृश्यता का उन्मूलन किया जाए।
2.
हिन्दू मन्दिरों को सभी जातियों के लिये खोल दिया जाए।
3.
दमित समूहों को विधायिका तथा सरकारी नौकरी में पर्याप्त आरक्षण दिया जाए।
4.
बहुत से व्यक्तियों का मानना था कि इससे सभी समस्याएँ समाप्त नहीं हो पायेंगी। सामाजिक
भेदभाव को केवल संवैधानिक कानून द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता। इसके लिये समाज की
सोच में परिवर्तन लाना होगा। जनता ने इन प्रावधानों का स्वागत किया।
प्रश्न 7. संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने उस समय की राजनीतिक परिस्थिति
और एक मजबूत केन्द्र सरकार की आवश्यकता के बीच क्या सम्बन्ध देखा ?
उत्तर:
तत्कालीन भारतीय नेताओं ने ब्रिटिश शासन के समय जिस संवैधानिक व्यवस्था का अनुभव किया
तथा राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान जो प्रभाव देखा उससे केन्द्र की सशक्तता एक अनिवार्य
आवश्यकता के रूप में उभरी थी। उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति एवं एक मजबूत केन्द्र
सरकार की जरूरत के बीच निम्नलिखित सम्बन्ध देखा
(1)
जवाहरलाल नेहरू जैसे राष्ट्रवादी, जो भारत में एक मजबूत केन्द्र चाहते थे, ने इस विषय
में कहा, "अब विभाजन एक हकीकत बन चुका है एक दुर्बल केन्द्रीय शासन की व्यवस्था
देश के लिये हानिकारक होगी क्योंकि ऐसा केन्द्र शान्ति स्थापित करने में, आम सरोकारों
के बीच समन्वय स्थापित करने में और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्पूर्ण देश के लिये आवाज
उठाने में सक्षम नहीं होगा।"
(2)
मुस्लिम लीग द्वारा उस समय की राजनीति में चलाये गये पृथकतावादी आन्दोलन से देश अत्यधिक
रूप से साम्प्रदायिक झगड़ों से त्रस्त था। इस समय रियासतों का एकीकरण निश्चय ही एक
गम्भीर समस्या थी। . इस सम्बन्ध में डॉ. बी. आर. अम्बेडकर का कथन महत्वपूर्ण है
"1935 के भारत सरकार अधिनियम में हमने जो केन्द्र बनाया था उससे भी ज्यादा शक्तिशाली
केन्द्र हम चाहते हैं।"
पण्डित
जवाहरलाल नेहरू तथा डॉ. बी. आर. अम्बेडकर को एक शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता इसलिए
अनुभव हुई क्योंकि ब्रिटिश शासन के समय जो आर्थिक शोषण तथा बदहाली का समय था, वह शीघ्र
ही समाप्त हो सके।
(3)
संयुक्त प्रान्त के एक सदस्य बालकृष्ण शर्मा ने इस बात पर विस्तार से प्रकाश डाला कि
आज की परिस्थितियों में एक शक्तिशाली केन्द्र का होना अति आवश्यक है ताकि वह देश के
हित में योजना बनाकर, उपलब्ध आर्थिक संसाधनों को जुटा सके, एक उचित शासन व्यवस्था स्थापित
कर सके तथा राष्ट्र को विदेशी आक्रमणों से बचा सके।
(4)
भारत विभाजन से पूर्व कांग्रेस ने प्रान्तों को अधिक स्वायत्तता देने पर अपनी सहमति
प्रदान की थी। एक सीमा तक मुस्लिम लीग को भरोसा दिलाया कि जिन प्रान्तों में उनकी सरकार
बनी है वहाँ हस्तक्षेप नहीं होगा, लेकिन देश के विभाजन के पश्चात् अब एक विकेन्द्रीकृत
संरचना हेतु पहले जैसे राजनैतिक दबाव नहीं रह गये थे। अतः शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता
पर बल दिया गया।
(5)
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन द्वारा देश में पहले से ही थोपी गयी एकल राजनैतिक व्यवस्था
विद्यमान थी। उस समय में हुई घटनाओं से केन्द्र की स्थापना को बढ़ावा मिला। इसे अराजकता
पर अंकुश लगाने एवं देश के आर्थिक विकास की योजना बनाने के लिए और भी आवश्यक माना जाने
लगा। इस प्रकार तत्कालीन परिस्थितियों में संविधान में भारतीय संघ के घटक राज्यों की
तुलना में केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया गया।
प्रश्न 8. संविधान सभा ने भाषा के विवाद को हल करने के लिये क्या रास्ता
निकाला ?
अथवा : भारत की संविधान सभा
में भाषा के मुद्दे पर काफी बहस हुई। सभा के सदस्यों द्वारा इस विषय पर दी गई दलीलों
की परख कीजिए।
उत्तर:
भारत एक बहुसंस्कृति वाला बहुभाषी राष्ट्र भी है। भाषा की यह बहुतायत निश्चय ही कभी-कभी
समस्या भी उत्पन्न कर सकती है। यह स्थिति संविधान निर्माण के समय में उत्पन्न हुई।
संविधान सभा में इस सन्दर्भ में अनेक तर्क-वितर्क दिये गये। इस समय भाषा की समस्या
सुलझाने के लिये अनेक प्रयास किये गये जिन्हें हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत
समझ सकते हैं ।
(1)
हिन्दुस्तानी भाषा-20वीं शताब्दी के तृतीय दशक तक काँग्रेस ने यह स्वीकार कर लिया था
कि हिन्दुस्तानी को ही राष्ट्रीय भाषा का स्थान दिया जाये। यह भाषा हिन्दी तथा उर्दू
का सम्मिलित रूप थी। इस समय हिन्दू तथा मुसलमानों का मानना था कि राष्ट्रभाषा का दर्जा
न तो हिन्दी को मिले न ही उर्दू को। यहाँ मध्यम मार्ग हिन्दुस्तानी भाषा थी जो हिन्दी,
उर्दू, संस्कृत, अरबी तथा फारसी के विभिन्न शब्दों से बनी थी। यहाँ राष्ट्रपिता महात्मा
गाँधी का मानना था कि देश की राष्ट्रीय भाषा ऐसी होनी चाहिये जो सभी देशवासियों की
पहुँच में हो।
(2)
गाँधीजी का मत-20वीं शताब्दी के मध्य तक हिन्दुस्तानी भाषा धीरे-धीरे बदल रही थी। स्वतंत्रता
का संघर्ष जैसे-जैसे तीव्र होने लगा, वैसे-वैसे साम्प्रदायिक टकराव भी बढ़ने लगा, किन्तु
दुर्भाग्य से हिन्दी तथा उर्दू के मध्य खाई बढ़ती जा रही थी। गाँधीजी की आस्था अभी
भी हिन्दुस्तानी भाषा में बनी हुई थी। .
(3)
नवीन सूत्र का उद्भव-संविधान की एक भाषा समिति भी थी जिसे राष्ट्र की भाषा में गहन
अनुसन्धान करना था। इसने गहन अनुसन्धान के उपरान्त एक नवीन सूत्र दिया।
(4)
धुलेकर का समर्थन संयुक्त प्रान्त के एक सदस्य आर. बी. धुलेकर ने हिन्दी के समर्थन
में अत्यधिक प्रयास किया। जब किसी ने कहा कि संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों को हिन्दी
नहीं आती, इस पर धुलेकर बोले "जो सदस्य हिन्दी नहीं समझते, उन्हें संविधान सभा
की सदस्यता के अयोग्य माना जाये। उन्हें यहाँ से चले जाना चाहिए।" इस कथन पर हंगामा
खड़ा हो गया तथा नेहरूजी के हस्तक्षेप से शान्ति स्थापित हो सकी।
(5)
भाषा समिति का सुझाव भाषा समिति का यह सुझाव था कि देवनागरी लिपि में हिन्दी भारत की
राजकीय भाषा होगी, किन्तु समिति ने इस सूत्र की घोषणा नहीं की। यहाँ बीच का मार्ग सुझाया
गया कि हमें हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिये धीरे-धीरे ही आगे बढ़ना चाहिये। इसके
लिये शीघ्रता नहीं करनी चाहिये। समिति का सुझाव था कि प्रथम 15 वर्षों तक सरकारी कार्यों
में अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहना चाहिये। इसके अतिरिक्त प्रत्येक प्रान्त को अपनी
एक स्वतन्त्र भाषा के चयन का अधिकार होगा।
मानचित्र कार्य
प्रश्न 9. वर्तमान भारत के राजनीतिक मानचित्र पर यह दिखाइए कि प्रत्येक
राज्य में कौन-कौनसी भाषाएँ बोली जाती हैं। इन राज्यों की राजभाषा को चिह्नित कीजिए।
इस मानचित्र की तुलना 1950 के दशक के प्रारम्भ के मानचित्र से कीजिए। दोनों मानचित्रों
में आप क्या अन्तर पाते हैं ? क्या इन अन्तरों से आपको भाषा तथा राज्यों के आयोजन के
सम्बन्धों के विषय में कुछ पता चलता है ?
उत्तर:
हमारा भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्र हुआ तथा 26 जनवरी, 1950 को गणतन्त्र बना, किन्तु
भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन 1956 ई. में ही हो सका। वर्तमान समय में भारत में
कुल 28 राज्य तथा 8 केन्द्र शासित प्रदेश हैं, जिनकी भाषाओं का विवरण निम्नलिखित है
1.
जम्मू-कश्मीर-डोगरी, कश्मीरी, उर्दू, हिन्दी तथा अंग्रेजी।
2.
पंजाब-पंजाबी।
3.
हिमाचल प्रदेश-पहाड़ी, कश्मीरी, हिन्दी, उर्दू तथा पंजाबी।
4.
उत्तराखण्ड-कुमाऊँनी, गढ़वाली तथा हिन्दी।
5,
उत्तर प्रदेश-उर्दू, हिन्दी तथा क्षेत्रीय बोली।
6.
दिल्ली-हिन्दी, पंजाबी तथा उर्दू।
7.
राजस्थान-हिन्दी (राजस्थानी)।
8.
अरुणाचल प्रदेश-निसी, आदिअसमी, हिन्दी तथा अंग्रेजी।
9.
असम-आसामी एवं बंगाली।
10.
मेघालय-खासो एवं गारो।
11.
मणिपुर-मणिपुरी एवं बोड़ो।
12.
त्रिपुरा-लुशाई एवं बंगला।
13.
पश्चिम बंगाल-बंगला, हिन्दी तथा संथाली।
14.
ओडिशा (उड़ीसा)-उड़िया, हिन्दी तथा संथाली।
15.
बिहार हिन्दी, उर्दू तथा मैथली।
16.
झारखण्ड हिन्दी एवं उर्दू।
17.
मध्य प्रदेश-हिन्दी एवं गोण्डी।
18.
छत्तीसगढ़ हिन्दी तथा गोण्डी, भीली।
19.
गुजरात-गुजराती, हिन्दी तथा उर्दू।
20.
महाराष्ट्र मराठी, उर्दू तथा हिन्दी।
21.
तेलंगाना तेलुगू, उर्दू तथा हिन्दी।
22.
आन्ध्र प्रदेश-तेलुगू, उर्दू तथा हिन्दी।
23.
तमिलनाडु तमिल।
24.
गोवा-कोंकणी एवं अंग्रेजी।
25.
केरल मलयालम।
26.
कर्नाटक-कन्नड़।
27.
हरियाणा हिन्दी।
28.
मिजोरम-लुशाई एवं मिजो।
29.
सिक्किम-नेपाली, भोटिया एवं हिन्दी।
30.
लद्दाख-लद्दाखी एवं तिब्बती।
उपर्युक्त सभी भाषाओं का राज्यवार विवरण हम निम्न मानचित्र में देख सकते हैं
नोट: उपर्युक्त मानचित्र में राज्य तथा उनसे सम्बन्धित भाषाओं को दर्शाया गया है। इसके अतिरिक्त इन राज्यों में विभिन्न क्षेत्रीय तथा अन्य भाषाओं को भी बोला जाता है। ऊपर के मानचित्र में भाषाओं की वर्तमान स्थिति दर्शायी गयी है, किन्तु 1950 ई. में ऐसी स्थिति नहीं थी। 1956 ई. में भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ था। इससे पूर्व की स्थिति हम नीचे के मानचित्र में देख सकते हैं।
वर्तमान
भारतीय राज्यों में भाषायी परिवर्तन-1950 ई. के पश्चात् कई राज्यों का पुनर्गठन एवं
उनके भाषायी चरित्र में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं जिनका विवरण निम्न प्रकार
से है
1.
राजस्थान राजस्थान में हिन्दी के साथ-साथ राजस्थानी, उर्दू एवं शहरों में अंग्रेजी
भाषा के प्रभाव में वृद्धि हुई है।
2.
मध्य प्रदेश मध्य प्रदेश में हिन्दी, भीली व गोंडी के साथ-स गहरों में अंग्रेजी का
प्रभाव बढ़ा है।
3.
उत्तर प्रदेश उत्तर प्रदेश में हिन्दी के साथ-साथ अवधी, ब्रज भाषा, उर्दू, भोजपुरी
एवं अंग्रेजी के प्रभाव में वृद्धि हुई है।
4.
गुजरात-गुजरात में गुजराती, हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषा के प्रभाव में वृद्धि हुई है
लेकिन मराठी का प्रभाव धीरे-धीरे कम हुआ है।
5.
कर्नाटक-कर्नाटक में कन्नड़ भाषा के साथ-साथ तमिल, तेलुगु, अंग्रेजी व हिन्दी का प्रचार-प्रसार
भी बढ़ा है।
6.
आंध्र प्रदेश व तेलंगाना-आंध्र प्रदेश व तेलंगाना में तेलुगु का प्रभाव बढ़ा है लेकिन
शहरों में हिन्दी व अंग्रेजी का भी विकास हुआ है।
7.
केरल केरल राज्य में मलयालम भाषा के साथ-साथ उर्दू तथा तमिल के साथ-साथ कुछ शहरों में
हिन्दी व अंग्रेजी का प्रचार-प्रसार भी बढ़ा है।
8.
गोवा-गोवा में अंग्रेजी व हिन्दी के प्रभाव में वृद्धि हुई है तथा पुर्तगाली भाषा का
प्रभाव कम होता जा रहा है।
9.
ओडिशा (उड़ीसा)-उड़ीसा में उड़िया भाषा के साथ शहरों में हिन्दी व अंग्रेजी का प्रभाव
भी बढ़ा है।
10.
तमिलनाडु तमिलनाडु में तमिल, कन्नड़ व तेलुगु के साथ-साथ शहरों में हिन्दी व अंग्रेजी
के प्रभाव में भी वृद्धि हुई है।
11.
पंजाब-पंजाब में पंजाबी के साथ-साथ अंग्रेजी व हिन्दी का भी प्रभाव बढ़ा है।
12.
बिहार-बिहार में हिन्दी, उर्दू, भोजपुरी व संथाली भाषा का प्रभाव बढ़ा है।
13.
जम्मू-कश्मीर-जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी, डोगरी के साथ-साथ उर्दू, अंग्रेजी व हिन्दी
का भी प्रभाव बढ़ा है।
14.
असम-असम राज्य में असमी भाषा के साथ-साथ हिन्दी व अंग्रेजी के प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि
हुई है।
15.
त्रिपुरा-त्रिपुरा राज्य में अंग्रेजी व हिन्दी के प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि हुई है
तथा बंगला भाषा का प्रभाव कम हुआ है।
16.
मणिपुर-मणिपुर राज्य में मणिपुरी बोडो का प्रभाव बढ़ा है। शहरों में अंग्रेजी व हिन्दी
बोली जाती है।
17.
प. बंगाल-प. बंगाल में बंगाली भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी व हिन्दी का भी प्रचार-प्रसार
हुआ है। .
18.
मिजोरम-मिजोरम राज्य में लुशाई, अंग्रेजी एवं बांग्ला के साथ-साथ अंग्रेजी का प्रभाव
क्षेत्र बढ़ा है।
19.
सिक्किम-सिक्किम राज्य में नेपाली, भोटिया, हिन्दी व अंग्रेजी का प्रभाव क्षेत्र बढ़ा
है।
20.
मेघालय-मेघालय में खासी, गारो व बंगाली के प्रभाव में कमी आयी है तथा अंग्रेजी का प्रभाव
क्षेत्र बढ़ा है।
21.
हरियाणा-हरियाणा में हिन्दी, उर्दू व पंजाबी का प्रभाव कम हुआ है तथा हरियाणवी का प्रभाव
बढ़ा है।
22.
छत्तीसगढ़ छत्तीसगढ़ में गोड़ी, भीली व हिन्दी का प्रभाव क्षेत्र बढ़ा है।
परियोजना कार्य (कोई एक)
प्रश्न 10. हाल के वर्षों के किसी एक महत्वपूर्ण संवैधानिक परिवर्तन
को चुनिए। पता लगाइए कि यह परिवर्तन क्यों हुआ, परिवर्तन के पीछे कौन-कौनसे तर्क दिए
गए और परिवर्तन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या थी ? अगर सम्भव हो, तो संविधान सभा की चर्चाओं
को देखने की कोशिश कीजिए। यह पता लगाइए कि मुद्दे पर उस वक्त कैसे चर्चा की गई। अपनी
खोज पर संक्षिप्त रिपोर्ट लिखिए।
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं करें।
प्रश्न 11. भारतीय संविधान की तुलना संयुक्त राज्य अमेरिका अथवा फ्रांस
अथवा दक्षिण अफ्रीका के संविधान से कीजिए। ऐसा करते हुए निम्नलिखित में से किन्हीं
दो विषयों पर गौर कीजिए : धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकार और केन्द्र
व राज्यों के बीच सम्बन्ध। यह पता लगाइए कि इन संविधानों में अन्तर और समानताएँ किस
तरह से उनके क्षेत्रों के इतिहासों से जुड़ी हुई हैं।
उत्तर:
1. भारत के समान संयुक्त राज्य अमेरिका भी एक लोकतान्त्रिक राज्य है तथा दोनों ही राष्ट्रों
की लोकतान्त्रिक व्यवस्था का मुख्य स्रोत संविधान
ही है।
2. भारत के समान ही संयुक्त राज्य अमेरिका में अल्पसंख्यकों को सभी प्रकार की स्वतंत्रता प्राप्त है।