पुष्यभूति वंश
➤ गुप्त
साम्राज्य के पतन के बाद हरियाणा के अंबाला जिले के स्थानेश्वर/थानेश्वर नामक
स्थान पर पुष्यभूति वंश की स्थापना हुई।
➤ यह वंश हुणों
के साथ हुए अपने संघर्ष के कारण प्रसिद्ध हुआ। इस वंश की स्थापना पुष्यभूति द्वारा
की गयी थी। सम्भवतः प्रभाकरवर्धन इस वंश का चौथा शासक था। इसके विषय में जानकारी
बाणभट्ट के हर्षचरित से मिलती है।
➤ प्रभाकरवर्धन
दो पुत्रों राज्यवर्धन और हर्षवर्धन एवं एक पुत्री राज्यश्री का पिता था। पुत्री
राज्यश्री का विवाह प्रभाकरवर्धन ने मौखरी वंश के गृहवर्मन से किया।
➤ पिता की मृत्यु
के बाद राज्यवर्धन गद्दी पर बैठा, पर शीघ्र की उसे मालवा के खिलाफ अभियान के लिए
जाना पड़ा। अभियान की सफलता के बाद लौटते हुए मार्ग में गौड़ के शासक शशांक ने
राज्यवर्धन की हत्या कर दी।
➤ राज्यवर्धन
के बाद लगभग 606 ई. में हर्षवर्धन थानेश्वर के सिंहासन पर बैठा। हर्ष के विषय में हमें
बाणभट्ट के हर्षचरित से व्यापक जानकारी मिलती है।
➤ हर्षवर्धन
ने लगभग 41 वर्ष तक शासन किया। हर्ष के साम्राज्य का विस्तार जालंधर, पंजाब, कश्मीर,
नेपाल एवं बल्लभी तक था। इसने आर्यावर्त को भी अपने अधीन किया। हर्ष को बादामी के चालुक्य
वंशी शासक पुलकेशिन द्वितीय ने नर्मदा नदी के किनारे 630 ई. में हराया।
➤ हर्षवर्धन
की पहली राजधानी स्थानेश्वर (कुरूक्षेत्र के निकट) थी। बाद में इसने अपनी राजधानी कन्नौज
में स्थापित की।
➤ हर्षवर्धन
के दरबार में प्रसिद्ध कवि बाणभट्ट था, जिसने हर्षचरित की रचना की।
➤ हर्ष
को विद्वानों के सम्पोषक के रूप में ही नहीं, बल्कि तीन नाटकों- प्रियदर्शिका, रत्नावली
और नागानंद के रचयिता के रूप में भी याद किया जाता है।
➤ हर्ष
को भारत का अंतिम हिन्दू सम्राट कहा जाता है। उसकी धार्मिक नीति सहनशील थी। हर्ष प्रारम्भिक
जीवन में शैव था, पर धीरे-धीरे वह बौद्ध धर्म का महान
संपोषक हो गया।
➤ एक
नैष्ठिक बौद्ध के हैसियत से हर्ष ने महायान के सिद्धान्तों के प्रचार के लिए 643 ई.
में कन्नौज तथा प्रयाग में दो विशाल धार्मिक सभाओं का आयोजन किया। कन्नौज सभा का सबसे
महत्त्वपूर्ण निर्माण एक विशाल स्तंभ था, जिसके बीच में बुद्ध की स्वर्ण-प्रतिमा स्थापित
थी। प्रतिमा की उँचाई उतनी ही थी, जितनी हर्ष की अपनी थी। हर्ष द्वारा प्रयाग में आयोजित
सभा को मोक्ष परिषद् कहा गया है।
➤ यात्रियों
में राजकुमार, नीति का पंडित एवं वर्तमान शाक्यमुनि कहा जाने वाला चीनी यात्री ह्वेनसांग
हर्ष के ही काल में भारत आया। वह लगभग 15 वर्षों तक भारत में रहा। ह्वेनसांग ने हर्ष
द्वारा आयोजित दोनों धार्मिक सभाओं में भाग लिया था।
➤ ह्वेनसांग
भारत में नालंदा विश्वविद्यालय में पढ़ने एवं बौद्ध ग्रन्थ संग्रह करने के उद्देश्य
से भारत आया था।
➤ हर्ष
को शिलादित्य के नाम से भी जाना जाता था। उसने परम भट्टा नरेश की उपाधि धारण की।
➤ साधारण
सेना को चाट एवं भाट, अश्वसेना के अधिकारी को बृहदेश्वर, पैदल सेना के अधिकारी को बलाधिकृत
एवं महाबलाधिकृत कहा जाता था।
हर्षकालीन मुख्य
अधिकारी
अवंति |
युद्ध एवं शान्ति का मन्त्री |
सिंहनाद |
हर्ष की सेना का महासेनापति |
कुंतल |
अश्वसेना का मुख्य अधिकारी |
स्कंदगुप्त |
हस्तिसेना का मुख्य अधिकारी |
कुमारामात्य |
उच्च प्रशासकीय सेवक |
दीर्घध्वज |
राजकीय संदेशवाहक |
सर्वगत |
गुप्तचर विभाग का सदस्य |
15. दक्षिण भारत के प्रमुख राजवंश
➤ गुप्त
वंश के बाद हर्ष के अतिरिक्त कोई ऐसी शक्ति नहीं थी जो उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति
को स्थिरता प्रदान कर सकती थी। इस समय दक्षिण भारत में दो महत्त्वपूर्ण वंश- कांची
के पल्लव वंश एवं बादामी या वातापी के चालुक्य वंश शासन कर रहे थे। इन दोनों के अतिरिक्त
भी कुछ अन्य वंश दक्षिण भारत में शासन करते हुए दिखायी पड़ते हैं।
पल्लव वंश
➤ कांची
के पल्लव वंश के विषय में प्रारम्भिक जानकारी हरिषेण की 'प्रयाग प्रशस्ति' एवं ह्वेनसांग
के यात्रा विवरण से मिलती है।
➤ पल्लव
वंश का संस्थापक सिंहविष्णु (575-600 ई.) वैष्णव धर्मानुयायी था।
सिंहविष्णु को सिंहविष्णुयोत्तर युग एवं अवनिसिंह युग भी कहा जाता था। इसकी राजधानी
कांची (वर्तमान में तमिलनाडु में स्थित कांचीपुरम) थी। किरातार्जुनीयम के लेखक भारवि
उसके दरबार में रहते थे।
➤ महेन्द्रवर्मन
प्रथम (600-630 ई.), सिंहविष्णु का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था।
➤ महेन्द्रवर्मन
प्रथम के समय में पल्लव साम्राज्य न केवल राजनीतिक दृष्टि से बल्कि सांस्कृतिक, साहित्यिक
एवं कलात्मक दृष्टि से भी अपने चरमोत्कर्ष पर था।
➤ महेन्द्रवर्मन
प्रथम ने मत्तविलास, विचित्र चित एवं गुणभर आदि प्रशंसासूचक पदवी धारण की। चेत्कारी
और चित्रकारपुल्ली आदि भी उसकी उपाधियाँ थी।
➤ महेन्द्रवर्मन
प्रथम ने मत्तविलास प्रहसन तथा भगवदज्जुकीयम जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की।
उसके संरक्षण में ही संगीत शास्त्र पर आधारित ग्रन्थ कुडमिमालय की रचना हुई।
➤ नरसिंहवर्मन
प्रथम (630-668 ई.) महेन्द्रवर्मन प्रथम का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था।
➤ नरसिंहवर्मन
प्रथम अपने अभिलेखों में वातापीकोंड के उपाधि के रूप में उद्धृत है।
➤ असाधारण
धैर्य एवं पराक्रम के कारण उसे महामल्ल भी कहा गया है। कुर्रम दान पत्र अभिलेख के उल्लेख
से ज्ञात होता है कि उसने चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय को परिमल, मणिमंगलाई एवं शूरमार
के युद्धों में परास्त किया था। नरसिंह वर्मन प्रथम ने पुलकेशिन द्वितीय की पीठ पर
विजय शब्द अंकित करवाया था।
➤ कांची
के निकट एक बंदरगाह वाला नगर महामल्लपुरम् (महाबलिपुरम्) बसाने का श्रेय भी नरसिंहवर्मन
प्रथम को दिया जाता है। उसके शासन काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने कांची की यात्रा
की थी।
➤ महाबलीपुरम्
के एकाश्मक (Monolithic) रथों का निर्माण पल्लव राजा नरसिंहवर्मन प्रथम के द्वारा करवाया
गया था।
➤ नरसिंहवर्मन
द्वितीय (695-720 ई.) पल्लव वंश का एक अन्य महत्त्वपूर्ण शासक था। उसका काल सांस्कृतिक
उपलब्धियों के लिए याद किया जाता था। प्रसिद्ध वैष्णव संत तिरूमंगई अलवार इसके समकालीन
थे। राजसिंह, आगमप्रिय और शंकर भक्त उसकी सर्वप्रिय उपाधियाँ थी।
➤ नरसिंहवर्मन
द्वितीय के महत्त्वपूर्ण निर्माण कार्यों में महाबलीपुरम् का समुद्रतटीय मंदिर, कांची
का कैलाशनाथ मंदिर एवं ऐरावतेश्वर मंदिर की गणना की जाती है। उसने मंदिर निर्माण शैली
में एक नई शैली राजसिंह शैली का प्रयोग किया।
➤ सम्भवतः
दशकुमार चरित का लेखक दण्डिन नरसिंहवर्मन द्वितीय का समकालीन था। इसकी वाद्यविद्याधर,
वीणा-नारद, अंतोदय-तुम्बुरू उपाधियाँ उसकी संगीत के प्रति रूझान का परिचायक है।
➤ पल्लव
वंश के अन्य प्रमुख शासकों में उल्लेखनीय हैं- नंदिवर्मन द्वितीय (731-795 ई.), दंतिवर्मन
(796-847 ई.), नंदिवर्मन तृतीय (847-869 ई.), नृपत्तुंग वर्मन (870-879 ई.) आदि।
➤ पल्लव
वंश का अंतिम शासक अपरजित वर्मन (879-897 ई.) था।
चालुक्य वंश (वातापी)
➤ चालुक्यों
की उत्पत्ति का विषय अत्यंत विवादास्पद है। वराहमिहिर की वृहतसंहिता में इन्हें शूलिक
जाति का माना गया है, जबकि पृथ्वीराजरासो में इनकी उत्पत्ति राजपूतों की उत्पत्ति के
समान आबू पर्वत पर किये गये यज्ञ के अग्नि कुंड से बतायी गयी है। एफ. फ्लीट तथा के.ए.
नीलकंठ शास्त्री ने इस वंश का नाम चालुक्य उल्लेख किया है। आर. जी. भंडारकर ने इस वंश
का प्रारंभिक नाम चालुक्य का उल्लेख किया है। इस प्रकार चालुक्य नरेशों के वंश एवं
उत्पत्ति का कोई अभिलेखीय साक्ष्य नहीं मिलता है।
➤ चीनी
यात्री ह्वेनसांग ने चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय को क्षत्रिय कहा है।
➤ जय
सिंह ने वातापी के चालुक्य वंश की स्थापना की थी।
➤ इसकी
राजधानी वातापी (बीजापुर के निकट) थी।
➤ इस
वंश के प्रमुख शासक थे- पुलकेशिन प्रथम, कीर्तिवर्मन प्रथम, पुलकेशिन द्वितीय, विनयादित्य,
विजयादित्य एवं विक्रमादित्य द्वितीय।
➤ पुलकेशिन
प्रथम इस वंश का प्रथम प्रतापी राजा था।
➤ चालुक्यकालीन
अभिलेखों से प्रमाणित होता है कि उसने हिरण्यगर्भ, अश्वमेघ, अग्निष्टोम, अग्निचयन,
वाजपेय, बहुसुवर्ण तथा पुण्डरीक यज्ञ करवाया। इसने रणविक्रम, सत्याश्रय, धर्म महाराज
आदि की उपाधि धारण की। इसके राज्य का आरम्भ लगभग 550 ई. से 566-567 ई. माना जाता है।
➤ पुलकेशिन
प्रथम के बाद उसका बेटा कीर्तिवर्मन प्रथम (566-567 से 598 ई.) गद्दी पर बैठा। उसने
बनवासी के कदंबों पर आक्रमण कर उन्हें पराजित किया और आगे चलकर उसने कोंकण, बेलारी
तथा कर्नूलों के मौर्यों को भी पराजित किया। वातापी का निर्माणकर्ता कीर्तिवर्मन को
माना जाता है।
➤ चालुक्य
वंश का सबसे प्रतापी राजा पुलकेशिन द्वितीय (609-610 से 642-643 ई.) था। उसने दक्षिणापथेश्वर
की उपाधि धारण की थी। इसके अतिरिक्त उसने श्री पृथ्वीवल्लभ, सत्याश्रय, वल्लभपरमेश्वर
परम भागवत, भट्टारक तथा महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।
➤ मुस्लिम
इतिहासकार तबारी के अनुसार 625-626 ई. में पुलकेशिन द्वितीय ने ईरान के राजा खुसरो
द्वितीय के दरबार में अपना दूत मंडल भेजा था।
➤ अजंता
के एक गुहा चित्र में पुलकेशिन द्वितीय को फारसी दूत-मंडल का स्वागत करते हुए दिखाया
गया है।
➤ एहोल
प्रशस्ति अभिलेख का सम्बन्ध पुलकेशिन द्वितीय से है। इसमें उसके दरबारी कवि रविकीर्ति
द्वारा रचित उसका गुणवर्णन उत्कीर्ण है। यह अभिलेख पुलकेशिन द्वितीय की जीवनी जानने
का एक मुख्य स्रोत है।
➤ पल्लववंशी
शासक नरसिंहवर्मन प्रथम ने पुलकेशिन द्वितीय को परास्त किया और उसकी राजधानी बादामी
पर अधिकार कर लिया। सम्भवतः इसी युद्ध में पुलकेशिन द्वितीय मारा गया। इस विजय के बाद
नरसिंहवर्मन प्रथम ने वातापीकोंड की उपाधि धारण की।
➤ चालुक्यों
में विनयादित्य (680-696 ई.) भी एक पराक्रमी शासक था। अभिलेखों में इसका उललेख त्रैराज्यपल्लवपति
के रूप में किया गया है।
➤ विनयादित्य
ने मालवा को जीतने के उपरांत सकलोत्तरपथनाथ की उपाधि धारणी की। इसके अतिरिक्त उसने
युद्ध मल्ल, भट्टारक, महाराजाधिराज राजाश्रय आदि उपाधि भी धारण की।
➤ विक्रमादित्य
द्वितीय (733-745 ई.) के काल में ही दक्कन में अरबों ने आक्रमण किया। इस आक्रमण का
मुकाबला विक्रमादित्य के भतीजे पुलकेशी ने किया। इस अभियान की सफलता पर विक्रमादित्य
द्वितीय ने इसे अवनिजनाश्रय (पृथ्वी के लोगों का शरणदाता) की उपाधि प्रदान की।
➤ विक्रमादित्य
द्वितीय की प्रथम पत्नी लोकमहादेवी ने पट्टदकल में विरूपाक्षमहादेव मंदिर का निर्माण
करवाया, जबकि उसकी दूसरी पत्नी त्रैलोक्य देवी ने त्रैलोकेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया।
➤ बादामी
के चालुक्य वंश का अंतिम राजा कीर्तिवर्मन द्वितीय (745-753 ई.) था। उसे उसी के सामंत
दंतिदुर्ग ने परास्त कर एक नये वंश राष्ट्रकूट वंश की स्थापना की।
चालुक्य वंश (कल्याणी)
➤ चालुक्य
वंश की कल्याणी शाखा की स्थापना तैलप द्वितीय ने अंतिम राष्ट्रकूट नरेश कर्क को परास्त
करके की थी। कल्याणी शाखा के चालुक्यों को पश्चिमी चालुक्य भी कहा जाता है।
➤ तैलप
द्वितीय ने मान्यखेत को अपनी राजधानी बनाया।
➤ कल्याणी
के चालुक्य वंश के अन्य शासक थे-सत्याश्रय विक्रमादित्य - V, जयसिंह - II, सोमेश्वर
-I, सोमेश्वर - II, विक्रमादित्य - VI, सोमेश्वर - III एवं जगदेक मल्ल – ।। आदि।
➤ सोमेश्वर
- । ने मान्यखेत से राजधानी स्थानांतरित कर कल्याणी (कर्नाटक) को अपनी नई राजधानी बनाया।
➤ इस
वंश का सबसे प्रतापी शासक विक्रमादित्य VI था।
➤ विक्रमांकदेवचरित
का लेखक कश्मीरी कवि विल्हण विक्रमादित्य - VI के दरबार का अमूल्य रत्न था। इसमें विक्रमादित्य
- VI के जीवन पर प्रकाश डाला गया है।
➤ मिताक्षरा
(हिन्दू विधि ग्रन्थ, याज्ञवल्क्य स्मृति पर व्याख्या) नामक ग्रन्थ के रचनाकार एवं
महान विधिवेत्ता विज्ञानेश्वर भी विक्रमादित्य - VI के दरबारी थे।
➤ विक्रमादित्य
- VI ने 1706 ई. में चालुक्य विक्रम संवत् की स्थापना की।
चालुक्य वंश (बेंगी)
➤ 615
ई. में उत्तरी तथा दक्षिणी मराठा प्रदेश में पुलकेशिन - ।। द्वारा नियुक्त वायसराय
विष्णुवर्धन ने बेंगी के चालुक्य वंश की स्थापना की। बेंगी शाखा के चालुक्यों को पूर्वी
चालुक्य भी कहा जाता है।
➤ इसकी
राजधानी बेंगी (आंध्रप्रदेश) में थी।
➤ विष्णुवर्धन
को विषमसिद्धि नाम से भी जाना जाता था।
➤ विष्णुवर्धन
के पश्चात् इस वंश के प्रमुख शासक थे-जयसिंह - ।, विष्णुवर्धन - II, विष्णुवर्धन -
III, विजयादित्य - ।, विष्णुवर्धन - IV, विजयादित्य - II, विक्रमादित्य - III, भीम
– । आदि।
➤ विजयादित्य
- । के समय बादामी के चालुक्य वंश का राष्ट्रकूटों ने उन्मूलन कर दिया। इसके बाद राष्ट्रकूटों
का बेंगी के पूर्वी चालुक्यों से संघर्ष प्रारम्भहो गया।
➤ इस
वंश का सबसे प्रतापी राजा विजयादित्य -III था, जिसका सेनापति पंडरंग था।
राष्ट्रकूट
➤ राष्ट्रकूट
वंश का संस्थापक दंतिदुर्ग (752 ई.) था।
➤ इसकी
राजधानी मान्यखेत या मालखेड़ (वर्तमान मालखेड़ शोलापुर के निकट) थी।
➤ दंतिदुर्ग
के विषय में कहा जाता है कि उसने उज्जयिनी में हरिण्यगर्भ (महादान) यज्ञ किया था।
➤ राष्ट्रकूट
वंश के प्रमुख शासक थे-कृष्ण - ।, ध्रुव, गोविंद - III, अमोघवर्ष, कृष्ण - II, इन्द्र
– ।। एवं कृष्ण - ॥
➤ कृष्ण
- । ने बादामी के चालुक्यों के अस्तित्व को पूर्णतः समाप्त कर दिया। ऐलोरा के प्रसिद्ध
कैलाश मंदिर (गुहा मंदिर) का निर्माण उसी के द्वारा करवाया गया था।
➤ ध्रुव
राष्ट्रकूट वंश का पहला शासक था जिसने कन्नौज पर अधिकार करने हेतु त्रिपक्षीय संघर्ष
में भाग लेकर प्रतिहार नरेश वत्सराज एवं पाल नरेश धर्मपाल को पराजित किया। धुरव को
धारवर्ष, भी कहा जाता था।
➤ गोविन्द
- III (793-814 ई.) ने दक्कन में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद कन्नौज पर आधिपत्य
हेतु त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लेकर चक्रायुध एवं उसके संरक्षक धर्मपाल तथा प्रतिहार
वंश के नागभट्ट - II को परास्त कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया।
➤ गोविंद
- III ने अपने विरूद्ध बने पल्लव, पाण्ड्य, केरल
एवं गंग शासकों के संघ को लगभग 802 ई. में नष्ट कर दिया।
➤ गोविंद
- III के शासनकाल को राष्ट्रकूट शक्ति का चरमोत्कर्ष काल माना जाता है।
➤ अमोघवर्ष
(814-878 ई.) एक योग्य शासक होने के साथ-साथ आदिपुराण के रचनाकार जिनसेन, गणितासार-संग्रह
के लेखक महावीराचार्य एवं अमोघवृत्ति के लेखक सक्तायना जैसे विद्वानों का आश्रयदाता
भी था।
➤ अमोघवर्ष
जैनधर्म का अनुयायी था। उसने स्वयं कन्नड़ के प्रसिद्ध ग्रन्थ कविराज मार्ग की रचना
की।
➤ अमोघवर्ष
नृपतुंग कहलाता था। उसके बारे में कहा जाता है कि उसने तुंगभ्रदा नदी में जल समाधि
लेकर अपने जीवन का अंत कर लिया।
➤ इन्द्र
- III (914-927 ई.) ने पाल वंश के देवपाल को परास्त कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया।
➤ इन्द्र
- III के समय ही अरब यात्री अलमसूदी भारत आया। उसने तत्कालीन राष्ट्रकूट शासकों को
भारत का सर्वश्रेष्ठ शासक कहा।
➤ कृष्ण
- III (939-965 ई.) राष्ट्रकूट वंश का अंतिम महान शासक था। इसने गंगों की सहायता से
चोलों को परास्त कर कांची एवं तंजावुर पर अधिकार
कर लिया एवं यहाँ पर विजय के उपलक्ष्य में एक स्तंभ एवं एक मंदिर का निर्माण करवाया।
➤ महाराष्ट्र
स्थित ऐलोरा एवं ऐलिफेंटा गुहामंदिरों का निर्माण राष्ट्रकूटों के समय ही हुआ।
➤ ऐलोरा
में शैलकृत गुफाओं की संख्या 34 है। इसमें 1 से 12 तक बौद्ध, 13 से 29 तक हिन्दू और
30 से 34 तक जैन धर्म से सं है।
➤ चोल
वंश (9वीं से 12वीं शताब्दी तक) चोल काल में भूमि के प्रकार वेल्लनवगाईः गैर ब्राह्मण
किसान स्वामी की भूमि। ब्रह्मदेयः ब्राह्मणों को उपहार में दी गयी भूमि। शालाभोगः किसी
विद्यालय के रख-रखाव की भूमि। देवदान या तिरुनमटड्रक्कनीः मंदिर को उपहार में दी गयी
भूमि। पल्लिच्चंदमः जैन संस्थानों को दान दी गयी भूमि
➤ चोलों
का प्रारम्भिक इतिहास संगम युग से प्रारम्भ होता है। संगमकालीन साहित्य से तत्कालीन
चोल शासक करिकाल (190 ई.) के बारे में काफी जानकारी मिलती है। करिकाल ने उरैयूर को
अपनी राजधानी बनाया था। करिकाल के बाद लगभग 9वीं शताब्दी तक चोलों का इतिहास अंधकारपूर्ण
रहा है।
➤ लगभग
9वीं शताब्दी (850 ई.) में पल्लवों के अवशेषों पर चोल सत्ता का पुनरूत्थान हुआ। ये
पल्लवों के सामंत थे।
➤ 9वीं
शताब्दी के मध्य लगभग 850 ई. में चोल शक्ति का पुनरूत्थान विजयालय (850-875 ई.) ने
किया। विजयालय को चोल साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक भी कहा जाता है।
➤ विजयालय
ने पाण्ड्य शासकों से तंजौर/तांजाय/तंझावुर को छीनकर उरैयूर के स्थान पर इसे अपने राज्य
की राजधानी बनाया।
➤ विजयालय
ने तंजौर को जीतने के उपलक्ष्य में नरकेसरी की उपाधि धारण की।
➤ चोलों
का स्वतन्त्र राज्य आदित्य । (875-907 ई.) ने स्थापित किया।
➤ पल्लवों
पर विजय पाने के उपलक्ष्य में आदित्य - । ने कोदण्डराम की उपाधि धारण की।
➤ चोल
वंश के प्रमुख शासक थे- परांतक - 1, परांतक - II, राजाराज।, राजेन्द्र ।, राजेन्द्र
- । एवं कुलोत्तुंग - । ।
➤ परांतक
- । (907-935 ई.) को राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण - ।। ने पश्चिमी गंगों की सहायता से तक्कोलम
के युद्ध में बुरी तरह परास्त किया। इस युद्ध में परांतक - । का बड़ा पुत्र राजादित्य
मारा गया।
➤ परांतक
- । ने भूमि का सर्वेक्षण करवाया था। उसे अनेक यज्ञ करने एवं मंदिर बनवाने का भी श्रेय
है।
➤ परांतक
- । के उत्तरमेरूर लेख से चोलों के स्थानीय स्वशासन की जानकारी मिलती है।
➤ परांतक
- II (956-973 ई.) को सुन्दर चोल के नाम से भी जाना जाता था।
➤ परांतक
- II ने तत्कालीन पाण्ड्य शासक वीर पाण्ड्य को चेचर के मैदान में पराजित किया।
➤ राजाराज
- 1 (985-1014 ई.) चोल वंश का प्रतापी शासक था। उसके शासनकाल के 30 वर्ष चोल साम्राज्य
के सर्वाधिक गौरवशाली वर्ष थे।
➤ राजाराज
- । को अरिमोलिवर्मन के नाम से भी जाना जाता था।
➤ राजाराज
- । ने अपने पितामह परांतक - । की लौह एवं रक्त
की नीति का पालन करते हुए राजाराज की उपाधि धारण की।
➤ राजाराज
- । ने अपने शासन के 9वें वर्ष में सामरिक अभियान
प्रारम्भ किया। इस अभियान के तहत सर्वप्रथम उसने चोल विरोधी गठबंधन में शामिल पाण्ड्य,
चेर एवं श्रीलंका के उपर आक्रमण किया।
➤ राजाराज
- । ने श्रीलंका के शासक महेन्द्र - V / महिम - V पर
आक्रमण कर उसकी राजधानी अनुराधापुरम् को बुरी तरह नष्ट कर दिया।
➤ श्रीलंका
अभियान में राजाराज । ने अपने द्वारा जीते गये प्रदेश का नाम मामुण्डी चोलमंडलम
रखा एवं पोलोन्नरूवा को उसकी राजधानी बनाया।
➤ सम्भवतः
श्रीलंका विजय के बाद राजाराज - । ने जगन्नाथ का विरूद धारण कर पोलोन्नरूवा का नाया
नाम जननाथमंगलम्/जगन्नाथमंगलम् रखा।
➤ अपने
शासन के अंतिम दिनों में राजाराज - । ने मालद्वीप को भी अपने अधिकार में कर लिया।
➤ राजाराज-1,
शैव मतानुयायी होने के कारण शिवपादशेखर की उपाधि धारण की। इसके अतिरिक्त उसने रविकुल
माणिक्य, मुम्माडि चोलदेव, चोल मार्त्तण्ड, जयनगोण्ड आदि अनेक उपाधियाँ धारण की।
➤ राजाराज
- । ने तंजौर में द्रविड़ वास्तुकला शैली के अंतर्गत विश्व प्रसिद्ध मंदिर राजराजेश्वर/बृहदीश्वर
मंदिर का निर्माण करवाया।
➤ राजाराज
- । ने अपने शासन के दौरान चोल अभिलेखों का आरम्भ ऐतिहासिक प्रशस्ति के साथ करवाने
की प्रथा की शुरुआत की।
➤ राजाराज
- । ने शैलेन्द्र शासक श्रीमार विजयोत्तुंग वर्मन को नागपट्टम में चूड़ामणि नामक बौद्ध
बिहार बनाने की अनुमति दी और साथ ही इसके निर्माण में आर्थिक सहायता भी दी।
➤ राजाराज
- । ने अपने धर्मसहिष्णु होने का परिचय राजराजेश्वर मंदिरों की दीवारों पर बौद्ध प्रतिमाओं
का निर्माण करवाकर दिया।
➤ चोल
सत्ता का सर्वाधिक विस्तार राजेन्द्र - । (1014-1044
ई.) के शासनकाल में हुआ।
➤ राजेन्द्र
- । की उपलब्धियों के बारे में सही जानकारी तिरूवालंगाडु एवं करंदाइ अभिलेखों से मिलती
है।
➤ राजेन्द्र
- । ने अपने प्रारम्भिक विजय अभियान में पश्चिमी चालुक्यों, पाण्ड्यों एवं केरलों को
पराजित किया।
➤ राजेन्द्र
- । ने सिंहल अभियान (लगभग 1017 ई.) में वहाँ के शासक महेन्द्र - V को परास्त कर सम्पूर्ण
सिंहल राज्य को अपने अधिकार में कर सिंहल शासक को चोल राज्य में बन्दी बना लिया। इस
सिंहल शासक की 1029 ई. में यहीं मृत्यु हो गयी।
➤ राजेन्द्र
- । के सामरिक अभियानों का महत्त्वपूर्ण कारनामा था- उसकी सेनाओं का गंगा नदी पार कर
कलिंग एवं बंगाल तक पहुँच जाना।
➤ कलिंग
एवं बंगाल के इस अभियान में चोल सेनाओं ने कलिंग के पूर्वी गंग शासक मधुकामार्नव और
बंगाल के पाल शासक महीपाल को पराजित किया।
उत्तरमेरुर अभिलेख
के अनुसार सभा की सदस्यता
1. |
सभा की सदस्यता के लिए इच्छुक लोगों को ऐसी भूमि का स्वामी
होना चाहिए, जहाँ से भू-राजस्व वसूला जाता है। |
2. |
उनके पास अपना घर होना चाहिए। |
3. |
उनकी उम्र 35 से 70 के बीच होनी चाहिए। |
4. |
उन्हें वेदों का ज्ञान होना चाहिए। |
5. |
उन्हें प्रशासनिक मामलों की अच्छी जानकारी होनी चाहिए और
ईमानदार होना चाहिए। |
6. |
यदि कोई पिछले तीन सालों में किसी समिति का सदस्य रहा है,
तो वह किसी और समिति का सदस्य नहीं बन सकता। |
7. |
जिसने अपने या अपने सम्बन्धियों के खाते जमा नहीं कराये
हैं, वह चुनाव नहीं लड़ सकता। |
➤ गंगाघाटी
के अभियान की सफलता पर राजेन्द्र - । ने गंगैकोण्डचोल की उपाधि धारण की तथा इस विजय
की स्मृति में कावेरी नदी के निकट गंगैकोण्डचोलपुरम् नामक नई राजधानी का निर्माण करवाया।
साथी ही सिंचाई हेतु चोलगंगम नामक एक बड़े तालाब का भी निर्माण करवाया।
➤ राजेन्द्र
- । ने श्री विजय (शैलेन्द्र) शासक विजयोत्तुंग वर्मन को पराजित कर जावा, सुमात्रा
एवं मलाया प्रायद्वीप पर अधिकार कर लिया।
➤ राजेन्द्र
- । ने गंगैकोण्डचोल, वीर राजेन्द्र, मुडिगोंडचोल
आदि उपाधियाँ धारण की।
➤ एक
महान विद्या प्रेमी होने के कारण राजेन्द्र - । को पंडित चोल भी कहा जाता है।
➤ राजाधिराज
- 1 (1044-1052 ई.) का सर्वप्रथम संघर्ष कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों से हुआ।
इसने तत्कालीन चालुक्य नरेश सोमेश्वर को पराजित कर राजधानी कल्याणी पर अधिकार
कर लिया। इस विजय के उपलक्ष्य में राजाधिराज ने अपना वीराभिषेक करवाकर विजय राजेन्द्र
की उपाधि धारण की।
➤ राजाधिराज
- । ने राजधानी कल्याणी की विजय-स्मृति के रूप में वहाँ से एक द्वार पालक की मूर्ति
लाकर उसे तंजौर नगर के दारासुरम नामक स्थान पर स्थापित करवाया।
➤ वीर
राजेन्द्र (1064-1070 ई.) ने अपने परंपरागत शत्रु पश्चिमी चालुक्यों को कुंडलसंगमम्
के मैदान में परास्त कर तुंगभद्रा नदी के किनारे एक विजय स्तंभ की स्थापना की।
➤ पश्चिमी
चालुक्यों के खिलाफ एक अन्य अभियान में कम्पिलनगर को जीतने के उपलक्ष्य में वीर राजेन्द्र
ने करडिग ग्राम में एक और विजय स्तंभ स्थापित करवाया।
➤ वीर
राजेन्द्र ने अपनी पुत्री का विवाह (विक्रमादित्या
- IV) कर पश्चिमी चालुक्यों के साथ कर सम्बन्धों के नये अध्याय की शुरुआत की।
➤ वीर
राजेन्द्र की मृत्यु के बाद अधिराजेन्द्र (1070 ई.) चोल की राजगद्दी पर बैठा, पर कुछ
ही माह के बाद राज्य में एक जनविद्रोही भीड़ द्वारा उसकी हत्या कर दी गयी।
➤ अधिराजेन्द्र
की मृत्यु के साथ ही विजयालय द्वारा स्थापित चोल वंश समाप्त हो गया।
➤ अशांतमय
परिस्थितियों का लाभ उठाकर राजेन्द्र - ।। कुलोतुंग - । (1070-1120 ई.) के नाम से चोल
राज सिंहासन पर बैठा।
➤ कुलोतुंग
- । के बाद का चोल इतिहास चोल-चालुक्य वंशीय इतिहास के नाम से जाना जाता है।
➤ कुलोतुंग
- । का शासन काल कुछ युद्धों को छोड़कर शान्ति एवं सुव्यवस्था का काल था।
➤ कुलोतुंग
- । ने 72 व्यापारियों के एक दूतमंडल को 1077 ई. में चीन भेजा।
➤ चोल
लेखों में कुलोतुंग को शुंगमन्विर्त्त (करो को हटाने वाला) कहा गया है।
➤ विक्रम
चोल (1120-1133 ई.) धार्मिक दृष्टि से असहिष्णु शासक था। उसने अभाव एवं अकाल से त्रस्त
जनता से राजस्व वसूल कर चिदंबरम मंदिर का विस्तार करवाया।
➤ विक्रम
चोल ने अंकलैंक एवं त्याग समुदर की उपाधियाँ धारण की।
➤ कुलोतुंग - II (1133-1150 ई.) ने चिदम्बरम् मंदिर में स्थित
गोविंदराज (विष्णु) की मूर्ति को समुद्र में फेंकवा दिया। कालांतर में वैष्णव आचार्य
रामानुज ने उक्त मूर्ति को उठाकर तिरूपति के मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित किया।
➤ चोल
वंश का अंतिम शासक राजेन्द्र - ।। था।
➤ चोलों
एवं चालुक्यों के बीच लंबे समय से चली आ रही शत्रुता को समाप्त कर शान्ति स्थापित कराने
में गोवा के कंदम्ब शासक जयकेस - । ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई।
➤ चोल
प्रशासन में भाग लेने वाले उच्च एवं निम्न श्रेणी के पदाधिकारियों को क्रमशः पेरून्दरम्
एवं शेरून्दरम् कहा जाता है।
➤ प्रशासन
की सुविधा हेतु सम्पूर्ण चोल साम्राज्य 6 प्रांतों में बँटा था। प्रांत को मंडलम् कहा
जाता था। मंडलम् को कोट्टम (कमिश्नरी) में कोट्टम को नाडु (जिले) में एवं प्रत्येक
नाडु को कई कुर्रमों (ग्राम समूह) में विभक्त किया गया था।
➤ मंडलम्
से लेकर ग्राम स्तर तक के प्रशासन हेतु स्थानीय सभाओं का सहयोग लिया जाता था। नाड्डु
एवं नगर की स्थानीय सभा को क्रमशः नाटूर एवं नगरतार कहा जाता था।
➤ स्थानीय
स्वशासन चोल शासन प्रणाली की महत्त्वपूर्ण विशेषता थी।
➤ उर
सर्वधारण लोगों की समिति थी, जिसका कार्य होता था सार्वजनिक कल्याण के लिए तालाबों
और बगीचों के निर्माण हेतु गाँव की भूमि का अधिग्रहण करना।
➤ सभा/महासभा
मूलतः अग्रहारों और ब्राह्मण बस्तियों की सभा थी, जिसके सदस्यों को पेरूमक्कल कहा जाता
था। यह सभा वरियम नाम की समितियों के द्वारा अपने कार्य को संचालित करती थी।
➤ सभा
की बैठक गाँव में मंदिर के निकट वृक्ष के नीचे या तालाब के किनारे होती थी।
➤ व्यापारियों
की सभा को नगरम कहते थे।
➤ चोल
काल में भूमिकर उपज का 1/3 भाग हुआ करता था।
➤ गाँव
में कार्यसमिति की सदस्यता के लिए वेतनभोगी कर्मचारी रखे जाते थे, उन्हें मध्यस्थ कहते
थे।
➤ ब्राह्मणों
को दी गयी करमुक्त भूमि को चतुर्वेदि मंगलम् कहा जाता था।
➤ चोल
सैन्य संगठन का सबसे संगठित अंग था-पदाति सेना।
➤ चोलों
के समय सोने के सिक्के को काशु कहा जाता था।
➤ ब्राह्मणों
को दी गयी भूमि ब्रह्मदेय कहलाती थी।
➤ कुलोतुंग
- । का राजकवि जयन्गांदर तमिल कवियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध था। उसकी रचना कलिंगत्तुपर्णि
है।
➤ कंबन,
ओट्टक्कुट्टन और पुगलेंदि को तमिल साहित्य का त्रिरत्न कहा जाता है।
➤ कुलोतुंग
- III का दरबारी कवि कंबन का काल तमिल साहित्य का स्वर्ण काल माना जाता है। उसकी कृति
कंबन की रामायण को तमिल साहित्य का गौरव ग्रन्थ माना जाता है।
➤ इस
काल की अन्य रचनाएँ हैं- शेक्किल्लार द्वारा रचित पेरिय पुराणम, गलेंदि की नलवेम्ब
तथा तिरक्तदेवर की जीवक चिंतामणि।
➤ प्रियपूर्णम
या शेखर की तिरूटोण्डपूर्णम को पाँचवाँ वेद कहा जाता है।
➤ पंप,
पोन्न एवं रन्न को कन्नड़ साहित्य का त्रिरत्न कहा जाता है।
➤ पर्सी
ब्राउन ने तंजौर के बृहदेश्वर मंदिर के विमान को भारतीय वास्तुकला का निकष माना है।
➤ चोलकालीन
धातु मूर्ति कला में नटराज की कांस्य प्रतिमा को चोल कला का सांस्कृतिक (कसौटी) सार
या निचोड़ कहा जाता है।
➤ चोल
काल में आम वस्तुओं के आदन-प्रदान का आधार धान था।
➤ चोलकालीन
सबसे महत्त्वपूर्ण बंदरगाह कावेरीपट्टनम था।
➤ चोल
काल में बहुत बड़ा गाँव जो एक इकाई के रूप में शासित किया जाता था, तनियर कहा जाता
था।
➤ उत्तरमेरूर
शिलालेख, जो सभा-संस्था का विस्तृत वर्णन उपस्थित करता है, परांतक - । के शासनकाल से
सं है।
➤ चोलों
की राजधानी कालक्रम के अनुसार इस प्रकार थी- उरैयूर, तंजौर, गंगैकोंडचोलपुरम् एवं कांची।
➤ चोलों
के समय सड़कों की देखभाल बगान समिति करती थी।
➤ पंडित
चोल के नाम से चर्चित राजेन्द्र - । के गुरु शैव संत इसान शिव थे।
➤ चोल
काल के विशाल व्यापारी समूह इस प्रकार थे- वलंजियार, नानादेशी एवं मणिग्रामम्।
➤ विष्णु
के उपासक अलवार एवं शिव के उपासक नयनार संत कहलाते थे।
कदंब वंश
➤ कदंब
राज्य की स्थापना मयूरशर्वन ने की थी।
➤ अनुश्रुतियों
के अनुसार मयूरशर्मन ने अट्ठारह अश्वमेघ यज्ञ किये।
➤ कदंब
राजा मयूरशर्वन ने ब्राह्मणों को असंख्य गाँव दान में दिया।
➤ कदंबों
ने जैनों को भी भूमिदान दिया पर पर उनका ब्राह्मणों की ओर अधिक झुके हुए थे।
➤ कदंबों
ने अपनी राजधानी कर्नाटक के उत्तरी केनरा जिले में वैजयन्ती या बनवासी में बनायी।
गंगवंश
➤ गंगवंश
का संस्थापक ब्रजहस्त पंचम था।
➤ अभिलेखों
के अनुसार गंगवंश का प्रथम शासक कोंकणी वर्मा था।
➤ गंगों
की प्रारम्भिक राजधानी कुवलाल (कोलार) थी, जहाँ सोने की खान होने के कारण इस राजवंश
का उत्थान आसन हुआ।
➤ गंगों
की बाद में राजधानी तलकाड हो गयी।
➤ गंग
शासक माधव प्रथम ने दत्तक सूत्र पर टीका लिखा।
काकतीय वंश
➤ काकतीय
वंश का संस्थापक बीटा प्रथम था, जिसने नलगोंडा (हैदराबाद) में एक छोटे से राज्य का
गठन किया, जिसकी राजधानी अमकोंड थी।
➤ इस
वंश का सबसे शक्तिशाली शासक गणपति था। रूद्रमादेवी गणपति की बेटी थी, जिसने रूद्रदेव
महाराज का नाम ग्रहण किया, जिसने 35 वर्षों तक शासन किया।
➤ गणपति
ने अपनी राजधानी वारंगल में स्थानांतरित कर ली थी।
➤ इस
राजवंश का अंतिम शासक प्रताप रूद्र (1295-1323 ई.) था।
यादव वंश
➤ देवगिरि
के यादव वंश की स्थापना भिल्लम पंचम ने की। इसकी राजधानी देवगिरि थी।
➤ इस
वंश का सबसे प्रतापी राज सिंहण (1210-1246 ई.) था।
➤ इस
वंश का अंतिम स्वतन्त्र शासक रामचन्द था, जिसने अलाउद्दीन के सेनापति मलिक काफूर के
सामने आत्मसमर्पण किया।
होयसल वंश
➤ द्वारसमुद्र
के होयसल वंश की स्थापना विष्णुवर्धन ने की थी। होयसलों ने द्वारसमुद्र (आधुनिक हलेविड)
को अपनी राजधानी बनाया।
➤ होयसल
वंश यादव वंश की एक शाखा थी।
➤ वेलूर
में चेन्ना केशव मंदिर का निर्माण विष्णुवर्धन ने 1117 ई. में किया था।
➤ इस वंश का अंतिम शासक वीर बल्लाल - III था, जिसे मलिक काफूर ने हराया था।