रघुकौत्ससंवादः पाठ्यांशः
तमध्वरे विश्वजिति
क्षितीशं
निःशेषविश्राणितकोषजातम्।
उपात्तविद्यो
गुरुदक्षिणार्थी
कौत्सः प्रपेदे
वरतन्तुशिष्यः ॥1॥
अन्वयः - विश्वजिति
अध्वरे नि:शेषविश्राणितकोशजातं तं क्षितीशं (रघुम्) उपात्तविद्यः वरतन्तुशिष्यः कौत्स:
गुरुदक्षिणार्थी प्रपेदे।
प्रसंग: - प्रस्तुत
पद्य हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती-द्वितीयो भागः' के 'रघुकौत्ससंवादः' नामक पाठ से लिया
गया है। यह पाठ महाकवि कालिदास द्वारा रचित 'रघुवंशमहाकाव्यम्' के पञ्चम सर्ग से सम्पादित
किया गया है। इस पाठ में ऋषि वरतन्तु के शिष्य कौत्स तथा महाराजा रघु के बीच हुए संवाद
को वर्णित किया गया है। (पूरे पाठ में इसी प्रसंग का प्रयोग किया जा सकता है)।
सरलार्थ: -
'विश्वजित्' नामक यज्ञ में अपनी सम्पूर्ण धनराशि दान कर चुके उस राजा रघु के पास वरतन्तु
ऋषि का विद्यासम्पन्न शिष्य कौत्स गुरुदक्षिणा देने की इच्छा से धनयाचना करने के लिए
पहुँचा।
भावार्थ: - प्राचीन
काल में राजा लोग 'विश्वजित्' यज्ञ करते थे। राजा रघु ने भी यह यज्ञ किया और अपना सम्पूर्ण
खजाना (राजकोष-धनधान्य) दान कर दिया। तभी वरतन्तु का शिष्य कौत्स भी राजा के पास इस
आशा में कि वह अपने गुरु को गुरुदक्षिणा में देने के लिए चौदह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ
राजा रघु से माँग लेगा।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
विश्वजिति अध्वरे = विश्वजित्
नामक यज्ञ में। कोषजातम् = धनसमूह, सम्पूर्ण धनराशि। विश्राणितम् = प्रदत्तम्; दान
में दिया हुआ। वि + श्रणु (दाने) + क्त; दत्तम्। उपात्तविद्यः = विद्या को प्राप्त
किया हुआ, विद्यासम्पन्न। उपात्ता विद्या येन सः (बहुव्रीहि)। गुरुदक्षिणार्थी = गुरुदक्षिणा
देने की इच्छा से प्रार्थना करने वाला। गुरुदक्षिणायै अर्थी (चतुर्थी-तत्पुरुष) प्रपेदे
= पहुँचा। प्र + पद् (गतौ) + लिट् + प्रथम पुरुष एकवचन।
स मृण्मये वीतहिरण्मयत्वात्
पात्रे निधायार्थ्यमनघंशीलः।
श्रुतप्रकाशं
यशसा प्रकाशः
प्रत्युज्जगामातिथिमातिथेयः॥2॥
अन्वयः - स:
अनर्घशीलः, यशसा प्रकाशः, आतिथेयः, वीतहिरण्मयत्वात् मृण्मये पात्रे अर्घ्यं निधाय
श्रुतप्रकाशम् अतिथिं (कौत्सम्) प्रति उज्जगाम।
सरलार्थः - वह
प्रशंसनीय स्वभाव वाला, यश से प्रकाशवान, अतिथि सत्कार करने वाला राजा रघु सुवर्ण-निर्मित
पात्र न रहने से मिट्टी के बने हुए पात्र में अर्ध्य अर्थात् सत्कार के लिए जल आदि
लेकर वेदज्ञान से प्रकाशमान अतिथि कौत्स के पास उठकर गया।
भावार्थ: - विश्वजित्
यज्ञ में सम्पूर्ण धन-कोष दान कर देने के कारण राजा रघु निर्धन हो चुका था। अब उसके
पास सोने के बर्तन नहीं थे। परन्तु अतिथि का सत्कार तो प्रत्येक दशा में करना ही चाहिए।
इसी से रघु मिट्टी के पात्र में सत्कार-सामग्री रखकर, अपने आसन से उठकर याचक ब्रह्मचारी
कौत्स के पास पहुँचे।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
मृण्मये = मिट्टी के बने हुए।
मृत् + मयट्। वीतहिरण्मयत्वात् = सोने के बने हुए पात्रों के न रहने से। हिरण्यस्य
विकारः = हिरण्मयम्। वि + इण् + क्त = वीतम्। निधाय = रखकर। संस्थाप्य। नि + धा + ल्यप्।
अय॑म् = अर्घ निमित्तक द्रव्य। अर्घार्थम् योग्यम् इदं द्रव्यम् अर्घ + यत्। अनर्घशीलः
= असाधारण आचारवान्, प्रशंसनीय स्वभाववाला। अमूल्यस्वभावः, असाधारण-स्वभावो वा। नञ्
+ अर्घः = अनर्घः = अमूल्यम्। श्रुतप्रकाशं = वेदादि शास्त्रों के अध्ययन से प्रसिद्ध।
श्रुतम् = शास्त्रम्। श्रुतेन प्रकाशः। यस्मिन् तम् (बहुव्रीहि)। श्रुतम् = वेदादि
शास्त्र। श्रूयते इति श्रुतम्-वेदादिशास्त्रम्। श्रु + क्त। प्रत्युजगाम = पास उठकर
गया। प्रति + उत् + गम् + लिट्। प्रथमपुरुष एकवचन। आतिथेयः = अतिथि सत्कार करने वाला,
मेजबान (Host) अतिथये साधुः। अतिथि + ढञ्।
तमर्चयित्वा
विधिवद्विधिज्ञः
तपोधनं मानधनाग्रयायी।
विशांपतिर्विष्टरभाजमारात्
कृताञ्जलिः कृत्यविदित्युवाच
॥3॥
अन्वयः - विधिज्ञः
मानधनाग्रयायी कृत्यवित् विशांपतिः विष्टरभाजं तं तपोधनं विधिवत् अर्चयित्वा आरात्
कृताञ्जलिः सन् इति उवाच।
सरलार्थः - शास्त्रविधि
को जानने वाले, स्वाभिमान को ही धन मानने वालों में अग्रगण्य, अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व
को समझने वाले, प्रजा के स्वामी राजा रघु ने आसन पर विराजमान उस तपस्वी कौत्स का विधिपूर्वक
सत्कार करके निकट ही हाथ जोड़े हुए (रघु ने) इस प्रकार कहा -
भावार्थ: - स्वाभिमानी
राजा रघु ने तपस्वी कौत्स का पूजन करके आदरपूर्वक हाथ जोड़कर अगले पद्यों में कहे जाने
वाले वचन कहे।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
अर्चयित्वा = पूजन करके, सत्कार
करके।।अर्च् (पूजायाम्) + णिच् + क्त्वा। स्वार्थे णिच्। विधिवत् = शास्त्रोक्त नियमों
के अनुरूप। यथाशास्त्रम्। विधि + वत्। विधिज्ञः = शास्त्रज्ञ। शास्त्र नियमों के वेत्ता।
तपोधनम् = ऋषि को। जिसका तप ही धन है। तपः धनं यस्य (बहुब्रीहि समास)। मानधनाग्रयायी
= आत्म गौरव को ही धन मानने वालों में अग्रगण्य/अग्रेसर। विशाम्पतिः = राजा। विश्
= प्रजा। पति = स्वामी। विशां पतिः (अलुक्-षष्ठी तत्पुरुष) विष्टरभाजाम् = आसन पर/पीठ
पर बैठे हुए। विष्टरम् = आसनम् अथवा पीठम्। आरात् = समीप में। दूर और समीप दोनों अर्थों
में 'आरात्' पद का प्रयोग होता है। अव्यय। कृत्यवित्= अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व
को समझने वाला। कृ + यत् + विद् + क्विप्। उवाच = वच् (परिभाषणे) लिट्, प्रथम पुरुष,
एकवचन।
अप्यग्रणीमन्त्रकृतामृषीणां
कुशाग्रबुद्धे
कुशली गुरुस्ते।
यतस्त्वया ज्ञानमशेषमाप्तं
लोकेन चैतन्यमिवोष्णरश्मेः॥4॥
अन्वयः -
(हे) कुशाग्रबुद्धे ! अपि मन्त्रकृताम् ऋषीणाम् अग्रणी: ते गुरुः कुशली ? यतः त्वया
अशेषं ज्ञानं लोकेन उष्णरश्मेः चैतन्यम् इव आप्तम्।
सरलार्थ: - राजा
रघु ने कौत्स से विनयपूर्वक कहा--हे तीव्रबुद्धि ! क्या मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में अग्रगण्य
आपके गुरु कुशलपूर्वक हैं ? क्योंकि आपने समस्त ज्ञान अपने गुरु से उसी प्रकार प्राप्त
किया है, जिस प्रकार संसार के समस्त लोग उष्णरश्मि (= सूर्य) से जागृति प्राप्त करते
हैं।
भावार्थ: - वरतन्तु
मन्त्रद्रष्टा श्रेष्ठ ऋषि हैं। राजा रघु उनके शिष्य से ऋषिश्रेष्ठ का कुशल समाचार
पूछकर सजनोचित शिष्टाचार प्रकट कर रहे हैं। जैसे सूर्य से लोग ऊर्जा प्राप्तकर चेतनावान्
हो जाते हैं, इसी प्रकार कौत्स वरतन्तु से समस्त 14 विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर विद्यावान्
हुआ है।
विशेष: - यहाँ
उपमा अलंकार है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
मन्त्रकृताम् = मन्त्रद्रष्टाओं
में। मनन करने वालों में। चिन्तन करने वालों में। कृ-धातु का प्रथम अर्थ 'दर्शन करना'
है न कि निर्माण करना। ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः। कशाग्रबद्ध = हे सक्ष्मदर्शी ! कशस्य
अग्र कुशाग्रं कुशाग्रमिव बुद्धिर्यस्य सः कुशाग्रीयम्। तत्सम्बोधनम्। कुश एक विशेष
प्रकार की तीखी नोंक वाली घास होती है जिसका उपयोग यज्ञ-यागादि में किया जाता है। अशेषम्
= सम्पूर्ण। अविद्यमानः शेषः यस्मिन् तत्। न + शेषम्। शेष न रहने तक। लोकेन = लोगों
से। समूहवाचीपद। उष्णरश्मिः = सूर्य। उष्णः रश्मिः यस्य सः। बहुव्रीहि समास। आप्तम्
= प्राप्त किया गया। आप्ल (व्याप्तौ) + क्त।
तवाहतो नाभिगमेन
तृप्तं मनो नियोगक्रिययोत्सुकं मे।
अप्याज्ञया शासितुरात्मना
वाप्राप्तोऽसि सम्भावयितुं वनान्माम् ॥5॥
अन्वयः - अर्हतः
तव अभिगमनेन नियोगक्रियया उत्सुकं मे मनः न तृप्तम् अपि शासितुः आज्ञया आत्मना वा मां
संभावयितुं वनात् प्राप्तः असि ?
सरलार्थ: - राजा
रघु ने कौत्स से पुन: कहा-"आप पूजनीय के आगमन से आज्ञापालन के लिए उत्सुक मेरा
मन सन्तुष्ट/प्रसन्न हो गया है। क्या आप गुरु की आज्ञा से अथवा अपने-आप से ही मुझ पर
कृपा करने के लिए वन (आश्रम) से यहाँ पधारे हैं ?"
भावार्थ: - राजा
रघु स्वभाव से विनम्र एवं शिष्टाचार में निपुण हैं। वे तपस्वियों की याचना को भी अपने
ऊपर तपस्वियों की कृपा ही मानते हैं। रघु के पूछने का तात्पर्य है कि वह अपने गुरुदेव
के प्रयोजन से मेरे पास आया है अथवा उसका कोई अपना ही व्यक्तिगत प्रयोजन है ?
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
अर्हतः = प्रशंसा के योग्य
का। अर्ह (पूजायाम्) + शत, षष्ठी एकवचन। अर्ह-धातु से 'प्रशंसा' के अर्थ में ही शतृ
प्रत्यय होता है। अभिगमेन = आगमन से। तृप्तम् = सन्तुष्ट। तृप् (प्रीणने) + क्त। नियोगक्रियया
= आज्ञा से। उत्सुकम् = उत्कण्ठित। सम्भावयितुम् = कृतार्थ करने के लिए। सम् + भू
+ णिच् + तुमुन्।
इत्यर्घ्यपात्रानुमितव्ययस्य
रघोरुदारामपि
गां निशम्य।
स्वार्थोपपत्तिं
प्रति दुर्बलाशः
तमित्यवोचद्वरतन्तुशिष्यः॥6॥
अन्वयः - अर्घ्यपात्रेण अनुमितव्ययस्य रघोः इति उदारां गाम्
अपि निशम्य वरतन्तुशिष्यः स्वाथोपपत्तिं प्रति दुर्बलाशः तम् इति अवोचत्।
सरलार्थः - अर्घ्यपात्र
मिट्टी का बना हुआ होने से जिसके खर्च करने की सामर्थ्य का अनुमान किया जा सकता है,
ऐसे उस राजा रघु की इस उदारतापूर्ण वाणी को सुनकर भी वरतन्तु के शिष्य कौत्स ने अपने
कार्य की सिद्धि के प्रति हताश होते हुए राजा रघु से ये वचन कहे -
भावार्थ: - राजा
रघु विश्वजित् यज्ञ में अपना सम्पूर्ण धन दान कर चुके हैं, अत: कौत्स का सत्कार करने
के लिए आज उनके पास सोने का पात्र नहीं है; अपितु मिट्टी का पात्र है। इस मिट्टी के
बर्तन से ही अब रघु की दान शक्ति का परिचय मिल जाता है। कौत्स को अपने उद्देश्य की
सिद्धि पूर्ण होती हुई प्रतीत नहीं होती, इसीलिए वह हताश होकर अगले पद्यों में कहे
गए वचन राजा रघु के सामने निवेदन करता है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
अर्घ्यपात्रानुमितव्ययस्य
= (मृण्मय) अर्घ्यपात्र से ही जिसके सम्पूर्ण धन के व्यय हो जाने का पता लगता है, उसका।
अर्घ्यस्य पात्रम् अर्घ्यपात्रेण अनुमित: व्ययः यस्य सः, तस्य = रघोः। गाम् = वाणी
को। 'गो' शब्द अनेकार्थक है, इस स्थान पर वाणी का वाचक है। निशम्य = सुनकर। नि + शम्
+ ल्यप्। स्वार्थोपपत्तिम् = अपने प्रयोजन (कार्य) की सिद्धि को। यहाँ अर्थ शब्द प्रयोजन
वाचक है। दुर्बलाशः = निराश होते हुए; शिथिल मनोरथ होते हुए दुर्बला आशा यस्य सः (बहुव्रीहि)
अवोचत् = बोला। वच् + (परिभाषणे) लङ् प्रथमपुरुष, एकवचन।
सर्वत्र नो वार्तमवेहि
राजन् !
नाथे कुतस्त्वय्यशुभं
प्रजानाम्।
सूर्ये तपत्यावरणाय
दृष्टे:
कल्पेत लोकस्य
कथं तमिस्त्रा॥7॥
अन्वयः -
(हे) राजन् ! सर्वत्र नः वार्तम् अवेहि। त्वयि नाथे प्रजानाम् अशुभं कुत: ? सूर्ये
तपति तमिस्रा लोकस्य दृष्टेः आवरणाय कथं कल्पेत ?
सरलार्थ: - वरतन्त
के शिष्य कौत्स ने राजा रघ को सम्बोधन करते हए कहा-हे राजन ! आप तो सभी जगह हमारी कुशलता
को जानते ही हैं। आप के राजा होते हुए प्रजाओं का अशुभ कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं।
सूर्य के प्रकाशमान होने पर अंधकार समूह (कृष्ण पक्ष की रात्री) संसार के लोगों की
दृष्टि को ढकने में कैसे समर्थ हो सकता है ?
भावार्थ: - कौत्स
राजा रघु के राजा होने पर सन्तुष्ट है और राजा के समक्ष वह स्पष्ट कर रहा है कि उनके
राजा रहते हुए उनके शासन में किसी भी प्रकार के अनिष्ट की कल्पना नहीं की जा सकती।
समस्त प्रजा का केवल कल्याण ही होता है। सूर्य के रहते हुए अंधकार कैसे ठहर सकता है?
विशेष: - प्रस्तुत
पद्य में पहले वाक्य की कही गई बात को दूसरे वाक्य की बात से पुष्ट किया गया है। अत:
यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
वार्तम् = कुशलता, नीरोगता।
'वार्तम् , स्वास्थ्यम्, आरोग्यम्, अनामयम्' इति पर्यायपदानि। अवेहि = जानो। अव + इहि।
इण् गतौ, लोट् मध्यमपुरुष एकवचन। सूर्ये तपति ( सति) = सूर्य के प्रकाशमान होने पर।
सती सप्तमी प्रयोग। तपति - तप् + शतृ सप्तमी विभक्ति एकवचन (पुंल्लिंग) कथं कल्पेत
= कैसे पर्याप्त होगा। (समर्थ नहीं होगा)। क्लृप् (सामर्थ्य) विधिलिङ् प्रथम पुरुष
एकवचन। तमिस्त्रा = अन्धकार समूह, कृष्णपक्ष की रात्री 'तमिस्रा तु तमस्ततौ'।
शरीरमात्रेण
नरेन्द्र तिष्ठन्
आभासि तीर्थप्रतिपादितर्द्धिः।
आरण्यकोपात्तफलप्रसूतिः
स्तम्बेन नीवार
इवावशिष्टः॥8॥
अन्वयः -
(हे) नरेन्द्र ! तीर्थे प्रतिपादितार्द्धिः अपि शरीरमात्रेण तिष्ठन् आरण्यकोपात्त-फलप्रसूतिः
स्तम्बेन अवशिष्टः नीवारः इव आभासि।
सरलार्थ: - वरतन्तु
के शिष्य कौत्स ने राजा रघु से कहा-हे राजन् ! सत्पात्रों को अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति
दान में देने वाले आप केवल शरीर से उसी प्रकार सुशोभित हो रहे हैं जैसे वनों में रहने
वाले मुनि लोगों को अपने फल प्रदान कर देने वाले नीवार के पौधे डंठल मात्र से शेष रहकर
सुशोभित होते हैं।
भावार्थ: - रघु
सर्वस्व दान कर देने के पश्चात् भी सुशोभित हो रहे हैं, क्योंकि उन्होंने यह दान सदाचारी
याचकों को दिया है। कवि कालिदास ने धन-सम्पत्ति से रहित होने के कारण शरीर मात्र से
विद्यमान रघु को उसी प्रकार सुशोभित बताया है जिस प्रकार मुनियों द्वारा नीवार-अन्न
(साँवकी) ग्रहण कर लेने पर नीवार का पौधा डंठल मात्र रहकर सुशोभित होता है।
विशेष: - यहाँ
उपमा अलंकार है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
शरीरमात्रेण = केवल शरीर से।
केवलं शरीरं शरीरमात्रम्। मात्रच् प्रत्यय। आभासि = सुशोभित हो रहे हो। आ + भा (दीप्तौ)
लट्लकार मध्यम पुरुष एकवचन। तीर्थप्रतिपादितार्द्धिः = सत्पात्रों को सारी सम्पत्ति
दान करने वाले। तीर्थे-सत्पात्रे प्रतिपादिता-दत्ता ऋद्धिः-समृद्धिः (सम्पत्) येन सः।
आरण्यकाः = अरण्य में निवास करने वाले मुनिजन आदि। अरण्ये भवाः आरण्यकाः। स्तम्बेन
= डाँठ (डंठल) मात्र से। तृतीया विभक्ति एकवचन। नीवारः =धान्य विशेष। जंगल में स्वतः
उत्पन्न हुआ धान्य विशेष।
तदन्यतस्तावदनन्यकार्यो।
गुर्वर्थमाहर्तुमहं
यतिष्ये।
स्वस्त्यस्तु
ते निर्गलिताम्बुगर्भ
शरद्घनं नार्दति
चातकोऽपि ॥9॥
अन्वयः - तत् तावत् अनन्यकार्यः अहम् अन्यत: गुर्वर्थम् आहर्तुं यतिष्ये। ते स्वस्ति। चातकः अपि निर्गलिताम्बुगर्भ शरद्-घनं न अर्दति।
सरलार्थ: - कौत्स
राजा रघु से कह रहा है-(क्योंकि आप पहले ही सब कुछ दान कर चुके हैं) इसीलिए (धन याचना
के अतिरिक्त मेरा) कोई अन्य प्रयोजन न होने से मैं किसी दूसरे राजा के पास गुरुचरणों
में दक्षिणा रूप में देने के लिए धन-याचना करने का प्रयास करूंगा। आपका कल्याण हो।
जल वर्षा कर देने से रिक्त हुए शरद् ऋतु के बादलों से तो चातक भी जल की याचना नहीं
करता।
भावार्थ: - जिसके
पास जो वस्तु हो, उससे वही वस्तु माँगनी चाहिए। कौत्स को धन की आवश्यकता है। राजा रघु
पहले ही सम्पूर्ण धन का दान कर चुके हैं। कौत्स का धन याचना के अतिरिक्त कोई अन्य प्रयोजन
भी नहीं है। अत: वह राजा रघु से कह रहा है कि मैं गुरुदक्षिणा के लिए धन प्राप्त करने
हेतु किसी अन्य राजा से निवेदन करूँगा क्योंकि जल रहित बादलों से तो चातक पक्षी भी
याचना नहीं करता।
विशेष: - पहले
वाक्यार्थ की पुष्टि दूसरे वाक्यार्थ से हो रही है। अतः यहाँ 'अर्थान्तरन्यास' अलंकार
है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
अनन्यकार्यः = जिसे निर्दिष्ट
उद्देश्य के अतिरिक्त अन्य कार्य न हो। प्रयोजनान्तर-रहितः। न विद्यते अन्यकार्यं यस्य
सः (बहुव्रीहि समास) अन्यच्च तत् कार्यञ्च अन्यकार्यम् (कर्मधारय समास) आहर्तुम् =
ग्रहण करने के लिए आ + √हि (हरणे) + तुम्। यतिष्ये = प्रयत्न करूँगा। √यती (प्रयत्ने)
+ लृट् उत्तम पुरुष बहुवचन। निर्गलिताम्बुगर्भ = जिसके गर्भ से जल निकल चुका हो। अम्ब्वेव
गर्भः अम्बुगर्भ:। निर्गलितः अम्बुगर्भः यस्मात् सः। शरधनम् = शरत्कालिक मेघ। नार्दति
याचना नहीं करता है। न + अर्दति। √अर्द (गतो याचने च)लट्लकारप्रथम पुरुष एकवचन। चातकः
= पपीहा (पक्षी-विशेष) चातक पक्षी।।
एतावदुक्त्वा
प्रतियातुकामं
शिष्यं महर्षेनूपतिर्निषिध्य।
किं वस्तु विद्वन्
! गुरवे प्रदेयं
त्वया कियद्वेति
तमन्वयुक्तं ॥10॥
अन्वयः - एतावद्
उक्त्वा प्रतियातुकामं महर्षेः शिष्यं नृपतिः (रघुः) निषिध्य-"(हे) विद्वन् !
त्वया गुरवे प्रदेयं वस्तु किम्, कियत् वा" इति तम् अन्वयुक्त।
सरलार्थ: - उपर्युक्त
वचन कहकर जब महर्षि वरन्तु का शिष्य वापस लौटने लगा तब महाराज रघु ने उसे रोक कर इस
प्रकार पूछा- "हे विद्वान् ! अपने गुरु को गुरुदक्षिणा में देने के लिए क्या वस्तु
चाहिए और कितनी चाहिए ?"
भावार्थ: - कौत्स
अपनी धन याचना पूर्ण न होते हए देखकर वापस लौट जाना चाहता है। रघ उसे रोकते हैं क्योंकि
महाराज रघु एक स्वाभिमानी राजा हैं और किसी याचक का खाली हाथ लौट जाना रघु को स्वीकार
नहीं है। इसीलिए वे कौत्स से पूछते हैं कि उसे गुरुदक्षिणा में देने के लिए कितने परिमाण
में किस वस्तु की आवश्यकता है ?
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
प्रतियातुकामम् = लौट जाने
की इच्छा वाले को। प्रतियातुं कामः यस्य सः तम्। प्रति = √या (प्रापणे) + तुम्। 'तुंकाममनसोरपि'
इस नियम से 'तुम्' प्रत्यय के मकार का लोप होता है। निषिध्य = निवारण कर। निवार्य।
नि + √षिध् (गत्याम्) + ल्यप्। प्रदेयम् = देने योग्य। प्र + /दा (दाने) + यत्। कियत्
= कितना ? किं परिमाणम् ? अन्वयुक्त = पूछा। अनु + √युज् + लङ् प्रथम पुरुष एकवचन।
अयुक्त, अयुजाताम्, अयुञ्जत।
ततो यथावद्विहिताध्वराय
तस्मै स्मयावेशविवर्जिताय।
वर्णाश्रमाणां
गुरवे स वर्णी
विचक्षणः प्रस्तुतमाचचक्षे
॥11॥
अन्वयः - ततः
यथावत् विहिताध्वराय स्मयावेशविर्जिताय वर्णाश्रमाणां गुरवे तस्मै स: विचक्षणः वर्णी
प्रस्तुतम् आचचक्षे।
सरलार्थ: - राजा
रघु के पूछने पर विधिपूर्वक यज्ञ अनुष्ठान कर लेने वाले अभिमान से शून्य ब्राह्मण आदि
वर्गों तथा ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के व्यवस्थापक उस राजा रघु को वरतन्तु के शिष्य
कौत्स ने अपना उद्देश्य कहा।
भावार्थ: - राजा रघु धर्मवृत्ति हैं, उनमें नाममात्र को भी
अभिमान नहीं है। वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों; ब्रह्मचर्य,
गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास इन चारों आश्रमों पर नियन्त्रण करने वाले हैं। ऐसे प्रजापालक
राजा के पूछने पर कौत्स ने अपना मनोरथ राजा के सामने प्रकट किया।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
यथावत् = विधिवत् शास्त्रों
के नियमानुरूप। स्मयावेशविवर्जिताय = जो गर्व के आवेश से वर्जित हो, अभिमानशून्य, गर्वाभिनिवेशशून्याय।
स्मयः = गर्वः। वर्णी = ब्रह्मचारी। वर्ण + इन्। (पुंल्लिंग, प्रथमा-एकवचन) आचचक्षे
= कहने लगा था। आ + चिक्षिङ् (व्यक्तायां वाचि) लिट् प्रथमपुरुष एकवचन। गुरवे = नियामक
व्यवस्थापक को। प्रजानां नियामकाय।
समाप्तविद्येन
मया महर्षिर्
विज्ञापितोऽभूद्गुरुदक्षिणायै।
स मे चिरायास्खलितोपचारां
तां भक्तिमेवागणयत्पुरस्तात्
॥12॥
अन्वयः - समाप्तविद्येन
मया महर्षिः गुरुदक्षिणायै विज्ञापितः अभूत्। स चिराय अस्खलितोपचारां तां मे भक्तिम्
एव पुरस्तात् अगणयत्।
सरलार्थः - कौत्स
ने राजा रघु को सारा वृत्तान्त समझाते हुए कहा कि जब मैंने विद्या समाप्त कर ली तो
महर्षि वरतन्तु से मैंने गुरु दक्षिणा स्वीकार कर लेने के लिए प्रार्थना की। उन आदरणीय
गुरु जी ने पहले तो मेरी पूर्ण निष्ठापूर्वक की गई उस भक्ति को ही बहुत दिनों तक गुरुदक्षिणा
रूप में समझा (जो विद्या अध्ययन करते समय मैंने निष्ठापूर्वक गुरु सेवा की थी)।
भावार्थ: - महर्षि
वरतन्तु सच्चे गुरु थे, उन्हें धन की कोई इच्छा नहीं थी। इसीलिए वे कौत्स के सेवाभाव
को ही बहुत दिनों तक गुरु दक्षिणा के रूप में मानते रहे।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
गुरुदक्षिणायै = गुरुदक्षिणा
स्वीकार करने हेतु। चिराय = चिरकाल से (बहुत वर्षों से/बहुत दिनों से)। यह एक अव्यय
है जिसके अन्त में नाना विभक्तियों के रूप दिखाई पड़ते हैं। जैसे चिरम्, चिरात्, चिरस्य।
ये सभी समानार्थक हैं। अगणयत् = गिन लिया। गिण (संख्याने) + णिच् + लङ्। चुरादिगण।
पुरस्तात् = सब से पहले। अव्यय।
निर्बन्धसञ्जातरुषार्थकार्य
मचिन्तयित्वा
गुरुणाहमुक्तः
वित्तस्य विद्यापरिसंख्यया
मे
कोटीश्चतस्रो
दश चाहरेति ॥13॥
अन्वयः - निर्बन्धसञ्जातरुषा
अर्थकार्यम् अचिन्तयित्वा अहं वित्तस्य चतस्रः दश च कोटीः आहर इति विद्यापरिसंख्यया
उक्तः।
सरलार्थः - कौत्स
महाराज रघु से शेष वृत्तान्त निवेदन करते हुए कहता है- "मेरे बार-बार प्रार्थना
(जिद्द) करने से क्रोधित हुए गुरु जी ने मेरी निर्धनता का विचार किए बिना मुझे कहा
कि चौदह विद्याओं की संख्या के अनुसार तुम चौदह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ ले आओ।"
भावार्थ: - गुरुदेव
वरतन्तु को न धन का लोभ था, न विद्या का अभिमान। परन्तु शिष्य कौत्स की बार-बार जिद्द
ने उन्हें क्रोधित कर दिया और उन्होंने कौत्स को पढ़ाई गई चौदह विद्याओं के प्रतिफल
में चौदह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ गुरुदक्षिणा में समर्पित करने का आदेश दे दिया।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
निर्बन्धेन = बार-बार किए जाने
से। प्रार्थनातिशयेन। अर्थकार्यम् = अर्थसंकट, दारिद्रय। अचिन्तयित्वा = बिना सोचे।
नञ् + चिती (संज्ञाने) + णिच् + त्वा। विद्यापरिसङ्ख्यया = विद्या की गणना (संख्या)
के अनुसार। आहर = लाओ। आ + ह + लोट। मध्यम पुरुष एकवचन।
इत्थं द्विजेन
द्विजराजकान्ति
रावेदितो वेदविदां
वरेण।
एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिरेनं
जगाद भूयो जगदेकनाथः
॥14॥
अन्वयः - द्विजराजकान्तिः
एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिः जगदेकनाथः वेदविदां वरेण द्विजेन इत्थम् आवेदितः एनं भूयः
जगाद।
सरलार्थः - वेद
विद्या को जानने वालों में श्रेष्ठ उस ब्राह्मण कौत्स के द्वारा इस प्रकार निवेदन किए
गए, चन्द्रमा के समान कान्ति वाले, जितेन्द्रिय, संसार के पालन करने वाले उस राजा रघु
ने याचक कौत्स को फिर कहा
भावार्थ: - राजा
रघु ने कौत्स द्वारा कहे गए सम्पूर्ण घटनाक्रम को सुनकर अगले पद्य में कहे जाने वाले
वचन कौत्स से कहे।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
द्विजराजकान्तिः = चन्द्रमा
के समान कान्ति वाले। द्विजराजः (चन्द्रमाः) इव कान्ति यस्य सः (बहुव्रीहि समास) वेदविदाम्
वरेण = वेदविद्या को जानने वालों में श्रेष्ठ। वेदं वेत्ति जानाति इति वेदवित् तेषाम्।
एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिः = जितेन्द्रिय। पापों से निवृत्त इन्द्रियवृत्ति वाले। एनः
= पाप, अपराध। जगाद = कहा गिद् (व्यक्तायां वाचि) + लिट्। प्रथमपुरुष एकवचन।
गुर्वर्थमर्थी
श्रुतपारदृश्वा रघोः
सकाशादनवाप्य
कामम्।
गतो वदान्यान्तरमित्ययं
मे
मा भूत्परीवादनवावतारः
॥15॥
अन्वयः - श्रुतपारदृश्वा
गुर्वर्थम् अर्थी रघोः सकाशात् कामम् अनवाप्य वदान्यान्तरं गतः इति अयं परीवादनवावतार:
मे मा भूत्। - सरलार्थ: - राजा रघु ने कौत्स से कहा कि आप शास्त्रों को जानने वाले
हैं तथा गुरुदक्षिणा देने के लिए धन याचना करने वाले है आप रघु के पास से अपना मनोरथ
पूरा किए बिना किसी दूसरे दानी के पास चले गए-इस प्रकार की निन्दा का नया प्रार्दुभाव
न हो जाए।
भावार्थ: - सम्मानित
व्यक्तियों के लिए समाज में फैला हुआ अपयश मृत्यु से भी बढ़कर होता है, इसीलिए राजा
रघु बिल्कुल नहीं चाहते कि समाज में यह निन्दा फैल जाए कि कोई वेद का विद्वान्, शास्त्रों
का ज्ञाता ब्राह्मण अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देना चाहता था और इसी उद्देश्य से धन
याचना करने के लिए वह राजा रघु के पास आया और खाली हाथ लौट गया।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
-
श्रुतपारदृश्वा = शास्त्रज्ञ,
शास्त्रमर्मज्ञ। श्रुतस्य पारं दृष्टवान्। श्रुत + पार + दृश् + क्वनिप्। सकाशात्
= पास से। दान्यान्तरम् = दूसरे दाता। वदान्यः = दाना। अन्यः वदान्यः वदान्यान्तरम्।
माभूत् = न होवे। माङ् + अभूत्। भू + लुङ् प्रथमपुरुष,एकवचन। परीवादः = निन्दा। 'परिवाद'
शब्द भी निन्दार्थक है।
स त्वं प्रशस्ते
महिते मदीये
वसंश्चतुर्थोऽग्निरिवाग्न्यगारे
द्वित्राण्यहान्यहसि
सोढुमर्हन्
यावद्यते साधयितुं
त्वदर्थम् ॥16॥
अन्वयः - स
त्वं मदीये महिते प्रशस्ते अग्न्यगारे चतुर्थः अग्निः इव वसन् द्वित्राणि अहानि सोढुम्
अर्हसि। (हे) अर्हन् ! त्वदर्थं साधयितुं यावत् यते।
सरलार्थ: - रघु
ने कौत्स से निवेदन किया कि आप मेरी विशाल तथा प्रशंसनीय यज्ञशाला में चतुर्थ अग्नि
के समान दो-तीन दिन बिता सकते हैं। हे पजनीय ब्रहमचारी! मैं आपके प्रयोजन को सिद्ध
के लिए यत्न करूँगा।
भावार्थ: - दक्षिणाग्नि,
गार्हपत्याग्नि और आहवनीयाग्नि नाम से यज्ञ की अग्नि तीन प्रकार की होती है अग्नियाँ
याजकों के लिए अति श्रद्धेय होती हैं। रधु कौत्स को चतुर्थ अग्नि की भाँति पूजनीय समझते
हैं और उससे निवेदन करते हैं की आप मेरी ही यज्ञशाला में दो-तीन दिन तक प्रतीक्षा करें,
जिससे 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का प्रबन्ध किया जा सके।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च वसन्
= रहते हुए। वस् (निवासे) + शतृ। प्रथमा विभक्ति, एकवचन। चतुर्थः अग्निः इव = चौथी
अग्नि जैसा। दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि और आहवनीयाग्नि नाम से अग्नि के तीन प्रकार
हैं। अग्न्यगारे = अग्निशाला में। यज्ञशाला में।
अग्नि + अगारे। त्वदर्थं साधयितुं
यावद्यते = तुम्हारा प्रयोजन पूरा करने के लिए यत्न करूँगा। तव + अर्थम्, = त्वदर्थम्
यावत् = यते। 'यतिष्ये' इस अर्थ में 'यते' का प्रयोग। यती (प्रयत्ने) + लट्, आत्मनेपदी।
उत्तमपुरुष एकवचन।
तथेति तस्यावितथं
प्रतीतः
प्रत्यग्रहीत्सङ्गरमग्रजन्मा।
गामात्तसारां
रघुरप्यवेक्ष्य
निष्क्रष्टुमर्थं
चकमे कुबेरात् ॥17॥
अन्वयः - अग्रजन्मा
प्रतीतः तस्य अवितथं सगारं तथा इति प्रत्यग्रहीत्। रघुः अपि गाम् आत्तसाराम् अवेक्ष्य
कुबेरात् अर्थं निष्क्रष्टुं चकमे।
सरलार्थ: - ब्राह्मण
कौत्स ने प्रसन्न होकर उस राजा रघु के सत्यवचन / प्रतिज्ञा को 'ठीक है' यह कहकर . स्वीकार
किया। रघु ने भी पृथिवी को प्राप्तधन वाली देखकर कुबेर से धन छीन लेने की इच्छा की।
भावार्थ: - याचक
कौत्स और दाता रघु दोनों को परस्पर विश्वास है। कौत्स ने रघु के वचनों को सत्य प्रतिज्ञा
के रूप में ग्रहण किया। रघु ने कौत्स की याचना के पूर्ण करने हेतु धन के स्वामी कुबेर
पर आक्रमण कर उसका धन हरण कर लेने की इच्छा की।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
अवितथम् = सत्य। वितथम् = मिथ्या,
न वितथम् = अवितथम्। प्रत्यग्रहीत् = स्वीकार किया। प्रति + /ग्रह + लुङ् प्रथमपुरुष
एकवचन। सगरम् = प्रतिज्ञा को, वचन को। 'सङ्गर' समानार्थक शब्द है। गाम् = भूमि को।
'गाम्' अनेकार्थक शब्द है। निष्क्रष्टुम् = हर लेने के लिए। आहर्तुम्। निर् + √क्रष्
+ तुमुन्। आत्तसाराम् = प्राप्तधन वाली। अवेक्ष्य = देखकर। अ + √ईक्ष् + ल्यप्। चकमे
= इच्छा की। √कम् (कान्तौ), लिट्, आत्मनेपदी, प्रथमपुरुष एकवचन। प्रतीतः = प्रसन्न।
प्रति/इ + क्त = प्रतीतः। प्रीतः।
प्रातः प्रयाणाभिमुखाय
तस्मै
सविस्मया: कोषगृहे
नियुक्ताः।
हिरण्मयी कोषगृहस्य
मध्ये
वृष्टिं शशंसुः
पतितां नभस्तः ॥18॥
अन्वयः - प्रातः प्रयाणाभिमुखाय तस्मै कोषगृहे नियुक्ताः
सविस्मयाः (सन्तः) कोषगृहस्य मध्ये नभस्तः पतितां। हिरण्मयीं वृष्टिं शशंसुः।
सरलार्थः - प्रात:काल
(कुबेर की ओर) प्रस्थान करने के लिए तैयार हुए उस रघु के कोषगृह में नियुक्त अधिकारियों
ने आश्चर्यचकित होते हुए खजाने में आकाश से गिरने वाली सुवर्णमयी वर्षा के बारे में
कहा।
भावार्थ: - राजा
रघु जैसे ही प्रात:काल कुबेर की ओर प्रस्थान करने के लिए तैयार हुआ, तभी रघु के कोशगृह
के अधिकारियों ने देखा कि उस खजाने में सुवर्ण मुद्राओं की वर्षा हो चुकी है। अधिकारियों
को यह सब देखकर आश्चर्य हुआ और उन्होंने राजा रघु को यह समाचार सुनाया।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
प्रयाणाभिमुखाय = प्रस्थान
के लिए तैयार। सविस्मयाः = आश्चर्यचकित। आश्चर्यचकिताः। कोषगृहे = खजाने में। 'कोशगृह'
पद भी प्रचार में है। हिरण्मयीम् = सुवर्ण वाली। सुवर्णमयीम्। सुवर्ण + मयट् + डीप्।
शशंसु = कहा था। कथयामासुः शिंस् + लिट् प्रथम पुरुष बहुवचन। नभस्तः = आकाश की ओर से।
नभस् + तसिल्। अव्यय।
तं भूपतिर्भासुरहेमराशिं
लब्धं कुबेरादभियास्यमानात्।
दिदेश कौत्साय
समस्तमेव
पादं सुमेरोरिव
वज्रभिन्नम् ॥19॥
अन्वयः - भूपतिः अभियास्यमानात् कुबेरात् लब्धं वज्रभिन्नं
सुमेरोः पादम् इव तं भासुरं समस्तम् एव हेमराशिं कौत्साय दिदेश।
सरलार्थ: - राजा
रघु ने आक्रमण किए जाने वाले कुबेर से प्राप्त, वज्र के द्वारा टुकड़े किए गए सुमेरु
पर्वत के चतुर्थ भाग के समान प्रतीत हो रही, उन चमकती हुई समस्त सुवर्ण मुद्राओं को
कौत्स के लिए दे दिया।
भावार्थ: - कुबेर
ने रघु के आक्रमण के भय से उसके खजाने को सुवर्ण मुद्राओं से भर दिया। वे सुवर्ण मुद्राएँ
परिमाण में इतनी अधिक थी कि ऐसा लगता था मानो सुमेरु पर्वत का ही वज्र से काटकर उसका
चौथा हिस्सा खजाने में रख दिया। महाराज रघु ने कुबेर से प्राप्त हुई सभी सुवर्ण मुद्राएँ
याचक कौत्स को प्रदान कर दी अर्थात् चौदह करोड़ ही न देकर पूरा खजाना ही कौत्स को सौंप
दिया।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
भासुरम् = चमकते हुए। चमकीला।
भास्वरम्। अभियास्यमानात् = आक्रमण किए जाने वाले (कुबेर से)। अभि + √या (प्रापणे)
+ लृट् (कर्मणि) यक् + शानच्। अभिगमिष्यमाणात्। दिदेश = दे दिया। √दिश् (अतिसर्जने)
लिट् प्रथम पुरुष एकवचन। सुमेरोः = सुमेरु पर्वत का। पुराणों के अनुसार यह स्वर्णमय
पर्वत है। वज्रभिन्नम् = वज्रायुध से कटा हुआ। 'वज्र' इन्द्र का आयुध है। उसने वज्रायुध
से पर्वतों के पंख काट दिए, ऐसी पौराणिक कथा है। पादम् तलहटी, चतुर्थभाग। गिरिपादः।
प्रत्यन्तपर्वतमिव स्थितम्।
जनस्य साकेतनिवासिनस्तौ
द्वावप्यभूतामभिनन्द्यसत्त्वौ।
गुरुप्रदेयाधिकानिःस्पृहोऽर्थी
नृपोऽर्थिकामादधिकप्रदश्च
॥20॥
अन्वयः - तौ
द्वौ अपि साकेतनिवासिनः जनस्य अभिनन्द्यसत्त्वौ अभूताम्। गुरुप्रदेयाद् अधिकनिःस्पृहः
अर्थी अर्थिकामात् अधिकप्रदः नृपः च (आसीत्)।
सरलार्थः - वे
(महाराजा रघु और कौत्स) दोनों ही अयोध्यावासी लोगों के लिए प्रशंसनीय व्यवहार वाले
हो गए। क्योंकि गुरु को समर्पण करने योग्य धन से अधिक.धन लेने में इच्छा न रखने वाला
याचक कौत्स था और याचक की याचना से अधिक धन देने वाला राजा रघु था।
भावार्थ: - कौत्स
की निर्लोभता की सीमा नहीं थी और महाराज रघु की उदारता की सीमा नहीं थी। कौत्स गुरुदक्षिणा
में देने योग्य चौदह करोड़ मुद्राओं से एक थी अधिक नहीं लेना चाहता और राजा सारा खजाना
ही उसे दे देना चाहते थे - दोनों के इस अद्भुत व्यवहार से अयोध्यावासी धन्य हो गए और
दोनों की ही अत्यधिक प्रशंसा करने लगे।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
अभिनन्धसत्त्वौ = प्रशंसनीय
व्यवहार वाले (दोनों)। अभिनन्द्यं सत्त्वं ययोः तौ। गुरुप्रदेयाधिकानिःस्पृहः = गुरु
को देने से अधिक द्रव्य को लेने में इच्छा न रखने वाला (अर्थी) अधिकप्रदः = अधिक देने
वाला। अधिकं प्रददाति इति। साकेतनिवासिनः = अयोध्या के निवासी लोग। साकेत + निवास
+ इन्। षष्ठी विभक्ति एकवचन।
अभ्यासः
1. संस्कृतभाषया
उत्तरं लिखत
(क) कौत्सः कस्य
शिष्य आसीत्?
उत्तर : कीन्स: वरतन्तोः शिष्य
आसीत् ।
(ख) रघुः कम्
अध्वरम् अनुतिष्ठति स्म ?
उत्तर: रघु: विश्वजित् अध्वरम्
अनुतिष्ठति स्म ।
(ग) कौत्सः किमर्थं
रघुं प्राप ?
उत्तर: कौत्सः गुरुदक्षिणार्थ
धनं याचितुम रचुं प्राप ।
(घ) मन्त्रकृताम्
अग्रणीः कः आसीत्?
उत्तर: मंत्रकृताम् अग्रणी:
वरतन्तुः आसीत् ।
(ङ) तीर्थप्रतिपादितर्द्धिः
नरेन्द्रः कथमिव आभाति स्म ?
उत्तर: तीर्थप्रतिपादितर्दि:
नरेन्द्रः नीवार इव आभाति स्म ।
(च) चातकोऽपि
कं न याचते?
उत्तर: चातकोऽपि निर्गलिताम्बुगर्भ
शरदघनं न याचते ।
(छ) कौत्सस्य
गुरु: गुरुदक्षिणात्वेन कियद्धनं देयमिति आदिदेश?
उत्तर: कौत्सस्य गुरुः गुरुदक्षिणात्वेन
चतुर्दशकोटी: धनं देयमिति आदिदेश ।
(ज) रघुः कस्मात्
परीवादात् भीतः आसीत्?
उत्तर: रघुः नवावतारपरीवादात्
भीतः आसीत् ।
(झ) कस्मात्
अर्थं निष्क्रष्टुं रघुः चकमे ?
उत्तर: कुबेरात् अर्थं निष्क्रष्टु
रघुः चकमे ।
(ञ) हिरण्मयीं
वृष्टि के शशंसुः ?
उत्तर: हिरण्मयीं वृष्टिं कोषगृहे
नियुक्ताः रक्षकाः शशंसुः ।
(ट) कौ अभिनन्द्यसत्त्वौ
अभूताम् ?
उत्तर: रघु: कौत्स: च अभिनन्द्यसत्वौ
अभूताम् ।
2. कोष्ठकात् समुचितं
पदमादाय रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) यशसा ...प्रकाशः........अतिथिं प्रत्युज्जगाम । (प्रकाशः, कृष्णः
आतिथेयः)
(ख) मानधनाग्रयायी ..विशाम्पतिः....... तपोधनम् उवाच। (विशाम्पतिः, अकृताञ्जलिः,
कौत्स :)
(ग) कुशाग्रबुद्धे ! .... ते गुरुः...... कुशली । ( ते शिष्यः, ते गुरुः,
अग्रणी :)
(घ) हे राजन् सर्वत्र ....वार्तम्....... अवेहि । (दु:खम्, वार्तम्, असुखम् )
(ङ) स्तम्बेन अवशिष्टः
.....नीवारः....... इव आभासि। (धान्यम्, नीवारः,
वृक्षः)
(च) हे विद्वन्! ......त्वया........ गुरवे कियत् प्रदेयम्। (त्वया, मया, लोकेन)
(छ) ....अर्थकार्श्यम्............ अचिन्तयित्वा गुरुणा अहमुक्तः
(शरीरक्लेशम्, अर्थकार्श्यम्, रोगक्लेशम् )
3. अधोलिखितानां
सप्रसङ्ग हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या ।
(क) कोटीश्चतस्रो
दश चाहर।
उत्तर: प्रसंग - प्रस्तुत
पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती-द्वितीयो भागः' से 'रघुकौत्ससंवादः' नामक पाठ से
ली गई है। यह पाठ कविकुलशिरोमणि महाकवि कालिदास द्वारा रचित 'रघुवंशमहाकाव्यम्' के
पञ्चम सर्ग में से सम्पादित किया गया है। इसमें महर्षि वरतन्तु के शिष्य कौत्स का गुरुदक्षिणा
के लिए आग्रह, बार-बार के आग्रह से क्रोधित ऋषि द्वारा पढ़ाई गई चौदह विद्याओं की संख्या
के अनुरूप चौदह करोड़ मुद्राएँ देने का आदेश, सर्वस्वदान कर चुके राजा रघु से कौत्स
की धनयाचना 'रघु के द्वार से' याचक खाली हाथ लौट गया-इस अपकीर्ति के भय से रघु का कुबेर
पर आक्रमण का विचार तथा भयभीत कुबेर द्वारा रघु के खजाने में धन वर्षा करने को संवाद
रूप में वर्णित किया गया है।
व्याख्या - महर्षि
वरतन्त मन्त्रद्रष्टा ऋषि थे। न उनमें विद्या का अभिमान था. न गरुदक्षिणा में धन का
लोभ। कौत्स नामक एक शिष्य ने ऋषि से चौदह विद्याएँ अत्यन्त भक्ति भाव से ग्रहण की।
विद्याप्राप्ति के पश्चात् कौत्स ने गुरुदक्षिणा स्वीकार करने का आग्रह किया। ऋषि ने
कौत्स के भक्तिभाव को ही गुरुदक्षिणा मान लिया। परन्तु कौत्स गुरुदक्षिणा देने के लिए
जिद्द करता रहता रहा और इस जिद्द से रुष्ट होकर कवि ने उसे पढ़ाई गई एक विद्या के लिए
एक करोड़ सुवर्णमुद्राओं के हिसाब से चौदह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ भेंट करने का आदेश
दे दिया - 'कोटीश्चतस्रो दश चाहर।
(ख) माभूत्परीवादनवावतारः
।
उत्तर: प्रसंग - प्रस्तुत
पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती-द्वितीयो भागः' से 'रघुकौत्ससंवादः' नामक पाठ से
ली गई है। यह पाठ कविकुलशिरोमणि महाकवि कालिदास द्वारा रचित 'रघुवंशमहाकाव्यम्' के
पञ्चम सर्ग में से सम्पादित किया गया है।
व्याख्या - इन
पंक्ति में राजा रघु सोच रहे हैं यदि कौत्स मुझ से इच्छा पूर्ति नहीं करके अगर किसी
दूसरे राजा या किसी दूसरे दानी के पास चले जाते हैं तो वह निंदा का नया अवतार नया प्रदुर्भाव
न हो जाए।
(ग) द्वित्राण्यहान्यर्हसि
सोढुमर्हन् ।
उत्तर: प्रसंग - प्रस्तुत
पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती-द्वितीयो भागः' से 'रघुकौत्ससंवादः' नामक पाठ से
ली गई है। यह पाठ कविकुलशिरोमणि महाकवि कालिदास द्वारा रचित 'रघुवंशमहाकाव्यम्' के
पञ्चम सर्ग में से सम्पादित किया गया है।
व्याख्या - इन
पंक्ति में राजा रघु कौत्स को कह रहे हैं कि जब तक मैं आपके सिद्धि के लिए प्रयत्न
करता हूं तब तक आप यहां के यज्ञशाला में दो-तीन दिन तक रह सकते हैं। चतुर्थ अग्नि के
समान दो-तीन दिन तक यहां पर आराम कर सकते हैं।
(घ) निष्क्रष्टुमर्थं
चकमे कुबेरात् ।
उत्तर: प्रसंग - प्रस्तुत
पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती-द्वितीयो भागः' से 'रघुकौत्ससंवादः' नामक पाठ से
ली गई है। यह पाठ कविकुलशिरोमणि महाकवि कालिदास द्वारा रचित 'रघुवंशमहाकाव्यम्' के
पञ्चम सर्ग में से सम्पादित किया गया है।
व्याख्या - रघु
भी उसकी याचना पूर्ति के लिए धन के स्वामी कुबेर पर आक्रमण का विचार करते हैं। कुबेर
रघु के पराक्रम से भयभीत होकर रघु के खजाने में सुवर्ण वृष्टि कर देते हैं। उदार रघु
यह सारा धन कौत्स को दे देते हैं, परन्तु निर्लोभी कौत्स उनमें से केवल 14 करोड़ सुवर्ण
मुद्राएँ लेकर लौट जाता है। दाता सम्पूर्ण धनराशि देकर अपनी उदारता प्रकट करते हैं
और याचक आवश्यकता से अधिक एक कौड़ी भी ग्रहण
न करके उत्तम याचक का आदर्श उपस्थित करते हैं। इस प्रकार दोनों ही यशस्वी हो
जाते हैं
(ङ) दिदेश कौत्साय
समस्तमेव ।
उत्तर: प्रसंग - प्रस्तुत
पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती-द्वितीयो भागः' से 'रघुकौत्ससंवादः' नामक पाठ से
ली गई है। यह पाठ कविकुलशिरोमणि महाकवि कालिदास द्वारा रचित 'रघुवंशमहाकाव्यम्' के
पञ्चम सर्ग में से सम्पादित किया गया है।
व्याख्या - राजा
रघु ने संपूर्ण स्वर्ण मुद्राएं जो की सुमेरु पर्वत के चौथे भाग के समान चमक रहे थे।
ऐसी समस्त स्वर्ण मुद्राएं कौत्स को दे दी।
4. अधोलिखितेषु रिक्तस्थानेषु
विशेष्य विशेषणपदानि पाठ्यांशात् चित्वा लिखत
(क) .....विश्वजिति.............. अध्वरे ।
(ख) .....निःशेष-विश्राणित .............. कोषजातम्।
(ग) ......अर्घ्यपात्र ............. अनुमितव्ययस्य ।
(घ) ......आरण्यकोपात्त............ फलप्रसूति:
(ङ) .......स्मयावेश......... विवर्जिताय ।
5. विग्रह पूर्वकं
समासनाम निर्दिशत
(क) उपात्तविद्यः
= उपात्ता प्राप्ता विद्या येन सः। (बहुव्रीहिः समासः)
(ख) तपोधनः
= तपः एव धनं यस्य सः।.. (बहुव्रीहिः समासः)
(ग) वरतन्तुशिष्य
:
= वरतन्तोः शिष्यः (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(घ) महर्षि:
= महान् ऋषिः (कर्मधारयः)
(ङ) विहिताध्वराय
= विहितम् अध्वरं येन सः, तस्मै। (बहुव्रीहिः समासः)
(च) जगदेकनाथः
= जगत: नाथ: । (षष्ठी तत्पुरुष समास)
(छ) नृपति:
= नृणां पति । (षष्ठी तत्पुरुष समास)
(ज) अनवाप्य
= न अवाप्य । (नञ् तत्पुरुष)
6. अधोलिखितानां
पदानां समुचितं योजनं कुरुत
(अ) |
(आ) |
(क) ते |
(1 ) चतुर्दश |
(ख) चतस्रः
दश च |
(2) गुरुदक्षिणार्थी |
(ग) अस्खलितोपचारां |
(3) अहानि |
(घ) चैतन्यम् |
(4) स्वस्ति
अस्तु |
(ङ) कौत्सः |
(5) प्रबोधः
प्रकाशो वा |
(च) द्वित्राणि |
(6) भक्तिम् |
उत्तर:
(क) ते स्वस्ति अस्तु
(ख) चतस्रः दश च चतुर्दश
(ग) अस्खलितोपचारां भक्तिम्
(घ) चैतन्यम् प्रबोधः प्रकाशो
वा
(ङ) कौत्सः गुरुदक्षिणार्थी
(च) द्वित्राणि अहानि
7. प्रकृतिप्रत्ययविभागः
क्रियताम्
(क) अर्थी =
अर्थ + इन्
(ख) मृण्मयम्
=
मृत् + मयट्
(ग) शासितुः
=
शास् + तृच्
(घ) अवशिष्ट
=
अव + शिष्+ क्त
(ङ) उक्त्वा
= ब्रू
( वच्) क्त्वा ।
(च) प्रस्तुतम्
=
प्र + स्तु + क्त
(छ) उक्तः =
वच् + क्त
(ज) अवाप्य =
अव + आप्लृ + ल्यप्
(झ) लब्धम् =
लभ् + क्त
(ञ) अवेक्ष्य
=
अव + ईक्ष् + ल्यप्
8. विभक्ति - लिङ्ग-वचनादिनिर्देशपूर्वकं
पदपरिचयं कुरुत
(क) जनस्य =
जन, षष्ठी, पुल्लिंग, एकवचन।
(ख) द्वौ =
द्वि, प्रथमा, द्वितीय पुल्लिंग, द्विवचन।
(ग) तौ =
तद, प्रथमा, द्वितीय पुल्लिंग, द्विवचन।
(घ) सुमेरो:
=
सुमैरु, षष्ठी, पुल्लिंग, एकवचन।
(ङ) प्रातः =
अव्यय।
(च) सकाशात्
=
अव्यय।
(छ) मे =
अस्मद्, सर्वनाम षष्ठी एकवचन ।
(ज) भूय: =
अव्यय।
(झ) वित्तस्य
=
वित्त, नपुंसक लिंग, षष्ठी एकवचन।
(ञ) गुरुणा =
गुरु, तृतीय एकवचन।
9. अधोलिखितानां
क्रियापदानाम् अन्येषु पुरुषवचनेषु रूपाणि लिखत
(क) अग्रहीत् (ख) दिदेश
(ग) अभूत् (घ) जगाद (ङ) उत्सहते
(च) अर्दति (छ) याचते (ज) अवोचत्
|
उपसर्गः + धातु |
लकार: |
पुरुषः |
वचनम् |
(क) अग्रहीत् |
गृह |
लङ् |
प्रथमः |
एकवचनम् |
(ख) दिदेश |
दिश् |
लिट् |
प्रथमः |
एकवचनम् |
(ग) अभूत् |
भू |
लङ् |
प्रथमः |
एकवचनम् |
(घ) जगाद |
गद् |
लिट् |
प्रथमः |
एकवचनम् |
(ङ) उत्सहते |
उत् + सह |
लट् |
प्रथमः |
एकवचनम् |
(च) अर्दति |
अर्दू |
लट् |
प्रथमः |
एकवचनम् |
(छ) याचते |
याच् (आत्मनेपदम्) |
लट् |
प्रथमः |
एकवचनम् |
(ज) अवोचत् |
वच् |
लङ् |
प्रथमः |
एकवचनम् |
10. अधोलिखितानां
पदानां विलोम पदानि लिखत
(क) निःशेषम्
=
शेषम्
(ख) असकृत् =
सकृत्
(ग) उदाराम्
=
अनुदाराम्
(घ) अशुभम् =
शुभम्
(ङ) समस्तम्
=
असमस्तम्
11. अधोलिखितानां
पदानां वाक्येषु प्रयोगं कुरुत
(क) नृपः =
नृपः रघुः कौत्साय समस्तं धनम् अयच्छत्।
(ख) अर्थी =
कौत्सः गुरुदक्षिणार्थम् अर्थस्य अर्थी आसीत्।
(ग) भासुरम्
=
रघुः भासुरं सुवर्णराशिं कौत्साय अयच्छत्।
(घ) वृष्टिः
=
रघोः कोषगृहे सुवर्णमयी वृष्टिः अभवत्।
(ङ) वित्तम्
=
मुनीनां तपः एव वित्तम् भवति।
(च) वदान्यः
=
रघुः याचकेषु उदारः वदान्यः आसीत्।
(छ) द्विजराजः
=
रात्रौ आकाशे द्विजराजः दीव्यति।
(ज) गर्व: =
गर्वः उचितः न भवति।
(झ) घन: =
वर्षौ घनः गर्जति वर्षति च।
(ञ) वार्तम्=
राजा प्रजायाः वार्तम् इच्छति।
12. अधोलिखितानाम्
अन्वयं कुरुत
(क) स मृण्मये
वीतहिरण्मयत्वात् ........ आतिथेयः ।
उत्तर: अन्वय : सः अनर्घशीलः,
यशसा प्रकाशः, आतिथेयः, वीतहिरण्मयत्वात् मृमण्ये पात्रे अर्घ्यं निधाय श्रुतप्रकाशम् अतिथिं (कौत्सं) प्रति उज्जगाम ।
(ख) समाप्तविद्येन
मया महर्षिः .......... पुरस्तात् ।
उत्तर: अन्वय: समाप्तविद्येन माया महर्षि गुरुदक्षिणायै विज्ञापित:
अभूत्। स चिराय अस्खलितोपचारां तां मे भक्तिम् एव पुरस्तात् अगण्यत्।
(ग) स त्वं प्रशस्ते
महिते मदीये .......... त्वदर्थम्।
उत्तर: अन्वय: स त्वं मदीये
महिते प्रशस्ते अग्न्यगारे चतुर्थ: अग्निः इव वसन् द्वित्राणि अहानि सोढुम् अर्हसि।
(हे) अर्हन्! त्वदर्थं साधयितुं यावत् यते।
13. अधोलिखितेषु
प्रयुक्तानाम् अलङ्कराणां निर्देशं कुरुत
(क) ' यतस्त्वया
ज्ञानमशेषमाप्तं लोकेन .......... चैतन्यमिवोष्णरश्मेः '॥
(ख) शरीरमात्रेण
नरेन्द्र ! तिष्ठन्न भासि .......... इवावशिष्टः ।।
(ग) तं भूपतिर्भासुरहेमराशिं
............... वज्रभिन्नम्।।
उत्तर:
(क) उपमा - अलङ्कारः।
(ख) उपमा - अलङ्कारः।
(ग) अनुप्रासः, उपमा च अलकारौ।
14. अधोलिखितेषु
छन्दः निर्दिश्यताम्
(क) तमध्वरे
विश्वजिति क्षितीशं ........ वरतन्तुशिष्यः ।।
(ख) गुर्वर्थमर्थी
श्रुतपारदृश्वा .......... नवावतारः ।।
(ग) स त्वं प्रशस्ते
महिते .............. त्वदर्थम्।।
उत्तर:
(क) उपजातिः छन्दः
(ख) उपजातिः छन्दः
(ग) उपजातिः छन्दः।
15. 'रघु- कौत्ससंवाद'
सरलसंस्कृतभाषया स्वकीयैः वाक्यैः विशदयत ।
उत्तर: रघुः विश्वजिते यज्ञे
सर्वस्वदानम् अकरोत्। तदा एव वरतन्तुशिष्यः कौत्सः गुरुदक्षिणार्थं धनं याचितुं रघुम्
उपागच्छत्। रघुः मृत्तिकापात्रे अर्घ्यम् आदाय कौत्सं सत्कृतवान्। मृत्तिकापात्रेण
कौत्सः ज्ञातवान् यत् रघुः तस्य धनाशां पूरयितुं समर्थः न अस्ति। अतः कौत्सः राज्ञे
स्वस्ति कथयित्वा प्रतियातुकामः अभवत्। 'रघोः द्वारात् याचकः अपूर्णकामः निवृत्तः'
इति परिवादात् भीत: रघु: कौत्सम् अवरुध्य तस्य मनोरथम् अपृच्छत्। कौत्सः सर्वं वृत्तान्तं
कथयन् अवदत् ।
महर्षि-वरतन्तोः अहं चतुदर्श
विद्याम् अधीतवान्। ततः अहं तस्मै गुरुदक्षिणायै निवेदितवान्। सः मम गुरुभक्तिम् एव
गुरुदक्षिणाम् अमन्यत। मम भूयोभूयः निर्बन्धात् महर्षिः रुष्टः जातः। सः चतुदर्शविद्यापरिसंख्यया
मह्यं चतुर्दशकोटी: सुवर्णमुद्राः उपहर्तुम् आदिदेश। अतः एव अहं धनार्थी सन् भवतः समीपे
आगच्छम्।
रघुः सर्वं वृत्तान्तं श्रुत्वा
कौत्साय द्वित्राणि दिनानि अतिथिरूपेण स्थातुं निवेदितवान्। कौत्सः राज्ञः निवेदनं
स्वीकृतवान्। याचक-मनोरथं पूरयितुं रघुः प्रातः एव कुबेरम् आक्रमितुम् अचिन्तयत्। आक्रमणभीत:
कुबेरः रात्रौ एव रघोः कोषगृहे सुवर्णवृष्टिम् अकरोत्। रघु: उदारभावात् समस्तं सुवर्णराशिं
कौत्साय अयच्छत्। परन्तु कौत्सः केवलं चतुर्दशकोटी: मुद्राः एव गृहीत्वा गतवान्। एवम्
उदारः रघुः निर्लोभः कौत्सः च द्वौ एव जगति धन्यौ अभवताम्।
योग्यताविस्तारः
कालिदासीया काव्यशैली सहृदयानां
मनो नितरां रञ्जयति। प्रतिमहाकाव्यं सुललितैः सुमधुरैः प्रसादगुणभरितैः च शब्दसन्दर्भः
मनोहारिणः संवादान् कविः समायोजयति। तत्र हृदयङ्गमाः परिसरसन्निवेशाः आश्रमोपवनादयः,
लतागुल्मादयः, शुक-पिक-मयूर-मरन्द-हरिणादयः स्वभावरमणीयाः कविना चित्र्यन्ते। तादृशाः
संवादाः कालिदासीयमहाकाव्योः सन्त्यनेको। यथा-रघुवंशे एवं द्वितीयसर्गे सिंह-दिलीपयोः
संवादे -
'अलं महीपाल तव श्रमेण प्रयुक्तमप्यस्त्रमितो
वृथा स्यात्।
न पादपोन्मूलनशक्तिरंह: शिलोच्चये
मूर्च्छति मारुतस्य ॥' रघुवंशम् 2.34
सम्बन्धमाभाषणपूर्वमाहुर्वृत्तः
स नौ सङ्गतयोर्वनान्ते।
तदभूतनाथानुग ! नार्हसि त्वं
सम्बन्धिनो मे प्रणयं विहन्तुम्॥ रघुवंशम् 2.58
कालिदासः उपमालङ्कारप्रियः।
तस्य सर्वेषु काव्येषु उपमायाः हृदयहारीणि उदाहरणानि लभ्यन्ते। यथा -
वन्यवृत्तिरिमां शश्वदात्मानुगमनेन
गाम्।
विद्यामभ्यसनेनेव प्रसादयुितमर्हसि॥
रघुवंशम् 1.88
अर्घ्यम् - अर्घ्यम् इति पदेन
अतिथिसत्कारार्थं सङ्ग्राह्यं द्रव्यम् अभिधीयते। भारतीयायाम् अतिथिसत्कार - परम्परायाम्
एतेषां द्रव्याणां नितरां महत्त्वं वर्तते। तानि द्रव्याणि दूरादागतस्य अतिथिजनस्य
अध्वश्रमम् अपनेतुं समर्थानि; अत एव तानि अर्घ्यद्रव्येषु स्थानं भजन्ते। अर्घस्य,
अय॑स्य वा द्रव्याणि तु - दूर्वा, अक्षतानि, सर्षपाः पुष्पाणि, सुगन्धीनि, चन्दनादिसुगन्धिद्रव्याणि,
स्वादु शीतलं जलञ्च। अर्घ: अर्घ्य वा अतिथीनाम् उपचारार्थम्, आदरार्थं वा विधीयत इति
याज्ञवलक्यः प्राह। तद्यथा 'दूर्वा सर्षपपुष्पाणां दत्त्वार्धं पूर्णमञ्जलिम्' इति।
विद्या - प्राचीनकाले चतुर्दश
विद्याः पाठ्यन्ते स्म। ताः स्मृतिषु उल्लिखिताः सन्ति। तद्यथा
अगानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा-न्यायविस्तरः।
पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या
येताश्चतुर्दश॥
शिक्षा, व्याकरणं, छन्दः, निरुक्तं,
ज्यौतिषं, कल्पः इति षट् वेदाङ्गानि; ऋक्, साम, यजुः, अथर्वण इति चत्वारो वेदाः। वेदार्थविचाराय
प्रवृत्तं मीमांसाशास्त्रम्, न्यायविस्तरशब्देन ज्ञायमाना आन्वीक्षिकी, दण्डनीतिः,
वार्ता च अष्टादश-पुराणानि; धर्मशास्त्रञ्च चतुर्दश-विद्यासु अन्तर्भवन्ति।
मन्त्रः - ति पदं 'मत्रि'
(गप्तभाषणे) धातो: घन प्रत्यये कते निष्पन्नः ऋषिभिः दृष्टानाम आनपर्वाप्रधानाम ऋग्यजुस्सामाथर्वाख्यानां
सामान्येन बोधकम्। प्रत्येकं वेदे अन्तर्गतानां मन्त्राणां बोधकतया भिन्नाः भिन्नाः
शब्दाः प्रयुज्यन्ते। केवलम् ऋड्मन्त्रणां कृते 'ऋच' इति साममन्त्राणां 'सामानि' इति,
यजुर्मन्त्राणां 'यजूंषि' इति अथर्वमन्त्राणां 'आथर्वा' इति च संज्ञा।
ज्ञानाथकात् 'मन्' धातोः अपि
मन्त्रशब्दस्य व्युत्पत्तिं प्रदर्शयन्ति। ध्यानावस्थायां मन्त्रान् ऋषयः अपश्यन् इति
कारणात् ते 'मन्त्रद्रष्टार' इत्युच्यन्ते। सर्वदा मननं कुर्वन्ति, ध्यानमग्ना भवन्ति
इति कारणात् ऋषयः मन्त्रकृत इत्यपि उच्यन्ते।
बहुभाषाज्ञानम्
- अधोलिखितानाम् अन्यभाषाशब्दानां समानार्थकानि पदानि पाठे अन्वेष्टव्यानि मेजबान
(Host) अगवानी (to receive) जिद (insistance)
उत्तर :
मेजबान (Host) = आतिथेयः।
आगवानी (to receive) = प्रति
+ उत् + गम्।
जिद (Insistance) = निर्बन्धः।
विशिष्टवाक्यनिर्माणकौशलम्
'सूर्ये तपति कथं
तमिस्रा'-एतत्सदृशानि वाक्यानि निर्मेयानि -
1. सूर्ये अस्तम्
................... (गम्) चन्द्र उदेति।
2. मयि मार्गे
..................... (स्था) यानम् आगतम्।
3. तस्मिन्
...................... (प्रच्छ्) अहम् उत्तरम् अयच्छम्।
उत्तर:
1. सूर्ये अस्तं गते चन्द्र
उदेति।
2. मयि मार्गे स्थिते यानम्
आगतम्।
3. तस्मिन् पृष्टे अहम् उत्तरम्
अयच्छम्।
अनेकार्थकशब्दः
- पाठ्यांशे दृष्टानाम् अनेकार्थकशब्दानां सङ्ग्रहं कृत्वा नाना अर्थान् उल्लिखत।
काव्यसौन्दर्यबोधः
- कालिदासस्य अन्येषु काव्येषु - ऋतुसंहार-मेघदूतयोः, मालविकाग्निमित्र विक्रमोर्वशीयाभिज्ञानशाकुन्तलेषु
कुमारसम्भवे च भवद्भिः अवलोकिताः अलङ्कारैः सुशोभिताः श्लोकाः सङ्ग्राह्याः, काव्यसौन्दर्यं
चसमुपस्थापनीयम्।
चित्रलेखनम्
- कालिदासकृतं प्रकृतिचित्रणम्, आश्रमचित्रणं, वृक्षादीनां पशुपक्षिणां च चित्रणं श्लोकोल्लेखनपूर्वकं
फलकेषु पत्रेषु वा वर्णैः लेपनीयम्।
हिन्दीभाषया पाठस्य सारः
प्रस्तुत पाठ 'रघुकौत्ससंवादः'
महाकवि कालिदास द्वारा रचित 'रघुवंश-महाकाव्यम्' के पञ्चम सर्ग से सम्पादित है। इसमें
महाराज रघु एवं वरतन्तु ऋषि के शिष्य कौत्स नामक ब्रह्मचारी के मध्य साकेत नगरी में
हुआ संवाद वर्णित है।
कौत्स अपने गुरु ऋषि वरतन्तु
से वेद, पुराण, वेदाङ्ग, दर्शन आदि 14 विद्याओं का अध्ययन समाप्त करके अपने गुरु से
बार-बार गुरुदक्षिणा लेने की प्रार्थना करता है। गुरु द्वारा गुरुभक्ति को ही गुरुदक्षिणा
रूप में मानने पर भी कौत्स गुरुदक्षिणा स्वीकार करने की निरन्तर प्रार्थना करता है।
इससे रुष्ट होकर वरतन्तु उसे गुरुदक्षिणा के रूप में 14 करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देने
की आज्ञा देते हैं।
महाराज रघु विश्वजित् नामक
यज्ञ में सर्वस्व दान कर चुके हैं। कौत्स उनके पास गुरुदक्षिणा के लिए धन माँगने आता
है। कौत्स महाराज रघ की धनहीनता देखकर वापस लौटने लगता है। महाराज रघ उसे रोकते हैं
अपने गुरु को गुरुदक्षिणा में क्या देना चाहता है ? वह बताता है कि गुरुदेव ने चौदह
विद्याओं को पढ़ाने के प्रतिफल में 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ गुरुदक्षिणा के रूप में
देने का आदेश दिया है। ब्रह्मचारी कौत्स की याचना पूर्ण करने के उद्देश्य से महाराज
रघु धनपति कुबेर पर आक्रमण करने की योजना बनाते हैं। भयभीत कुबेर रघु के कोषागार में
सुवर्ण-वृष्टि कर देते हैं। रघु कौत्स को सारा धन प्रदान कर सन्तुष्ट होते हैं परन्तु
कौत्स उनमें से केवल 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ देने के लिए गुरुदक्षिणा प्राप्त कर
सन्तुष्ट भाव से लौट जाते हैं।
प्रस्तुत पाठ से यह सन्देश
मिलता है कि महाराज रघु की भाँति शासक को सर्वसाधारण जन के प्रति उदार एवं कल्याणकारी
होना चाहिए तथा याचक को कौत्स की भाँति अपनी आवश्यकता से अधिक धन प्राप्त करने की इच्छा
नहीं रखनी चाहिए।
रघुकौत्ससंवादः पाठ के स्रोत-ग्रन्थ, कवि एवं उनकी रचना का संक्षिप्त परिचय :
कविकुलशिरोमणि, कविताकामिनी
के विलास, उपमासम्राट् दीपशिखा कालिदास आदि विरुदों से विभूषित महाकवि कालिदास भारतवर्ष
के ही नहीं समस्त विश्व के अनन्य कवि हैं। ये महाराज विक्रमादित्य के नवरत्नों में
से एक थे। अधिकांश विद्वानों का मानना है कि कालिदास का समय ईसापूर्व प्रथम शताब्दी
है। संस्कृतसाहित्य में कालिदास की सात रचनाएँ प्रामाणिक मानी गई हैं। इनमें रघुवंशम्,
कुमारसम्भवम्-दो महाकाव्य, मेघदूतम् तथा ऋतुसंहारम्-दो खण्डकाव्य तथा मालविकाग्निमित्रम्,
विक्रमोर्वशीयम् तथा अभिज्ञानशाकुन्तलम्-तीन नाटक हैं।
काव्यकला एवं नाट्यकला की दृष्टि
से कालिदास का कोई सानी नहीं है। नवरस वर्णन में भी कालिदास सर्वोपरि हैं। 'उपमा अलंकार'
की सटीकता में वर्णन के कारण ही कालिदास के विषय में 'उपमा कालिदासस्य' कहा गया है
तथा 'दीपशिखा' की उपाधि से अलंकृत किया गया है। यही नहीं इनकी रचनाओं में वैदर्भी रीति
की विशिष्टता, गुण का सतत प्रवाह तथा सरसता ही इन्हें आज तक सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप
में प्रतिष्ठित किए हुए हैं। रचनाओं का संक्षिप्त परिचय
1. रघुवंशम् - 19 सर्गीय रघुवंश
कालिदास की अनन्यतम कृति है। इसमें रघुवंशीय दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम और कुश तक के
राजाओं का विस्तृतरूपेण चित्रण तथा अन्य राजाओं का संक्षिप्त विवरण बड़े ही परिपक्व
एवं प्रभावरूपेण किया गया है। जहाँ दिलीप की नन्दिनी सेवा, रघु की दिग्विजय, अज एवं
इन्दुमती का विवाह, इन्दुमति की मृत्यु पर अज विलाप, राम का वनवास, लंका विजय, सीता
का परित्याग, लव-कुश का अश्वमेधिक घोड़े को रोकना तथा अन्तिम सर्ग में राजा अग्निवर्ण
का विलासमय चित्रण उनकी सूक्ष्मपर्यवेक्षण शक्ति का परिचय देता है।
2. कुमारसम्भवम् - 17 सर्गीय
कुमारसम्भव शिव-पार्वती के विवाह, कार्तिकेय के जन्म तथा तारकासुर के वध की कथा को
लेकर लिखित सुप्रसिद्ध महाकाव्य है। कुछ आलोचक केवल आठ सर्गों को ही कालिदास लिखित
मानते हैं लेकिन अन्यों के अनुसार सम्पूर्ण रचना कालिदास विरचित है। इस ग्रन्थ में
हिमालय का चित्रण, पार्वती की तपस्या, शिव के द्वारा पार्वती के प्रेम की परीक्षा,
उमा के सौन्दर्य का वर्णन, रतिविलाप आदि का चित्रण कालिदास की परिपक्व लेखनशैली को
घोषित करता है। अन्त में कार्तिकेय के द्वारा तारकासुर के वध के चित्रण में वीर रस
व द्रष्टव्य है।
3. ऋतुसंहारम् - महाकवि कालिदास
का ऋतुसंहार संस्कृत के गीतिकाव्यों में विशिष्टता लिए हुए हैं। जिसमें ऋतुओं के परिवर्तन
के साथ-साथ मानव जीवन में बदलने वाले स्वभाव, वेशभूषा, एवं प्राकृतिक परिवेश का अवतरण
द्रष्टव्य है। इसमें छः सर्ग तथा 144 पद्य हैं जिनमें ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त,
शिशिर तथा वसन्त के क्रम से छ: ऋतुओं का वर्णन छः सर्गों में किया गया है।
4. मेघदूतम्- मेघदूत न केवल
कालिदास का महान् गीतिकाव्य है, अपितु सम्पूर्ण संस्कृतसाहित्य का एक उज्ज्वल रत्न
है। सम्पूर्ण मेघदूत दो भागों में विभक्त है-पूर्वमेघ तथा उत्तरमेघ जिनमें कुल 121
पद्य हैं। इस गीतिकाव्य में मन्दाक्रान्ता छन्द में एक यक्ष की विरहव्यथा का मार्मिक
चित्रण किया गया है। पूर्वमेघ में कवि ने यक्ष द्वारा मेघ को अलकापुरी तक पहुँचने के
मार्ग का उल्लेख करते हए उस मार्ग में आने वाले प्रमख नगरों, पर्वतों, नदियों तथा वनों
का भी सुन्दर चित्रण किया है। उत्तरमेघ में अलकापुरी का वर्णन, उसमें यक्षिणी के घर
की पहचान तथा घर में विरह-व्यथा से पीड़ित अपनी प्रेयसी की विरह पीड़ा का मार्मिक वर्णन
द्रष्टव्य है।
5. मालविकाग्निमित्रम् - पाँच
अंकों में लिखित महाकवि कालिदास की प्रारम्भिक कृति 'मालविकाग्निमित्र' में विदिशा
के राजा अग्निमित्र तथा मालवा के राजकुमार की बहन मालविका की प्रणयकथा का वर्णन है।
मालविकाग्निमित्र रघुकौत्ससंवादः कवि की आरम्भिक रचना होने पर भी नाटकीय नियमों की
दृष्टि से इसके कथा निर्वाह, घटनाक्रम, पात्रयोजना आदि सभी में नाटककार के असाधारण
कौशल की छाप है।
6. विक्रमोर्वशीयम् - नाटक
रचनाक्रम की दृष्टि से कालिदास की द्वितीय कृति 'विक्रमोर्वशीयम्' एक उपरूपक है। जिसमें
राजा पुरुरवा तथा उर्वशी नामक अप्सरा की प्रणयकथा वर्णित है। इस नाटक में कवि की प्रतिभा
अपेक्षाकृत अधिक जागृत एवं प्रस्फुटित है।
7. अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास
का अन्तिम तथा सर्वोत्कृष्ट नाटक 'अभिज्ञान-शाकुन्तलम्' सात अंकों में विभक्त है; जिसमें
राजा दुष्यन्त तथा शकुन्तला की प्रणय कथा वर्णित है। यह नाटक संस्कृत का सर्वाधिक लोकप्रिय
नाटक है। जिसमें कालिदास की कथानकीय मौलिकता, चरित्रचित्रण की सजीवता, रसों की परिपक्वता,
संवादों की सष्ठ योजना. प्रकतिचित्रण की मर्मज्ञता तथा भाषा-शैली की विशिष्टता आदि
स्वयं में अनुपम हैं। इन्हीं गुणों के कारण कहा गया है -
"काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला"