देवसेना का गीत
प्रश्न 1. "मैंने भ्रमवश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई"-पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: देवसेना निराश और दुखी होकर जीवन के उस समय को याद करती है जब उसने स्कन्दगुप्त
से प्रेम किया था। उन्हीं क्षणों को याद करते हुए वह कहती है कि मैंने स्कन्दगुप्त
से प्रेम किया और उन्हें पाने की चाह मन में पाली, किन्तु यह मेरा भ्रम ही था।
मैंने आज जीवन की आकांक्षारूपी पूँजी को भीख की तरह लुटा दिया है। मैं इच्छा रखते
हुए भी स्कन्दगुप्त का प्रेम नहीं पा सकी। आज मुझे अपनी इस भूल पर पश्चात्ताप होता
है।
प्रश्न 2. कवि ने आशा को बावली क्यों कहा है ?
उत्तर
: आशा व्यक्ति को भ्रमित कर देती है, उसे बावला बना देती है। प्रेम में प्रेमी
(स्त्री और पुरुष) विवेकहीन हो जाते हैं। प्रेम अन्धा होता है। देवसेना भी
स्कन्दगुप्त के प्रेम में बावली हो गई थी। उसने बिना सोचे-समझे स्कन्दगुप्त से
प्रेम किया और यह आशा मन में पाली-कि स्कन्दगुप्त उसे अपना लेगा। उसकी आशा उसके मन
का पागलपन ही था। वह स्कन्दगुप्त का प्रेम नहीं पा सकी।
प्रश्न 3. "मैंने निज दुर्बल ... होड़
लगाई" इन पंक्तियों में 'दुर्बल पद-बल' और 'हारी-होड़' में निहित व्यंजना स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर
:देवसेना जीवनभर संघर्ष करने के कारण दुर्बल हो गई है। 'दुर्बल पद-बल' की व्यंजना
है कि देवसेना निराश हो गई है, उसमें संघर्ष करने की शक्ति नहीं रही है फिर भी वह
विषम परिस्थितियों से संघर्ष कर रही है। 'हारी-होड़' की व्यंजना यह है कि देवसेना
यह जानती है कि स्कन्दगुप्त से प्रेम करने में वह सफलता प्राप्त नहीं कर . सकती,
उसकी प्रेमपात्र नहीं बन सकती, फिर भी वह उससे प्रेम करती है। जीतने की कोशिश करने
पर भी उसे हार मिली, यही वह कहना चाहती है।
प्रश्न 4. काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए -
(क) श्रमित स्वप्न की मधुमाया में,
गहन-विपिन की तरु-छाया में,
पथिक उनींदी श्रुति में किसने -
यह विहाग की तान उठाई।
उत्तर
: भावपक्ष-स्कन्दगुप्त से प्रेम करके देवसेना जीवनभर सुख के सपने देखती
रही, उसके प्रेम को पाने की आकांक्षा को संजोये रही। किन्तु उसे स्कन्दगुप्त का
प्रेस नहीं मिला। जीवन की संध्या बेला में स्कन्दगुप्त का प्रेम-प्रस्ताव उसे ऐसा
लगा मानो किसी ने निद्रावस्था में विहाग राग सुना दिया हो।
कलापक्ष
छायावादी शैली है। तत्सम शब्दावली का प्रयोग है। भाषा लाक्षणिक है, स्वप्न का
मानवीकरण किया गया है और 'श्रमित स्वप्न' में अनुप्रास है। इस प्रकार अलंकार शैली
को अपनाया गया है। विरही हृदय का बिम्ब प्रस्तुत किया गया है। भाषा भावानुकूल है,
उसमें प्रवाह तथा प्रतीकात्मकता है।
(ख) लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती विश्व!
न संभलेगी यह मुझसे
इससे मन की लाज गवाई।
उत्तर
: भावपक्ष - विरहिणी देवसेना की मनोदशा का मार्मिक चित्रण है। वह
स्कन्दगुप्त से प्रेम करती है। अतृप्त प्रेम के कारण वह निराश है। जिस प्रेम को
उसने सँभाल कर रखा था, उसे अब लौटा देना चाहती है, इस कारण वह स्कन्दगुप्त के
प्रणय निवेदन को अस्वीकार कर देती है।
कलापक्ष
- प्रसाद गुण युक्त भाषा का प्रयोग है जिसमें प्रवाह है। भावानुकूल भाषा है। भाषा
में गेयता. का गुण विद्यमान है। अलंकारिक शैली है। 'लौटा लो' में अनुप्रास तथा
'हा-हा' में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। 'करुणा' का मानवीकरण किया गया है। 'थाती'
शब्द का सार्थक प्रयोग हुआ है।
प्रश्न 5. देवसेना की हार या निराशा के क्या कारण हैं ?
अथवा
"देवसेना का गीत' कविता में देवसेना की निराशा के कारणों पर प्रकाश
डालिए।
उत्तर
: देवसेना की निराशा के कई कारण हैं जिनमें दो कारण मुख्य हैं। प्रथम तो हूणों के
आक्रमण के कारण उसके भाई बन्धुवर्मा एवं परिवार के सदस्यों को वीरगति प्राप्त हुई
और जीवनभर अकेली रहकर उसे संघर्ष करना पड़ा।
दूसरा
मुख्य कारण यह था कि वह स्कन्दगुप्त से प्रेम करती थी परन्तु उसे स्कन्दगुप्त का
प्रेम प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि वह विजया से प्रेम करता था। जब स्कन्दगुप्त ने
उसके सामने प्रेम प्रस्ताव रखा तब तक वह आजीवन अविवाहित रहने का व्रत ले चुकी थीं।
स्कन्दगुप्त के व्यवहार के कारण वह निराश हो गई थी।
अकेली
रहने के कारण उसे लोगों की कुदृष्टि का सामना करना पड़ा। स्कन्दगुप्त की उपेक्षा
के कारण उसे भीख माँगने का कार्य भी करना पड़ा। इसी से वह जीवन में हर गई और निराश
हो गई थी।
कार्नेलिया का गीत
प्रश्न 1. 'कार्नेलिया का गीत' कविता में
प्रसाद ने भारत की किन विशेषताओं की ओर संकेत किया है ?
अथवा
'कार्नेलिया का गीत' में व्यक्त प्रकृति चित्रों को अपने शब्दों में
लिखिए।
अथवा
'कार्नेलिया का गीत' में भारत की किन विशेषताओं का उल्लेख किया गया
है? उनका वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर
: प्रस्तुत गीत में प्रसाद जी ने भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य एवं सांस्कृतिक
महत्त्व का वर्णन किया है। प्रातः काल सूर्य की प्रथम किरणें जब भारत की भूमि पर
पड़ती हैं तब प्रकृति की शोभा देखते ही बनती है। उस समय प्रकृति मधुमय दिखाई देती
है। यहाँ दूर देशों से आने वाले व्यक्तियों को आश्रय मिलता है। यह देश सभी की
शरणस्थली है। यहाँ के मनुष्य दयावान और करुणावान हैं तथा सभी के प्रति सहानुभूति
रखते हैं। यहाँ के लोग सभी को सुख पहुँचनि वाले हैं। भारत में विविध
सभ्यता-संस्कृति, रंग-रूप, आचार-विचार एवं धर्म वाले प्राणियों के साथ समानता का
व्यवहार किया जाता है। इस प्रकार कवि ने इस कविता में भारत की अनेक विशेषताओं की
ओर संकेत किया है।
प्रश्न 2. 'उड़ते खग' और 'बरसाती आँखों के
बादल' में क्या विशेष अर्थ व्यंजित होता है ?
उत्तर
: उड़ते खग' एक माध्यम है जिसके द्वारा यह विशेष अर्थ व्यंजित होता है कि भारत शरण
में आये हए सभी लोगों की शरणस्थली है। यहाँ रंग, रूप, आकार, सभ्यता, संस्कृति,
भाषा, वेश-भूषा आदि के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाता। इस देश में आकर
सभी को शान्ति एवं सन्तोष प्राप्त होता है। यहाँ अनजान को भी सहारा प्रदान किया
जाता है।
'बरसाती
आँखों के बादल' से यह विशेष अर्थ व्यंजित होता है कि यहाँ के निवासी अपने दुःख से ही
दुखी नहीं होते अपितु दूसरों के प्रति भी करुणा और सहानुभूति का भाव रखते हैं। वे दूसरों
के दुःख से दुखी हो जाते हैं। करुणा भारतीय लोगों के हृदय का प्रमुख भाव है।
प्रश्न 3. काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए
हेम कुंभ ले उषा सवेरे-भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब-जगकर रजनी भर तारा।
उत्तर
: (क) भावपक्ष
- इन पंक्तियों में उस समय का वर्णन है जब प्रात:काल सूर्य निकलता है। आकाश में लालिमा
व्याप्त हो जाती है और उसकी सुनहरी किरणें चारों ओर बिखर जाती हैं। रातभर चमकने वाले
तारे धीरे-धीरे छिपने लगते हैं और सभी प्राणी जगने लगते हैं। चारों तरफ मधुमय वातावरण
व्याप्त हो जाता है। इस भाव को कवि ने आलंकारिक रूप में इस प्रकार चित्रित किया है
मानो उषा रूपी सुन्दरी सूर्य रूपी घड़े को आकाश रूपी पनघट में डुबोकर सबके जीवन में
सुख बिखेरती आती है और तारे छिपने लगते हैं।
(ख)
कलापक्ष - भाषा प्रसाद गुण युक्त है। उसमें संगीतात्मकता तथा संस्कृतनिष्ठता
है। तत्सम शब्दावली की कोमलता दर्शनीय है। प्रात:कालीन प्रकृति का चित्रोपम वर्णन है।
'हेम
कुंभ रजनी भर तारा' में रूपक अलंकार है। उषा का मानवीकरण किया गया है। शब्द योजना आकर्षक
है।
प्रश्न 4. 'जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को
मिलता एक सहारा'- पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: इस पंक्ति में भारतीय संस्कृति का वर्णन है। भारतवासियों का हृदय बड़ा विशाल है।
इस देश में जो भी आता है उसे शरण दी जाती है। रंग, रूप, वेश-भूषा, भाषा, सभ्यता,
संस्कृति, आकार किसी भी आधार पर भेद नहीं किया जाता। अनजान लोगों को भी आश्रय
प्राप्त होता है। पक्षी भी इसी देश में आकर अपना घोंसला बनाते हैं। यहाँ आकर सभी
शान्ति और सन्तोष प्राप्त करते हैं।
प्रश्न 5. कविता में व्यक्त प्रकृति-चित्रों को अपने शब्दों में
लिखिए।
उत्तर
: छायावादी कवि प्रसाद ने अपने काव्य में प्रकृति का छायावादी शैली में वर्णन किया
है। उन्होंने प्रकृति को नित्य . नये सुन्दर प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत किया
है। 'कार्नेलिया का गीत' में प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य का चित्रांकन हुआ है।
सूर्योदय के समय सरोवर में खिले कमलों पर पेड़ों की शाखाओं से छनकर आती किरणें
सरोवर के जल पर पड़ कर नाचती-सी प्रतीत होती हैं। रंग-बिरंगे पंखों वाले पक्षी
आकाश में उड़ रहे हैं। दूर से आने वाली किरणे किनारों से टकराती हैं। उषा बेला में
बाल सूर्य अपनी आभा बिखेरता है और तारे धीरे-धीरे छिपने लगते हैं।
कविता में आये प्रकृति-चित्रों वाले अंश
(क)
सरस तामरस ........... मंगल कुंकुम सारा! प्रात:कालीन सूर्य की किरणें वृक्षों की शाखाओं
से छनकर तालाब में खिले हुए कमलों पर पड़ रही हैं। इससे अपार शोभा उत्पन्न हो रही है।
(ख)
लघु सुरधनु ........ उड़ते खग। आकाश में इन्द्रधनुष के जैसे अनेक रंगों के पंखों वाले
पक्षी उड़ रहे हैं। शीतल सुगंधित वायु बह रही है।
(ग)
बरसाती आँखों ......... किनारा। आकाश में वर्षा ऋतु में जल से भरे बादल छा जाते हैं।
समुद्र की लहरें एक के बाद एक बार-बार तट से टकराती हैं।
(घ)
हेम कुंभ ......... तारा। सूर्य सोने के पेड़ की तरह लगता है। सवेरे वह जल में डूबकर
अस्त हो जाता है। रात भर चमकते तारे भी अस्त हो जाते हैं।
योग्यता विस्तार
1.
रात्रि व्यतीत हो रही है। पूर्व दिशा सूर्योदय से पूर्व ही अरुणिम आभा से दीप्त हो
रही है। सूर्य उदय हो रहा है और तारे अस्त हो रहे हैं। कमल खिल रहे हैं जिनके ऊपर भौरे
गूंज रहे हैं। शीतल मन्द पवन प्रवाहित हो रही है। पक्षी घोंसलों से निकलकर आकाश में
उड़ रहे हैं।
2.
छात्र स्वयं पढ़ें।
3.
प्रसाद जी की कविता 'हमारा प्यारा भारतवर्ष' तथा दिनकर जी की कविता 'हिमालय के प्रति'
का कक्षा में वाचन छात्र अपने शिक्षक के सहयोग से करें।
उत्तर
:
हमारा
प्यारा भारतवर्ष (जयशंकर प्रसाद)
हिमालय
के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार ।
उषा
ने हँस अभिनंदन किया, और पहनाया हीरक-हार ।।
जगे
हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक ।
व्योम-तुम
पुँज हुआ तब नाश, अखिल संसृति हो उठी अशोक ।।
विमल
वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत ।
सप्तस्वर
सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत ।।
बचाकर
बीच रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत ।
अरुण-केतन
लेकर निज हाथ, वरुण-पथ में हम बढ़े अभीत ।।
सुना
है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता का विकास ।
पुरंदर
ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास ।।
सिंधु-सा
विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह ।
दे
रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह ।।
धर्म
का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद ।
हमीं
ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद ।।
विजय
केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम ।
भिक्षु
होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम ।
यवन
को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।
मिला
था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि ।।
किसी
का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं ।
हमारी
जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं ।।
जातियों
का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर ।
खड़े
देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर ।।
चरित
थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न ।
हृदय
के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न ।।
हमारे
संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव ।
वचन
में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव ।।
वही
है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान ।
वही
है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान ।।
जियें
तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष ।
निछावर
कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।
हिमालय
के प्रति (रामधारी सिंह दिनकर)
मेरे
नगपति! मेरे विशाल!
साकार,
दिव्य, गौरव विराट,
पौरुष
के पुंजीभूत ज्वाल।
मेरी
जननी के हिम-किरीट,
मेरे
भारत के दिव्य भाल।
मेरे
नगपति! मेरे विशाल!
युग-युग
अजेय, निर्बंध, मुक्त
युग-युग
गर्वोन्नत, नित महान्।
निस्सीम
व्योम में तान रहा,
युग
से किस महिमा का वितान।
कैसी
अखंड यह चिर समाधि?
यतिवर!
कैसा यह अमर ध्यान?
तू
महाशून्य में खोज रहा
किस
जटिल समस्या का निदान?
उलझन
का कैसा विषम जाल?
मेरे
नगपति! मेरे विशाल!
ओ,
मौन तपस्या-लीन यती!
पल-भर
को तो कर दृगोन्मेष,
रे
ज्वालाओं से दग्ध विकल
है
तडप रहा पद पर स्वदेश।
सुख
सिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र
गंगा
यमुना की अमिय धार,
जिस
पुण्य भूमि की ओर बही
तेरी
विगलित करुणा उदार।
जिसके
द्वारों पर खडा क्रान्त
सीमापति!
तूने की पुकार
'पद
दलित इसे करना पीछे,
पहले
ले मेरे सिर उतार।
उस
पुण्य भूमि पर आज तपी!
रे
आन पडा संकट कराल,
व्याकुल
तेरे सुत तडप रहे
डस
रहे चतुर्दिक् विविध व्याल।
(इसका
वाचन विद्यार्थी स्वयं करें।)
महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. देवसेना मालव नरेश बन्धुवर्मा की कौन थी?
उत्तर
: देवसेना मालव नरेश बन्धुवर्मा की बहिन
थी।
प्रश्न 2. देवसेना किससे प्रेम करती थी?
उत्तर
: देवसेना स्कन्दगुप्त से प्रेम करती थी।
प्रश्न 3. सिकन्दर के सेनापति सेल्यकस की बेटी कौन थी?
उत्तर
: सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस की बेटी
कार्नेलिया थी।
प्रश्न 4. मालव के नगर सेठ की पुत्री विजया से कौन प्रेम करता था?
उत्तर
: मालव के नगर सेठ की पुत्री विजया से स्कन्दगुप्त प्रेम करता था।
प्रश्न 5. अरुण यह मधुमय देश हमारा' कविता में अनजान अतिथियों को
आश्रय देने वाला देश किसको बताया
उत्तर
: 'अरुण यह मधुमय देश हमारा'
कविता में अनजान अतिथियों को आश्रय देने वाला देश भारत को बताया है।
प्रश्न 6. 'देवसेना का गीत' कहाँ से लिया
गया है?
उत्तर
: देवसेना का गीत 'प्रसाद के स्कंदगुप्त नाटक' से लिया गया है।
प्रश्न 7. देवसेना कौन थी और वह किससे प्रेम करती थी?
उत्तर
: देवसेना मालवा के राजा बन्धुवर्मा की बहन थी। देवसेना स्कंदगुप्त से प्रेम करती
थी।
प्रश्न 8. आर्यावर्त पर किसने आक्रमण किया?
उत्तर
: हूणों ने आर्यावर्त पर आक्रमण किया था।
प्रश्न 9. देवसेना ने अपने जीवन का अंतिम समय कहाँ व्यतीत किया?
उत्तर
: जीवन के अंतिम समय में देवसेना ने वृद्ध पर्णदत्त के साथ आश्रम में गाना गाकर
भीख माँगी और महादेवी की समाधि को परिष्कृत किया।
प्रश्न 10. कार्नेलिया कौन थी?
उत्तर
: कार्नेलिया सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस की बेटी थी। वह चंद्रगुप्त से प्रेम करती
थी।
प्रश्न 11. 'कार्नेलिया का गीत' कहाँ
से लिया गया है?
उत्तर
: 'कार्नेलिया
का गीत' प्रसाद के चन्द्रगुप्त नाटक से लिया गया है।
प्रश्न 12. स्कंदगुप्त किसके स्वप्न देखते थे?
उत्तर
: स्कंदगुप्त मालवा के धनकुबेर की कन्या (विजया) का स्वप्न देखते थे।
प्रश्न 13. स्कंदगुप्त आजीवन कुँवारा रहने की प्रतिज्ञा क्यों लेता
है?
उत्तर
: जीवन के अंतिम समय में स्कंदगुप्त को देवसेना की याद आती है और उसके बहुत मनाने
के बाद भी देवसेना वापस आने के लिए तैयार नहीं होती है तब स्कंदगुप्त आजीवन
कुँवारा रहने का व्रत ले लेता है।
प्रश्न 14. 'जहाँ पहँच अनजान क्षितिज
को मिलता एक सहारा', पंक्ति का भावार्थ लिखिए।
उत्तर
: भारत एक ऐसा देश है जहाँ अजनबियों को भी आश्रय मिलता है। कवि ने भारत की विशालता
का वर्णन किया है। यहाँ पक्षियों को न केवल आश्रय दिया जाता है बल्कि बाहर के
लोगों को भी सम्मानित किया जाता है।
प्रश्न 15. देवसेना के भाई की मृत्यु कैसे हुई?
उत्तर
: जब हूणों ने आर्यावर्त पर आक्रमण किया था तब देवसेना के भाई सहित पूरे परिवार की
मृत्यु हो गयी थी।
प्रश्न 16. देवसेना ने क्या प्रतिज्ञा ली?
उत्तर
: भाई की मृत्यु के पश्चात देवसेना ने भाई के स्वप्न को पूरा करने के लिए
राष्ट्रसेवा की प्रतिज्ञा ली थी।
प्रश्न 17. कविता में आए 'दुर्बल पद बल' और 'हारी होड़ में निहित
आशय व्यक्त करें।
उत्तर
: 'दुर्बल
पद बल' में निहित आशय देवसेना के बल की शक्ति को प्रदर्शित करता है। 'होड़ लगाई' में
निहित आशय देवसेना का प्रेम के प्रति समर्पण को दर्शाता है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. 'चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर प्रलय
चल रहा अपने पथ पर' पंक्तियों में देवसेना ने अपने जीवन को संकटपूर्ण क्यों बताया है
?
अथवा
देवसेना का सारा जीवन दुःख में ही बीता। उसके दुःख के कारणों को
अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
'देवसेना का गीत' कविता के आधार पर देवसेना की वेदना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
: हूणों के आक्रमण के कारण आर्यावर्त पर संकट के बादल छा गये। देवसेना के भाई
बन्धुवर्मा और परिवार के लोगों को वीरगति प्राप्त हई। देवसेना को भाई की मत्य का
दःख सहन करना पड़ा। वह स्कन्दगप्त मन में स्कन्दगुप्त का प्रेम पाने की प्रबल
आकांक्षा थी। किन्तु उसकी आशा पूर्ण न हो सकी। प्रेमी स्कन्दगुप्त की उपेक्षा का
दुःख उसे जीवन भर सहन करना पड़ा। जीवन की संध्या में स्कन्दगुप्त ने देवसेना के
सामने प्रेम का प्रस्ताव रखा किन्तु देवसेना ने उसे अस्वीकार कर दिया। इस त्याग का
दुःख भी उसे सहन करना पड़ा। उसने जीवन भर संघर्ष किया पर पाया कुछ नहीं। इसलिए कह
सकते हैं कि देवसेना का सारा जीवन दुःख में ही बीता।
प्रश्न 2. देवसेना की क्या आकांक्षा थी और वह अपूर्ण क्यों रही ?
उत्तर
: देवसेना ने स्कन्दगुप्त से प्रेम किया था। उसकी आकांक्षा उससे विवाह करके उसे
पति रूप में पाने की थी। पर उसकी आकांक्षा पूर्ण नहीं हुई। स्कन्दगुप्त मालव के
नगरसेठ की कन्या विजया से प्रेम करता था। इस कारण वह उसे न ... पा सकी। वह अपने
यौवन के कार्यकलापों पर पश्चात्ताप करती है और उन क्रियाकलापों को भ्रमवश किए
कर्मों की श्रेणी में रखती है। प्रेमी का प्रेम न पाने के कारण ही उसकी आकांक्षा
पूर्ण नहीं हो सकी।
प्रश्न 3. देवसेना किस थाती को लौटाना चाहती थी? लौटाने का कारण
क्या था ?
उत्तर
: देवसेना स्कन्दगप्त से प्रेम करती थी किन्त स्कन्दगप्त विजया को चाहता था। थाती
धरोहर को कहते हैं। देवसेना का प्रेम उसके पास स्कन्दगुप्त की धरोहर के समान था।
धरोहर की रक्षा आसान काम नहीं होता। देवसेना को उसका असफल प्रेम दुःख ही देता था।
उसको बनाये रखना कठिन था। अत: वह उस प्रेमरूपी थाती को लौटाना चाहती थी।
प्रश्न 4. 'देवसेना का गीत' का मूल कथ्य
क्या है ? अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर
: देवसेना प्रेम के क्षेत्र में हारी हुई एक प्रेमिका है। वह स्कन्दगुप्त से प्रेम
करती है, किन्तु वह धनकुबेर की कन्या. विजया से प्रेम करता है। यह जानकर देवसेना
निराश हो जाती है। उसने भ्रमवश नादानी में जो क्रियाकलाप किए थे, जिन आकांक्षाओं
को सहेज कर रखा है, उन पर पश्चात्ताप करती है। लोगों की वासना भरी प्यासी निगाहों
से वह परेशान है और उनसे बचना चाहती है, किन्तु वह प्रयत्न करने पर भी अपनी जीवनभर
की कमाई बचा नहीं पाती। जीवनभर जिसे पाने की कल्पना करती रही, उसे वह प्राप्त ही
नहीं कर सकी। जीवन की संध्या में स्कन्दगुप्त उसके सम्मुख प्रेम-प्रस्ताव रखता है
जिसे वह साहस के साथ ठुकरा देती है और भीख माँगकर जीवन-यापन करना स्वीकारती है।
प्रश्न 5. 'मेरी आशा आह! बावली, तूने खो
दी सकल कमाई।' पंक्ति के आधार पर देवसेना की मनोव्यथा का चित्रण कीजिए।
अथवा
'देवसेना का गीत' के आधार पर देवसेना की मन:स्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर
: देवसेना सच्ची प्रेमिका थी, किन्तु उसे जीवनभर विरह की आग में जलना पड़ा। इस
कारण वह निराश हो गई। थी। स्कन्दगुप्त को अपने जीवन में पाने की उसने आकांक्षा की
किन्तु विजया के प्रति स्कन्दगुप्त के प्रेम को देखकर उसने ... अविवाहित रहने का
व्रत ले लिया। स्कन्दगुप्त ने जब उसके सम्मुख प्रेम का प्रस्ताव रखा तो उसने
दृढ़ता के साथ अस्वीकार कर दिया। उसने सुख की अभिलाषा छोड़ दी। स्कन्दगुप्त के
प्रति उसका प्रेम भ्रम था। उसे पाने की आशा उसका पागलपन था। उसको अपने अधूरे प्रेम
का दुःख तथा पछतावा था। अपनी व्यथा को उसने इन शब्दों में व्यक्त किया है -
मेरी
आशा आह ! बावली,
तूने
खो दी सकल कमाई।
प्रश्न 6. 'देवसेना एक साहसी प्रेमिका थी'
देवसेना का गीत के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: एक प्रेमिका जब प्रेम में ठोकर खाती है, प्रेमी से उपेक्षा पाती है तो वह
ईर्ष्यालु हो जाती है। उसमें बदले की भावना प्रबल हो जाती है। किन्तु देवसेना के
चरित्र से ऐसा प्रतीत नहीं होता। जब उसे स्कन्दगुप्त का प्रेम नहीं मिला तो वह
निराश अवश्य हो गई पर साहस नहीं खोया। अकेले रहकर और भीख माँगकर आजीवन अविवाहित
रहने का निश्चय कर लिया। लोगों की प्यासी दृष्टि से स्वयं को बचाती रही और संघर्ष
करती रही। उसने जीवनभर की सारी पूँजी को लुटते हुए देखा और कष्ट को सहन किया।
प्रश्न 7. "कार्नेलिया का गीत में प्रसाद
जी ने प्राकृतिक सौन्दर्य को भारतवर्ष की विशिष्टता और पहचान के रूप में प्रकट किया
है।" इस कथन को ध्यान में रखकर प्रकृति की विशिष्टता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: कार्नेलिया भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर मुग्ध हो जाती है। वह कहती है
कि भारत में सूर्योदय का दृश्य सबके मन को मोह लेता है। उषा बेला में आकाश
स्वर्णाभ हो जाता है। तारे धीरे-धीरे छिपने लगते हैं। सूर्य के उदित होने पर
मधुरिमा व्याप्त हो जाती है। पेड़ों की फुनगियों और कमलों पर जब प्रात:कालीन सूर्य
की किरणें पड़ती हैं, उस समय का दृश्य बड़ा आकर्षक लगता है। इन्द्रधनुषी पंख वाले
पक्षी इस देश की ओर उड़कर आते हैं और लहरें किनारों से टकराती हैं। भारतवर्ष की
प्रकृति का सौन्दर्य अनुपम है। इससे उसकी संस्कृति की शरणागत वत्सलता, उदारता तथा
समस्त प्राणियों के प्रति प्रेम का भाव व्यक्त होता है।
प्रश्न 8. "बरसाती आँखों के बादल-बनते
जहाँ भरे करुणा जल" पंक्ति में कार्नेलिया ने भारतीयों की किस विशेषता को प्रकट
किया है ?
उत्तर
: कार्नेलिया भारत की संस्कृति से प्रभावित है किन्तु उससे भी अधिक भारतीयों के
व्यवहार से प्रभावित है। भारतीय अपने दुःख से ही दुखी नहीं होते, बल्कि उनके हृदय
में दूसरों के प्रति भी करुणा का भाव है। दूसरों के कष्ट को देखकर उनकी आँखें
करुणा के आँसुओं से भीग जाती हैं। भारतीयों के हृदय में सहानुभूति है। वे किसी को
दुखी नहीं देख सकते।
प्रश्न 9. 'कार्नेलिया का गीत' में प्रातःकालीन
प्राकृतिक सुषमा का वर्णन हुआ है कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन इस गीत में है। उषाकाल में सूर्य की
ताम्रवर्णी किरणें बिखर कर भारतवर्ष की सारी प्रकृति को मधुमय बना देती हैं।
वृक्षों की हरियाली, कमलों और सरोवर पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं तो ऐसा प्रतीत
होता है मानो सर्वत्र मंगलमय कुंकुम बिखर गया हो। सारी प्रकृति मानो चेतन हो गई
हो। प्राची में सूर्य उदय होकर सबके जीवन में सुख घोल देता है और तारे धीरे-धीरे
छिपने लगते हैं।
प्रश्न 10. 'कार्नेलिया का गीत' भारत
की सांस्कृतिक गौरवगाथा का गीत है। पठित गीत के आधार पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर
: कार्नेलिया ने 'मधुमय देश हमारा' कहकर भारत के प्रति अपनत्व और आत्मीयता का भाव
व्यक्त किया है। वह यहाँ की संस्कृति से बहुत अधिक प्रभावित है। उसका कथन है -
भारतवर्ष वह देश है. जहाँ अतिथियों का देवता की तरह ग तरह सम्मान किया जाता है।
यहाँ दूर-दूर के देशों के लोग आते हैं और सत्कार पाते हैं। यहाँ सबके साथ समान
व्यवहार किया जाता है। सभ्यता, संस्कृति, वेश-भूषा, आकार, रंग-रूप, आचार-विचार और
धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाता। यहाँ के लोग करुणावान हैं।
दूसरों के दुःख को देखकर इनकी आँखों में करुणा के आँसू आ जाते हैं। यहाँ के निवासी
भावुक और मानवीय गुणों से युक्त हैं।
प्रश्न 11. "मैंने भ्रमवश जीवन
संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई" देवसेना के जीवन पर 'आशा' शब्द का क्या प्रभाव
पड़ता है?
उत्तर
: हर एक मनुष्य के जीवन में 'आशा' का अपना एक अलग महत्व होता है। आशा से मनुष्य को
शक्ति मिलती है। अगर किसी व्यक्ति को किसी से बहुत उम्मीद हो जाती है तब उम्मीद
पूरा न होने पर वह विद्रोह कर देता है। ठीक ऐसे ही देवसेना ने प्यार की उम्मीद में
स्कंदगुप्त के साथ अपने जीवन के सुनहरे स्वप्न देखे थे। अत: वह सब कुछ त्याग कर
वृद्ध पर्णदत्त के साथ आश्रम में गाना गाकर भीख माँगती है।
प्रश्न 12.
लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इससे मन की लाज गँवाई।
इन पंक्तियों का भावार्थ लिखो।
उत्तर
: प्रस्तुत पंक्तियों में देवसेना संसार को संबोधित हुए कहती है कि हे संसार! अपना
प्रेम वापस ले लो, मैं करुणा से भर गयी हूँ। इस काव्यांश में देवसेना की
हतोत्साहित मानसिक स्थिति का पता चलता है जो निराशा से भरी हुई है। स्कंदगुप्त के
लिए उसके हृदय में जो प्रेम है वह उसे प्रताड़ित कर रहा है
प्रश्न 13.
श्रमित स्वप्न की मधुमाया में,
गहन-विपिन की तरु-छाया में,
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई।
उक्त पंक्तियों का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: कविता के इस अंश की विशेषता यह है कि इसमें बिम्ब बिखरा पड़ा है। देवसेना स्मृति
में खोयी हुई है। उसे अपने प्रेम के लिए किये गए असफल प्रयास स्मरित हो रहे हैं।
वह चौंक जाती है क्योंकि अचानक से उसे अपने प्रेम के स्वर सुनाई देने लगे हैं।
इसमें विहाग राग का उल्लेख है। इसे मध्य-रात्रि में गाया जाता है। कवि ने स्वप्न
को कहकर गहरी व्यंजना व्यक्त की है। स्वप्न को मानवी रूप में दर्शाया गया है। इन
पंक्तियों में देवसेना की पीड़ा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
प्रश्न 14. 'कार्नेलिया का गीत' कविता
में कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा प्रस्तुत भारत की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर
: इस कविता में जयशंकर प्रसाद द्वारा भारत की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख है-
(क)
भारत का प्राकृतिक सौंदर्य अदभुत है।
(ख)
भारत की संस्कृति महान है।
(ग)
यहाँ के लोग दया, करुणा और सहानुभूति से भरे हैं।
(घ)
यहाँ एक अपरिचित व्यक्ति को भी प्यार से रखा जाता है।
प्रश्न 15. 'उड़ते खग' और 'बरसाती आँखों
के बादल' से कवि का क्या अभिप्राय है?
उत्तर
: 'उड़ते
खग' से कवि व्यक्त करते हैं कि भारत देश में पक्षी के अलावा बाहर से आरं. लोगों का
भी सम्मान होता है। 'बरसाती आँखों के बादल' से कवि का अभिप्राय है कि भारतवासी अनजान
लोगों के दुःख में दुखी और खुशी में अपनी खुशी खोज लेते हैं।
प्रश्न 16. काव्य सौन्दर्य के कलापक्ष को स्पष्ट कीजिए -
मेरी आशा आह! बावली, तूने खो दी सकल कमाई।
उत्तर
: देवसेना स्कन्दगुप्त के प्रति अपने असफल प्रेम पर निराश है। इस पंक्ति में प्रेम
पाने की आशा को उसने अपना भ्रम बताया है। 'आशा', 'आह' में अनुप्रास अलंकार है।
'तूने खो दी ......... कमाई' में मानवीकरण का प्रयोग है। 'आशा आह! बावली' में
विशेषण विपर्यय अलंकार है। भाषा संस्कृतनिष्ठ तत्सम, कोमल शब्दावली युक्त है तथा
प्रवाहपूर्ण है। गीत में संगीतात्मकता है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1. 'देवसेना का गीत' कविता का सारांश
लिखिए।
उत्तर
: देवसेना का गीत - प्रस्तुत गीत जयशंकर प्रसाद के प्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक
'स्कन्दगुप्त' से उद्धृत है। देवसेना वीरगति प्राप्त मालव नरेश बन्धुवर्मा की बहिन
थी। वह स्कन्दगुप्त से प्रेम करती थी। किन्तु स्कन्दगुप्त मालव के नगरसेठ की कन्या
विजया को चाहता था। बाद में स्कन्दगुप्त देवसेना से प्रेम प्रस्ताव करता है किन्तु
देवसेना उसे अस्वीकार कर देती है।
इस
गीत में देवसेना अपने जीवन के मोड़ पर यौवन के क्रियाकलापों को याद करती है और उन्हें
भ्रमवश किये गये कर्म मानती है। वह पश्चात्ताप के आँसू बहाती है और अपने जीवन के
वेदनामय क्षणों का स्मरण करती है। वेदना ही उसके जीवन की संचित पूँजी है जिसे वह
बचा नहीं सकी।
प्रश्न 2. 'कार्नेलिया का गीत' कविता का
सारांश लिखिए। .
उत्तर
: कार्नेलिया का गीत. यह गीत प्रसाद जी के बहुचर्चित ऐतिहासिक नाटक 'चन्द्रगुप्त'
से लिया गया है। कार्नेलिया सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस की बेटी है। सिन्धु नदी
के किनारे ग्रीक-शिविर के पास वृक्ष के नीचे बैठी. कार्नेलिया यह गीत गाती है।
'अरुण यह मधुमय देश हमारा' राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत गीत है। यह कार्नेलिया के
प्रकृति-प्रेम और भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति उसके आकर्षण को प्रकट करता
है। इस गीत में भारत के सांस्कृतिक गौरव एवं प्राकृतिक सुषमा का गुणगान किया गया
है। यह अनजान अतिथियों को आश्रय देने वाला देश है जहाँ पक्षी अपने प्यारे घोंसले
की कल्पना करके सन्ध्या को लौट कर आ जाते हैं। यहाँ लहरों को भी किनारा प्राप्त
होता है।
प्रश्न 3. 'कार्नेलिया का गीत' का मूल कथ्य
अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
"कार्नेलिया का गीत' कविता के आधार पर भारत की प्रमुख प्राकृतिक
और सांस्कृतिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
: प्रस्तुत गीत जयशंकर प्रसाद के प्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक 'चन्द्रगुप्त' का गीत है
जिसे सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया गाती है। वह सिंधु नदी के
किनारे ग्रीक शिविर के पास वृक्ष के नीचे बैठी हुई प्रकृति के सौन्दर्य को देख रही
है। भारतवर्ष का प्राकृतिक सौन्दर्य अपनी विशिष्टता रखता है। पूर्व दिशा में उदय
होने वाले सूर्य की अरुण आभा सारे वातावरण को मधुमय बना देती है। वृक्षों की चोटी
की हरियाली पर बिखरी हुई लाल किरणें जब शाखाओं से छनकर सरोवर में खिले कमलों पर
पड़ती हैं तो जान पड़ता है, मानो वें (किरणे) नाच रही हों।
मन्द
समीर के सहारे इन्द्रधनुषी पंख वाले वे पक्षी इस देश की ओर उड़कर आते हैं और
घोंसला बनाते हैं। उषा वेला का सूर्य सभी के जीवन में सुख बिखेरता आता है और रातभर
चमकने वाले तारे धीरे-धीरे छिपने लगते हैं। इस गीत का सन्देश है कि भारत की संस्कृति
महान है। यहाँ किसी के साथ रंग, रूप, आकार, भाषा, सभ्यता, संस्कृति आदि के आधार पर
कोई भेदभाव नहीं किया जाता। यहाँ सभी को समान समझा जाता है। विदेशी भी यहाँ शरण
पाते हैं। यहाँ के निवासी करुणावान हैं और सबके प्रति सहानुभूति रखते हैं।
काव्य
- सौन्दर्य के दो पक्ष हैं एक भाव-सौन्दर्य या भावपक्ष तथा दूसरा शिल्प-सौन्दर्य
या कलापक्ष। काव्य-सौन्दर्य पर। पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देते समय दोनों पर
विचार करना चाहिए।
प्रश्न 4. निम्न पंक्तियों का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए -
छलछल थे संध्या के श्रमकण,
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण।
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अंगड़ाई।
उत्तर
:
(क)
भावपक्ष देवसेना स्कन्दगुप्त के व्यवहार से दुखी और निराश है। जीवन
के पड़ाव पर भी उसे सुख नहीं मिला, इस कारण उसकी आँखों से आँसू निकलते हैं। उसकी जीवन-यात्रा
पर खामोशी अंगड़ाई लेती है। भाव यह है कि देवसेना को जीवनभर दुःख ही मिला। उसने जीवनभर
संघर्ष किया पर स्कन्दगुप्त का प्रेम नहीं पा सकी। इसलिए उसके जीवन में निराशा व्याप्त
हो गई।
(ख)
कलापक्ष - यह छायावादी शैली का गीत है। प्रसाद जी कवि थे अतः गीत
में काव्यात्मकता और संगीतात्मकता है। तत्सम शब्दावली है और भाषा में प्रसाद गुण है।
'छलछल' में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। नीरवता का मानवीकरण किया गया है। शब्दों के
द्वारा विरहिणी के हृदय का भाव प्रकट कर दिया है।
प्रश्न
5. काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए -
चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर,
प्रलय चल रहा अपने पथ पर।
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर,
उससे हारी-होड़ लगाई।
उत्तर
:
(क)
भावपक्ष - उपर्युक्त पंक्तियों का भाव यह है कि देवसेना का सारा
जीवन संघर्ष में ही बीता है जिससे वह निराश हो गई है। जीवन में प्रलय ही शेष रह गई
है, अर्थात् उसे स्कन्दगुप्त के टूटे हुए प्रेम के दुःख को ही सहन करना है। जीवन के
अन्तिम समय तक हारे हुए सिपाही की तरह दुःख ही सहन करना है। अब वह इस वेदना को सँभालने
में असमर्थ है। इन पंक्तियों में देवसेना की प्रेम-पीड़ा, निराशा तथा वेदना का चित्रण
हुआ है।
(ख)
कलापक्ष-मानव मन के पारखी प्रसाद जी ने देवसेना की मन:स्थिति का
चित्रण किया है। भाषा में गम्भीरता है, व्यंजनाशक्ति है और प्रसाद गुण है। गीत होने
के कारण गेयता है। 'जीवन-रथ' में रूपक अलंकार है। 'प्रलय' का मानवीकरण किया गया है।
'पथ पर' और 'हारी-होड़' में अनुप्रास अलंकार है।
प्रश्न 6. निम्न पंक्तियों का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए -
सरस तामरस गर्भ विभा पर - नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर - मंगल कुंकुम सारा।
उत्तर
:
(क)
भावपक्ष - भारत की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन है। जब भारत में प्रभात
का सूर्य निकलता है तो वृक्षों की फुनगियों की हरियाली पर उसकी लालिमा बिखर जाती है।
शाखाओं से छनकर आती हुई किरणें कमलों पर पड़ती हैं तो नृत्य करती सी प्रतीत होती हैं।
प्रकृति की वह शोभा सभी को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। ऐसा प्रतीत होता है मानो स्वर्णिम
किरणों ने हरियाली पर मंगलमय जीवन बिखेर दिया हो।
(ख)
कलापक्ष - भारतीय प्रकृति का मनोहारी चित्रण है। कोमलकान्त पदावली
का प्रयोग है। भाषा में प्रसाद गुण और प्रवाह है । कई दृश्य प्रस्तुत किये गये हैं।
हेम कुंभ और मदिर-तारा में रूपक अलंकार है। सार्थक शब्दों का प्रयोग हुआ है। मांगलिक
कार्यों में कुंकुम का प्रयोग होता है। सुबह उषा उसी मंगल कुंकुम को छिटका देती है।
'तरुशिखा का नाचना' में मानवीकरण अलंकार है। पंख पसारे, नीड़ निज में अनुप्रास अलंकार
है।
प्रश्न 7.
लघु सुरधनु से पंख पसारे शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए-समझ नीड़ निज प्यारा।
उपर्युक्त पंक्तियों के काव्य (शिल्प) तथा भाव सौन्दर्य पर टिप्पणी
लिखिए।
उत्तर
:
(क)
शिल्प सौन्दर्य' लघु सुरधनु से' में उपमा अलंकार है। 'समीर सहारे', 'पंख पसारे' तथा
'नीड़ निज' में अनुप्रास अलंकार है। भाषा परिष्कृत, संस्कृतनिष्ठ तत्सम तथा कोमलकान्त
शब्दावली से युक्त है। चित्रात्मकता तथा सजीवता है। गेयता तथा माधुर्य है।. 'समझ नीड़
......... प्यारा' में भारत.की शरणागत वत्सलता की ओर संकेत है।
(ख)
भावपक्षीय सौन्दर्य प्रस्तुत पंक्तियों में भारत के प्रभातकालीन प्राकृतिक सौन्दर्य
का सजीव चित्रण है। सूर्य किरणों के स्पर्श से विविध रंगों की उपस्थिति को रंग-बिरंगे
पंखों वाले पक्षियों के आकाश में उड़ने से व्यक्त किया गया है। शीतल सुगंधित वायु की
उपस्थिति तथा उड़ते हुए पक्षी प्रात:कालीन सौन्दर्य को सजीव बना रहे हैं। भारत को अपना
घोंसला समझने में भारतीयों की अतिथि सत्कार तथा शरणागत वत्सलता की संस्कृति को व्यक्त
किया गया है।
प्रश्न 8.
बरसाती आँखों के बादल-बनते जहाँ भरे करुणा जल,
लहरें टकराती अनंत की-पाकर जहाँ किनारा।
उपर्युक्त पंक्तियों के काव्य-सौन्दर्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
:
(क)
भावपक्षीय सौन्दर्य कवि ने इन पंक्तियों में भारत के लोगों की करुणा भावना का चित्रण
किया है। जैसे बादल बरसात में पानी बरसा कर लोगों को नवजीवन देते हैं वैसे ही भारतीयों
की आँखों से दूसरों के कष्टों को देखकर आँसू बहने लगते हैं। 'लहरें.........किनारा'
में यह भाव व्यक्त किया गया है कि भारत में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यहाँ आश्रय
प्राप्त होता है। इससे भारतीय संस्कृति के प्रेम, अतिथि सत्कार आदि का पता चलता है।
(ख)
कलापक्षीय सौन्दर्य 'बरसाती आँखों के बादल' तथा 'करुणा जल' में रूपक अलंकार है। 'बादल',
'बनते' में अनुप्रास अलंकार है। कोमलकान्त, संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली युक्त प्रवाहपूर्ण
भाषा है। चित्रात्मकता तथा गेयता है।
साहित्यिक परिचय का प्रश्न
प्रश्न : जयशंकर 'प्रसाद' का साहित्यिक परिचय लिखिए।
उत्तर
: साहित्यिक परिचय-भाव पक्ष प्रसाद जी आधुनिक कविता की छायावादी प्रवृत्ति
से सम्बन्धित थे। आपकी रचनाओं में राष्ट्रवाद का स्वर प्रमुख है। आप करुणा,
सौन्दर्य और प्रेम के चित्रकार थे। प्रकृति का मनोरम सजीव चित्रण भी आपकी विशेषता
है। आपकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति की मनोरम तथा गरिमामयी प्रतिष्ठा हुई है।
कला
पक्ष - प्रसाद जी की भाषा परिष्कृत साहित्यिक
हिन्दी है। वह प्रभावपूर्ण तथा संस्कृतनिष्ठ है। कहीं-कहीं वह क्लिष्ट भी हो गई
है। वह ध्वन्यात्मक तथा लाक्षणिक है। उनकी शैली में प्रतीकात्मकता, ध्वन्यात्मकता
और चित्रात्मकता है। आपने मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय आदि नवीन अलंकारों का भी
प्रयोग किया है।
कृतियाँ
- प्रसाद कवि, नाटककार, उपन्यासकार,
कहानीकार तथा निबन्धकार हैं। आपकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं -
काव्य-कृतियाँ
- आँसू, झरना, लहर तथा कामायनी (महाकाव्य)।
नाट्य-कृतियाँ
- अजातशत्रु, चन्द्रमुप्त, स्कंदगुप्त।
उपन्यास
- कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण)।
कहानी-संग्रह
- आँधी, इंद्रजाल, छाया, प्रतिध्वनि।
निबन्ध-संग्रह
- काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध।
(क) देवसेना का गीत (ख) कार्नेलिया का गीत (सारांश)
कवि
परिचय : जन्म सन् 1889 ई.। स्थान-काशी। सुँघनी
साहू नाम से प्रसिद्ध परिवार में जन्म। 12 वर्ष की अवस्था में माता तथा 15 वर्ष के
होने पर पिता का देहावसान। परिवार का दायित्व उठाया, साहित्य सेवा की, क्षय रोग से
ग्रस्त होकर सन् 1934 ई. में देहावसान हुआ।
साहित्यिक
परिचय - भाव पक्ष-प्रसाद जी जन्मजात प्रतिभाशाली
साहित्यकार थे। आप मूलतः कवि थे। आप आधुनिक कविता की छायावादी प्रवृत्ति से
सम्बन्धित थे। आपकी रचनाओं में राष्ट्रवाद का स्वर प्रमुख है। आप करुणा, सौन्दर्य
और प्रेम के चित्रकार थे। प्रकृति का मनोरम सजीव चित्रण भी आपकी विशेषता है। आपकी
रचनाओं में भारतीय संस्कृति की मनोरम तथा गरिमामयी प्रतिष्ठा हुई है। प्रसाद जी
मानवतावादी आशा और उत्साह की प्रेरणा देने वाले साहित्यकार हैं।
कला
पक्ष - प्रसाद जी की भाषा परिष्कृत साहित्यिक
हिन्दी है। वह प्रभावपूर्ण तथा संस्कृतनिष्ठ है। कहीं-कहीं वह क्लिष्ट भी हो गई
है। वह ध्वन्यात्मक तथा लाक्षणिक है। उनकी शैली में प्रतीकात्मकता, ध्वन्यात्मकता
और चित्रात्मकता है। आप ओज और माधुर्य गुणों के कवि हैं। परंपरागत अलंकारों के साथ
ही आपने मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय आदि नवीन. अलंकारों का भी प्रयोग किया है। आपने
गीतों के अतिरिक्त विविध छन्दों में काव्य-रचना की है।
कृतियों
- प्रसाद कवि, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार तथा निबन्धकार हैं। आपकी प्रसिद्ध
रचनाएँ हैं
काव्य-कृतियाँ
- आँसू, झरना, लहर तथा कामायनी (महाकाव्य)।
नाट्य-कृतियाँ
- अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त, स्कंदगुप्त, राजश्री, जनमेजय का नागयज्ञ, विशाख,
ध्रुवस्वामिनी।
उपन्यास
- कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण)।
कहानी
- संग्रह आँधी, इंद्रजाल, छाया. प्रतिध्वनि, आकाशदीप।
निबन्ध
- संग्रहकाव्य और कला तथा अन्य निबन्ध।
सप्रसंग व्याख्याएँ
देवसेना का गीत
आह! वेदना मिली विदाई !
मैंने भ्रम-वश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई।
शब्दार्थ
:
भ्रमवश
= भ्रम के कारण।
संचित
= एकत्रित।
मधुकरियों
= भिक्षा।
सन्दर्भ
- प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद के प्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक
'स्कन्दगुप्त' से उद्धृत हैं और हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में 'देवसेना
का गीत' शीर्षक से संकलित अंश से ली गई हैं।
प्रसंग
- मालव नरेश बन्धुवर्मा की बहिन देवसेना स्कन्दगुप्त से प्रेम करती है।
स्कन्दगुप्त मालव के नगरसेठ की पुत्री विजया से प्रेम करता है। जीवन के
उत्तरार्द्ध में स्कन्दगुप्त के विवाह प्रस्ताव को वह अस्वीकार कर देती है तथा
आजीवन अविवाहित रहने का व्रत ले लेती है।
व्याख्या
- अपने असफल प्रेम की पीड़ा व्यक्त करती हुई देवसेना कहती है कि जीवन के इस
संध्याकाल में जब मेरी आशा, आकांक्षाएँ और भावी सुख की कल्पनाएँ समाप्त हो गई हैं,
तब मैं वेदना भरे हृदय से इनसे विदाई लेती हूँ। मैंने स्कन्दगुप्त को अपना समझ कर
उससे प्रेम किया किन्तु जैसे कोई प्राप्त भिक्षा को लुटा देता है मैंने भी नादानी
में भ्रमवश अभिलाषा रूपी भिक्षा को लुटा दिया। आकांक्षा जो मेरे जीवन की संचित
पूँजी थी, मैं उसे भी नहीं बचा सकी।
विशेष
-
देवसेना
की वेदना और निराशा की अभिव्यक्ति हुई है।
तत्सम
शब्दावली का प्रयोग हुआ है।
भाषा
में प्रसाद गुण है तथा लाक्षणिकता का समावेश है।
वियोग
श्रृंगार रस है।
छलछल थे संध्या के श्रमकण,
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण।
मेरी यात्रा पर लेती थी -
नीरवता अनंत अंगड़ाई
श्रमित स्वप्न की मधमाया में,
गहन-विपिन की तरु-छाया में,
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई।
सन्दर्भ
- प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद के प्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक
'स्कन्दगुप्त' से उद्धृत हैं और हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में 'देवसेना
का गीत' शीर्षक से संकलित अंश से ली गई हैं।
प्रसंग
- मालव नरेश बन्धुवर्मा की बहिन देवसेना स्कन्दगुप्त से प्रेम करती है।
स्कन्दगुप्त मालव के नगरसेठ की पुत्री विजया से प्रेम करता है। जीवन के
उत्तरार्द्ध में स्कन्दगुप्त के विवाह प्रस्ताव को वह. अस्वीकार कर देती है तथा
आजीवन अविवाहित रहने का व्रत ले लेती है।
व्याख्या
- देवसेना निराश है, उसकी आँखों से प्रतिक्षण आँसू गिर रहे हैं। वह कहती है कि ये
आँसू पसीने की बूंदों की तरह गिर रहे हैं। मेरे जीवन की इस यात्रा में नीरवता
प्रतिक्षण अँगड़ाई ले रही है। देवसेना जीवन भर दुःख के बादलों से घिरी . रही है।
स्कन्दगुप्त को पाने की उसकी अभिलाषा पूरी नहीं हुई। सारा जीवन संघर्ष करते हुए
बीता, सुख प्राप्त नहीं हुआ।
देवसेना
ने जीवनभर संघर्ष किया। स्कन्दगुप्त के प्रेम की सुखद आकांक्षाओं के सपनों को
संजोया, किन्तु उसकी आकांक्षाएँ अतृप्त ही रहीं। जिस प्रकार कोई पथिक थक कर किसी
वृक्ष की छाया में सुखद स्वप्नों को देखता हुआ विश्राम कर रहा हो और तब उसे कोई
विहाग राग सुना दे, तो उसे वह अच्छा नहीं लगता। इसी प्रकार जीवन के उतार पर
स्कन्दगुप्त का प्रणय निवेदन उसे विहाग के समान प्रतीत होता है। स्कन्दगुप्त से
प्रेम देवसेना के लिए एक सपना ही था। वह सपना टूट . चुका है। अब स्कन्दगुप्त का
प्रणय निवेदन उसे अच्छा नहीं लग रहा।
विशेष
:
देवसेना
की मनोव्यथा का चित्रण है।
भाषा
प्रसादगुण तथा लाक्षणिकता से युक्त है।
रस-वियोग
श्रृंगार है। स्थायी भाव-रति है।
आँसू-से
गिरते' में उपमा अलंकार 'लेती थी' नीरवता अँगड़ाई में' मानवीकरण तथा 'श्रमित
स्वप्न' में अनुप्रास अलंकार है।
लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी,
रही बचाए फिरती कबकी।
मेरी आशा आह! बावली,
तूने खो दी सकल कमाई।
शब्दार्थ
:
सतृष्ण
= तृष्णा के साथ।
दीठ
= दृष्टि।
सकल
= सारी।
सन्दर्भ
- प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित 'स्कन्दगुप्त' नाटक
से उद्धृत तथा 'अन्तरा भाग-2' में 'देवसेना का गीत' शीर्षक से संकलित अंश से ली गई
हैं।
प्रसंग
- देवसेना स्कन्दगुप्त से प्रेम करती है किन्तु उसे स्कन्दगुप्त से निराशा ही
मिलती है। जीवन के उतार पर स्कन्दगुप्त उससे प्रणय निवेदन करता है जिसे देवसेना
अस्वीकार कर देती है। प्रस्तुत गीतांश में प्रसाद जी ने देवसेना के असफल प्रेम से
सम्बन्धित मनोभावों का चित्रण किया है।
व्याख्या
- देवसेना मानव मनोवृत्ति का वर्णन करते हुए कहती है कि जब मैं यौवन से परिपूर्ण थी
तब सबकी तृष्णा . भरी प्यासी दृष्टि मुझ पर पड़ती थी। मैं लोगों की वासना भरी
कुदृष्टि से अपने आप को बचाने का प्रयत्न करती थी, लेकिन मैं उसे बचा नहीं सकी।
मैं जीवनभर संचित अपनी अभिलाषा रूपी पूँजी की रक्षा नहीं कर सकी और अपनी बावली आशा
के कारण उसे, गँवा बैठी। भाव यह है कि देवसेना स्कन्दगुप्त से जीवनभर प्रेम करती
रही, किन्तु उसे स्कन्दगुप्त का प्रेम प्राप्त नहीं हुआ।
विशेष
:
भाषा
में तत्सम शब्दावली का प्रयोग तथा लाक्षणिकता है।
इन
पंक्तियों में संगीतात्मकता है।
देवसेना
की वेदना का वर्णन है।
देवसेना
की आशाओं और कल्पनाओं को बावली बताया गया है।
इस
प्रकार यहाँ मानवीकरण की प्रवृत्ति है।
चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर।
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर,
उससे हारी-होड़ लगाई।
लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती।
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इससे मन की लाज गंवाई।
शब्दार्थ
:
जीवन-रथ
= जीवन रूपी रथ।
प्रलय
= विनाश, तूफान।
दुर्बल
= कमजोर।
पद-बल
= पैरों की ताकत।
थाती
= विरासत में प्राप्त सम्पत्ति, उत्तराधिकार।
सन्दर्भ
- प्रस्तुत पंक्तियाँ 'देवसेना का गीत' शीर्षक कविता से ली गई हैं जो जयशंकर
प्रसाद द्वारा रचित नाटक 'स्कन्दगुप्त' से उद्धृत हैं। इस गीत को हमारी
पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित किया गया है।
प्रसंग
- देवसेना निराश है। प्रेम के.क्षेत्र में हारी हुई प्रेमिका है। अपनी जीवनभर की
पूँजी को गँवाने के पश्चात् वह पश्चात्ताप करती है। अतृप्त प्रेम के कारण उसे अपना
जीवन सूना प्रतीत होता है। वह इन्हीं भावों को इस अंश में व्यक्त करती है।
व्याख्या
- देवसेना जीवन-पर्यन्त संघर्ष करने के कारण निराश हो गई है। इसलिए वह कहती है कि
मेरे जीवन में प्रलय का साम्राज्य हो गया है अर्थात् मेरा जीवन तूफानों से घिरने
के कारण हताश हो गया है। मेरे जीवन की सुन्दर आकांक्षाएँ समाप्त हो गई हैं। मैं
अपने दुर्बल पैरों पर खड़ी होकर प्रलय (जीवन की झंझा) से व्यर्थ ही होड़ कर रही
हूँ क्योंकि उसमें मेरी हार होना ही सुनिश्चित है। अन्त में निराश होकर वह विश्व
से कहती है कि इस धरोहर (प्रेम) को लौटा लो। मुझमें इस थाती को संभाल कर रखने की
ताकत नहीं है। स्कन्दगुप्त के प्रेम में डूबकर मैंने अपनी लाज भी गँवा दी है। अब
मुझसे यह वेदना सहन नहीं होती।
विशेष
:
देवसेना
की वेदना का मार्मिक वर्णन है।
प्रेमिका
के दुर्बल मन का.सजीव वर्णन है।
तत्सम
शब्दावली युक्त साहित्यिक, प्रवाहमय और परिष्कृत खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।
लाक्षणिक पदावली.का समावेश है।
वयोग
श्रृंगार रस है।
'जीवन-रथ'
में रूपक, "पथ पर', 'हारी-होड़', 'लौटा लो' में अनुप्रास अलंकार है। प्रलय का
मानवीकरण किया गया है। 'विश्व! न ......... गवाई' में विशेषण-विपर्यय अलंकार है।
कार्नेलिया का गीत
अरुण यह मधुमय देश हमारा!
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर-नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर-मंगल कुंकुम सारा!
लघु सुरधनु से पंख पसारे-शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए-समझ नीड़ निज प्यारा।
बरसाती आँखों के बादल-बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकराती अनंत की-पाकर जहाँ किनारा।
हेम कुंभ ले उषा सवेरे-भरती दुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊंघते रहते जब-जगकर रजनी भर तारा।
शब्दार्थ
:
अरुण
= प्रातःकालीन लालिमा युक्त।
मधुमय
= मधुरता से युक्त, मिठास से भरा हुआ।
क्षितिज
= जहाँ धरती और आकाश एक साथ मिलते हुए दिखाई देते हैं।
विभा
= कान्ति।
तामरस
= कमल।
मंगल
= शुभ, कल्याणकारी।
कुंकुम
= अबीर।
सुरधनु
= इन्द्रधनुष।
नीड़
= घोंसला।
मलय
समीर = चन्दन की सुगंध लिए हुए हवा।
हेम
कुंभ = स्वर्ण कलश।
मदिर
= नशे में, मस्ती में।
रजनी
= रात्रि।
सन्दर्भ
- प्रस्तुत गीत छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद की कालजयी नाट्य-कृति 'चन्द्रगुप्त' से
लेकर हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित किया गया है।
प्रसंग
- 'चन्द्रगुप्त' नाटक के दूसरे अंक में ग्रीक सेनापति सेल्यूकस की पुत्री
कार्नेलिया सिन्धु नदी के किनारे ग्रीक-शिविर के पास वृक्ष के नीचे बैठकर यह गीत
गाती है। इसमें भारतभूमि की महिमा, गौरव और प्राकृतिक सुषमा का मनोहारी चित्रण है।
भारत से प्रभावित कार्नेलिया उसे अपना देश मानती है।
व्याख्या
- प्रभातकालीन अरुणिमा से युक्त हमारा यह भारत देश मधुरिम और मनोहारी है। सूर्य की
सुनहली. किरणों के कारण इसकी प्राकृतिक सुषमा बढ़ जाती है, मधुमय हो जाती है।
विश्व के कोने-कोने से ज्ञान-पिपासु यहाँ आकर ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह देश
जिज्ञासुओं को सहारा देता है। उन्हें यहाँ अवलम्ब का सहज आभास होता है।
कार्नेलिया
भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य से प्रभावित होकर भावविभोर हो गीत के माध्यम से अपने
भावों को व्यक्त करते हुए कहती है कि इस देश में प्रात:कालीन सूर्य वृक्षों की
फुनगियों की हरियाली पर अपनी लालिमा बिखेरता है। वृक्षों की शाखाओं से छनकर जब
सर्य की किरणें कमलों पर अपनी कान्ति बिखेरती हैं तो ऐसा प्रतीत होता है मानो वे
पुष्पों पर नृत्य कर रही हों और जीवन की हरियाली पर मांगलिक कुंकुम बिखर गया हो।
केवल
मनुष्य ही नहीं पक्षी भी इस देश से प्रेम करते हैं। इसलिए दूर-दूर के विभिन्न
पक्षी अपने इन्द्रधनुषी पंखों को पसार कर सुगंधित वायु के सहारे इस देश की ओर ही
आते हैं मानो यह देश ही उनका नीड़ (घोंसला) हो। भाव यह है कि विभिन्न देशों की
सभ्यता-संस्कृति, भाषा, वेश-भूषा, आचार-विचार वाले व्यक्ति यहाँ आते हैं और आश्रय
पाते हैं।
कार्नेलिया
भारत के लोगों की विशेषता बताती हुई गीत के माध्यम से कहती है कि यहाँ के निवासी
करुणा और सहानुभूति वाले हैं। वे अपने दुःख से ही दुखी नहीं होते अपितु जीव मात्र
के दुःख से उनकी आँखें आर्द्र हो जाती हैं। उनकी आँखों से निकले करुणा के आँसू ही
मानो वाष्प (भाप) बनकर बादल बन जाते हैं और फिर बरस जाते हैं। यह वह देश है जहाँ
सागर से आने वाली लहरें किनारा पाकर शान्त हो जाती हैं अर्थात् दूर देशों से आने
वाले व्याकुल प्राणी यहाँ शान्ति का अनुभव करते हैं। यह देश दुखियों को शान्ति
प्रदान करने वाला है।
प्रसाद
जी कार्नेलिया के माध्यम से प्रभातकालीन प्राकृतिक सुषमा का वर्णन करते हुए कहते
हैं कि यहाँ की प्रात:कालीन प्रकृति अवर्णनीय है। जब रातभर चमकने वाले तारे मस्ती
में ऊँघने लगते हैं तब उषा रूपी सुन्दरी अपने सूर्य रूपी सुनहरे घड़े को आकाशरूपी
कुँए में डुबोकर जल लाती है और सुख बिखेरती जाती है। भाव यह है कि जब सूर्योदय
होता है तो तारे छिपने लगते हैं और चारों ओर सुखद अनुभूति होने लगती है।
विशेष
:
भारत
की गौरव-गाथा एवं प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन इस गीत में है।
भारत
की संस्कृति की अतिथि-परायणता, करुणा और सहानुभूति आदि विशेषताओं का चित्रण हुआ
है।
तत्सम
एवं कोमलकान्त पदाक्ली युक्त लाक्षणिक भाषा का प्रयोग हुआ है।
मानवीकरण,
रूपक, उपमा, अनुप्रास इत्यादि अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
प्रस्तुत
गीत छायावादी शैली की मनोहर रचना है।