रामचंद्र शुक्ल (प्रेमघन की छाया-स्मृति)
प्रश्न 1. लेखक ने अपने पिताजी की किन-किन विशेषताओं का उल्लेख किया
है ?
उत्तर
: लेखक रामचंद्र शक्ल ने अपने पिताजी के बारे में निम्न विशेषताओं का उल्लेख किया है
-
वे
फारसी के अच्छे ज्ञाता और पुरानी हिन्दी कविता के प्रेमी थे।
फारसी
कवियों की उक्तियों को हिन्दी कवियों की उक्तियों के साथ मिलाने में उन्हें बड़ा आनंद
आता था।
वे
रात को घर के सब लोगों को इकट्ठा कर उन्हें रामचरितमानस (तुलसीदास) और रामचंद्रिका
(केशवदास) बड़े चित्ताकर्षक ढंग से पढ़कर सुनाया करते थे।
भारतेंदु
जी के नाटक उन्हें बहुत प्रिय थे। इन नाटकों को भी वे कभी-कभी सुनाया करते थे।
प्रश्न 2. बचपन में लेखक के मन में भारतेंदु जी के संबंध में कैसी भावना
जगी रहती थी?
उत्तर
: बचपन में लेखक रामचंद्र शुक्ल के मन में भारतेंदु जी के संबंध में एक अपूर्व मधुर
भावना जगी रहती थी। उनकी बाल-बुद्धि भारतेंदु हरिश्चंद्र और सत्यवादी हरिश्चंद्र नाटक
के नायक 'राजा हरिश्चंद्र' में कोई भेद नहीं कर पाती थी।
प्रश्न 3. उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' की पहली झलक लेखक ने
किस प्रकार देखी?
उत्तर
: शुक्ल जी के पिताजी का तबादला जब मिर्जापुर हुआ तब बालक रामचंद्र शुक्ल को पता चला
कि यहाँ भारतेंदु जी के कवि मित्र चौधरी बदरीनारायण 'प्रेमघन' जी भी रहते हैं। उनका
पत्थर का बना दोमंजिला मकान है और वे एक. हिन्दुस्तानी रईस हैं। ऊपर के बरामदे में
घनी लताओं के बीच चौधरी साहब कंधों पर बाल बिखेरे एक खंभे का सहारा लिए हुये खड़े थे।
सड़क से चौधरी साहब की यही पहली झलक लेखक ने देखी।
प्रश्न 4. लेखक का हिन्दी साहित्य के प्रति झुकाव किस तरह बढ़ता गया
?
अथवा
'प्रेमघन की छाया स्मृति' निबंध से शुक्ल के भाषा-परिवेश और प्रारंभिक
रुझानों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
: ज्यों-ज्यों लेखक सयाना होता गया हिन्दी साहित्य की ओर उसका झुकाव बढ़ता गया। उसके
पिताजी साहित्य प्रेमी थे, भारत जीवन प्रेस की किताबें उनके यहाँ प्रायः आती रहती थीं,
साथ ही मिर्जापुर में केदारनाथ पाठक ने एक पुस्तकालय खोला था जहाँ से किताबें लाकर
रामचंद्र शुक्ल पढ़ा करते थे। यही नहीं अपने समवयस्क मित्रों-काशीप्रसाद जायसवाल, भगवानदास
जी हालना, पं. बदरीनाथ गौड़ और पं. उमाशंकर द्विवेदी के साथ वे हिन्दी के नए-पुराने
लेखकों की चर्चा करते रहते थे परिणामतः हिन्दी साहित्य की ओर उनका झुकाव बढ़ता गया।
प्रश्न 5. 'निस्संदेह' शब्द को लेकर लेखक ने किस प्रसंग का जिक्र किया
है ?
उत्तर
: लेखक अपनी समवयस्क मित्र-मंडली में हिन्दी के नए-पुराने लेखकों की चर्चा किया करता
था। इस चर्चा में "निस्संदेह' इत्यादि शब्द आया करते थे, जबकि जिस स्थान पर लेखक
रहता था. वहाँ अधिकतर वकील, मुख्तार तथा कचहरी में काम करने वाले अफसर और अमले रहते
थे। ये लोग उर्दू को तरजीह देते थे अतः उनके कानों को हम लोगों की हिन्दी कुछ अटपटी
और 'अनोखी लगती थी। इसलिए उन्होंने लेखक की मित्र-मंडली का नाम 'निस्संदेह लोग' रख
लिया था।
प्रश्न 6. पाठ में कुछ रोचक घटनाओं का उल्लेख है। ऐसी तीन घटनाएँ चुनकर
उन्हें अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
'प्रेमघन की छाया स्मृति' नामक संस्मरण के लेखक शक्ल जी ने उनकी विनोदप्रियता
को भी उजागर किया है। बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमघन' की विनोदप्रियता का उदाहरण पाठ के
आधार प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
: चौधरी बदरीनारायण 'प्रेमघन' जी की विनोदप्रियता तथा उनके कथनों में विलक्षण वक्रता
रहती थी जिससे रोचकता की सृष्टि होती थी। ऐसी तीन घटनाएँ अग्रलिखित हैं -
(i)
चौधरी साहब का नौकरों तक के साथ संवाद सुनने लायक होता था। अगर किसी नौकर के हाथ से
गिलास गिरता तो वे फौरन कहते - "कारे बचात नाही" अर्थात् क्यों रे बचा तो
नहीं।
(ii)
एक दिन चौधरी साहब अपने बरामदे में कंधों तक बाल बिखेरे खंभे का सहारा लिए खड़े थे।
वामनाचार्य गिरि मिर्जापुर के एक प्रतिभाशाली कवि थे जो चौधरी साहब पर एक छंद बना रहे
थे जिसका अंतिम चरण ही बनने को रह गया था। इस रूप में जब उन्होंने चौधरी साहब को देखा
तो झट से छंद का अंतिम चरण बना डाला."खंभा टेकि खड़ी जैसे नारि 'मुगलाने की।"
(iii)
एक दिन रात को छत पर चौधरी साहब कुछ लोगों के साथ बैठे गपशप कर रहे थे, पास में लैम्प
जल रहा था, अचानक बत्ती भकभकाने लगी। जब रामचंद्र शुक्ल ने बत्ती कम करने का मन बनाया
तो उनके मित्र ने तमाशा देखने के विचार से रोक दिया। चौधरी साहब ने नौकर को आवाज लगाई-"अरे
! जब फूट जाई तबै चलत आवह।" अंत में चिमनी ग्लोब के साथ चकनाचूर हो गई पर चौधरी
साहब का हाथ लैम्प की ओर न बढ़ा।
प्रश्न 7. "इस पुरातत्व की दृष्टि में प्रेम और कुतूहल का अद्भुत
मिश्रण रहता था।" यह कथन किसके संदर्भ में कहा गया है और क्यों ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: उक्त कथन उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' के संदर्भ में कहा गया है। वे भारतेंदु
मंडल के प्रमुख कवि थे और नयी पीढ़ी के रामचंद्र शुक्ल जैसे लेखक और उनकी मित्र-मण्डली
प्रेमघन जी को पुरानी चीज समझा करते थे। इस पुरातत्व की दृष्टि में प्रेम और कुतूहल
का अद्भुत मिश्रण रहता था जिसके वशीभूत होकर वे चौधरी साहब के यहाँ जाया करते थे अर्थात्
शुक्ल जी और उनके मित्र प्रेमघन जी से श्रद्धा भी रखते थे और उनके बारे में जानने को
उत्सुक भी रहते थे।
प्रश्न 8. प्रस्तुत संस्मरण में लेखक ने चौधरी साहब के व्यक्तित्व के
किन-किन पहलुओं को उजागर किया है ?
उत्तर
: यह संस्मरण भारतेंदु मंडल के प्रमुख कवि चौधरी बदरीनारायण 'प्रेमघन' के बारे में
है जिसमें उनके व्यक्तित्व के निम्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है -
(i)
हिन्दुस्तानी रईस उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' एक अच्छे-खासे हिन्दुस्तानी
रईस थे और उनके स्वभाव में वे सभी विशेषताएँ थीं जो रईसों में होती हैं।
(ii)
भारतेंदु मंडल के कवि-प्रेमघन, भारतेंदु मंडल के कवि थे और भारतेंदु जी के मित्रों
में उनकी गिनती थी। वे मिर्जापुर में रहते थे और उनके घर पर साहित्यिक गोष्ठियाँ आदि
होती रहती थीं।
(iii)
अपूर्व वचन भंगिमा - प्रेमघन जी की बातचीत का ढंग उनके लेखों के ढंग से एकदम भिन्न
था। जो बातें उनके मुख से निकलती थीं उनमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी। नौकरों तक के
साथ उनका संवाद सुनने लायक होता था।
(iv)
मनोरंजक स्वभाव - प्रेमघन जी का स्वभाव विनोदशील था, वे विनोदी प्रवृत्ति के थे और
प्रायः लोगों को (मूर्ख) बनाया करते थे। लोग भी उन्हें (मूर्ख) बनाने के प्रयास में
या उन पर मनोरंजक टिप्पणियाँ करने की जुगत में रहते थे।
(v)
मौलिक विचारक-प्रेमघन जी मौलिक विचारक थे और उनके विचारों में दृढ़ता रहती थी। नागरी
को वे लिपि न मानकर भाषा मानते थे। वे मिर्जापुर को मीरजापुर' लिखते थे और उसका अर्थ
करते थे-मीर = समुद्र, जा = पुत्री + पुर अर्थात् समुद्र की पुत्री = लक्ष्मी, अत:
मीरजापुर = लक्ष्मीपुर।
प्रश्न 9. समवयस्क हिन्दी प्रेमियों की मंडली में कौन-कौन से लेखक मुख्य
थे?
उत्तर
: बचपन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के समवयस्क हिन्दी प्रेमियों की मंडली में श्रीयुत्
काशीप्रसाद जायसवाल, बाबू भगवानदास जी हालना, पण्डित बदरीनाथ गौड़ और उमाशंकर द्विवेदी
प्रमुख थे।
प्रश्न 10. 'भारतेंद जी के मकान के नीचे का यह हृदय-परिचय बहत शीघ्र
गहरी मैत्री में परिणत हो गया।' कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: मिर्जापुर में रहते समय बालक रामचंद्र शुक्ल को उनके पिताजी ने एक बार काशी में किसी
बारात में भेजा। जब वे चौखंभा की ओर गए तो उन्हें एक मकान से पं. केदारनाथ पाठक जी
निकलते दिखाई पड़े। पाठक जी शुक्ल जी को मिर्जापुर से ही जानते थे। बातों ही बातों
में पता चला कि यह भारतेंदु जी का मकान है। भारतेंदु जी के प्रति आदरभाव के कारण शुक्लं
जी भावुक होकर मकान को देखते रहे। पाठक जी उनकी भावुकता देखकर अति प्रसन्न हुए और उनके
साथ बातचीत करते हुए दूर तक गए। भार मकान के नीचे का वह हृदय परिचय बहुत शीघ्र केदारनाथ
पाठक के साथ शुक्ल जी की गहरी मैत्री में बदल गया-यही उक्त कथन का आशय है।
भाषा-शिल्प
प्रश्न 1. हिन्दी-उर्दू के विषय में लेखक के विचारों को देखिए। आप इन
दोनों को एक ही भाषा की दो शैलियाँ मानते हैं या भिन्न भाषाएँ।
उत्तर
: हिन्दी-उर्दू वास्तव में खड़ी बोली हिन्दी की दो शैलियाँ हैं। दोनों का आधार खड़ी
बोली है अतः उर्दू शैली में अरबी-फारसी के शब्द अधिक होते हैं, जबकि हिन्दी शैली में
संस्कृत शब्द अधिक रहते हैं। वस्तुतः ये एक ही भाषा की दो शैलियाँ हैं यद्यपि, अब इन्हें
कुछ लोग अलग-अलग भाषा भी मानते हैं।
प्रश्न 2. चौधरी जी के व्यक्तित्व को बताने के लिए पाठ में कुछ मजेदार
वाक्य आए हैं उन्हें छाँटकर उनका संदर्भ लिखिए।
उत्तर
: चौधरी जी के व्यक्तित्व को बताने वाले निम्नलिखित मजेदार वाक्य इस पाठ में आए हैं
(i)
चौधरी साहब एक खासे हिन्दुस्तानी रईस थे - इस पंक्ति में लेखक ने यह बताया है कि प्रेमघन
जी एक अच्छे- . खासे हिन्दुस्तानी रईस थे और उनमें रईसों में पाये जाने वाले सभी गुण-अवगुण
विद्यमान थे।
(ii)
दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे - इस वाक्य से यह पता चलता है कि चौधरी बदरीनारायण
प्रेमघन को लम्बे बाल रखने का शौक था। इनके कारण एक कवि महोदय ने तो उन्हें मुगलानी
(मुगल स्त्री) की उपमा तक दे डाली थी।
(iii)
अरे ! जब फूट जाई तबै चलत आवह - प्रेमघन एक दिन रात में छत पर बैठे मित्रों से गपशप
कर रहे थे। पास में लैम्प जल रहा था। अचानक लैम्प की बत्ती भकभकाने लगी। चौधरी साहब
ने बत्ती कम करने के स्थान पर नौकर को आवाज लगाई और जब नौकर के आने में देर हुई तो
वे झल्लाकर कहने लगे "अरे ! जब फूट जाई तबै चलत आवह" अर्थात् अरे जब शीशा
फूट जाएगा तब आओगे।
प्रश्न 3. पाठ की शैली की रोचकता पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर
: इस पाठ में शुक्ल जी ने संस्मरणात्मक शैली का.प्रयोग किया है जिसमें हास्य-व्यंग्य
का पुट होने से रोचकता का समावेश हो गया है। पाठ में वर्णित विभिन्न घटनाएँ रोचक शैली
में वर्णित हैं। बीच-बीच में शुक्ल जी ने प्रेमघन जी के द्वारा कहे गये स्थानीय बोली
के वाक्यों को भी रखा है, जिनसे पाठ में रोचकता का समावेश हो गया है। पाठ की रोचकता
में वृद्धि करने के लिए रोचक प्रसंगों का समावेश बड़ी कुशलता से शुक्ल जी ने किया है।
योग्यता विस्तार
प्रश्न 1. भारतेंदु मंडल के प्रमुख लेखकों के नाम और उनकी प्रमुख रचनाओं
की सूची बनाकर स्पष्ट कीजिए कि आधुनिक हिन्दी गद्य के विकास में इन लेखकों का क्या
योगदान रहा?
उत्तर
: प्रमुख लेखक - भारतेंदु मंडल के लेखकों में भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के साथ
बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन', पं. प्रतापनारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, ठाकुर जगमोहन
सिंह, राधाकृष्णदास और बालमुकुंद गुप्त के नाम लिए जा सकते हैं। इनकी प्रमुख रचनाएँ
निम्नांकित हैं रचनाएँ -
भारतेंदु
हरिश्चंद्र - सत्यवादी हरिश्चंद्र, चंद्रावली नाटिका, भारत दुर्दशा,
नीलदेवी, विषस्य विषमौषधम्, अंधेर नगरी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, सती प्रताप, प्रेमयोगिनी,
दिल्ली दरबार दर्पण, अग्रवालों की उत्पत्ति, बादशाह दर्पण, कश्मीर सुषमा, प्रेम फुलवारी,
प्रेम सरोवर, प्रेम मालिका आदि।
बालमुकुंद
गुप्त - देश प्रेम, शिवशम्भू के.चिठे।
बदरीनारायण
चौधरी 'प्रेमघन' - प्रेमघन सर्वस्व।
प्रतापनारायण
मिश्र - प्रेमपुष्पावली, मन की लहर।
राधाचरण
गोस्वामी - नवमन्त्रपाल।
राधाकृष्णदास
- देशदशा।
योगदान
इस काल में हिन्दी गद्य की अनेक विधाएँ विकसित हुईं। भारतेंदु मंडल के लेखकों का गद्य
व्यावहारिक, सजीव, रोचक एवं प्रवाहपूर्ण था। उन्होंने आम बोलचाल की भाषा हिन्दी का
प्रयोग अपनी रचनाओं में किया। इस काल के गद्य लेखक पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े थे अतः
देश प्रेम, राष्ट्रीयता और समाज सुधार से जुड़े विषयों पर भी उन्होंने काफी कुछ लिखा।
आधुनिक गद्य का जनक भारतेंदु जी को इस कारण कहा गया क्योंकि गद्य की अनेक विधाओं का
सूत्रपात भी इसी काल में हुआ।
प्रश्न 2. आपको जिस व्यक्ति ने सर्वाधिक प्रभावित किया है, उसके व्यक्तित्व
की विशेषताओं को लिखिए।
उत्तर
: मुझे महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व ने सर्वाधिक प्रभावित किया है। उन्होंने देश को
स्वतंत्र कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। सत्य, प्रेम, अहिंसा के बल
पर गाँधी जी ने अंग्रेजी साम्राज्य को हिला दिया। गाँधी जी की ईमानदारी, सत्य के प्रति
निष्ठा, नैतिक मूल्यों में विश्वास, चारित्रिक दृढ़ता और कर्मठता से मैं बहुत प्रभावित
हूँ। जनता प्यार से उन्हें बापू कहती थी। वे सभी धर्मों का आदर करते थे तथा छुआछूत
जैसी सामाजिक बुराई को दूर करने में भी उनका योगदान रहा है। वे एक प्रबुद्ध लेखक भी
थे। 'सत्य के प्रयोग' उनकी आत्मकथा है। वे सच्चे अर्थों में महात्मा' कहे जाने के अधिकारी
हैं।
प्रश्न 3. यदि आपको किसी साहित्यकार से मिलने का अवसर मिले तो आप उनसे
क्या-क्या पूछना चाहेंगे और क्यों ?
उत्तर
: यदि मुझे किसी साहित्यकार से मिलने का अवसर मिले तो मैं उनसे निम्न प्रश्नों के उत्तर
पूछना चाहूँगा -
(i)
आपने अपना लेखन जब प्रारंभ किया तब आपकी अवस्था कितनी थी ?
यह
प्रश्न मैं यह जानने के लिए पूछूगा कि वे कब से लिख रहे हैं और उन्हें साहित्य रचना
करते हुए कितना समय बीत गया है।
(ii)
आप किस विधा को अधिक पसंद करते हैं ?
हर
साहित्यकार की अपनी पसंदीदा विधाएँ होती हैं। इस प्रश्न से मुझे लेखक की पसंदीदा विधाओं
की जानकारी हो जाएगी।
(iii)
आपको लिखने की प्रेरणा किससे प्राप्त हुई ?
इस
प्रश्न से हमें यह पता चलेगा कि वह किनसे प्रभावित है तथा उसके लेखन पर किन दूसरे लोगों
का प्रभाव है।
(iv)
आपने अब तक कितनी रचनाएँ लिखी हैं उनमें से आपकी सर्वाधिक पसंद की कौन-सी रचना है
?
इस
प्रश्न के माध्यम से मैं यह जानना चाहूँगा कि उस लेखक को अपनी किस कृति से सर्वाधिक
संतोष मिला है।
(v)
आप अपने समकालीन लेखकों, कवियों, उपन्यासकारों में से किन्हीं तीन के नाम बताएँ जो
आपको सर्वाधिक पसंद हैं।
इस
प्रश्न के उत्तर से यह पता चलेगा कि उस लेखक की अपने समकालीन लेखकों के बारे में क्या
धारणा है ?
प्रश्न 4. संस्मरण साहित्य क्या है ? इसके बारे में जानकारी प्राप्त
कीजिए।
उत्तर
: संस्मरण लेखक की स्मृति से सम्बन्ध रखता है। संस्मरण विवरणात्मक होते हैं, उनमें
घटनातत्व की प्रधानता होती है। हिन्दी के प्रमुख संस्मरण लेखक हैं - बनारसीदास चतुर्वेदी,
पद्मसिंह शर्मा, महादेवी वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, प्रकाशचंद्र गुप्त आदि। सरस्वती,
विशाल भारत, हंस, सुधा में अनेक लेखकों के संस्मरण प्रकाशित हुए हैं। महादेवी वर्मा
ने 'पथ के साथी' में अपने समय के प्रसिद्ध साहित्यकारों के संस्मरण लिखे हैं तो बनारसीदास
चतुर्वेदी ने 'संस्मरण' में अनेक प्रसिद्ध लोगों पर स्मृति पर आधृत संस्मरण लिखे हैं।
संस्मरण से मिलती-जुलती गद्य विधा है रेखाचित्र। संस्मरण लेखक का अपना व्यक्तित्व भी
किसी संस्मरण को लिखते समय व्यक्त होता चलता है, जबकि रेखाचित्र 'वस्तुनिष्ठ' होता
है। जिस व्यक्ति का रेखाचित्र प्रस्तुत किया जा रहा हता है। संस्मरण प्रायः महान व्यक्तियों
के होते हैं. जबकि रेखाचित्र सामान्य व्यक्तियों के भी हो सकते हैं।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' से
परिचय कहाँ हुआ?
उत्तर
: आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' से परिचय मिर्जापुर में हुआ।
प्रश्न 2. मिर्जापुर में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के परम मित्र कौन रहते
थे?
उत्तर
: मिर्जापुर में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के परम मित्र बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' रहते
थे।
प्रश्न 3.भारत जीवन प्रेस की पुस्तकें किनके घर पर आती थीं?
उत्तर
: भारत जीवन प्रेस की पुस्तकें रामचन्द्र शुक्ल के घर पर आती थीं।
प्रश्न 4. क्वीन्स कॉलेज में आचार्य शुक्ल के सहपाठी कौन थे?
उत्तर
: क्वीन्स कॉलेज में आचार्य शुक्ल के सहपाठी रामकृष्ण वर्मा थे।
प्रश्न 5. शुक्ल जी के समवयस्क मित्रों की हिन्दी प्रेमी मंडली का नाम
लोगों ने क्या रख दिया था?
उत्तर
: शुक्ल जी के समवयस्क मित्रों की हिन्दी प्रेमी मंडली का नाम लोगों ने निस्संदेह लोग
रख दिया था।
प्रश्न 6. लेखक के पिता रात को कौन-सी किताब पढ़ा करते थे?
उत्तर
: लेखक के पिताजी रात को प्रायः रामचरितमानस और रामचंद्रिका पढ़ा करते थे।
प्रश्न 7. भारतेंदु हरिश्चंद्र के घनिष्ठ मित्र कौन थे?
उत्तर
: भारतेंदु हरिश्चंद्र के घनिष्ठ मित्र उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी. जी थे, जो खुद एक
प्रसिद्ध कवि थे।
प्रश्न 8. किस प्रेस की किताबें लेखक के घर आया करती थीं?
उत्तर
: 'भारत जीवन' प्रेस की किताबें प्रायः लेखक के घर आया करती थीं।
प्रश्न 9. लेखक को कितने साल की उम्र से ही हिन्दी की मित्र मंडली मिलने
लगी थी?
उत्तर
: लेखक को मात्र 16 साल की उम्र से ही हिन्दी की मित्र-मंडली मिलने लगी थी।
प्रश्न 10. लेखक के मुहल्ले में कौन-कौन रहता था?
उत्तर
: जिस स्थान पर लेखक रहते थे, वहाँ अधिकतर वकील, मुख्तारों तथा कचहरी के अफसरों और
अमलों की बस्ती थी।
प्रश्न 11. रामचंद्र के पिता जी भारत जीवन प्रेस की किताबें छुपा देते
थे, क्यों?
उत्तर
: लेखक के पिताजी को डर था कि कहीं उनके बेटे यानि रामचंद्र शुक्ल जी का चित्त स्कूल
की पढ़ाई से हट न जाए। इसलिए प्रेस की किताबें छुपा दिया करते थे।
प्रश्न 12. चौधरी साहब किस स्वभाव के व्यक्ति थे?
उत्तर
: चौधरी साहब एक खानदानी रईस भी थे। उनके बात करने का ढंग उनके लेखों से बिलकुल अलग
था। वह एक खुशमिजाज और हर बात पर अपने उल्टे व्यंग्य देने वाले स्वभाव के व्यक्ति थे।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने पिताजी के बारे में क्या बताया
है ?
उत्तर
: आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने पिताजी के बारे में बताते हुए लिखा है कि वे फारसी
के अच्छे ज्ञाता और पुरानी हिन्दी कविता के प्रेमी थे। फारसी कवियों की उक्तियों का
हिन्दी कवियों की उक्तियों से मिला था। घर के लोगों को एकत्र कर वे उन्हें रामचरितमानस
और रामचंद्रिका पढ़कर सुनाते थे और कभी-कभी भारतेंदु के नाटक भी सुनाया करते जो उन्हें
विशेष प्रिय थे।
प्रश्न 2. मिर्जापुर आने पर रामचंद्र शुक्ल को क्या पता चला ?
उत्तर
: शुक्ल जी ने अपने पिता से भारतेन्दु हरिश्चन्द्र रचित नाटक सुने थे। इससे वह भारतेन्दुजी
से प्रभावित थे। पिता के स्थानान्तरण के बाद उनके साथ मिर्जापुर आने पर रामचंद्र शुक्ल
को यह पता चला कि यहाँ भारतेंदु हरिश्चंद्र के एक मित्र रहते हैं जो हिन्दी के एक प्रसिद्ध
कवि हैं और जिनका नाम है--उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'।
प्रश्न 3. बदरीनारायण चौधरी से सम्पर्क बढ़ने पर शुक्ल जी को क्या पता
चला ?
उत्तर
: शुक्ल जी एक लेखक की हैसियत से बदरीनारायण चौधरी के यहाँ आने-जाने लगे थे, तब उन्हें
पता चला कि चौधरी साहब एक अच्छे-खासे हिन्दस्तानी रईस हैं। वसंत पंचमी. होली आदि अवसरों
पर उनके घर नाचरंग की महफिलें सजती हैं। वे लम्बे बाल रखने के शौकीन हैं। उनकी बातें
मनोरंजक होती हैं। वह घर में लौकिक (स्थानीय) भाषा बोलते हैं। वे विनोदी स्वभाव के
हैं।
प्रश्न 4. बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' का परिचयात्मक विवरण इस पाठ के
आधार पर प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
: उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' भारतेंदु जी के मित्र और भारतेंदु मंडल के प्रमुख
लेखक थे। वे मिर्जापुर के रहने वाले एक हिन्दुस्तानी रईस थे। जब शुक्ल जी के पिता जी
की बदली ( रण) मिर्जापुर हुई तब शुक्ल जी को प्रेमघन जी के बारे में पता चला और वे
उनके घर लेखक की हैसियत से आने-जाने लगे। प्रेमघन जी की हर अदा से उनकी सी, रियासत
और तबीयतदारी व्यक्त होती थी। वसंत पंचमी, होली के अवसर पर उनके घर में नाचरंग की महफिलें
सजती और खूब धमाल होता था। प्रेमघन जी के बाल लंबे थे और कंधों पर पड़े रहते थे।
प्रश्न 5. "चौधरी बदरीनारायण दृढ़ मान्यताओं वाले व्यक्ति थे"
इस कथन को पुष्ट करने के लिए पाठ में आए प्रसंग तर्क सहित प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
: चौधरी साहब दृढ़ मान्यताओं वाले व्यक्ति थे और अपनी मान्यताओं को तर्क से पुष्ट करते
थे। वे नागरी को लिपि न मानकर भाषा मानते थे और कहते थे कि "नागर अपभ्रंश से जो
शिष्ट लोगों की भाषा विकसित हुई, वही नागरी कहलाई।" इसी प्रकार वे मिर्जापुर को
'मीरजापुर' लिखा करते और उसका अर्थ करते थे-लक्ष्मीपुरं। इस संबंध में वे तर्क देते
कि मीर = समुद्र, जा = पुत्री अतः मीरजापुर का अर्थ हुआ समुद्र की पुत्री (लक्ष्मी)
का पुर अर्थात् लक्ष्मीपुर।
प्रश्न 6. "वे लोगों को प्रायः बनाया करते थे, इससे उनसे मिलने
वाले लोग भी उनको बनाने की फ्रिक में रहा करते थे"-इस पंक्ति का सन्दर्भ स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर
: चौधरी जी की आदत लोगों को बनाने की थी और उनके परिचित लोग भी उनको बनाने का अवसर.
तलाशते रहते थे। मिर्जापुर में 'वामनाचार्य गिरि' नामक एक पुराने प्रतिभाशाली कवि थे।
वे एक दिन वे चौधरी साहब पर कविता जोड़ते सड़क पर जा रहे थे। कविता का अन्तिम चरण ही
जोड़ने को शेष बचा था। तभी उन्होंने देखा कि चौधरी साहब अपने मकान के ऊपरी बरामदे के
खम्भे का सहारा लिए बाल बिखराये खड़े थे। तुरन्त ही वामनाचार्य ने अन्तिम चरण जोड़ा
'खम्भा टेकि खड़ी जैसे नारि मालाने की' और कवित्त पूरा हो गया।
प्रश्न 7. शुक्ल जी के सहपाठी छत पर चौधरी साहब से क्या बातें कर रहे
थे ?
उत्तर
: पं. लक्ष्मीनारायण चौबें, बा. भगवान दास हालना, बा. भगवान दास मास्टर, शुक्ल जी के
सहपाठी थे। इन्होंने 'उर्दू बेगम' नामक एक अत्यन्त विनोदपूर्ण पुस्तक लिखी थी। इसमें
उर्दू की उत्पत्ति, प्रचार आदि का वर्णन कहानी की तरह किया गया था। गर्मी के दिन थे
और रात का समय था। लैम्प जल रही थी। ये लोग छत पर बैठकर चौधरी साहब से बातचीत कर रहे
थे।
प्रश्न 8. उपाध्याय जी कौन-सी भाषा के समर्थक थे? .
उत्तर
: उपाध्याय जी नागरी भाषा के समर्थक थे और नागरी भाषा में ही लिखा करते थे। उनका कहना
था कि "नागर अपभ्रंश से जो शिष्ट लोगों की भाषा विकसित हुई, वही नागरी कहलाई।"
वह मिर्जापुर को मिर्जापुर न लिखकर मीरजापुर लिखा करते थे, जिसका अर्थ वे 'लक्ष्मीपुर-मीर-समुद्र+जा-पुत्री+पुर'
करते थे।
प्रश्न 9. लेखक भारतेंदु जी के घर को एकटक क्यों देखते रहे?
उत्तर
: रामचंद्र शुक्ल जी को पुस्तकों और साहित्यों से बड़ा लगाव था। तत्कालीन समय में भारतेंदु
जी हिन्दी भाषा के प्रमुख और प्रसिद्ध लेखक थे। भारतेंदु जी से लेखक को बड़ा प्रेम
था। जब पहली बार लेखक उनके घर के सामने से गुजरे तो वह स्नेहभाव से उस घर को एकटक निहारते
रहे।
प्रश्न 10. वामनाचार्यगिरि कौन थे? और उनकी चौधरी साहब से क्या बात
हुई?
उत्तर
: वामनाचार्यगिरि, मिर्जापुर में पुरानी परिपाटी के बहुत ही प्रतिभाशाली कवि थे। एक
दिन वे सड़क पर चौधरी साहब के ऊपर एक कविता जोड़ते चले जा रहे थे। अंतिम चरण रह गया
था कि चौधरी साहब अपने बरामदे में कंधों पर बाल छिटकाए खंभे के सहारे खड़े दिखाई पड़े।
वामनजी ने चौधरी साहब को नीचे से अपनी कविता के जरिये ललकारा- "खंभा टेकि खड़ी
जैसे नारि मुगलाने की।"
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1. बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' की वचन भंगिमा के दो उदाहरण प्रस्तुत
कीजिए जो इस पाठ में आए हैं।
उत्तर
: बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' अपनी विलक्षण वचन भंगिमा के लिए सुविख्यात थे। बात करने
का उनका ढंग इतना निराला होता था कि नौकरों के साथ संवाद भी सुनने लायक होता था। अगर
किसी नौकर से गिलास गिरता तो वे तुरंत कहते-"कारे बचा त नाही" अर्थात् क्यों
रे, बचा तो नहीं, टूट गया ? इसी प्रकार जब एक पंडित जी उनके पास आए और बोले आज एकादशी
का व्रत है कुछ जल खाया है तो आपने कहाकेवल जल ही खाया है या फलाहार भी पिया है।"
ये दोनों उदाहरण प्रेमघन जी की विलक्षण वचन भंगिमा को व्यक्त करते हैं।
प्रश्न 2. बदरीनारायण चौधरी के स्वभाव की तीन विशेषताएँ बताइए जो इस
पाठ से सामने आती हैं ?
उत्तर
: चौधरी जी के स्वभाव की तीन विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -
1.
बदरीनारायण चौधरी एक हिन्दुस्तानी रईस थे अतः रईसी तबियत और रियासत उनकी हर अदा से
व्यक्त होती थी। वे इतने आरामतलब और नौकरों पर निर्भर रहने वाले व्यक्ति थे कि जलती
भकभकाती लैम्प की बत्ती को स्वयं कम कर देने की जगह नौकरों को आवाज देते थे, भले ही
चिमनी टूट क्यों न जाए।
2.
वे काव्य प्रेमी, रसिक स्वभाव के, बन-ठन कर रहने वाले व्यक्ति थे।
3.
अपनी दृढ़ मान्यताओं के लिए भी वे जाने जाते थे। नागरी को लिपि न मानकर भाषा मानते
थे और मिर्जापुर को मीरजापुर लिखते तथा उसका अर्थ करते मीर = समुद्र, जा = पुत्री अंत:
मीरजापुर = समुद्र की पुत्री (लक्ष्मी) का पुर = लक्ष्मीपुर।
प्रश्न 3. चौधरी बदरीनारायण की वाग्विदग्धता की विलक्षण वक्रता एवं
वचन-भगिमा पर प्रकाश डालने हेतु पाठ में आए किसी प्रसंग को उद्धृत कीजिए।
उत्तर
: चौधरी बदरीनारायण विलक्षण वचन-भंगिमा के लिए जाने जाते थे। नौकरों तक के साथ उनका
संवाद सुनने लायक होता था। अगर किसी नौकर के हाथ से कोई गिलास गिर गया तो वे तुरन्त
कहते-"कारे बचा त नाहीं।" इसी . प्रकार एक पंडित जी ने जब एकादशी व्रत पर
कहा कि आज तो केवल जल खाया है तो उन्होंने तुरंत कहा- "केवल जल खाया है, फलाहार
नहीं पिया।"
एक
बार गर्मी के दिनों में सत के समय वे छत पर बैठे गपशप कर रहे थे, पास में जल रहे लैम्प
की बत्ती भकभकाने लगी। चौधरी साहब ने लैम्प की बत्ती स्वयं न कम करके नौकरों को आवाज
दी.-"जब फूट जाई तबै चलत आवह।" तब तक चिमनी फूटकर चकनाचूर हो गई थी।
साहित्यिक परिचय का प्रश्न
प्रश्न : आचार्य रामचंद्र शुक्ल का साहित्यिक परिचय लिखिए।
उत्तर
: साहित्यिक परिचय-आचार्य रामचंद्र शुक्ल उच्चकोटि के आलोचक, निबंधकार, साहित्य-चिंतक
एवं इतिहास लेखक के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने अपने मौलिक लेखन, संपादन, अनुवादों
से हिन्दी साहित्य में पर्याप्त वृद्धि की। भाषा आचार्य शुक्ल ने संस्कृत तत्सम शब्दावली
युक्त तथा मुहावरेदार परिष्कृत खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग किया है। आवश्यकतानुसार
वे अपनी भाषा में अंग्रेजी और फारसी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग भी करते हैं।
शैली
- शुक्ल जी की गद्य शैली विवेचनात्मक है जिसमें विचार-प्रधानता, सूक्ष्म तर्क योजना,
सदृश्यता, व्यंग्य-विनोद का भी योगदान है। विषय के अनुसार वे कभी व्याख्यात्मक शैली
का, कभी आलोचनात्मक शैली का तो कभी हास्य-व्यंग्य प्रधान शैली का प्रयोग करते हैं।प्रमुख
कृतियाँ चिन्तामणि, रस मीमांसा (निबन्ध), हिन्दी साहित्य का इतिहास (इतिहास), तुलसीदास,
सूरदास त्रिवेणी (समालोचना), जायसी ग्रंथावली, भ्रमरगीत सार, हिन्दी शब्द सागर, काशी
नागरी प्रचारिणी पत्रिका, आनन्द एवं कादम्बिनी पत्रिका (सम्पादन), ग्यारह वर्ष का समय
(कहानी), अभिमन्यु वध, बुद्धचरित (काव्य ग्रंथ)।
प्रेमघन की छाया-स्मृति (सारांश)
लेखक परिचय
जन्म सन्
1884 ई.। स्थान - ग्राम अगौना, जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश। पिता-चन्द्रवली शुक्ल। शिक्षा-इण्टरमीडिएट
तक। बाद में स्वाध्याय द्वारा संस्कृत, अंग्रेजी, बांगला और हिन्दी भाषाओं का ज्ञानार्जन।
नागरी प्रचारिणी सभा काशी में "हिन्दी शब्द सागर' के निर्माण में बाबू श्यामसुन्दर
दास के सहायक। काशी विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे। सन् 1941 ई. में
निधन।
साहित्यिक
परिचय - आचार्य रामचंद्र शुक्ल उच्चकोटि के आलोचक, निबंधकार, साहित्य-चिंतक
एवं इतिहास लेखक के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने अपने मौलिक लेखन, संपादन, अनुवादों
से हिन्दी साहित्य में पर्याप्त वृद्धि की। आपने सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों
प्रकार की आलोचनाएँ लिखी तथा "हिन्दी साहित्य का इतिहास' नामक ग्रंथ लिखकर इतिहास
लेखन को नई दिशा प्रदान की। आपके निबन्ध, हिंन्दी निबंध साहित्य में सर्वश्रेष्ठ निबंधों
में गिने जाते हैं।
भाषा
- आचार्य शुक्ल ने संस्कृत तत्सम शब्दावली युक्त तथा मुहावरेदार परिष्कृत खड़ी बोली
हिन्दी का प्रयोग किया है। आवश्यकतानुसार वे अपनी भाषा में अंग्रेजी और फारसी के प्रचलित
शब्दों का प्रयोग भी करते हैं। वाक्य विन्यास सुगठित है तथा शब्द चयन अत्यन्त प्रभावशाली
है। भाषा में कहीं-कहीं लाक्षणिकता भी है।
शैली
-
शुक्ल जी की गद्य शैली विवेचनात्मक है जिसमें विचार-प्रधानता, सूक्ष्म तर्क योजना,
सदृश्यता, व्यंग्य-विनोद का भी योगदान है। विषय के अनुसार वे कभी व्याख्यात्मक शैली
का. कभी आलोचनात्मक शैल प्रधान शैली का प्रयोग करते हैं।
कृतियाँ
-
चिन्तामणि, रस मीमांसा (निबन्ध), हिन्दी साहित्य का इतिहास (इतिहास), तुलसीदास, सूरदास
त्रिवेणी (समालोचना), जायंसी ग्रंथावली, भ्रमरगीत सार, हिन्दी शब्द सागर, काशी नागरी
प्रचारिणी पत्रिका, आनन्द एवं कादम्बिनी पत्रिका (सम्पादन), ग्यारह वर्ष का समय (कहानी),
अभिमन्यु वध, बुद्धचरित (काव्य ग्रंथ), मेगस्थनीज का भारतवर्ष का विवरण, आदर्श जीवन,
विश्व प्रबंध, कल्याण का आनंद (विविध)।
पाठ सारांश
रामचन्द्र
शुक्ल का परिचय बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन से मिर्जापुर में बचपन में ही हो गया था।
धीरे-धीरे शुक्ल जी का उम्र के साथ यह परिचय भी बढ़ता गया। चौधरी साहब भारतेन्दु जी
के मित्र थे। उनकी बातें विलक्षण वक्रता से युक्त होती थी। वह पुराने रईस थे। उनके
बाल लम्बे थे और कंधों तक लटके रहते थे। होली पर उनके यहाँ खूब नाघरंग होता था। वह
नागरी को भाषा मानते थे। वह मिर्जापुर को मीरजापुर लिखते थे। इसका अर्थ था-मीर (समुद्र)
जा (पुत्री) पुर (नगर) अर्थात् लक्ष्मी नगर।
कठिन शब्दार्थ
ज्ञाता
= जानकार।
उक्तियों
= कथनों।
रामचरितमानस
= तुलसीदास द्वारा रचित रामकथा पर आधारित महाकाव्य।
रामचंद्रिका
= केशवदास द्वारा रचित रामकथा पर आधारित महाकाव्य।
चित्ताकर्षक
= मन को लुभाने वाली।
भारतें
भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र जो हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे।
बदली
= स्थानांतरण (ट्रांसफर)।
अवस्था
= उम्र।
अपूर्व
= अनोखी।
बाल-बुद्धि
= बालक बुद्धि (भोलापन)।
माधुर्य
= मधुरता।
भारतेंदु
मंडल = भारतेंदु जी के साथ के साहित्यकारों की मंडली।
स्मृति
= याद।
उत्कंठा
= लालसा (इच्छा)।
अगुआ
= अग्रणी।
सघन
= घनी।
आवृत
= घिरा हुआ।
लता-प्रतान
= लताओं का घेरा।
ओझल
= छिप जाना।
झाँकी
= दर्शन।
सयाना
= उम्र बढ़ना (चतुर)।
झुकाव
= आकर्षण।
चाह
= इच्छा।
कुतूहल
= जिज्ञासा।
भावनाओं
में लीन होकर = भावों में खोकर।
परिणत
= बदल जाना।
समवयस्क
= समान अवस्था वाले।
खासी
मंडली = अच्छी संख्या में साथी।
मुख्तार
= सर्वाधिकार प्राप्त व्यक्ति।
कचहरी
न्यायालय (कोर्ट)।
अमलों
= कर्मचारियों (बाबुओं)।
वाकिफ
= परिचित (जानकार)।
पुरातत्व
= जिसका सम्बन्ध पुरानी वस्तुओं से हो वह विषय।
रईस
= सम्पन्न व्यक्ति, अमीर।
अदा
= भाव भंगिमा।
तबीयतदारी
= उच्च भावना (रईसी)।
तश्तरी
= प्लेट।
विलक्षण
वक्रता = अनोखी वचन भंगिमा।
संवाद
= बातचीत।
"कारे
बचा त नाहीं" = क्यों रे (टूटने से) बच तो नहीं गया।
अकसर
= प्रायः।
बनाया
करते थे = मूर्ख बनाते।
परिपाटी
= शैली, परम्परा।
प्रतिभाशाली
= होशियार (बुद्धिमान)।
कवित्त
= छंद।
ललकारा
= जोर से ऊँचे स्वर में सुनाया।
"खंभा
टेकि खड़ी जैसे नारि मुगलाने की" = जैसे कोई मुगल नारी बाल खोले खंभे का सहारा
लेकर खड़ी हो।
विनोदपूर्ण
= मनोरंजक।
वृत्तांत
= विवरण।
भभकने
लगी = लैम्प की बत्ती पूरी लौ से जलने लगी।
"अरे!
जब फूट जाई तबै चलत आवह" = अरे जब शीशा फूट जाए तभी चलकर आना।
चिमनी
= लैम्प का शीशा।
अपभ्रंश
= म यकालीन भारतीय आर्यभाषा जिससे हिन्दी एवं अन्य आधुनिक आर्य-भाषाओं का विकास हुआ।
शिष्ट
= सभ्य।
मीरजापुर
= मीर + जा + पुर अर्थात् समुद्र की पुत्री (लक्ष्मी) का नगर।
महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ
मेरे पिताजी फारसी के अच्छे ज्ञाता और पुरानी हिन्दी कविता के बड़े
प्रेमी थे। फारसी कवियों की उक्तियों को हिन्दी कवियों की उक्तियों के साथ मिलाने में
उन्हें बड़ा आनंद आता था। वे रात को प्रायः रामचरितमानस और रामचंद्रिका, घर के सब लोगों
को एकत्र करके बड़े चित्ताकर्षक ढंग से पढ़ा करते थे। आधुनिक हिन्दी-साहित्य में भारतेंदु
जी के नाटक उन्हें बहुत प्रिय थे। उन्हें भी वे कभी-कभी सुनाया करते थे। जब उनकी बदली
हमीरपुर जिले की राठ तहसील से मिर्जापुर हुई तब मेरी अवस्था आठ वर्ष की थी।
संदर्भ
: प्रस्तुतं गद्यावतरण 'प्रेमघन की छाया-स्मृति' नामक संस्मरण से ली गई हैं जिसके लेखक
आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं। यह पाठ हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा भाग-2' में संकलित है।
प्रसंग
- शुक्ल जी के पिता सरकारी कर्मचारी थे। वह साहित्यिक रुचि के व्यक्ति थे। उन्होंने
अपने पिता की इसी प्रवृत्ति का उल्लेख इस अवतरण में किया है।
व्याख्या
-
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने पिता के बारे में बताते हुए कहा है कि वे फारसी के अच्छे
ज्ञाता थे और हिन्दी की पुरानी कविता के बड़े प्रेमी थे। हिन्दी कवियों की उक्तियों
को फारसी कवियों की उक्तियों के साथ तुलना करने और मिलाने में उन्हें बड़ा आनंद आता
था। यही नहीं अपितु वे घर के सब लोगों को एकत्र कर रात को प्रायः रामचरितमानस (तुलसीदास
द्वारा रचित) और रामचंद्रिका (केशवदास द्वारा रचित) सुनाया करते थे।
उनका
पढ़ने का ढंग बहुत आकर्षक होता था। आधुनिक हिन्दी साहित्य में उन्हें भारतेंदु बाबू
हरिश्चंद्र के नाटक बहुत प्रिय थे। उन नाटकों को भी वे कभी-कभी सुनाते थे। उनके पिताजी
सरकारी सेवा में थे तथा उनका स्थानांतरण होता रहता था। जब उनका तबादला हमीरपुर जिले
की राठ तहसील से मिर्जापुर के लिए हुआ तो बालक रामचंद्र भी अपने पिता के साथ मिर्जापुर
आ गये। उस समय उनकी अवस्था मात्र आठ वर्ष की थी।
विशेष
:
शुक्ल
जी ने यहाँ अपने पिता की साहित्यिक रुचि का उल्लेख किया है।
लेखक
ने यहाँ चौधरी बदरीनारायण प्रेमघन के संस्मरण प्रस्तुत करते हुए अपने पिता के बारे
में बताया है।
भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है।
तत्सम
शब्दों के साथ 'बदली' आदि उर्दू शब्दों का प्रयोग हुआ है।
शैली
वर्णनात्मक है।
भारतेंदु के संबंध में एक अपूर्व मधुर भावना मेरे मन में जगी रहती थी।
'सत्य हरिश्चंद्र' नाटक के नायक राजा हरिश्चंद्र और कवि हरिश्चंद्र में मेरी बाल-बुद्धि
कोई भेद नहीं कर पाती थी। 'हरिश्चंद्र' शब्द से दोनों की एक मिली-जुली भावना एक अपूर्व
माधुर्य का संचार मेरे मन में करती थी। मिर्जापुर आने पर कुछ दिनों में सुनाई पड़ने
लगा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र के एक मित्र यहाँ रहते हैं, जो हिन्दी के एक प्रसिद्ध कवि
हैं और जिनका नाम है उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी।
संदर्भ
: प्रस्तुत गद्यावतरण आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखे गए संस्मरणात्मक निबन्ध 'प्रेमघन
की छाया-स्मृति' से लिया गया है जिसे हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा-भाग 2' में संकलित
किया गया है।
प्रसंग
: बचपन में शुक्ल जी भ तेंदु हरिश्चंद्र और सत्यवादी हरिश्चंद्र नाटक के नायक हरिश्चंद्र
में कोई भेद नहीं कर पाते थे। मिर्जापुर आने पर उन्हें पता चला कि भारतेंदु के एक मित्र
बदरीनारायण चौधरी मिर्जापुर में रहते हैं जो एक प्रसिद्ध कवि हैं।
व्याख्या
: रामचंद्र शुक्ल के पिताजी पुरानी हिन्दी कविता के विशेष प्रेमी थे। साथ ही उन्हें
भारतेंदु के नाटक विशेष प्रिय थे। बचपन से ही शुक्ल जी के मन में भारतेंदु हरिश्चंद्र
के संबंध में मधुर भावना जागृत रहती थी। उनकी बाल-बुद्धि भारतेंदु हरिश्चंद्र और सत्यवादी
राजा हरिश्चंद्र में कोई भेद नहीं कर पाती थी। हरिश्चंद्र शब्द से उनके मन में दोनों
की मिली-जुली छवि उभरती थी। उन्हें लगता था कि भारतेंदु हरिश्चंद्र और सत्यवादी हरिश्चंद्र
नाटक के नायक 'हरिश्चंद्र' एक ही हैं उनमें कोई अन्तर नहीं है।
मिर्जापुर
में जब पिताजी के साथ रामचंद्र शुक्ल रहने लगे तो उन्हें पता चला कि वहाँ भारतेंदुजी
के परममित्र उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' जी भी रहते हैं जो हिन्दी के एक प्रसिद्ध
कवि हैं तो उन्हें देखने की इच्छा उनके मन में जागृत हुई।
विशेष
:
प्रेमघन
की छाया-स्मृति', 'संस्मरण' नामक गद्य-विधा पर आधारित रचना है।
शुक्ल
जी के मन में बचपन से ही हिन्दी साहित्य के प्रति प्रेम था और वे भारतेंदु के प्रति
मधुर भाव (आदर भाव) रखते थे।
भाषा-भाषा
शुद्ध परिनिष्ठित खड़ी बोली हिन्दी है। तत्सम शब्दों का प्रयोग है।
शैली-विवरणात्मक
एवं संस्मरणात्मक शैली का प्रयोग है।
भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र और सत्यवादी हरिश्चन्द्र को बचपन में भ्रमवश एक ही व्यक्ति समझते थे।
पत्थर के एक बड़े मकान के सामने हम लोग जा खड़े हुए। नीचे का बरामदा
खाली था। ऊपर का बरामदा सघन लताओं के जाल से आवृत था। बीच-बीच में खंभे और खाली जगह
दिखाई पड़ती थी। उसी ओर देखने के लिए मुझसे कहा गया। कोई दिखाई न पड़ा। सड़क पर कई
चक्कर लगे। कुछ देर पीछे एक लड़के ने उँगली से ऊपर की ओर इशारा किया। लता-प्रतान के
बीच एक मूर्ति खड़ी दिखाई पड़ी। दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे। एक हाथ खंभे पर था।
देखते ही देखते यह मूर्ति दृष्टि से ओझल हो गई।
संदर्भ
: प्रस्तुत गद्यावतरण हिन्दी के मूर्द्धन्य निबंधकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा
लिखे गए संस्मरणात्मक निबन्ध 'प्रेमघन की छाया-स्मृति' से लिया गया है। यह निबन्ध हमारी
पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा-भाग-2' में संकलित है।
प्रसंग
: शुक्ल जी के पिताजी का तबादला मिर्जापुर हो जाने पर वे अपने पिता के साथं मिर्जापुर
रहने लगे। कुछ दिनों बाद उन्हें पता चला कि यहाँ हिन्दी के एक प्रसिद्ध कवि उपाध्याय
बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' जी रहते हैं जो भारतेंदु के मित्र हैं। उनके दर्शन की तीव्र
उत्कंठा शुक्ल जी को उनके मकान तक ले गयी।
व्याख्या
: शुक्ल जी लिखते हैं कि जो लड़के हमारी मित्रमंडली में थे उनमें से कुछ ने चौधरी बदरीनारायण
'प्रेमघन' का मकान देखा था अतः उन्हें अगुआ बनाकर हम उनके मकान की ओर चल पड़े। कुछ
ही देर में हम पत्थर के एक बड़े मकान के सामने सड़क पर खड़े थे। नीचे का बरामदा खाली
था पर ऊपर का बरामदा सघन लताओं से घिरा था। बीच-बीच में खंभे और खुली जगह थी। हमें
उधर ही देखने को कहा गया पर कोई दिखाई न पड़ा अतः हम लोग सड़क पर चक्कर।
लगाने
लगे। थोड़ी देर बाद एक लड़के ने उँगली से ऊपर की ओर इशारा किया और हमने देखा कि लताओं
के बीच एक मूर्ति (व्यक्ति) खड़ी थी जिसका एक हाथ बरामदे के खंभे पर था और उसके बड़े-बड़े
बाल कंधों पर बिखरे हुए थे। यही प्रेमघन जी थे जिनका पहला दर्शन सड़क से हम लोगों ने
किया था। थोड़ी देर बाद ही वह आकृति दिखाई देना बन्द हो गई। प्रेमघन जी वहाँ से हट
गये थे।
विशेष
:
बचपन
में रामचन्द्र शुक्ल के मन में चौधरी बदरीनारायण 'प्रेमघन' के दर्शन की जो प्रबल इच्छा
थी, उसका वर्णन यहाँ किया गया है।
बदरीनारायण
चौधरी एक पुराने रईस थे अतः उनका ठाठ-बाट, रहन-सहन, वेशभूषा भी रईसों जैसे ही थे।
भाषा-साहित्यिक
खड़ी बोली हिन्दी भाषा का प्रयोग इस अवतरण में किया गया है।
शैली
लेखक ने वर्णनात्मक तथा संस्मरणात्मक शैली का प्रयोग किया है।
लेखक
ने अपने विचारों के अनुरूप तत्सम तथा अन्य शब्दों का चयन किया है।
ज्यों-ज्यों मैं सयाना होता गया, त्यों-त्यों हिन्दी के नूतन साहित्य
की ओर मेरा झुकाव बढ़ता गया। क्वीन्स कालेज में पढ़ते समय स्वर्गीय बाबू रामकृष्ण वर्मा
मेरे पिताजी के सहपाठियों में थे। भारत जीवन प्रेस की पुस्तकें प्रायः मेरे यहाँ आया
करती थीं पर अब पिताजी उन पुस्तकों को छिपाकर रखने लगे। उन्हें डर हुआ कि कहीं मेरा
चित्त स्कूल की पढ़ाई से हट न जाए, मैं बिगड़ न जाऊँ। उन्हीं दिनों पण्डित केदारनाथ
जी पाठक ने एक हिन्दी पुस्तकालय खोला था। मैं वहाँ से पुस्तकें ला-लाकर पढ़ा करता।
संदर्भ
:
प्रस्तत गद्यावतरण 'प्रेमघन की छाया-स्मति' नामक संस्मरणात्मक निबंध से लिया गया है
जिसके लेखक आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं। यह पाठ हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा भाग-2' में
संकलित है।
प्रसंग
: इंस अवतरण में शुक्ल जी ने अपने बारे में यह बताया है कि मिर्जापुर आने पर साहित्य
की ओर उनका झुकाव बढ़ता गया, साथ ही किताबों से उन्हें स्वाभाविक प्रेम होता गया। वह
पण्डित केदारनाथ पाठक के हिन्दी पुस्तकालय से किताबें लाकर पढ़ा करते थे।
व्याख्या
:
मिर्जापुर आने पर शुक्ल जी को पता चला कि यहाँ चौधरी बदरीनारायण उपाध्याय का भी निवास
है जो भारतेंदु जी के मित्र और हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार हैं। उन्हें देखने की लालसा
स्वाभाविक ही थी, साथ ही हिन्दी के नूतन साहित्य की ओर झुकाव भी बढ़ रहा था। भारत जीवन
प्रेस की किताबें उनके घर में आती रहती थीं क्योंकि इसके संचालक बाबू रामकृष्ण वर्मा
उनके पिताजी के पुराने सहपाठी थे। वे दोनों क्वीन्स कालेज में साथ-साथ पढ़े थे।
जैसे-जैसे
शुक्ल जी बड़े होते गए पुस्तकों के प्रति उनका प्रेम बढ़ता गया किन्तु अब उनके पिताजी
को यह आशंका सता रही थी कि इन दूसरी पुस्तकों को पढ़ते रहने से कहीं उनके बेटे का मन
स्कूल की पढ़ाई से न हट जाये। इसलिए वे उन पुस्तकों को छिपाकर रखने लगे। उन्हीं दिनों
मिर्जापुर में पण्डित केदारनाथ पाठक ने एक हिन्दी पुस्तकालय खोला था। रामचंद्र शुक्ल
की रुचि पुस्तकें पढ़ने के प्रति थी अतः वे उनके पुस्तकालय से किताबें ला-लाकर पढ़ने
लगे।
विशेष
:
शुक्ल
जी की रुचि पुस्तकों की ओर कैसे बढ़ी इसका विवरण दिया गया है।
अभिभावक
स्कूल की किताबें पढ़ने पर जोर देते हैं, इस प्रवृत्ति का परिचय यहाँ मिलता है।
भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है।
लेखक
ने वर्णित विषय के अनुरूप ही शब्दों का चयन किया है।
शैली
वर्णनात्मक तथा संस्मरणात्मक है।
हिन्दी के नए पुराने लेखकों की चर्चा बराबर इस मंडली में रहा करती थी।
मैं भी अब अपने.को एक लेखक मान्ने लगा था। हम लोगों की बातचीत प्रायः लिखने-पढ़ने की
हिन्दी में हुआ करती थी जिसमें निस्संदेह' इत्यादि शब्द आया करते थे। जिस स्थान पर
मैं रहता था, वहाँ अधिकतर वकील, मुख्तारों तथा कचहरी के अफसरों और अमलों की बस्ती थी।
ऐसे लोगों के उर्दू कानों में हम लोगों की बोली कुछ अनोखी लगती थी। इसी से उन्होंने
हम लोगों का नाम निस्संदेह' लोग रख छोड़ा था।
संदर्भ
: प्रेमघन की छाया-स्मृति' नामक पाठ से लिए गए गद्यावतरण के लेखक आचार्य रामचंद्र शुक्ल
हैं। यह संस्मरणात्मक निबंध हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा भाग-2' में संकलित है।
प्रसंग
: मिर्जापुर में शुक्ल जी 16 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते अपने हमउम्र हिन्दी
प्रेमियों की मंडली से जुड़ गए जिसमें हिन्दी के नए-पुराने लेखकों की चर्चा शुद्ध
(परिनिष्ठित) हिन्दी में हुआ करती और ये लोग 'निस्संदेह' जैसे शब्दों का प्रयोग बहस
में करते थे। उर्दू प्रेमी लोगों को उनके ये शब्द बहुत खटकते थे इसीलिए उन्होंने व्यंग्य
से इन लोगों का नाम 'निस्संदेह लोग' रख दिया था।
व्याख्या
- शुक्ल जी ने अपने जिन समवयस्क मित्रों की हिन्दी प्रेम: मंडली का उल्लेख किया है
उसमें काशीप्रसाद जायसवाल, भगवानदास जी हालना, पण्डित बदरीनाथ गौड़ और उमाशंकर द्विवेदी
प्रमुख थे। इस मंडली में प्रायः हिन्दी के नये-पुराने लेखकों की चर्चा होती रहती थी
और बहस करते समय ये लोग शुद्ध, परिनिष्ठित खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग करते थे जिसमें
'निस्संदेह' जैसे शुद्ध शब्दों का आना स्वाभाविक ही था।
शुक्ल
जी जिस मोहल्ले में रहते थे वहाँ अधिकतर कचहरी के बाबू, वकील, मुख्तार और सरकारी कर्मचारी
रहते थे जिनका वास्ता उर्दू से अधिक पड़ता था। उनके कान उर्दू सुनने के अभ्यस्त थे।
उनके कानों में जब इनके शुद्ध हिन्दी के 'निस्संदेह' जैसे शब्द सुनाई पड़ते तो उन्हें
बड़ा अजीब लगता। इसीलिए व्यंग्य में उन्होंने इन लोगों का नाम ही 'निस्संदेह लोग' रख
दिया था।
विशेष
:
शुक्ल
जी ने अपने हिन्दी प्रेमी मित्रों का उल्लेख करने के साथ-साथ यह भी बताया है कि इस
मंडली के लोग शुद्ध हिन्दी बोलते थे।
शुक्ल
जी के आसपास का माहौल उर्दू बोली वालों का था इसलिए उन लोगों को हिन्दी शब्द अखरते
थे।
भाषा
सरल-सहज और प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है।
तत्सम
शब्दों के साथ उर्दू के शब्दों का प्रयोग भी हुआ है।
शैली
संस्मरणात्मक है।
चौधरी साहब एक खासे हिन्दुस्तानी रईस थे। वसंत पंचमी, होली इत्यादि
अवसरों पर उनके यहाँ खूब नाचरंग और उत्सव हुआ करते थे। उनकी हर एक अदा से रियासत और
तबीयतदारी टपकती थी। कंधों तक बाल लटक रहे हैं। आप इधर से उधर टहल रहे हैं। एक छोटा-सा
लड़का पान की तश्तरी लिए पीछे-पीछे लगा हुआ है। बात की काँट-छाँट का क्या कहना है
! जो बातें उनके मुंह से निकलती थीं, उनमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी। उनकी बातचीत
का ढंग उनके लेखों के ढंग से एकदम निराला होता था। नौकरों तक के साथ उनका संवाद सुनने
लायक होता था।
संदर्भ
: प्रस्तुत गद्यावतरण आचार्य रामचंद्र शक्ल द्वारा लिखे गए संस्मरणात्मक निबंध 'प्रेमघन
की छाया स्मति' से लिया गया है। इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा भाग-2' में संकलित किया
गया है। प्रसंग चौधरी बदरीनारायण 'प्रेमघन' जी संपन्न परिवार से थे। उनके रहन-सहन तथा
बोलचाल से उनकी रईसी का पता चलता था।
व्याख्या
: उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' जी एक अच्छे-खासे हिन्दुस्तानी रईस थे अत: उनमें
वे सब . विशेषताएँ होनी स्वाभाविक थीं जो तत्कालीन रईसों (धनी-मानी व्यक्तियों) में
पाई जाती थीं। वसंत पंचमी और होली के अवसर पर उनके यहाँ नाच-रंग की महफिलें सजी और
पर्याप्त खर्च करके मनोरंजन किया जाता था। उनकी हर भाव भंगिमा से उनकी रईसी आदतें व्यक्त
होती थीं। वे तबियत से खर्च करते और लोगों के साथ महफिलों का लुत्फ (आनंद) उठाते थे।
उनकी
सज-धज भी आकर्षक होती थी। बड़े-बड़े बाल जो कंधों पर लटकते रहते उन्हें अलग पहचान देते
थे। जब कभी वे बरामदे में इधर से उधर चहलकदमी कर रहे होते तो एक लड़का पान की तश्तरी
लिए उनके पीछे-पीछे चलता। कब बाबू साहब को पाने की तलब लगे और वह तश्तरी उनके सामने
पेश करे। बातचीत करने में वे बड़े विदग्ध (चतुर) थे और ऐसी बातें करते कि लोग मुग्ध
हो जाते। उनकी वचन वक्रता विलक्षण थी। उनकी बातचीत का ढंग उनके लेखों के ढंग से नितांत
भिन्न था। नौकरों से भी वे जो बातें करते वे सुनने लायक होती थीं। अगर किसी नौकर से
कोई गिलास गिरा तो उनके मुंह से निकलता "कारे बचा त नाही" अर्थात् क्यों
रे फूटने से बचा तो नहीं।
विशेष
:
इन
पंक्तियों में लेखक ने भारतेंदु युग के प्रमुख साहित्यकार बदरीनारायण चौधरी की जीवन-शैली
का परिचय दिया है।
शुक्ल
जी ने प्रेमघन जी से जुड़ी स्मृतियों को आधार बनाकर यह संस्मरण लिखा है।
बदरीनारायण
चौधरी की रईसी तबियत एवं वचन भंगिमा की विलक्षण वक्रता पर यहाँ प्रकाश डाला गया है।
भाषा-भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है।
शैली-संस्मरणात्मक
शैली के साथ-साथ विवरणात्मक शैली यहाँ प्रमुख है।
कई आदमी गरमी के दिनों में छत पर बैठे चौधरी साहब से बातचीत कर रहे
थे। चौधरी साहब के पास ही एक लैम्प जल रहा था। लैम्प की बत्ती एक बार भभकने लगी। चौधरी
साहब नौकरों को आवाज देने लगे। मैंने चाहा कि बढ़कर बत्ती नीचे गिरा दें, पर लक्ष्मीनारायण
ने तमाशा देखने के विचार से मुझे धीरे से रोक लिया। चौधरी साहब कहते जा रहे हैं,
"अरे ! जब फूट जाई तबै चलत आवह।" अंत में चिमनी ग्लोब के सहित चकनाचूर हो
गई, पर चौधरी साहब का हाथ लैम्प की तरफ न बढ़ा।
संदर्भ
: प्रस्तुत गद्यावतरण 'प्रेमघन की छाया-स्मृति' नामकं संस्मरणात्मक निबन्ध से से लिया
गया है। इस निबंध के लेखक हैं-आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा
भाग-2' में संकलित किया गया है।
प्रसंग
: चौधरी बदरीनारायण 'प्रेमघन' जी एक हिन्दुस्तानी रईस थे तथा भारतेंदु मण्डल के साहित्यकार
थे। उनकी तबियत में रईसी कूट-कूट कर भरी थी। जलती-भभकती लैम्प की बत्ती को कम करने
के लिए भी वे नौकरों को बुलाते थे। स्वयं हाथ से बत्ती कम कर देने में उनकी हेठी होती
थी, यही इस अवतरण में शुक्ल जी ने बताया है।
व्याख्या
: एक दिन गरमी के दिनों में कई लोगों के साथ रात को छत पर बैठे चौधरी साहब बातचीत कर
रहे थे, पास ही एक लैम्प जल रहा था। अचानक लैम्प की बत्ती भकभकाने लगी। शुक्ल जी भी
अपने कई मित्रों के साथ वहीं उपस्थित थे। उन्होंने भकभकाती बत्ती को कम करने के लिए
हाथ आगे बढ़ाया पर उनके मित्र लक्ष्मीनारायण ने आगे का तमाशा देखने के उद्देश्य से
उन्हें रोक लिया।
चौधरी
साहब लैम्प ठीक करने के लिए नौकरों को आवाज देने लगे पर जब नौकर के आने में कुछ विलम्ब
हुआ तब चौधरी साहब कहने लगे."अरे ! जब फूट जाई तबै चलत आवह" अर्थात् जब लैम्प
फूट जाएगी तभी आओगे क्या? अंत में चिमनी ग्लोबसहित चकनाचूर हो गई लेकिन चौधरी साहब
का हाथ बत्ती कम कर देने के लिए लैम्प की तरफ न बढ़ा।
विशेष
:
इस
अवतरण से यह व्यक्त हो रहा है कि चौधरी साहब की तबियत में ऐसी रईसी थी कि वे लैम्प
की बत्ती भी अपने हाथ से कम नहीं कर सकते थे। हिन्दुस्तानी रईसों की प्रवृत्ति का पता
इस अवतरण से चलता है।
लैम्प,
ग्लोब आदि अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी किया है।
मिर्जापुर
में बोली जाने वाली भोजपुरी' बोली को चौधरी साहब घर पर बोलते थे।
भाषा
- भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है।
शैली
- संस्मरणात्मक शैली का प्रयोग इस अवतरण में किया गया है।
उपाध्याय जी नागरी को भाषा मानते थे और बराबर नागरी भाषा लिखा करते
थे। उनका कहना था कि, "नागर अपभ्रंश' से जो शिष्ट लोगों की भाषा विकसित हुई, वही
नागरी कहलाई।" इसी प्रकार वे मिर्जापुर न लिखकर मीरजापुर लिखा करते थे, जिसका
अर्थ वे करते थे-लक्ष्मीपुर-मीर = समुद्र + जा = पुत्री + पुर।
संदर्भ
: प्रस्तुत गद्यावतरण आचार्य रामचंद्र शुक्ल के संस्मरणात्मक निबंध 'प्रेमघन की छाया-स्मृति'
से लिया गया है। - यह पाठ हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा भाग-2' में संकलित है।
प्रसंग
:
शुक्ल जी ने यहाँ चौधरी बदरीनारायण 'प्रेमघन' के बारे में बताया है। वे नागरी को भाषा
मानते थे और मिर्जापुर को मीरजापुर लिखा करते थे। इसका क्या कारण था, इस पर यहाँ प्रकाश
डाला गया है।
व्याख्या
: शुक्ल जी ने भारतेंदु मंडल के प्रमुख साहित्यकार उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'
से जुड़ी कुछ यादों पर अपने ढंग से प्रकाश डाला है। चौधरी साहब मिर्जापुर के एक हिन्दुस्तानी
रईस थे, उनकी अपनी धारणाएँ एवं अपनी जीवनशैली थी। वे नागरी को लिपि न मानकर नागरी भाषा
लिखते थे और कहते थे कि नागर अपभ्रंश से जो शिष्ट भाषा विकसित हुई, वही नागरी कहलाई।
इसी प्रकार वे मिर्जापुर को 'मीरजापुर' लिखते थे और इसका अर्थ इस प्रकार करते थे मीर
= समुद्र + जा = पुत्री + पुर। अतः मीरजा का अर्थ हुआ - समुद्र की पुत्री अर्थात् लक्ष्मी।
इसलिए मीरजापुर का अर्थ हुआ लक्ष्मीपुर।
विशेष
:
इस
अवतरण में लेखक ने, बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' से जुड़ी कुछ बातों पर प्रकाश डाला
है।
उपाध्याय
बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' भारतेंदु मंडल के प्रमुख साहित्यकार थे।
भाषा
- भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है।
शैली
- विवरणात्मक शैली का प्रयोग इस अवतरण में है।
विधा - यह एक संस्मरणात्मक शैली में लिखा गया 'संस्मरण' है।