
झारखण्ड
की भाषा एवं साहित्य
झारखण्ड
राज्य की भाषा एवं बोली का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। भाषा के आधार पर झारखण्ड
की भाषाओं व साहित्य को तीन वर्गों में बाँटा गया है
1.
मुण्डारी भाषा (ऑस्ट्रो-एशियाटिक) परिवार
2.
द्रविड़ भाषा (द्रविडयन) परिवार
3.
इण्डो-आर्यन भाषा परिवार
मुण्डारी भाषा परिवार
इस
भाषा परिवार के अन्तर्गत राज्य की सन्थाली, मुण्डारी, हो, करयाली, खड़िया, भूमिज,
महाली, बिरजिया, असुरी कोरबा आदि भाषाएँ आती हैं।
कुछ
प्रमुख भाषाओं का विवरण इस प्रकार है
सन्थाली
भाषा
>
राज्य में सन्थाल जनजाति द्वारा बोली जाने वाली भाषा सन्थाली कहलाती है। यह सन्थाल
परगना के सम्पूर्ण क्षेत्र में बोली जाती है ।
>
सन्थाली भाषा कुछ अन्य क्षेत्रों – बिहार, बंगाल, उड़ीसा असम और बांग्लादेश में भी
बोली जाती है।
>
सन्थाल भाषा को होड़ रोड़ अर्थात् होड़ लोगों की बोली भी कहा जाता है।
>
यह भाषा संख्या की दृष्टि से राज्य में बोली जाने वाली द्वितीय भाषा है।
>
सन्थाली भाषा राज्य में सर्वाधिक बोली जाने वाली जनजातीय भाषा है।
>
सन्थाली भाषा के लिए रघुनाथ मुर्मू द्वारा वर्ष 1941 में ओलचिकी लिपि का आविष्कार किया
गया।
>
राज्य में सन्थाली भाषा के दो स्वरूप पाए जाते हैं। प्रथम शुद्ध सन्थाली जिसमें अन्य
किसी भाषा का मिश्रण नहीं होता तथा द्वितीय मिश्रित सन्थाली इसमें मुख्यतः बांग्ला,
उड़िया, मैथिली आदि का मिश्रण मिलता है।
>
यह 42वें संविधान संशोधन, 2003 द्वारा संविधान की 8वीं अनुसूची में स्थान पाने वाली
झारखण्ड की एकमात्र क्षेत्रीय भाषा है।
सन्थाली
भाषा का साहित्य
>
सन्थाली भाषा का लोक साहित्य लोकगीत, लोक कथा एवं लोकोक्तियों में विभक्त है ।
>
इस भाषा का लोक साहित्य बहुत समृद्ध है।
>
सन्थाली लोक साहित्य में प्रकृति से सम्बन्ध, धर्म, राष्ट्रीयता, मनोविज्ञान, कर्म
ॐ जीवन आदि विषय-वस्तु मिलती हैं।
>
जे. फिलिप्स द्वारा रचित एन इण्ट्रोडक्सन टू द सन्थाल लैंग्वेज (1852) सन्थाली भाषा
में लिखी गई प्रथम पुस्तक है।
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ई. एल. पक्सुले ने 1868 ई. में प्रथम व सन्थाली शब्दकोश ‘वोकेब्युलरी ऑफ द सन्थाली
लैंग्वेज’ लिखा। ईसाई मिशनरियों द्वारा रोमन लिपि में 1887 ई. में ‘होडको रने हांपडाप
कोरेयमाक’ पुस्तक प्रकाशित की गई।
>
डोमन साहू समीर ने 1951 ई. में सर्वप्रथम देवनागरी लिपि में ‘सन्थाली प्रवेशिका’ प्रकाशित
की तथा केवल सोरेन ने ‘हिन्दी – सन्थाली कोश’ की रचना की ।
>
सन्थाली भाषा का कविता संग्रह ओनोंडहें बाहा डालवाक 1936 में प्रकाशित किया गया था।
इसमें पाल जुसार सोरेन की कविताओं का संग्रह है।
>
वर्ष 1936 के बाद प्रकाशित हुए अन्य कविता संग्रह श्री पंचानन मरांडी द्वारा लिखित
‘सेरेन्न इता’ (गीत के बीज) व ठाकुरप्रसाद लिखित ‘एभेन अडाड्’ (जागरन गान) है।
>
सन्थाली लोक कथाओं का संग्रह पी. ओ. बोंडींग ने वर्ष 1924 ई. में होड़ कहानी तथा वर्ष
1995 में ‘गाम’ कहानी प्रकाशित किया।
>
सन्थाली भाषा का पहला उपन्यास ‘हाडमवाक् आतो’ (हाड़मा गाँव) आर कारर्टेयर्स ने वर्ष
1946 में रोमन लिपि में प्रकाशित किया ।
>
सन्थाली भाषा का पहला साहित्यिक नाटक विदू- चान्दन है। इसके लेखक रघुनाथ मुर्मू हैं।
इसे वर्ष 1942 में प्रकाशित किया गया था।
>
सन्थाली भाषा के अन्य नाटकों में श्री रूपनारायण श्याम द्वारा लिखित ‘आले आतो’ (हमारा
गाँव) व बालकिशोर बासुकी द्वारा लिखित ‘आकिल आरसी’ (ज्ञान दर्पण) है।
मुण्डारी
भाषा
>
यह मुण्डा तथा हो जनजाति की भाषा है।
>
मुण्डा भाषा परिवार की यह बोली झारखण्ड के रांची, सिंहभूम, हजारीबाग, गुमला, सरायकेला-खरसावाँ
आदि क्षेत्रों में बोली जाती है।
>
अन्य क्षेत्रों में भी मुण्डारी भाषा बोली जाती है, जहाँ मुण्डा जातियाँ रहती है; जैसे
– झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडिशा पश्चिम बंगाल, असोम, अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह और
बांग्लादेश ।
>
तमाड़ क्षेत्र के आस-पास बोली जाने वाली मुण्डारी भाषा को तमड़िया मुण्डारी कहा जाता
है। मुण्डा जनजाति अपनी भाषा को ‘डोड़ो जगर’ भी कहते हैं।
>
खूँटी व मुरहु क्षेत्र के पूर्वी अंचलों में बोली जाने वाली मुण्डारी भाषा को हसद मुण्डारी
कहा जाता है।
>
राज्य के कुछ क्षेत्रों; जैसे-तोरपा, कोलेबिरा, कर्रा व बानों में नागपुरी मिश्रित
मुण्डारी भाषा बोली जाती है, जिसे नगुरी मुण्डारी भाषा कहा जाता है।
मुण्डारी
भाषा का साहित्य
>
मुण्डारी भाषा साहित्य प्रकृति, आदर्श विचार, आनन्द, दुःख, भूत-प्रेत आदि से सम्बन्धित
है। मुण्डारी साहित्य की सर्वप्रथम पुस्तक जे. सी. ह्विटली ने मुण्डारी प्राइमर
1873 में प्रकाशित की थी।
> ए. नोट्रोट की मुण्डारी भाषा की दूसरी पुस्तक ‘मुण्डारी
ग्रामर’ 1882 में प्रकाशित हुई। यह मुण्डारी भाषा की व्याकरण पर आधारित प्रथम पुस्तक
थी।
>
मुण्डारी भाषा की प्रसिद्ध पुस्तक सिंगा- बोंगा है, जिसे कथागीत के रूप में लिखा गया
है। यह जातीय परम्पराओं एवं विकास की विभिन्न अवस्थाओं पर प्रकाश डालती है।
>
जगदीश त्रिगुणायत द्वारा ‘मुण्डारी लोक कथाएँ’ नामक पुस्तक लिखी गई है।
हो
भाषा
यह
हो जनजाति द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। इस भाषा का अधिक विकास नहीं हो पाया है।
यह झारखण्ड में मुख्य रूप से कोल्हान प्रमण्डल, रांची आदि क्षेत्रों में बोली जाती
है। यह भाषा पश्चिम बंगाल तथा उड़ीसा में भी बोली जाती है। यह झारखण्ड में बोली
जाने वाली चौथी बड़ी भाषा है।
हो
भाषा का साहित्य
>
हो भाषा साहित्य का आरम्भ 19वीं सदी से माना जाता है। यह लोक कथा, लोकोक्ति, पहेली,
मुहावरों से निर्मित है।
>
हो साहित्य का प्रथम प्रकाशन 1840 ई. में द ग्रामेटिकल कंस्ट्रक्संस ऑफ द हो लैंग्वेज
प्रकाशित हुआ। द
>
हो लोकगीतों की प्रथम पुस्तक ‘फोकलोर ऑफ द कोल्हान’ है, जिसे वर्ष 1902 में सी. एच.
बोम्बास तथा एन. के बोस ने प्रकाशित किया था ।
>
हो भाषा साहित्य का महाकाव्य ‘हो दुरं’ हैं जिसे डब्ल्यू. जी. आर्चर ने लिखा था । यह
महाकाव्य देवनागरी लिपि में लिखा गया है।
>
हो भाषा साहित्य की अन्य प्रसिद्ध पुस्तकें बाँसुरी बज रही (जगदीश त्रिगुणायत), ‘रूमुल’
(सतीश कोड़ा सेंगल), हो ट्राइब ऑफ सिंहभूम (सी. पी. सिंह) आदि हैं।
खड़िया
भाषा
>
खड़िया जनजाति द्वारा बोली जाने वाली भाषा को खड़िया भाषा कहा जाता है। यह मुण्डा भाषा
की उपभाषा है। खड़िया भाषा झारखण्ड के सिंहभूम में मुख्यतः बोली जाती है।
खड़िया
भाषा का साहित्य
>
खड़िया लोक साहित्य को लोकगीत, लोक कथा, लोकोक्ति आदि में विभाजित किया जाता है। इसकी
साहित्यिक विषयवस्तु प्रकृति, ऐतिहासिक, युद्ध, जीवन-दर्शन, सामाजिक व्यवस्था आदि से
सम्बन्धित है।
>
खड़िया साहित्य का आरम्भ 1866 ई. से माना जाता है। जी. सी. बनर्जी ने 1894 ई. में
‘इण्ट्रोडक्शन टू द खड़िया लैंग्वेज’ तथा वर्ष 1934 में ‘फ्लोर चेइसंस’ की रचना की
। ‘खड़िया शब्दकोश’ की रचना डुअर्ट ने की थी।
>
‘द खड़ियाज’ नामक रचना वर्ष 1937 ई. में एस. सी. राय ने प्रकाशित की, जिसमें लोकगीतों,
लोक कथाओं और मन्त्रों को स्थान दिया गया।
>
‘खड़िया ओलोंग’ नामक पुस्तक डब्ल्यू. सी. आर्चर ने प्रकाशित की, जिसमें लोकगीतों का
संग्रह है।
द्रविड़ भाषा परिवार
>
इस भाषा परिवार के अन्तर्गत उराँव व माल्तो (सौरिया, पहाड़ियाँ व पाल पहाड़ियाँ) भाषा
शामिल हैं। इनका विवरण इस प्रकार है
उराँव
या कुडुख भाषा
>
उराँव भाषा को कुडुख के नाम से भी जाना जाता है। यह मुख्य रूप से राज्य के पलामू, रांची,
गुमला, हजारीबाग, लोहरदगा आदि क्षेत्रों में बोली जाती है।
उराँव
(कुडुख) भाषा का साहित्य
>
उराँव भाषा साहित्य लोकगीत, लोक कथा, लोकवार्ता, पहेलियाँ, कहावत, मुहावरे में विभक्त
है ।
>
उराँव लोक साहित्य में सर्वाधिक योगदान ईसाई मिशनरियों का रहा है। ओ. फ्लैक्स ने
1874 ई. में ‘एन उराँव लैंग्वेज’ प्रकाशित की जिसमें उराँव भाषा की जानकारी मिलती है
।
>
वर्ष 1941 में धर्मदास लकड़ा, डब्ल्यू. जी. आर्चर एवं रेवाहॉन की पुस्तक ‘लील – खोरा-खेखेल’
प्रकाशित हुई, जिसमें नागपुरी एवं उराँव के गीतों का संग्रह हैं।
>
उराँव हिन्दी – इंग्लिश डिक्शनरी का प्रकाशन मिखाइल तिग्गा ने किया था ।
>
उराँव साहित्य की अन्य साहित्यक रचनाएँ हैं — खल्ली अयंग ( इन्द्रजीत उराँव), हिन्दी
कुडुख शब्दकोश (स्वर्णलता प्रसाद), कुडुख कोश ( ब्रजबिहारी कुमार), मौसपी राग (जॉन
लकड़ा), कुडुख परकला (पी.सी. बेक) आदि ।
>
उराँव भाषा का प्रसिद्ध साहित्य कुडुख दण्डी हैं। यह कुडुख भाषा के प्रसिद्ध कवि बिहारी
लकड़ा के गीतों का संग्रह है। यह पुस्तक वर्ष 1950 में प्रकाशित की गई तथा वर्ष
2005 में इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
माल्टो
यह
कुडुख भाषा का एक रूप है। इसके अन्तर्गत माल पहाड़िया, सौरिया पहाड़िया, पहाड़िया,
गोण्ड, भाग, कुमार आदि भाषाएँ आती हैं।
इण्डो-आर्यन भाषा
इस
भाषा परिवार के अन्तर्गत हिन्दी, कुडमाली, पंचपरगनिया, खोरठा, नागपुरी भाषा को
शामिल किया जाता है। इस परिवार की प्रमुख भाषाओं का विवरण इस प्रकार हैं
हिन्दी
भाषा
>
यह राज्य की पहली राज भाषा है। यह भाषा राज्य के प्रत्येक क्षेत्र में बोली जाती है।
यह भाषा राज्य में सबसे अधिक बोली जाती है।
कुड़माली
भाषा
>
यह मूल रूप से कुर्मी जाति की भाषा है। यह हजारीबाग, रांची, गिरिडीह, बोकारो, धनबाद
एवं सन्थाल परगना में बोली जाती है।
>
इसे कुर्म में आली प्रत्यय लगाकर बनाया गया है जिसे कुरमाली भाषा भी कहते हैं।
कुड़माली
भाषा का साहित्य
>
कुड़माली लोक साहित्य को दो भागों गद्य एवं पद्य में बाँटा गया है।
>
गद्य साहित्य में लोक कथा, मुहावरा, लोकोक्तियाँ और पहेलियाँ आती हैं।
>
पद्य में लोक गीत एवं उसके विविध रूप होते हैं।
>
कुड़माली साहित्य का आरम्भ मध्यकाल से माना जाता है जो लगभग 14वीं सदी है जिसमें ‘करमालिक
घंघर’ नामक पुस्तक की रचना चण्डीदास ने की थी।
>
कुड़माली भाषा के मुख्य कवि विनन्द सिंह गौराँगिया है, जिन्हें कुड़माली का सूर कहा
जाता है। उन्होंने ‘आदि झुमर संगीत’ नामक पुस्तक का संकलन किया था ।
>
कुड़माली भाषा का लोक साहित्य अति विशाल है जिसका प्रमाण उनके लोकथाओं के अध्ययन तथा
लोक परम्पराओं से मिलता है।
>
कुड़माली साहित्य की प्रमुख रचनाएँ हैं करमाली भाषा तत्त्व (खुदी राम महतो), करम गीत
(बुधु महतो), नेठा पाला (निरंजन महतो), कपिला मंगल (राजेन्द्र प्रसाद महतो), पथें चलक
लेहा नमस्कार (नन्द किशोर सिंह) आदि ।
पंचपरगनिया
भाषा
>
राज्य के पंचपरगना क्षेत्र तमाड, बुडू, राहे, *सोनाहातु व सिल्ली में प्रचलित भाषा
पंचपरगनिया या सदानी कहलाती है।
>
पंचपरगानिया भाषा नागपुर भाषा या कुरमाली भाषा का विस्तार है।
>
इस भाषा के अन्तर्गत क्षेत्र एवं परिवंश के प्रति सजगता एवं वैष्णव भक्ति का चित्रण
मिलता है।
पंचपरगनिया
भाषा का साहित्य
>
पंचपरगनिया साहित्य के अन्तर्गत लोकगीत एवं लोक कथा आती है।
>
इसमें प्रकृति, परिवेश, संस्कार संस्कृति रीति-रिवाज आदि का चित्रण मिलता है।
>
पंचपरगनिया साहित्य का श्रेष्ठ कवि विनन्द को माना जाता है।
>
पंचपरगनिया साहित्य में कबीरपन्थी धारा को उच्च स्थान कवि सोबरन ने दिलाया था।
>
पंचपरगनिया के पाँच प्रमुख कवि-विनन्द, गौराँगिया, सोबरन, बरजुराम और दीना हैं ।
>
पंचपरगनिया साहित्य के प्रमुख कवि (विपिन बिहारी), राजकिशोर सिंह, प्रेमानन्द महतो,
सृष्टिधर महतो, दुर्गा प्रसाद, ज्योतिलाल महादानी, रामकिष्टो आदि हैं।
खोरठा
भाषा
>
इसका विकास मागधी प्राकृत से हुआ है। इसका सम्बन्ध प्राचीन खरोष्ठी लिपि से है।
>
यह हजारीबाग, धनबाद, गिरिडीह, सन्थाल परगना, रांची के उत्तरी भाग तथा पलामू के उत्तरी
पूर्वी भाग में बोली जाती है।
>
इस भाषा के अन्तर्गत देसवाली, रमगढ़िया, खटाही, गोलवारी, खोट्टाही, खण्टाई आदि बोलियाँ
आती हैं।
खोरठा
भाषा का साहित्य
>
खोरठा साहित्य के अन्तर्गत लोक गीत एवं लोक कथा आती हैं। खरोठा साहित्य में राजा-रजवाड़ों
की कथाओं का इसमें अधिक विवरण मिलता है।
>
खोरठा साहित्य का आरम्भ वर्ष 1947 से पूर्व · से माना जाता है। खोरठा भाषा का शिष्ट
साहित्य व लोक साहित्य अत्यन्त समृद्ध है।
>
धनबाद के श्रीनिवास पानुरी ने खोरठा संकलनों का प्रकाशन ‘मेघदूत’ नाम से वर्ष 1950
में किया था। गजाधर महतो की पुस्तक ‘कहानी संग्रह’ के रूप में ‘पुटुस फुल’ का प्रकाशन
वर्ष 1988 में हुआ।
>
खोरठा साहित्य की अन्य प्रमुख रचनाएँ सेवाती और झिंगुर (सुकुमार), एक पथिया डांगल महुआ
( सन्तोष कुमार महतो), बोनेक बोल (रमनिका गुप्ता), सोंधमाती (विनोद कुमार), डिंडाक
डोआनी (वंशीडाल) और मुक्तिक डेहर (श्याम सुन्दर) हैं।
नागपुरी
भाषा
>
इसे नागवंशी राजाओं की मातृभाषा होने का गौरव प्राप्त था। इसे नागपुरी भाषा या सदानी
भाषा भी कहा जाता है ।
>
सदानी एवं गँवारी के नाम से बोली जाने वाली इस भाषा का विकास मागधी प्राकृत से हुआ
है। यह पूरे झारखण्ड में सम्पर्क भाषा के रूप में प्रचलित है ।
नागपुरी
भाषा का साहित्य
>
नागपुरी साहित्य लोकगीत, लोक कथा, पहेली आदि में विभक्त है। यह साहित्य नागपुरी एवं
बंग्ला का मिश्रण है।
>
नागपुरी लोक कथा, जातक कथा, कथासरितसागर, बैताल पच्चीसी, सिंहासन हितोपदेश आदि कथाओं
बत्तीसी,
पंचतन्त्र, से मिलती-जुलती है। नागपुरी भाषा का प्रथम कवि रघुनाथ नृपति को माना
जाता है।
>
नागपुरी साहित्य दो भागों सगुण भक्ति तथा निर्गुण भक्ति में विभक्त है। सगुण भक्ति
के कवि हनुमान सिंह, बरजुराम, जय गोविन्द, घासीराम कंचन आदि हैं। निर्गुण भक्ति के
कवि-सोबरन, महन्त घासी, खंगदु पलार, अर्जुन, मृत्युंजन आदि हैं।
>
आधुनिककाल के कवि प्रफुल्ल कुमार राय, शिव अवतार चौधरी, बी.पी. केसरी, रामदयाल मुण्डा,
गिरधारी राय गोंझू गिरिराज आदि हैं।
>
नागपुरी भाषा का प्रथम व्याकरण 1896 ई. में ‘नोट्स ऑन दि गँवारी डायलेक्ट ऑफ छोटानागपुरी’
ई. एच. हिव्टली ने लिखा ।
>
नागपुरी गद्य साहित्य का विकास ईसाई मिशनरियों द्वारा वर्ष 1900 के आसपास किया गया।
>
नागपुरी साहित्य की अन्य प्रमुख रचना हैंनागवंशावली ( बेनीराम महथा ), नागवंशावली
(घासीराम), सुदामाचरित्र (कंचन), नारद मोह लीला (धनीराम बक्शी), सेवा और नौकरी ( श्रवण
कुमार गोस्वामी) आदि ।
राज्य
की अन्य भाषाएँ
>
राज्य में मुण्डारी, द्रविड व इण्डो-आर्यन भाषा परिवार के अतिरिक्त अन्य भाषाएँ भोजपुरी,
मैथिली, मगही, अंगिका आदि भी बोली जाती हैं ।
>
राज्य में भोजपुरी मुख्यतः पलामू व रांची में बोली जाती है। राज्य में भोजपूरी दो वर्गों
में प्रचलित है – प्रथम आदर्श भोजपुरी (जो पलामू के कुछ क्षेत्रों में बोली जाती है)
तथा दूसरी नागपुरिया, सदरी व सदानी भोजपुरी ( जो मुख्यतः छोटानागपुर के गैर आदिवासी
क्षेत्रों में बोली जाती है)।
राज्य
के प्रमुख साहित्यकार
>
राज्य के प्रमुख साहित्यकारों का वर्णन निम्न है
पं.
रघुनाथ मुर्मू
>
रघुनाथ मुर्मू का जन्म 5 मई, 1905 को ओडिशा
के मयूरभंज जिले में जोडबुस नामक गाँव में हुआ था। उन्होंने सन्थाली लिखने के लिए ओलचिकी
लिपि का आविष्कार किया।
> इनकी प्रमुख पुस्तक बिन्दु चन्दन, दरेज जन, सिद्धू-कान्हू,
खरगोश बीर आदि हैं। उन्होंने वर्ष 1977 में आड़ग्राम के बेताकुन्दरीडाही ग्राम में
एक सन्थाली विश्वविद्यालय की स्थापना की।
>
मयूरभंज आदिवासी महासभा ने उन्हें ‘गुरु गोमके’ (महान् शिक्षक) की उपाधि प्रदान की
तथा रांची विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट से सम्मानित किया। इनका निधन 1 फरवरी,
1982 को हुआ था।
राधाकृष्ण
>
राधाकृष्ण का जन्म 8 सितम्बर, 1910 को रांची (झारखण्ड) में हुआ था।
>
ये राज्य के प्रमुख उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककार, व्यंग्यकार व कवि थे। राधाकृष्ण
ने रांची में एक समाज कल्याण विभाग की पत्रिका का सम्पादन किया ।
>
इनका सबसे चर्चित उपन्यास सपने बिकाऊ हैं, (1963) है । इनकी अन्य प्रमुख रचनाएँ रामलीला,
सजला, गेंद और गोल, रूपान्तर, गल्पिका, फुटपाथ आदि हैं।
>
इनका निधन 3 फरवरी, 1979 को हुआ था।
श्रीनिवास
पानुरी
>
श्रीनिवास पानुरी का जन्म 25 दिसम्बर, 1920 को धनबाद (झारखण्ड) में हुआ था। वे खोरठा
साहित्य के प्रसिद्ध साहित्यकार थे ।
>
उनकी रचनाओं में कविता, गीत, लघुकथा, नाटक एवं अनुवाद शामिल हैं। उनका पहला कविता संग्रह
‘बाल किरण’ 1959 में प्रकाशित हुआ था।
>
उन्होंने 1957 ई. में खोरठा भाषा में मासिक पत्रिका ‘मातृभाषा’ का प्रकाशन आरम्भ किया।
>
उन्होंने 1968 में कालिदास के ‘मेघदूत’ का अनुवाद खोरठा भाषा में किया था।
>
पानुरी का निधन 7 अक्टूबर, 1986 को हुआ था।
जगदीश
त्रिगुणायत
>
जगदीश त्रिगुणायतका जन्म देवरिया (उत्तर प्रदेश) में 1 मार्च, 1923 को हुआ था ।
>
वे 1941 में गाँधीजी और राजेन्द्र प्रसाद की प्रेरणा से खादी के प्रचार-प्रसार में
रांची चले गए। बाद में वे खूँटी हाई स्कूल में प्राध्यापक हो गए। वे मुण्डा भाषा के
प्रमुख कवि थे।
>
उनकी दो प्रमुख पुस्तकें हैं ‘बाँसुरी बज रही ‘ और ‘मुण्डा लोक कथाएँ’ हैं।
>
मुंडा जाति के इतिहास पर प्रकाश डालने वाली इनकी प्रमुख रचना ‘सोसोबोंगा’ हैं, जो मुंडा
जातियों के संघर्ष को दर्शाता है।
डोमन
साडू समीर
>
डोमन साडू समीर का जन्म झारखण्ड राज्य के गोड्डा जिले के पंदाहा नामक गाँव में 30 जून,
1924 को हुआ था।
>
ये वर्ष 1947 में होड़ सोम्बाद ( सन्थाली साप्ताहिक) के सम्पादक बने इनकी प्रमुख पुस्तकें
दिसाम बाबा, आखीर आरोम, गाँधी बाबा, मालाल सेताक, सेडाम गाते आदि हैं। ये सन्थाली एवं
हिन्दी साहित्य के प्रमुख साहित्यकार थे ।
वन्दना
टेटे
>
वन्दना टेटे का जन्म 13 सितम्बर, 1969 को सिमडेगा (झारखण्ड) में हुआ था। इन्होंने हिन्दी,
खड़िया, नागपुरी भाषा में साहित्यिक रचना की है।
>
इनकी प्रमुख रचनाएँ- पुरखा लड़ाके, किसका राज है, समरगाथा, असुर सिंरिंग, आदिम टाग
आदि हैं।
>
इन्हें आदिवासी पत्रकारिता के लिए झारखण्ड सरकार द्वारा ‘राज सम्मान 2012’ से सम्मानित
किया गया था।
अनुज
लुगुन
>
अनुज लुगुन का जन्म 10 जनवरी, 1986 को सिमडेगा (झारखण्ड) में हुआ। ये मुण्डारी भाषा
के प्रख्यात युवा साहित्यकार हैं।
>
इनकी प्रमुख कृतियाँ बाघ और सुगना मुण्डा की बेटी, गुरिल्ले का आत्मकथन, अनायास, एकलव्य
से संवाद आदि हैं।
>
उन्हें वर्ष 2011 में भारत सरकार द्वारा भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित किया
गया है।
>
वर्तमान में वे मुण्डा आदिवासी गीतों में आदिम जीवन-राग पर शोध कर रहे हैं।
डॉ.
द्वारिका प्रसाद
>
डॉ. द्वारिका प्रसाद उपन्यास के क्षेत्र में लोकप्रिय नाम है। ये एक मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार
हैं।
>
‘घर के बाहर’ उनका सबसे चर्चित उपन्यास है। डॉ. द्वारिका प्रसाद के अन्य उपन्यास- स्वंसेवक,
सर्द छाया मम्मी बिगड़ेगी, संगीता के मामा, रति, बेड़िया, अंकुश आदि है।
एलिस
एक्का
>
एलिस आदिवासी साहित्यकार माना जाता है। एलिस एक्का ने पचास के दशक में कथा लेखन का
कार्य आरम्भ किया।
>
कथाकार राधाकृष्ण के सम्पादन मेंआदिवासी’ नामक साप्ताहिक पत्रिका से एलिस एक्का का
जुड़ाव रहा था ।
>
इनकी प्रमुख पुस्तकें वनकन्या, सलगी जुगनू, अम्बा गाछ, कोयल की लाडली सुमरी आदि हैं।
>
एलिस एक्का ने आदिवासी भाषाओं के साथ-साथ नागपुरी, खोरठा आदि क्षेत्रीय भाषाओं में
पुस्तकें लिखीं।
झारखण्ड से सम्बद्ध रचनाएँ
>
झारखण्ड कैसल ओवर ग्रेव्स-विक्टर दास
>
अरणएर अधिकार-महाश्वेता देवी
>
ओलन बाहा – जोबा मुर्मु
>
इन द शैडोज ऑफ द स्टेट-अल्पा शाह