पाठ्य पुस्तक के प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. नीचे कुछ कानून दिए गए हैं। क्या इनका संबंध किसी मूल्य से
है? यदि हाँ, तो वह अन्तर्निहित मूल्य क्या है? कारण बताएँ।
(क)
पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की संपत्ति में हिस्सा होगा।
(ख)
अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के ब्रिकी-कर का सीमांकन अलग-अलग होगा।
(ग)
किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
(घ)
‘बेगार’ अथवा बँधुआ मजदूरी नहीं कराई जा सकती।
उत्तर
:
(क)
वाक्य में समानता का मूल्य छिपा है क्योंकि पारिवारिक सम्पत्ति में बेटा-बेटी को समानता
के आधार पर समान समझा गया है।
(ख)
गुण के अनुसार कीमत और उसके अनुरूप कर का ढाँचा समानता का दिग्दर्शक है।
(ग)
इस वाक्य में धर्म-निरपेक्षता के मूल्य का बोध है क्योंकि इसमें राज्य व धर्म को अलग-अलग
रखने की बात कही गई है।
(घ)
मानवीय गरिमों व मानव-मानव में ऊँच-नीच की समानता का बोध है।
प्रश्न 2. नीचे कुछ विकल्प दिए जा रहे हैं। बताएँ कि इसमें किसका इस्तेमाल
निम्नलिखित कथन को पूरा करने में नहीं किया जा सकता?
लोकतांत्रिक
देश को संविधान की जरूरत ……..।
(क)
सरकार की शक्तियों पर अंकुश रखने के लिए होती है।
(ख)
अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से सुरक्षा देने के लिए होती है।
(ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
(घ)
यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि क्षणिक आवेग में दूरगामी लक्ष्यों में कहीं विचलित
न हो जाएँ।
(ङ)
शांतिपूर्ण ढंग से सामाजिक बदलाव लाने के लिए होती है।
प्रश्न 3. संविधान सभा की बहसों को पढ़ने और समझने के बारे में नीचे
कुछ कथन दिए गए हैं-
(अ)
इनमें से कौन-सा कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहसें आज भी प्रासंगिक हैं?
कौन-सा कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं है?
(ब)
इनमें से किस पक्ष का आप समर्थन करेंगे और क्यों?
(क)
आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों के निपटारे में व्यस्त होती
है। आम जनता इन बहसों की कानूनी भाषा को नहीं समझ सकती।
(ख)
आज की स्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान बनाने के वक्त की चुनौतियों और स्थितियों से
अलग हैं। संविधान निर्माताओं के विचारों को पढ़ना और अपने नए जमाने में इस्तेमाल करना
दरअसल अतीत को वर्तमान में खींच लाना है।
(ग)
संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है।
संविधान
सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ संवैधानिक व्यवहार क्यों
महत्त्वपूर्ण हैं। एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है,
इन तर्को को न जानना संवैधानिक-व्यवहारों में सभा में हुई। वार्ता की आज भी उपयोगिता
है।
उत्तर
:
1.
(क) व (ख) वाक्यों में यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि संविधान सभा में हुई।
वार्ता व बहस की आज की परिस्थितियों के आधार पर कोई उपयोगिता नहीं है जबकि (ग) वाक्य
में संविधान सभा में हुई वार्ता की आज भी उपयोगिता है।
2.
(क) वाक्य में यह कहा गया है कि साधारण व्यक्ति संविधान में हुई बहस की भाषा को समझने
में असमर्थ है व आज किसी को भी उसमें रुचि नहीं है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी आजीविका
कमाने में लगा है।
3.
हम यह समझते हैं कि संविधान सभा में भारत की सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं पर
चर्चा हुई जिनकी उपयोगिता आज की समस्याओं के सन्दर्भ में भी है।
प्रश्न 4. निम्नलिखित प्रसंगों के आलोक में भारतीय संविधान और पश्चिमी
अवधारणा में अन्तर स्पष्ट करें-
(क)
धर्मनिरपेक्षता की समझ
(ख)
अनुच्छेद 370 और 371
(ग)
सकारात्मक कार्य-योजना या अफरमेटिव एक्शन
(घ)
सार्वभौम वयस्क मताधिकार।
उत्तर
:
(क)
भारत की धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी अवधारणा से बिल्कुल भिन्न है। पश्चिमी दृष्टिकोण का
मत है कि धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म व राज्य का पूर्णतया पृथक्करण होना चाहिए। धर्म
लोगों का व्यक्तिगत मामला होना चाहिए परन्तु भारतीय दृष्टिकोण के अनुसा राज्य धर्म
के मामले में हस्तक्षेप कर सकता है।
(ख)
अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर को विशिष्ट दर्जा देता है। अनुच्छेद 371 पूर्वी राज्यों
के विकास के बारे में है। ऐसी असमानता पश्चिमी देशों में नहीं है।
(ग)
भारत में समाज के कमजोर व पिछड़े वर्ग के लोगों के विकास के लिए आरक्षण की व्यवस्था
की गई है जिसका उद्देश्य सकारात्मक कार्य से समानता स्थापित करना है ऐसी योजनाएँ पश्चिमी
देशों में भी हैं।
(घ)
भारत और अधिकांश पश्चिमी देशों ने वयस्क मताधिकार को स्वीकार किया है।
प्रश्न 5. निम्नलिखित में धर्मनिरपेक्षता का कौन-सा सिद्धान्त भारत
के संविधान में अपनाया गया है।
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(ख)
राज्य का धर्म से नजदीकी रिश्ता है।
(ग)
राज्य धर्मों के बीच भेदभाव कर सकता है।
(घ)
राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
(ङ)
राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।
प्रश्न 6. निम्नलिखित कथनों को सुमेलित करें-
(क)
विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी |
(i)
आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि |
(ख)
संविधान-सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर
लिया जाना। |
(ii)
प्रक्रियागत उपलब्धि |
(ग)
व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना। |
(iii)
लैंगिक-न्याय की उपेक्षा |
(घ)
अनुच्छेद 370 और 371 |
(iv)
उदारवादी व्यक्तिवाद |
(ङ)
महिलाओं और बच्चों को परिवार की संपत्ति में असमान अधिकार। |
(v)
धर्म-विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना। |
उत्तर
: (क) (i), (ख) (ii), (ग) (iv), (घ) (v),
(ङ) (iii)
प्रश्न 7. यह चर्चा एक कक्षा में चल रही थी। विभिन्न तर्को को पढे और
बताएँ कि आप इनमें से किससे सहमत हैं और क्यों?
जएश
– मैं अब भी मानता हूँ कि हमारा संविधान एक उधार का दस्तावेज है।
सबा
–
क्या तुम यह कहना चाहते हो कि इसमें भारतीय कहने जैसा कुछ है ही नहीं? कया
मूल्यों
और विचारों पर हम ‘भारतीय’ अथवा ‘पश्चिमी’ जैसा लेबल चिपको सकते हैं? महिलाओं और पुरुषों
की समानता का ही मामला लो। इसमें पश्चिमी’ कहने जैसी क्या है? और, अगर ऐसा है भी तो
क्या हम इसे महज पश्चिमी होने के कारण खारिज कर
जएश
– मेरे कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ने के बाद क्या हमने
उनकी संसदीय शासन की व्यवस्था नहीं अपनाई?
नेहा
– तुम यह भूल जाते हो कि जब हम अंग्रेजों से लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ
थे। अब इस बात का, शासन की जो व्यवस्था हम चाहते हैं उसको अपनाने में कोई लेना-देना
नहीं, चाहे यह जहाँ से भी आई हो।
उत्तर
: उपर्युक्त वाक्यों में प्रस्तुत जएश व नेह्य के मध्य के विचार-विमर्श का अध्ययन करने
के उपरान्त यह कहा जा सकता है कि दोनों ही ठीक हैं। जएश का कथन यही है कि हमारा संविधान
उधार का दस्तावेज है क्योंकि हमने अनेक बातें विदेशी संविधानों से ली थीं। सबा का कथन
भी सही है कि भारतीय संविधान में सभी कुछ विदेशी नहीं है। इसमें हमारी प्रथाओं, परम्पराओं
व इतिहास का प्रभाव है।
प्रश्न 8. ऐसा क्यों कहा जाता है कि भारतीय संविधान को बनाने की प्रक्रिया
प्रतिनिधिमूलक नहीं थी? क्या इस कारण हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं रह जाता?
अपने उत्तर के कारण बताएँ।
उत्तर
: भारतीय संविधान सभा के विषय में कहा जाता है कि भारतीय संविधान सभा प्रतिनिधिमूलक
नहीं थी। यह कथन कुछ सीमा तक उचित है क्योंकि इसका चुनाव प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया
गया था। यह सन् 1946 के चुनाव पर गठित विधानसभाओं द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से गठित की
गई थी। इस चुनाव में वयस्क मताधिकार भी नहीं दिया गया था। उस समय सीमित मताधिकार प्रचलित
था। इसमें अनेक लोगों को मनोमीत किया गया था। इसलिए भारतीय संविधान बनाने की प्रक्रिया
प्रतिनिधिमूलक नहीं थी।
प्रश्न 9. भारतीय संविधान की एक सीमा यह है कि इसमें लैगिक-न्याय पर
पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। आप इस आरोप की पुष्टि में कौन-से प्रमाण देंगे? यदि
आज आप संविधान लिख रहे होते, तो इस कमी को दूर करने के लिए उपाय के रूप में किन प्रावधानों
की सिफारिश करते?
उत्तर
: भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से लैंगिक-न्याय का कोई उल्लेख नहीं है, इसी कारण
समाज में अनेक रूपों में लैंगिक-अन्याय दिखाई देता है। यद्यपि संविधान के मौलिक अधिकार
के भाग में अनुच्छेद 14, 15 व 16 में उल्लेख है कि लिंग के आधार पर कानून के समक्ष,
सार्वजनिक स्थान पर व रोजगार के क्षेत्र में भेदभाव नहीं किया जाएगा। राज्य के नीति-निदेशक
तत्त्वों के अध्याय में महिलाओं के सामाजिक व आर्थिक न्यायोचित विकास की व्यवस्था की
गई है। समान कार्य के लिए समान वेतन की भी व्यवस्था है।
प्रश्न 10. क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि-एक गरीब और विकासशील देश
में कुछ एक बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकार मौलिक अधिकारों की केंद्रीय विशेषता के
रूप में दर्ज करने के बजाय राज्य की नीति-निदेशक तत्त्वों वाले खण्ड में क्यों रख दिए
गए- यह स्पष्ट नहीं है। आपके जानते सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निदेशक तत्त्व
वाले खण्ड में रखने के क्या कारण रहे होंगे?
उत्तर
: आलोचकों का कथन है कि भारत एक गरीब देश है और यहाँ बेरोजगार, बेकार तथा निर्धन लोगों
की संख्या अधिक है। इसके साथ ही संविधान बेरोजगारी को दूर करने, आर्थिक विषमता को कम
करने, सामाजिक-आर्थिक न्याय को लागू करने के लिए वचनबद्ध है। फिर ऐसे क्या कारण थे
कि देश के सामाजिक-आर्थिक विकास की प्राप्ति के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक
अधिकारों; जैसे कार्य का अधिकार, शिक्षा का अधिकार आदि मौलिक अधिकारों की सूची में
नहीं रखे गए, बल्कि उन्हें राज्य नीति के निदेशक सिद्धान्तों के अध्याय में रखा गया।
इसके
कुछ कारण थे। संविधान निर्माताओं ने राजनीतिक प्रकृति के अधिकारों को मूल अधिकारों
की सूची में रखा क्योंकि इससे राज्य पर वित्तीय भार पड़ने की सम्भावना नहीं थी। जब,
देश स्वतन्त्र हुआ तो भारत एक गरीब देश था और अंग्रेजों ने इसे जब छोड़ा तो इसकी वित्तीय
दशा अच्छी नहीं थी। यदि सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को मूल-अधिकारों की सूची में रखा जाता
तो राज्य द्वारा उन्हें लागम करने में काफी धन व्यय करना पड़ती जो उसके लिए सम्भव और
व्यावहारिक नहीं था। इन पर होने वाले व्यय से देश की आर्थिक दशा और अधिक खराब हो जाती।
सामाजिक-
आर्थिक विकास की आवश्यकता भी तुरन्त थी। विकास कार्यों के लिए भी धन की आवश्यकता थी।
यदि आर्थिक आधारों को मौलिक अधिकारों का रूप दिया जाता तो , सामाजिक-आर्थिक विकास योजनाओं
को लागू करना सम्भव नहीं होता और इससे सामाजिक-आर्थिक विकास रुक जाता। इन बातों को
देखते हुए महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को राज्य की नीति के निदेशक सिद्धान्तों
के अध्याय में रखा गया और आशा की गई कि वित्तीय दशा में सुधार होने के साथ-साथ उन्हें
भी लागू किया जाता रहेगा।
परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. अनुच्छेद 370 किस राज्य को विशिष्ट दर्जा देता है?
(क) जम्मू-कश्मीर
(ख)
पंजाब
(ग)
मिजोरम
(घ)
मेघालय
प्रश्न 2. भारतीय संविधान में कितने अनुच्छेद हैं।
(क) 395
(ख)
397
(ग)
387
(घ)
378
प्रश्न 3. भारतीय संविधान में कितनी अनुसूचियाँ हैं?
(क)
14
(ख)
16
(ग) 12
(घ)
20
प्रश्न 4. भारत के संविधान द्वारा कितनी भाषाओं को मान्यता प्रदान की
गई है।
(क)
24
(ख) 22
(ग)
23
(घ)
21
प्रश्न 5. भारतीय संविधान का वैचारिक व दार्शनिक आधार है –
(क) उदारवाद
(ख)
साम्यवाद
(ग)
राष्ट्रवाद
(घ)
उपभोक्तावाद
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. संविधान का आधार राजनीतिक दर्शन होता है। समझाइए।
उत्तर
: किसी देश का संविधान एक सजीव व संवेदनशील ग्रन्थ होता है। यह व्यक्तियों के लक्ष्यों,
प्राथमिकता, मूल्यों को प्रकट करता है। अतः संविधान के लिए एक नैतिक आधार की आवश्यकता
होती है जो एक निश्चित राजनीतिक दर्शन व सोच द्वारा प्रदान किया जाता है।
प्रश्न 2. भारतीय संविधान के दर्शन के मुख्य तत्त्व कौन-से हैं?
उत्तर
:
- उदारवाद
- समानता पर आधारित समाज का निर्माण
- सामाजिक न्याय
- धर्मनिरपेक्षता
- संघात्मकता।
प्रश्न 3. ‘धर्मनिरपेक्ष का क्या अर्थ है?
उत्तर
: ‘धर्मनिरपेक्ष’ का अर्थ है–भारत में सभी धर्म समान हैं, राज्य का अपना कोई धर्म नहीं
है और सभी नागरिकों को धर्म की स्वतन्त्रता है।
प्रश्न 4. संविधान की प्रस्तावना के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर
: संविधान की प्रस्तावना संविधान का प्रारम्भिक भाग है, इसमें संविधान में दिए गए सरकार
के स्वरूप, समाज के मूल्यों, दर्शन व लक्ष्यों को दर्शाया गया है।
प्रश्न 5. व्यक्तिगत गरिमा का क्या अर्थ है?
उत्तर
: व्यक्तिगत गरिमा का अर्थ मानवीय क्षमताओं, मानवीय विवेक, मानवीय प्रवृत्ति और मानवीय
भावनाओं वे इच्छाओं का सम्मान करना है।
प्रश्न 6. भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत किस प्रकार
का राज्य है?
उत्तर
: भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी
धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है।
प्रश्न 7. भारतीय संविधान की दो प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
: भारतीय संविधान की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं –
- लिखित संविधान तथा
- विशाल संविधान।
प्रश्न 8. भारत के संविधान का निर्माण किसके द्वारा किया गया?
उत्तर
: भारत के संविधान का निर्माण एक निर्वाचित संविधान सभा द्वारा किया गया।
प्रश्न 9. उदारवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
: उदारवाद भारतीय संविधान का प्रमुख वैचारिक व दार्शनिक आधार है जिसका उद्देश्य भारतीय
समाज को नकारात्मक रूढ़ियों व अन्धविश्वासों से मुक्त करना है।
प्रश्न 10. संघीय समाज से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
:संघीय समाज वह होता है जिसमें विभिन्न जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति व भौगोलिकता के
लोग रहते हैं।
लघु उतरीय प्रश्न
प्रश्न 1. संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-समाजवादी पंथनिरपेक्ष राज्य।
उत्तर
: पंथनिरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है तथा
राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी धर्म का पालन करने का अधिकार
होगा। राज्य, धर्म के आधार पर नागरिकों के साथ कोई भेदभाव नहीं करेगा तथा धार्मिक मामलों
में विवेकपूर्ण निर्णय लेगा। इसके अतिरिक्त, राजय द्वारा सभी व्यक्तियों के धार्मिक
अधिकारों को सुनिश्चित एवं सुरक्षित करने का प्रयास किया जाएगा। राज्य धार्मिक मामलों
में किसी प्रकार को हस्तक्षेप नहीं करेगा, वरन् धार्मिक सहिष्णुता एवं धार्मिक समभाव
की नीति को प्रोत्साहित करने का प्रयास करेगा। धर्म के सम्बन्ध में राज्य सभी व्यक्तियों
के साथ समान व्यवहार करेगा। इस प्रकार की पंथनिरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षता का पालन
करने वाले शासन को पंथनिरपेक्ष या धर्मनिरपेक्ष राज्य कहते हैं।
प्रश्न 2. संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए–’प्रभुतासम्पन्न लोकतन्त्रात्मक
गणराज्य।
उत्तर
: ‘प्रभुत्तासम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य से आशय यह है कि देश का शासन जनता का,
जनता के लिए तथा जनता द्वारा होगा। इस प्रकार शासन की सत्ता जनता में निहित होगी। निर्वाचन
के आधार पर जनता अपने द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों को देश की सत्ता पाँच वर्षों के
लिए सौंप देगी तथा जनप्रतिनिधि अपने समस्त कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी
होंगे। गणराज्य से आशय यह है कि वंश-परम्परा के आधार पर कोई भी राज्याध्यक्ष राज्य
या सम्राट नहीं होगा, वरन् वह जनता द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित
होगा। राष्ट्रपति का निर्वाचन जनता द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से अर्थात् जनता द्वारा चुने
गए प्रतिनिधियों सांसदों व विधायकों द्वारा किया जाता है। इसी आधार पर हमने 26 जनवरी,
1950 को अपना संविधान लागू करके गणतन्त्र दिवस मनाना प्रारम्भ किया था।
प्रश्न 3. भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य क्यों कहा गया
है?
उत्तर
: भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य इसलिए कहा गया है क्योंकि भारत अब आन्तरिक
एवं बाह्य क्षेत्र में सर्वोच्च सत्ताधारी है। आन्तरिक क्षेत्र में प्रभुत्वसम्पन्नता
का आशय यह है कि भारत अब आन्तरिक क्षेत्र में सभी व्यक्तियों एवं समुदायों से उच्चतर
है और संसद द्वारा निर्मित कानून भारत की सीमा में रहने वाले सभी व्यक्तियों पर अनिवार्य
रूप से लागू किए जाते हैं तथा बाह्य क्षेत्र में सम्प्रभुता का तात्पर्य यह है कि भारत
अब अपने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में पूर्ण स्वतन्त्र है, क्योंकि किसी बाह्य सत्ता
का उस पर नियन्त्रण नहीं है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि वर्ष 1947 के पहले
भारत सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न नहीं था क्योंकि उस पर ब्रिटिश सत्ता का नियन्त्रण था।
वर्तमान में भारत की स्वतन्त्र विदेश नीति है।
प्रश्न 4. भारतीय समाज द्वारा समाजवाद के आदर्श को प्राप्त करने के
लिए किन्हीं तीन उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
:
- सामाजिक विभेद को समाप्त किया जाए। समाज
के उच्च जाति तथा निम्न जाति वर्ग अथवा अछूत आदि में कोई भेद-भाव नहीं होना चाहिए।
- पूँजीपतियों तथा श्रमिकों के बीच उत्पन्न
अन्तर को समाप्त किया जाना चाहिए तथा श्रमिकों को मिलों अथवा कारखानों की प्रबन्ध-व्यवस्था
में सहभागिता प्राप्त होनी चाहिए।
- ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि के वितरण को
इस प्रकार से सुनिश्चित किया जाना चाहिए जिससे कि भूमिहीनों को भी कुछ भूमि प्राप्त
हो सके। बेगार, बंधुआ मजदूरी तथा कृषकों के शोषण जैसी बुराइयों को समाप्त करना
चाहिए।
प्रश्न 5. संविधान द्वारा धर्मनिरपेक्षता (पंथनिरपेक्षता) पर अत्यधिक
बल क्यों दिया गया है?
उत्तर
:
- भारत में अनेक धर्मों को मानने वाले व्यक्ति
निवास करते हैं। अत: यहाँ पंथनिरपेक्षता की नीति के आधार पर धार्मिक स्वतन्त्रता
के अधिकार को प्रदान किया जा सकता है।
- एक नागरिक तथा दूसरे नागरिक में धर्म के
आधार पर विभेद करना न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता
- राष्ट्र की एकता, अखण्डता तथा सुदृढ़ता
के लिए पंथनिरपेक्षता को अपनाना बहुत आवश्यक है।
- सभी नागरिकों से एक-जैसा न्याय करने के
उद्देश्य से भी पंथनिरपेक्षता की नीति तर्कसंगत है।
प्रश्न 6. संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-कल्याणकारी राज्य।
उत्तर
: लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ‘पुलिस राज्य के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न
हुई। लोक-कल्याणकारी राज्य में राज्य का अधिकार-क्षेत्र बहुत व्यापक हो जाता है; क्योंकि
राज्य द्वारा व्यक्ति के चहुंमुखी विकास के लिए जीवन के सभी क्षेत्रों में सुख तथा
सुविधाएँ उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है। भारत के संविधान में नीति-निदेशक, सिद्धान्तों
को अपनाकर लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना करने का प्रयास किया गया है। भारतीय संविधान
में ऐसे अनेक अनुच्छेदों का प्रावधान किया गया है जो समाज के पिछड़े वर्गों, महिलाओं,
अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों और आर्थिक रूप से गरीब वर्गों के कल्याण पर अधिक बल
देते हैं।
दीर्घउत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. “भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
Ø भारत में पंथनिरपेक्षता की नीति अपनाए जाने के दो कारण लिखिए।
उत्तर
: यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत में विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों का जन्म तथा
विकास हुआ। यहाँ विदेशी शासकों के राज्य भी स्थापित हुए और उनके विभिन्न धर्मों का
आगमन भी हुआ। इन विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों की अन्त:क्रिया से विभिन्न धार्मिक
समुदायों का अभ्युदय हुआ। इन धार्मिक समुदायों में परस्पर प्रतिस्पर्धा एवं वैमनस्यता
को समाप्त करके सहिष्णुता एवं सामंजस्य स्थापित करने के लिए भारतीय संविधान में धार्मिक
स्वतन्त्रता को स्थान दिया गया। बयालीसवें संविधान संशोधन द्वारा ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द
को संविधान की प्रस्तावना में स्थान दिया गया। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा इसका
अभिप्राय यह है कि–
- भारत किसी भी धर्म को राष्ट्रीय धर्म घोषित
नहीं करेगा।
- संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार सभी व्यक्ति
कानून की दृष्टि में समान होंगे। भारत सरकार सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान
करेगी तथा उन्हें पल्लवित एवं विकसित होने में बाधा उत्पन्न नहीं करेगी।
- सरकार सभी व्यक्तियों के धार्मिक अधिकारों
को सुनिश्चित एवं सुरक्षित करने का प्रयास करेगी।
- भारतीय सरकार धार्मिक विषयों के सम्बन्ध
में विवेकपूर्ण निर्णय लेगी।
संविधान
के अनुच्छेद 25 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को भारत में अपने धर्म के सम्बन्ध में
दो प्रकार की स्वतन्त्रताएँ प्राप्त हैं-अन्तःकरण की स्वतन्त्रता तथा अपने धर्म को
मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतन्त्रता।
अनुच्छेद
26 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक कार्यों के प्रबन्ध की स्वतन्त्रता प्रदान
की गयी है जिसके अन्तर्गत उसे धार्मिक प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की घोषणाएँ, अपने
धर्म सम्बन्धी कार्यों के प्रबन्ध, सम्पत्ति के अर्जन और स्वामित्व तथा सम्पत्ति का
विधि के अनुसार प्रशासन का अधिकार है।
अनुच्छेद
28 के अनुसार, राज्य पोषित शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या उपासना का प्रतिषेध
किया गया है।
उपर्युक्त
तथ्यों से सहज ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। वास्तविक
स्थिति भी इस तथ्य की पुष्टि करती है। भारत में धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव
नहीं किया जाता। देश के सर्वोच्च पद को डॉ० जाकिर हुसैन तथा श्री एपीजे अब्दुल कलाम
सुशोभित कर चुके हैं। अखिल भारतीय सेवाएँ हों या अन्य सेवाएँ सभी धर्मावलम्बियों को
इनमें भर्ती की समान सुविधाएँ प्राप्त हैं। सभी भारतीय विभिन्न धर्मानुयायी होते हुए
भी अपने-अपने त्योहार निर्विघ्न रूप से मनाते हैं। भारत वास्तविक अर्थ में एक ‘धर्मनिरपेक्ष
राज्य है।
प्रश्न 2. संविधान की प्रस्तावना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण क्यों है?
उत्तर
:
संविधान
की प्रस्तावना का महत्त्व
प्रत्येक
राष्ट्र के संविधान में प्रस्तावना की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है यह संविधान का एक
महत्त्वपूर्ण भाग है। विद्वानों के विचार में इस बिन्दु पर मतभेद पाया जाता है कि प्रस्तावना
संविधान का कानूनी भाग है अथवा नहीं। विद्वानों का यह मत है कि संसद संविधान की प्रस्तावना
में भी संविधान के अन्य अनुच्छेदों के समान ही अनुच्छेद 356 द्वारा संशोधन कर सकती
है, इस स्थिति में प्रस्तावना संविधान का एक कानूनी भाग है। भारत में संविधान की प्रस्तावना
को बहुत सोच-विचार के उपरान्त ही बनाया गया था। भारत के संविधान की प्रस्तावना विश्व
के अन्य सभी संविधानों की प्रस्तावना से श्रेष्ठ है। क्योंकि इसमें सामाजिक, आर्थिक
तथा राजनीतिक मूल्यों को प्राप्त करने का संकल्प व्यक्त किया गया है। संविधान की प्रस्तावना
के महत्त्व को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है –
- यह राष्ट्र की सरकार को नीति-निर्माण हेतु
मार्ग दिखाती है।
- प्रस्तावना भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न,
समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने की घोषणा करती है।
- यह नागरिकों को प्रत्येक प्रकार की स्वतन्त्रता;
जैसे-विचार-अभिव्यक्ति, विश्वास तथा धर्म एवं उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान करने
का लक्ष्य घोषित करती है।
- यह व्यक्ति की गरिमा तथा प्रतिष्ठा को बनाए
रखने का आह्वान करती है।
- यह भारत के समस्त नागरिकों में पारस्परिक
भाई-चारे एवं बन्धुत्व बढ़ाने का आदर्श उपस्थित करती है।
- यह राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता को बनाए
रखने की आशा अभिव्यक्त करती है।
- यह प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर प्रदान
करने तथा सम्मान को बनाए रखने में विश्वास प्रकट करती है।
- प्रस्तावना लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था
के आदर्शों को अपनाने पर बल देती है।
- प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्ष तथा समाजवादी’
शब्दों को सम्मिलित करने पर इसका महत्त्व और भी बढ़ गया है।
- प्रस्तावना में इस तथ्य को पूर्णतया स्पष्ट किया गया है कि भारत का संविधान भारतीयों द्वारा निर्मित किया गया है तथा उसे पालन करने की वचनबद्धता संविधान निर्माताओं ने व्यक्त की है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 3. भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
Ø भारतीय संविधान की उन विशेषताओं का परीक्षण कीजिए जो संसदीय शासन प्रणाली
का समर्थन करती हैं?
Ø “भारत का वर्तमान संविधान 1935 के अधिनियम का वृहद् संस्करण नहीं है।”
इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर
: किसी भी देश की राजनीतिक गतिविधियों का परिचय उसके संविधान से ही मिलता है। उसका
निर्माण उस देश की भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों
को ध्यान में रखकर किया जाता है। भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
–
(1)
लिखित एवं विस्तृत संविधान – भारत का संविधान संसार का सबसे बड़ा
लिखित संविधान है। इस संविधान में 395 अनुच्छेद तथा 8 अनुसूचियाँ थीं और यह 22 भागों
में विभक्त था। 1993 ई० के 73वें तथा 74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियमों के बाद अब इसमें
444 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं। संविधान की विशालता का मूल कारण यह है कि संविधान
निर्माताओं ने शासन के समस्त प्रमुख अंगों का वर्णन करने के बाद शासन की अनेक सूक्ष्मतम
बातों का उल्लेख भी किया है।
(2)
सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य – संविधान का उद्देश्य समस्त
भारत में प्रभुत्वसम्पन्न लोकतन्त्र की स्थापना करना है। प्रभुत्वसम्पन्न का अर्थ यह
है कि भारत अपने आन्तरिक और विदेशी मामलों में पूर्ण स्वतन्त्र है।
(3)
संघात्मक व एकात्मक व्यवस्था का मिश्रण – भारतीय संविधान द्वारा संघात्मक
ढाँचे को स्वीकार किया गया है। अनेक संविधान संशोधनों के उपरान्त वर्तमान में भारतीय
संविधान में 444 धाराएँ (अनुच्छेद) हैं। संविधान द्वारा राज्य व केन्द्र के मध्य शक्तियों
का पृथक्करण किया गया है। संविधान द्वारा संघात्मक शासन की अन्य विशेषताओं को स्वीकार
करते हुए संविधान की सर्वोच्चता व सर्वोच्च न्यायपालिका की व्यवस्था भी की गयी है।
इसके अतिरिक्त इकहरी नागरिकता, सम्पूर्ण देश के लिए एक ही संविधान, अखिल भारतीय सेवाएँ
व राष्ट्रपति के संकटकालीन अधिकार आदि व्यवस्थाएँ एकात्मक शासन का समर्थन करती हैं।
इस प्रकार भारतीय संविधान में संघात्मक व एकात्मक दोनों शासन-व्यवस्थाओं के गुणों को
समाविष्ट किया गया है।
(4)
शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना – भारतीय संविधान की एक विशेषता
यह है कि इसके द्वारा केन्द्र को राज्य की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बनाया गया है। केन्द्र
को शक्तिशाली बनाने के लिए मुख्यत: तीन उपाय काम में लाये गये हैं। प्रथम, आपातकालीन
स्थिति में संघ सरकार को राज्य के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का पूर्ण अधिकार प्रदान
किया गया है। दूसरे, केन्द्र और राज्यों की शक्तियों का विभाजन होने पर भी विशेष परिस्थिति
में केन्द्र को राज्य सूची के अन्तर्गत आने वाले विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार
प्रदान किया गया है। तीसरे, समवर्ती सूची के अन्तर्गत आने वाले विषयों पर संघ सरकार
द्वारा बनाये गये नियमों को प्राथमिकता दी गयी है। इन तीनों उपायों के अतिरिक्त न्यायपालिका
के संगठन, राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति और अखिल भारतीय सेवाओं के संगठन आदि के
सम्बन्ध में भी केन्द्र को विस्तृत अधिकार प्रदान करके अत्यन्त शक्तिशाली बनाया गया
है।
(5)
संसदीय शासन पद्धति – भारतीय संविधान देश में संसदीय प्रणाली की
स्थापना करता है। संसदीय प्रणाली में राज्य का प्रधान नाममात्र का होता है और वास्तविक
कार्यपालिका की शक्ति मन्त्रिमण्डल में निहित होती है। मन्त्रिमण्डल सामूहिक रूप से
व्यवस्थापिका के निम्न सदन (लोकसभा) के प्रति उत्तरदायी होता है। भारत का राष्ट्रपति
नाममात्र का प्रधान है तथा शासन की वास्तविक शक्ति मन्त्रिमण्डल में है, जो प्रधानमन्त्री
के नेतृत्व में कार्य करता है।
(6)
मौलिक अधिकारों की व्यवस्था – भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों की स्वतन्त्रता
व अधिकारों की रक्षा के लिए छः मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गयी है, जिनका उपभोग
कर भारत को प्रत्येक नागरिक अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकता है।
(7)
नीति-निदेशक तत्त्व – भारतीय संविधान के चतुर्थ अध्याय में शासन-संचालन
हेतु सरकार के लिए जिन मूलभूत सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है उन्हीं सिद्धान्तों
को नीति-निदेशक तत्त्व कहा जाता है। आयरलैण्ड के संविधान से प्रेरित होकर लिये गये
इन सिद्धान्तों को उद्देश्य भारत को एक लोक कल्याणकारी स्वरूप प्रदान करना है।
(8)
नागरिकों के मूल कर्त्तव्य – भारतीय संविधान में 42वें संवैधानिक
संशोधन, 1976 ई० के द्वारा नागरिकों के लिए 11 मूल कर्तव्यों को सम्मिलित किया गया
है।
(9)
लोकतन्त्रात्मक गणराज्य – भारत एक लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है,
अर्थात् भारत में प्रभुसत्ता जनता में निहित है तथा जनता को अपने प्रतिनिधि चुनकर सरकार-निर्माण
का अधिकार प्रदान किया गया है। गणराज्य से आशय यह है कि भारत का सर्वोच्च प्रधान वंशानुगत
न होकर जनता द्वारा एक निश्चित अवधि के लिए चुना गया प्रधान होगा।
(10)
कठोर व लचीला संविधान – भारतीय संविधान कठोर व लचीले दोनों प्रकार
के संविधानों का मिश्रण है। संविधान में जहाँ कुछ विषयों में संशोधन साधारण प्रक्रिया
द्वारा किये जाते हैं, वहीं कुछ विषयों में संशोधन की जटिल प्रक्रिया को स्वीकार किया
गया है। उदाहरणार्थ–राष्ट्रपति के निर्वाचन की विधि, केन्द्र व राज्यों के मध्य शक्ति-विभाजन,
राज्यों के संसद में प्रतिनिधि आदि विषयों पर संशोधन करने के लिए संसद के समस्त सदस्यों
के बहुमत और उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत के अतिरिक्त कम-से-कम आधे राज्यों के
विधानमण्डलों के अनुसमर्थन को अनिवार्य घोषित किया गया है।
(11)
धर्मनिरपेक्ष राज्य – संविधान में 42वें संविधान संशोधन द्वारा
भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, अर्थात् भारत राज्य का अपना कोई
धर्म नहीं होगा, अपितु उसके द्वारा देश में निवास करने वाले सभी धर्मों व जाति के लोगों
के साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा।
(12)
इकहरी नागरिकता – संविधान निर्माताओं द्वारा भारत की एकता व
अखण्डता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए भारत के समस्त नागरिकों के लिए इकहरी नागरिकता
का प्रावधान किया गया है।
(13)
अस्पृश्यता का अन्त – भारतीय संविधान की एक अन्य विशेषता अस्पृश्यता
का अन्त करना है। संविधान के भाग 3 तथा 17वें अनुच्छेद में कहा गया है कि अस्पृश्यता
का अन्त किया जाता है और इसका किसी भी रूप में आचरण दण्डनीय अपराध माना जाएगा।
(14)
वयस्क मताधिकार – भारतीय संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक को
चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, 18 वर्ष की अवस्था पूरी कर चुका हो, धर्म, लिंग अथवा जाति
के भेदभाव के बिना मतदान का अधिकार प्रदान किया गया है।
(15)
स्वतन्त्र और इकहरी न्यायपालिका की स्थापना – भारतीय संविधान
ने देश के लिए स्वतन्त्र और इकहरी न्यायपालिका की व्यवस्था की है। संविधान में इस बात
का पूरा-पूरा प्रबन्ध किया गया है कि न्यायपालिका निष्पक्ष रूप से बिना किसी हस्तक्षेप
के अपने कर्तव्य का पालन कर सके।
(16)
विश्व-शान्ति व मैत्री का पोषक – भारतीय संविधान ने सदैव
विश्व-शान्ति एवं विश्व बन्धुत्व का समर्थन किया है। संविधान की 51वीं धारा में स्पष्ट
रूप से कहा गया है भारत संसार के राष्ट्रों के साथ सह-अस्तित्व रखते हुए विश्व-शान्ति
और सुरक्षा में अपना पूरा सहयोग देगा। साथ-ही-साथ वह सभी विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग
से निपटाने का प्रयास भी करेगा।”
(17)
एक राष्ट्रभाषा की व्यवस्था – सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए भारतीय संविधान
में एक ही राष्ट्रभाषा की ‘ व्यवस्था की गयी है और वह है हिन्दी भाषा। संविधान की धारा
343 में कहा गया है कि संघ की अधिकृत भाषा देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी होगी।
(18)
विधि का शासन – भारतीय संविधान में ब्रिटेन के संविधान की
भाँति समस्त नागरिकों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार प्रदान किया गया है, अर्थात्
कानून के द्वारा किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग व अन्य किसी कारण कोई भेदभाव
नहीं किया जाएगा।
(19)
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका – भारतीय संविधान के अन्तर्गत द्वि–सदनात्मक
व्यवस्थापिका की स्थापना की गयी है। इस व्यवस्था में संसद के दो सदन राज्यसभा व लोकसभा
हैं, जिनमें राज्यसभा उच्च सदन व लोकसभा निम्न परन्तु लोकप्रिय सदन है।
निष्कर्ष
– डॉ० अम्बेडकर के शब्दों में, “मैं महसूस करता हूँ कि भारतीय संविधान व्यावहारिक है।
और इसमें शान्ति व युद्धकाल दोनों में देश को बनाये रखने की सामर्थ्य है। वास्तव में
मैं यह कहना। चाहूँगा कि यदि नवीन संविधान के अन्तर्गत स्थिति खराब होती है तो इसका
कारण यह नहीं होगा कि संविधान खराब है बल्कि हमें यह कहना होगा कि भारतीय ही खराब हैं।”
प्रश्न 4. “भारत एक सम्प्रभुतासम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक
गणराज्य है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
Ø भारतीय संविधान की प्रस्तावना के मुख्य बिन्दुओं की प्रकृति की व्याख्या
कीजिए।
उत्तर
: “भारत एक सम्प्रभुतासम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य है। इसे
निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है –
(1)
सम्प्रभुतासम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य – भारतीय संविधान का उद्देश्य
समस्त भारत में सम्प्रभुतासम्पन्न लोकतन्त्र की स्थापना करना है। सम्प्रभुतासम्पन्न
का अर्थ यह है कि भारत अपने आन्तरिक और विदेशी मामलों में पूर्ण स्वतन्त्र है। आन्तरिक
क्षेत्र में राज्य सर्वोपरि है। उसकी आज्ञाओं का पालन देश के सभी व्यक्तियों एवं संस्थाओं
को करना पड़ता है। विदेशी मामलों की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि भारत पर किसी विदेशी
शक्ति का नियन्त्रण नहीं है। वह अपनी इच्छा से दूसरे देशों के साथ सम्बन्ध स्थापित
करता है। भारत एक “सार्वभौम, लोकतान्त्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी गणराज्य है। यह
बात संविधान की प्रस्तावना से भली-भाँति स्पष्ट है। सार्वभौमिकता का अर्थ है कि शासन-सत्ती
का अन्तिम स्रोत भारतीय जनता है। संविधान की प्रस्तावना में लिखे शब्द “हम भारत के
लोग भारतीय जनता की सार्वभौमिकता की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। लोकतन्त्र का अर्थ है कि
शासन की अन्तिम सत्ता जनता के हाथ में है, परन्तु यह कार्य जनता प्रत्यक्ष रूप से न
करके अपने प्रतिनिधियों के द्वारा ही कर पाती है। इसीलिए भारत में प्रत्यक्ष लोकतन्त्र
की नहीं, बल्कि प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र (Representative Democracy) की स्थापना की
गयी है, जिसके लिए सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार तथा निर्वाचन-प्रणाली को अपनाया गया है।
(2)
समाजवादी राज्य – 42वें संविधान संशोधन द्वारा ‘समाजवादी’ शब्द
संविधान की प्रस्तावना में जोड़कर समाजवाद को देश के सामान्य जीवन में स्वीकार किया
गया है। इससे प्रस्तावना में दी गयी आर्थिक न्याय की भावना को भी बल मिला है। समाजवाद
एक सार्वजनिक क्षेत्र की माँग करता है तथा लाभों को व्यापक रूप से समाज में वितरित
करने की बात करता है। भारत एक गणराज्य है। इसका अभिप्राय यह है कि हमारे यहाँ राज्याध्यक्ष
वंशानुगत राजा नहीं, बल्कि जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि होता है। इसका अर्थ यह
हुआ कि सभी सार्वजनिक पद बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों के लिए खुले हैं तथा किसी
भी वर्ग को कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है।
(3)
धर्मनिरपेक्ष राज्य – संविधान द्वारा भारत में एक धर्मनिरपेक्ष
राज्य (Secular State) की स्थापना की गयी है। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष
शब्द को जोड़कर भारतीय संसद ने धर्मनिरपेक्षता पर मुहर लगा दी है। संविधान की प्रस्तावना
में वर्णित ये घोषणाएँ कि संविधाने नागरिकों के लिए विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता”
व “प्रतिष्ठा और अवसर की समानता’ की व्यवस्था करता है, भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य
बनाती हैं। धर्म के आधार पर राज्य नागरिकों में भेदभाव नहीं करता है, बल्कि वह सभी
धर्मों को बराबर सम्मान देता है। धर्मनिरपेक्षता को और अधिक स्पष्ट करते हुए अनुच्छेद
25 सभी नागरिकों को धर्म के अनुकरण की स्वतन्त्रता तथा धर्म को अबाध रूप से मानने,
आचरण तथा प्रचार करने का अधिकार देता है। इसी प्रकार अनुच्छेद 29 सभी नागरिकों को अपनी
भाषा, लिपि तथा संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार देता है।
उपर्युक्त
विवरण से स्पष्ट होता है कि भारत एक सम्प्रभुतासम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक
गणराज्य है।
प्रश्न 5. राष्ट्रीय एकता में सहायक तत्त्वों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
:
राष्ट्रीय
एकता में सहायक तत्त्व
देश
की राजनीतिक स्थिरता, सामाजिक विकास व आर्थिक समृद्धि के लिए राष्ट्रीय एकता एक अनिवार्य
तत्त्व है। अतः राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहन देने के लिए औपचारिक एवं अनौपचारिक रूप
से निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है –
1.
इकहरी नागरिकता – भारतीय संविधान ने समस्त भारतवासियों को इकरही
नागरिकता प्रदान करके क्षेत्रवाद जैसी संकीर्ण भावनाओं को दूर करने का प्रयास किया
है।
2.
संविधान द्वारा भाषाओं को मान्यता – भाषावाद की समस्या का समाधान
करने के उद्देश्य से संविधान की आठवीं अनुसूची में विभिन्न भाषाओं को मान्यता प्रदान
की गई है। आरम्भ में इस सूची में सम्मिलित भाषाओं की संख्या चौदह थी। संविधान संशोधन
21 व संविधान संशोधन 71 तथा संविधान संशोधन 92 के पश्चात् सिन्धी, नेपाली, कोंकणी,
मणिपुरी, डोगरी, बोडो, मैथिली और संथाली भाषा के जुड़ जाने से अब इस सूची में सम्मिलित
भाषाओं की संख्या 22 हो गई है। इस प्रकार अब आठवीं अनुसूची में कुल 22 भाषाएँ हो गई
हैं।
3.
राष्ट्रभाषा – संविधान ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा का गौरव
प्रदान किया और संविधान में यह व्यवस्था की थी कि वर्ष 1965 ई० तक अंग्रेजी को सहभाषा
की स्थिति प्राप्त रहेगी। परन्तु भाषा की राजनीति के कारण सरकार ने अनिश्चित काल तक
अंग्रेजी को सहभाषा के रूप में बने रहने की स्थिति प्रदान कर दी। वस्तुतः एक राष्ट्रवाद
से सम्पूर्ण राष्ट्र में एक मानसिकता विकसित होती है। भाषायी विवादों से बचने के लिए
किसी भी राज्य के ऊपर हिन्दी को थोपा नहीं गया है।
4.
राष्ट्रचिह्न – भारत का राष्ट्रचिह्न सारनाथ स्थित अशोक के
सिंह स्तम्भ की अनुकृति है। यह भी राष्ट्रीय एकता को प्रकट करता है।
5.
राष्ट्रीय त्योहार – 15 अगस्त, 26 जनवरी और 2 अक्टूबर (क्रमशः
स्वतन्त्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस और गांधी जयन्ती) को राष्ट्रीय त्योहार माना गया है
और सम्पूर्ण देश में इन्हें बड़ी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।
6.
सामाजिक समानता – देश में सामाजिक समानता स्थापित करने के लिए
अस्पृश्यता समाप्ति की दिशा में विशेष प्रयास किए गए हैं। इसके अतिरिक्त अनुसूचित जातियों,
अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों को संविधान द्वारा विशेष सुविधाएँ भी प्रदान
की गई हैं।
7.
धर्मनिरपेक्ष स्वरूप – साम्प्रदायिक सद्भाव को बनाए रखने के लिए
भारत गणराज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप स्वीकार किया गया है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को
धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार प्रदान किया गया है। धर्मनिरपेक्ष शब्द को संविधान की
प्रस्तावना में जोड़ा गया है।
8.
समाजवाद की स्थापना – भारतीय संविधान ने समाजवाद की स्थापना पर
बल दिया है जिससे समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता को समाप्त किया जा सके जोकि समाज
में क्रान्ति तथा संघर्ष का कारण है।