12th Sanskrit 11. उद्भिज्ज परिषद् (वृक्षों की सभा) JCERT/JAC Reference Book

12th Sanskrit 11. उद्भिज्ज परिषद् (वृक्षों की सभा) JCERT/JAC Reference Book

12th Sanskrit 11. उद्भिज्ज परिषद् (वृक्षों की सभा) JCERT/JAC Reference Book

11. उद्भिज्ज परिषद् (वृक्षों की सभा)

अधिगम प्रतिफलानि

1. पाठ्यपुस्तकागतान् गद्यपाठान् अवबुध्य तेषां सारांशं वक्तुं लेखितुं च समर्थः अस्ति ।

(पुस्तक में आए हुए गद्य पाठों को समझकर उनका सारांश बोलने और लिखने में समर्थ होते हैं।)

2. तदाधारितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतेन वदति लिखति च ।

(उनपर आधारित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में बोलते और लिखते हैं।)

3. अपठितगद्यांशं पठित्वा तदाधारितप्रश्नानामुत्तरप्रदाने सक्षमः अस्ति ।

(अपठित गद्यांश को पढ़कर उसपर आधारित प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम होते हैं।)

पाठपरिचयः -

प्रस्तुत पाठ 'उद्भिज्ज-परिषद् पण्डित हृषीकेश भट्टाचार्य की निबन्ध पुस्तक 'प्रबन्ध मञ्जरी' से संक्षिप्त करके लिया गया है। उद्भिज्ज शब्द का अर्थ है- वृक्ष और परिषद् का अर्थ है सभा। इस शब्द का अर्थ हुआ 'वृक्षों की सभा।' इस सभा के सभापति हैं अश्वत्थ -पीपल। सभापति अश्वत्थ के भाषण के माध्यम से वृक्षों के प्रति मानवीय व्यवहार का वर्णन किया गया है। वे अपने भाषण में मानवों पर बड़े ही व्यंग्यपूर्ण प्रहार करते हैं।

पाठसारांशः-

सभी प्रकार के वृक्षों की सभा लगी हुई है। सभा के सभापति अश्वत्थ सभी वृक्ष-वनस्पतियों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि आज हमारी सभा का विषय 'मानव व्यवहार' है इस सृष्टि में मानव से बढ़कर कोई भी निकृष्ट प्राणी नहीं है। सभी प्राणियों में मनुष्य ही सबसे अधिक दूसरों को पीड़ित करने वाला स्वार्थी, मायावी, छली, कपटी और निरन्तर हिंसा में लगा रहने वाला जीव है। सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक भावना के लिए प्रसिद्ध पशु हैं। परन्तु इन पशुओं की हिंसा पेट की आग बुझाने के लिए होती है भूख शान्त हो जाने पर पंजे में आए हुए हिरण, खरगोश आदि को भी ये नहीं मारते। मनुष्य तो अपना मनोरञ्जन करने के लिए पशुपक्षियों की हत्या करता है। जीव हिंसा करना मनुष्य का.. खेल है। हिंसक पशुओं की हिंसा तो पेट की आग बुझाने तक सीमित होती है। परन्तु मनुष्य की हिंसा असीम है। इसके इस हिंसा व्यवहार को देखकर जड़ कही जाने वाली वृक्ष वनस्पतियों के हृदय भी पिघल जाते हैं। मनुष्य केवल अपनी उन्नति के लिए लोभ से आक्रांत तथा स्वार्थी होकर कार्य करता है। यह किसी भी पापाचार से नहीं डरता। मनुष्य पशुओं से ही घटिया नहीं है, अपितु तिनकों से भी तुच्छ है। आँधी-तूफान आने पर मैदान में खड़ा हुआ एक घास का तिनका भी पूरी शक्ति के साथ तूफान का सामना करता है। गर्मी सर्दी, बरसात को सहता है। मनुष्य इन सबसे बेचैन होकर इनसे बचने के उपाय खोजता रहता है। इसी से सिद्ध होता है कि मनुष्य से बढ़कर कोई डरपोक भी नहीं है। इस प्रकार वे (मनुष्य) तिनकों से भी तुच्छ तथा पशुओं से भी निकृष्ट हैं। वनस्पति आदि की सृष्टि के पश्चात् इस प्रकार के जीवों (मनुष्यों) का निर्माण करना विश्व के सर्जनहार विधाता की कैसी बुद्धिमत्ता की अधिकता को प्रकट करता है? इस प्रकार कारण और प्रमाण निर्देशपूर्वक बहुत देर तक, बहुत प्रकार से तथा विस्तृत व्याख्या करके सभापति अश्वत्थदेव (पीपल-देव) ने वृक्षों की सभा को विसर्जित किया। वृक्षों की सभा के माध्यम से लेखक ने मनुष्य के हिंसापरक, परपीड़क तथा स्वार्थी व्यवहार पर तीखा व्यंग्य किया है।

पाठसन्देश:-

इस पाठ के माध्यम से यही सन्देश देने का प्रयास किया गया है कि हम मनुष्यों को प्रकृति के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। अनावश्यक पेड़ों की कटाई नहीं करनी चाहिए न ही दूसरे जीव-जंतुओं को सताना या उनपर अत्याचार करना चाहिए। प्रकृति में सभी प्राणियों को जीने का समान अधिकार प्राप्त है और हम सभी एक-दूसरे पर आश्रित हैं। अतः सभी प्राणियों के साथ (चाहे वह मनुष्य हो, पशु हो, पक्षी हो या वनस्पति हो) सहानुभूति और प्रेम का व्यवहार करना चाहिए। साथ ही अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाकर पर्यावरण की रक्षा करनी चाहिए।

गद्यांशः - 1

अथ सर्वविधविटपिनाम् मध्यभागे स्थितः सुमहानअ श्वत्थदेवः वदति भो ! भो ! वनस्पतिकुलप्रदीपा महापादपाः कुसुमकोमलदन्तरुचः लता- कुलललना-श्च। सावहिताः शृण्वन्तु भवन्तः । अद्य मानववार्तेवास्माकं समालोच्यविषयः। मानवा नाम सर्वासु सृष्टिधारासु निकृष्टतमा सृष्टिः, जीवसृष्टिप्रवाहेषु मानवा इव पर-प्रतारकाः स्वार्थसाधनपरा मायाविनः कपट-व्यवहारकुशलाः हिंसानिरताः जीवाः न विद्यन्ते। भवन्तो नित्यमेवारण्यचारिणः सिंहव्याघ्रप्रमुखान् हिंस्रत्वभावनया प्रसिद्धान् श्वापदान् अवलोकयन्ति। ततो भवन्त एव कथयन्तु याथातथ्येन किमेते हिंसादिक्रियासु मनुष्येभ्यो भृशं गरिष्ठाः। श्वापदानां हिंसाकर्म किल जठरानलनिर्वाणमात्रप्रयोजकम्। प्रशान्तजठरानले सकृदुपजातायां स्वोदरपूर्ती नहि ते करतलगतानपि हरिणशशकादीन् उपघ्नन्ति। न वा तथाविध दुर्बलजीवानां घातार्थम् अटवीतोऽटवीं परिभ्रमन्ति। मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः। पशुहत्या तु तेषाम् आक्रीडनम्। केवलं विक्लान्तचित्तविनोदाय महारण्यम् उपगम्य ते यथेच्छं निर्दयं च पशुघातं कुर्वन्ति। तेषां पशुप्रहार-व्यापारमालोक्य जडानामपि अस्माकं विदीर्यते हृदयम्।

पदार्थाः/व्याकरणकार्यम्-

उद्भिज्ज - (उ‌द्भिज्ज जायते इति उद्भिज्जः) वनस्पति

विटपी - (विटप + इन्) वृक्ष पीपल का पेड़

कुलललनाः - कुलस्य ललनाः, कुल की स्त्रियाँ

सावहिता - सावधान

सृष्टिधारासु - सृष्टेः धारा, षष्ठी तत्पुरुष समास सृष्टिधारा, तासु, सृष्टि की परम्परा में

निकृष्टता - निकृष्ट + तमप्, अत्यधिक नीच

परप्रतारकाः - परस्य प्रतारकः, षष्ठी तत्पुरुष समास, दूसरे को पीड़ित करने वाले

श्वापदान् - जंगली जानवरों को।

याथातथ्येन - वस्तुतः।

भृशम् - अत्यधिक ।

जठरानल-निर्वाणम् - पेट की अग्नि, भूख की शान्तिः जठरानलस्य निर्वाणम्, षष्ठी तत्पुरुष समास।

करतलगतान् - हाथ में आए हुए; करतलगतान्।

उपघ्नन्ति - मारते हैं; उप हन् + ललकार, प्रथम पुरुष, बहुवचन।

घातार्थम् - मारने के लिए।

अटवीतः अटवीम् - जंगल को; अटवी + तस् । एक जंगल से दूसरे

निरवधिः - असीम।

आक्रीडनम् - खेल; आ क्रीड् ल्युट् प्रत्यय।

विक्लान्तः - प्रत्यय। थका हुआ; वि+ क्लम् + क्त

उपगम्य - पास जाकर गत्वा = गम् + क्त्वा (ल्यप् प्रत्यय)।

अनुवादः/भावार्थः -

सभी प्रकार के वृक्षों के मध्यभाग में स्थितं विशाल अश्वत्थदेव (पीपल का वृक्ष) कहता है- "हे हे वनस्पतिकुल के दीपक महान् पौधो! और पुष्प रूपी कोमल दाँतों से सुशोभित लतावंश की ललनाओ" आप ध्यानपूर्वक सुनिए-

आज मनुष्य व्यवहार ही हमारी आलोचना का विषय है। सभी सृष्टिधाराओं में सबसे निकृष्ट सृष्टि मनुष्य ही है। जीव सृष्टिप्रवाहों में मनुष्य की भाँति पर-पीड़क, स्वार्थपरायण, मायावी, कपट-व्यवहार में कुशल, हिंसा में संलग्न जीव नहीं हैं। आप नित्य ही जंगलों में घूमने वाले हिंसात्मक भावना के लिए प्रसिद्ध सिंह, व्याघ्र आदि पशुओं को देखते हैं। फिर आप ही ठीक-ठीक बताएँ कि क्या ये (पशु) हिंसक क्रियाओं में मनुष्यों से बढ़कर हैं। पशुओं का हिंसाकर्म पेट की आग बुझाने मात्र के लिए होता है। जठराग्नि के शान्त हो जाने पर, एक बार अपनी उदरपूर्ति हो जाने पर वे (पशु) हाथ में आए हुए हिरण, खरगोश आदि को भी नहीं मारते। और न ही इस प्रकार के दुर्बल प्राणियों को मारने के लिए वे एक जंगल से दूसरे जंगल में घूमते हैं। मनुष्यों की हिंसावृत्ति तो असीम है। पशुहत्या तो उनका खेल है। केवल अपने बेचैन मन को प्रसन्न करने के लिए बड़े जंगल में जाकर वे जी-भरकर निर्दयतापूर्वक पशुवध करते हैं। उनके पशुप्रहार के व्यवहार को देखकर हम जड़ वृक्षों का हृदय भी फट जाता है।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत-

क. केषां हिंसावृत्तिः निरवधिः ?

उत्तर- मनवानां

ख. सभां कः सम्बोधयति ?

उत्तर- अश्वत्थदेवः

ग. मनुष्याः महारण्यम् उपगम्य किं कुर्वन्ति?

उत्तर- पशुघातम्

घ. सृष्टिधारासु सर्वाधिकाः मायाविनः के सन्ति ?

उत्तर- मानवाः

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. पशुहत्या केषां आक्रीडनम् ?

उत्तर- पशुहत्या मानवानाम् आक्रीडनम् ।

ख. सर्वविधविटपिनाम् मध्यभागे कः स्थितः?

उत्तर- सर्वविधविटपिनाम् अश्वत्थदेवः स्थितः ।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-

उचितविकल्पं चिनुत-

1. सभा कः विसर्जयामास ?

क. लता

ख. अश्वत्थदेव

ग. आम्रवृक्षः

घ. वटवृक्षः

ii. 'उपगम्य' इति पदे कः प्रत्ययः ?

क. ल्यप्

ख. क्त्वा

ग. क्त

घ. तुमुन्

iii. 'कथयन्तु' इति पदे कः धातुः ?

क. पठ्

ख. गम्

ग. हस्

घ. कथ्

iv. 'आक्रीडनम्' इति पदे कः उपसर्गः ?

क. अव

ख. आ

ग. अ

घ. नम्

गद्यांशः -

निरन्तरम् आत्मोन्नतये चेष्टमानाः लोभाक्रान्त हृदयाः मनुजन्मानः किल प्रतिक्षणं स्वार्थसाधनाय सर्वात्मना प्रवर्तन्ते। न धर्ममनुधावन्ति, न सत्यमनुबध्नन्ति । परं तृणवद् उपेक्षन्ते स्नेहम्। अहितमिव परित्यजन्ति आर्जवम्। अमङ्गलमिव उपघ्नन्ति विश्वासम्। न स्वल्पमपि बिभ्यति पापाचारेभ्यः, न किञ्चिदपि लज्जन्ते मुहुरनृतव्यवहारात्। नहि क्षणमपि विरमन्ति परपीडनात्। न केवलमेते पशुभ्यो निकृष्टास्तृणेभ्योऽपि निस्सारा एव। तृणानि खलु वात्यया सह स्वशक्तितः सुचिरमभियुध्य सम्मुखसमरप्रवर्तमाना वीरपुरुषा इव शक्तिक्षये क्षितितले निपतन्ति, न तु कदाचित् कापुरुषा इव स्वस्थानम् अपहाय प्रपलायन्त। मनुष्याः पुनः स्वचेतसा एव भविष्यत् समये सङ्घटिष्यमाणं कमपि विपत्पातमाकलय्य परिकम्पमानकलेवराः दुःख दुःखेन समयमतिवाहयन्ति। परिकल्पयन्ति च पर्याकुला बहुविधान् प्रतिकारोपायान् येन मनुष्यजीवने शान्तिसुखं मनोरथपथादतिक्रान्तमेव। अथ ते तावत्तृणेभ्योऽप्यसाराः पशुभ्योऽपि निकृष्टतरा - श्च। तथा च तृणा दिसृष्टेरनन्तरं तथाविधजीवनिर्माणं विश्वविधातुः कीदृशं

नाम बुद्धिमत्ताप्रकर्ष प्रकटयति । इत्येव हेतुप्रमाणपुरस्सरं सुचिरं बहुविधं विशदं च व्याख्याय सभापतिर- श्वत्थदेव उद्भिज्ज - परिषद् विसर्जयामास।

पदार्थाः/व्याकरणकार्यम्-

प्रकर्षम् - अधिकता।

पुरस्सरम् - पूर्वक, आगे; पुरः सरतीति पुरस्सरः तम्।

सुचिरम् - देर तक। विशदम् = विस्तारपूर्वक ।

व्याख्याय - व्याख्यान देकर; वि + आ + ख्या + ल्यप्।

सभापतिरश्वत्थदेवः - सभापतिः + अश्वत्थदेव।

उपगम्य - उप + गम् क्त्वा (ल्यप् प्रत्यय), पास जाकर

सर्वात्मना - पूरे मन से (सभी प्रकार से)

अभियुध्य - अभि + युध् + (ल्यप्) प्रत्यय संघर्ष करके

सङ्घटिष्यमाणं - सम् + घट् + शानच् प्रत्यय, घटित होने वाले

परिकम्पमानः - परि + कम्प् + कानच् प्रत्यय, प्रथमा विभक्ति एकवचन, काँपता हुआ

पर्याकुलाः - परि + आकुलाः, बेचैन

अतिक्रान्तम् - अति क्रम् क्त प्रत्यय, प्रथम पुरुष एकवचन, बाहर जा चुका है।

विक्लान्तः - वि + क्लम् + क्त प्रत्यय, थका हुआ

अनुवादः/भावार्थः -

निरन्तर अपनी उन्नति के लिए प्रयत्नशील, लोभ से ग्रस्त हृदय वाले मनुष्य सब प्रकार से अपनी स्वार्थसाधना के लिए प्रतिक्षण लगे रहते है। न धर्माचरण करते हैं, न सत्य को स्वीकारते हैं; अपितु स्नेह (= प्राणिमात्र के प्रति प्यार) को अतितुच्छ समझकर उसकी उपेक्षा करते हैं। सरलता को हानिकर वस्तु की भाँति त्याग देते हैं। विश्वास को अमंगल (= अपशकुन) समझकर नष्ट कर देते हैं। पापाचार से वे थोड़ा भी नहीं डरते। बार-बार के झूठे व्यवहार से उन्हें थोड़ी सी भी लज्जा नहीं होती। दूसरों को पीडित करने से वे क्षणभर भी विराम नहीं लेते। वे (मनुष्य) न केवल पशुओं से भी अधिक निकृष्ट हैं, (अपितु) तिनकों से भी अधिक तुच्छ हैं। तिनके तो आँधी के साथ अपनी शक्ति के अनुसार देर तक लड़कर, सम्मुख उपस्थित युद्ध में लगे हुए वीर पुरुषों की भाँति शक्तिक्षीण होने पर धरती पर गिर जाते हैं, न कि एक बार भी कायरों की तरह अपना स्थान छोड़कर भागते हैं। मनुष्य तो फिर अपने मन (ज्ञान) से ही भविष्य में होने वाली किसी विपत्ति का विचार कर कँपकँपाते शरीर वाले बड़े कष्टपूर्वक अपना समय बिताते हैं। और अति व्याकुल होकर प्रतिकार के लिए अनेक प्रकार के उपाय करते हैं, जिसके कारण मनुष्य जीवन में शान्ति और सुख उनके मनोरथ के मार्ग से दूर ही रहते हैं। इस प्रकार वे (मनुष्य) तिनकों से भी तुच्छ तथा पशुओं से भी निकृष्ट हैं। वनस्पति आदि की सृष्टि के पश्चात् इस प्रकार के जीवों (मनुष्यों) का निर्माण करना विश्व के सजनहार विधाता की कैसी बुद्धिमत्ता की अधिकता को प्रकट करता है ? इस प्रकार कारण और प्रमाण निर्देशपूर्वक बहुत देर तक, बहुत प्रकार से तथा विस्तृत व्याख्या करके सभापति  अश्वत्थदेव (पीपल-देव) ने वृक्षों की सभा को विसर्जित किया।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत-

क. मानवाः क्षणमपि किमर्थं न विरमन्ति ?

उत्तर- परपीडनात्

ख. के धर्म न अनुधावन्ति ?

उत्तर- मानवाः

ग. मानवाः आर्जवं कीदृशमेव परित्यजन्ति ?

उत्तर- अहितमिव

घ. मानवाः केभ्यः स्वल्पमपि न बिभ्यति ?

उत्तर- पापाचारेभ्यः

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. के परपीडनात् क्षणमपि न विरमन्ति ?

उत्तर- मानवाः परपीडनात् क्षणमपि विरमन्ति ।

ख. अमङ्गलमिव कम् उपघ्नन्ति ?

उत्तर- अमङ्गलमिव विशवासम् उपघ्नन्ति।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः

उचितविकल्पं चिनुत-

1. स्नेहम् उपेक्षन्ते ।

क. तृणवद्

ख. पुष्पवत्

ग. पत्रवत्

घ. काष्ठवत्

ii. 'परिकम्पमानः' इति पदे कः उपसर्गः ?

क. परि

ख. परी

ग. पर

घ. प्र

iii. 'परपीडनात्' इति पदे का विभक्तिः ?

क. तृतीया

ख. पञ्चमी

ग. चतुर्थी

घ. प्रथमा

iv. क्षणम् + अपि = --------

क. क्षणमपि

ख. क्षणमपी

ग. क्षणपि

घ. क्षणमापि

अभ्यासः

प्रश्न 1. संस्कृतभाषया उत्तरत -

(क) “उद्भिज्जपरिषद्' इति पाठस्य लेखकः कः अस्ति ?

उत्तर :  'उद्भिज्जपरिषद्' इति पाठस्य लेखकः पण्डित-हृषीकेश-भट्टाचार्यः अस्ति।

(ख) उद्भिजपरिषदः सभापतिः कः आसीत् ?

उत्तर : उद्भिज्जपरिषदः सभापतिः अश्वत्थ-देवः आसीत्।

(ग) अश्वत्थमते मानवाः तृणवत् कम् उपेक्षन्ते ?

उत्तर : अश्वत्थमते मानवाः तृणवत् स्नेहम् उपेक्षन्ते।

(घ) सृष्टिधारासु मानवो नाम कीदृशी सृष्टिः ?

उत्तर : सृष्टिधारासु मानवो नाम निकृष्टतमा सृष्टि:।

(ङ) मनुष्यायाणां हिंसावृत्तिः कीदृशी ?

उत्तर : मनुष्यायाणां हिंसावृत्तिः निरवधिः अस्ति।

(च) पशुहत्या केषाम् आक्रीडनम् ?

उत्तर : पशुहत्या मनुष्याणाम् आक्रीडनम्।

(छ) श्वापदानां हिंसाकर्म कीदृशम् ?

उत्तर : श्वापदानां हिंसाकर्म जठरानलनिर्वाणमात्रप्रयोजकम् अस्ति।

प्रश्न 2. रिक्तस्थानानि पुरयत -

(क) मानवा नाम सर्वासु सृष्टिधारासु निकृष्टतमा सृष्टिः।

(ख) मनुष्याणां हिंसावृत्तिः निरवधिः।

(ग) नहि ते करतलगतानपि हरिण-शशकादीन् उपघ्नन्ति।

(घ) परं तृणवद् उपेक्षन्ते स्हेनम्

(ङ) न केवलमेते पशुभ्यो निकृष्टास्तृणेभ्योऽपि निस्साराः एव।

प्रश्न 3. अधोलिखितानां पदानां वाक्येषु प्रयोगं कुरुत -

मायाविनः, श्वापदान्, निरवधिः, विसर्जयामास, बिभ्यति, पर्याकुला:, लज्जन्ते, विरमन्ति, कापुरुषाः, प्रकटयति।

(क) मायाविनः - सृष्टिधारासु मानवाः सर्वाधिकाः मायाविनः सन्ति।

(ख) श्वापदान् - मानवाः स्वमनोविनोदाय श्वापदान् हन्ति।

(ग) निरवधि: - मनुष्याणां हिंसावृत्तिः निरवधिः अस्ति।

(घ) विसर्जयामास - सभापतिः सभां विसर्जयामस।

(ङ) बिभ्यति - मानवाः पापाचारेभ्यः किमपि न बिभ्यति।

(च) पर्याकुला: - विपत्तिषु मानवाः पर्याकुलाः भवन्ति।

(छ) लजन्ते - मानवाः अनृतव्यवहारात् किञ्चिद् अपि न लज्जन्ते।

(ज) विरमन्ति - स्वार्थसाधनपरा: मानवाः परपीडनात् न विरमन्ति।

(झ) कापुरुषा: - कापुरुषाः तु आत्मरक्षाम् अपि कर्तुं न शक्नुवन्ति।

(ञ) प्रकटयति - शिशुः क्रोधं प्रकटयति।

प्रश्न 4. सप्रसगं हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या -

मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः। पशुहत्या तु तेषाम् आक्रीडनम्। केवलं विक्लान्तचित्तविनोदाय महारण्यम् उपगम्य ते यथेच्छं निर्दयं च पशुघातं कुर्वन्ति। तेषां पशुप्रहार-व्यापारमालोक्य जडानामपि अस्माकं विदीर्यते हृदयम्।

उत्तर : प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती-द्वितीयो भागः' के 'उद्भिज्ज-परिषद्' नामक पाठ से संकलित है। यह पाठ पण्डित हृषीकेश भट्टाचार्य के निबन्धसंग्रह 'प्रबन्ध-मञ्जरी' से लिया गया है। इस पाठ में वृक्षों की सभा के सभापति पीपल देव के द्वारा मनुष्य की हिंसक प्रवृत्ति के प्रति कठोर व्यंग्य किया गया है।

यहाँ पर मनुष्य की हिंसावृत्ति को पशु की हिंसावृत्ति से भी निकृष्ट कहा गया है, क्योंकि पशु तो केवल अपनी भूख शान्त करने के लिए पशु हिंसा करते हैं और एकबार भूख शान्त हो जाने पर सामने पशु देखकर भी उसपर प्रहार नहीं करते। परन्तु मनुष्य की हिंसावृत्ति की तो कोई सीमा ही नहीं है बल्कि वह असीम है, क्योंकि मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन न होते हुए भी वह उसे खाता है। इतना ही नहीं, अपने मनोरंजन के लिए भी पशुवध करता है। मनुष्य की इस विलक्षण एवं भयावह हिंसावृत्ति पर वृक्षों की सभा के सभापति अश्वत्थ (पीपल) को अत्यन्त खेद है और जड़ होने पर भी मनुष्य के इस दुष्कर्म से उसका हृदय फटा जा रहा है।

प्रश्न 5. प्रकृति-प्रत्ययविभागः क्रियताम् -

निकृष्टतमा, उपगम्य, प्रवर्तमाना, अतिक्रान्तम्, व्याख्याय, कथयन्तु, उपजन्ति, आक्रीडनम्।

                             प्रकृतिः + प्रत्ययः

(क) निकृष्टतमा = नि + कृष् + क्त + तमप् + टाप्

(ख) उपगम्य =    उप + गम् + ल्यप्

(ग) प्रवर्तमाना =   प्र + वृत् + शानच् + टाप्

(घ) अतिक्रान्तम् = अति + क्रम् + क्त

(ङ) व्याख्याय = वि + आ + चक्षि + ख्या + ल्यप्

(च) कथयन्तु = कथ् + लोट्, प्रथमपुरुषः, बहुवचनम्

(छ) उपघ्नन्ति = उप + हन् + लट् प्रथमपुरुषः, बहुवचनम्

(ज) आक्रीडनम = आ + क्रीड् + ल्युट् अन (नपुं० प्रथमा एकवचनम् )

प्रश्न 6. सन्धिच्छेदं कुरुत -

मानवा इव, भवन्तो, स्वोदरपूर्तिम्, हिंसावृत्तिस्तु, आत्मोन्नतिम्, स्वल्पमपि।

(क) मानवा इव = मानवाः + इव

(ख) भवन्तो नित्यम् = भवन्तः + नित्यम्

(ग) स्वोदरपूर्तिम् = स्व + उदरपूर्तिम्

(घ) हिंसावृत्तिस्तु = हिंसावृत्तिः + तु

(ङ) आत्मोन्नतिम् = आत्म + उन्नतिम्

(च) स्वल्पमपि = सु + अल्पम् + अपि

प्रश्न 7. अधोलिखितानां समस्तपदानां विग्रहं कुरुत -

महापादपाः, सृष्टिधारासु, करतलगतान्, वीरपुरुषाः, शान्तिसुखम्।

(क) महापादपाः - महान्तः पादपाः-कर्मधारयः।

(ख) सृष्टिधारासु - सृष्टिः एव धारा, तासु-कर्मधारयः।

(ग) करतलगतान् - करतलं गतान्-द्वितीया-तत्पुरुषः।

(घ) वीरपुरुषाः - वीराः पुरुषा:-कर्मधारयः।

(ङ) शान्तिसुखम् - शान्तिः च सुखं च तयोः समाहारः-द्वन्द्वः। 

JCERT/JAC REFERENCE BOOK

विषय सूची

अध्याय-1 विद्ययामृतमश्नुते (विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति होती है)

अध्याय-2 रघुकौत्ससंवादः

अध्याय-3 बालकौतुकम्

अध्याय-4 कर्मगौरवम्

अध्याय-5 शुकनासोपदेशः (शुकनास का उपदेश)

अध्याय-6 सूक्तिसुधा

अध्याय-7 विक्रमस्यौदार्यम् (विक्रम की उदारता)

अध्याय-8 भू-विभागाः

अध्याय-9 कार्यं वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम् (कार्य सिद्धकरूँगा या देह त्याग दूँगा)

अध्याय-10 दीनबन्धु श्रीनायारः

अध्याय-11 उद्भिज्ज परिषद् (वृक्षों की सभा)

अध्याय-12 किन्तोः कुटिलता (किन्तु शब्द की कुटिलता)

अध्याय-13 योगस्य वैशिष्ट्यम् (योग की विशेषता)

अध्याय-14 कथं शब्दानुशासनम् कर्तव्यम् (शब्दों का अनुशासन(प्रयोग) कैसे करना चाहिए)

JCERT/JAC प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)

विषयानुक्रमणिका

क्रम.

पाठ का नाम

प्रथमः पाठः

विद्ययाऽमृतमश्नुते

द्वितीयः पाठः

रधुकौत्ससंवादः

तृतीयः पाठः

बालकौतुकम्

चतुर्थः पाठः

कर्मगौरवम्

पंचमः पाठः

शुकनासोपदेशः

षष्ठः पाठः

सूक्तिसुधा

सप्तमः पाठः

विक्रमस्यौदार्यम्

अष्टमः पाठः

भू-विभागाः

नवमः पाठः

कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्

दशमः पाठः

दीनबन्धुः श्रीनायारः

एकादशः पाठः

उद्भिज्ज -परिषद्

द्वादशः पाठः

किन्तोः कुटिलता

त्रयोदशः पाठः

योगस्य वैशिष्टयम्

चतुर्दशः पाठः

कथं शब्दानुशासनं कर्तव्यम्

JAC वार्षिक माध्यमिक परीक्षा, 2023 प्रश्नोत्तर

Sanskrit Solutions शाश्वती भाग 2













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