12th Sanskrit 2. रघुकौत्ससंवादः JCERT/JAC Reference Book

12th Sanskrit 2. रघुकौत्ससंवादः JCERT/JAC Reference Book

12th Sanskrit 2. रघुकौत्ससंवादः JCERT/JAC Reference Book

2. रघुकौत्ससंवादः

अधिगम प्रतिफलानि

1 संस्कृतश्लोकान उचितबलाघातपूर्वकं छन्दोऽनुगुणम् उच्चारयति ।

(संस्कृत श्लोकों का छन्दानुसार उचित लय के साथ उच्चारण करते हैं।)

2. श्लोकान्वयं कर्तुं समर्थः अस्ति।

(श्लोकों का अन्वय करने में समर्थ होते हैं।)

3. तेषां भावार्थं प्रकटयति ।

(उनके भावार्थ प्रकट करते हैं।)

पाठ परिचयः

प्रस्तुत पाठ्यांश महाकवि कालिदास द्वारा विरचित रघुवंश महाकाव्य के पंचम सर्ग से संकलित है। इसमें महाराज रघु एवं वरतन्तु ऋषि के शिष्य कौत्स नामक ब्रह्मचारी के मध्य साकेत नगरी में हुआ संवाद वर्णित है।

कौत्स वेद, पुराण, वेदाङ्ग, दर्शन आदि 14 विद्याओं का अध्ययन समाप्त करके गुरु दक्षिणा देने की इच्छा से अपने गुरु वरतन्तु से बार- बार गुरु दक्षिणा लेने की प्रार्थना करता है। गुरु द्वारा गुरु भक्ति को ही गुरु दक्षिणा के रूप में मानने पर भी कौत्स की निरन्तर प्रार्थना रूपि जिद से रुष्ट होकर वरतन्तु उसे गुरु दक्षिणा के रूप में 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राएं देने की आज्ञा देते हैं।

कौत्स विश्वजित् नामक यज्ञ में सर्वस्व दान कर चुके महाराज रघु के पास गुरूदक्षिणा के लिए धन माँगने आता है। महाराज रघु धनपति कुबेर पर आक्रमण करने की योजना बनाते हैं। भयभीत कुबेर रघु के कोषागार में सुवर्ण-वृष्टि कर देते हैं। रघु कौत्स को धन प्रदान कर सन्तुष्ट होते हैं और कौत्स भी गुरु को देने के लिए गुरु दक्षिणा प्राप्त कर सन्तुष्ट हो जातें हैं।

पाठसन्देशः -

प्रस्तुत पाठ्यांश से यह सन्देश मिलता है कि शासक को, सर्वसाधारण जन के प्रति उदार एवं कल्याणकारी होना चाहिए तथा याचक को अपनी आवश्यकता से अधिक प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए।

श्लोकांश

तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशं

निःशेषविश्राणितकोषजातम्।

उपात्तविद्यो गुरुदक्षिणार्थी

कौत्सः प्रपेदे वरतन्तुशिष्यः।। 1।।

 

स मृण्मये वीतहिरण्मयत्वात्

पात्रे निधायार्घ्यमनर्घशीलः ।

श्रुतप्रकाशं यशसा प्रकाशः

प्रत्युज्जगामातिथिमातिथेयः ।। 2।।

अन्वयः

विश्वजित् अध्वरे निःशेष विश्राणित कोषजातम् तं क्षितीशम् उपात्तविद्यः गुरुदक्षिणार्थी वरतन्तुशिष्यः कौत्सः प्रपेदे। 1।।

अन्वयः

अनर्घशीलः यशसाप्रकाशः आतिथेयः सः वीतहिरण्मयत्वात् मृण्मये पात्रे अर्घ्यम् निधाय श्रुतप्रकाशम् अतिथिम् प्रत्युज्जगाम। 2।।

पदार्थाः

विश्वजिति अध्वरे - विश्वजित् नामक यज्ञ में

निःशेष विश्राणित- कोषजातम् समाप्त हो गया है खजाना जिसका। सम्पूर्ण

क्षितीशम् - राजा के पास।

उपात्तविद्यः- प्राप्त की हैं विद्याएँ जिसने।

गुरूदक्षिणार्थी- गुरू को दक्षिणा देने की इच्छा से प्रार्थना करने वाला।

प्रपेदे - पहुँचा।

अनर्घशीलः- श्रेष्ठ स्वभाव वाले।

यशसा- कीर्ति से।

प्रकाशः- प्रकाशित।

आतिथेयः- अतिथि सेवा में।

वीतहिरण्मयत्वात् - सुवर्णमय पात्रों का अभाव होने से।

मृण्मये पात्रे - मिट्टी के पात्र में।

अर्घ्यम् - पूजा की सामग्री।

निधाय - रखकर।

श्रुतप्रकाशम् - शास्त्र से प्रसिद्ध।

प्रत्युज्जगाम- स्वागत के लिए उपस्थित हुए।

अनुवादः / भावार्थः

विश्वजित नामक यज्ञ में सम्पूर्ण कोष की राशि दान में देने वाले उस महाराज रघु के पास चौदह विद्याओं का अध्ययन करने वाला वरतन्तु ऋषि का शिष्य कौत्स गुरुदक्षिणा देने की कामना करता हुआ पहुँचा।। 1।।

श्रेष्ठ स्वभाव वाले कीर्ति से विख्यात अतिथि सेवा में चतुर महाराज रघु (यज्ञ में सर्वस्व दान कर देने के कारण) सुवर्णमय पात्रों का अभाव होने से मिट्टी के पात्र में पूजा की सामग्री रखकर शास्त्रादि से प्रसिद्ध अतिथि कौत्स का स्वागत करने के लिए उपस्थित हुए। 2।।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत

(i) वरतन्तोः शिष्यः कः अस्ति ?

उत्तराणि- कौत्सः

(ii) क्षितीशः कस्मिन् समग्रकोषं दत्तवान्।

उत्तराणि- विशवजिति अध्वरे

(iii) रघुः कीदृशे पात्रे अर्घ्य निहितवान् ?

उत्तराणि- मृण्मये

(iv) अनर्घ्यशीलः, यशसा प्रकाशः कस्य विशेषणे स्तः ?

उत्तराणि- रघोः

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत

(i) कौत्स कीदृशस्य क्षितीशस्य समीपे गतवान्?

उत्तराणि- कौत्सः विश्वजीति अध्वरे निःशेषविश्राणितकोषजा-तस्य क्षितीशस्य समीपे गतवान।

(ii) रघु कस्मात् कीदृशे च पात्रे अर्घ्यम् निधाय अतिथिं प्रत्युज्जगाम ?

उत्तराणि- रघुः वीतहिरण्यमयत्वात् मृण्मये पात्रे अर्घ्यम् नि-धाय अतिथिं प्रत्युज्जगाम ।

(3) बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः

(i) 'विश्वजिति' इति विशेषणस्य विशेष्यपदं किम् ?

(क) अध्वरे

(ख) निःशेषः

(ग) क्षितीशम्

(घ) कौत्स।

(ii) 'प्रपेदे' इति क्रियापदस्य पद्यांशे कर्तृपदं किम् ?

(क) कोषजातम

(ख) तम्

(ग) कौत्स

(घ) क्षितीशम्।

(iii) 'पात्रे' इति विशेष्यपदस्य विशेषणं किम्?

(क) काष्ठमये

(ख) अनर्घशीले

(ग) मृण्मये

(घ) श्रुतप्रकाशम्।

(iv) 'स' इति सर्वनामपदस्य संज्ञापदं किम् ?

(क) कौत्स

(ख) अतिथि

(ग) वरतन्तु

(घ) रघुः।

पाठांशः

तमर्चयित्या विधिव‌द्विधिज्ञः

तपोधनं मानधनाग्रयायी।

विशाम्पतिर्विष्टरभाजमारात्

कृताञ्जलिः कृत्यविदित्युवाच ।। 3।।

 

अप्यग्रणीर्मन्त्रकृतामृषीणां

कुशाग्रबुद्धे कुशली गुरुस्ते।

यतस्त्वया ज्ञानमशेषमाप्तं

लोकेन चैतन्यमिवोष्णरश्मेः ।। 4।।

अन्वयः

विधिज्ञः मानधनाग्रयायी कृत्यवित् विशांपतिः

विष्टरभाजम् तम् तपोधनम् विधिवत् अर्चयित्वा

आरात् कृताञ्जलिः सन् इति ज्वाच। 3।।

कुशाग्रबुद्धे ।

मन्त्रकृताम् ऋषीनाम् अग्रणी ते गुरुः कुशली अपि ?

यतः त्वया अशेषं ज्ञानं लोकेन

उष्णरश्मेः चैतन्यम् इव आप्तम्। 4।।

पदार्थाः

विधिज्ञः - शास्त्रविधि को जानने वाले।

मानधनाग्रयायी - सम्मान को ही धन मानने वालों में अग्रेसर।

कृत्यवित्- कृत्य को जानने वाले।

विशांपतिः - मनुष्यों के स्वामी।

विष्टरभाजम्- आसन पर विराजमान।

तपोधनम् - तपस्वी की।

अर्चयित्वा- पूजा करके।

कृताञ्जलिः- हाथ जोड़ते हुए।

इति उवाच- इस प्रकार कहा।

कुशाग्रबुद्धे - हे प्रखर बुद्धि वाले।

मन्त्रकृताम् - मन्त्रदृष्टा।

अग्रणी- अग्रगण्य।

कुशली- सकुशल।

यतः- जिनसे।

त्वया- आपने।

अशेषं- समस्त ।

लोकेन - संसार के द्वारा।

उष्णरश्मेः - सूर्य से।

चैतन्यम् - चेतना।

आप्तम्- प्राप्त किया है।

अनुवादः /भावार्थः

शास्त्र की विधियों को जानने वाला, सम्मान को ही धन मानने वालों में अग्रसर (अतिथि को आने का प्रयोजन पूछना चाहिए) इस कृत्य को जानने वाले मनुष्यों अथवा प्रजा के स्वामी महाराज रघु ने आसन पर विराजमान उस तपस्वी की विधि पूर्वक पूजा कर समीप में जाकर हाथ जोड़ते हुए इस प्रकार निवेदन किया। 3।।

हे कुश के अग्रभाग के समान प्रखर बुद्धि वाले! मन्त्रदृष्टा ऋषियों में अग्रगण्य आपके गुरु सकुशल तो हैं ? जिनसे आपने समस्त ज्ञान उसी प्रकार प्राप्त किया है जिस प्रकार उष्ण रश्मि सूर्य से संसार चेतना प्राप्त करता है। 4।।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत

(i) मानधनाग्रयायी कस्य विशेषणमस्ति ?

उत्तराणि- रघोः

(ii) कः कृताञ्जलिः सन् उवाच ?

उत्तराणि- राजा रघुः

(iii) मन्त्रकृताम् ऋषीणाम् अग्रणी क: ?

उत्तराणि- गुरुः वरतन्तुः

(iv) लोकेन उष्णरश्मेः किम् आप्तम् ?

उत्तराणि- चैतन्यम्।

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत

(i) राजा रघु कं विधिवत् अर्चितवान् ?

उत्तराणि- राजा रघुः विष्टरभाजं तपोधनं तं कौत्सं विधिवत् अर्चितवान्।

(ii) कौत्सेन कुतः अशेषं ज्ञानं प्राप्तम् ?

उत्तराणि- कौत्सेन स्वगुरोः वरतन्तोः सकाशात् अशेषं ज्ञानं प्राप्तम्।

3. पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

(i) अस्मिन् पद्ये 'विशाम्पतिः' इति विशेषणं कस्मै प्रयुक्तम् ?

(क) कौत्साय

(ख) रघवे

(ग) वरतन्तवे

(घ) कुबेराय

(ii) 'उवाच' इति क्रियापदस्य कर्तृपदं किम् ?

(क) मुनि

(ख) कौत्स

(ग) द्वारपालः

(घ) रघु।

(iii) 'त्वया' इति सर्वनामपदस्थाने संज्ञापदं किम् ?

(क) रघुणा

(ख) कौत्से

(ग) गुरूता

(घ) जनेन

(iv) 'सूर्यात्' इत्यस्य पद्यांशे पर्यायशब्दः कः?

(क) लोकात्

(ख) मन्त्रकृतात्

(ग) गुरोः

(घ) उष्णरश्मेः।

पाठांशः

तवार्हतो नाभिगमेन तृप्तं

मनो नियोगक्रिययोत्सुकं मे।

अप्याज्ञया शासितुरात्मना वा

प्राप्तोऽसि सम्भावयितुं वनान्माम् ।।5।।

इत्यर्घ्यपात्रानुमितव्ययस्य

रघुरुदारामपि गां निशम्य।

स्वार्थोपपत्तिंप्रतिदुर्बलाश-

स्तमित्यवोचद्वरतन्तुशिष्यः ।।6।।

अन्वयः

अर्हतः तव अभिगमेन मे मनः न तृप्तम्, किन्तु नियोगक्रियया उत्सुकम् शासितुः आज्ञया अपि आत्मना वा माम् सम्भावयितुं वनात् प्राप्त असि ?। 5।।

अर्घ्यपात्रानुमितव्ययस्य रघोः इति उदाराम् अपि गाम् निशम्य वरतन्तुशिष्यः स्वार्थोपपत्तिं प्रति दुर्बलाशः सन् तम् इति अवोचत्।

पदार्थाः

अर्हतः - पूज्य।

अभिगमेन - आगमन मात्र से।

न तृप्तम् - सन्तुष्ट नहीं है।

नियोगक्रियया - आदेश से।

उत्सुकम् - उत्कण्ठित है।

शासीतुः - शासन करने वाले (गुरु वरतन्तु) की।

आज्ञया - आज्ञा से।

आत्मना वा - अथवा स्वयं।

सम्भावयितुम् - सम्मान देने के लिए।

प्राप्तः असि - आये हैं।

अर्घ्यपात्रानुमितव्ययस्य - अर्घ्य सम्बन्धी पात्रों से अनुमान किया जा चुका है व्यय जिसका।

उदारामपि - उदारता युक्त।

गाम् - वाणी को।

निशम्य - सुनकर।

स्वार्थोपपत्तिं प्रति - स्वार्थसिद्धि के प्रति।

दुर्बलाशः - निराश होते हुए।

इति - इस प्रकार।

अवोचत् - कहा।

अनुवादः / भावार्थः

पूज्य आपके आगमन मात्र से मेरा मन सन्तुष्ट नहीं है किन्तु आपके आदेश से समुत्कण्ठित है अर्थात् मेरा मन आपके आदेश को जानने के लिए उत्कण्ठित हो रहा है। आप अपने शासक गुरु वरतन्तु की आज्ञा से यहाँ पधारे हैं अथवा स्वयं मुझे सम्मान देने के लिए तपोवन से आये हैं। 5।।

पूजा के पात्रों से ही जिसके व्यय- सर्वस्व दान का अनुमान कर लिया गया है, उस रघु की पूर्वोक्त प्रकार की परमोदार वाणी सुनकर वरतन्तु के शिष्य कौत्स ने अपनी (गुरू दक्षिणा के निमित्त देय धन के) स्वार्थ सिद्धि के प्रति निराश होते हुए इस प्रकार कहा। 6।।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत

(i) कस्य मनः न तृप्तम् ?

उत्तराणि - रघोः

(ii) रघु सम्भावयितुं वनात् कः आगतः ?

उत्तराणि - कौत्सः

(iii) कः स्वार्थोपपत्तिं प्रति दुर्बलाशः अभवत् ?

उत्तराणि - कौत्स

(iv) कीदृशीं गां निशम्य कौत्सः अवोचत् ?

उत्तराणि - उदाराम्

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत

(i) रघोः मनः किमर्थम् उत्कण्ठितम् आसीत्?

उत्तराणि - रघोः मनः कौत्सस्य आगमनस्य प्रयोजनं ज्ञातुम् उत्कण्ठितम् आसीत्।

(ii) कौत्सः रघोः हस्ते अर्घ्यपात्रं दृष्ट्वा किम् अनुमानम् अकरोत् ?

उत्तराणि - कौत्सः रघोः हस्ते अर्घ्यपात्रं दृष्ट्वा तस्य सम्पूर्णसम्पत्तेः व्ययस्य अनुमानम् अकरोत्।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः

(i) 'अर्हतः' इति विशेषणं कस्मै प्रयुक्तम् ?

(क) रघवे

(ख) वरतन्तवे

(ग) कुबेराय

(घ) कौत्साय।

(ii) 'तृप्तम्' इति क्रिययाः कर्तृपदं किम् ?

(क) तव

(ख) मनः

(ग) अर्हतः

(घ) म।

(iii) 'तम् अवोचत्' इत्यत्र 'तम् सर्वनामपदस्थाने संज्ञापदं लिखत।

(क) कौत्सम्

(ख) वरतन्तुम्

(ग) शिष्यम्

(घ) रघुम्

(iv) 'श्रुत्वा' इत्यस्य पद्यांशे पर्याय कः ?

(क) अवोचत्

(ख) निशम्य

(ग) अनुमितम्

(घ) उदाराम्

पाठांशः

सर्वत्र नो वार्तमवेहि राजन्!

नाथे कुतस्त्वय्यशुभं प्रजानम्।

सूर्ये तपत्यावरणाय दृष्टेः

कल्पेत लोकस्य कथं तमिस्रा।। 711

शरीरमात्रेण नरेन्द्र तिष्ठन्

आभासि तीर्थप्रतिपादितर्द्धिः।

आरण्यकोपात्तफलप्रसूतिः

स्तम्बेन नीवार इवावशिष्टः ।। ৪।।

अन्वयः

राजन्! त्वम् सर्वत्र नः वार्तम् अवेहि।

त्वयि नाथे सति प्रजानाम् अशुभम् कुतः?

सूर्ये तपति 'सति' तमिस्रा लोकस्य

दृष्टेः आवरणाय कथम् कल्पेत। 7।।

अन्वयः

नरेन्द्र! तीर्थप्रतिपादितर्द्धिः 'त्वम्'

शरीरमात्रेण तिष्ठन् आरण्यकोपात्तफलप्रसूतिः

स्तम्बेन अवशिष्टः नीवार इव आभासि। 8 ।।

पदार्थाः

सर्वत्र - सब प्रकार से।

नः - हमारा।

वार्तम् - स्वस्थ, कुशल-मंगल।

अवेहि - समझो।

त्वयि - आप जैसे।

नाथे - स्वामी के रहते हुए।

अशुभम् - अमंगल।

कुतः - कैसे, कहाँ से।

सूर्ये तपति - सूर्य के प्रकाशमान होते हुए।

तमिस्रा - अन्धकार समूह।

लोकस्य - लोगों की।

दृष्टे - दृष्टि को।

आवरणाय - अवरुद्ध करने में।

कथम् - किस तरह।

कल्पेत् - समर्थ हो सकता है।

नरेन्द्र - हे राजन्!

तीर्थप्रतिपादितद्धि - सर्वस्व दान करने वाला। सत्पात्रों के लिए

तिष्ठन् - विराजमान।

आरण्यकोपात्तफलप्रसूतिः - मुनियों आदि के द्वारा फल ग्रहण कर लेने की उपरांत ।

स्तम्बेन - डण्ठल।

अवशिष्टः - बचा हुआ।

नीवार इव - धान्य विशेष के समान।

आभासि - प्रतीत होता है।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत

(i) नाथे सति केषाम् अशुभं न भवति ?

उत्तराणि- प्रजानाम्

(ii) तमिस्रा कस्य दृष्टिं अवरूद्ध करोति ?

उत्तराणि- लोकस्य

(iii) शरीरमात्रेण तिष्ठन् कः शोभते ?

उत्तराणि- रघुः

(iv) स्तम्बेन नीवार इव कः अवशिष्टः आसीत्?

उत्तराणि- राजा रघुः

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत –

(i) सूर्ये तपति किं भवति ?

उत्तराणि- सूर्ये तपति अन्धकार लोकस्य दृष्टिम् अवरोद्धं न शक्नोति

(ii) कीदृशः निवारः शोभते ?

उत्तराणि- आरण्यकोपात्तफलप्रसूतिः स्तम्बेन अवशिष्टः नीवारः शोभते ।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः

(i) 'सूर्ये' इत्यस्य क्रियापदं किमस्ति ?

(क) कल्पेत

(ख) तपति

(ग) अवेहि

(घ) आवरणाय।

(ii) 'त्वयि' इति सर्वनामपदं कस्मै प्रयुक्तम्?

(क) कौत्साय

(ख) सूर्याय

(ग) अन्धकाराय

(घ) रघवे।

(iii) 'तिष्ठन् इति क्रियापदस्य कर्तृपदं किमस्ति ?

(क) नरेंद्र:

(ख) तीर्थः

(ग) नीवारः

(घ) आरण्यकः।

(iv) 'सुशोभसे` इत्यर्थे अत्र पर्यायपदं किम् ?

(क) अवशिष्टः

(ख) तिष्ठन्

(ग) रम्यसे

(घ) आभासि।

पाठांशः

तदन्यतस्तावदनन्यकार्यो

गुर्वर्थमाहर्तुमहं यतिष्ये।

स्वस्त्यस्तु ते निर्गलिताम्बुगर्भ

शरद्धनं नार्दति चातकोऽपि ।। 9।।

एतावदुक्त्वा प्रतियातुकामं

शिष्यं महर्षेर्नृपतिर्निषिध्य

किं वस्तु विद्वान ! गुरवे प्रदेयं

त्वया कियद्वेति तमन्वयुङ्क्तः।। 10।।

अन्वयः

तत् तावत् अनन्य कार्य: अहम्

अन्यतः गुर्वर्थम् आहर्तुम् यतिष्ये,

ते स्वस्ति अस्तु (हि) चातकः अपि

निर्गलिताम्बुगर्भम् शरद्धनम् न अर्दति। 9 ।।

अन्वयः-

एतावत् उक्त्वा प्रतियातुकामम् महर्षेः शिष्यं

नृपतिः निषिध्य, विद्वन ।

त्वया गुरवे किं वस्तु कियद् वा

प्रदेयम् इति तम् अन्वयुङ्क्तः। 10 ।।

पदार्थाः

तत् - उस, वह।

तावद् - तब तक ।

अनन्य कार्य - कार्यान्तर व्यवधान से रहित।

अन्यत - अन्य स्थान से।

गुर्वर्थम् - गुरु के लिए धन।

आहर्तुम् - लाने के लिए।

यतिष्ये - प्रयास करूँगा।

ते - आपका।

स्वस्ति अस्तु - कल्याण होवे।

चातकोऽपि - चातक नामक पक्षी भी।

निर्गलिताम्बुगर्भम् - पानी बरस जाने पर निर्जल मेघ को।

शरद्धनम् - शरदकालीन निर्जल मेघ को।

नार्दति - याचना नहीं करता।

एतावत् - इस प्रकार।

प्रतियातुकामम् - लौट जाने को तैयार।

महर्षेः - गुरू वरतन्तु के।

निषिध्य - रोककर।

गुरवे - गुरु के लिए।

प्रदेयम् - देने योग्य।

किम् - कौन-सी।

कियत् वा - अथवा कितनी।

तम् - उस को।

अन्वयुङ्क्त - पूछा।

अनुवादः / भावार्थः

अतः (जब तक अभीष्ट गुरु दक्षिणा के द्रव्य की प्राप्ति नहीं हो जाती) तब तक मेरा और कोई कार्य नहीं है।

मैं अन्य दाता के पास से गुरू के लिए दक्षिणा द्रव्य प्राप्त करने का प्रयास करूँगा। आपका कल्याण हो। चातक पक्षी भी पानी बरस जाने के कारण रिक्त गर्भ वाले शरद् काल के मेघ से याचना नहीं करता है। 9।।

इतना कहकर वापस लौट चलने की इच्छा वाले महर्षि वरतन्तु के शिष्य को 'वापस लौटने से मना करके राजा ने पूछा- हे विद्वान् । आपको अपने गुरु को कौन-सी वस्तु देनी है अथवा कितनी देनी है? 10।।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत

(i) कः शरद् घनं न अर्दति ?

उत्तराणि- चातकः

(ii) कस्य स्वस्ति अस्तु ?

उत्तराणि- रघोः

(iii) प्रतियातुकामः कः आसीत्?

उत्तराणि- कौत्सः

(iv) महर्षेः शिष्यं कः निषिद्धवान्।

उत्तराणि- राजा रघु

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत

(i) कौत्स नृपरघु किम् अकथयत् ?

उत्तराणि- कौत्सः नृपरघुम् अकथयत् यत् -'अनन्यकार्यः अन्यतः गुर्वर्थम् आहर्तुं यतिष्ये।

(ii) नृपतिः कौत्स किम् अपृच्छत् ?

उत्तराणि- नृपतिः कौत्सम् अपृच्छत् यत् त्वया गुरवे किं वस्तु कियद् वा प्रदेयम्।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः

(i) 'निर्गलिताम्बुगर्भम्' इति विशेषणस्य विशेष्यपदं किम् ?

(क) शरद्धनं

(ख) चातकः

(ग) अहम्

(घ) रघु।

(ii) 'अर्दति' इति क्रियापदस्य पद्यांशे कर्तृपदं किम् ?

(क) अहम्

(ख) ते

(ग) चातक

(घ) गुरू।

(iii) 'तमन्वयुङक्त' इत्यत्र 'तम्' इति सर्वनामस्थाने संज्ञापदं लिखत।

(क) कौत्सम्

(ख) लक्ष्य

(ग) गुरुम्

(घ) वस्तु।

(iv) 'राजा' इति पदस्य अत्र कः पर्यायः ?

(क) भूपति

(ख) विद्वन्

(ग) नृपतिः

(घ) महर्षेः

पाठांशः

ततो यथावद्विहिताध्वराय

तस्मै स्मयावेशविवर्जिताय।

वर्णाश्रमाणां गुरवे स वर्णी

विचक्षणः प्रस्तुतमाचचक्षे।। 11।।

समाप्तविद्येन मया महर्षि-

र्विज्ञापितोऽभूद्गुरूदक्षिणायै।

स मे चिरायास्खलितोपचारां

तां भक्तिमेवागणयत्पुरस्तात्।। 12॥

अन्वयः

ततः यथावत् विहिताध्वराय स्मयावेशविवर्जिताय

वर्णाश्रमाणाम् गुरवे तस्मै सः

विचक्षणः वर्णी प्रस्तुतम् आचचक्षे। ॥ 11 ॥

अन्वयः

समाप्तविद्येन मया महर्षिः गुरूदक्षिणायै विज्ञापितः अभूत् ।

सः चिराय अस्खलितोपचाराम् ताम् मे

भक्तिम् एव पुरस्तात् अगणयत्। 12।।

पदार्थाः

ततः - राजा रघु द्वारा पूछे जाने के बाद।

यथावत् - शास्त्रानुकूल।

विहिताध्वराय - यज्ञ सम्पन्न करने वाले।

स्मयावेशविवर्जिताय - निरभिमान।

वर्णाश्रमाणाम् - चारों वर्ण एवं चारों आश्रमों के।

गुरवे - नियामक।

तस्मै - महाराज रघु के।

विचक्षणः - पण्डित।

वर्णी - ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले।

सः - उस वरतन्तु शिष्य कौत्स ने।

प्रस्तुतम् - प्रकृत विषय में।

आचचक्षे - कहना प्रारंभ किया

समाप्तविद्येन - विद्याध्ययन समाप्त करके।

महर्षिः - महामुनि वरतन्तु।

गुरुदक्षिणायै - गुरूदक्षिणा के लिए।

विज्ञापितः - प्रार्थना की।

चिराय - बहुत समय से।

अस्खलितोपचाराम् - निरन्तर अबाध रूप से की गई सेवा को।

भक्तिम् एव - सेवा ही।

पुरस्तात् - सामने।

अगणयत् - स्वीकार किया।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत

(i) वर्णाश्रमाणां गुरूः कः आसीत् ?

उत्तराणि- राजा रघुः

(ii) विचक्षणः वर्णी कः आसीत् ?

उत्तराणि- कौत्स

(iii) समाप्तविद्येन मया समाप्ता ? कस्य विद्या

उत्तराणि- कौत्सस्य

(iv) कौत्सेन महर्षिः किमर्थ विज्ञापितः अभूत्?

उत्तराणि- गुरूदक्षिणार्थम्

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत

(i) कौत्सः कस्मै प्रस्तुतम् आचचक्षे ?

उत्तराणि- कौत्सः विहिताध्वराय स्मयावेशविवर्जिताय वर्णाश्रमाणां गुरवे रघवे प्रस्तुतम् आचचक्षे।

(ii) महर्षिः गुरू दक्षिणारूपे किम् एव पुरस्तात् अगणयत्।

उत्तराणि- महर्षिः गुरूदक्षिणारूपे चिराय अस्खलितोपचारां भक्तिमेव पुरूस्तात् अगणयत्।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः

(i) 'विहिताध्वराय' इति विशेषणं कस्मै प्रयुक्तम् ?

(क) कौत्साय

(ख) वरतन्तवे

(ग) रघवे

(घ) कुबेराय।

(ii) 'सः विचक्षणः' इत्यत्र 'स' सर्वनामस्थाने संज्ञापदं लिखत ?

(क) कौत्सः

(ख) रघुः

(ग) गुरुः

(घ) शिष्यः।

(iii) 'अगणयत्' इति क्रियापदस्य कर्तृपदं किम् ?

(क) मया

(ख) ताम्

(ग) सः

(घ) भक्तिमय।

(iv) 'अचिराय' इत्यस्य अत्र विलोमपदं किम्?

(क) पुरस्तात्

(ख) उपचाराम्

(ग) शीघ्रम्

(घ) चिराय।

पाठांशः

निर्बन्धसञ्जातरूषार्थकार्थ्य-

मचिन्तयित्वा गुरुणाहमुक्तः।

वित्तस्य विद्यापरिसंख्यया में

कोटीश्चतस्रो दश चाहरेति ।। 13।।

इत्थं द्विजेन द्विजराजकान्ति-रावेदितो वेदविदां वरेण।

एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिरेनं

जगाद भूयो जगदेकनाथः।। 14।।

अन्वयः

निर्बन्धसञ्जातरूषा गुरुणा अर्थकार्यम्

अचिन्तयित्वा अहम् वित्तस्य

चतस्रः दश च कोटी: मे आहर

इति विद्यापरिसंख्यया उक्तः। 13।।

अन्वयः

द्विजराजकान्तिः एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिः

जगदेकनाथः 'वेदविदाम् वरेण'

द्विजेन इत्थम् आवेदितः

'सन्' एनम् भूयः जगाद।

पदार्थाः

निर्बन्धसञ्जातरूषा - बार-बार आग्रह करने से क्रुद्ध हुए।

गुरुणा - आचार्य ने।

अर्थकार्श्यम् - धन के अभाव के विषय में।

अचिन्तयित्वा - विचार न कर।

का चतस्रः दश च कोटि: - चौदह करोड़।

आहर - लाओ।

विद्यापति संख्या - विद्या की परिगणना के अनुसार।

उक्तः - कहा गया।

द्विजराजकान्तिः - चन्द्रमा की कान्ति।

एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिः - पापाचरण से दूर इन्द्रियों वाले।

जगदेकनाथः - संसार के एकमात्र चक्रवर्ती सम्राट रघु।

वेदविदाम् - वेद के जानने वालों में।

वरेण - श्रेष्ठ।

द्विजेन - ब्राह्मण कौत्स के द्वारा।

इत्थम् - पूर्वोक्त प्रकार से।

आवेदितः सन् - निवेदन किये जाने पर।

एनम् - कौत्स को।

भूयः - पुनः।

जगाद - कहा।

अनुवाद / भावार्थ:

बार-बार गुरु दक्षिणा के लिए आग्रह करने पर क्रुद्ध हुए गुरु जी ने धन की कृशता (मेरी दरिद्रता) का बिना विचार किए ही मुझसे चौदह करोड़ मुद्राएँ लाओ ऐसा विद्या की संख्या के अनुसार कहा है। 13।।

चंद्रमा की कांति के समान कांति वाले, समस्त पापों से विमुख इन्द्रियों की वृत्ति वाले, संसार के एकमात्र स्वामी महाराज रघु ने वेदों के जानने वालों में श्रेष्ठ ब्राह्मण कौत्स के द्वारा इस प्रकार निवेदित होते हुए उनसे अर्थात् कौत्स ने पुनः कहा। 14।।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत

(i) रूषा गुरुणा किं अचिन्तयित्वा कौत्सः उक्तः ?

उत्तराणि- अर्थकार्श्यम्

(ii) कौत्सस्य गुरुः कः आसीत् ?

उत्तराणि- महर्षिः वरतन्तुः

(iii) वेदविदांवरेण द्विजेन कः आवेदितः ?

उत्तराणि- राजा रघुः

(iv) राजा रघुः कम् भूयः जगाद ?

उत्तराणि- कौत्सम्

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत

(i) वरतन्तुः कौत्सं गुरूदक्षिणारूपे कियत् धनम् अयाचत्?

उत्तराणि- वरतन्तुः कौत्सं गुरूदक्षिणारूपे चतुर्दशकोटिमितं धनम् अयाचत्।

(ii) रघुः कीदृशः आसीत् ?

उत्तराणि- रघुः द्विराजकान्तिः एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिः जगदेकनाथश्च आसीत्।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः

(i) 'निर्बन्धसञ्जातरूषा' इति विशेषणस्य विशेष्यपदं किम् ?

(क) कौत्सेन

(ख) गुरूणा

(ग) मया

(घ) अहम्।

(ii) 'उक्तः' इति क्रियापदस्य अत्र कर्तृपदं किम ?

(क) अहम्

(ख) मे

(ग) कोटी:

(घ) गुरुणा।

(iii) 'एनम्' इति लिखत। सर्वनामपदस्थाने संज्ञिपदं

(क) गुरूम्

(ख) कौत्सम्

(ग) नृपम्

(घ) द्विजम्।

(iv) 'ब्राह्मणेन' इति पदस्य अत्र कः पर्यायः?

(क) कान्ति

(ख) जगदेकनाथः

(ग) द्विजेन

(घ) एनम्।

पाठांशः

गुर्वर्थमर्थी श्रुतपारदृश्वा

रघोः सकाशादनवाप्य कामम्।

गतो वदान्यान्तरमित्ययं मे

मां भूत्परीवादनवावतारः ।। 15।।

स त्वं प्रशस्ते महिते मदीये

वसंश्चतुर्थोऽग्निरिवाग्न्यगारे।

द्वित्रीण्यहान्यर्हसि सोढुमर्हन्

यावद्यते साधयितुं त्वदर्थम्।। 16।।

अन्वयः

श्रुतपारदृश्वा गुर्वर्थम् अर्थी रघोः

सकाशात् कामम् अनवाप्य वदान्यान्तरम् गतः

इति अयम् मे परीवादनवावतारः माभूत्। 15।।

अन्वयः

सः त्वं महिते प्रशस्ते मदीये अग्न्यगारे

चतुर्थः अग्नि इव वसन् द्वित्रीणि अहानि सोढुम्, अर्हन्,

यावत् त्वदर्थम् साधयितुम् यते।

पदार्थाः

सः त्वम् - वह तुम।

महिते- पूजित।

प्रशस्ते - प्रसिद्ध।

मदीये - मेरी।

अग्न्यगारे - अग्निहोत्रशाला में।

वसन् - रहते हुए।

द्वित्रीणि - दो-तीन।

अहानि - दिन तक।

सोढुम् - प्रतीक्षा करने में।

अर्हसि - योग्य हैं।

अर्हन् - हे पूजनीय।

यावत् - तब तक।

त्वदर्थम् - आपके प्रयोजन को।

साधयितुम् - पूरा करने का।

यते - प्रयास करता हूँ।

अनुवादः / भावार्थः

शास्त्रों में पारंगत, गुरु को दक्षिणा देने के लिए धन की प्रार्थना करने वाला याचक रघु के पास से अपनी मनोकामना को पूर्ण न करके दूसरे दानी के पास चला गया- इस प्रकार का यह मेरे लिए उपवाद का नवीन प्रादुर्भाव न हो। 15।।

वह तुम मेरी पूजित प्रशस्त अग्नि शाला में चतुर्थ अग्नि के समान निवास करते हुए दो- तीन दिन तक प्रतीक्षा करने के योग्य हैं। हे पूजनीय । तब तक मैं आपके प्रयोजन के लिए अर्थ-सिद्धि का प्रयास करता हूँ। 16।।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत

(i) 'श्रुतपारदृश्वा` कस्य विशेषणमस्ति ?

उत्तराणि- कौत्सस्य

(ii) परीवादनवावतारविषये कः चिन्तितः आसीत् ?

उत्तराणि- राजा रघुः

(iii) 'अर्हन् । सः त्वम् इति कं सम्बोध्य कथितम् ?

उत्तराणि- कौत्सम्

(iv) रघुः कौत्साय कति दिनानि सोढुं निवेदयति ?

उत्तराणि- द्वित्रीणि

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत

(i) कौत्स किमर्थं वदान्यान्तरं गन्तुमिच्छति स्म ?

उत्तराणि- कौत्सः रघोः सकाशात् कामं गुरुदक्षिणाम् अनवाप्य तदर्थं वदान्यान्तरं गन्तुमिच्छति स्म।

(ii) राजा रघुः कौत्साय कुत्र निवासार्थ निवेदयति ?

उत्तराणि- राजा रघुः कौत्साय स्वस्य प्रशस्ते अग्न्यगारे निवासार्थ निवेदयति।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः

(i) 'गुर्वर्थमर्थी' इति विशेषणं कस्मै प्रयुक्तम्?

(क) रघवे

(ग) कौत्साय

(घ) वदान्यन्तराय।

(ख) वरतन्तवे

(ii) 'इति अयम् मे इत्यत्र 'मे' सर्वनामपदसथाने संज्ञापदं लिखत।

(क) रघोः

(ख) कौत्सस्य

(ग) महर्षेः

(घ) परीवादस्य।

(iii) 'अर्हसि' इति क्रियापदस्य अत्र कर्तृपदं किम्।

(क) त्वम्

(ख) अग्नि

(ग) अर्हन्

(घ) सः।

(iv) 'दिनानि' इति पदस्य अत्र कः पर्यायः ?

(क) दिवसान

(ख) अहानि

(ग) द्वित्रीणि

(घ) अर्हन्।

पाठांशः

तथेति तस्यावितथं प्रतीतः

प्रत्यग्रहीत्सङ्गरमग्रजन्मा।

गामात्तसारां रघुरप्यवेक्ष्य

निष्क्रष्टुमर्थ चकमे कुबेरात्।। 17।।

प्रातः प्रयाणाभिमुखाय तस्मै

सविस्मयाः कोषगृहे नियुक्ताः।

हिरण्मयीं कोषगृहस्य मध्ये

वृष्टिं शशंसुः पतितां नभस्तः।। 18।।

अन्वयः

अग्रजन्मा प्रतीतः 'सन्` तस्य वितथम् संगरम्, तथा इति प्रत्यग्रहीत, रघुः अपि गाम् आत्तसारम् अवेक्ष्य कुबेरात् अर्थम् निष्क्रष्टुम् चकमे। 17।।

अन्वयः

प्रातः प्रयाणाभिमुखाय तस्मै, कोषगृहे नियुक्ताः सविस्मयाः कोशगृहस्य मध्ये नभस्तः पतिताम् हिरण्मयीम् वृष्टीम् शशंसुः। 18 ।।

पदार्थाः

अग्रजन्मा - ब्राह्मण कौत्स ने।

प्रतीतः 'सन्` - प्रसन्न होते हुए

तस्य - राजा रघु की।

अवितथम् - विफल नहीं होने वाली।

संगरम् - प्रतिज्ञा को।

तथा इति - 'तथाऽस्तु' ऐसा कहकर।

प्रत्यगृहीत् - स्वीकार करते हुए।

गाम् - पृथ्वी को।

आत्तसारम् - निःसार।

अवेक्ष्य - समझकर।

निष्क्रषटुम् - लाने के लिए।

चकमे - इच्छा की।

प्रयाणाभिमुखाय - प्रस्थान हेतु उद्यत हुए।

तस्मै - रघु को।

कोशगृहे - कोशगृह में।

नियुक्ताः - नियुक्त किए गए रक्षकों ने।

सविस्मया - आश्चर्यचकित ।

नभस्तः - आकाश से।

पतिताम् - गिरने वाली।

हिरण्मयीम् - सुवर्ण की।

वृष्टिम् - वर्षा की।

शशंसु - बात कही।

अनुवादः / भावार्थः

ब्राह्मण कौत्स ने प्रसन्न हो रघु की अव्यर्थ (व्यर्थ न होने वाली) प्रतिज्ञा को स्वीकार कर लिया। इधर महाराज रघु ने भी पृथ्वी को सारहीन समझ कुबेर से धन लेने की इच्छा व्यक्त की। 17।।

प्रातः काल प्रस्थान हेतु उद्यत हुए रघु ने कोशागार (खजाने) में नियुक्त लोगों ने आश्चर्यपूर्वक कोशालय (खजाने) के मध्य में आकाश से गिरी सुवर्णमयी वर्षा की बात कही। 18।।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत

(i) अत्र अग्रजन्मा कः ?

उत्तराणि- कौत्सः

(ii) कौत्सः कस्य संगरम् अवितथम् प्रत्याग्रहीत् ?

उत्तराणि- रघोः

(iii) प्रातः प्रयाणाभिमुखः कः आसीत् ?

उत्तराणि- राजा रघुः

(iv) नभस्तः कीदृशी वृष्टिः जाता ?

उत्तराणि- हिरण्यमयी

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत

(i) राजा रघुः किम् अवेक्ष्य कस्मात् च अर्थ निष्क्रष्टुं चकमे?

उत्तराणि- राजा रघुः पृथ्वीं सारहीनम् अवेक्ष्य कुबेरात् अर्थ निष्क्रष्टुं चकमे ।

(ii) कोशगृहे नियुक्ताः रघवे किं शशंसुः ?

उत्तराणि- कोशगृहे नियुक्ताः रघवे कोशगृहस्य मध्ये नभस्तः पतितां हिरण्यमयीं वृष्टिं शशंसुः।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः

(i) 'संगरम्' इति विशेष्यपदस्य विशेषणं किम् ?

(क) अवितथम्

(ख) गाम्

(ग) आत्तसारम्

(घ) प्रसिद्धम्।

(ii) 'चकमे' इति क्रियापदस्य अत्र कर्तृपदं किम् ?

(क) गाम्

(ख) कुबेरः

(ग) रघुः

(घ) अग्रजन्मा।

(iii) 'तस्मै' इति सर्वनामपदस्थाने संज्ञापदं लिखत।

(क) कौत्साय

(ख) गुरवे

(ग) रघवे

(घ) कुबेराय।

(iv) 'आकाशात्' इति पदस्य अत्र कः पर्यायः?

(क) नभस्तः

(ख) गगनात

(ग) कोशगृहात्

(घ) हिरण्यमयात्

पाठांशः

तं भूपतिर्भासुरहेमराशिं

लब्धं कुबेरादभियास्यमानात्।

दिदेश कौत्साय समस्तमेव

पादं सुमेरोरिव वज्रभिन्नम।। 19।।

जनस्य साकेतनिवासिनस्तौ

द्वावप्यभूतामभिनन्द्यसत्त्वौ।

गुरूप्रदेयाधिकानिः स्पृहोऽर्थी

नृपोऽर्थिकामादधिकप्रदश्च ।। 20।।

अन्वयः

भूपतिः अभियास्यमानात् कुबेरात् लब्धम् वज्र-

भिन्नम् सुमेरोः पादम् इव स्थितः तम् भासुरहेमराशिम् समस्तम् एव कौत्साय दिदेश। 19।।

अन्वयः

गुरुप्रदेयाधीकानिः स्पृहः अर्थी अर्थिकमात् अधिकप्रदः

नृपश्चतौद्वौअपि साकेतनिवासिनः जनस्य अभिनन्द्य सत्त्वौ अभूताम्। 20॥

पदार्थाः

भूपतिः - राजा रघु।

अभियास्यमानात् - जिस पर चढ़ाई की जाने वाली थी, ऐसे।

लब्धम् - प्राप्त।

वज्रभिन्नम् - वज्र से काटकर गिराए हुए।

सुमेरोः - सुमेरू पर्वत के।

पादम् - टुकड़ों के।

भासुरहेमराशिम् - चमकते हुए सोने के ढेर को।

समस्तम् एव - समस्त रूप से।

दिदेश - प्रदान कर दिया।

गुरुप्रदेयाधिकानिः स्पृहः - गुरु दक्षिणा से एक कोड़ी भी अधिक न लेने का इच्छुक।

अर्थी - याचक, कौत्स।

अर्थिकामात् - याचक की अभिलाषा से।

अधिकप्रदः - अधिक देने के इच्छुक ।

नृपश्च - और राजा रघु।

तौ द्वौ अपि - वे दोनो ही।

साकेतनिवासिनः - अयोध्यावासी।

जनस्य - लोगों के।

अभिनन्द्य सत्त्वौ - अभिनन्दन करने योग्य प्राणी।

अभूताम् - हो गये।

अनुवादः / भावार्थः

पृथ्वीपति रघु ने युद्ध के लिए चढ़ाई किए जाने वाले कुबेर से वृष्टि द्वारा प्राप्त वज्र से तोड़े गए सुमेरू पर्वत के समान उस सुवर्ण राशि को सम्पूर्ण ही कौत्स को प्रदान कर दी। 19।।

गुरु को दक्षिणा में जितना देना है उससे अधिक की इच्छा न करने वाला याचक कौत्स तथा याचक की कामना से अधिक प्रदान करने वाला राजा रघु, वे दोनों ही अयोध्या वासी लोगों के लिए अभिनंदन करने योग्य प्राणी हो गए। 2011

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत

(i) भासुरहेमराशिः कस्मात् लब्धम् ?

उत्तराणि- कुबेरात्

(ii) वज्रभिन्नं कस्य पादमिव सुवर्णराशिः आसीत् ?

उत्तराणि- सुमेरो

(iii) कौ द्वौ साकेतनिवासिनः अभिनन्द्य सत्त्वौ अभूताम् ? जनस्य

उत्तराणि- रघुकौत्सौ

(iv) अर्थी कीदृशः आसीत् ?

उत्तराणि- गुरूप्रदेयाधिकानिः स्पृहः

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत

(i) राजा रघुः कौत्साय किं दत्तवान्।

उत्तराणि- राजा रघुः कुबेरात् लब्धं भासुहेमराशिं समस्तमेव कौत्साय दत्तवान्।

(ii) कीदृशः नृपः रघुः अभिनन्दनीयः आसीत् ?

उत्तराणि- अर्थिकामात् अधिकप्रदः नृपः रघुः अभिनन्दनीयः आसीत्।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः

(i) 'अभियास्यमानात् इति विशेषणस्य विशेष्यपदं किम् ?

(क) कुबेरात्

(ख) सुमेरोः

(ग) वज्रात्

(घ) भूपतेः

(ii) 'दिदेश' इति क्रियापदस्य अत्र कर्तृपदं किम् ?

(क) कौत्सः

(ख) हेमराशिः

(ग) भूपतिः

(घ) पादम्।

(iii) 'तौ' इति सर्वनामस्थाने संज्ञापदं लिखत ।

(क) रघुकौत्सौ

(ख) गुरुशिष्यौ

(ग) मातापितरौ

(घ) गुरूनृपौ ।

(iv) 'याचकः' इति पदस्य अत्र कः पर्यायः ?

(क) नि:स्पृहः

(ख) अधिकप्रदः

(ग) अर्थी

(घ) सत्त्वः।

अभ्यास कार्य

1 संस्कृत भाषया उत्तरं लिखत

(क) कौत्सः कस्य शिष्य आसीत्?

उत्तर : कौत्स: वरतन्तोः शिष्यः आसीत्।

(ख) रघुः कम् अध्वरम् अनुतिष्ठति स्म ?

उत्तर: रघु: विश्वजित् अध्वरम् अनुतिष्ठति स्म ।

(ग) कौत्सः किमर्थं रघुं प्राप ?

उत्तर: कौत्सः गुरुदक्षिणार्थ धनं याचितुम रचुं प्राप ।

(घ) मन्त्रकृताम् अग्रणीः कः आसीत्?

उत्तर: मंत्रकृताम् अग्रणी: वरतन्तुः आसीत् ।

(ङ) तीर्थप्रतिपादितर्द्धिः नरेन्द्रः कथमिव आभाति स्म ?

उत्तर: तीर्थप्रतिपादितर्दि: नरेन्द्रः नीवार इव आभाति स्म ।

(च) चातकोऽपि कं न याचते?

उत्तर: चातकोऽपि निर्गलिताम्बुगर्भ शरदघनं न याचते ।

(छ) कौत्सस्य गुरु: गुरुदक्षिणात्वेन कियद्धनं देयमिति आदिदेश?

उत्तर: कौत्सस्य गुरुः गुरुदक्षिणात्वेन चतुर्दशकोटी: धनं देयमिति आदिदेश ।

(ज) रघुः कस्मात् परीवादात् भीतः आसीत्?

उत्तर: रघुः नवावतारपरीवादात् भीतः आसीत् ।

(झ) कस्मात् अर्थं निष्क्रष्टुं रघुः चकमे ?

उत्तर: कुबेरात् अर्थं निष्क्रष्टु रघुः चकमे ।

(ञ) हिरण्मयीं वृष्टि के शशंसुः ?

उत्तर: हिरण्मयीं वृष्टिं कोषगृहे नियुक्ताः रक्षकाः शशंसुः ।

(ट) कौ अभिनन्द्यसत्त्वौ अभूताम् ?

उत्तर: रघु: कौत्स: च अभिनन्द्यसत्वौ अभूताम् ।

2. कोष्ठकात् समुचितं पदमादाय रिक्तस्थानानि पूरयत

(क) यशसा ...प्रकाशः........अतिथिं प्रत्युज्जगाम । (प्रकाशः, कृष्णः आतिथेयः)

(ख) मानधनाग्रयायी ..विशाम्पतिः....... तपोधनम् उवाच। (विशाम्पतिः, अकृताञ्जलिः, कौत्स :)

(ग) कुशाग्रबुद्धे ! .... ते गुरुः...... कुशली । ( ते शिष्यः, ते गुरुः, अग्रणी :)

(घ) हे राजन् सर्वत्र ....वार्तम्....... अवेहि । (दु:खम्, वार्तम्, असुखम् )

(ङ) स्तम्बेन अवशिष्टः .....नीवारः....... इव आभासि। (धान्यम्, नीवारः, वृक्षः)

(च) हे विद्वन्! ......त्वया........ गुरवे कियत् प्रदेयम्। (त्वया, मया, लोकेन)

(छ) ....अर्थकार्श्यम्............ अचिन्तयित्वा गुरुणा अहमुक्तः (शरीरक्लेशम्, अर्थकार्श्यम्, रोगक्लेशम् )

3. अधोलिखितानां सप्रसङ्ग हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या

(क) कोटीश्चतस्रो दश चाहर।

प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोकांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती' भाग दो के दितीय पाठ 'रघुकौत्स संवादः` से अवतरित है। इस पंक्ति में वरतन्तु शिष्य कौत्स द्वारा अपने गुरु से बार-बार गुरु दक्षिणा के लिए आग्रह करने पर गुरुद्वारा माँगी गई गुरु दक्षिणा। की राशि का उल्लेख किया गया है। रघु द्वारा पूछे जाने पर कौत्स ने इस प्रकार बतलाया है-

व्याख्या - चौदह करोड़ मुद्राएँ लाओ। गुरु जी के कहने का भाव यह है कि मैंने तुम्हें चौदह विद्यायें पढ़ाई हैं अतः प्रत्येक विद्या के एक करोड़ के हिसाब से चौदह विद्याओं के चौदह करोड़ गुरू दक्षिणा में दो।

(ख) माभूत् परीवादनवावतारः ।

प्रसङ्ग - प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती' भाग दो के द्वितीय पाठ 'रघुकौत्स संवादः' से अवतरित है। मूल रूप से यह पाठ महाकवि कालिदास विरचित रघुवंश महाकाव्य के पंचम सर्ग से संकलित है। जब कौत्स ने कहा कि 'आप चिन्ता न करें, मैं और किसी दूसरे से गुरु दक्षिणार्थ धन लाने का प्रयास करूंगा। तब राजा रघु ने मन में विचार किया की अर्थ की प्रार्थना करने वाला याचक यदि मेरे पास से मनोरथ को न पाकर दूसरे दानी के पास चला गया तो अनर्थ हो जाएगा। उसी सन्दर्भ में यह पंक्ति कही गई है-

व्याख्या - इस प्रकार का यह मेरे लिए अपवाद (निन्दा) का नूतन प्रादुर्भाव न हो। क्योंकि आज तक रघु के पास से कोई भी याचक निराश होकर वापस नहीं गया है। अतः अब कोत्स के वापस लौटने पर यह उसके लिए प्रथम निंदा का अवतार होगा।

(ग) द्वित्रीण्यहान्यर्हसि सोढुमर्हन्।

प्रसङ्ग- यह पंक्ति 'रघुकौत्स संवादः से उद्धृत है। यह रघु द्वारा कौत्स को कही गई है। जब कौत्स गुरु दक्षिणा के लिए अन्यत्र जाने हेतु कहता है तब राजा रघु उसे इस प्रकार कहता है -

व्याख्या-  गुरू को दक्षिणा देने के लिए अर्थ की कामना वाले आप मेरी पूजित प्रशस्त अग्नि शाला में चतुर्थ अग्नि के समान निवास करते हुए दो-तीन दिन तक सहन करने योग्य हैं। अर्थात् दो या तीन दिन तक प्रतीक्षा करने की आप कृपा करें तब तक मैं आपके प्रयोजन के लिए अर्थ सिद्धि का प्रयास करूंगा।

घ) निष्क्रष्टुमर्थ चकमे कुबेरात्।

प्रसङ्ग - प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती' भाग दो के द्वितीय पाठ 'रघुकौत्ससंवादः' से उद्धृत है। राजा रघु ने कौत्स को अपनी अग्नि शाला में दो-तीन दिन तक विश्राम करने के लिए कहने के बाद धन प्राप्ति के संबंध में विचार किया। उसने धनपति कुबेर से धन लेने की योजना बनाई। इसी तथ्य को इस पंक्ति में व्यक्त किया गया है

व्याख्या- रघु ने कौत्स को देने योग्य चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं हेतु इस पृथ्वी को निःसार समझकर कुबेर से धन लाने की कामना की। एतदर्थ कुबेर पर आक्रमण करने की योजना बनाई।

(ङ) दिदेश कौत्साय समस्तमेव।

प्रसङ्ग- प्रस्तुत श्लोकांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती' भाग दो के द्वितीय पाठ 'रघुकौत्स संवादः' से अवतरित है। धनपति कुबेर को जब मालूम हुआ कि राजा रघु धन प्राप्ति हेतु उस पर आक्रमण की योजना बना रहे हैं। उसने रात्रि में ही कोशालय के मध्य में स्वर्ण राशि की वर्षा कर दी। दूसरे दिन राजा रघु ने भी उस सम्पूर्ण स्वर्ण राशि को कौत्स को देने का आदेश दे दिया

व्याख्या - राजा रघु ने उस समस्त स्वर्ण राशि को कौत्स को प्रदान कर दिया।

4. अधोलिखितेषु रिक्तस्थानेषु विशेष्य विशेषणपदानि पाठ्यांशात् चित्वा लिखत

(क) .....विश्वजिति.............. अध्वरे ।

(ख) .....निःशेष-विश्राणित .............. कोषजातम्।

(ग) ......अर्घ्यपात्र ............. अनुमितव्ययस्य ।

(घ) ......आरण्यकोपात्त............ फलप्रसूति:

(ङ) .......स्मयावेश......... विवर्जिताय ।

5. विग्रह पूर्वकं समासनाम निर्दिशत

(क) उपात्तविद्यः = उपात्ता प्राप्ता विद्या येन सः। (बहुव्रीहिः समासः)

(ख) तपोधनः = तपः एव धनं यस्य सः।.. (बहुव्रीहिः समासः)

(ग) वरतन्तुशिष्य : = वरतन्तोः शिष्यः (षष्ठी-तत्पुरुषः)

(घ) महर्षि: = महान् ऋषिः (कर्मधारयः)

(ङ) विहिताध्वराय = विहितम् अध्वरं येन सः, तस्मै। (बहुव्रीहिः समासः)

(च) जगदेकनाथः = जगत: नाथ: । (षष्ठी तत्पुरुष समास)

(छ) नृपति: = नृणां पति । (षष्ठी तत्पुरुष समास)

(ज) अनवाप्य = न अवाप्य । (नञ् तत्पुरुष)

6. अधोलिखितानां पदानां समुचितं योजनं कुरुत

(अ)

(आ)

(क) ते

(1 ) चतुर्दश

(ख) चतस्रः दश च

(2) गुरुदक्षिणार्थी

(ग) अस्खलितोपचारां

(3) अहानि

(घ) चैतन्यम्

(4) स्वस्ति अस्तु

(ङ) कौत्सः

(5) प्रबोधः प्रकाशो वा

(च) द्वित्राणि

(6) भक्तिम्

 

उत्तर:

(क) ते स्वस्ति अस्तु

(ख) चतस्रः दश च चतुर्दश

(ग) अस्खलितोपचारां भक्तिम्

(घ) चैतन्यम् प्रबोधः प्रकाशो वा

(ङ) कौत्सः गुरुदक्षिणार्थी

(च) द्वित्राणि अहानि

7. प्रकृतिप्रत्ययविभागः क्रियताम्

(क) अर्थी = अर्थ +  इन्

(ख) मृण्मयम् = मृत् + मयट्

(ग) शासितुः = शास् + तृच्

(घ) अवशिष्ट = अव + शिष्+ क्त

(ङ) उक्त्वा = ब्रू ( वच्) क्त्वा ।

(च) प्रस्तुतम् = प्र +  स्तु + क्त

(छ) उक्तः = वच् + क्त

(ज) अवाप्य = अव + आप्लृ + ल्यप्

(झ) लब्धम् = लभ् + क्त

(ञ) अवेक्ष्य = अव + ईक्ष् + ल्यप्

8. विभक्ति - लिङ्ग-वचनादिनिर्देशपूर्वकं पदपरिचयं कुरुत

(क) जनस्य = जन, षष्ठी, पुल्लिंग, एकवचन।

(ख) द्वौ = द्वि, प्रथमा, द्वितीय पुल्लिंग, द्विवचन।

(ग) तौ = तद, प्रथमा, द्वितीय पुल्लिंग, द्विवचन।

(घ) सुमेरो: = सुमैरु, षष्ठी, पुल्लिंग, एकवचन।

(ङ) प्रातः = अव्यय।

(च) सकाशात् = अव्यय।

(छ) मे = अस्मद्, सर्वनाम षष्ठी एकवचन ।

(ज) भूय: = अव्यय।

(झ) वित्तस्य = वित्त, नपुंसक लिंग, षष्ठी एकवचन।

(ञ) गुरुणा = गुरु, तृतीय एकवचन।

9. अधोलिखितानां क्रियापदानाम् अन्येषु पुरुषवचनेषु रूपाणि लिखत

(क) अग्रहीत्  (ख) दिदेश  (ग) अभूत्  (घ) जगाद  (ङ) उत्सहते  (च) अर्दति  (छ) याचते  (ज) अवोचत्

 

उपसर्गः + धातु

लकार:

पुरुषः

वचनम्

() अग्रहीत्

गृह

लङ्

प्रथमः

एकवचनम्

() दिदेश

दिश्

लिट्

प्रथमः

एकवचनम्

() अभूत्

भू

लङ्

प्रथमः

एकवचनम्

() जगाद

गद्

लिट्

प्रथमः

एकवचनम्

() उत्सहते

उत् +  सह

लट्

प्रथमः

एकवचनम्

() अर्दति

अर्दू

लट्

प्रथमः

एकवचनम्

() याचते

याच् (आत्मनेपदम्)

लट्

प्रथमः

एकवचनम्

() अवोचत्

 वच्

लङ्

प्रथमः

एकवचनम्

 

10. अधोलिखितानां पदानां विलोम पदानि लिखत

(क) निःशेषम् = शेषम्

(ख) असकृत् = सकृत्

(ग) उदाराम् = अनुदाराम्

(घ) अशुभम् = शुभम्

(ङ) समस्तम् = असमस्तम्

11. अधोलिखितानां पदानां वाक्येषु प्रयोगं कुरुत

(क) नृपः = नृपः रघुः कौत्साय समस्तं धनम् अयच्छत्।

(ख) अर्थी = कौत्सः गुरुदक्षिणार्थम् अर्थस्य अर्थी आसीत्।

(ग) भासुरम् = रघुः भासुरं सुवर्णराशिं कौत्साय अयच्छत्।

(घ) वृष्टिः = रघोः कोषगृहे सुवर्णमयी वृष्टिः अभवत्।

(ङ) वित्तम् = मुनीनां तपः एव वित्तम् भवति।

(च) वदान्यः = रघुः याचकेषु उदारः वदान्यः आसीत्।

(छ) द्विजराजः = रात्रौ आकाशे द्विजराजः दीव्यति।

(ज) गर्व: = गर्वः उचितः न भवति।

(झ) घन: = वर्षौ घनः गर्जति वर्षति च।

(ञ) वार्तम्= राजा प्रजायाः वार्तम् इच्छति।

12. अधोलिखितानाम् अन्वयं कुरुत

(क) स मृण्मये वीतहिरण्मयत्वात् ........ आतिथेयः ।

उत्तर: अन्वय : सः अनर्घशीलः, यशसा प्रकाशः, आतिथेयः, वीतहिरण्मयत्वात् मृमण्ये पात्रे अर्घ्यं निधाय श्रुतप्रकाशम्  अतिथिं (कौत्सं) प्रति उज्जगाम ।

(ख) समाप्तविद्येन मया महर्षिः .......... पुरस्तात् ।

उत्तर: अन्वय:  समाप्तविद्येन माया महर्षि गुरुदक्षिणायै विज्ञापित: अभूत्। स चिराय अस्खलितोपचारां तां मे भक्तिम् एव पुरस्तात् अगण्यत्।

(ग) स त्वं प्रशस्ते महिते मदीये .......... त्वदर्थम्।

उत्तर: अन्वय: स त्वं मदीये महिते प्रशस्ते अग्न्यगारे चतुर्थ: अग्निः इव वसन् द्वित्राणि अहानि सोढुम् अर्हसि। (हे) अर्हन्! त्वदर्थं साधयितुं यावत् यते।

13. अधोलिखितेषु प्रयुक्तानाम् अलङ्कराणां निर्देशं कुरुत

(क) ' यतस्त्वया ज्ञानमशेषमाप्तं लोकेन .......... चैतन्यमिवोष्णरश्मेः '॥

(ख) शरीरमात्रेण नरेन्द्र ! तिष्ठन्न भासि .......... इवावशिष्टः ।।

(ग) तं भूपतिर्भासुरहेमराशिं ...............  वज्रभिन्नम्।।

उत्तर:

(क) उपमा - अलङ्कारः।

(ख) उपमा - अलङ्कारः।

(ग) अनुप्रासः, उपमा च अलकारौ।

14. अधोलिखितेषु छन्दः निर्दिश्यताम्

(क) तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशं ........ वरतन्तुशिष्यः ।।

(ख) गुर्वर्थमर्थी श्रुतपारदृश्वा .......... नवावतारः ।।

(ग) स त्वं प्रशस्ते महिते .............. त्वदर्थम्।।

उत्तर:

(क) उपजातिः छन्दः

(ख) उपजातिः छन्दः

(ग) उपजातिः छन्दः।

(क) अध्वरे।

15. 'रघु-कौत्स संवादं` सरल संस्कृतभाषया स्वकीयैः वाक्यैः विशदयत ।

उत्तर - 'रघु-कौत्स संवादः महाकवि कालिदास विरचित रघुवंश महाकाव्यस्य पञ्चमसर्गे वर्त्तते। कौत्सः महर्षेः वरतन्तोः शिष्यः अस्ति। सः चतुर्दशविद्यानां अध्ययनं कृत्वा स्व गुरवे गुरुदक्षिणां दातुं इच्छति। गुरुः गुरुभक्तिमेव गुरूदक्षिणां स्वीकरोति। किन्तु यदा कौत्सः पुनः पुनः गुरु दक्षिणार्थम् प्रार्थनां करोति तदा रुष्टो भूत्वा वरतन्तुः तम् गुरूदक्षिणारूपे चतुर्दशकोटिः स्वर्णमुद्राम् आनेतुम् कथयति।

कौत्सः गुरु दक्षिणायै महाराजरघु निकषा गच्छति। तस्मिन् समये रघुः विश्वजिति अध्वरे समस्तमपि धनराशि अर्थिभ्यः प्रददौ। सर्वस्वदानकारणात् निर्धनः रघुः मृण्मयैः पात्रैः कौत्सस्य स्वागतम् अकरोत्। स्वागतोपरान्तम् आदौ रघुः कौत्सस्य गुरोः कुशलं पृच्छति। ततः सः कौत्सम् आगमनप्र-

योजनं पृच्छति। रघुवचनश्रवणानन्तरम् अर्घ्यपात्रैरेव तस्य रघोः निर्धनतां ज्ञात्वा स्वार्थपूर्तिविषये निराशः कौत्सः क्रमेण प्रश्नानाम् उत्तरं ददाति। आदौ सर्वत्र सर्व प्रकारेण च अस्माकं कुशलम् इति कथयति। ततः निःशेषविश्राणितकोषजातं शरीरमात्रेण विराजमानं रघु प्रशंसति। सः रघोः सर्वस्वदानं प्रशस्य गुरुदक्षिणायै धनं प्राप्तम् अन्यत्र गन्तुम् इच्छति। सः कथयति यत् चातकोऽपि निर्जलं शरत्कालिकं मेघं न याचते तथैव विश्वजिति सत्पात्रसमर्पित सकलसमृद्धेः भवतः सकाशात् याञ्चां कर्तुं नोत्सहते। इत्युक्त्वा गमनोत्सुकं कौत्सं गमनात् निवारयन् रघुः गुरूदक्षिणायां किं कियच्च देयम् इति पृच्छति ।

ततः कौत्सः स्वगुरोः आदेशं श्रावयति। सः कथयति यत् गुरु; विद्यानां संख्यानुसारं चतुर्दशकोटिमितं धनम् आनेतुम् माम् आदिदेश। रघुः मनसि विचारयति यत् गुरुदक्षिणायै याचकः एकः विद्वान् निराशः सन् अन्यत्र गच्छेत् इति न युक्तम। अतः सः कौत्सं प्रार्थयते यत् दिनत्रयाभ्यन्तरमेव भवदपेक्षितं धनं दास्यामि, तावद् भवान् अत्रैव तिष्ठतु। ततः रघुः धनपतिकुबेरोपरि आक्रमणस्य योजनां करोति। भयभीतः कुबेर; रात्रौ एव रघोः कोषागारे सुवर्णवृष्टिं करोति ।

राजा रघुः समस्तमेव सुवर्ण राशिं वरतन्तुशिष्याय ददौ। तदा रघुकौत्सयोरपि अयोध्यावासिनः परमां प्रशंसां चक्रु नेदृशो विप्रः न चेदृशो दाता राजाऽस्ति। यतो हि राजा रघु अर्थिमनोरथादधिकं धनं दातुमिच्छति स्म कौत्सश्च गुरवे प्रदेया दक्षिणार्थाधिकं न गृहीतुमिच्छति स्म।

JCERT/JAC REFERENCE BOOK

विषय सूची

अध्याय-1 विद्ययामृतमश्नुते (विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति होती है)

अध्याय-2 रघुकौत्ससंवादः

अध्याय-3 बालकौतुकम्

अध्याय-4 कर्मगौरवम्

अध्याय-5 शुकनासोपदेशः (शुकनास का उपदेश)

अध्याय-6 सूक्तिसुधा

अध्याय-7 विक्रमस्यौदार्यम् (विक्रम की उदारता)

अध्याय-8 भू-विभागाः

अध्याय-9 कार्यं वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम् (कार्य सिद्धकरूँगा या देह त्याग दूँगा)

अध्याय-10 दीनबन्धु श्रीनायारः

अध्याय-11 उद्भिज्ज परिषद् (वृक्षों की सभा)

अध्याय-12 किन्तोः कुटिलता (किन्तु शब्द की कुटिलता)

अध्याय-13 योगस्य वैशिष्ट्यम् (योग की विशेषता)

अध्याय-14 कथं शब्दानुशासनम् कर्तव्यम् (शब्दों का अनुशासन(प्रयोग) कैसे करना चाहिए)

JCERT/JAC प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)

विषयानुक्रमणिका

क्रम.

पाठ का नाम

प्रथमः पाठः

विद्ययाऽमृतमश्नुते

द्वितीयः पाठः

रधुकौत्ससंवादः

तृतीयः पाठः

बालकौतुकम्

चतुर्थः पाठः

कर्मगौरवम्

पंचमः पाठः

शुकनासोपदेशः

षष्ठः पाठः

सूक्तिसुधा

सप्तमः पाठः

विक्रमस्यौदार्यम्

अष्टमः पाठः

भू-विभागाः

नवमः पाठः

कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्

दशमः पाठः

दीनबन्धुः श्रीनायारः

एकादशः पाठः

उद्भिज्ज -परिषद्

द्वादशः पाठः

किन्तोः कुटिलता

त्रयोदशः पाठः

योगस्य वैशिष्टयम्

चतुर्दशः पाठः

कथं शब्दानुशासनं कर्तव्यम्

JAC वार्षिक माध्यमिक परीक्षा, 2023 प्रश्नोत्तर

Sanskrit Solutions शाश्वती भाग 2













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