12th Sanskrit 3. बालकौतुकम् JCERT/JAC Reference Book

12th Sanskrit 3. बालकौतुकम् JCERT/JAC Reference Book

12th Sanskrit 3. बालकौतुकम् JCERT/JAC Reference Book

3. बालकौतुकम्

अधिगम-प्रतिफलानि

1. संस्कृतनाट्यांशानां संवादानां उचितो च्चारणं करोति ।

(संस्कृत नाटकों के संवादों का उचित उच्चारण करते हैं।)

2. तेषां भावानुरूपं शारीरिकक्रियाकलापान् प्रदर्शयति ।

(उनके भाव के अनुरूप शारीरिक क्रियाकलाप करते हैं)

3. तदाधारितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतेन वदति लिखति च ।

(उनपर आधारित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखते और बोलते हैं।)

पाठपरिचयः

प्रस्तुत पाठ करुण रस के अनुपम चितेरे महाकवि भवभूति विरचित" उत्तररामचरितम्" नामक प्रसिद्ध नाटक के चतुर्थ अंक से संकलित किया गया है। इसमें चन्द्रकेतु द्वारा रक्षित राजा राम के अश्वमेधीय अश्व को देखकर आश्रम के बालकों में उत्पन्न कौतूहल तथा लव द्वारा घोड़े को आश्रम में ले जाकर बाँधने की घटना का मार्मिक चित्रण किया गया है।

पाठसारांश:-

राजा राम द्वारा निर्वासिता भगवती सीता के जुड़वाँ पुत्रों लव एवं कुश का महर्षि वाल्मीकि के द्वारा पालन-पोषण किया गया, उन्हें शस्त्रों एवं शास्त्रों की शिक्षा दी गयी तथा स्वरचित रामायण के सस्वर गान का अभ्यास कराया गया। महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में अतिथि रूप में पधारे राजर्षि जनक, कौसल्या एवं अरुन्धती खेलते हुए बालकों के बीच एक बालक में राम एवं सीता की छाया देखते हैं। वे उन्हें बुलाकर गोद में बिठाकर वात्सल्य की वर्षा करते हैं। इतने में ही चन्द्रकेतु द्वारा रक्षित राजा राम का अश्वमेधीय अश्व आश्रम में प्रवेश करता है। नगरीय अश्व को देखकर आश्रम के बालकों में कौतूहल उत्पन्न होता है। वे उसे देखने के लिए लव को भी बुला लाते हैं। लव घोड़े को देखते ही जान जाते हैं कि यह अश्वमेधीय घोड़ा है। रक्षकों की घोषणा सुनकर बालक लव घोड़े को आश्रम में ले जाकर बाँधने का आदेश देते हैं।

नाट्यांशः 1

(नेपथ्ये कलकलः। सर्वे आकर्णयन्ति)

जनकः - अये, शिष्टानध्याय इत्यस्खलितं खेलतां वटूनां कोलाहलः।

कौसल्याः सुलभसौख्यमिदानी बालत्वं भवति ।

अहो, एतेषां मध्ये क एष रामभद्रस्य मुग्ध-ललितैर‌ङ्गैर्दारकोऽस्माकं लोचने शीतलयति ?

अरुन्धती-

कुवलयदल-स्निग्धश्यामः शिखण्डक-मण्डनो, वटुपरिषदं पुण्यश्रीकः श्रियैव सभाजयन्।

पुनरपि शिशुर्भूतो वत्सः स मे रघुनन्दनो, झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दृशोरमृताञ्जनम् ॥1 ॥

अन्वयः -

कुवलयदल-स्निग्धश्यामः शिखण्डक-मण्डनः, पुण्यश्रीकः श्रिया वटुपरिषदं सभाजयन् एव, पुनः शिशुः भूत्वा स मे वत्सः रघुनन्दन इव कः अयम् दृष्टः झटिति दृशोः अमृत-अञ्जनं कुरुते ?

जनकः (चिरं निर्वर्ण्य) भोः किमप्येतत् !

महिम्नामेतस्मिन् विनयशिशिरो मौग्ध्यमसृणो, विदग्धैर्निर्प्राह्यो न पुनरविदग्धैरतिशयः।

मनो मे संमोहस्थिरमपि हरत्येष बलवान्, अयोधातुंयद्वत्परिलघुरयस्कान्तशकलः ॥2॥

अन्वयः-

एतस्मिन्, विनय-शिशिरः, मौग्ध्यमसृणः, महिम्नाम् अतिशयः, विदग्धैः निर्माह्यः, अविदग्धैः न, (निर्भाह्यः) बलवान् एषः, संमोह-स्थिरम् अपि मे मनः हरति । यद्वत् परिलघुः अयस्कान्तशकलः अयोधातुः (हरति)।

लवः (प्रविश्य, स्वगतम्) अविज्ञातवयः-क्रमौचित्यात् पूज्यानपि सतः कथमभिवादयिष्ये?

(विचिन्त्य) अयं पुनरविरुद्धप्रकार इति वृद्धेभ्यः श्रूयते। (सविनयमुपसृत्य) एष वो लवस्य शिरसा प्रणामपर्यायः।

अरुन्धतीजनकोः- कल्याणिन् । आयुष्मान् भूयाः।

कौसल्या जात ! चिरं जीव।

अरुन्धती : एहि वत्स । (लवमुत्सङ्गे गृहीत्वा आत्मगतं दिष्ट्या न केवलमुत्सङ्गश्चिरान्मनोरथोऽपि मे पूरितः)

कौसल्या जात ! इतोऽपि तावदेहि। (उत्सङ्गे गृहीत्वा) अहो, केवलं मांसलोज्ज्वलेन न

देहबन्धनेन, कलहंसघोषघर्घ रानुनादिना स्वरेण च रामभद्रमनुसरति। जात । पश्यामि ते मुखपुण्डरीकम्। (चिबुकमुन्नमय्य, निरूप्य, सवाष्पाकृतम्) राजर्षे ! किं न पश्यसि ? निपुणं निरूप्यमाणो वत्साया मे वध्वा मुखचन्द्रेणापि संव दत्येव ।

पदार्थाः-

शिष्टानध्यायः = बड़े लोगों के आने पर अध्ययन से अवकाश।

अस्खलितम् = अनियन्त्रितम्; बेरोकटोक ।

सुलभ-सौख्यम् = इसमें (बाल्यकाल में) सुख सुलभ होता है।

मुग्ध-ललितैः = सुन्दर और कोमल।

कुवलयदल-स्निग्ध-श्यामः = नील कमल के पत्र के समान कोमल और श्याम।

शिखण्डक-मण्डनः = काकपक्ष-शोभितः। घुघराले बालों से अलंकृत।

पुण्यश्रीकः = पुण्य-अलौकिक शोभा वाला।

दृशोः = आँखों के अथवा आँखों में।

अमृताञ्जनम् = अमृतमय काजल ।

विनय-शिशिरः = विनय के कारण शीतल। विनय के कारण क्रोध न आने से स्वभाव में शीतलता रहती है।

मौग्ध्य-मसृणः = मधुर स्वभाव (अथवा भोलेपन) के कारण

विदग्धैः = सूक्ष्मबुद्धि विद्वानों; विवेकियों द्वारा।

सम्मोह-स्थिरम् = सीता निर्वासन के कारण शोक के प्रहार से संज्ञाशून्य-सा, जड़।

अयस्कान्तशकलः = चुम्बक का छोटा-सा टुकड़ा।

अविज्ञातवयः-क्रम-औचित्यात् = आयु में छोटे-बड़े के क्रम की उचितता का ज्ञान न होने से। अवस्था, ज्येष्ठता एवं औचित्य का क्रमज्ञान न होने से।

प्रणामपर्यायः = औचित्यक्रम के अनुसार प्रणाम।

अविरुद्धप्रकारः = निर्विरोध पद्धति ।

कल्याणिन् = हे कल्याण वाले।

भूयाः = होओ, बनो।

जात = वत्स, बेटा।

उत्सङ्गे = गोद में।

दिष्ट्या = सौभाग्य से।

पूरितः = पूरा हो गया।

एहि = आओ।

मांसल-उज्ज्वलेन = बलवान् और तेजस्वी।

देहबन्धनेन = शरीर के गठन से।

कलहंस-घोष-घर्घर-अनुनादिना = मधुर कण्ठ वाले हंस के स्वर का अनुसरण करने वाले (स्वर से)।

मुखपुण्डरीकम् = श्वेत कमल के समान मुख को।

चिबुकम् = ठोड़ी को।

उन्नमय्य = ऊपर उठाकर ।

सवाष्य-आकूतम् = आँसुओं के साथ अभिप्रायपूर्वक ।

निरूप्य = देखकर।

निरूप्यमाणः = देखा गया।

निपुणम् = ध्यान से।

वध्वा = बहू सीता से।

संवदति = मिलता है।

अनुवादः/भावार्थः -

प्रसंगः - वाल्मीकि आश्रम में अतिथि के रूप में, राजा जनक, महारानी कौशल्या तथा वशिष्ठ की पत्नी अरुन्धति आए हैं। वे आश्रम में बालकों के क्रीड़ा कौतूहल को देख रहे हैं। उन बालकों में सीता का पुत्र लव भी है, जिसका उन्हें पता नहीं है। उनके वार्तालाप से पाठ का प्रारम्भ है-

(नेपथ्य में कोलाहल होता है। सब सुनते हैं।)

जनक - अरे, बड़े लोगों के आने पर पढ़ाई में अवकाश होने के कारण, बेरोकटोक खेलते हुए छात्र ब्रह्मचारियों का यह शोर है अर्थात् छुट्टी होने के कारण, सभी ब्रह्मचारी अनियन्त्रित होकर खेल रहे हैं।

कौसल्या - इस बचपन में सुख सुलभ होता है अर्थात बाल्यकाल में क्रीड़ा आदि सामान्य साधनों से ही सुख मिल जाता है। ओह, इन बालकों के बीच में यह कौन बालक, रामचन्द्र के समान सुन्दर और कोमल अंगों से हमारी आँखों को ठण्डा कर रहा है अर्थात् बाल्यावस्था में जैसा सुन्दर और कोमल रामभद्र था, वैसी ही आकृति वाला यह कौन बालक हमें आनन्द दे रहा है?

अरुन्धती - नीलकमल के समान कोमल (चिकना) तथा श्याम रंग वाला, घुँघराले बालों से अलंकृत, अलौकिक (पुण्य) शोभायुक्त, अपने शरीर की कान्ति से ही, ब्रह्मचारियों के समूह को अलंकृत करने वाला, यह कौन है? जो कि देखने पर फिर से वह शिशु रूपधारी राम की भाँति मेरी आँखों में झट से अमृतयुक्त काजल का लेप-सा कर रहा है? भाव यह है कि इस बालक को देखने से मानो मैं प्रिय शिशु राम को ही फिर से बालक के रूप में देख रही हूँ।।1।।

जनक - (बहुत देर तक देखकर) ओह, यह क्या (अपूर्व-सा अनुभव) है? इस बालक में, विनय के कारण शीतलता तथा भोले स्वभाव के कारण कोमलता विद्यमान है। यह अतिशय महिमावाला है और यह विवेकियों (सूक्ष्मबुद्धि मनुष्यों) के द्वारा ही ग्राह्य है, स्थूलबुद्धि अविवेकियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है। यह बलवान् बालक, जैसे चुम्बक का छोटा-सा टुकड़ा लोहे को अपनी ओर खींच लेता है, वैसे ही मेरे सीता निर्वासन के कारण शोकाघात से संज्ञा-शून्य जड़ (स्थिर) हृदय को अपनी ओर खींच रहा है। भाव यह है कि यह इतना प्रभावशाली बालक कौन है ॥2॥

लव - (प्रवेश करके, अपने मन में ही) आयु क्रम (आयु में छोटे-बड़े का क्रम) और उचितता का ज्ञान न होने से, पूजनीय होते हुए भी इनको मैं कैसे प्रणाम करूँ अर्थात् इनमें कौन वयोवृद्ध है और किसे प्रथम प्रणाम करना चाहिए? यह मैं नहीं जानता (तो इन्हें कैसे प्रणाम करूँ)? (सोच विचारकर) यह प्रणाम की विरोधहीन पद्धति है। ऐसा गुरुजनों से सुना जाता है। (विनयपूर्वक पास जाकर) यह आपको 'लव' का औचित्य क्रम के अनुसार प्रणाम है।

अरुन्धती और जनक-  हे कल्याण सम्पन्न ! चिरंजीव होओ।

कौशल्या - बेटा! दीर्घजीवी बनो।

अरुन्धती - आओ बेटा। (लव को गोद में लेकर अपने मन में, सौभाग्य से केवल मेरी गोद ही नहीं अपितु मेरा बहुत दिनों का मनोरथ भी पूरा हो गया।)

कौशल्या - बेटा, इधर (मेरी गोद में) भी आओ। (गोद में लेकर) ओह, यह केवल बलिष्ठ और तेजस्वी शरीर के गठन से ही नहीं, अपितु मधुर कण्ठ वाले हंस के स्वर का अनुसरण करने वाले स्वर से भी 'रामभद्र' का अनुसरण कर रहा है। बेटा । जरा तुम्हारा मुख कमल तो देखू ? (ठोड़ी को ऊपर उठाकर, देखकर, आँसुओं सहित अभिप्रायपूर्वक देखकर) हे राजर्षे जनक ! क्या आप नहीं देखते कि ध्यान से देखने पर इस बालक का मुख मेरी प्रिय वधू सीता के मुख-चन्द्र से भी मिल रहा है?

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः-

1. एकपदेन उत्तरत-

क. अयं पाठः कस्मात् ग्रन्थात् सङ्कलितः ?

उत्तराणि- उत्तररामचरितात्

ख. आश्रमे केषां कोलाहलः आसीत् ?

उत्तराणि- बटूनां

ग. सम्मोह-स्थिरम् अपि कस्य मनः हरति ?

उत्तराणि- जनकस्य

घ. कुवलयदलस्निग्धश्यामः कः आसीत् ?

उत्तराणि- लवः

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. बालत्वं कीदृशं भवति।

उत्तराणि- बालत्वं सुलभसौख्यं भवति ।

ख. लवः केन रामभद्रमनुसरति ?

उत्तराणि- लवः देहबन्धेन स्वरेण रामभद्रमनुसरति ।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-

उचितविकल्पं चिनुत-

i. निपुणं निरूप्यमाणः लवः मुखचन्द्रेण कया संवदत्येव?

क. सीतया

ख. कौशल्यया

ग. उर्मिलया

घ. गीतया

ii. रामभद्रस्य एषः दारकः अस्माकं शीतलयति ।

क. हस्ते

ख. लोचने

ग. मुखे

घ. गृहे

iii. शिष्टेषु इति पदे का विभक्तिः ?

क. सप्तमी

ख. तृतीया

ग. पञ्चमी

घ. षष्ठी

iv. 'कुमार' इति पदं कस्य कृते ?

क. रामस्य

ख. लवस्य

ग. जनकस्य

घ. कुशस्य

नाट्यांश: 2-

जनकः -पश्यामि, सखि । पश्यामि (निरूप्य)

वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावस्मिन्नभिव्यज्यते, संवृत्तिः प्रतिबिम्बतेव निखिला सैवाकृतिः सा द्युतिः।

सा वाणी विनयः स एव सहजः पुण्यानुभावोऽप्यसौ

हा हा देवि किमुत्पथैर्मम मनः पारिप्लवं धावति ॥3॥

अन्वयः

अस्मिन् शिशौ, वत्सायाः रघूद्वहस्य च संवृत्तिः प्रतिबिम्बता इव अभिव्यज्यते, सा एव निखिला आकृतिः, साधुतिः, सा वाणी, स एव सहजः विनयः, (स एव) असौ पुण्यानुभावः

अपि, हा हा देवि । मम मनः पारिप्लवं (सत्) उत्पथैः किं धावति ?

कौसल्या - जात । अस्ति ते माता ? स्मरसि वा तातम् ?

लवः - नहि।

कौसल्या - ततः कस्य त्वम् ?

लवः - भगवतः सुगृहीतनामधेयस्य वाल्मीकेः।

कौसल्या - अयि जात! कथयितव्यं कथय।

लवः - एतावदेव जानामि।

(प्रविश्य सम्भ्रान्ताः)

बटवः - कुमार ! कुमार ! अश्वोऽश्व इति कोऽपि भूतविशेषो जनपदेष्वनुश्रूयते, सोऽयमधुनाऽस्माभिः स्वयं प्रत्यक्षीकृतः।

लवः - 'अश्वोऽश्व' इति नाम पशुसमाम्नाये संग्रामिके च पठ्यते, तद् ब्रूत-कीदृशः ?

बटवः - अये, श्रूयताम् -

पश्चात्पुच्छं वहति विपुलं तच्च धूनोत्यजस्त्रम् दीर्घग्रीवः स भवति, खुरास्तस्य चत्वार एव। शष्पाण्यत्ति, प्रकिरति शकृत्-पिण्डकानाम्र-मात्रान्।

किं व्याख्यानैव्रजति स पुनर्दूरमेयेहि यामः ॥

अन्वयः - पश्चात् विपुलं पुच्छं वहति, तत् च अजस्रं धूनोति। सः दीर्घग्रीवः भवति, तस्य खुराः चत्वारः एव। (सः) शष्पाणि अत्ति, आम्र-मात्रकान् शकृत्-पिण्डकान् प्रकिरति। किं व्याख्यानैः सः दूरं व्रजति। एहि एहि, याम।

(इत्यजिने हस्तयोश्चाकर्षन्ति)

लव - (सकौतुकोपरोधविनयम्।) आर्याः पश्यत। एभिर्नीतोऽस्मि । (इति त्वरितं परिक्रामति)

अरुन्धतीजनकौ - महत्कौतुकं वत्सस्य ।।

कौसल्या - अरण्यगर्भरुपालापैर्यूयं तोषिता वयं च। भगवति । जानामि तं पश्यन्ती वञ्चितेव। तस्मादितोऽन्यतो भूत्वा प्रेक्षामहे तावत् पलायमानं दीर्घायुषम्।

अरुन्धती - अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपलः कथं दृश्यते ? (प्रविश्य)

बटवः - पश्यतु कुमारस्तावदाश्चर्यम्।

लवः - दृष्टमवगतंच। नूनमाश्वमेधिको ऽयमश्वः।

बटवः - कथं ज्ञायते ?

लवः - ननु मूर्खाः। पठितमेव हि युष्माभिरपि तत्काण्डम्। किं न पश्यथ ? प्रत्येकं शतसंख्याः कवचिनो दण्डिनो निषङ्गिणश्च रक्षितारः। यदि च विप्रत्ययस्तत्पृच्छत।

पदार्थाः-

वत्सायाः = बेटी सीता का।

रघूवहस्य = रघुवंश को वहन करने वाले राम का।

शिशौ अस्मिन् = इस बालक में।

अभिव्यज्यते = प्रकट हो रही है।

संवृत्तिः = सम्पर्कः सम्बन्ध।

निखिला = सम्पूर्ण।

आकृतिः = शक्ल, रूप।

द्युतिः = कान्ति ।

सहजः = स्वाभाविक।

पुण्य-अनुभावः = पवित्र प्रभाव (माहात्म्य) वाला।

उत्पथैः = उन्मार्गों से।

पारिप्लवम् = चंचलता युक्त।

सुगृहीत-नामधेयः = स्वनामधन्य ।

कथयितव्यम् = कहने योग्य को

भूतविशेषः = विशेष प्राणी।

जनपदेषु = नगरों में।

अनुसूयते = सुना जाता है।

पशुसमाम्नाये = पशु-शास्त्र में पशुप्रतिपादित-शब्दकोश में।

संग्रामिके = संग्रामशास्त्र में। युद्धशास्त्र धनुर्वेद में।

अजस्रम् = निरन्तर।

पुच्छम् = पूँछ।

वहति = धारण करता है।

विपुलम् = अत्यधिक।

धूनोति = हिला रहा है।

दीर्घग्रीवः = लम्बी गर्दन वाला।

शष्पाणि = घास को।

प्रकिरति = बिखेरता है।

शकृत् = लीद को, मल को।

पिण्डकान् = समूहों को।

आम्रमात्रान् = आम्रफल के आकार वाले, आम्रफलों जैसा।

सकौतुक-उपरोध-विनयम् = कौतूहल, आग्रह और विनय के साथ।

याम = चलें।

अजिने = मृगचर्म

नीतः = ले जाया गया।

त्वरितम् = शीघ्र।

कौतुकम् = कौतूहल।

अरण्यगर्भेरुपालापैः = वनवासी बालकों की बातचीत से।

तोषिताः = सन्तुष्ट हो गए।

वञ्चिताः इव = मानो ठगी गई (हूँ)।

अन्यतः भूत्वा = दूसरी ओर होकर (जाकर)।

प्रेक्षामहे = देखते हैं, देखें।

पलायमानम् = दौड़ते (भागते) हुए को

दीर्घायुषम् = दीर्घजीवी को।

अतिजवेन = अत्यन्त वेग से।

अवगतम् = समझ लिया।

काण्डम् = अध्याय को।

दण्डिनः = दण्ड (डंडे, लाठी) लिए हुए।

निषङ्गिणः = तरकस लिए हुए.

विप्रत्ययः = अविश्वास, संदेह।

व्याकरणकार्यम्

दीर्घग्रीवः = दीर्घा ग्रीवा यस्य सः = बहुव्रीहि समास।

दीर्घायुषम् = दीर्घम् आयुः यस्य सः = बहुव्रीहि समास ।

कथयितव्यम् = कथ् + णिच् + तव्यत्।

सुगृहीत-नामधेयः = सुगृहीतं नामधेयं यस्य सः। बहुव्रीहि समास।

अनुवादः/भावार्थः-

जनक - देख रहा हूँ सखि (कौशल्ये), देख रहा हूँ।

इस बालक में बेटी सीता एवं रघुकुल-श्रेष्ठ राम का (पवित्र) सम्बन्ध प्रतिबिम्बित हो रहा है, और वही सारी शक्ल, वही कान्ति, वही वाणी, वही स्वाभाविक विनम्रता तथा पवित्र प्रभाव भी ठीक वैसा ही है। हा हा देवि। (इसको देखकर) मेरा मन, चंचल होकर उन्मार्गों से (उबड़खाबड़ रास्तों से) क्यों दौड़ रहा है? (यह सीता और राम का ही पुत्र है, ऐसी कल्पना क्यों कर रहा है?)।

कौसल्या - वत्स ! क्या तुम्हारी माता है? क्या तुम अपने पिता को याद करते हो ?

लव - नहीं

कौसल्या - तब, तुम किसके (पुत्र) हो ?

लव - स्वनामधन्य भगवान् वाल्मीकिके।

कौशल्या - प्यारे पुत्र कहने योग्य बात कहो अर्थात् आजन्म ब्रह्मचारी भगवान् वाल्मीकि तुम्हारे पिता कैसे हो सकते हैं ?

लव - मैं तो इतना ही जानता हूँ।

(प्रवेश करके, घबराए हुए ब्रह्मचारीगण)

बटुगण (ब्रह्मचारी) - कुमार, कुमार, जनपदों में जो 'घोड़ा घोड़ा' नामक कोई प्राणी विशेष सुना जाता है, अब हमने उसे स्वयं प्रत्यक्ष देख लिया है।

लव - 'घोड़ा-घोड़ा' यह पशु-शास्त्र तथा संग्राम शास्त्र में पढ़ा जाता है। तो बतलाओ-वह कैसा है ?

बटुगण - अरे, सुनिए! उसकी पिछली ओर बहुत लम्बी पूंछ लटकती है और वह उसे निरन्तर हिलाता रहता है। उसकी गर्दन लम्बी और उसके खुर भी चार ही हैं। वह घास खाता है और आम्र-फलों जैसा, मलत्याग (लीद) करता है। अब अधिक वर्णन करने की आवश्यकता नहीं-वह घोड़ा दूर निकला जा रहा है। आओ, आओ। चलें ॥4॥

(ऐसा कहकर उस लव के हाथ और मृगचर्म पकड़कर खींचते हैं)

लव - (बटुकों के आग्रह और विनय के साथ) हे आर्य लोगो देखिए। मैं इनके द्वारा ले जाया जा रहा हूँ।

(ऐसा कहकर शीघ्रता से घूमता है)

अरुन्धती और जनक - बालक को (घोड़ा देखने का) बड़ा कौतूहल है।

कौशल्या - वनवासी बालकों के रूप और बातचीत से आप और हम लोग बड़े सन्तुष्ट हुए हैं। भगवति अरुन्धती। मुझे तो ऐसा लगता है कि, मानो मैं उसे देखती हुई ठगी-सी रह गई हूँ। इसलिए यहाँ से दूसरी ओर होकर, इस भागते हुए दीर्घायु बालक को देखें।

अरुन्धती - अत्यन्त वेग से दूर निकलने वाला वह चंचल (बालक) कैसे देखा जा सकता है? (प्रवेश कर)

बटुगण - (आप) कुमार, इस आश्चर्य को देखें।

लव - देख लिया और समझ भी लिया। निश्चय ही यह 'अश्वमेध' यज्ञ का घोड़ा है।

बटुगण - कैसे जानते हो?

लव - अरे मूर्खे ! तुम लोगों ने भी वह 'काण्ड' (अश्वमेध-प्रतिपादक वेद का अध्याय) पढ़ा ही है। फिर क्या तुम सैंकड़ों की संख्या में कवचधारी दण्डधारी तथा तरकसधारी सैनिकों को नहीं देखते ? और यदि तुम्हें विश्वास नहीं होता, तो (इन अनुयायी रक्षकों से) पूछ लो।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः-

1. एकपदेन उत्तरत-

क. 'अयि जात ! कथयितव्यं कथय ।' इति कथनं कः कथयति ?

उत्तराणि- कौशल्या

ख. दीर्घग्रीवः कः आसीत् ?

उत्तराणि- अश्वः

ग. अश्वस्य कति खुराः ?

उत्तराणि- चत्वारः

घ. अश्वस्य वर्णनं कः करोति ?

उत्तराणि- बटवः

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. 'नूनमाश्वमेधिकोऽयमश्वः ।' इति वाक्यं कस्य ?

उत्तराणि- 'नूनमाश्वमेधिकोऽयमश्वः ।' इति वाक्यं लवस्य ।

ख. देहबन्धेन रामं कः अनुसरति ?

उत्तराणि- देहबन्धेन रामं लवः अनुसरति ।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्ना-

उचितविकल्पं चिनुत-

(i) कस्य मनः पारिप्लवं धावति ।

क. लवस्य

ख. जनकस्य

ग. रामस्य

घ. कुशस्य

(ii) बटवः अश्वं कथं वर्णयन्ति? 2

क. भूतविशेषम्

ख. भूतम्

ग. राजाश्वम्

घ. विशेषम्।

(iii) लवः कथं जानाति यत् अयम् आश्वमेधिकः अश्वः ?

क. उत्तरकाण्डेन

ख. युद्धकाण्डेन

ग. पूर्वकाण्डेन

घ. अश्वमेधकाण्डेन।

(iv) अतिजवेन कः दूरमतिक्रान्तः?

क. लवः

ख. जनकः

ग. रामः

घ. सीता

नाट्यांशः 3

बटवः - भो भोः किंप्रयोजनोऽयमश्वः परिवृतः पर्यटति ?

लवः - (सस्पृहमात्मगतम्) 'अश्वमेध' इति नाम विश्व-विजयिनां क्षत्रियाणामूर्जस्वलः सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः।

(नेपथ्ये)

योऽयमश्वः पताकेयमथवा वीरघोषणा।

सप्तलोकैकवीरस्य दशकण्ठकुलद्विषः ॥5॥

अन्वयः

यः अयं अश्वः - इयं पताका अथवा वीरघोषणा (अस्ति) (सः) सप्तलोक

एकवीरस्य दशकण्ठकुलद्विषः - (रामस्य) अस्ति।

लवः - (सगर्वम्) अहो! सन्दीपनान्यक्षराणि।

बटवः - किमुच्यते ? प्राज्ञः खलु कुमारः।

लवः - भो भोः तत्किमक्षत्रिया पृथिवी ? यदेवमुद्धोष्यते ?

(नेपथ्ये)

रे, रे, महाराजं प्रति कः क्षत्रियः?

लवः - धिग् जाल्मान्।

यदि नो सन्ति सन्त्येव केयमद्य विभीषिका।

किमुक्तैरेभिरधुना, तां पताकां हरामि वः ॥6॥

अन्वयः -

यदि (क्षत्रियाः) नो सन्ति, सन्ति एव, अद्य इयं विभीषिका का? अधुना एभिः उक्तैः किम्? (अहम्) वः तां पताकां हरामि ॥ हे बटवः ! परिवृत्य लोष्ठैरभिजन्त उपनयतैनमश्वम्।

एष रोहितानां मध्येचरो भवतु।

(प्रविश्य सक्रोधः)

पुरुषः - धिक् चपल ! किमुक्तवानसि ? तीक्ष्णतरा ह्यायुधश्रेणयः शिशोरपि दृप्तां वाचं न सहन्ते। राजपुत्रश्चन्द्रकेतुर्दुर्दान्तः, सोऽप् यपूर्वारण्यदर्शनाक्षिप्तहृदयो न यावदायाति, तावत् त्वरितमनेन तरुगहनेनापसर्पत।

बटवः - कुमार ! कृतं कृतमश्वेन। तर्जयन्ति विस्फारित-शरासनाः कुमारमायुधीयश्रेणयः।

दूरे चाश्रमपदम्। इतस्तदेहि। हरिणप्लुतैः पलायामहे।

लवः - किं नाम विस्फुरन्ति शस्त्राणि ?

(इति धनुरारोपयति)

पदार्थाः

परिवृतः = (रक्षकों से) घिरा हुआ।

पर्यटति = घूम रहा है।

उर्जस्वलः = शक्तिशाली, बलवान्।

सर्वक्षत्रपरिभावी = सारे (शत्रु) राजाओं को पराजित करने वाली।

उत्कर्ष-निकषः = श्रेष्ठता की कसौटी।

सप्त-लोक-एकवीरस्य = सातों लोकों में एकमात्र वीर।

दशकण्ठ-कुलद्विषः = रावण के कुल के शत्रु

सन्दीपनानि = भड़काने वाले, क्रोध पैदा करने वाले।

प्राज्ञः = बुद्धिमान्, विज्ञ।

जाल्मान् = नीचों को।

विभीषिका = भय।

वः = तुम्हारी।

परिवृत्य = घेरकर ।

लोष्ठैः = ढेलों से।

अभिनन्तः = मारते हुए।

उपनयत = ले आओ।

रोहितानाम् = हरिणों के।

चपल = चंचल !

आयुध-श्रेण्यः = शस्त्र समूह। शस्त्रधारी लोग।

दृप्ताम् = गर्वीली को, कटु।

दुर्दान्तः = दुर्दमनीय।

अपूर्व-अरण्यदर्शन आक्षिप्त-हृदयः = अपूर्व वन की शोभा देखने में संलग्न मन वाला।

त्वरितम् = शीघ्र ।

अपसर्पत = भाग जाओ।

कृतं कृतम् = रहने दो, बस करो।

तर्जयन्ति = धमका रहे हैं, डाँट रहे हैं।

विस्फारित शरासनाः = धनुषों को ताने हुए।

इतः = यहाँ से।

एहि = आओ।

हरिणप्लुतैः = हरिणों सी छलांगों से।

पलायामहे = (हम) भाग जाएँ। भाग चलें।

विस्फुरन्ति = चमक रहे हैं।

आरोपयति = (धनुष) चढ़ाता है।

व्याकरणकार्यम्

विस्फारित शरासनाः = विस्फारितानि शर-आसनानि यैः ते। बहुव्रीहि समास।

अपूर्व-अरण्यदर्शन आक्षिप्त-हृदयः = अपूर्वम् अरण्यस्य दर्शनेन आक्षिप्तं हृदयं यस्य सः। बहुब्रीहि समास।

अपसर्पत = अप + सृप + लोट् + मध्यम पुरुष, बहुवचन।

पलायामहे = परा (पला) + अय् + लट् + उत्तम पुरुष, बहुवचन।

विस्फुरन्ति = वि + स्फु लट् प्रथम पुरुष, बहुवचन।

वः = युष्माकम् षष्ठी बहुवचनस्य विकल्पे शब्दः।

अनुवादः/भावार्थः -

बटु-गण- अरे ! रक्षकों (सैनिकों) से घिरा हुआ यह घोड़ा, क्यों घूम रहा है ?

लवः - (अभिलाषापूर्वक, मन में) 'अश्वमेध यज्ञ' यह विश्व को जीतने वाले क्षत्रियों की शक्तिशाली तथा समस्त (शत्रु) राजाओं को पराजित करने वाली श्रेष्ठता की कसौटी है।

(नेपथ्य में)

यह जो घोड़ा (दिखाई दे रहा है) वह सातों लोकों में, एकमात्र वीर रावण के कुल के शत्रु, (भगवान् राम) की विश्व विजय-पताका है अथवा वीर घोषणा है ॥5॥

लव - (गर्व के साथ) ओह, ये शब्द तो बहुत क्रोध पैदा करने वाले हैं।

बटुगण - क्या कह रहे हो (कि यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है) तब तो कुमार बहुत जानकार हैं।

(क्योंकि बिना पूछे ही समझ लिया था कि यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है।)

लव - अरे, अरे, सैनिको ! तो क्या पृथ्वी क्षत्रिय-शून्य है ? जो इस प्रकार घोषणा कर रहे हो ?

(नेपथ्य में)

अरे, रे, महाराज के सामने कौन क्षत्रिय है? अर्थात् ऐसा कौन-सा क्षत्रिय है, जो कि भगवान् राम की तुलना में आ सकता है ?

लव - तुम, नीचों को धिक्कार है। यदि क्षत्रिय नहीं हैं, (ऐसा कहते हो तो) मैं कहता हूँ कि वे क्षत्रिय हैं ही। फिर यह व्यर्थ का भय क्यों दिखा रहे हो? अब इन बातों को कहने से क्या लाभ? मैं तुम्हारी उस पताका का हरण कर रहा हूँ (यदि तुममें शक्ति हो तो मुझे रोको) ॥6॥

अरे बटुको ! इस घोड़े को घेरकर ढेलों से मारते हुए (आश्रम में) ले आओ।

यह घोड़ा भी मृगों के बीच विचरण करे। (मृगों के साथ ही यह भी घास खाया करे)।

पुरुष - चुप, चपल बालक ! क्या कह रहे हो ? "तीखे शस्त्र बच्चे की भी गर्वीली वाणी नहीं सहते।

(अर्थात् हमारे शस्त्रधारी तुम्हारी कटु गर्वभरी वाणी नहीं सहन करते)। राजकुमार चन्द्रकेतु बड़े दुःसाहसी (दुर्दमनीय) हैं। वह परम रमणीय वन की शोभा देखने में उत्सुक (आकर्षित हुए), जब तक नहीं आते हैं, तब तक तुम इन सघन (घने) वृक्षों में छिपकर भाग जाओ।"

बटुगण - कुमार ! घोड़े को रहने दो। धनुष ताने हुए शस्त्रधारियों के समूह तुम्हें धमका रहे हैं और आश्रम यहाँ से दूर है। अतः आओ, हरिणों की भाँति कूद-कूद कर भाग चलें। क्या (अश्व रक्षकों के) शस्त्र चमक रहे हैं ?

(अपना धनुष चढ़ाता है)

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः-

1. एकपदेन उत्तरत-

क. अश्वमेध इति नाम केषां महान् उत्कर्षनिकषः ?

उत्तराणि- क्षत्रियाणां

ख. विस्फारितशरासनाः आयुधश्रेण्यः कं तर्जयन्ति ?

उत्तराणि- कुमारं

ग. 'धिग् जाल्मान् ।' इति कस्य कथनम् ?

उत्तराणि- लवस्य

घ. अश्वमेधिकाश्वः कस्य आसीत् ?

उत्तराणि- रामस्य

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. रे, रे, महाराजं प्रति कः क्षत्रियः ? अत्र 'महाराजं' कस्य कृते प्रयुक्तम् ?

उत्तराणि- रे, रे, महाराजं प्रति कः क्षत्रियः ? अत्र 'महाराजं' रामस्य कृते प्रयुक्तम् ।

ख. धनुः कः आरोपयति ?

उत्तराणि- धनुः लवः आरोपयति ?

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-

उचितविकल्पं चिनुत-

i. 'दीर्घग्रीवः' इति पदे विशेषणपदं किम् ?

क. दीर्घ

ख. ग्रीवः

ग. इति

घ. दीर्घग्रीवः

ii. 'धिक् चपल !' इति वाक्यं कः कथयति ?

क. लवः

ख. रामः

ग. कौशल्या

घ. पुरुषः

iii. 'लोष्ठैः' इति पदे का विभक्तिः ?

क. प्रथमा

ख. द्वितीया

ग. तृतीया

घ. षष्ठी

iv. राजपुरुषस्य तीक्ष्णतरा आयुधश्रेण्यः कीदृशीं वाचं न सहन्ते ?

क. दृप्ताम्

ख. सुप्ताम्

ग. मधुराम्

घ. असत्ययुक्ताम्।

अभ्यास

1. संस्कृतेन उत्तरं दीयताम्।

(क) उत्तररामचरितम् इति नाटकस्य रचचिता कः ?

उत्तर - उत्तररामचरितम् इति नाटकस्य रचयिता भवभूतिः ।

(ख) नेपथ्ये कोलाहलं श्रुत्वा जनकः किं कथयति ?

उत्तर - नेपथ्ये कोलाहलं श्रुत्वा जनकः कथयति - शिष्टानध्याय : इति  क्रीडतां बहूनां कोलाहलः ।

(ग) लवः रामभद्रं कथमनुसरति ?

उत्तर - लवः रामभद्रं देहबन्धनेन स्वरेन च अनुसरति ।

(घ) बटवः अश्वं कथं वर्णयन्ति ?

उत्तर - बहवः अश्वं भूतविशेषं वर्णयन्ति ।

(ङ) लवः कथं जानाति यत् अयम् अश्वमेधिक : अश्वः ?

 उत्तर - लवः अश्वमेध - काम्डेन जानाति यत् अयम् अश्वमेधिक : अश्वः!

(च) राजपुरुषस्य तीक्ष्णतरा आयुधश्रेणयः किं न सहन्ते ?

उत्तर - राजपुरुषस्य तीक्ष्णतरा आयुधश्रेणयः दृप्तां वाचं न सहन्ते ।

(2) रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिमाणं कुरत -

(क) अश्वमेध इति नाम क्षत्रियाणाम् महान उत्कर्षनिकष : I

उत्तर - केषां

(ख) हे बटवः! लोष्ठै : अभिधन्तः उपनयत् एनम् अश्वम् ।

उत्तर - कैः

(ग) रामभद्रस्य एषः दारकः अस्माकं लोचने शीतलयति ।

उत्तर - किम्

(घ) उत्पथै : मम् मनः परिप्लवं धावति ।

उत्तर - कस्य ।

(ङ) अतिजवेन दुरमतिक्रात : स चपलः दृश्यते ।

उत्तर - कीदृशः

(च) विस्फारितशशसनाः आयुधीश्रेणयः कुमारं तर्जयन्ति ।

उत्तर - कम्

(छ) निपुणं निरुप्यमाणः लवः मुखचन्द्रेण सीतया संवदत्येव ।

उतर - कया ।

3. (क) सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः।

प्रसंगः - प्रस्तुत पंक्ति 'लवकौतुकम्' पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम में 'लव' के साथ ब्रह्मचारी-सहपाठी खेल रहे हैं। इसी समय कुछ बटुगण आकर, लव को आश्रम के निकट अश्वमेध घोड़े की सूचना देते हैं। यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा रक्षकों से घिरा हुआ है। लव उस अश्वमेध यज्ञ के महत्त्व को अपने मन में विचार करता हुआ कहता है

व्याख्या - यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है। यह क्षत्रियों की शक्ति का सूचक होता है। क्षत्रिय राजा, अपने बलवान् शत्रु राजा पर अपनी विजय की धाक जमाने के लिए इसे छोड़ता है। वास्तव में यह घोड़ा सभी शत्रुओं पर प्रभाव डालने वाले उत्कर्ष श्रेष्ठपन का सूचक होता है।

(ख) किं व्याख्यानैर्ऋजति स पुन (रमेयेहि यामः।

प्रसंगः - प्रस्तुत पंक्ति 'बालकौतुकम्' पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम के निकट राम के अश्वमेध का घोड़ा घूमते-घूमते आ गया है। वहाँ खेलते हुए ब्रह्मचारी उस विशेष प्राणी को देखकर भागते हुए आश्रम में आते हैं और 'लव' के सामने उसका वर्णन करते हैं

व्याख्या - यह प्राणिविशेष लम्बी पूँछ को बारबार हिला रहा है। घास खाता है, लीद करता है, लम्बी गर्दन है, चार खुरों वाला है। अधिक कहने का समय नहीं है, यह जन्तु तेजी से आश्रम से दूर भागा जा रहा है, चलो आओ हम भी उसे देखते हैं। भाव यह है कि उसे बताने की अपेक्षा उसे देखना अधिक आनन्ददायक होगा।

(ग) सुलभं सौख्यम् इदानी बालत्वं भवति ।।

प्रसंगः - प्रस्तुत पंक्ति 'बालकौतुकम्' पाठ से उद्धृत है। वाल्मीकि आश्रम में अतिथि के रूप में जनक, कौशल्या और अरुन्धती आए हुए हैं। उनके आने से आश्रम में अवकाश कर दिया गया है और सभी छात्रगण खेलते हुए शोर मचा रहे हैं। इस शोर को सुनकर, कौशल्या जनक को बता रही हैं

व्याख्या - बाल्यकाल में सुख के साधन सुलभ होते हैं। बच्चों को मजा लेने के लिए किसी खिलौने आदि की आवश्यकता नहीं होती। वे तो साधारण से खेल-कूद और हँसी-मजाक द्वारा ही सुख प्राप्त कर लेते हैं। सुख प्राप्ति के लिए उन्हें बड़े बहुमूल्य क्रीडा-साधनों की आवश्यकता नहीं होती। ये ब्रह्मचारी अपने बचपन का आनन्द ले रहे हैं।

(घ) झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दृशोः अमृताञ्जनम्।

प्रसंगः - प्रस्तुत पंक्ति 'लवकौतुकम्' पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम में, राम के पुत्र 'लव' को देखकर, अरुन्धती (वशिष्ठ की पत्नी) अत्यन्त प्रभावित है। वह उसके रूप सौन्दर्य को देखकर, राम के बचपन को स्मरण करती हुई जनक तथा कौशल्या से कहती है -

व्याख्या - यह बालक मेरे हृदय में अत्यन्त स्नेहभाव पैदा कर रहा है। इसे देखकर मुझे ऐसा लग रहा है, जैसे कि बचपन के राम को देख रही हूँ। यह प्रिय बालक देखने पर मुझे इतना आकृष्ट कर रहा है, मानो मेरी आँखों में अमृत का अंजन लगा दिया है। इसे देखकर मुझे अत्यन्त तृप्ति मिल रही है।

(4) अधोलिखितानी कथनानि कः कं प्रति कथयति ।

(क) अस्ति ते माता ? स्मरसि वा तातम् ?

उत्तर - कौशल्या लवम् प्रति कथयति ।

(ख) दिष्टया न केवलमुत्सङ्ग मनोरथोsपि में पूरितः

उत्तर - अरुन्धती लवम् प्रति कथयति ।

(ग) वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावस्मिन्नभिव्यज्यते ।

उत्तर - राजा जनकः कौशल्याम् प्रति कथयति ।

(घ) सोSयमधुनाsस्माभिः स्वयं प्रत्यक्षीकृतः ।

उत्तर - लवम् प्रति कभयति ।

(ङ) इतोSन्यतो भूत्वा प्रेक्षामहे तावत्पलायमानं दीपीयुषम् ।

उत्तर - कौशल्या अरुन्धतीम् प्रति कथयति

(च) धिक् चपल ! किमुक्तवानसि ।

उत्तर - राजपुरुषः लवम् प्रति कथयति ।

(5)अधोलिखितवाक्यानां रिक्तस्थानानि निदेशानुसारं पुरयत ।

(क) क एष अनुसरथि रामभद्रस्य मुग्ध ललितैरङ्गैर्दाकोडऽस्माकं लोचने शीतलयति । ( क्रियापदेन )

(ख) एष बलवान् मे सम्मोहनस्थिररमपि मनः हरति । ( कर्तृपदेन )

(ग) जात ! इतोऽपि तावदेहि ! ( सम्बोधनेन )

(घ) अश्वोऽश्व इति नाम पशुसम्मानाये संग्रामिके च पठ्यते(अव्ययेन )

(ङ) युष्माभिरपि तत्काण्डं पठितं एव हि । ( कृदन्तपदेन )

(च) एष वो लवस्य शिरसा प्रणामपर्याय : I (करणपदे )

(6) अधः समस्तपदानां विग्रहाः दत्ता : । उदाहरणमनुसृत्य समस्तपदानि रचयन समासनामापि च लिखत |

उदाहरणम् - पशूनां समाम्नाय : तस्मिन् पशुसमाम्नाये - षष्ठी तत्पुरुष :

(क) विनयेन शिशिर : - विनियशिशिर: ( तृतीया तत्पुरुष समास )

(ख) अयस्कान्तस्य शकलः- अयस्कान्तशकलः ( षष्ठीतत्पुरुष समास )

(ग) दीर्घा ग्रीवा यस्य सः - दीर्घग्रीवः ( बहुव्रीहि समास )

(घ) मुखम् एव पुण्डरीकम् - मुखपुण्डरीकम् ( कर्मधारय समास )

(ङ) पुण्य: चासौ अनुभाव: - पुण्यानुभाव - ( कर्मधारय समास )

(च) न स्खलितम् - अस्खलितं ( नञ तत्पुरुष समास )

(7) अधोलिखितपारिभाषिकशब्दानां समुचितार्थेन मेलनं कुरुत ।

क . नेपथ्ये ------------- (ग) पर्दे के पीछे

ख . आत्मगतम्----------(घ) अपने मन मे

ग . प्रकाशम्------------(क) प्रकटरूप मे

घ . निरूप्य------------(ख) देखकर

ङ . उत्सङ्गे गृहीत्वा------(छ) गोद में बिठा कर

च . प्रविश्य--------- ----(ङ) प्रवेश करके

छ . सगर्वम्--------------(ज) गर्व के साथ

ज . स्वगतम्-------------(च) अपने मन में

8. पाठमाश्रित्य हिन्दीभाषया लवस्य चारित्रिकवैशिष्ट्यं लिखत -

उत्तर - लव महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में पालित-पोषित, राजा राम द्वारा निर्वासित भगवती सीता के जुड़वा पुत्रों में से एक है। वह आकृति में बिल्कुल राम जैसा है, उसकी आँखों में राम की आँखों जैसी चमक है। यही कारण है कि जब महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में राजर्षि जनक, कौशल्या और अरुन्धती अतिथि के रूप में पधारते हैं; तब खेलते हुए बालकों के बीच कौशल्या बालक लव को देखकर राम के बचपन की याद में खो जाती है। तीनों की बातचीत से पता लगता है कि लव का मुख सीता के मुखचन्द्र की भाँति है। उसका मांसल और तेजस्वी शरीर राम के तुल्य है। उसका स्वर बिल्कुल राम से मिलता-जुलता है।

लव शिष्टाचार में कुशल है। वह गुरुजनों का आदर करना जानता है और जनक आदि के आश्रम में पधारने पर उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम करता है। लव ने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा प्राप्त की है। इसीलिए जब चन्द्रकेतु द्वारा रक्षित राजा राम का अश्वमेधीय अश्व आश्रम में प्रवेश करता है; तब लव इस घोड़े को देखते ही पहचान जाता है कि यह अश्वमेधीय अश्व है, क्योंकि उसने युद्धशास्त्र तथा पशु-समाम्नाय में इस अश्व के बारे में पढ़ा हुआ है।

लव स्वभाव से वीर है, उसका स्वाभिमान क्षत्रियोचित है। इसीलिए अश्व के रक्षक सैनिकों के द्वारा जब अश्व के सम्बन्ध में गर्वपूर्ण शब्दावली का प्रयोग किया जाता है; तब वह उन सैनिकों को ललकारता है और अपने साथी बालकों को आदेश करता है कि पत्थर मार मारकर इस घोड़े को पकड़ लो, यह भी हमारे हिरणों के बीच रहकर घास चर लिया करेगा। इतना ही नहीं वह विजयपताका को छीनने की घोषणा करता है। अन्य बालक युद्ध के लिए चमकते हुए अस्त्रों को देखकर आश्रम में भाग जाना चाहते हैं परन्तु लव उनका सामना करने के लिए धनुष पर बाण चढ़ा लेता है। इस प्रकार लव राम और सीता की आकृति से मेल रखता हुआ, गंभीर स्वर वाला, शिष्टाचार में निपुण, वीर, स्वाभिमानी, और तेजस्वी बालक है।

(9) अधोलिखितेषु श्लोकेषु धन्दोनिर्देशः क्रियताम् -

(क) महिम्नामेतस्मिन् विनयशिशिरो मोग्ध्यमसृणो ।

उत्तर - शिखरिणी छन्दः।

(ख) वत्सायश्च रघूद्वहस्य च शिशावमिस्मन्नभित्यज्यते ।

उत्तर - शार्दूलविक्रीडितम् छन्दः।

(ग) पश्चात्पुछं वहति तच्च धुनोत्यजस्रम ।

उत्तर - मन्दाक्रान्ता छन्दः।

(10) पाठमाश्रित्य उत्प्रेक्षालङ्कारस्य उपमालङ्कारस्य च उदाहरणं लिखत -

उत्तर –

(क) उत्प्रेक्षालङ्कारस्य उदाहरणम्- वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावस्मिन्नभिव्यज्यते, संवृत्तिः प्रतिबिम्बितेव निखिला सैवाकृतिः सा द्युतिः।

(ख) उपमालङ्‌कारस्य उदाहरणम् मनो मे संमोहस्थिरमपि हरत्येष बलवान्, अयोधातुर्यद्वत्परिलघुरय स्कान्तशकलः ॥

JCERT/JAC REFERENCE BOOK

विषय सूची

अध्याय-1 विद्ययामृतमश्नुते (विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति होती है)

अध्याय-2 रघुकौत्ससंवादः

अध्याय-3 बालकौतुकम्

अध्याय-4 कर्मगौरवम्

अध्याय-5 शुकनासोपदेशः (शुकनास का उपदेश)

अध्याय-6 सूक्तिसुधा

अध्याय-7 विक्रमस्यौदार्यम् (विक्रम की उदारता)

अध्याय-8 भू-विभागाः

अध्याय-9 कार्यं वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम् (कार्य सिद्धकरूँगा या देह त्याग दूँगा)

अध्याय-10 दीनबन्धु श्रीनायारः

अध्याय-11 उद्भिज्ज परिषद् (वृक्षों की सभा)

अध्याय-12 किन्तोः कुटिलता (किन्तु शब्द की कुटिलता)

अध्याय-13 योगस्य वैशिष्ट्यम् (योग की विशेषता)

अध्याय-14 कथं शब्दानुशासनम् कर्तव्यम् (शब्दों का अनुशासन(प्रयोग) कैसे करना चाहिए)

JCERT/JAC प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)

विषयानुक्रमणिका

क्रम.

पाठ का नाम

प्रथमः पाठः

विद्ययाऽमृतमश्नुते

द्वितीयः पाठः

रधुकौत्ससंवादः

तृतीयः पाठः

बालकौतुकम्

चतुर्थः पाठः

कर्मगौरवम्

पंचमः पाठः

शुकनासोपदेशः

षष्ठः पाठः

सूक्तिसुधा

सप्तमः पाठः

विक्रमस्यौदार्यम्

अष्टमः पाठः

भू-विभागाः

नवमः पाठः

कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्

दशमः पाठः

दीनबन्धुः श्रीनायारः

एकादशः पाठः

उद्भिज्ज -परिषद्

द्वादशः पाठः

किन्तोः कुटिलता

त्रयोदशः पाठः

योगस्य वैशिष्टयम्

चतुर्दशः पाठः

कथं शब्दानुशासनं कर्तव्यम्

JAC वार्षिक माध्यमिक परीक्षा, 2023 प्रश्नोत्तर

Sanskrit Solutions शाश्वती भाग 2













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