12th Sanskrit 6. सूक्तिसुधा JCERT/JAC Reference Book

12th Sanskrit 6. सूक्तिसुधा JCERT/JAC Reference Book

12th Sanskrit 6. सूक्तिसुधा JCERT/JAC Reference Book

6. सूक्तिसुधा

अधिगम-प्रतिफलानि

1. संस्कृतश्लोकान् उचितबलाघातपूर्वकम् छन्दोऽनुगुणम् उच्चारयति ।

(श्लोकों का छन्दानुसार उचित लय के साथ सस्वर वाचन करते हैं।)

2. श्लोके प्रयुक्तानां सन्धियुक्तपदानां विच्छेदं करोति।

(श्लोक में प्रयुक्त सन्धियुक्तपदों का विच्छेद करते हैं।)

3. श्लोकान्वयं कर्तुं समर्थः अस्ति। (श्लोक का अन्वय करने में समर्थ होते हैं।)

पाठपरिचय-

संस्कृत साहित्य में सूक्तियों का समृद्ध भण्डार है। सूक्ति का अर्थ है सुन्दर वचन, सुधा का अर्थ है अमृत, सूक्तिसुधा का अर्थ है सुन्दर वचन रूपी अमृत। इस पाठ में पण्डितराज जगन्नाथ, महाकवि माघ, भारवि, प्रसिद्ध नाटककार भवभूति तथा महाकवि भर्तृहरि की सूक्तियाँ संकलित हैं। ये सूक्तियाँ आज भी हमारे जीवन के लिए बहुमूल्य उपयोगी एवं पथप्रदर्शक हैं। विभिन्न विषयों से सम्बन्धित सूक्तियाँ निश्चित रूप से छात्रों के लिए उपयोगी सिद्ध होंगी।

प्रस्तुत पाठ के प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय श्लोक के रचयिता पण्डितराज जगन्नाथ, चतुर्थ श्लोक के महाकवि माघ, पंचम श्लोक के भवभूति, षष्ठ श्लोक के महाकवि भारवि एवं सप्तम, अष्टम, नवम, दशम, एकादश व द्वादश श्लोकों के रचयिता भर्तृहरि हैं।

पद्यांश-

अस्ति यद्यपि सर्वत्र नीरं नीरज-राजितम् ।

रमते न मरालस्य मानसं मानसं विना ।। 1 ।।

नीरक्षीविवेके हंसालस्यं त्वमेव तनुषे चेत्।

विश्वस्मिन्नधुनान्यः कुलव्रतं पालयिष्यति कः ॥2॥

तावत् कोकिल विरसान् यापय दिवसान् वनान्तरे निवसन् ।

यावन्मिलदलिमालः कोऽपि रसालः समुल्लसति ।। 3 ।।

अन्वयः 1- यद्यपि सर्वत्र नीरज-राजितं नीरम् अस्ति, (परन्तु) मरालस्य मानसं मानसं विना न रमते।

अन्वयः 2-(हे) हंस! चेत् त्वम् एव नीरक्षीरविवेके आलस्यं तनुषे (तर्हि) विश्वस्मिन् अधुना अन्यः कः कुलव्रतं पालयिष्यति ।

अन्वयः 3- हे कोकिल वनान्तरे निवसन् तावत् विरसान् दिवसान् यापय यावत् कोऽपि मिलदलिमालः रसालः समुल्लसति ।

पदार्थाः-

नीरम् = जलम् (सरः); जल (सरोवर)।

मरालस्य = हंसस्य; हंस का।

नीरजराजितम् = कमलशोभितम्, कमलों से सुशोभित ।

मानसम् = मनः मानसरोवरं वा; मन/मानसरोवर।

रमते = प्रसीदति

नीरक्षीरविवेके = दूध का दूध पानी का पानी करने में।

हंसालस्यम् = हंस + आलस्यम्।

तनुषे = विस्तृत कर रहे हो, विस्तारयसि, तिन् + आत्मनेपदे लट् मध्यमपुरुषः, एकवचनम्।

विश्वस्मिन्नधुनान्यः = विश्वस्मिन् + अधुना + अन्यः।

विरसान् = रसरहित (शुष्क); रसरहितान्।

यापय = व्यतीत करो; व्यतीतं कुरु।

निवसन् = निवास करते हुए; वासं कुर्वन् नि +वस् +शतृ।

मिलदलिमालः (मिलत् + अलिमालः) = झुण्ड बनाते हुए भ्रमरों का समूह, जिस वृक्ष पर है, ऐसा वृक्ष ('रसालः' पद का विशेषण)।

रसालः = आम का वृक्ष आम्रपादपः।

समुल्लसति = सुशोभित होता है, सुशोभते, (सम् + उत् + लस लट्लकार, प्रथमपुरुष, एकवचन)।

व्याकरणम्-

कुलव्रतं - कुलस्य व्रतं षष्ठी तत्पुरुष समास।

यद्यपि - यदि+अपि।

मरालस्य - षष्ठी विभक्ति एकवचन।

तनुषे - तन् आत्मनेपद, लट् लकार, मध्यम पुरुष एकवचन।

पालिष्यति - पाल् धातु, लृट् लकार, प्रथम पुरुष एकवचन।

कोऽपि - कः + अपि।

समुल्लसति - समुत + लसति ।

सरलार्थः-

सरलार्थः 1- यद्यपि सभी जगह कमलों से सुशोभित जल (सरोवर) होते हैं, परन्तु हंस का मन मानसरोवर के बिना कहीं नहीं रमता।

भावार्थ: सरोवरों में जल भी होता है और कमलपुष्प भी। परन्तु उन सरोवरों का जल बरसात में गन्दा हो जाता है, जबकि मानसरोवर का जल सदा ही निर्मल-स्वच्छ रहता है। अतः हंस मानसरोवर में ही क्रीड़ा करना चाहता है, साधारण सरोवरों में नहीं।

यह अन्योक्ति है। जिसके द्वारा कवि यह कहना चाहता है कि ऊँची सोच के लोग तुच्छ वस्तुओं में आनन्दित नहीं होते।

सरलार्थ: 2- हे हंस! यदि दूध का दूध और पानी का पानी करने में तुम ही आलसी हो जाओगे तो संसार में अब दूसरा कौन है, जो कुल-परम्परा का पालन करेगा? अर्थात् कोई नहीं।

भावार्थ:- हंस के बारे में यह प्रसिद्ध है कि वह पानी मिले हुए दूध में से केवल दूध को ही पीता है और पानी छोड़ देता है। हंस को विद्वान् का प्रतीक माना गया है क्योंकि वह भी दूध का दूध और पानी का पानी करने में समर्थ होता है अर्थात् कर्तव्य-अकर्तव्य और सत्य-असत्य का निर्णय विद्वान् ही कर सकता है। यदि विद्वान भी लोभ के वशीभूत होकर विवेकहीन आचरण करने लगेंगे तो संसार का मार्गदर्शन कौन करेगा ?

सरलार्थः 3- हे कोयल। इस वन में निवास करते हुए तब तक रसहीन रूखे सूखे दिन व्यतीत करो। जब तक कोई आम का वृक्ष, जिस पर झुण्ड बने हुए भौरों का समूह मँडराता हुआ हो, (आम्रमंजरी से) सुशोभित होता है।

भावार्थ: - कोयल की मधुर कूक सुनने के लिए सभी के कान आतुर रहते हैं, परन्तु कोयल हर समय नहीं कूकती। वसन्त ऋतु आती है, आम के पौधे सुगन्धित आम्र-मंजरी से झूम उठते हैं। उनकी सुगन्ध से आकृष्ट होकर भौरों का समूह गुंजार करता है। कोयल कूक उठती है। यह कोयल के जीवन की स्वाभाविक घटना है, परन्तु कवि का उद्देश्य इस प्रकृति वर्णन से नहीं है, अपितु इस वर्णन के बहाने कवि कहना चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति में कोई न कोई स्वाभाविक गुण होता है। परन्तु उस गुण के प्रकट होने, फलने-फूलने के लिए उचित वातावरण की आवश्यकता होती है, जिसकी प्रतीक्षा मनुष्य को बड़े धैर्य के साथ करनी चाहिए। जैसे आम के पौधे पर बौर आने की प्रतीक्षा कोयल किया करती है और बसन्त ऋतु के आने पर जब आम का वृक्ष आम्र-मंजरी से महक उठता है तो कोयल भी अपने स्वाभाविक कूह-कूह के स्वर से सारे वातावरण को मदमस्त कर देती है।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः-

1. एकपदेन उत्तरत-

क. कीदृशं नीरं सर्वत्र अस्ति?

उत्तर- नीरजराजितं

ख. कं विना मरालस्य मानसं न रमते?

उत्तर- मानसरोवरं

ग. नीरक्षीरविवेके कः समर्थः अस्ति?

उत्तर- हंसः

घ. कः कुलव्रतं पालिष्यति?

उत्तर- मरालः

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. कोकिला: केन प्रकारेण वनान्तरे निवसन्?

उत्तर- कोकिला: विरसान यापय दिवसान् वनान्तरे निवसन्।

ख. श्लोकस्य रचयिता कः अस्ति?

उत्तर- श्लोकस्य रचयिता महाकवि पंडितराज जगन्नाथः अस्ति।

3. बहुविकलपीयाः प्रश्नाः-

i. 'मरालस्य' इति पदे का विभक्ति?

क. पंचमी

ख. द्वितीया

ग. षष्ठी

घ. सप्तमी

ii. 'पालिष्यति' इति पदे कः लकारः?

क. लट्

ख. लृट्

ग. लड्

घ. लोट्

iii. 'रसालः' इति पदस्य पर्यायपदं अस्ति।

क. आम्रम्

ख. नीरजं

ग. कमलम्

घ. पुष्पम्

iv. 'कः + अपि' इति पदस्य सन्धि कुरुत।

क. काअपि

ख. कोऽपि

ग. केअपि

घ. केरपि

पाठांश:-

नालम्बते दैष्टिकतां न निषीदति पौरुषे ।

शब्दार्थों सत्कविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते ।। 4 ।।

न किञ्चिदपि कुर्वाणः सौख्यैर्दुः खान्यपोहति ।

तत्तस्य किमपि द्रव्यं यो हि यस्य प्रियो जनः ।। 5 ||

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।

वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ।। 6 ।।

अन्वयः 4- विद्वान् दैष्टिकतां न आलम्बते न पौरुषे (अपितु) सत्कविः इव शब्दार्थों द्वयम् अपेक्षते।

अन्वयः 5- यः हि यस्य प्रियः जनः, तत् तस्य किमपि द्रव्यम् (सः) किञ्चित् अपि न कुर्वाणः (उपस्थितिमात्रेण) सौख्यैः दुःखानि अपोहति।

अन्वयः 6- सहसा क्रियां न विदधीत, (यतः) अविवेकः परमापदां पदं (भवति)। सम्पदः गुणलुब्धाः (भवन्ति, अतः) स्वयमेव हि विमृश्यकारिणं वृणते।

पदार्थाः-

दैष्टिकताम् = भाग्यत्व को; भाग्यत्वम्,

निषीदति = आश्रय लेता है; अवलम्बते,

पौरुषे = पुरुषार्थ/कर्म में; पुरुषार्थे।

सत्कविरिव (सत्कविः + इव) = श्रेष्ठकवि की भाँति ।

अपेक्षते = अपेक्षा करता है, आश्रम लेता है; आश्रयते।

कुर्वाणः = करते हुए; कुर्वन् (कृ + शानच्)।

सौख्यैः = सुखों के द्वारा; सुखपूर्वकैः।

अपोहति = दूर करता है; दूरीकरोति।

विदधीत = करो; कुर्वीत, (वि उपसर्ग + डुधाञ् (धा) विधिलिङ् प्रथम पुरुष एकवचन)।

वृणते = वरण करती है; वरणं कुर्वन्ति।

विमृश्यकारिणम् = विचार कर कार्य करने वाले को; विचिन्त्यकारिणम्।

व्याकरणम्-

नालम्बते- न लम्बते-नञ् समास।

गुणलुब्धाः - समास। गुणाणां लुब्धाः षष्ठी तत्पुरुष

दैष्टिकतां - दैष्टिक + तल् ।

कुर्वाणः - कुर्वान् + शानच्।

सरलार्थः 4- विद्वान् मनुष्य न तो भाग्य का ही सहारा लेता है और न पुरुषार्थ के भरोसे ही रहता है। वह तो दोनों का आश्रय लेता है, जिस प्रकार कोई श्रेष्ठ कवि शब्द और अर्थ दोनों का आश्रय लेकर सुन्दर कविता रचता है।

भावार्थ:- अकेले शब्द अथवा अकेले अर्थ को ध्यान में रखकर कभी भी सुन्दर कविता रची नहीं जा सकती। श्रेष्ठ कविता वही होती है जिसमें शब्द और अर्थ दोनों का सामञ्जस्य हो, कोमल अर्थ के लिए कोमल शब्दों का प्रयोग तथा कठोर अर्थ को प्रकट करने के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग ही श्रेष्ठ कवि की पहचान है। इसी प्रकार भाग्य और पुरुषार्थ दोनों के सुन्दर सामञ्जस्य से ही जीवन सुन्दर बनता है। इसीलिए विद्वान् लोग अकेले भाग्य या अकेले पुरुषार्थ के भरोसे अपना जीवन नहीं चलाते।

सरलार्थ: 5- जो जिसका प्रियजन होता है, वह उसके लिए कोई बहुमूल्य वस्तु होता है। वह कुछ भी न करता हुआ अपनी उपस्थितिमात्र से सुखों के द्वारा दुःखों को दूर कर देता है।

भावार्थ:- प्रियजन बहुमूल्य वस्तु के समान होता है, जो अपनी उपस्थितिमात्र से ही दुःखों को दूर कर देता है।

सरलार्थः 6- मनुष्यों को अचानक ही (बिना सोचे-विचारे) कोई कार्य नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवेकहीनता घोर विपत्तियों का स्थान होती है। सम्पत्तियाँ गुणों की लोभी होती हैं; अतः सोच-विचार कर कार्य करने वाले मनुष्य को वे स्वयं ही चुन लेती है।

भावार्थः 'बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए' हिन्दी की इस कहावत का मूल भाव इस सूक्ति में है। मनुष्य को सोच-विचार कर ही प्रत्येक कार्य करना चाहिए। बिना सोचे-समझे कार्य करने से घोर विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। मनुष्य सम्पत्ति पाने के लिए कार्य करता है, सम्पत्तियाँ गुणों के पीछे चलती हैं। गुणवान् मनुष्य विवेकपूर्वक कार्य करता है और सम्पत्तियाँ भी ऐसे विचारशील मनुष्य के पास स्वयं दौड़कर चली आती हैं।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः-

1. एकपदेन उत्तरत-

क. पौरुषः कः न निषीदति?

उत्तर- दैष्टिकतां

ख. कविः कौ अपेक्षते?

उत्तर- शब्दार्थों

ग. सहसा किं न करणीयम्?

उत्तर- कार्यम्

घ. अविवेकः कां पदम्?

उत्तर- परमापदां

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. न किञ्चिदपि कुर्वाणः कः अन्यपोहति?

उत्तर- किञ्चिदपि कुर्वाणः सौख्यैर्दुःखान्यपोहति।

ख. विमृश्यकारिणं किम् वृणते?

उत्तर- विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः वृणते।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-

1. 'नालम्बते' इति पदे कः समासः?

क. कर्मधारय

ख. द्विगु

ग. अच्यीभाव

घ. नञ्

ii. 'गुणलुब्धाः' इति पदे समास विग्रह अस्ति।

क. गुणाणानां लुब्धाः

ख. गुणेन लुब्धाः

ग. गुणस्य लुब्धाः

घ. गुणाय लुब्धाः

iii. 'कुर्वाणः' इति पदे कः प्रत्ययः?

क. ल्यप्

ख. तव्यत्

ग. शानच्

घ. शतृ

iv. 'यस्य' इति पदे का विभक्ति?

क. प्रथमा

ख. तृतीया

ग. षष्ठी

घ. सप्तमी

पाठांश:-

स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः ।

विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्ि डतानाम् ।। 7 ||

विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः ।

यशसि याभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्ध मिदं हि महात्मनाम् ।। 8 ।।

पापान्निवारयति योजयते हिताय, गुह्यं निगूहति गुणान् प्रकटीकरोति ।

आपद्गतां च न जहाति ददाति काले, सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः || 9 ||

अन्वयः 7- विधात्रा स्वायत्तम, एकान्तगुणम्, अज्ञतायाः छादनं मौनं विनिर्मितम्। विशेषतः सर्वविदां समाजे (एतत् मौनम्) अपण्डितानां विभूषणम् (अस्ति)।

अन्वयः 8- विपदि धैर्यम्, अथ अभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता, युधि विक्रमः, यशसि च अभिरुचिः, श्रुतौ व्यसनम्, इदं हि महात्मनां प्रकृतिसिद्धम्।

अन्वयः 9- पापात निवारयति, हिताय योजयते, गुह्यं निगृहति, गुणान् प्रकटीकरोति, आपद्गतं च न जहाति, काले ददाति। सन्तः इदं सन्मित्रलक्षणं प्रवदन्ति।

पदार्थाः-

स्वायत्तम् = स्वयं के अधीन; निजाधीनम्।

विधात्रा = ब्रह्मा के द्वारा; ब्रह्मणा।

छादनम् = आवरण; आवरणम्।

सर्वविदाम् = सर्वज्ञानाम्; सर्वज्ञों के।

अभ्युदये = उन्नति में; उन्नतौ (अभि उदये, यण सन्धि)।

सदसि = सभा में; सभायाम् (सदस् शब्द नपुंसकलिंग सप्तमी विभक्ति एकवचन)।

वाक्पटुता = वाणी में कुशलता; वाचि पटुता,

युधि = युद्ध में; युद्धे।

निवारयति = रोकता है।

गुह्यम् = गुप्त बात।

योजयते = लगाता है।

आपद्गतम् = आपत्ति में पड़ा हुआ।

जहाति = छोड़ता है; त्यजति।

काले = समय पड़ने पर।

निगृहति = छिपाता, आच्छादयति ।

प्रवदन्ति = कहते हैं।

व्याकरणम्-

विधात्रा - विधाता शब्द तृतीया एकवचन।

समाजे - सप्तमी विभक्ति एकवचन।

अभ्युदये - अभि + उदये (यण सन्धि)।

ददाति - दा धातु, लट् वकार, प्रथम पुरुष एकवचन।

सरलार्थः 7- विधाता ने स्वतन्त्र, अद्वितीय गुण वाला, अज्ञान को ढकने वाला मौन नामक गुण बनाया है। विशेष रूप से विद्वानों की सभा में तो यह मौन मूखौँ का आभूषण बन जाता है।

भावार्थ:- एक चुप सौ सुख' हिन्दी की इस अद्वितीय विशेषताओं वाला है। यह अज्ञान को ढक देता है। विद्वानों की सभा में यदि कोई मूर्ख मनुष्य बैठा हो और वह वहाँ बैठकर चुप रहे तब यह मौन उस मूर्ख का आभूषण बन जाता है और दूसरे लोग इस चुप रहने वाले मूर्ख को विद्वान् ही समझते हैं।

सरलार्थः 8- विपत्ति के समय धीरता, अधिक समृद्धि होने पर क्षमा (सहनशीलता) सभा में बोलने की चतुराई, संग्राम में पराक्रम, यश प्राप्त करने में इच्छा एवं वेदादिशास्त्रों में आसक्ति- ये सभी गुण महापुरुषों में स्वभाव से ही होते हैं।

भावार्थ:- महापुरुषों के ये स्वाभाविक गुण हैं कि वे विपत्ति में व्याकुल नहीं होने, उन्नति होने पर भी सब को क्षमा करते हैं, सभा में अपनी वचन-कुशलता से सबको मोहित कर लेते हैं, युद्ध में डर कर नहीं भागते, यश के लिए प्रयत्नशील रहते हैं तथा ज्ञान अर्जित करने में निरन्तर प्रवृत्त रहते हैं।

सरलार्थ: 9- जो पाप करने से मित्र को रोकता है, हितकर्म (अच्छे काम) में लगाता है, मित्र की गुप्त बात को छिपाता है, उसके गुणों को प्रकट कर देता है, आपत्ति में पड़े हुए को भी नहीं छोड़ता, समय पड़ने पर (धन आदि से) सहायता प्रदान करता है। सज्जन लोग इसे ही अच्छे मित्र का लक्षण बतलाते हैं।

भावार्थ:- सुमित्र वही है जो मित्र को हानिकारक कर्म से हटाकर कल्याण मार्ग में लगाए, उसके दोषों को छिपाकर गुणों को प्रकाशित करे, विपत्ति में भी उसका साथ न छोड़े तथा यथाशक्ति धनादि से उसकी सहायता करे।

पाठांशाधारिताःप्रश्नाः-

1. एकपदेन उत्तरत-

क. मौनम् कस्य विभूषणं?

उत्तर- अपंडितानां

ख. विपदि किं करणीयम्?

उत्तर- धैर्यम्

ग. वाक्पटुता कुत्र करणीयम् ?

उत्तर- सदसि

घ. कः गुणान् प्रकटीकरोति ?

उत्तर- मित्रम्

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. सन्मित्रलक्षणम् किं अस्ति।

उत्तर- सन्मित्रलक्षणम् अस्ति-पापान्निवारयति, योजते हिताय, गुह्यं निगूहति, गुणान् प्रकटीकरोति ।

ख. सन्तः किं प्रवदन्ति?

उत्तर- सन्तः सन्मित्रलक्षणं प्रवदन्ति ।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-

1. 'अभ्युदय' इति पदे सन्धि विच्छेदं कुरुत।

क. अभि + उदये

ख. अभि + युदये

ग. अभिः + उदये

घ. अभि + उदयः

ii. 'ददाति' इति पदे कः लकारः?

क. लृट्

ख. लट्

ग. लोट्

घ. विधिलिङ्

iii. 'समाजे' इति पदे का विभक्ति?

क. प्रथमा

ख. तृतीया

ग. चतुर्थी

घ. सप्तमी

iv. 'करोति' इति पदे कः धातु अस्ति?

क. कुरु

ख. कृ

ग. क्री

घ. कू

पाठांश:-

मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा-स्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।

परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं, निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ।। 10 ||

केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वलाः, न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालंकृता मूर्धजाः ।

वाण्येका समलङ्गरेति पुरुषं या संस्कृता धार्यते, क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ।। 11 ||

यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा, यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।

आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्,

प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखननं प्रयुद्यमः कीदृशः ।। 12 ।।

अन्वयः 10- मनसि वचसि काये पूण्यपीयूषपूर्णाः, उपकारश्रेणिभिः त्रिभुवनं प्रीणयन्तः परगुण-परमाणून् पर्वतीकृत्य निजहृदि विकसन्तः कियन्तः सन्तः सन्ति ?

अन्वयः 11- पुरुषं केयूराणि न भूषयन्ति। न चन्द्रोज्ज्वलाः हाराः (भूषयन्ति)। न स्नानम्, न विलेपनम्, न कुसुमम्, न अलंकृताः मूर्धजाः भूषयन्ति। एका वाणी या संस्कृता धार्यते (सा एव) पुरुषं समलङ्करोति। भूषणानि खलु सततं क्षीयन्ते, वाग्भूषणं भूषणम्।

अन्वयः 12- यावत् इदं कलेवरगृहं स्वस्थम्, यावत् च जरा दूरे (तिष्ठति), यावत् च इन्द्रियशक्तिः अप्रतिहता (अस्ति), यावत् आयुषः, क्षयः न (अस्ति), तावत् विदुषा आत्मश्रेयसि महान् प्रयत्नः कार्यः। प्रोद्दीप्ते च भवने कूपखननं प्रति उद्यमः कीदृशः ।।

शब्दार्थाः

वचसि = वाणी में; वाचि (वचस् सप्तमी विभक्ति एकवचन)।

प्रीणयन्तः = प्रसन्न करते हुए; प्रसन्नं कुर्वन्तः।

परगुणपरमाणून् = दूसरों के अति सूक्ष्मगुणों को; अन्येषाम् अतिसूक्ष्मान् गुणान्।

पर्वतीकृत्य = बढ़ा-चढ़ा कर; विशालतां नीत्वा।

हृदि = हृदय में; हृदये (हृत् शब्द सप्तमी विभक्ति एकवचन)।

विकसन्तः = खिलते हुए; विकासं कुर्वन्तः।

सन्तः = सज्जन; विकासं कुर्वन्तः ('सत्' शब्द प्रथमा विभक्ति बहुवचन)।

केयूराणि = बाजूबन्ध, भुजबन्ध; विशिष्टाभूषणानि।

मूर्धजाः = सिर के बाल; केशाः।

क्षीयन्ते = नष्ट हो जाते हैं; विनश्यन्ते।

संस्कृता = शुद्ध, परिष्कृत, संस्कारयुक्त, शिष्टाचारपूर्ण।

कलेवरगृहम् = शरीर; शरीरम् एव गृहम् (कर्मधारय समास)।

जरा = बुढ़ापा; वृद्धत्वम्।

प्रोद्दीप्ते = जलने पर; प्रज्ज्वलिते।

उद्यमः = मेहनत; परिश्रम।

व्याकरणम्-

वचसि - वचस् शब्द सप्तमी विभक्ति एकवचन।

हृदि- हत् शब्द सप्तमी विभक्ति एकवचन।

सन्ति - अस् धातु लट् लकार प्रथम पुरुष बहुवचन ।

चन्द्रोज्ज्वलः - चन्द्र इव उज्ज्वल: कर्मधारय समास।

नायुषः - न आयुषः नञ् समास।

प्रत्युद्यमः - प्रति + उद्यमः (यण संधि)।

सरलार्थः 10- जिनके मन, वाणी और शरीर में पुण्य रूपी अमृत भरा हो, जो अपने उपकारों से तीनों लोकों को प्रसन्न करते हों और दूसरों के परमाणु-समान अति सूक्ष्म गुणों को सदा पर्वत के समान बहुत बढ़ा-चढ़ा कर अपने हृदय में उनका विकास करते हों, ऐसे सज्जन इस संसार में कितने हैं अर्थात् ऐसे लोग विरले ही होते हैं।

भावार्थ:- सत्पुरुष अपने तन, मन और वचन से सदा परोपकार में लगे रहते हैं। वे दूसरे मनुष्यों के छोटे से छोटे गुण को भी अपने हृदय में धारण कर उसे पर्वत के समान अति विस्तृत रूप देकर बड़े सन्तुष्ट रहते हैं। ऐसे पुरुष रत्न धरती पर विरले ही होते हैं।

सरलार्थः 11- मनुष्य को बाजू-बन्ध सुशोभित नहीं करते हैं। चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार भी सुशोभित नहीं करते। न स्नान करने से, न चन्दन आदि का लेप करने से, न पुष्पमाला धारण करने से और न ही सिर के सजे-धजे बालों से मनुष्य शोभायमान होता है। एक वाणी ही, जो संस्कारपूर्वक (सभ्यतापूर्ण ढंग से) धारण की गई हो, मनुष्य को सुशोभित करती है। संसार के अन्य सभी आभूषण समय के प्रवाह से नष्ट हो जाते हैं, केवल वाणी का आभूषण ही सच्चा आभूषण है, जो सदा बना रहता है।

भावार्थ:- शरीर के बाह्य आभूषण मनुष्य की थोड़ी देर के लिए ही शोभा बन पाते हैं। बाद में ये आभूषण नष्ट हो जाते हैं। परन्तु शिष्टाचार पूर्ण सुसंस्कृत वाणी सदैव मनुष्य की शोभा बढ़ाती रहती है, इसीलिए वाणी को ही सच्चा आभूषण कहा गया है।

सरलार्थ: 12- जब तक मनुष्य का यह शरीर रूपी घर स्वस्थ है, जब तक बुढ़ापा इससे दूर है, जब तक इन्द्रियों की शक्तिपूर्ण रूप से बनी हुई है, जब तक आयु क्षीण नहीं हुई है-उससे पूर्व ही विद्वान् मनुष्य को आत्मकल्याण के लिए महान् प्रयास करना चाहिए। घर में आग लग जाने पर कुआँ खोदने के परिश्रम का क्या लाभ है?

भावार्थ:- कवि भर्तृहरि के कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य को आत्मकल्याण के लिए युवा अवस्था में ही प्रयत्न करना चाहिए। बुढ़ापा आने पर तो शरीर ही साथ नहीं देता, उसकी सारी शक्ति क्षीण हो जाती है। फिर अध्यात्म साधना नहीं हो सकती। जो लोग बुढ़ापा आने पर प्रभु भजन का प्रयास करते हैं, वे तो मानो ऐसे प्रयास में लगे हैं जैसे घर में आग लग जाने पर कोई मूर्ख मनुष्य पानी के लिए कुआँ खोदने का प्रयास करता है।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः-

1. एकपदेन उत्तरत-

क. मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः के सन्ति?

उत्तर- सज्जनाः

ख. केः परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं कथ्यन्ति?

उत्तर- सन्ताः

ग. केः केयूराणि न भूषयन्ति?

उत्तर- पुरुषाः

घ. हाराः कीदृशी भवति?

उत्तर- चन्द्रोज्ज्वलाः

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. वाण्येका कम् समलङ्करोति?

उत्तर- वाण्येका पुरुषं समङ्करोति ।

ख. आत्मश्रेयसि प्रयत्नो महान कदा करणीयम् ?

उत्तर- यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं, यावच्च दूरे जरा तावत् आत्मश्रेयसि प्रयत्नो महान् करणीयम्।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-

1. 'जरा' इति पदस्य कः विलोम पदं किम् ?

क. यौवनम्

ख. शिशवः

ग. कुमारः

घ. वृद्धाः

ii. 'नालम्बते' इति पदस्य सन्धि विच्छेदं कुरुत।

क. न + अलम्बते

ख. न + आलम्बते

ग. न + कवलमवते

घ. न + अलमते

iii. 'चन्द्रोज्ज्वलाः' इति पदस्य समास विग्रह क्रियताम्।

क. चन्द्रेन उज्ज्वलाः

ख. चन्द्रस्य उज्ज्वलः

ग. चन्द्र इव उज्ज्वलाः

घ. चन्द्रं उज्ज्वलाः

iv. 'सन्ति' इति पदे कः लकारः?

क. लोट्

ख. लृट्

ग. लङ्

घ. लट्

अभ्यास

(1) संस्कृतभाषाया प्रश्नोत्तराणि लिखत ।

(क) सर्वत्र कीदृशं नीरम् अस्ति ?

उत्तर - सर्वत्र नीरजराजितं नीरम् अस्ति।

(ख) मरालस्य मानसं कं विना न रमते ?

उत्तर - मरालस्य मानसं मानसं विना न रमते।

(ग) विद्वान् कम् अपेक्षते ?

उत्तर - विद्वान् दैष्टिकतां पौरुषं च अपेक्षते।

(घ) सत्कवि: कौ द्वौ अपेक्षते ?

उत्तर - सत्कविः शब्दार्थों द्वौ अपेक्षते ।

(ङ) यः यस्य प्रियः सः तस्य कृते किं भवति ?

उत्तर - यः यस्य प्रियः सः तस्य कृते प्रियः भवति।

(च) सहसा किम् न विदधीत् ?

उत्तर - सहसा क्रियां न विदधीत।

(छ) विधात्रा किं विनिर्मितम् ?

उत्तर - विधात्रा अज्ञानस्य आच्छादनं मौनं विनिर्मितम्।

(ज) अपण्डितानां विभूषणं किम् ?

उत्तर - अपण्डितानां विभूषणं मौनम् ।

(झ) महात्मानां प्रकृतिसिद्धं किं भवति ?

उत्तर - विपदि धैयम्, अभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता, यशसि अभिरुचिः श्रुतौ व्यसनं च महात्मनां प्रकृतिसिद्धं भवति।

(ञ) पायात् कः निवारयति ?

उत्तर - पापात् सन्मित्रं निवारयति।

(ट) सन्तः कान पर्वतीकुविन्ति ?

उत्तर - सन्तः परगुणपरमाणून पवतीकुर्वन्ति ।

(ठ) कीदृशं भूषणं न क्षीयते ?

उत्तर - वाग्-भूषणं न क्षीयते

(ड) कूपरवननं कदा न उचितम् ?

उत्तर - कूपखननं प्रोद्दीप्ते भवने न उचितम्

(2) अधोलिखितपद्यांशानां सप्रसङ्गं हिन्दीभाषाया व्याख्या विधेया ।

(क) वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धा: स्वयमेव सम्पदः ।

व्याख्या - प्रस्तुत पंक्ति हमारी संस्कृत पाठ्य पुस्तक शाश्वती भाग दो के षष्ठ पाठ सूक्ति सुधा - से श्लोक संख्या छ: महाकवि भारवि द्वारा रचित किरातार्जुनीयमहाकाव्यम् से लिया गया है। सूक्ति का अर्थ सुन्दर वचन और सुधा का अर्थ है अमृत यानि सूक्तिसुधा का अर्थ सुन्दर वचन रूपी अमृत ।

पद्य के अनुसार अर्थ यह यह स्पस्ट होता है कि निश्चय ही गुणों की लोभी सम्पत्ति पर विचार विमर्श करने वाले मनुष्यों को अपने आप चुन लेती है जो व्यक्ति सहजता से सोच समझकर विचार करके अपना काम करते है लक्ष्मी स्वयं ही उनका चुनाव कर लेती है।

(ख) क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ।

व्याख्या - प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्य पुस्तक शाश्वती भाग दो के षष्ठ पाठ सुक्तिसुधा से श्लोक संख्या ग्यारह के रचयिता महकवि भर्तृहरि द्वारा लिया गया है । सूक्तिसुधा का अर्थ है अमृत रूपी वचन ।

पद्य के अनुसार अर्थ यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि किसी भी पुरष को आभूषण शोभा नहीं देता है । एक मात्र वाणी ही जो पुरुष को सुशोभित करता है । वाणी संस्कारों से धारण की जा सकती है। बाकी जो आभूषण सारी नस्ट होने वाले होते है । पुरुष के लिए एक मात्र वाणी रुपी आभूषण ही सदा बना रहता है।

(ग) प्रोदीप्ते भवने च कूपरवननं प्रत्युद्यम: कीदृशः ?

व्याख्या - प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्य पुस्तक शाश्वती भाग दो के षष्ठ पाठ सूक्तिसुधा से श्लोक संख्या बारह के रचयिता महाकवि भर्त्तृहरि द्वारा लिया गया है। सूक्तिसुधा का अर्थ है सुन्दर वचन रूपी अमृत ।

पद्य के अनुसार अर्थ यह स्पष्ट होता है कि विद्वान को आत्म कल्याण के लिए महान प्रयत्न करना चाहिए । क्योंकि भवन में आग लगने पर कुंए खोदने का परिश्रम व्यर्थक होता है। इसलिए किसी भी व्यक्ति को समय रहते ही कार्य कर लेना आवश्यक होता है।

(3) रिक्तस्थानपूर्तिः करणीया ।

क . सत्कविरिव विद्वान् शब्दार्थो द्वयम् अपेक्षते ।

ख . सन्तः सन्मित्रलक्षणम् प्रवदन्ति ।

(4) निम्नलिखित श्लोकयो: अन्वयं लिखत ।

यथा-यद्यपि नीरज-राजितं नीरं सर्वत्र अस्ति। (परं) मरालस्य मानसं मानसं विना न रमते।

क . नीरक्षीरविवेके हंसालस्यं त्वमेव तनुषे चेत् ।

    विश्वस्मिन्नधुनान्यः कुलव्रतं पालयिष्यति कः । ।

अन्वय: - नीरक्षीरविवेके त्वमेव चेत् हंसालस्य तनुषे विश्वस्मिन्नधुनान्यः कः कुलव्रतं पालयिष्यति ।

ख .विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः ।

यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्। ।

अन्वयः - विपति धैर्यम् अथ अभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः यशसि च अभिरुचि र्व्यसनम् श्रुतौ हि प्रकृतिसिद्धम् महात्मानाम् ।

(5) निम्नलिखितशब्दानां अर्थं लिखित्वा वाक्य प्रयोगं कुरुत ।

(क) नीरजम् = कमलम् (कमल) सरसि नीरजं शोभते।

(ख) रसालः = आम्रवृक्षः (आम का वृक्ष) प्राङ्गणे रसालः शोभते।

(ग) पौरुषः = पुरुषार्थः (परिश्रम, कर्म) सदा पौरुषः कर्तव्यः।

(घ) विमृश्यकारिणः = विचिन्त्यकारिणः (विचार कर कार्य करने वाले) विमृश्यकारिणः कदापि पश्चात्तापं न प्राप्नुवन्ति।

(ङ) जरा = वृद्धत्वम् (बुढ़ापा) यावत् जरा न आयाति तावत् आत्महितं कुरु।

(6) निम्नलिखितशब्दानां सार्थकं मेलनं क्रियताम् ।

  क . मरालस्य-------- IV . हंसस्य

  ख . अवलम्बते------ i . आश्रयते

   ग . अधुना---------- V . साम्प्रतम्

   घ . विधात्रा-------- i i . व्राह्मण

   ङ . पर्वतीकृत्य----- i i i . विशदीकृत्य

   च . नीरजं----------- V i i i कमलम्

    छ . रसालः--------- V i आम्रः

    ज . सम्पदः-------- Vi i विभूतयः

    झ . यशसि--------- i x कीर्त्तौ

(7) अधों लिखितशब्दानां पठात् विलोमपदं चित्वा लिखत ।

क . मूर्खः---------- विद्वान

ख . अप्रियः------- प्रियः

ग. पुण्यात्-------- पापात्

घ . यौवनम्------- जराः

ङ . उपेक्षते-------- अपेक्षते

(8) सन्धिविच्छेद: क्रियताम् ।

 (क) नालम्बते - न + अवलम्बते

 (ख) विश्वस्मिन्नधुनान्यः - विश्वस्मिन् + अधुना + अन्यः

 (ग) कोऽपि - कः + अपि

 (घ) चाभिरुचिर्व्यसनं - च + अभिरुचि + व्यसनम्

 (ङ) चन्द्रोज्ज्वला: - चन्द्र + उज्ज्वलाः

(9) अ . - अधोलिखितशब्दानां समास विग्रहः कार्यः ।

 यथा-नीरज-राजितम् = नीरजैः राजितम्।

  क . अलिमाल: - अलिनां माला यस्मिन सः - बहुब्रीहि समास

   ख . वाक्पटुता - वाचि पटुता - सप्तमी तत्पुरुष समास

   ग . चन्द्रोज्ज्वला - चन्द्र इव उज्ज्वला: ये ते - बहुब्रीहि समास

   घ . अप्रतिहता - न प्रतिहता - नञ् तत्पुरुष समास

   ङ . वाग्भूषणम् - वाग् एव भूषणं - कर्मधारय समास

(आ) अधोलिखित - विग्रहपदानां समस्तपदानि रचयत् ।

   कुलस्य व्रतं - कुलव्रतम्

क . वनस्य अन्तरे - वनान्तरे

ख . गुणानां लुब्धा - गुणलुब्धा:

ग . प्रकृत्या सिद्धम् - प्रकृतिसिद्ध

घ . उपकारस्य श्रेणिभिः - उपकारश्रेणिभि:,

ङ . आत्मनः श्रेयसि - आत्मश्रेयसि

(10) अधोलिखितशब्देषु प्रकृतिप्रत्ययानां विभागः करणीयः ।

यथा - राजितम् - राज +क्त

क . दैस्टिकतां - दैस्टिक + तल्

ख . कुर्वाणः - कृ + शानच्

ग . पटुता - पटु + तल्

घ . सिद्धम् - सिध् + क्त

ङ . विमृश्य - वि + मृश + ल्यप

(11) अधोलिखितश्लोकेषु छन्दो निदिश्यताम् ।

यथा - अस्ति यद्यपि ............. I l अनुष्टुप छन्दः

क . तावत कोकिल ....... समुल्लसति - आर्या छन्दः ।

ख . स्वायत्तमेकान्त ...... मौनमपण्डितानाम् - उपजाति छन्दः ।

ग . विपदि धैर्यमथा ...... महात्मनाम् - द्रुतविलम्बित-छन्दः

घ. पापान्निवारयति .....प्रवदन्ति सन्तः - वसन्ततिलका छन्दः ।

ङ . केयूराणि न ....... भूषणम् - शाईलविक्रीडितं छन्दः ।

(12) अधोलिखितपङ्क्तिषु कोऽलङ्कार: लिख्यताम् ।

क . शब्दार्थो सत्कविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते – उपमा अलङ्कारः।

ख . वाग्भूषणं भूषणम् – रुपक अलङ्कारः।

ग . निजहृदि विकसन्त: सन्ति: कियन्त: - अनुप्रास अलङ्कारः।

घ . रमते न मरालस्य मानसं मानसं विना – यमक अलङ्कारः।

ङ . यावन्मिलदलिमाल: कोऽपि रसालः समुल्लसति – अनुप्रास अलङ्कारः।

JCERT/JAC REFERENCE BOOK

विषय सूची

अध्याय-1 विद्ययामृतमश्नुते (विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति होती है)

अध्याय-2 रघुकौत्ससंवादः

अध्याय-3 बालकौतुकम्

अध्याय-4 कर्मगौरवम्

अध्याय-5 शुकनासोपदेशः (शुकनास का उपदेश)

अध्याय-6 सूक्तिसुधा

अध्याय-7 विक्रमस्यौदार्यम् (विक्रम की उदारता)

अध्याय-8 भू-विभागाः

अध्याय-9 कार्यं वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम् (कार्य सिद्धकरूँगा या देह त्याग दूँगा)

अध्याय-10 दीनबन्धु श्रीनायारः

अध्याय-11 उद्भिज्ज परिषद् (वृक्षों की सभा)

अध्याय-12 किन्तोः कुटिलता (किन्तु शब्द की कुटिलता)

अध्याय-13 योगस्य वैशिष्ट्यम् (योग की विशेषता)

अध्याय-14 कथं शब्दानुशासनम् कर्तव्यम् (शब्दों का अनुशासन(प्रयोग) कैसे करना चाहिए)

JCERT/JAC प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)

विषयानुक्रमणिका

क्रम.

पाठ का नाम

प्रथमः पाठः

विद्ययाऽमृतमश्नुते

द्वितीयः पाठः

रधुकौत्ससंवादः

तृतीयः पाठः

बालकौतुकम्

चतुर्थः पाठः

कर्मगौरवम्

पंचमः पाठः

शुकनासोपदेशः

षष्ठः पाठः

सूक्तिसुधा

सप्तमः पाठः

विक्रमस्यौदार्यम्

अष्टमः पाठः

भू-विभागाः

नवमः पाठः

कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्

दशमः पाठः

दीनबन्धुः श्रीनायारः

एकादशः पाठः

उद्भिज्ज -परिषद्

द्वादशः पाठः

किन्तोः कुटिलता

त्रयोदशः पाठः

योगस्य वैशिष्टयम्

चतुर्दशः पाठः

कथं शब्दानुशासनं कर्तव्यम्

JAC वार्षिक माध्यमिक परीक्षा, 2023 प्रश्नोत्तर

Sanskrit Solutions शाश्वती भाग 2













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