7. विक्रमस्यौदार्यम्
अधिगम-प्रतिफलानि
(1) विद्यार्थी सरल संस्कृत भाषया कक्षोपयोगीनि वाक्यानि
वक्तुं समर्थोऽस्ति (विद्यार्थी सरल संस्कृत भाषा में कक्षा उपयोगी वाक्यों को बोलने
में समर्थ होते हैं।)
(2) अपठितं गद्यांशं पठित्वा तदाधारित प्रश्ना नामुतर प्रदाने
सक्षमः अस्ति।
(अपठित गद्यांश पढ़कर उसपर आधारित प्रश्न के उत्तर देने में
समर्थ होते हैं।)
(3) पाठे प्रयुक्तानां समासिकपदानां विग्रहं विगृहीतपदानां
समस्तपदानि लिखति ।
(पाठ में प्रयुक्त सामासिक पदों का विग्रह और विग्रह पदों
का समस्त पद लिखते हैं।)
पाठपरिचयः-
'सिहासनद्वात्रिंशिका' कथा ग्रंथ विक्रमादित्य से संबंधित
है यह ग्रंथ 32 कहानियों का संग्रह है। इसके अलावा गद्यमय, पद्यमय, गद्य-पद्यमय। ये
केवल तीन पाठ मिलते हैं।
मनोरंजकता और लोकप्रियता में यह अन्य ग्रंथों से बढ़कर है।
इसमें वर्णन किया गया है कि राजा भोज को विक्रमादित्य का भूमि में गड़ा हुआ सिंहासन
मिला। इसमें 32 पुत्तलियाँ लगी हुई थीं। राजा भोज उस सिंहासन पर बैठना तो पुत्तलियों
ने उन्हें रोका और राजा विक्रमादित्य के न्याय से संबंधित कहानियाँ सुनाई। प्रत्येक
पुतली ने विक्रमादित्य के गुणों तथा पराक्रम की एक एक कहानी सुनाई। यह 32 आत्माएं पुतली
के रूप में रुकी हुई थीं। वे अपनी-अपनी कहानी सुना कर मुक्त हो जाती हैं।
पुतलियों ने राजा से कहा कि यदि वह विक्रमादित्य के तुल्य
पराक्रमी न्यायी और उदार हो तो उस सिंहासन पर बैठ सकता है। अन्यथा नहीं। इस प्रकार
वे पुतलियाँ उन्हें 32 दिनों तक उस सिंहासन पर बैठने से रोकती हैं। प्रत्येक कथा में
राजा भोज का उल्लेख है। अतः इस कथा संग्रह का समय राजा भोज (10 18) से (1063) ईसवी
के बाद ही माना जाता है।
पाठ का सारांश-
प्रस्तुत पाठ 'विक्रमास्यौदार्यम्' 'सिहासन द्वात्रिंशका'
नामक कथा ग्रंथ से उद्धृत है। इसमें उज्जयिनी के न्याय प्रिय पराक्रमी विद्या व्यसनी
तथा उदार नेता सम्राट विक्रमादित्य की दान शीलता एवं उदारता का चित्रण किया गया है।
जब राजा विक्रम को यह संसार असार प्रतीत होता है तब अपने औदार्यवश वे सम्पूर्ण राजकोष
दान करना चाहते हैं।
इसके लिए वह 'सर्वस्वदक्षिणयज्ञ' का अनुष्ठान करते हैं। उस
यज्ञ में वह सबकुछ ब्राह्मणों एवं याचकों को दान कर देते हैं। यहाँ तक कि समुद्र की
ओर से प्रदान किए गए अद्वितीय चार रत्न भी वह ब्राह्मणों को प्रदान कर देते हैं। यह
कहानी कह कर पुतली राजा भोज से बोली हे राजन। यदि तुम्हारे अन्दर इस प्रकार की सहज
उदारता है तो इस सिंहासन पर बैठो यह सुनकर राजा भोज चुप हो गया राजा विक्रमादित्य की
उदारता का यह दृष्टांत प्रशंसनीय है।
पाठांश:-
पुनरपि राजा सिंहासने समुपवेष्टुं गच्छति। ततोऽन्या पुत्तलिका
समवदत् "भो राजन्! एतत्सिंहासने तेनैव अध्यासितव्यं यस्य विक्रमतुल्यम् औदार्यमस्ति।"
भोजेनोक्तम्-"भो पुत्तलिके, कथय तस्यौदार्यम्।" सा वदति, "राजन् यस्त्वर्थिनां
पूरयति, तस्येप्सितं देवः सम्पादयति।" यच्चोक्तम् -
उत्साहसम्पन्नमदीर्घसूत्रं, व्यसनेष्वसक्तम्।।
क्रियाविधिज्ञं शूरं कृतज्ञं दृढनिश्चयं च, लक्ष्मीः स्वयं वाञ्छति वासहेतोः
॥
अन्वयः-
उत्साहसम्पन्नम् अदीर्घसूत्रम् क्रियाविधिज्ञम् व्यसनेषु
असक्तम् शूरं कृतज्ञं दृढनिश्चयम् च लक्ष्मीः स्वयं वासहेतोः वाञ्छति ।
पदार्थाः-
पुत्तलिका - पुतली
समुपवेष्टुम् - बैठने के लिए।
तनैव - उसी के द्वारा।
अध्यसितव्यत्- बैठना चाहिए।
औदार्यम् - उदारता।
यस्त्वर्थिनां - जो याचकों की।
यच्चोक्त - ऐसा कहा गया।
व्याकरण कार्यम-
तेनैव - तेन+एव
समुपवेष्टुम् - सम् + उप + विश् + तुमुन्
अध्यासितव्यम् - अधि + आस् + तव्यत् ।
यच्चोक्त - यत् + च + उक्तम्।
हिन्दी-अनुवादः
राजा फिर भी सिंहासन पर बैठने के लिए जाता है। तभी दूसरी
पुत्तलिका कहती है-"हे राजन् । इस सिंहासन पर उसे ही बैठना चाहिए, जिसकी उदारता
राजा विक्रम के समान है।" भोज ने कहा- "हे पुत्तलिके । उसकी उदारता के विषय
में बताओ।" वह बोली- "राजन् ! जो याचकों की (याचना) पूर्ण करता है, देव
(विक्रम) उसकी इच्छा पूर्ण करते हैं।" और जैसा कि कहा भी गया है जो मनुष्य उत्साहयुक्त,
निरर्थक लम्बी योजनाएँ न बनाने वाला, क्रियाविधि का ज्ञाता, व्यसनों से दूर, शूरवीर,
कृतज्ञ तथा दृढनिश्चयी होता है-ऐसे मनुष्य के पास लक्ष्मी स्वयं निवास करना चाहती है।
पाठांश:-
2. एवं सकलगुणनिवासः स विक्रमो राजा एकदा स्वमनस्यचिन्तयत्
-
'अहो असारोऽयं संसारः, कदा कस्य किं भविष्यतीति न ज्ञायते।
यच्चोपार्जितानां वित्तं तदपि दानभोगैर्विना सफलं न भवति।
तथा चोक्तम् -'उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।
तटाकोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम्॥
अपि च दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः।
पश्येह मधुकरीणां सञ्चितमर्थ हरन्त्यन्ये ॥
अन्वयः-
दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयः न कर्तव्यः पश्य इह मधुकरीणाम्
सञ्चितमर्थ अन्ये हरन्ति ।।
पदार्थाः-
स्वमनसि - अपने मन में।
एकदा - एक बार।
सकलगुणनिवासः - सम्पूर्ण गुणों का निवास स्थान।
तटाकोदरसंस्थानाम् - तालाब की गहराई में स्थित ।
परीवाह – निकास
अम्भासाम् - जल का।
अनुवादः/भावार्थ:-
इस प्रकार सभी गुणों से सम्पन्न उस राजा विक्रम ने एक बार
अपने मन में विचार किया-"अहो, यह संसार सारहीन है, कब किसका क्या होगा-यह पता
ही नहीं चलता। और जो धनवानों का धन है, वह भी दान-भोग के बिना सफल नहीं होता। और कहा
भी है-"
इकट्ठे किए गए धन की रक्षा उस धन का त्याग ही है। जिस प्रकार
तालाब की गहराई में स्थित जल की रक्षा उसका निकास ही होता है।
और भी धन का दान करना चाहिए, धन का भोग करना चाहिए, परन्तु
धन का सञ्चय कदापि नहीं करना चाहिए। देखो, इस संसार में मधुमक्खियों द्वारा सञ्चित
किए गए धन (मधु/शहद) को दूसरे लोग ही हर लेते हैं।
पाठधारिताः प्रश्ना:-
(1) एकपदे उत्तरत-
(क) नृप कुत्र समुपवेष्टुं गच्छति?
उत्तर-
सिंहासने
(ख) नृप काम् विक्रमादित्यस्य औदार्य वर्णयितुं
कथयति?
उत्तर-
पुत्तलिकाम्
(ग) अहो असारोऽयं संसारः इदं कस्य कथनमस्ति?
उत्तर-
राज्ञः विक्रमस्य
(घ) उपार्जितानां वितानां किं रक्षणम् अस्ति?
उत्तर-
त्यागः
(2) पूर्णवाक्येन उत्तरत-
(क) विक्रमस्य सिंहासनं केन अध्यासितव्यम् आसीत्?
उत्तर-
विक्रमस्य सिंहासनं तेनैव अध्यासितव्यम्
यस्य विक्रमतुल्यम् औदार्यमस्ति ।
(ख) उपार्जितानां वितं कैः विधा सफलं न भवति ?
उत्तर-
उपार्जितानां वित्तं दानभोगै: विधा
सफलं न भवति।
(3) बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-
(i) विक्रमस्यौदार्यम्' इति पाठः कस्मात् ग्रन्थांत् संकलितः?
क. सिंहासनद्वात्रिंशिका
ख.
जातकमाला
ग.
रामायणतः
घ.
चरकतः
(ii) 'याचकानाम्' इति पदस्य अत्र कः पर्यायः?
क.
देवानाम्
ख. अर्थिनाम्
ग.
भिक्षुकाणाम्
घ.
नृपणाम्
(iii) 'तनैव' इति पदस्य सन्धिवच्छेदं चिनुत-
क. तेन + एव
ख.
तना + इव
ग.
तन + इव
घ.
तनि + एवं
(iv) पुत्तलिकाः कति सन्ति?
क.
विंशति
ख.
सप्तदश
ग. द्वात्रिंशत्
घ.
पञ्चविशतिं
पाठांश:-
3. इत्येवं विचार्य सर्वस्वदक्षिणं यज्ञं कर्तुमुपक्रान्तवान्।
ततः शिल्पिभिरतीव मनोहरो मण्डपः कारितः। सर्वापि यज्ञसामग्री समाहृता। देवमुनिगन्धर्वयक्षसिद्धादयश्च
समाहूताः। तस्मिन्नवसरे समुद्राह्वानार्थं कश्चिद् ब्राह्मणः समुद्रतीरे प्रेषितः ।
सोऽपि समुद्रतीरं गत्वा गन्धपुष्पादिषोडशोपचारं विधायाब्रवीत् “भोः समुद्र ! विक्रमार्को
राजा यज्ञं करोति । तेन प्रेषितोऽहं त्वामाह्वातुं समागतः।" इति जलमध्ये पुष्पाञ्जलिं
दत्वा क्षणं स्थितः। कोऽपि तस्य प्रत्युत्तरं न ददौ। तत उजयिनीं यावत्प्रत्यागच्छति
तावद्देदीप्यमानशरीरः समुद्रो ब्राहमणरूपी सन् तमागत्यावदत् “भो ब्राह्मण, विक्रमेणास्मानाह्वातुं
प्रेषितस्त्वं, तर्हि तेन यास्माकं सम्भावना कृता सा प्राप्तैव। एतदेव सुहृदो लक्षणं
यत्समये दानमानादि क्रियते।"
पदार्थाः
शिल्पिभिः - कारीगरों से।
समाहुताः – आमान्त्रित किए गए।
समाह्रताः - इकठटी कर दी गई है।
आह्वातुम् - बुलाने के लिए।
गुह्ममाख्याति- गोपनीय को कहता है।
व्याकरणकार्यम्-
शिल्पिभिः - शिल्प + इनि, प्रत्ययः।
अहुताः- सम् + हवे + क्त
आह्वातुम् - आ+ ह्मे + तुमुन् प्रत्ययः।
हिन्दी-अनुवादः
यही विचार कर सर्वस्वदक्षिणा यज्ञ करना आरम्भ कर दिया। तब
शिल्पियों से बहुत ही मनोहर मण्डप तैयार करवाया। सभी यज्ञसामग्री इकट्ठी की गई। देव,
मुनि, गन्धर्व, यक्ष, सिद्ध आदि आमन्त्रित किए गए। उसी अवसर पर समुद्र को बुलाने के
लिए किसी ब्राह्मण को समुद्र के तट पर भेजा गया। वह भी समुद्र तट पर जाकर गन्ध, पुष्प
आदि षोडशोपचार (पूजा) करके कहने लगा-"हे समुद्रा राजा विक्रमादित्य यज्ञ कर रहे
हैं। उनके द्वारा भेजा गया मैं आपको बुलाने के लिए आया हूँ।" इस प्रकार जल के
बीच पुष्पाञ्जलि समर्पित कर क्षण भर के लिए ठहर गया। उसके निवेदन का उत्तर किसी ने
भी नहीं दिया। फिर जैसे ही वह उज्जयिनी की ओर लौट रहा था तभी देदीप्यमान शरीर वाला
समुद्र ब्राह्मण का रूप धारण कर उसके पास आकर कहने लगा-"हे ब्राह्मण! राजा विक्रमादित्य
ने हमें आमन्त्रित करने के लिए तुम्हें भेजा है। तो उन्होंने जो हमारा आदर-मान किया,
वह प्राप्त हो गया। यही मित्र की पहचान होती है कि समय पर दान-मान आदि किया जाए।"
पाठांश:-
4. उक्तं च ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति।
भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम्॥
दूरस्थितानां मैत्री नश्यति समीपस्थानां वर्धते इति न वाच्यम्।
गिरौ कलापी गगने पयोदो लक्षान्तरेऽर्कश्च जले च पद्म।
इन्दुर्द्धिलक्षे कुमुदस्य बन्धुर्यो यस्य मित्रं न हि तस्य
दूरम् ॥
अन्वयः-
ददाति, प्रतिगृह्मति, गुह्ममाख्याति, पृच्छति, भुङ्क्ते भोजयते
चैव प्रीतिलक्षणम् षड्विधम्।
पदार्थाः-
गुह्ममाख्याति - गोपनीय को कहता है।
कलापी - मोर।
लक्षान्तरेऽर्कश्च - लाखों मील दूरी।
इन्दुरद्विलक्षे - चन्द्रमा से दो लाख मील दूर।
व्याकरणकार्यम्
गुह्मम् - आख्याति।
कलापी - मोर कलापम् अस्ति अस्य सः (बहुव्रीहिः)
लक्षान्तरेऽर्कश्च - लक्ष अन्तरे अर्क: + च
इन्दुरद्विलक्षे - इन्दुः + विलक्षे।
अनुवादः/भावार्थ:-
और कहा भी है- देना, लेना, गोपनीय बात करना, गोपनीय बात पूछना,
भोजन करना और भोजन करवाना-यह छः प्रकार का प्रीति का लक्षण होता है। दूर रहने वालों
की मित्रता नष्ट हो जाती है और समीप रहने वालों की मित्रता बढ़ती है-यह बात कहने योग्य
नहीं है अर्थात् उचित नहीं है। पर्वत पर मयूर और आकाश में बादल, लाखों योजन दूर सूर्य
और (सरोवर के) जल में कमल-एक दूसरे के मित्र हैं। बहुत दूरी होने पर भी चन्द्रमा कमलिनी
का मित्र है। जो जिसका मित्र होता है, वह उससे दूर नहीं होता।
पाठांशाधारिताः प्रश्नाः-
(1) एकपदेन उत्तरत्
(क) मण्डपः कैः कारितः?
उत्तर-
शिल्पिभिः
(ख) समुद्राह्वनार्थ कः प्रेषितः?
उत्तर-
ब्राह्मणः
(ग) प्रीतिलक्षणं कतिविधं भवति ?
उत्तर-
षड्विधम्
(घ) सन्मित्रं किम् आख्याति?
उत्तर-
गुह्मम्
(2) पूर्णवाक्येन् उत्तरत् -
(क) सुहृदः किं लक्षणम्?
उत्तर-
सुहृदः लक्षणों यत्समये दानमानादि क्रियते ।
(ख) सन्मित्रं किं किं करोति?
उत्तर-
सन्मित्रम् ददाति, प्रतिगृह्मति, आख्याति पृच्छति भुङ्क्ते भोजयते च।
(3) बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-
(i) 'मित्रस्य' इति पदस्य अत्र कः पर्यायः?
क. सखा
ख. बन्धु
ग. सुहृदः
घ. शत्रु
(ii) 'प्रतिगृह्णाति' इत्यस्य विलोमपदं किम् ?
क.
भोजयते
ख. आख्याति
ग.
भुङ्क्ते
घ.
ददाति
(iii) 'कथयति' इत्यर्थे अत्र कः पर्यायः?
क.
पृच्छति
ख. आख्याति
ग.
ददाति
घ.
प्रतिग्रहीत
(iv) 'सोऽपि' इत्यस्य चिनुत-पदस्य सन्धिविच्छेदं
क. सो + अपि
ख.
सः + आपि
ग.
स + ऽपि
घ.
सु + आपि
पाठांश:-
5.
तस्मै राज्ञे व्ययार्थं रत्नचतुष्टयं दास्यामि। एतेषां महात्म्यम्-एकं रत्नं यद्वस्तु
स्मर्यते तद्ददाति । द्वितीयरत्नेनभोजनादिकममृततुल् यमुत्पद्यते। तृतीयरत्नाच्चतुरङ्गबलं
भवति। चतुर्थाद्रत्नाद्दिव्याभरणानिजायन्ते। तदेतानि रत्नानि गृहीत्वा राज्ञो हस्ते
प्रयच्छेति।
ततो ब्राह्मणस्तानि रत्नानि गृहीत्वा उज्जयिनी यावदागतस्तावद्यज्ञसमाप्तिर्जा
ता। राजावभृथस्नानं कृत्वा सर्वानर्थिजनान् परिपूर्णमनोरथानकरोत्। ब्राह्मणो राजानं
दृष्ट्वा रत्नान्यर्पयित्वा प्रत्येकं तेषां गुणकथनमकथयत्।
पदार्था:-
व्ययार्थम् - खर्च करने के लिए।
रत्नचतुष्टयं - चार रत्न।
स्मर्यते - स्मरण की जाती है।
जायन्ते - उत्पन्न होते हैं।
गृहीत्वा - लेकर।
व्यतिक्रम्य - बीत जाने पर।
समागतः - आए हो।
चतुरङ्गबलम् - घुड़ सवार, हाथी सवार,रथ सवार, पैदल सैनिक इन चारों को मिलाकर
चार अंगों वाली सेना
अनुवादः/भावार्थ:-
(मैं समुद्र) उस राजा को खर्च करने के लिए चार रत्न समर्पित
करूँगा। इन रत्नों का महात्म्य यह है-एक रत्न जो वस्तु याद की जाए वही प्रदान करता
है। दूसरा अमृत के समान भोजन आदि पैदा करता है। तीसरे रत्न से चतुरंगिणी सेना पैदा
हो जाती है। चौथे रत्न से दिव्य वस्त्र-आभूषण पैदा होते हैं। तो ये रत्न लेकर राजा
के हाथ में दे देना। तत्पश्चात् ब्राह्मण उन रत्नों को लेकर जैसे ही उज्जयिनी आया तभी
यज्ञ की समाप्ति हो गई। राजा ने अवभृथ स्नान करके सभी याचकों को पूर्ण मनोरथ वाला कर
दिया। ब्राह्मण ने राजा का दर्शन कर रत्नों को समर्पित करके उनमें से प्रत्येक का गुणवर्णन
किया।
पाठाधारिताः प्रश्नाः
(1) एकपदेन उत्तरत् -
(क) समुद्रः कस्मै रत्नचतुष्टयं दास्यति?
उत्तर-
विक्रमादित्याय
(ख) चतुर्थरत्नात् कानि जायन्ते?
उत्तर-
दिव्याभरणानि।
(ग) ब्राह्मणः यानि रत्नानि गृहीत्वा कुत्र
आगतः?
उत्तर-
उज्जयिनीम्।
(2) पूर्ण वाक्येन उत्तरत् -
(क) द्वितीयरत्नेन किम् उत्पद्यते?
उत्तर-
द्वितीयरत्नेनभोजनादिकममृततुल्यम् उत्पद्यते।
(ख) ब्राह्मणेन रत्नग्रहणविषये किम् उक्तम्?
उत्तर-
ब्राह्मणेन उक्तम् यत् गृहं गत्वा गृहिणीं, पुत्रं, स्नुषां च पृष्टवा सर्वेभ्यो यद्
रोचते तद् ग्रहीष्यामीति ।
(3) बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-
(i) 'एकं रत्नम्' इति कर्तृपदस्य क्रियापदं
किमस्ति ?
क. दास्यामि
ख. उत्पद्यते
ग. ददाति
घ. भवति
(ii) 'आभूषणानि' इति पदस्य अत्र कः पर्यायः?
क. भूषणानि
ख. आभारणानि
ग. रत्नानि
घ. अलंकारणानि
(iii) तेषां गुणकथनमकथयत् इत्यत्र तेषाम् सर्वनामस्थाने
संज्ञापदं लिखत्।
क. रत्नानाम्
ख. यज्ञानाम्
ग. जनानाम्
घ. ब्राह्ममणनाम्
(iv) 'याचकान्' इत्यर्थे अत्र कः पर्यायः?
क.
मनोरथान्
ख.
ब्राह्मणान्
ग. अर्थिजनान्
घ.
भिक्षुकान्
पाठांश:-
6.
ततो राजावदत्, "भो ब्राह्मणा भवान् यज्ञदक्षिणाकालं व्यतिक्रम्य समागतः। मया सर्वोऽपि
ब्राह्मणसमूहो दक्षिणया तोषितः। तर्हि त्वमेतेषां रत्नानां मध्ये यत्तुभ्यं रोचते तद्गृहाणेति।
ब्राह्मणेनोक्तम्, 'गृहं गत्वा गृहिणी, पुत्रं, स्नुषां च पृष्ट्वा सर्वेभ्यो यद्रोचते
तद्ग्रहीष्यामीति।' राज्ञोक्तं तथा कुरु।"
ब्राह्मणोऽपि
स्वगृहमागत्य सर्वं वृत्तान्तं तेषामग्रेऽकथयत्। पुत्रेणोक्तं 'यद्रलं चतुरङ्गबलं ददाति
तद्ग्रहीष्यामः। यतः सुखेन राज्यं कर्तुमर्हिष्यामः।' पित्रोक्तं 'बुद्धिमता राज्यं
न प्रार्थनीयम्।' पुनः पिता वदति यस्माद्धनं लभते तद् गृहाण। धनेन सर्वमपि लभ्यते।'
भार्ययोक्तं 'यद्रत्नं षड्रसान् सूते तद्गृह्यताम्। सर्वेषां प्राणिनामन्नेनैव प्राणधारणं भवति।' स्नुषयोक्तं 'यद्रलं रत्नाभरणादिकं सूते
तद् ग्राह्यम्।'
पदार्थाः-
स्नुषाम् - पुत्र वधू को।
पृष्ट्वा - पूछकर।
तद् ग्रहीष्यामि - उसे लूंगा।
सुखेन - सुख पूर्वक।
प्रार्थनीयम् - मांगना चाहिए।
षडरसान् - छः रसों को।
रत्नाभरणादिकम् - रत्न आभूषण आदि।
व्याकरण कार्यम्
अतिक्रम्य - अति + क्रम् + ल्यप प्रत्ययः
ग्राह्मम् - ग्रह + ण्यत्
सर्वोऽपि - सर्व + अपि
गत्वा - गम् + क्त्वा प्रत्ययः
ब्राह्मणोऽपि - ब्रह्ममण + अपि।
अनुवाद/ भावार्थ:-
तब राजा ने कहा- "हे ब्राह्मण। आप यज्ञ-दक्षिणा का समय
निकल जाने पर आए हैं। मैंने समस्त ब्राह्मण समूह को दक्षिणा द्वारा सन्तुष्ट कर दिया।
तो इन रत्नों में से जो तुम्हें अच्छा लगता है, वह ले लो। घर जाकर पत्नी, पुत्र और
पुत्रवधू से पूछकर सभी को जो अच्छा लगता है, वही ले लूँगा। राजा ने कहा-"ऐसा ही
करो।"
ब्राह्मण ने भी अपने घर आकर सब समाचार उनके सामने कहा। पुत्र
ने कहा- "जो रत्न चतुरंगिणी सेना को देता, वही रत्न लेंगे। जिससे सुखपूर्वक राज्य
करने में समर्थ होंगे।" पिता ने कहा- "बुद्धिमान् मनुष्य को राज्य की इच्छा
नहीं करनी चाहिए।" फिर पिता ने कहा- "जिस रत्न से धन मिलता है, वही रत्न
लो। धन से सब कुछ मिल जाता है।" पत्नी ने कहा- "जो रत्न छः रसों (वाले भोजन)
को पैदा करता है, वही रत्न ले लो। सभी प्राणियों का प्राणधारण (जीवन) अन्न से ही चलता
है।" पुत्रवधू ने कहा- "जो रत्न वस्त्र-गहने आदि पैदा करता है, वही रत्न
लेना चाहिए।"
पाठांश:-
7. एवं चतुर्णां परस्परं विवादो लग्नः। ततो ब्राह्मणो राजसमीपमागत्य
चतुर्णां विवादवृत्तान्तमकथयत्। राजापि तच्छ्रुत्वा तस्मै ब्राह्मणाय चत्वार्यपि रत्नानि
ददौ। इति कथां कथयित्वा पुत्तलिका राजानमवदत्, 'भो राजन्, त्वय्येवंविध-सहजमौदार्यं
विद्यते चेदस्मिन् सिंहासने समुपविश।' तच्छ्रुत्वा राजा तूष्णीमासीत्।
पदार्थाः-
तच्छुत्वा- उसे सुनकर।
कथयित्वा - कह कर।
एवविधम्- इस प्रकार।
सहजमौदार्यम् - स्वाभाविक उदारता।
विद्यते- है।
समुपविश- बैठो।
तूष्णीम् - चुपचाप ।
अनुवादः/भावार्थ:-
इस प्रकार चारों में झगड़ा हो गया। तब ब्राहमण ने राजा के
पास आकर चारों का विवाद-समाचार कह दिया। राजा ने भी उसे सुनकर उस ब्राह्मण को चारों
ही रत्न प्रदान कर दिए। यह कथा कहकर पुत्तलिका ने राजा (भोज) को कहा- "हे राजन्
आप में इस प्रकार की स्वाभाविक उदारता है तो इस सिंहासन पर बैठ जाओ।" यह सुनकर
राजा (भोज) चुप हो गया।
पाठाधारित : प्रश्नाः-
(1) एकपदेन उत्तरत् -
(क) यद्रत्नं चतुरगङबलं ददाति तद्ग्रहीष्याम
इतिकेनोक्तम्?
उत्तर-
पुत्रेण।
(ख) बुद्धिमता किं न प्रार्थनीयम्?
उत्तर-
राज्यम्।
(ग) केषां परस्परं विवादो लग्नः?
उत्तर-
चतुराणाम्।
(घ) राजा कस्मै चत्वार्यपि रत्नानि ददौ ?
उत्तर-
ब्राह्मणाय।
(2) पूर्णवाक्येन् उत्तरत् -
(क) सर्वेषां प्राणिनां केन प्राणधारणं भवति?
उत्तर-
सर्वेषां प्राणिनाम् अन्नेन एव प्राणधारणं भवति।
(ख) किम् श्रुत्वा राजा तूष्णीमासीत् ?
उत्तर-
पुत्तलिकायाः इदं वचनम्-“हो राजन्! त्वय्येवंविध - सहजमौदार्य विद्यते चेदस्मिन् सिंहासने
समुपविश"।
(3) बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-
(i) 'वृत्तान्तम्' इति संज्ञा पदस्य अत्र सर्वानां
पदं किम्?
क. तेषाम्
ख. सर्वम
ग. यत्
घ. तत्
(ii) 'पित्रा' इति पदस्य अत्र विलोमपदं किम्?
क.
स्नुषया
ख.
बुद्धिमता
ग.
ब्राह्ममणेन
घ. पुत्रेण
(iii) प्रीतिलक्षणं कतिविधं भवति ?
क.
एका
ख. षड्
ग.
द्वितीया
घ.
पञ्चम
(iv) 'मौनम्' इत्यर्थे अत्र कः पर्यायः?
क.
श्रुत्वा
ख.
औदार्यम्।
ग. तूष्णीम्
घ.
वृत्तान्तम्
अभ्यासः-
प्रश्न 1. संस्कृतभाषया उत्तरत -
(क) पाठः कस्मात् ग्रन्थात् सङ्कलितः ?
उत्तर
: पाठः 'सिंहासनद्वात्रिंशिका' इति ग्रन्थात् सङ्कलितः।
(ख) उपार्जितानां वित्तानां रक्षणं कथं भवति ?
उत्तर
: उपार्जितानां वित्तानां रक्षणं त्यागेन भवति।
(ग) धनविषये कीदृशः व्यवहारः कर्तव्यः ?
उत्तर
: धनविषये दानभोगैः व्यवहारः कर्तव्यः ।
(घ) जलमध्ये पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा क्षणं कः स्थितः ?
उत्तर
: जलमध्ये पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा क्षणं ब्राह्मणः स्थितः।
(ङ) समुद्रः राज्ञे किमर्थं रत्नचतुष्टयं दत्तवान् ?
उत्तर
: समुद्रः राज्ञे व्ययार्थं रत्नचतुष्टयं दत्तवान्।
(च) द्वितीयरत्नेन किम् उत्पद्यते ?
उत्तर
: द्वितीयरत्नेन अमृततुल्यं भोजनादिकम् उत्पद्यते।
(छ) प्रीतिलक्षणम् कतिविधं भवति ?
उत्तर
: प्रीतिलक्षणं षड्विधं भवति।
प्रश्न 2. रिक्तस्थानानि पूरयत
-
(क)
उपार्जितानां वित्तानां त्याग: हि रक्षणम्।
(ख)
दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयः न कर्तव्यः।
(ग)
ततः शिल्पिभिरतीव मनोहर: मण्डपः कारितः।
(घ)
भो समुद्र ! विक्रमार्कः राजा यज्ञं करोति।
(ङ)
तस्मै राज्ञे व्ययार्थं रत्नचतुष्टयं दास्यामि।
(च)
यद्रत्नं चतुरङ्गबलं ददाति तद् ग्रहीष्यामः।
(छ)
सर्वेषां प्राणिनामनेनैव प्राणधारणं भवति।
प्रश्न 3. अधोलिखितानां पदानां वाक्येषु प्रयोगं कुरुत -
वित्तानाम्,
शिल्पिभिः, गिरौ, एतेषाम्, दातव्यम्, रोचते।
(क) वित्तानाम्- वित्तानां दानभोमैः रक्षणं
कर्तव्यम्।
(ख) शिल्पिभिः- शिल्पिभिः मनोहर: मण्डपः कृतः।
(ग) गिरौ- गिरौ मयूरः नृत्यति।।
(घ) एतेषाम्- एतेषां याचना अवश्यं पूरणीया।
(ङ) दातव्यम्- यत् यस्मै रोचते तत् तस्मै
दातव्यम्।
(च) रोचते- मह्यं पठनं रोचते।
प्रश्न 4. प्रकृतिप्रत्ययविभागः क्रियताम् -
उपक्रान्तवान्,
विधाय, गत्वा, गृहीत्वा, स्थितः, व्यतिक्रम्य, दातव्यम्।
उपसर्ग
+ प्रकृति + प्रत्यय
(क) उपक्रान्तवान् - उप + क्रिम् + क्तवतु (पुं०,
प्रथमा एकवचनम्)
(ख) विधाय - वि + धा + ल्यप् (अव्ययपदम्)
(ग) गत्वा - गम् + क्त्वा (अव्ययपदम्)
(घ) गृहीत्वा -ग्रह् + क्त्वा (अव्ययपदम्)
(ङ) स्थितः - स्था + क्त (पुं०, प्रथमा
एकवचनम्)
(च) व्यतिक्रम्य - वि + अति + क्रिम् + ल्यप्
(अव्ययपदम्)
प्रश्न 5.सन्धिच्छेदं कुरुत -
तेनैव,
यच्चोक्तम्, तस्येप्सितम्, चैव, यच्च, तदपि, सर्वापि, सोऽपि, प्राप्तैव,
चेदस्मिन्, तच्छ्रुत्वा, त्वय्येवम्
(क) तेनैव = तेन + एव
(ख) यच्चोक्तम् = यत् + च + उक्तम्
(ग) तस्येप्सितम् = तस्य + ईप्सितम्
(घ) चैव = च + एव
(ङ) यच्च = यत् + च
(च) तदपि = तत् + अपि
(छ) सर्वापि = सर्वा + अपि
(ज) सोऽपि = सः + अपि
(झ) प्राप्तव = प्राप्ता + एव
(ब) चेदस्मिन् = चेद् + अस्मिन्
(ट) तच्छ्रुत्वा = तत् + श्रुत्वा
(ठ) त्वय्येवम् = त्वयि + एवम्
प्रश्न 6. सप्रसङ्गं हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या -
(क) उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।
तटाकोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम्॥
उत्तर
: प्रसंगः प्रस्तुत
पद्य विक्रमस्यौदार्यम् नामक पाठ से लिया गया है। यह कथा किसी अज्ञात लेखक द्वारा रचित
'सिंहासनद्वात्रिंशिका' कथा संग्रह से संकलित है। प्रस्तुत पद्य में धन के दान को ही
धन का सच्चा संरक्षण कहा गया है।
व्याख्या - मनुष्य जो भी धन अपने परिश्रम
से इकट्ठा करता है। उसका संरक्षण खजाना भरकर नहीं हो सकता। अपित असहायों की सहायता
के लिए उस धन को दान कर देना ही उसकी सच्ची रक्षा है। तालाब में जल भरा होता है यदि
वह जल तालाब में ही पड़ा रहे और किसी के काम न आए तो वह जल व्यर्थ है अपितु तालाब में
ही पड़े पड़े वह जल दुर्गन्धयुक्त हो जाता है, इसीलिए तालाब के जल को बाहर निकाल दिया
जाता है, नया जल आ जाता है - और उसका पानी उपयोगी बना रहता है। इसी प्रकार धन का दान
करना ही धन का सच्चा उपयोग
है।
(ख) ददाति प्रतिगहणाति गहयमाख्याति पृच्छति।
भुड्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम्॥
उत्तर
: प्रसंगः - प्रस्तुत पद्य 'विक्रमस्यौदार्यम्' नामक पाठ से लिया गया
है। यह कथा किसी अज्ञात लेखक द्वारा रचित 'सिंहासनद्वात्रिंशिका' कथासंग्रह से संकलित
है। प्रस्तुत पद्य में समुद्र ने ब्राह्मण को मित्रता का लक्षण बताया है।
व्याख्या - सच्ची मित्रता की पहचान के छह सूत्र हैं-
1. मित्र, मित्र को धन आदि प्रदान करता है।
2. मित्र, मित्र से धन आदि स्वीकार करता है।
3. अपनी गोपनीय (छिपाने योग्य) बात मित्र को बताता है।
4. मित्र की गोपनीय बात उससे पूछता है।
5. मित्र के साथ बैठकर भोजन करता है।
6. मित्र को भोजन खिलाता है।
जिन दो मित्रों के बीच उक्त छः प्रकार के आचरण बिना किसी
औपचारिकता के सम्पन्न होते हैं उन्हीं में सच्ची मित्रता समझनी चाहिए।
प्रश्न 7. अधोलिखितानां समस्तपदानां विग्रहं कुरुत -
विक्रमतुल्यम्,
क्रियाविधिज्ञम्, सकलगुणनिवासः, यज्ञसामग्री, समुद्रतीरम्, जलमध्ये,
पुष्पाञ्जलिम्, देदीप्यमानशरीरः, यज्ञार्थम्, यज्ञसमाप्तिः, गुणकथनम्,
ब्राह्मणसमूहः, प्राणधारणम्, राजसमीपम्।
(क) विक्रमतुल्यम् - विक्रमेण तुल्यम् (तृतीया-तत्पुरुषः)
(ख) क्रियाविधिज्ञम् - क्रियायाः विधिं
जानाति इति क्रियाविधिज्ञः तम् (उपपद-तत्पुरुषः)
(ग) सकलगुणनिवासः - सकलानां गुणानां निवासः
(षष्ठी-तत्पुरुषः)
(घ) यज्ञसामग्री - यज्ञाय सामग्री (चतुर्थी-तत्पुरुषः)
(ङ) समुद्रतीरम् - समुद्रस्य तीरम् (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(च) जलमध्ये - जलस्य मध्ये (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(छ) पुष्पाञ्जलिम् - पुष्पाणाम् अञ्जलिम् (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ज) देदीप्यमानशरीरः - देदीप्यमानः शरीरः
(कर्मधारयः)
(झ) यज्ञार्थम् - यज्ञस्य अर्थम् (चतुर्थी-तत्पुरुषः)
(ब) यज्ञसमाप्ति: - यज्ञस्य समाप्तिः (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ट) गुणकथनम् - गुणस्य कथनम् (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ठ) ब्राह्मणसमूहः - ब्राह्मणानां समूहः (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ड) प्राणधारणम् - प्राणानां धारणम् (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ढ) राजसमीपम्- राज्ञः समीपम् (षष्ठी-तत्पुरुषः)
JCERT/JAC REFERENCE BOOK
विषय सूची
अध्याय-1 विद्ययामृतमश्नुते (विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति होती है)
अध्याय-5 शुकनासोपदेशः (शुकनास का उपदेश)
अध्याय-7 विक्रमस्यौदार्यम् (विक्रम की उदारता)
अध्याय-9 कार्यं वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम् (कार्य सिद्धकरूँगा या देह त्याग दूँगा)
अध्याय-11 उद्भिज्ज परिषद् (वृक्षों की सभा)
अध्याय-12 किन्तोः कुटिलता (किन्तु शब्द की कुटिलता)
अध्याय-13 योगस्य वैशिष्ट्यम् (योग की विशेषता)
अध्याय-14 कथं शब्दानुशासनम् कर्तव्यम् (शब्दों का अनुशासन(प्रयोग) कैसे करना चाहिए)
JCERT/JAC प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)
विषयानुक्रमणिका
क्रम. | पाठ का नाम |
प्रथमः पाठः | |
द्वितीयः पाठः | |
तृतीयः पाठः | |
चतुर्थः पाठः | |
पंचमः पाठः | |
षष्ठः पाठः | |
सप्तमः पाठः | |
अष्टमः पाठः | |
नवमः पाठः | |
दशमः पाठः | |
एकादशः पाठः | |
द्वादशः पाठः | |
त्रयोदशः पाठः | |
चतुर्दशः पाठः | |