Class XII (संस्कृत) नवम: पाठ: कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्

नवम: पाठ: कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्

 नवम: पाठ: कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्

प्रश्न 1. संस्कृतेन उत्तरं दीयताम् -

(क) सायं समये भगवान् भास्कर: कुत्र जिगमिषुः भवति ?

उत्तर : सायं समये भगवान् भास्करः अस्तं जिगमिषुः भवति।

(ख) अस्ताचलगमनकाले भास्करस्य वर्णः कीदृशः भवति ?

उत्तर : अस्ताचलगमनकाले भास्करस्य वर्णः अरुणः भवति।

(ग) नीडेषु के प्रतिनिवर्तन्ते ?

उत्तर : नीडेषु कलविड्काः प्रतिनिवर्तन्ते।

(घ) शिववीरस्य विश्वासपात्रं किं स्थानं प्रयाति स्म ?

उत्तर :  शिववीरस्य विश्वासपात्रं तोरणदुर्गं प्रयाति स्म।

(ङ) प्रतिक्षणमधिकाधिका श्यामतां कानि कलयन्ति ?

उत्तर : प्रतिक्षणमधिकाधिका श्यामतां वनानि कलयन्ति।

(च) शिववीरविश्वासपात्रस्य उष्णीषम् कीदृशमासीत् ?

उत्तर : शिववीरविश्वासपात्रस्य उष्णीषं राजतसूत्रितम्, बहुल-चाकचक्यम्, वक्रम्, हरितवर्णं च आसीत्।

(छ) मेघमाला कथं शोभते ?

उत्तर : मेघमाला दीर्घशुण्डमण्डितानां दिग्गजानां दन्तावलाः इव भयानकाकारा शोभते।

प्रश्न 2. समीचीनोत्तरसङ्ख्यां कोष्ठके लिखत -

अ. शिवराजविजयस्य रचयिता कः अस्ति ?

(क) बाणभट्टः

(ख) श्रीहर्षः

(ग) अम्बिकादत्तव्यासः

(घ) माघः

उत्तर : (ग) अम्बिकादत्तव्यासः

आ. कतिवर्षदेशीयो युवा हयेन पर्वतश्रेणीरुपर्युपरि गच्छति स्म।

(क) चतुर्दशवर्षदेशीयः

(ख) द्वादशवर्षदेशीयः

(ग) पञ्चदशवर्षदेशीयः

(घ) षोडशवर्षदेशीयः

उत्तर : (घ) षोडशवर्षदेशीयः।

इ. शिववीरस्य विश्वासपात्रं किम् आदाय तोरणदुर्गं प्रयाति ?

(क) संवादम् आदाय

(ख) पत्रम् आदाय

(ग) पुष्पगुच्छम् आदाय

(घ) अश्वम् आदाय

उत्तर : (ख) पत्रम् आदाय

प्रश्न 3. रिक्तस्थानानि पूरयत।

(क) अथाकस्मात् परितो मेघमाला पर्वतश्रेणी: इव प्रादुरभूत्।

(ख) क्षणे क्षणे हयस्य खुराश्चिक्कणपाषाणखण्डेषु प्रस्खलन्ति।

(ग) पदे पदे दोधूयमानाः वृक्षशाखाः सम्मुखमाघ्नन्ति।

(घ) कृतप्रतिज्ञोऽसौ शिववीरचरः निजकार्यान्न विरमति।

प्रश्न 4. अधोलिखितानां पदानाम् अर्थान् विलिख्य वाक्येषु प्रयुञ्जत

भास्करः मेघमाला, वनानि, मार्गः वीरः, गगनतलम्, झञ्झावातः मासः, सायम्।

(क) भास्करः (सूर्यः) - पूर्वदिशायां भास्करः उदयति।

(ख) मेघमाला (मेघसमूहः) - मेघमाला आकाशम् आच्छादयति।

(ग) वनानि (अरण्यानि) - नगरं परितः वनानि सन्ति।

(घ) मार्गः (पन्थाः) - महान्धकारे मार्गः न अवलोक्यते।

(ङ) वीरः (वीर्यवान्) - युद्धे वीरः एव जयति।

(च) गगनतलम् (आकाशतलम्) - रात्रौ अन्धकार: गगनतलम् आच्छादयति।

(छ) झञ्झावातः (वात्याचक्रम्, 'तूफान' इति हिन्दीभाषायाम्) - सहसा झञ्झावातः प्रादुरभवत्।

(ज) मासः ('महीना' इति हिन्दी भाषायाम्) - मासोऽयम् आषाढः।

(झ) सायम् (सन्ध्यासमय:) - सायं समये भगवान् भास्करः अस्तं गच्छति।

प्रश्न 5. अधोलिखितानां पदानां सन्धिच्छेदं कृत्वा सन्धिनिर्देशं कुरुत

तस्यैव, शिखराच्छिखराणि, कोऽपि, प्रादुरभूत्, अथाकस्मात्, कार्यान्न।

(क) तस्यैव  = न + एव

(ख) शिखराच्छिखराणि = शिखरात् + शिखराणि

(ग) कोऽपि = कः + अपि

(घ) प्रादुरभूत् = प्रादुः + अभूत्

(ङ) अथाकस्मात् = अथ + अकस्मात्

(च) कार्यान्न = कार्यात् + न।

प्रश्न 6. अधोलिखितानां पदानां प्रकृतिप्रत्ययविभागं प्रदर्शयत -

प्रयुक्तः, उत्थितः, उत्प्लुत्य, रुतैः, उपत्यकातः, उत्थितः, ग्रस्यमानः।

(क) प्रयुक्तः = प्र + युज् + क्त (पुंल्लिङ्गम् प्रथमा-एकवचनम्)

(ख) उत्थितः = उत् + स्था + क्त (पुंल्लिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्)

(ग) उत्प्लुत्य = उत् + प्लु + ल्यप् (अव्यय)

(घ) रुतैः = रु + क्त। (नपुंसकलिङ्गम्, तृतीया-एकवचनम्)

(ङ) उपत्यकातः = उपत्यका + तसिल > तस् (अव्ययपदम्)

(च) 'ग्रस्यमानः = ग्रस् (कर्मवाच्ये) + शानच् (पुंल्लिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्)

प्रश्न 7.  अलङ्कारनिर्देशं कुरुत -

(1) वदनाम्भोजेन - रुपकः अलङ्कारः

(2) दिगन्तदन्तावल: - अनुप्रासः अलङ्कारः

(3) सिन्दूरद्रवस्नातामिव वरुणदिगवलम्बिनाम् - उत्प्रेक्षा अलङ्कारः

प्रश्न 8. विग्रहवाक्यं विलिख्य समासनामानि निर्दिशत -

मेघमाला, महान्धकारः, पवर्तश्रेणी:, महोत्साहः, विश्वासपात्रम्, हरितोष्णीषशोभितः।

(क) मेघमाला = मेघानां माला (षष्ठी-तत्पुरुषः)

(ख) महान्धकारः = महान् अन्धकारः (कर्मधारयः)

(ग) पर्वतश्रेणी: = पर्वतानां श्रेणी: (षष्ठी-तत्पुरुषः)

(घ) महोत्साहः = महान् उत्साहः (कर्मधारयः)

(ङ) विश्वासपात्रम् = विश्वासस्य पात्रम् (षष्ठी-तत्पुरुषः)

(च) हरितोष्णीषशोभितः = हरितेन उष्णीषेण शोभितः (तृतीया-तत्पुरुषः)

प्रश्न 9. पाठ्यांशस्य सारं हिन्दीभाषया आङ्ग्लभाषया वा लिखत -

उत्तर : प्रस्तुत पाठ 'कार्यं वा साधेययम् देहं वा पातयेयम्' संस्कृत के आधुनिक गद्यकार पं० अम्बिकादत्त व्यास के प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास 'शिवराजविजयः' के प्रथम विराम के चतुर्थ निःश्वास से संकलित है। इस पाठ्यांश में शिवाजी का एक विश्वासपात्र गुप्तचर 'कार्य वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्'-'कार्य सिद्ध करूँगा या देह त्याग कर दूंगा'-इस दृढ़ संकल्पपूर्वक सिंह दुर्ग से शिवाजी का पत्र लेकर तोरण दुर्ग की ओर प्रस्थान करता है।

मार्ग में भयंकर प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं, परन्तु वीर सैनिक अपनी कार्यसिद्धि करके ही विश्राम लेता है। आषाढ़ का महीना है। सायं का समय है। सूर्य अस्त हो रहा है। गौरैया पक्षी अपने घोंसलों की ओर लौट रहे हैं। प्रकाश के अभाव में वन वृक्ष और भी काले हुए जा रहे हैं। तभी अचानक आकाश बादलों से ढक जाता है। चारों ओर धरती से आकाश तक घोर अन्धकार का साम्राज्य हो जाता है। बादल ऐसे भयावह लग रहे हैं। मानों वे कोई लम्बी लम्बी लँड वाले दिग्गज हों और उनका विशाल दन्तसमूह उन्हें भयानक आकार दे रहा हो।

सी समय लगभग सोलह वर्ष की आय वाला गौरवर्ण युवक (गौरसिंह) घोडे पर सवार होकर पर्वतों को पार करता हुआ जा रहा है। इसका गठा हुआ शरीर है, काले-धुंघराले बाल हैं, सुन्दर मुखमण्डल परिश्रम के कारण पसीने से नहाया हुआ है। कमल की भाँति खिले हुए मुख से उसका दृढ़ उत्साह प्रकट हो रहा है। उसकी हरे रंग की पगड़ी में चाँदी के तारों से कढ़ाई की हुई है। हरे रंग का कुर्ता है। शिवाजी का अत्यन्त विश्वासपात्र यह गुप्तचर सिंहदुर्ग से शिवाजी का ही पत्र लेकर तोरणदुर्ग की ओर प्रस्थान कर रहा है।

तभी अचानक भयंकर तूफान उठता है। बादलों की घटाएँ, तूफान से उठी धूल तथा सूखे पत्ते मिलकर सायंकाल . के अन्धकार को कई गुणा कर देते हैं। पर्वत, जंगल, पानी के झरने, पर्वतों के शिखर और तलहटियाँ, ऊबड़-खाबड़ भूमि, कोई सीधा सरल मार्ग नहीं, कोई समतल भूमि नहीं, इन सबसे बढ़कर घोर अंधकार जिसमें वह भयंकर रास्ता कार्यं वा साधयेयम, देहं वा पातयेयम् भी दिखाई नहीं पड़ता। थोड़ी-थोड़ी देर बाद चिकने पत्थरों से घोड़ों के खुर टकराकर फिसल जाते हैं।

पग पर वृक्षों की झूलती हुई शाखाएँ सामने से आ टकराती हैं, परन्तु शिवाजी का यह वीर सैनिक अपने कार्य से विराम नहीं लेता। चारों ओर से हड़-हड़ की आवाज़ के साथ हज़ारों वृक्षों, तूफान से टकराकर झरनों में गिरने वाले पत्थरों तथा घने अन्धकार का ग्रास बन रहे वन्यप्राणियों के चीत्कार से सारा आकाश व्याप्त है। परन्तु शिवाजी का यह दृढ़प्रतिज्ञ गुप्तचर अपने कार्य से न रुका। 'कार्यं वा साधयेयम् , देहं वा पातयेयम्'-'कार्य सिद्ध करूँगा या देह का त्याग कर दूंगा।' शिवाजी के इस दृढ़ संकल्प को अपना संकल्प बनाते हुए इस वीर सैनिक ने कार्य सिद्ध करके ही विश्राम लिया।

इस अंश की भाषा एवं शब्दावली भावों के अनुरूप ओजस्विनी है। पाठ्यांश का स्पष्ट सन्देश है-निर्भयतापूर्वक कठोर परिश्रम ही सफलता की कुञ्जी है।

कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम् स्रोत-ग्रन्थ कवि का संक्षिप्त परिचय :

पं० अम्बिकादत्त व्यास (1858-1900 ईस्वी) आधुनिक युग के संस्कृत लेखकों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। हिन्दी और संस्कृत में इनकी लगभग 75 रचनाएँ मिलती हैं। इन सभी में 'शिवराजविजयः' नामक ऐतिहासिक उपन्यास इनकी श्रेष्ठतम रचना है। यह उपन्यास 1901 ईस्वी में प्रकाशित हुआ था।

शिवराजविजय शिवाजी और औरंगजेब की प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटना पर आधारित है। शिवाजी इस उपन्यास के नायक हैं, जो भारतीय आदर्शों, संस्कृति, सभ्यता और मातृशक्ति के रक्षक के रूप में चित्रित किए गए हैं। शिवाजी और उनके सैनिकों की दृढ़ प्रतिज्ञा है-'कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्'-कार्य सिद्ध करूँगा या देह का त्याग कर दूंगा। ...

गद्य काव्य की दृष्टि से शिवराजविजय एक उत्कृष्ट रचना है। इनकी भाषा की एक विशेषता है कि इनकी भाषा सदा भावों के अनुसार प्रयुक्त होती है। सरस प्रसंगों में ललित पदावली और वैदर्भी शैली का प्रयोग हुआ है। करुणा भरे प्रसंगों में प्रत्येक शब्द आँसुओं से भीगा हुआ मिलता है। वीर रस के प्रसंग में भाषा ओजस्विनी हो जाती है और पाठक की भुजाएँ फड़कने लगती हैं। रस और अलंकारों का सुन्दर सामंजस्य है। सभी वर्णन स्वाभाविकता से ओत-प्रोत हैं।

बाण और दण्डी के गद्य की सभी विशेषताएँ व्यास जी के गद्य में मिलती हैं। "शिवराजविजयः' उपन्यास में तीन विराम हैं तथा प्रत्येक विराम में चार निःश्वास हैं। कुल 12 निःश्वास हैं। प्रस्तुत पाठ 'कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्' इसी ऐतिहासिक उपन्यास के प्रथम विराम के चतुर्थ नि:श्वास से संकलित है। इस अंश में शिवाजी का एक विश्वासपात्र एवं कर्मठ गुप्तचर 'कार्यं वा साधयेयम, देहं वा पातेययम्' वाक्य द्वारा अपना दृढ़ संकल्प प्रकट करता है, जिसका तात्पर्य है-'कार्य सिद्ध करूँगा या देह का त्याग कर दूंगा।'

प्रश्न 10. पाठ्यांशे प्रयुक्तानि अव्ययानि चित्वा लिखत -

उत्तर :

च (और)

सायम् (सायंकाल)

इव (की तरह, मानो)

अथ (इसके बाद, फिर)

अकस्मात् (अचानक)

परितः (चारों ओर)

परतः (दूसरी ओर)

ततः (उसके बाद)

उपर्युपरि (ऊपर-ऊपर)

एव (ही)

अपि (भी)

तावत् (तभी)

अकस्मात् (अचानक)

पुनः (फिर)

इह (यहाँ, इस विषय में)

न (नहीं)

परम् (परन्तु)

वा (अथवा, या)

इति (यह, इसप्रकार)

प्रतिक्षणम् (पल-पल)

आदाय (लेकर)

पर्वतश्रेणीतः (पर्वतश्रेणी से)

अधित्यकातः (अधित्यका से)

उपत्यकातः (उपत्यका से)

 बहुविकल्पीय-प्रश्नाः -

I. पुस्तकानुसारं समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत -

(i) सायं समये भगवान् भास्करः कुत्र जिगमिषुः भवति ?

(A) गङ्गायाम्

(B) समुद्रम्

(C) अस्तम्

(D) उदयम्।

उत्तर : (B) समुद्रम्

(ii) अस्ताचलगमनकाले भास्करस्य वर्णः कीदृशः भवति ?

(A) अरुणः

(B) हरितः

(C) श्वेतः

(D) पीतः।

उत्तर : (A) अरुणः

(iii) नीडेषु के प्रतिनिवर्तन्ते ?

(A) गर्दभाः

(B) अश्वाः

(C) गजाः

(D) कलविकाः।

उत्तर : (D) कलविकाः।

(iv) शिववीरस्य विश्वासपात्रं किं स्थानं प्रयाति स्म ?

(A) वनानि

(B) चित्राणि

(C) भवनानि

(D) भुवनानि।

उत्तर : (A) वनानि

II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत -

(i) अकस्मात् परितो मेघमाला पर्वतश्रेणी: इव प्रादुरभूत्।

(A) कया।

(B) केन

(C) का

(D) कम्।

उत्तर : (C) का

(ii) क्षणे क्षणे हयस्य खुराश्चिक्कणपाषाणखण्डेषु प्रस्खलन्ति।

(A) कस्य

(B) कया

(C) कस्मात्

(D) कस्मिन्।

उत्तर : (A) कस्य

(iii) पदे पदे दोधूयमानाः वृक्षशाखाः सम्मुखमाघ्नन्ति।

(A) काः

(B) कीदृश्यः

(C) कति

(D) के।

उत्तर : (B) कीदृश्यः

(iv) कृतप्रतिज्ञोऽसौ शिववीरचरः निजकार्यान्न विरमति।

(A) कस्मात्

(B) कस्याः

(C) कस्मिन्

(D) कः।

उत्तर : (D) कः।

 योग्यताविस्तारः

शिवाजी इत्यस्य कथामाधारीकृत्य संस्कृते, अन्यासु भारतीय-भाषासु च लिखितानां कथानकानां ग्रन्थानां वा सूचना . संग्रहीतव्या। तद्यथा संस्कृते 'श्रीशिवराज्योदय' नाम महाकाव्यम् अस्ति।

द्वादशमासानां नामानि ज्ञेयानि, अस्मिन् पाठे कस्य मासस्य वर्णनं कृतम्, तेन कथाप्रसङ्गे कः विशेषः समुत्पन्न इति। निरूपणीयम्।

अस्मिन् पाठे निसर्गस्य (प्रकृतेः) कीदृशं स्वरूपं चित्रितम्, तस्माच्च घटनाचक्रं कथं परिवर्तते इति प्रतिपादनीयम्।

 कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम् पाठ्यांशः :

1. मासोऽयमाषाढः, अस्ति च सायं समयः, अस्तं जिगमिषुर्भगवान् भास्करः सिन्दूर-द्रव-स्नातानामिवं वरुण-दिगवलम्बिनामरुण-वारिवाहानामभ्यन्तरं प्रविष्टः। कलविड्काश्चाटकैर-रुतैः परिपूर्णेषु नीडेषु प्रतिनिवर्तन्ते। वनानि प्रतिक्षणमधिकाधिका श्यामतां कलयन्ति। अथाकस्मात् परितो मेघमाला पर्वतश्रेणीव प्रादुरभूत्, क्षणं सूक्ष्मविस्तारा, परतः प्रकटित-शिखरि-शिखर-विडम्बना, अथ दर्शित-दीर्घ-शुण्डमण्डित-दिगन्त दन्तावल-भयानकाकारा ततः पारस्परिक-संश्लेष-विहित-महान्धकारा च समस्तं गगनतलं पर्यच्छदीत्।

हिन्दी-अनुवादः

आषाढ़ का महीना है। सायं का समय है। अस्त होने की इच्छा वाला भगवान् भास्कर (सूर्य देव) सिन्दूर के घोल में स्नान-सा किए हुए, वरुण-दिशा (पश्चिम-दिशा) का आश्रय लिए हुए जलवाहक बादलों में प्रविष्ट हो रहा है। गौरैया पक्षी अपने शिशुओं की चहचहाचट से परिपूर्ण घोंसलों में वापस लौट रहे हैं। वन प्रतिक्षण अधिक और अधिक कालेपन को प्राप्त हो रहे हैं। तभी अकस्मात् चारों ओर मेघ माला पर्वत शृंखला की तरह प्रकट हो गई। क्षण भर में ही उन बादलों का सूक्ष्म विस्तार हो गया। मेघमाला ने किसी दूसरे ही पर्वत शिखर का सा रूप धारण कर लिया और वह मेघमाला लम्बी-लम्बी सैंडों से सुशोभित दिग्गजों की सुन्दर दन्तावली के समान भयानक आकार वाली हो गई। फिर बादलों के परस्पर मिल जाने से उत्पन्न घोर अन्धकार ने सम्पूर्ण आकाशमण्डल को पूरी तरह से ढक लिया।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -

जिगमिषुः = जाने के इच्छुक। गम् + सन् + उ, इच्छार्थक 'सन्' प्रत्यय। सिन्दूरद्रवस्नातानाम् = सिन्दूर के घोल से स्नान किए हुए। स्नातानाम् = √ष्णा > स्ना (शौचे) + क्त प्रत्यय। षष्ठी विभक्ति बहुवचन। वरुणदिक् = पश्चिमदिशा। वरुणस्य दिक्। वरुणदेव को पश्चिम दिशा का अधिपति माना जाता है। वरुणदिगवलम्बिनाम् = पश्चिम दिशा का आश्रय लेने वाले। वरुणदिशः अवलम्बनं शीलं येषां ते, तेषाम्। अव + √लम्ब् + इन् प्रत्यय। अरुणवारिवाहानाम् = लालिमायुक्त बादलों के, अरुणाश्च ते वारिवाहाश्च, तेषाम्। वारि वहन्ति इति वारिवाहाः = मेघाः। कलविकाः = पक्षी (गौरैया)। चाटकैरः = पक्षिशावकों के द्वारा। चटकस्य अपत्यं चाटकरः। चटका + एरच् प्रत्यय। गौरैया का बच्चा। प्रतिक्षणम् = पल-पल।

क्षणं क्षणम् = प्रतिक्षणम् (अव्ययीभाव समास)। नीडेषु = घोंसलों में। नपुंसकलिङ्ग, सप्तमी बहुवचन। श्यामताम् = कालेपन को। श्यामस्य भावः = श्यामता। भावार्थ में 'तल्' प्रत्यय। श्याम + तल्। कलयन्ति = प्राप्त करते हैं। किल् (गतौ सङ्ख्याने च) + णिच्, लट्लकार प्रथम पुरुष, बहुवचन। चुरादिगण। अथ = अनन्तरम्। अव्यय। दर्शितदीर्घशुण्डमण्डित = लम्बी-लम्बी सैंडों से सुशोभित दिग्गजों के समान दिगन्तदन्तावलभयानकाकारा = भयानक आकार वाली (मेघमाला)। दीर्घश्चासौ शुण्डश्च = दीर्घशुण्डः। दर्शितश्चातो दीर्घशुण्डश्च। दर्शितदीर्घशुण्डः। दर्शितदीर्घशुण्डेन मण्डितः। दिशाम् अन्ताः दिगन्ताः। शोभनौ दन्तौ अस्य इति दन्तावलः। दिगन्ता एव दन्तावला: दिगन्तदन्तावलाः। दीर्घशुण्डमण्डिताश्च ते दिगन्तदन्तावलाश्च दर्शितदीर्घशुण्डमण्डितदिगन्तदन्तावलाः। भयानकश्च असौ आकारश्च भयानकाकारः। दर्शितदीर्घशुण्डमण्डितदिगन्त-दन्तावला इव भयानकाकारः यस्या सा (मेघमाला)।

प्रकटितशिखरिशिखरविडम्बना = पर्वत शिखरों का अनुकरण करने वाली (मेघमाला)। शिखरिणां शिखराणि शिखरिशिखराणि। शिखरिशिखराणां विडम्बनम् = शिखरिशिखरविडम्बनम्। प्रकटितं शिखरिशिखर-विडम्बनं यया सा (मेघमाला)। मेघमाला समस्तं गगनतलं परितः पर्यच्छदीत् = मेघमाला ने समस्त गगन मण्डल को आच्छादित कर लिया। 'परितः' अव्यय के प्रयोग से 'गगनतलं' और 'समस्तं' पदों में द्वितीया विभक्ति हुई है-'अभितः परितः समयानिकषाहाप्रतियोगेऽपि' इस अनुशासन से। परितः = चारों ओर। प्रादुरभूत् = प्रकट हुई। प्रादुस् + √भू + लुङ् लकार, प्रथम पुरुष एकवचन। पारस्परिकसंश्लेषेण = (बादलों के) परस्पर मिल जाने से। पर्यच्छदीत् = ढक लिया है। (व्याप्त हो गई)। परि + अच्छदीत। छद (संवरणे) लङ लकार, प्रथम पुरुष एकवचन।।

2. अस्मिन् समये एकः षोडशवर्ष-देशीयो गौरो युवा हयेन पर्वतश्रेणीरुपर्युपरि गच्छति स्म। एष सुघटितदृढशरीरः श्याम-श्यामैर्गुच्छ-गुच्छैः कुञ्चित-कुञ्चितैः कच-कलापैः कमनीय-कपोलपालि: दूरागमनायासवशेन सूक्ष्म मौक्तिक-पटलेनेव स्वेदबिन्दु-व्रजेन समाच्छादित-ललाट-कपोल-नासाग्रोत्तरोष्ठः प्रसन्न-वदनाम्भोज-प्रदर्शित दृढसिद्धान्त-महोत्साहः, राजतसूत्र-शिल्पकृत-बहुल-चाकचक्य-वक्र-हरितोष्णीष-शोभितः, हरितेनैव च कञ्चुकेन व्यूढगूढचरता-कार्यः, कोऽपि शिववीरस्य विश्वासपात्रं सिंहदुर्गात् तस्यैव पत्रमादाय तोरणदुर्गं प्रयाति।

हिन्दी-अनुवादः

इसी समय लगभग सोलह वर्ष की आयु वाला एक गोरा युवक घोड़े से पर्वत शृंखला के ऊपर-ऊपर जा रहा था। इसका अच्छा गठा हुआ शरीर था। काले-काले, गुच्छेदार, घुघराले केश समूह से उसकी गालें सुशोभित हो रही थी। दूर से आने के परिश्रम से छोटे-छोटे मोतियों के समूह की भाँति पसीने की बूंदों से उसका ललाट, कपोल, नासिक का अग्रभाग तथा ऊपरी होंठ व्याप्त था। प्रसन्न मुख कमल से जिसके दृढ़ सिद्धान्त का उत्साह प्रकट हो रहा था। वह चाँदी के तार की कढ़ाई के कारण अत्यधिक चमकने वाली एक टेढ़ी बँधी हुई हरी पगड़ी से सुशोभित था। हरे रंग के कुर्ते से ही जिसने गुप्तचर का कार्य स्वीकार हुआ था। इस प्रकार का कोई शिवाजी का विश्वासपात्र (सैनिक) सिंहदुर्ग से उसी (शिवाजी) का पत्र लेकर तोरणदुर्ग की ओर प्रस्थान कर गया।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -

षोडशवर्षदेशीयः = लगभग सोलह वर्ष का। लगभग' इस अर्थ में 'कल्पप्', 'देश्य' या 'देशीयर्' प्रत्यय लगते हैं। यहाँ 'देशीयर' प्रत्यय लगा है। षोडशवर्ष + देशीयर्। कुञ्चितकुञ्चितैः = धुंघराले। कुञ्च् (गति-कौटिल्यालपीभावेषु) + क्त प्रत्यय। कचकलापैः = केश समूहों के द्वारा। कचानां कलापाः तैः। कमनीयकपोलपालि: = सुन्दर गालों वाला। कमनीये कपोलपाली यस्य सः किम् (कान्तौ) + अनीयर् प्रत्यय। हयेन = घोड़े से। स्वेदबिन्दुव्रजेन = पसीने की बूंदों से।

स्वेदबिन्दूनां व्रजः तेन। समाच्छादितललाट-कपोल-नासाग्रोत्तरोष्ठः = जिसका ललाट, कपोल, नासिका का अग्रभाग तथा ऊपरी ओंठ (पसीने की बूंदों से) व्याप्त है। ललाटश्च कपोलश्च नासाग्रश्च उत्तरोष्ठश्च = लालटकपोल नासाग्रोत्तरोष्ठम् (समास में एकवचन होना विशेष है) समाच्छादितं ललाटकपोलनासाग्रोत्तरोष्ठं यस्य सः बहुव्रीहि समास। प्रसन्नवदनाम्भोजेन = प्रसन्नमुखकमल से।

प्रसन्नवदनाम्भोजप्रदर्शित-दृढसिद्धान्तमहोत्साहः = प्रसन्न मुख कमल से दृढ सिद्धान्त के महोत्साह को प्रकट करने वाला। राजतसूत्रशिल्पकृतबहुल-चाकचक्यवक्रहरितोष्णीषशोभितः = चाँदी के तार की कढाई (शिल्प) के कारण अत्यधिक चमकने वाली तथा टेढ़ी बँधी हुई हरी पगड़ी से सुशोभित। राजतसूत्रस्य शिल्पेन कृतं बहुलं चाकचक्यं यस्य तथाभूतं वक्रं हरितं च यत् उष्णीषम्, तेन शोभितः, बहुव्रीहि समास। आदाय = लेकर। आ + दा + ल्यप् प्रत्यय। प्रयाति = जाता है। प्र + या (प्रापणे) + लट् लकार, प्रथम पुरुष एकवचन।

3. तावदकस्मादुत्थितो महान् झञ्झावातः, एकः सायंसमयप्रयुक्तः स्वभाव-वृत्तोऽन्धकारः, स च द्विगुणितो मेघमालाभिः। झञ्झावातोद्भूतैः रेणुभिः शीर्णपत्रैः कुसुमपरागैः शुष्कपुष्पैश्च पुनरेष द्वैगुण्यं प्राप्तः। इह पर्वत श्रेणीत: पर्वतश्रेणी:, वनाद् वनानि, शिखराच्छिखराणि प्रपातात् प्रपातान्, अधित्यकातोऽधित्यकाः, उपत्यकात उपत्यकाः, न कोऽपि सरलो मार्गः, नानु दिनी भूमिः, पन्थाः अपि च नावलोक्यते।

हिन्दी-अनुवादः

तभी बड़ा भारी अचानक तूफान उठा। एक तो सांय के समय में होने वाला स्वाभाविक अन्धकार, वह भी बादलों के समूह के कारण दोगुणा हो गया। तूफान से उठी हुई धूलियों, पुराने पत्रों, पुष्पपरागों तथा सूखे पत्तों से (यह अन्धकार) फिर से दुगना हो गया। इधर एक पर्वत शृंखला के बाद दूसरी पर्वत शृंखला पर, एक वन के बाद दूसरे वन में, एक शिखर के बाद दूसरे शिखर पर, एक झरने बाद दूसरे झरने पर, एक अधित्यका (पर्वत के ऊपर की ऊँची भूमि) के बाद दूसरी अधित्यका पर, एक उपत्यका (पर्वत के पास वाली निचली भूमि) के बाद दूसरी उपत्यका पर (जहाँ) कोई सरल मार्ग नहीं, कोई समतल भूमि नहीं और रास्ता भी दिखाई नहीं पड़ रहा है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -

झञ्झावातोद्भूतैः = आँधी से उठी। झञ्झावातेन उद्भूतैः। उत् + धू (कम्पने) क्त प्रत्यय। रेणुभिः= धूलों से। द्वैगुण्यम् = दुगना हो गया। द्विगुणस्य भावः। द्विगुण + ष्यञ्। अनुइँदिनी = समतल। न + उभेदिनी। न + उद् + भिद् + इन् + डीप् प्रत्यय। प्रपातात् प्रपाता = झरने के बाद झरने। अधित्यकातोऽधित्यकाः = अधित्यका (पर्वत के ऊपर की ऊँची भूमि) के बाद अधित्यकाएँ। उपत्यकात उपत्यकाः = पर्वत के पास की नीची भूमि।

उपत्यका के बाद उपत्यकाएँ। दोधूयमानाः = अत्यधिक हिलने वाले। पुनः पुनः अत्यधिकं कम्पमानाः। √धूञ् + यङ् + शानच् प्रत्यय। आघातः = अभिघात। चोट। आ + हिन् + क्त प्रत्यय। महान्धतमसेन = अत्यन्त अन्धकार से। अकारान्त नपुंसक शब्द है। अन्धयति इति अन्धम्। अन्धं च तत् तमश्च। अन्धतमसम्। महच्च तत् अन्धतमसं च महान्धतमसम्, तेन। कवलीकृतम् = ग्रसित होता हुआ। अकवलं कवलं सम्पद्यमानं कृतं कवलीकृतम्। कवल + च्चि + कृतम्। आनन्ति = आ + √हन् + लट्लकार, प्रथम पुरुष, बहुवचन। सादी = घुड़सवार।

4. क्षण-क्षणे हयस्य खुराश्चिक्कण-पाषाण-खण्डेषु प्रस्खलन्ति। पदे पदे दोधूयमानाः वृक्षशाखाः सम्मुखमानन्ति, परं दृढसड्कल्पोऽयं सादी (अश्वारोही) न स्वकार्याद् विरमति। परितः स-हडहडाशब्दं दोधूयमानानां परस्सहस्त्र-वृक्षाणां, वाताघात-संजात-पाषाण-पातानां प्रपातानाम्, महान्धतमसेन ग्रस्यमानानामिव सत्त्वानां क्रन्दनस्य च भयानकेन स्वनेन कवलीकृतमिव गगनतलम्। परं "देहं वा पातयेयं कार्यं वा साधयेयम्" इति कृतप्रतिज्ञोऽसौ शिववीरचरो निजकार्यान्न विरमति।

हिन्दी-अनुवादः

क्षण-क्षण भर में घोड़े के खुर चिकने पत्थर-खण्डों पर फिसल रहे हैं। पग-पग पर झूलती हुई वृक्ष-शाखाएँ सामने से आघात (प्रहार) करती हैं। परन्तु यह दृढ़ संकल्प वाला घुड़सवार अपने कार्य से रुक नहीं रहा है। चारों ओर हड़ हड़ शन के साथ बार-बार झूलते हुए हजारों वृक्षों तूफान की चोट से गिरने वाले पत्थरों से युक्त झरनों तथा घोर अन्धकार से ग्रसे जाते हुए से वन्यप्राणियों की चीख के भयानक शब्द से सम्पूर्ण आकाशमण्डल ही मानो ग्रस लिया गया था। परन्तु 'कार्य सिद्ध करूँगा यां शरीर को नष्ट कर दूंगा'-ऐसी प्रतिज्ञावाला वह शिवाजी सैनिक अपने कार्य से रुक नहीं रहा है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -

चिक्कणपाषाणखण्डेषु = चिकने पत्थर खण्डों पर। साधयेयम् = सिद्ध करूँगा। साध् (संसिद्धौ) + णिच् प्रत्यय + लिङ्लकार उत्तम पुरुष एकवचन। पातयेयम् = नष्ट कर दूंगा। (पत् (गतौ) + णिच् प्रत्यय। लिङ्लकार उत्तम पुरुष एकवचन।

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