Class-XI Hindi Antra 10. कबीर- अरे इन दोहुन राह न पाइ  बालम; आवो हमारे गेह रे

Class-XI Hindi Antra 10. कबीर- अरे इन दोहुन राह न पाइ  बालम; आवो हमारे गेह रे
Class-XI Hindi Antra 10. कबीर- अरे इन दोहुन राह न पाइ  बालम; आवो हमारे गेह रे

पाठ्यपुस्तक आधारित प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. 'अरे इन दोहुन राह न पाई' से कबीर का क्या आशय है और वे किस राह की बात कर रहे हैं ?

उत्तर : कबीर का आशय अपने समय के हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म के अनुयायी उन हिन्दुओं और मुसलमानों से है जो बाह्याडम्बरों के कारण ईश्वर-प्राप्ति के सही मार्ग का अनुसरण नहीं कर रहे हैं। जो अपने ही धर्म को श्रेष्ठ मानते हैं। इसलिए कबीर दोनों से आडम्बर रहित सही मार्ग पर चलने की बात कर रहे हैं।

प्रश्न 2. इस देश में अनेक धर्म, जाति, मजहब और सम्प्रदाय के लोग रहते थे किन्तु कबीर हिन्दू और मुसलमान की ही बात क्यों करते हैं ?

उत्तर : कबीर का कार्यकाल चौदहवीं - पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य रहा है। उस समय तक अन्य किसी धर्म, जाति, सम्प्रदाय एवं मजहब के लोग न तो यहाँ आए थे और न उनका प्रभाव था। उस समय केवल दो सम्प्रदाय ही यहाँ प्रमुख थे और अपने-अपने धर्म-मजहब की बात करते थे। इनमें संघर्ष भी हो जाता था। इसलिए कबीर ने हिन्दू और सलमान की बात की है।

प्रश्न 3. 'हिन्दुन की हिन्दुवाई देखी तुरकन की तुरकाई' के माध्यम से कबीर क्या कहना चाहते हैं ? वे उनकी किन विशेषताओं की बात करते हैं

उत्तर : कबीर के समय में हिन्दू और सलमानों का ही विशेष वर्चस्व था। कबीर ने दोनों की कमजोरियों को अच्छी तरह परख लिया था। दोनों अपने धर्म की प्रशंसा करते थे। दोनों ढोंगी थे। हिन्दू अपने को श्रेष्ठ बताते थे, किन्तु वेश्यागामी थे। मुसलमान मांसाहारी थे। अपनी मौसी की लड़की से जो रिश्ते में बहन लगती थी, उससे पति-पत्नी का सम्बन्ध स्थापित करते थे। दोनों के धर्म में आडम्बर की प्रधानता थी। दोनों की कथनी-करनी में बहुत अन्तर था

प्रश्न 4. कौन राह द्वै जाई' का प्रश्न कबीर के सामने भी था। क्या इस तरह का प्रश्न आज समाज में मौजदू है ? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : कबीर के समय में हिन्दू और मुसलमानों में संघर्ष था। दोनों के ईश्वर प्राप्ति के मार्ग अलग-अलग थे। कबीर को किसी का भी मार्ग सही प्रतीत नहीं होता था। उनके सामने भी कौन-सा सही मार्ग अपनाया जाय यह प्रश्न प्रबल था। आज के समय में स्थिति और भी भयंकर है। आज भी हिन्दू, सिख, ईसाई और मुसलमान अपने-अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए साम्प्रदायिक दंगों का सहारा लेते हैं। धर्माचार्य भ्रष्ट हो गए हैं। सभी धर्मों में आडम्बर की प्रधानता है। ईश्वर प्राप्ति का सही मार्ग कोई अपनाना नहीं चाहता।

प्रश्न 5. 'बालम, आवो हमारे गेहरे' में कवि किसका आह्वान कर रहा है और क्यों ?

उत्तर : कबीर स्वयं को विरहिणी स्त्री और परमात्मा को पति मानते हैं। वह परमात्मा को इस शरीर रूपी घर में आने का आह्वान कर रहे हैं। वह परमात्मा रूपी प्रियतम के बिना उसी प्रकार व्याकुल है जैसे प्यासा पानी के बिना व्याकुल रहता है। इसी कारण उसका आह्वान कर रहा है। इसका दार्शनिक पक्ष है कि आत्मा परमात्मा के बिना तड़प रही है। वह परमात्मा से मिलना चाहती है। इसलिए विरही आत्मा परमात्मा के साथ तदाकार होने के लिए उसका आह्वान करती है जिससे आत्मा को सुखानुभूति हो सके। वह परमात्मा से शाश्वत मिलन चाहती है।

प्रश्न 6. 'अन्न न भावै नींद न आवै' का क्या कारण है ? ऐसी स्थिति क्यों हो गई है ?

उत्तर : सांसारिक जीवन में प्रिय के वियोग में मन:-स्थिति ठीक नहीं रहती। भूख-प्यास समाप्त हो जाती है और नींद ठीक नहीं आती, बेचैनी बढ़ जाती है। कबीर अपने को विरहिणी स्त्री और परमात्मा को पति मानते हैं। वह प्रियतम (परमात्मा) से प्रेम करता है जो उससे दूर है। वह उसके वियोग में व्याकुल है। इसलिए उसकी भूख-प्यास समाप्त हो गई है और नींद भी नहीं आती। वियोग के कारण ही उनकी यह दशा है। जीवात्मा के ब्रह्म में लीन होने पर ही उसे शान्ति मिलती है और उसकी सामान्य स्थिति होती है।

प्रश्न 7. 'कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे' से कवि का क्या आशय है ? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : कबीर की मन:स्थिति उस विरहिणी स्त्री की तरह है जो प्रियतम के वियोग में व्याकुल काम-पीड़ित पत्नी हर समय केवल अपने पति का ही ध्यान करती है और प्यासा व्यक्ति अपना सारा ध्यान जल-प्राप्त करने पर केन्द्रित कर देता है। कबीर को परमात्मा प्रिय है। वह परमात्मा को पति मानते हैं। इसलिए उसके (परमात्मा के) बिना वह व्याकुल रहते हैं। उसके मिलने पर सन्तुष्टि प्राप्त हो सकती है।

प्रश्न 8. कबीर निर्गुण संत परम्परा के कवि हैं और यह पद (बालम, आवो हमारे गेह रे) साकार प्रेम की ओर संकेत करता है। इस सम्बन्ध में आप अपने विचार लिखिए।

उत्तर : कबीर निराकार ब्रह्म के उपासक थे। 'बालम आवो हमारे गेह रे' पंक्ति को पढ़कर भ्रम होता है कि कबीर साकार ब्रह्म के उपासक हैं। क्योंकि 'आवो' शब्द का प्रयोग साकार को बुलाने के लिए किया जाता है। लेकिन गहराई से देखा जाए तो निराकार से निराकार के मिलन का भाव इस पंक्ति से व्यक्त होता है। इसलिए यह शंका निर्मूल है कि यह पंक्ति साकार प्रेम की ओर संकेत करती है। वास्तव में इस पंक्ति की मूल भावना निराकार की ओर ही संकेत करती है।

प्रश्न 9. उदाहरण देते हुए दोनों पदों का भाव-सौन्दर्य और शिल्प-सौन्दर्य लिखिए।

उत्तर : प्रथम पद का काव्य-सौन्दर्य इस पद में कबीर ने हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदायों के लोगों की कथनी करनी के अन्तर को स्पष्ट किया है। दोनों आडम्बर करते हैं और ढोंगी हैं। हिन्दू छुआछूत फैलाते हैं और वेश्यागमन करते हैं। मुसलमान जीव-हत्या करते हैं और मौसी की लड़की से पति-पत्नी का सम्बन्ध स्थापित करते हैं। कबीर ने दोनों को शुद्धाचरण करने का उपदेश दिया है।

शिल्प-सौन्दर्य - यह गेय पद है जिसमें नीरस विषय को सरस बनाकर प्रस्तुत किया है। भाषा सीधी और सरल है। अभिधा शब्द शक्ति का प्रयोग हुआ है। भाषा अलंकारिक है। धोय-धाय, तुरकन की तुरकाई, हिंदुन की हिंदुवाई में अनुप्रास अलंकार है।

द्वितीय पद का काव्य-सौन्दर्य-यह पद रहस्यवादी भावना का है। उन्होंने जीवात्मा को पत्नी और ब्रह्म को पति बताया है। ब्रह्म का सामीप्य पाकर ही जीवात्मा का कल्याण होता है। प्रियतम (परमात्मा) के वियोग में जीवात्मा व्याकुल रहती है। कबीर आत्मा-परमात्मा के मिलन की बात करते हैं। दोनों में अद्वैत की स्थिति में ही आत्मा को शान्ति प्राप्त होती है। इसमें वियोग की व्याकुलता का अच्छा चित्रण है।

शिल्प-सौन्दर्य - श्रृंगार रस है, वियोग शृंगार है। गेय-पद है। भाषा सरल है। प्रतीक शैली है। दुखिया देह, जिव-जाय, लगत-लाज में अनुप्रास अलंकार है। 'कामिन........ज्यों प्यासे को नीर रे' में उदाहरण अलंकार है। लक्षणा शब्द शक्ति है।

योग्यता विस्तार

प्रश्न 1. कबीर तथा अन्य निर्गुण संतों के बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए।

उत्तर : कबीरदास

'संत कबीरदास' जी भक्तिकाल के ज्ञानमार्गी शाखा के मुख्य कवियों में से एक माने जाते हैं। इनका जन्म काशी में 1398 ई. में हुआ था। इनके जन्म के विषय में यह धारणा है कि इनकी माता एक ब्राह्मण परिवार से थीं व विधवा थीं। एक बार एक साधु के द्वारा दिए गए संतान के वरदान के प्रभाव से उनका गर्भधारण हो गया। लोक-लाज की निंदा के भय से ब्राह्मण स्त्री ने जन्मे बच्चे को 'लहरतारा' नामक तालाब के किनारे छोड़ दिया। उसी समय वहाँ से एक मुस्लिम दंपत्ति 'नीमा' व 'नीरू' गुज़र रहे थे। वे निसंतान थे। इस दंपत्ति ने बच्चे को अल्लाह का आशीर्वाद मान अपना लिया। दोनों ने बच्चे का बड़े जतन से लालन-पालन किया। बड़े होकर ये 'कबीर' के नाम से विख्यात हुए। कबीरदास ने आगे चलकर पिता के व्यवसाय को अपनाया। कबीर का विवाह 'लोई' नामक स्त्री से हुआ और उनसे उनके दो संतानें हुई। पुत्र का नाम 'कमाल' तथा पुत्री का नाम 'कमाली' रखा गया। कबीरदास ने सारी उम्र 'राम' नाम का भजन किया। कबीरदास के राम नाम को अपनाने के पीछे एक रोचक घटना है। कहा जाता है, एक बार कबीर पंचगंगा घाट पर सीढ़ियों पर से गिर पड़े। उसी समय वहाँ से स्वामी रामानंद गंगा स्नान के लिए सीढ़ियों पर से जा रहे थे। अंधेरे में अचानक किसी के पैरों के नीचे आ जाने से उनके मुँह से राम-राम शब्द निकल गया। कबीर जी ने इसी मंत्र को गुरु का दीक्षा-मंत्र मानकर उसे अंगीकार कर लिया और स्वामी जी को अपना गुरु मान लिया। वह सारी उम्र राम नाम को ही भजते रहे। परन्तु कबीर के यह राम, राजा राम से अलग थे। कबीर के अनुसार उनके राम मनुष्य रूप में न होकर धरती के हर कण-कण में विद्यमान हैं। वह निर्गुण-निराकार है।

कबीरदास सारी उम्र भगवान का भजन करते रहे। उन्होंने धार्मिक आडंबरों; जैसे- व्रत, रोजे, पूजा, हवन, नमाज आदि का भरसक विरोध किया। उनके अनुसार ईश्वर इन पांखडों से प्राप्त नहीं होता। वह तो सच्ची भक्ति तथा मन की पवित्रता से प्राप्त होता है। उनके अनुसार ईश्वर को प्राप्त करना हो, तो मंदिर व मस्जिद में न ढूँढकर अपने ह्दय में ढूँढना चाहिए। उनके अनुसार गुरु ईश्वर प्राप्ति का रास्ता होता है। उसके माध्यम से ही ईश्वर को पाया जा सकता है। उन्होंने सदैव हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया व आपसी बैर को भुलाकर प्रेम से रहने का उपदेश दिया। उन्होंने जाति-पाति के नाम पर होने वाले भेदभाव का भी कड़ा विरोध किया। कबीदास जी अनपढ़ थे परन्तु उनके शिष्यों ने उनके उपदेशों व नीतिपूर्ण बातों को लेखन का जामा पहनाया।

कबीरदास की भाषा साधारण जन की भाषा थी। उनकी भाषा को 'सधुक्कड़ी' व 'पंचमेल खिचड़ी' कहा जाता है। उनकी भाषा में ब्रज, पूर्वी हिन्दी, पंजाबी, अवधी व राजस्थानी भाषाओं का मिश्रण देखने को मिलता है। कबीर ने अपनी बात 'सबद' व 'साखी' शैली में कही है। कबीर की एकमात्र रचना 'बीजक' के रूप में मिलती है। इसके तीन अंग है- साखी, सबद व रमैनी।

कबीरदास जी की मृत्यु 1518 ई. के करीब मगहर में मानी जाती है। हिन्दू धर्म में मान्यता थी कि मगहर में जिसकी मृत्यु होती है, वह नरक में जाता है। अत: कबीरदास जी ने अंत समय में वहीं जाकर रहने का निर्णय किया और वहीं अपने प्राण त्याग दिए। कबीरदास उन व्यक्तियों में से एक थे, जिन्होंने मात्र उपदेश नहीं दिया अपितु उसे जीवन में उतार कर समाज के समाने मिसाल कायम की।

रैदास

'रैदास' भक्तिकाल के कवियों में से एक कवि माने जाते हैं। यह एक महान संत थे। इन्होंने कबीरदास जी की तरह मूर्तिपूजा, हवन, तीर्थ आदि आडंबरों का विरोध किया है। यह ब्रजभाषा के कवि थे। परन्तु इनकी भाषा में खड़ी बोली, राजस्थानी, उर्दू-फ़ारसी, अवधी आदि शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। इन्हें रविदास के नाम से भी जाना जाता है। इनका जन्म स्थान कासी माना जाता है। इनकी माता कलसा देवी थी तथा पिता संतोख दास जी थे। अपने पिता से इन्हें जूते बनाने का व्यवसाय प्राप्त हुआ था। यह जूते बनाते थे परन्तु इससे इनकी भक्ति पर कभी कोई फर्क नहीं पड़ा। अपने कार्य के प्रति समर्पित थे। जो जूते बनाते थे, उन्हें संतों और जरूरत मंद लोगों को बाँट दिया करते थे। यही कारण था कि इनके माता-पिता ने इन्हें घर से निकाल दिया। कार्य के मध्य यह किसी को नहीं आने देते थे। इनके कारण ही यह मुहावरा प्रचलित हुआ कि मन चंगा तो कटौत में गंगा। उनके अनुसार भगवान सबको समान रूप से देखते हैं। तभी तो उनके जैसे नीच कुल के व्यक्ति को उन्होंने अपने प्रेम से भर दिया है और अपने चरणों में स्थान दिया है।

प्रश्न 2. कबीर के पद लोकगीत और शास्त्रीय परंपरा में समान रूप से लोकप्रिय हैं और गाए जाते हैं। कुछ प्रमुख गायकों के नाम यहाँ दिए जा रहे हैं। इनके कैसेट विद्यालय से मँगाकर सुनिए -

1. कुमार गंधर्व

2. प्रहलाद सिंह टिप्पणियाँ

3. भारती बन्धु।

उत्तर : छात्र अध्यापक महोदय की सहायता से स्वयं करें।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1. हिन्दु और मुसलमान नहीं पा सके हैं -

(क) ज्ञान

(ख) मुक्ति

(ग) ईश्वर प्राप्ति की राह

(घ) मन की शांति

प्रश्न 2. हिन्दू अपना बड़प्पन दिखाते हैं -

(क) तिलक-छपे लगाकर

(ख) तीर्थयात्रा करके

(ग) अपनी गगरी न छूने देकर

(घ) मुसलमानों को नीचा मानकर

प्रश्न 3. मुसलमानों के पीर और औलिया खाते हैं -

(क) मेवा और मिठाई

(ख) दाल और रोटी

(ग) मुर्गा-मुर्गी

(घ) दान का अन्न

प्रश्न 4. कबीर ने किससे शादी करने पर व्यंग्य किया है -

(क) विधवाओं से

(ख) मौसी की बेटी से

(ग) कम उम्र की लड़की से

(घ) बड़ी उम्र की महिला से

प्रश्न 5. 'कौन राह है जाई?' कथन में राह से आशय है -

(क) रास्ता

(ख) मुक्ति का मार्ग

(ग) हिन्दु या मुसलमान धर्म

(घ) सगुण या निर्गुण उपासना

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. कबीर के अनुसार किन दोनों ने 'राह' नहीं पाई?

उत्तर : कबीर के अनुसार हिन्दुओं और मुसलमानों ने ईश्वर प्राप्ति की सही राह नहीं पाई।

प्रश्न 2. हिन्दू अन्य धर्मावलम्बियों को अपनी गागर क्यों नहीं छूने देते?

उत्तर : हिन्दू अन्य धर्मावलम्बियों से स्वयं को बड़ा या श्रेष्ठ दिखाने के लिए उन्हें अपनी गागर नहीं छूने देते।

प्रश्न 3. 'यह देखो हिंदुआई' में कबीर ने किस बात पर और क्या व्यंग्य किया है?

उत्तर : यहाँ कबीर ने हिन्दुओं द्वारा गागर न छूने देने पर व्यंग्य किया है। एक तरफ तो हिन्दू इतने पवित्र बनते हैं और दूसरी ओर वे जाकर वेश्याओं के चरणों में पड़ जाते हैं।

प्रश्न 4. कबीर ने मुसलमानों की किस सामाजिक कुप्रथा पर कटाक्ष किया है?

उत्तर : मुसलमानों में मौसी की बेटी से विवाह करना बुरा नहीं समझा जाता। इसी प्रथा पर कबीर ने व्यंग्य किया है।

प्रश्न 5. पीर और औलियों के किस आचरण पर कबीर ने व्यंग्य किया है?

उत्तर : मुस्लिम धर्मगुरु होते हुए भी पीर और औलिये जीव हत्या को प्रोत्साहन देते हैं। यह अशोभनीय है। इसी को लेकर कबीर ने इन पर व्यंग्य किया है।

प्रश्न 6. 'कौन राह है जाई' कथन का आशय क्या है?

उत्तर : कबीर संतजनों से प्रश्न कर रहे हैं कि जब हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही धार्मिक अंधविश्वासों और आडंबरों में लिप्त हैं तो फिर किस मार्ग या धर्म का अवलम्बन किया जाए।

प्रश्न 7. कबीर दास जी ने पद में 'बालम' शब्द का प्रयोग किसके लिए किया है?

उत्तर : कबीर दास ने बालम शब्द का प्रयोग पति (ईश्वर) के लिए किया है।

प्रश्न 8. कबीर ने किसकी 'देह' को 'दुखिया' बताया है?

उत्तर : कबीर ने अपनी विरहिणी आत्मा को दुखिया बताया है।

प्रश्न 9. लोग कबीर की आत्मा को क्या बताते हैं?

उत्तर : लोग कबीर की दुखिया आत्मा को ईश्वर की पत्नी बताते हैं।

प्रश्न 10. विरहिणी आत्मा को किस बात पर लज्जा आती है और क्यों?

उत्तर : आत्मा को परमात्मा की पत्नी कहे जाने पर लज्जा आती है क्योंकि परमात्मा ने उसे कभी गले से नहीं लगाया।

प्रश्न 11. प्रियतम परमात्मा के वियोग में विरहिणी आत्मा की कैसी दशा हो रही है?

उत्तर : परमात्मा के वियोग में आत्मा बड़ी व्याकुल हो रही है। उसे भोजन अच्छा नहीं लगता, नींद नहीं आती और घर या बाहर कहीं चैन नहीं मिलता।

प्रश्न 12. कामिनी को पति कैसा प्यारा हुआ करता है?

उत्तर : कामिनी को पति उसी प्रकार प्यारा हुआ करता है जिस प्रकार एक प्यासे मनुष्य को जल प्यारा होता है।

प्रश्न 13. कबीर किस परोपकारी से पुकार कर रहे हैं?

उत्तर : कबीर ऐसे परोपकारी से पुकार कर रहे हैं जो उनकी आत्मा की पुकार परमात्मा तक पहुँचा सके।

प्रश्न 14. कबीर की परमात्मा के वियोग में क्या अवस्था होने जा रही है?

उत्तर :  कबीर की आत्मा प्रिय वियोग में अत्यन्त व्यथित है और बिना उसके दर्शन के उसका प्राणान्त होने जा रहा है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

कथ्य पर आधारित प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. कबीर ने हिन्दू और मुसलमानों को क्या सन्देश दिया है ?

उत्तर : कबीर ने दोनों को सन्देश दिया है कि मन की शुद्धता से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है। थोथै आडम्बर और ढोंग से ईश्वर-मिलन असम्भव है। गागर छूने से जल अपवित्र नहीं हो जाता। वेश्यागमन से चरित्र का पतन होता है। धर्म के नाम पर आडम्बर को छोड़ो और चरित्र को विकृत मत करो। मांस-भक्षण उचित नहीं है। विवाह पद्धति में संशोधन करें। पीर-औलिया कहलाना और भ्रष्ट आचरण करना अनुचित है। कबीर ने यह सन्देश हिन्दू और मुसलमान दोनों को दिया था।

प्रश्न 2. कबीर अपने युग के क्रान्तिकारी कवि थे। क्या आप इस मत से सहमत हैं ? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : यह सत्य है कि कबीर की भावना क्रान्तिकारी थी। वे आडम्बर के विरोधी थे। उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों की धार्मिक भावना और धार्मिक पद्धति को बहुत गहराई से परखा था। उन्होंने दोनों के दोषों को देखकर दोनों को आड़े हाथों लिया। अपने को श्रेष्ठ और दूसरों को हीन समझना अनुचित है। धर्म के नाम पर छुआछूत अविवेक है। उन्होंने हिन्दुओं के वेश्यागमन पर कटाक्ष किया। मुसलमानों द्वारा जीवहिंसा किए जाने की निंदा की।

उन्होंने मुसलमानों को भी ललकारा। मस्जिद में मुर्गे की सी आवाज लगाने से अल्ला की प्राप्ति नहीं होती। तुम जीव-हत्या करके पाप करते हो और अपने को धार्मिक कहते हो। तुम्हारी सामाजिक रीतियाँ भी गलत हैं। इस प्रकार कबीर ने निर्भीकता से दोनों सम्प्रदाय के लोगों का विरोध किया। उनके ये विचार क्रान्तिकारी भावना को व्यक्त करते हैं।

प्रश्न 3. 'बालम, आवो हमारे गेह रे' पद में व्यक्त विरहिणी की पीड़ा को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : पद में कबीर ने आत्मा को विरहिणी स्त्री और परमात्मा को पति बताया है। अपने प्रियतम (परमात्मा) के वियोग में आत्मा अत्यधिक व्यथित है। आत्मा परमात्मा से अपनी वेदना बताते हुए कहती है कि आपके बिना मुझे असहनीय वेदना हो रही है। संसार मझे आपकी पत्नी बताता है। यह सनकर मझे लज्जा आती है। पत्नी होकर भी मैं आपसे मिल नहीं पाती।

आपके बिना मेरी भूख-प्यास समाप्त हो गई है। मेरी नींद भी समाप्त हो गई है। मुझे घर और बाहर कहीं चैन नहीं मिलता। मैं आपके अभाव में सदैव अधीर रहती हैं। कोई परोपकारी उसकी दशा का हाल परमात्मा को सुनाये और वह आकर मिले तभी इसके कष्टों का अन्त होगा।

प्रश्न 4. कबीर ने किन दोषों के कारण हिन्दू और मुसलमानों को राह से भटका हुआ बताया है ?

उत्तर : कबीर ने हिन्दू और मुसलमानों को धार्मिक भावना और सामाजिक कुरीतियों को अच्छी तरह देखा और उनके दोषों को जानकर ही कहा कि ये दोनों सच्ची राह से भटक गए हैं। उन्होंने हिन्दुओं के धार्मिक आडम्बर और कुरीतियों को समाज विरोधी बताया। हिन्दू अपने पानी के पात्र को छूने नहीं देते और अपने को पवित्र मानते हैं। जबकि वे स्वयं अपवित्र हैं क्योंकि वेश्यागामी हैं।

मुसलमान मांसाहारी हैं। इनके पीर-औलिया मांसाहारी हैं। जीव-हत्या करने में तनिक भी नहीं हिचकते। इनके समाज की कुरीति है कि ये मौसी की लड़की जो बहन लगती है, उससे विवाह करते हैं। ये अपने धर्म के सम्बन्ध में कट्टर हैं और दूसरों को नीचा समझते हैं। इसलिए वे दोनों को राह से भटका मानते हैं।

प्रश्न 5. 'बालम, आवो हमारे गेहरे' पद में कबीर ने पारिवारिक रूप के माध्यम से जीव-ब्रह्म के सम्बन्ध को प्रकट किया है। इस कथन को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : कबीर दार्शनिक सिद्धान्तों को पारिवारिक रूपकों के माध्यम से बड़ी सरलता से व्यक्त कर देते हैं। इस पद में भी उन्होंने जीव-ब्रह्म के सम्बन्ध को एक रूपक के माध्यम से व्यक्त किया है। इस पद 'बालम' और 'गेह' अर्थात् पति और घर का सहज प्रयोग करके एक विरहिणी पत्नी के माध्यम से जीव एवं ब्रह्म के सम्बन्ध को प्रकट किया है। जिस प्रकार विरहिणी पति के वियोग में तड़पती है और उसे घर आने के लिए कहती है। इसी प्रकार विरही आत्मा परमात्मा से अलग होने के कारण दुःखी रहती है और जीव-ब्रह्म के मिलन का आग्रह करती है। इसी प्रकार 'तुम्हारी नारी', 'दिल से नहीं लग 'कामिन को है बालम प्यारा' शब्दावली साधारण विरहिणी के लिए प्रयुक्त होती है। ऐसी ही जीवात्मा अपने को परमात्मा की पत्नी मानती है। दिल से लगाने अर्थात् अपना स्वीकार करने की बात कहती है और साधारण नारी की तरह ब्रह्म से प्रेम करती है। इस तरह कबीर अपने दार्शनिक विचारों को पारिवारिक रूपक के माध्यम से व्यक्त करने में सफल हैं।

प्रश्न 6. कबीर के पद जनता में लोकगीतों की भाँति लोकप्रिय थे। उनकी पद-शैली पर एक टिप्पणी लिखिए।

उत्तर : कबीर का जिस युग में आविर्भाव हुआ उस समय ज्यादातर कवि स्वान्तः सुखाय कविता लिखते थे। जो उपदेश पर नीति के दोहों अथवा गेय पदों की रचना करना ही इन सन्त कवियों की काव्य. पद्धति थी। जनता के बीच घूम-घूमकर नीति और उपदेश की बात कहने के कारण इनके पद लोकगीत जैसे लगते हैं। इसी आधार पर कहा जा सकता है कि कबीर के पद जनता में लोकगीतों की भाँति लोकप्रिय थे।

निबंधात्मक प्रश्नोत्तर

काव्य-सौन्दर्य पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1. कबीर की भाषा पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।

उत्तर : कबीर अनपढ़ थे, उन्हें शास्त्रों का ज्ञान नहीं था किन्तु वे बहुश्रुत थे। उनके विचार उत्तम थे। अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की उनके पास भाषा थी। उन्होंने साधुओं की संगति की थी और उनके साथ सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया था। इसी कारण उनकी भाषा में पंजाबी, राजस्थानी, उर्दू, खड़ी बोली, अवधी और ब्रज भाषा आदि समस्त भाषाओं का संयोग हो गया था। उनकी भाषा खिचड़ी भाषा थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें भाषा का डिक्टेटर कहा है।

उनकी भाषा में जनभाषा की सहजता है। उसमें भावों की गहराई है। उनकी काव्य भाषा दार्शनिक विचारों को व्यक्त करने की क्षमता रखती है। कूट पदों और उलटबाँसियों की भाषा आलंकारिक है। कूट पदों में रूपकातिशयोक्ति का प्रयोग हुआ है। धुवन, धोय-धाय, जाई, खाला जैसे दैनिक बोलचाल के शब्दों का प्रयोग उनकी भाषा में मिलता है। अलंकारों का सप्रयास प्रयोग नहीं किया है। उपमा, रूपक, अनुप्रास अलंकारों का सहज ही प्रयोग हुआ है।

प्रश्न 2. काव्य कला की दृष्टि से पठित पदों की समीक्षा कीजिए।

उत्तर : काव्य कला परः विचार करते समय दो पक्षों का ध्यान रखना आवश्यक है - एक भाव पक्ष, दूसरा कलापक्ष। दोनों दृष्टियों से देखने पर कबीर के पठित पदों में निम्न विशेषताएँ मिलती हैं -

भाव पक्ष - कबीर, निर्गुणोपासक थे, सन्त थे, दार्शनिक थे और समाज सुधारक थे। उनके काव्य में कहीं भावों की सरलता है तो कहीं दार्शनिकता के कारण गम्भीरता है। पठित दोनों पदों में से पहले पद में भाव की सहज अभिव्यक्ति है तो दूसरे पद में रहस्यवादी दार्शनिक गम्भीरता है।

कबीर ने हिन्दू - मुसलमान दोनों के आडम्बरों पर प्रहार किया है। दोनों के अन्धविश्वासों और कुरीतियों पर करारा व्यंग्य किया है। आत्मा-परमात्मा के मिलन की दार्शनिक भावना को पति पत्नी के प्रेम का रूप देकर सहज रूप में व्यक्त किया है। आत्मा परमात्मा से मिलने के लिए विरहिणी की तरह व्याकुल रहती है। परमात्मा को पति और आत्मा को पत्नी बताया है। कथनी-करनी की एकता पर भी जोर दिया है। उन्होंने आचरण की शुद्धता का सन्देश दिया है। छुआछूत और जीव हत्या का विरोध किया है।

कला पक्ष - कबीर के दोनों पद गेय हैं। आपने अनुप्रास और रूपक अलंकारों का प्रयोग किया है। 'बालम, आवो हमारे गेह रे' पूरा पद रूपक है। जिव जाय, धोय-धाय, मुर्गी-मुर्गा में अनुप्रास अलंकार है। 'ज्यों प्यासे को नीर' में उपमा अलंकार है। दूसरे पद में 'बालम' और 'हमारे' प्रतीक शब्द हैं। कबीर की भाषा मिश्रित है जिसमें दैनिक बोलचाल के शब्दों के अतिरिक्त अनेक भाषाओं के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इसलिए इनकी भाषा को खिचड़ी भाषा भी कहते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें भाषा का डिक्टेटर कहा है। भाषा सरल और बोधगम्य है किन्तु भावानुकूल है।

प्रश्न 3. कबीर ने अपने काव्य में अलंकारों का सहज प्रयोग किया है। इस कथन की समीक्षा कीजिए।

उत्तर : हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि कबीर की साधारण शिक्षा भी नहीं हुई थी अत: उन्होंने किसी आचार्य से काव्य-रचना की शिक्षा ग्रहण की होगी, यह निःसन्देह रूप से असम्भव है। अतः उन्हें अलंकारों का शास्त्रीय ज्ञान था यह सम्भव नहीं है। इसलिए उनके काव्य में सहज रूप से ही अलंकारों का प्रयोग मिलता है। उपमा, रूपक, उदाहरण और दृष्टान्त आदि सहज अर्थालंकारों, अनुप्रास आदि शब्दालंकारों का प्रयोग उनके काव्य में मिलता है लेकिन इनका प्रयोग भी सायास नहीं है। अनायास रूप में जो अलंकार आ गया अथवा जनता तक अपनी बात को स्पष्ट रूप से पहुँचा देने के लिए जिस सहज अलंकार की आवश्यकता हुई उसका प्रयोग कर दिया, यही कबीर के काव्य में अलंकारों का सहज प्रयोग है।

प्रश्न 4. कबीर के संकलित पदों में पारिवारिक रूपक के साथ सहज रूप में जीव-ब्रह्म के सम्बन्धों को प्रकट कर दिया गया है। इस कथन को समझाकर लिखिए।

उत्तर : कबीर दास जी अपने दार्शनिक सिद्धान्तों को साधारण जनता के पारिवारिक रूपकों के माध्यम से व्यक्त करने में सिद्धहस्त थे। इस पुस्तक में संकलित उनका दूसरा पद इसका उदाहरण है। उन्होंने "बालम आवो हमारे गेह रे। तुम बिन दुखिया देह रे।" बालम अर्थात पति और गेह अर्थात घर का सहज प्रयोग कर एक विरहिणी पत्नी के माध्यम से जीव एवं ब्रह्म के सम्बन्ध को हृदयस्पर्शी भाषा-शैली में व्यक्त कर दिया है। इसी प्रकार "तुम्हारी नारी" "दिल से नहीं लगाया" "कामिन को है बालम प्यारा" साधारण गहस्थ की समझ में आने वाली शब्दावली है जो जीव और ब्रह्म के सम्बन्धों को प्रकट कर देती है। इस प्रकार कबीर ने साधारण पारिवारिक रूपक के माध्यम से अपने दार्शनिक सिद्धान्तों को व्यक्त करने - की कला में अपने आपको सिद्धहस्त कर लिया था। उपर्युक्त उदाहरणों से यह सहज सिद्ध हो जाता है।

अरे इन दोहुन राह न पाइ बालम; आवो हमारे गेह रे (सारांश)

लेखक परिचय :

निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि कबीर का जन्म काशी में सन् 1398 ई. को हुआ। ऐसी जनश्रुति है कि एक विधवा स्त्री ने इन्हें जन्म दिया था। जो लोक-लाज के कारण कबीर को लहरतारा तालाब के किनारे छोड़ गई थी। नीरु और नीमा जुलाहा दम्पत्ति को यह बालक मिला और उन्होंने इसका पालन-पोषण किया था। इनका निधन 1518 ई. में मगहर में हुआ था।

कबीर को विधिवत् शिक्षा तो प्राप्त नहीं हुई थी, किन्तु साधु-संतों की संगत से उन्होंने उच्चकोटि का आध्यात्मिक ज्ञान एवं भाषा तथा काव्य-रचना का ज्ञान प्राप्त किया। ये स्वामी रामानन्द के शिष्य थे। गुरु से शिक्षा प्राप्त करके इनका मानसिक विकास और तेज हो गया था। इनका चिन्तन मौलिक और अद्वितीय था। ये 'अपने युग के क्रान्तिकारी कवि थे। कबीर ने धर्म के नाम पर होने वाले बाह्याडम्बरों का विरोध किया। ये जाति, सम्प्रदाय और अन्धविश्वास के सदैव विरोधी रहे।

इनके काव्य में गुरु-भक्ति, ईश्वर-प्रेम, ज्ञान तथा वैराग्य, जगत-बोध, साधु-महिमा की अभिव्यक्ति है। आपकी कविता आप के व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित है। वे छुआछूत और भेदभाव को मिटाकर मनुष्यता को जगाने का प्रयत्न करते रहे। आपकी भाषा जन/भाषा है जिसमें सहजता है और भावों को गहराई से व्यक्त करने की क्षमता है। आपकी भाषा पर अन्य भाषाओं का प्रभाव है इसलिए उसे खिचड़ी भाषा भी कहते हैं। शुक्लजी ने उनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा है और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें भाषा का डिक्टेटर कहा है।

रचनाएँ - साहित्यकारों ने कबीर साहित्य को 'कबीर ग्रन्थावली' में संकलित किया है। कबीरपंथियों ने उसे 'बीजक' नाम से संकलित किया है, जिसके साखी, सबद, रमैनी तीन भाग हैं। साखी दोहों में है और सबद तथा रमैनी पदों में हैं।

पाठ-परिचय :

पहले पद का सार - कबीर के अनुसार हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मांध है। दोनों बाह्याडम्बरों और कुरीतियों में फँसे हैं। हिन्दू छुआछूत पर बल देते हैं, दूसरी ओर वेश्यागमन करते हैं। मुसलमानों के पीर-औलिया मांस-भक्षण करते हैं। दोनों ही के आचरण शुद्ध नहीं हैं। दोनों ही अपने को पवित्र और श्रेष्ठ मानते हैं, किन्तु दोनों ही मार्ग भूले हुए हैं। कौन सा मार्ग उचित है, इस पर विचार करना आवश्यक है।

दूसरे पद का सार - इस पद में कबीर ने स्वयं को विरहिणी स्त्री और परमात्मा को पति माना है। पति से मिलने की अभिलाषा और उसके घर लौटने की इच्छा व्यक्त की है। वियोग के कारण विरहिणी की भूख और प्यास समाप्त हो गई है। प्यासे को जैसे पानी की इच्छा प्रबल रहती है, वैसे ही विरहिणी आत्मा-परमात्मा से मिलने के लिए व्याकुल है। कौन उसकी व्यथा प्रियतम को सुनाए। आत्मा को प्रियतम को देखे बिना चैन नहीं है। आत्मा के परमात्मा से मिलने पर ही वह सुखी हो सकती है।

पद 1 :

अरे इन दोहुन राह न पाई।

हिंदू अपनी करे बड़ाई गागर छुवन न देई।

बेस्या के पायन-तर सोवै यह देखो हिंदुआई।

मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।

खाला केरी बेटी ब्याहै घरहि में करै सगाई।

बाहर से इक मुर्दा लाए धोय-धाय चढ़वाई।

सब सखियाँ मिलि जेंवन बैठीं घर-भर करै बड़ाई।

हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।

कहैं कबीर सुनों भाई साधो कौन राह है जाई।

शब्दार्थ :

दोहुन = दोनों ने (हिन्दू और मुसलमान)।

पाई = प्राप्त की।

बड़ाई = प्रशंसा।

गागर = घड़ा।

छुवन = स्पर्श करना।

पायन-तर = पैरों में (अपमानित होकर)।

पीर = आध्यात्मिक गुरु।

औलिया = भक्त।

खाला = मौसी।

केरी = की।

जेवन = खाना खाना।

कौन राह = किस आचरण को।

है जाई = अपनाना।

संदर्भ - प्रस्तुत पद कबीरदास का है। पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग-1 में संकलित कबीर के दो पदों में से एक पद है।

प्रसंग - इस पद में कबीर ने हिन्दू और मुसलमान दोनों के जीवन में व्याप्त बाह्याडम्बरों और मिथ्या प्रदर्शन पर व्यंग्य किया है। दोनों को भ्रमित बताया है।

व्याख्या - कबीर कहते हैं कि हिन्दू और मुसलमान दोनों अपने-अपने धर्म के कट्टर अनुयायी हैं। दोनों के ईश्वर-प्राप्ति के रास्ते अलग-अलग हैं। किन्तु दोनों ही ईश्वर-प्राप्ति के सही मार्ग से भटके हुए हैं। हिन्दुओं में छुआछूत की भावना बहुत अधिक है। ये अपने पानी की गागर किसी को नहीं छूने देते। हिन्दू अपने को दूसरों से श्रेष्ठ मानते हैं, पवित्र मानते हैं। परन्तु ये हिन्दू वेश्या के कोठे पर जाकर उसके पैरों में गिरते हैं, वेश्या द्वारा किया गया अपमान सहन करते हैं। तब इनका हिन्दुत्व कहाँ चला जाता है। उस समय इनके धर्म की उच्चता कहाँ चली जाती है। कबीर मुसलमानों की अज्ञानता की चर्चा करते हुए कहते हैं कि मुसलमानों के पीर औलिया अपने को श्रेष्ठ मानते हैं, किन्तु वे भी जीव हत्या कराते हैं, मांस खाते हैं।

इन पीरों और फकीरों के शिष्य भी मांस खाते हैं। जीव-हत्या करते समय मुसलमानों का ज्ञान कहाँ चला जाता है? कबीर मुसलमानों की सामाजिक रूढ़ियों पर भी व्यंग्य करते हैं। इनकी विवाह पद्धति बहुत बुरी है। ये अपनी मौसी की लड़की से जो इनकी बहन लगती है, से विवाह करके पति-पत्नी का सम्बन्ध निभाते हैं। ये बाहर से किसी निर्जीव का मांस लाकर उसे धोकर साफ करके पकाते हैं और फिर सब मिलकर उसी मांस को बड़े प्रेम से खाते हैं। कबीर कहते हैं मैंने हिन्दुओं का हिन्दुत्व और मुसलमानों की मुसलमानी को अच्छी तरह परख लिया है। दोनों ही धर्म और श्रेष्ठता के नाम पर झूठे अहंकार में डूबे हुए हैं। इसलिए हे साधुओ! स्वयं निर्णय करो कि कौन-सा मार्ग उचित है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए कौन सा मार्ग अपनाना उचित है।

विशेष :

1. कबीर ने दोनों धर्मों के धर्माडम्बर पर व्यंग्य किया है।

2. धोय-धाय, हिन्दुन की हिंदुवाई, तुरकन की तुरकाई और कहै कबीर में अनुप्रास अलंकार है।

3. पद छन्द है।

4. तुरकन, तुरकाई, पीर-औलिया शब्दों का भाषा में प्रयोग किया है।

पद 2 :

बालम, आवो हमारे गेहरे।

तुम बिन दुखिया देह रे।

सब कोई कहै तुम्हारी नारी, मोकों लगत लाज रे।

दिल से नहीं लगाया, तब लग कैसा सनेह रे।

अन्न न भावै नींद न आवै, गृह-बन धरै न धीर रे।

कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे।

है कोई ऐसा पर-उपकारी, पिवसों कहै सनाय रे।

अब तो बेहाल कबीर भयो है, बिन देखे जिव जाय रे॥

शब्दार्थ :

बालम = पति (भगवान)।

गेह = घर (पास)।

देह = शरीर (जीवात्मा)।

नारी = पत्नी।

दिल से लगाना = वक्ष से लगाना।

वन = बाहर। जंगल।

धीर = धैर्य। कामिन = पत्नी, स्त्री।

पर-उपकारी = दूसरों का हित करने वाला।

पिवसों = प्रियतम से, पति से।

सुनाय = सुनाकर, समझाकर।

भयो है = हुआ है।

जिव = आत्मा, प्राण।

संदर्भ - यह पद कबीर का है और पारसनाथ तिवारी द्वारा संपादित 'कबीर वाणी' से उद्धृत है। यह पद अंतरा भाग-1 में संकलित है।

प्रसंग कबीर ने अपने को विरहिणी और परमात्मा को पति माना है। आत्मा परमात्मा से मिलने को व्याकुल है और उनके घर लौटने की अपेक्षा करती है। पति-पत्नी के रूपक से कबीर ने आत्मा-परमात्मा के मिलन की बात कही है।

व्याख्या - विरहिणी आत्मा अपने प्रियतम परमात्मा से अनुरोध कर रही है कि वह उसके घर (हृदय में) पधारें। प्रियतम के वियोग में विरहिणी आत्मा बड़ी दुखी है। विरहिणी आत्मा कहती है कि सभी लोग उसे प्रियतम परमात्मा की पत्नी कहते हैं। यह सुन उसे बड़ी लज्जा का अनुभव होता है।

जब प्रिय ने उसे प्रेम से कभी गले नहीं लगाया तो वह कैसी पत्नी है? यह तो केवल नाम मात्र का संबंध हुआ। यह कैसा प्रेम भाव है। आत्मा कहती है कि प्रिय विरह में वह इतनी व्याकुल रहती है कि उसे न भोजन अच्छा लगता है न नींद ही आती है। घर में या बाहर कहीं भी उसके मन को धीरज नहीं मिलता।

पत्नी को तो पति इतना प्यारा लगता है जितना किसी प्यासे को जल प्यारा होता है। विरहिणी आत्मा कहती है कि क्या कोई ऐसा परोपकारी है जो उसकी विरह वेदना, उसके प्रियतम परमात्मा को जाकर सुना दे। कबीर की वियोगिनी आत्मा कहती है कि उससे विरह की पीड़ा सही नहीं जा रही है। यदि प्रिय ने शीघ्र आकर उसे प्रेम से गले नहीं लगाया तो उसके प्राण नहीं बचेंगे।

विशेष :

1. आत्मा-परमात्मा के दिव्य संबंध को कबीरदास जी ने बड़ी मार्मिक शैली में रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

2. योग और ज्ञान के द्वारा आत्मा-परमात्मा के संबंध पर व्याख्यान न देकर कबीर ने उसे पति-पत्नी के मधुर संबंध द्वारा व्यक्त करके सहज और मर्मस्पर्शी बना दिया है।

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