पाठ्यपुस्तक आधारित प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. पहले छंद में कवि ने किस ऋतु का वर्णन किया है?
उत्तर
: कवि पद्माकर ने इस पाठ के पहले छंद में बसन्त-ऋतु का चित्रात्मक एवं मनोहारी वर्णन
किया है। बसन्त को छः ऋतुओं ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर और बसन्त को ऋतुराज
कहा जाता है। अतः इसका वर्णन भी अद्भुत होता है।
प्रश्न 2. इस ऋतु में प्रकृति में क्या-क्या परिवर्तन होते हैं?
उत्तर
: कवि पद्माकर ने ऋतुराज वसन्त का वर्णन करते हुए कहा है कि इस ऋतु में भ्रमरों का
कुंजों में गुंजार करना भी अद्भुत प्रकार का हो जाता है। वृक्षों की शाखाओं पर पत्तों
के समूहों की शोभा अत्यन्त ही अलग हो जाती है। गाँवों की गली-गली में छल-छबीले युवक
शोभा बढ़ाकर भ्रमण करते घूमते हैं। पक्षी अद्भुत कलरव करते हैं। इस प्रकार ऋतुराज वसन्त
के आने पर तन-मन और वन की शोभा के साथ-साथ रस, रीति और राग-रंग भी परिवर्तित हो जाते
हैं।
प्रश्न 3. 'और' की बार-बार आवृत्ति से अर्थ में क्या विशिष्टता उत्पन्न
हुई है?
उत्तर
: कवि पद्माकर रीतिकाल के विशिष्ट कवि हैं। शब्द और अर्थ में चमत्कार उत्पन्न कर दरबार
को चकित करके अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करना ही उनका उद्देश्य होता था। इस पद में
'औरै' शब्द का बारह बार प्रयोग करके काव्य-सौन्दर्य में वृद्धि की गई है। औरै शब्द
का अर्थ है 'अन्य ही प्रकार की' अर्थात अन्य ऋतुओं की अपेक्षा बसन्त में प्रकृति की
शोभा अन्य ही प्रकार की हो गई है। "औरै रस, औरै रीति, राग, रंग, तन, मन और वन
एक-एक शब्द व्यंजना की दृष्टि से क्रमिक विकास का आभास देते हैं, यही चमत्कार कवि का
अभीष्ट है।
प्रश्न 4. "पद्माकर के काव्य में अनुप्रास की योजना अनूठी बन पड़ी
है।' उक्त कथन को प्रथम छन्द के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: पद्माकर रीतिकाल के अंतिम श्रेष्ठ कवि थे। अलंकारों का प्रयोग उन्होंने बड़ी ही कुशलतापूर्वक
किया है। लेकिन अनुप्रास अलंकार के प्रयोग करने में उनका अनूठापन झलकता है। प्रथम छन्द
में अनेक वर्णों की आवृत्ति होने से जहाँ द्धि हुई है, वहाँ पद-विन्यास में अनूठापन
आ गया है। यथा-भीर भौंर, छलिया छबीले छैल, छबि छवै, रस-रीति, राग-रंग आदि।
प्रश्न 5. होली के अवसर पर सारा गोकुल गाँव किस प्रकार रंगों के सागर
में डूब जाता है? दूसरे छंद के आधार पर लिखिए।
उत्तर
: पद्माकर के द्वितीय छंद में गोकुल के आस-पास के गाँवों में भी होली के रंग की बहार
देखी जा सकती है। सभी लोग गोकुल की गलियों में दौड़-दौड़कर फाग खेल रहे हैं। कुछ का
कुछ कह रहे हैं फिर भी कोई बुरा नहीं मानता। गोपी होली के रंग के साथ-साथ श्रीकृष्ण
के प्रेम रंग में डूब जाती है लेकिन वह अपने हृदय से उस प्रेम रंग को निचोड़कर दूर
नहीं करना चाहती। मोहन की प्रेम भरी बातों के रस में सराबोर ही रहना चाहती है। प्रेम
की खुमारी से मुक्ति नहीं चाहती। इस प्रकार सारा गोकुल होली के साथ-साथ प्रेम-रस में
डूबा हुआ है।
प्रश्न 6. 'बोरत तौं बोरौ पै निचोरत बनै नहीं" इस पंक्ति में गोपिका
के मन का क्या भाव व्यक्त हआ है?
उत्तर
: प्रेम का रंग एक बार चढ़ जाय तो आसानी से उतरता नहीं। गोपी श्याम के श्याम रंग में
डूब गई है। श्याम रंग उतरता नहीं और उस पर दूसरा रंग चढ़ता भी नहीं। गोपी उससे दूर
होना अथवा उस रंग से बाहर निकलना नहीं चाहती। वह श्याम रंग को अर्थात् कृष्ण प्रेम
को निचोड़ना नहीं चाहती, उनसे अलग होने की इच्छा ही नहीं करती। उसे भय है कि यदि उसने
इस रंग को निचोड़ दिया, अर्थात् कृष्ण प्रेम को हृदय से निकाल दिया तो वह कृष्ण के
वियोग में व्याकुल हो जाएगी। वह उसमें निमग्न रहना चाहती है। गोपी के इसी भाव को कवि
ने इस प्रकार व्यक्त किया है 'बोरस तौं बोर्यो पै निचोरत बनै नहीं।'
प्रश्न 7. पद्माकर ने किस तरह भाषा.शिल्प से भाव-सौन्दर्य को और अधिक
बढ़ाया है ? सोदाहरण लिखिए।
उत्तर
: दरबारी कवि होने के कारण पद्माकर की भाषा सरस, चमत्कारपूर्ण और प्रवाहपूर्ण है। कवि
सरल भाषा के द्वारा ही भावों को अभिव्यक्त करते थे क्योंकि वही भावों को ग्रहण कराने
में सुगम थी। पद्माकर की भाषा ब्रज है, जिसमें सरसता है, लाक्षणिकता और व्यंजना शक्ति
भी है। 'कुंजन में गुंजरत, भीर भौंर, छलिया छबीले छैल, और रस और रीति और राग और रंग
आदि में ध्वनि चमत्कार तो है ही साथ ही भौंरों के गुंजार और गोपियों के रसपूर्ण हृदय
तथा युवकों के छैल छबीले रूप बडा ही आकर्षक वर्णन किया है।
प्रेम
में उस भाव को भाषा की सरसता से कैसे व्यक्त कर दिया है। बोरत तौँ बोर्यो पै निचोरत
बनै नहीं सावन में मेह के बरसने के साथ नेह भी बरसता है उसका वर्णन कितना आकर्षक है
नेह सरसवान में मेह बरसावन में भौरे गुंजार करते हैं, मोर शोर करते हैं, छलिया घर-घर
जाकर रंग डालते हैं आदि भावों को भाषा के शिल्पी पद्माकर ने बड़े ही काव्यात्मक ढंग
से प्रस्तुत किया है।
प्रश्न 8. तीसरे छंद में कवि ने सावन ऋतु की किन-किन विशेषताओं की ओर
ध्यान आकर्षित किया है?
उत्तर
: प्रत्येक ऋतु अपनी कुछ विशेषताएँ रखती है। पावस में सावन की अपनी विशेषताएँ कुछ अलग
ही हैं जो प्रत्येक प्राणी के मन को उत्साह से भर देती हैं। कवि पद्माकर ने भी अपने
कवित्त में उन विशेषताओं को दर्शाया है।
1.
बाग-बगीचों में चारों ओर भौंरों की गुंजार सुनाई देती है। वे फूलों पर मड़राते रहते
हैं।
2.
वर्षा ऋतु प्रकृति का उद्दीपन काल है। इसमें नारियाँ झूला झूलती हैं और झूलती हुई मल्हार
राग गाती हैं।
3.
भौंरों का गुंजन सुनाई देता है।
4.
नायिका को अपना प्रियतम बहुत प्यारा लगता है और वह उसके प्रेम को हृदय से निकालना भी
नहीं चाहती।
5.
वर्षा के बूंदों के साथ नारियों के हृदय में प्रेम की वर्षा होने लगती है।
6.
सावन में झूलों में झूलना अच्छा लगता है।
प्रश्न 9. संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए -
(क)
औरै भाँति कुंजन................छबि छ्वै गए।
(ख)
तौ लौं चलित..............बनै नहीं।
(ग)
कहैं पद्माकर................लगत है।
विशेष
- व्याख्या के लिए छात्र व्याख्या खण्ड देखें।
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. छलिया छबीले छैल औरे छबि छ्वै गए' पंक्ति में अलंकार है
-
(क)
यमक अलंकार
(ख) अनुप्रास अलंकार
(ग)
श्लेष अलंकार
(घ)
पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार
प्रश्न 2. 'निचोरत बनै नहीं' में गोपी से क्या नहीं निचोड़ा जा रहा
है?
(क)
होली का रंग
(ख) श्रीकृष्ण का प्रेम रंग
(ग)
मन से होली की स्मृति
(घ)
शरीर का पसीना
प्रश्न 3. गोपी को 'मन भावन कृष्ण' प्यारे लगते हैं -
(क)
मान से अधिक
(ख)
गुमान से अधिक
(ग)
प्राणों से अधिक
(घ) इन तीनों से अधिक
प्रश्न 4. कवि पद्माकर के अनुसार सावन में सुहावना लगता है -
(क)
भौंरों का गुंजार करना
(ख)
बादलों का गरजना
(ग) झूलों पर झूलना
(घ)
मोरों का शोर करना
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. 'भौंरों के झौर' कुंजों में क्या कर रहे हैं?
उत्तर
: भौंरों के समूह कुंजों में कुछ और ही प्रकार से गुंजार कर रहे हैं।
प्रश्न 2. बसंत आने पर गलियों में किनकी छबि बदल गई है?
उत्तर
: गलियों में चंचल और सुंदर युवकों की छवि में विशेष सुंदरता आ गई है।
प्रश्न 3. वसंत को आए हुए कितना समय हुआ है?
उत्तर
: कवि के अनुसार वसंत को आए हुए अभी दो ही दिन (बहुत कम समय) हुए हैं।
प्रश्न 4. होली में कौन-लोग 'गुन-औगुन' की चिंता नहीं कर रहे हैं?
उत्तर
: होली में पड़ौस के, पिछवाड़े के और द्वार के सामने के लोग गुण-अवगुण की चिंता नहीं
कर रहे हैं।
प्रश्न 5. होली में गोपी की क्या वस्तु चोरी हो गई है?
उत्तर
: होली में गोपी का मन श्रीकृष्ण ने चुरा लिया है।
प्रश्न 6. गोपी ने अपनी सहेली को अपनी क्या विवशता बताई है?
उत्तर
: गोपी ने बताया है कि श्रीकृष्ण के श्याम रंग में उसका चित्त सहज ही डूब गया पर अब
उनकी छवि को वह मन से नहीं निकाल पा रही है।
प्रश्न 7. सावन में भौरे क्या कर रहे हैं?
उत्तर
: सावन में भौरे गुंजार करते हुए वन की कुंजों में विचरणं कर रहे हैं।
प्रश्न 8. गोपियों को सावन में 'मनभावन' श्रीकृष्ण कैसे लगते हैं?
उत्तर
: गोपियों को सावन में श्रीकृष्ण मान, गुमान और प्राणों से भी अधिक प्यारे लगते हैं।
प्रश्न 9.
नेह सरसावन में, मेह बरसावन में,
सावन में झूलिबौ, सुहावनों लगत है।
इन पंक्तियों में अलंकारों का परिचय दीजिए।
उत्तर
: इन पंक्तियों में 'सावन' की पुनरावृत्ति के कारण यमक अलंकार है तथा 'स', 'व' और
'न' वर्ण की आवृत्ति होने से अनुप्रास अलंकार भी है।
प्रश्न 10. आपकी पाठ्य पुस्तक में पद्माकर ने किस छंद का प्रयोग किया
है?
उत्तर
: पद्माकर ने कवित्त छंद का प्रयोग किया है।
लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. बसन्तागमन पर वातावरण में क्या परिवर्तन होता है ?
उत्तर
: बसन्त से पूर्व वातावरण कुछ और ही होता है। वृक्ष अपने पत्तों का दान कर देते हैं।
डालियाँ पत्र रहित हो जाती हैं। बसन्त के आते ही प्रकृति और मानव जीवन में परिवर्तन
हो जाता है। बसन्त को आए हुए दो दिन भी नहीं बीतते हैं अर्थात् बसन्त का प्रारम्भिक
काल ही होता है तभी प्रकृति की नीरसता सरसता में बदल जाती है। वृक्षों की डालियाँ लाल-लाल
छोटी पत्तियों से ढकने लगती हैं। रंग-बिरंगे फूल खिलने लगते हैं जिन पर भ्रमर गुंजार
करते हुए मँडराने लगते हैं। पक्षियों का चहकना ही बदल जाता है। ऋतुराज बसन्त अपना ऐसा
प्रभाव दिखाता है कि सभी के तन-मन में आनन्द, ताजगी और स्फूर्ति आ जाती है। चारों ओर
रास, राग-रंग का वातावरण बन जाता है।
प्रश्न 2. सामान्य लोगों के होली खेलने और प्रेमी-प्रेमिका के होली
खेलने में क्या अन्तर है?
उत्तर
: बसन्त ऋतु का मादक वातावरण सबको रसमग्न कर देता है। ऐसे मादक वातावरण में लोग बौरा
जाते हैं। उच्च कुल के लोग, गली और गाँवों के सभी लोग मिलकर होली खेलते हैं। होली खेलते
समय इतने मस्त हो जाते हैं कि उन्हें छोटे-बड़े का ध्यान ही नहीं रहता। जो मन में आता
है वही अंट-संट बकते रहते हैं। गलियों में दौड़-दौड़कर रंग डालते हैं। प्रेमिका भी
प्रिय से होली खेलती है लेकिन अधिक उत्साह से नहीं। वह तो कृष्ण के प्रेम रंग से होली
खेल रही है। वह अपनी सखी से कह देती है कि मैं तो कृष्ण के रंग में रँग गई हूँ। यह
रंग उतरने वाला नहीं है।
प्रश्न 3. 'गुमान हूँ तें मानहुँ तै' में भाव-सौन्दर्य छिपा है ? स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर
: वर्षा ऋतु कामोद्दीपन काल है। इसमें मिलन की उत्कंठा बढ़ जाती है। नायिका अपने मान-सम्मान
को भूल जाती है और प्रिय के रूठने और मान करने की तनिक चिन्ता नहीं करती बल्कि उसे
अच्छा लगता है। वह उससे प्रेम करती है और उस प्रेम को हृदय से निकालना नहीं चाहती।
इसमें श्रृंगार रस का सौन्दर्य छिपा है।
प्रश्न 4. प्रथम कवित्त के काव्य-सौन्दर्य को अपने शब्दों में व्यक्त
कीजिए।
उत्तर
: हम काव्य-सौन्दर्य को भाव पक्ष और कला पक्ष दो भागों में बाँट कर देखेंगे। भावपक्ष
ऋतुराज बसन्त के आते ही समस्त वातावरण उमंग और उल्लास से भर गया है। भौरे कुंजों में
पुष्पों पर गुंजार करते हुए विचरण कर रहे हैं। वृक्षों और लताओं तथा कुंजों में नए
पत्तों की लालिमा से उनकी शोभा बढ़ गई है। सुगन्धित पुष्प खिल गए हैं। नई मंजरियों
की सुगन्ध चारों ओर व्याप्त हो गई है। युवक मस्ती से इधर-उधर घूम रहे हैं। पक्षियों
के स्वर बदल गए हैं। वन की शोभा बढ़ गई है। कवि ने प्रकृति का सुन्दर चित्रण किया है।
भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से कवित्त सुन्दर है।
कला
पक्ष-भाव-सौन्दर्य के साथ कला पक्ष का सौन्दर्य भी आवश्यक है। कला-सौन्दर्य से भावों
की अभिव्यंजना में निखार आता है। कवि ने ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। शाब्दिक चमत्कार
दर्शनीय है। गुंजन, कुंजन, झौरन, बौरन आदि में ध्वनि साम्य के कारण लालित्य बढ़ गया
है। 'औरै' शब्द की आवृत्ति ने चमत्कार पैदा कर दिया है। भाषा में प्रसाद गुण है। श्रृंगार
रस है। लक्षण और व्यंजना शब्द शक्ति का अद्भुत संयोग है।
प्रश्न 5. पठित कवित्तों के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि पद्माकर की भाषा
में चित्र प्रस्तुत करने की अद्भुत क्षमता है।
उत्तर
: काव्य में भाषा चमत्कार उत्पन्न करने का उपकरण है। पद्माकर ने शब्दों द्वारा अनोखे
शब्द-चित्र प्रस्तुत किये हैं, जिससे उनके काव्य में चमत्कार उत्पन्न हो गया है। कवि
ने बसन्त और पावस दोनों ऋतुओं की प्रकृति का बड़ा मोहक वर्णन किया है। दोनों कवित्तों
में शब्दचित्रों द्वारा प्रकृति को साकार रूप प्रदान किया है। कुंजों में तैरे के झुण्ड
फिर रहे हैं। शब्दों द्वारा इसका चित्र प्रस्तुत कर दिया है। "कुंजन में गुंजरत
भी भौंरा।' चंचल युवकों का 'छलिया छबीले छैल' शब्दों द्वारा सुन्दर चित्रण किया है।
'गली के गोप गाउन' गोकुल गाँव के गोप-ग्वाल, परोस-पिछवारन, आस-पास और घर के पीछे रहने
वाले 'नीके के निचौरे' भलीभाँति कपड़े निचोड़ना 'चुराई चित चोर चोरी' चिंत्त या मन
को चुराना आदि सक्रिय बिम्ब हैं। इन चित्रों द्वारा कवि ने अद्भुत शब्द चित्र प्रस्तुत
करके अपनी काव्य-कला का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किया है।
निबंधात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. पद्माकर ने प्रेम और सौन्दर्य का सजीव चित्र प्रस्तुत किया
है। पठित कवित्तों के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
उत्तर
: सफल कवि वह है जो शब्दों द्वारा अपने भावों को इस प्रकार प्रकट करे जिससे उनका एक
चित्र-सा आँखों के सामने उपस्थित हो जाय। कवि पद्माकर इस क्षेत्र के सिद्धहस्त कवि
हैं। उन्होंने अपने कवित्तों में प्राकृतिक सौन्दर्य और मानवीय सौन्दर्य दोनों का मनमोहक
चित्रण किया है। वसंत और वर्षा में प्राकृतिक सौन्दर्य की झाँकी है तो गोपी के चित्त
की चोरी कर लेने वाले श्याम के रंग में मानवीय सौन्दर्य का जादू प्रकट हुआ है।
प्राकृतिक
सौन्दर्य के साथ प्रेम का भी आकर्षक वर्णन किया है। होली के हुड़दंग में जहाँ सभी मस्त
हैं। रंग में डूबे हैं वहीं गोपिका भी रंग में भीग रही है। किन्तु उस पर असली रंग तो
श्याम के प्रेम का चढ़ गया है जो उतर ही नहीं रहा है। वह उसे निचोड़ना भी नहीं चाहती।
वह वियोग क्यों सहन करे। भौंरों का प्रेम भी कम नहीं है तभी तो वे फूलों पर मँडरा रहे
हैं। स्पष्ट है पद्माकर प्रेम और सौन्दर्य का वर्णन करने में सिद्धहस्त हैं।
प्रश्न 2. पद्माकर के काव्य में प्रकृति का मोहक चित्रण हुआ है। पठित
कवित्तों से उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: पद्माकर प्रकृति के कुशल चितेरे हैं। उन्होंने बसन्त ऋतु तथा होली खेलने के साथ-साथ
पावस के मादक चित्रों को भी अपने काव्य में चित्रित किया है। ऋतुराज बसन्त के आते ही
दो दिन में प्रकृति का रूप ही बदल गया है। कुंजों में भौंरों की गंजार बदल गई। पतझड
में वक्षों की जो डालियाँ पत्रविहीन हो गई थीं. उनमें नई लाल युवक समाज, विहग समाज,
रसरीति, राग-रंग सभी बदल गए। होली की चित्रकारी तन-मन दोनों को रँग देती है। सावन में
भौंरों का मधुपान करने के लिए फूलों पर मँडराना, मेह का बरसना आदि प्रकृति के चित्रों
को पद्माकर ने इस प्रकार चित्रित किया है कि उनका विम्ब आँखों के सामने आ जाता है।
उन्होंने प्रकृति को निकटता से देखा और उसका यथार्थ वर्णन किया है।
प्रश्न 3. पदमाकर ने उत्सव मनाने में फाग के रंग का जैसा भावात्मक वर्णन
किया है वैसा ही उसका शिल्प भी सुन्दर है। तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर
: ब्रज में बसन्तागमन के साथ फाग का रंग उड़ाने की परम्परा है। कवि पद्माकर ने ब्रज
के इस महोत्सव का अपने छंद में भाव-विभोर करने वाला वर्णन किया है। गोकुल की गलियों
और आस-पास के गाँवों के लोग आपस में टेली खेलते हैं। एक-दूसरे से उल्टा-सीधा बोलते
हैं। कोई किसी का बुरा नहीं मानता। छैल छबीले युवक द्वार-द्वार जाकर रंग खेलते हैं।
इसके साथ ही कृष्ण-प्रेम में रंगी एक गोपिका की मन:स्थिति का भी बड़ा आकर्षक वर्णन
है।
'बोर्यो
पै निचोरत बनै नहीं' पंक्ति से श्याम के रंग में रंगी गोपिका के मनोभावों का बड़ा ही
आकर्षक वर्णन है। भाव-सम्पदा से समृद्ध कवित्त बहुत अनूठा है। शिल्प की दृष्टि से भी
कवित्त अत्यन्त सुन्दर है। 'गोकुल की गली के, गोप गाउन के'। 'चुराई चित चोरी चोरी'
में अनुप्रास के कारण सौन्दर्य की वृद्धि हुई है। 'श्याम रंग' में श्लेष अलंकार है।
शृंगार रस है। ब्रजभाषा की सरलता और भाषानुकूलता ने तो अभिव्यक्ति में चार चाँद लगा
दिए हैं। प्रसाद गुण की प्रधानता है।
प्रश्न 4. वर्षा ऋतु के वातावरण का यथार्थ चित्रण करने में कवि पद्माकर
को पूर्ण सफलता मिली है। पठित कवित्त से उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: कवि ने तीसरे कवित्त में सावन का मनमोहक वर्णन किया है। कुंजों में भ्रमरों का स्वर
सुनाई पड़ रहा है। नवयौवनाएँ झूला झूलती हुई मल्हार राग गा रही हैं। नायिका अपने मनभावन
प्रियतम से मिलने के लिए उत्सुक है। मोरों का शोर सुनाई पड़ रहा है। हिंडोले पड़ गए
हैं और बालाएँ झूले का आनन्द ले रही हैं। कवि ने मानव प्रकृति और बाह्य प्रकृति दोनों
का सुन्दर वर्णन किया है। कवि को पावस के वातावरण को साकार करने में पूर्ण सफलता प्राप्त
हुई है।
कवि परिचय :
रीतिकाल
के प्रसिद्ध कवि पद्माकर का जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में सन् 1753 ई. में हुआ
था। पद्माकर के परिवार के अधिकांश लोग कविता करते थे। अतः उनके वंश का नाम 'कवीश्वर'
पड़ गया था। बूंदी दरबार ने बहुत। सम्मान और दान दिया। पन्ना महाराज ने बहुत से गाँव
दिए। जयपुर नरेश से उन्हें 'कविराज शिरोमणि' की उपाधि प्राप्त हुई। उनका निधन सन्
1833 ई. में हुआ।
पद्माकर
ने अपने काव्य में प्रेम और सौन्दर्य का मार्मिक चित्रण किया है। उनकी भाषा में भावों
को सजीव मूर्त रूप प्रदान करने की क्षमता है। भावों को सहजता से व्यक्त करने के लिए
उन्होंने लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग किया है। आपका प्रकृति वर्णन जीवन्त और चित्रात्मक
है। उन्होंने अपने काव्य में परिष्कृत ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं अवधी
और बुन्देलखण्डी का भी मिश्रण मिलता है। वर्णनात्मक प्रसंगों में उन्होंने अनुप्रासों
द्वारा भाषा का शृंगार किया है। रस निरूपण में शब्द योजना की अपेक्षा ध्वनियों की कोमलता
और भाषा की शास्त्रीयता इनका प्रधान गुण था। इनके काव्य में रस, अलंकार, गुण, शब्दशक्ति
और वर्ण-मैत्री का अद्भुत संगठन मिलता है। इनकी रचनाओं में 'हिम्मत बहादुर विरुदावली',
'पद्माभरण', 'जगद्विनोद', 'रामरसायन' और 'गंगा लहरी' आदि प्रसिद्ध हैं।
पाठ परिचय :
पाठ
में कवि पद्माकर की तीन कवित्त संकलित हैं। इनमें प्रत्येक का सार इस प्रकार है -
प्रथम
कवित्त का सार - बसन्त ऋतु का चमत्कारिक वर्णन है। बसन्तागमन
पर भौंरों का गुंजन सुनाई देने लगता है। शाखाओं में 'बौर' आने से पक्षी चहचहा रहे हैं।
ऋतु परिवर्तन से सारी प्रकृति का रूप-रंग ही बदल गया है। इस प्रकार रस, रीति, राग और
रंग तथा तन, मन, वन सभी पर बसन्त का प्रभाव छा गया है।
द्वितीय
कवित्त का सार - गोकुल की गलियों में बसन्त के साथ ही फाग
खेलना आरम्भ हो गया है। कृष्ण-प्रेम में गोपियाँ इतनी सराबोर हो गई हैं कि अब वे इस
प्रेम-रस को निचोड़कर हृदय से दूर करना नहीं चाहती हैं। सभी लोग हास-परिहास करते हुए
जो मन में आता है, कह रहे हैं। होली का हुड़दंग है और सभी लोक-लाज, निन्दा की चिन्ता
किए बिना कृष्ण के प्रेम में डूबे हैं।
तृतीय
कवित्त का सार - कवि ने पावस ऋतु का उद्दीपन रूप में वर्णन
किया है। सावन में बादलों की गर्जना, झूलों पर झूलने, मल्हार गाने, मोर, पपीहा की बोलियों
का बड़ा सजीव और मोहक वर्णन हुआ है। पावस ऋतु सब प्रकार से प्यारी लगती है। उसका सौन्दर्य
सबको आकर्षित करता है।
काव्यांशों की सप्रसंग व्यारव्याएँ -
1.
औरै भाँति कुंजन मे गुंजरत भीर-भौंर,
औरै
डौर झौरन पैं बौरन के है गए।
कहैं
पद्माकर सु औरै भाँति गलियानि,
छलिया
छबीले छैल औरै छबि छुवै गए।
औरै
भाँति बिहग-समाज में अवाज होति,
ऐसे
रितुराज के न आज दिन द्वै गए।
औरै
रस औरै रीति औरै राग औरै रंग,
औरै
तन और मन औरै बन द्वै गए।।
शब्दार्थ :
औरै
= और ही प्रकार का।
कुंजन
= वृक्षों के समूह में।
गुंजरत
= भौंरों का गूंजना!
भीर
= भीड़ समूह।
भौंर
= भ्रमर।
डौर
(डौल) = ढंग।
झौरन
= वृक्षों की शाखाओं की पत्तियों का समूह।
बौरन
= मंजरी, आम के बारीक पुष्पों के समूह।
गलियानि
= गलियों में।
छलिया
= कपटी।
छबीले
= सुन्दर।
छैल
= नवयुवक।
छुवै
गये = स्पर्श कर गये।
अवाज
= चहचहाहट।
दिन
द्वै = दो दिन।
औरै
रस = और ही प्रकार के आनन्द।
रीति
= ढंग।
राग
= संगीत, प्रेम।
रंग
= आनन्द।
रितुराज
= बसन्त ऋतु।
वन
= जंगल, लता, वृक्ष आदि।
संदर्भ
- प्रस्तुत छंद अंतरा भाग-1 के काव्य-खण्ड में संकलित है। इसके रचयिता रीतिकालीन कवि
पद्माकर हैं।
प्रसंग
- इसमें कवि ने ऋतुरात बसन्त के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन किया है। बसन्त के आगमन
पर प्रकृति में हुए परिवर्तन का हृदयग्राही वर्णन है। मनुष्यों और पक्षी जगत में होने
वाले परिवर्तनों का वर्णन है।
व्याख्या
- बसन्त ऋतु के आने पर वृक्षों, लताओं, बाग-बगीचों में तरह-तरह के पुष्प खिल गए हैं
जिन पर भौरों की भीड़ उमड़ रही है। चारों ओर भौंरों का गुंजन सुनाई पड़ रहा है। वृक्षों
की शाखाओं पर नई-नई कोंपलें आ गई हैं, आम के वृक्षों पर पर नई-नई मंजरियाँ आ गई हैं।
इसलिए भौरे उनका रसपान करने के लिए झुण्ड बनाकर उन पर मँडरा रहे हैं। इस बासन्ती मादकता
का प्रभाव नवयुवकों पर भी पड़ गया है। वे अपना श्रृंगार करके चमक-दमक के साथ मस्ती
से गलियों में घूमते फिर रहे हैं। उनकी गतिविधि और हावभाव कुछ और ही हो गए हैं। वे
प्रेम-भाव में डूबे गलियों में चक्कर लगा रहे हैं। ऋतुराज बसन्त के आगमन पर पक्षियों
का व्यवहार भी बदल गया है। उनमें उल्लास छा गया है। इससे उनका स्वर बदल गया है। उनका
चहकना और ही प्रकार का हो गया है।
पद्माकर
कहते हैं कि अभी बसन्त को आए दो दिन ही हुए हैं, अर्थात् बसन्त ऋतु को आए थोड़ा समय
ही हुआ है। फिर भी सारे वातावरण में इतना उत्साह है, उल्लास है। यह तो बसन्त के आगमन
की प्रारम्भिक स्थिति है, जब बसन्त पूर्ण यौवन पर होगा अर्थात् बसन्त का मध्यकाल होगा
तब प्राणियों की क्या स्थिति होगी। तब बासन्ती शोभा क्या होगी? इसकी कल्पना भी कठिन
है। बसन्त के आने पर आनन्द का स्वरूप और ढंग ही बदल जाता है। राग-रंग, रस-नीति में
परिवर्तन हो जाता है। प्रकृति की शोभा द्विगुणित हो जाती है। समस्त वन-प्रान्तर शोभा
से भर जाता है। लोगों का तन-मन उल्लसित हो जाता है। मन में स्फूर्ति और ताजगी आ जाती
है।
विशेष
:
1.
ऋतुराज बसन्त का मनमोहक वर्णन है।
2.बसन्तागमन
पर प्रकृति, पक्षी-समूह और मानवों का होने वाले परिवर्तन का यथार्थ वर्णन है।
3.
श्रृंगार रस है। प्रकृति का आलम्बन रूप में वर्णन है।
4.
ब्रजभाषा का सरल प्रयोग है। प्रसाद गुण है।
5.
भीर-झऔर, छलिया छबीले छैल, छ्वै में अनुप्रास अलंकार है। कुंजन-गुंजन झौरन-बौरन में
ध्वनि साम्य से चमत्कार है।
6.
कवित्त छंद है।
2.
गोकुल के कुल के गली के गोप गाउन के,
जौ
लगि कछु-को-कछु भाखत भनै नहीं।
कहैं
पद्माकर परोस-पिछवारन के,
द्वारन
के दौरि गुन-औगुन ग नहीं।
तौ
लौं चलित चतुर सहेली याहि कौऊ कहूँ,
नीके
कै निचौर ताहि करत मनै नहीं।
हौं
तो स्याम-रंग में चुराई चित चोराचोरी,
बोरत
तौँ बोरो पै निचोरत बनै नहीं।।
शब्दार्थ :
कुल
= श्रेष्ठ वंश के।
गाउन
के = गाँवों के।
जौ
लगि = जहाँ तक के।
कछु-कौ-कछु
= कुछ का कुछ, उल्टा-सीधा।
भाषत
= कहते हैं।
भनै
नहीं = कहा नहीं जा सकता।
परोस
= पास-पड़ोस।
पिछवारन
= पिछवाड़े के, पीछे रहने वाले।
द्वारन
= दरवाजों पर।
दौरि
= दौड़कर।
गुन-औगुन
= गुण-अवगुण, अच्छाई-बुराई।
गनै
नहीं = गणना नहीं करते, ध्यान नहीं देते।
तौ
लौं = तब तक।
चलि
= चंचल।
चतुर
= कुशल।
याहि
= इसको।
कहूँ
= किसी स्थान पर।
नीकै
= भली प्रकार।
निचौरे
= निचोड़ती है।
ताहि
= उसको।
मनै
नहीं = मना नहीं करती।
हौं
तो = मैं तो।
स्याम-रंग
= कृष्ण-प्रेम।
चुराई
चित = मन से छिपाकर।
चोराचोरी
= चोरी-छिपे।
बोरत
= डुबोया।
बोर्यो
= डुबा दिया।
निचोरत
= निचोड़ना, दूर करना।
बनै
नहीं = सम्भव नहीं होता।
सन्दर्भ
- प्रस्तुत कवित्त हमारी पाठ्यपुस्तक 'अन्तरा' काव्यखण्ड के 'पद्माकर' नामक पाठ से
लिया गया है।
प्रसंग
- रीतिकाल के प्रतिभाशाली कवि पद्माकर ने 'प्रकृति और सौन्दर्य' नामक काव्य में बसन्त
आगमन के साथ मदनोत्सव के रूप में ब्रज क्षेत्र में फाग या होली के हुड़दंग का बड़ा
ही सजीव वर्णन किया है। साथ ही होली खेलने में किसी गोपी के मन में श्रीकृष्ण के प्रति
अतिशय प्रेम उत्पन्न हो जाने का हृदयग्राही वर्णन करते हुए कहा है-
व्याख्या
- एक गोपी दूसरी गोपी से उस सखी की स्थिति बता रही है, जिसका मन ब्रज की होली की मस्ती
के साथ ही नायक श्रीकृष्ण से उलझ गया है। बसन्त के आगमन के साथ ही गोकुल के सभी लोग
जो चाहे श्रेष्ठ कुल के थे या गलियों के निवासी थे अथवा गाँवों के रहने वाले गोप थे,
आपस में हँसी-मजाक करते हुए एक-दूसरे को अंट-संट, कहनी- अनकहनी बातें कह रहे हैं, जिनको
सभ्य समाज में कहा भी नहीं जा सकता। होली की मस्ती में इस प्रकार का कहना-सुनना हो
ही जाता है। यह ब्रज की होली का असली रूप है।
कवि
पद्माकर कहते हैं कि होली का हुड़दंग मचाते हुए लोग अपने पास-पड़ोस के या पिछवाड़े
रहने वाले पड़ोसियों के द्वारों पर जा--जाकर या दौड़-भाग करते हुए रंग डाल रहे हैं।
होली खेलने में कोई किसी का बुरा नहीं मानता है। वास्तव में होली में जाति-पाँति, ऊँच-नीच,
कुलीन और गँवार का भेद मिट गया है। कोई किसी के गुणों अथवा अवगुणों की ओर ध्यान न देकर
सबके साथ समान भाव से होली खेल रहे हैं।
इस
समय कोई चंचल स्वभाव वाली चतुर सखी इस गोपी को साथ ले जाकर भली-भाँति रंग में डुबो
देती है और यह सखी भी उसके साथ चली जाती है। किसी नायक से होली खेलने की मना भी नहीं
करती। इस प्रकार वह रंग की मस्ती में डूबी नायक श्रीकृष्ण के प्रेम में निमग्न हो जाती
है।
सखियों
के पूछने पर वह स्वभाविक रूप से उत्तर देती है कि हे सखियो! मैं तो श्रीकृष्ण के प्रेमरूपी
श्याम रंग में चोरी-छुपे अपने हृदय को सौंप चुकी हूँ। मैंने अपना मन उनके मन में डुबाने
को तो डुबा दिया है लेकिन अब उस प्रेम रंग में डूबे इस मन का निचोड़ना कठिन है अर्थात्
श्रीकृष्ण के प्रेम को त्यागना कठिन है। होली के रंग में फाग खेलते हुए ही वह गोपिका
श्रीकृष्ण के प्रेम-रंग में सरावोर हो जाती है, लेकिन अब वह उस प्रेम को त्यागना नहीं
चाहती।
विशेष
:
1.
श्रृंगार रस का हृदयग्राही वर्णन किया गया है। प्रकृति के साथ मानव का मन भी उल्लास
से भर जाता है। बसन्त की मस्ती को वह रंग में डुबोकर पूरा करता है। यह संयोग शृंगार
का अद्भुत वर्णन है।
2.
अलंकार-समस्त पद में अनुप्रास की छटा दर्शनीय है। गली के गोप गाउन, भाखत भनै नहीं,
परोस-पिछवारन, गुन औगुन गने, चलित चतुर, चुराई चित चोरा-चोरी बोरत तौं बोर्यो आदि में
अनुप्रास गोकुल-कुल में सभंग यमक, स्याम-रंग में श्लेष अलंकार है।
3.
भाषा - भावानुकूल ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
4.
लक्षणा एवं व्यंजना शब्द-शक्तियाँ।
5.
गुण-माधुर्य गुणं।
6.
शैली-संवादात्मक एवं वर्णनात्मक शैली।
7.
वर्ण मैत्री के साथ कवि ने कोमलकान्त पदावली का प्रयोग किया है।
8.
कवित्त छन्द -16 + 15 = 31 वर्ण।
9.
बिम्ब-विधान दर्शनीय है।
3.
भौंरन को गुंजन बिहार बन कुंजन में,
मंजुल
मलारन को गावनो लगत है।
कहैं
पद्माकर गुमानहूँ तें मानहुँ मैं,
प्रानहूँ
तैं प्यारो मनभावनो लगत है।
मोरन
को सोर घनघोर चहुँ ओरन,
हिंडोरन
को बंद छवि छावनो लगत है।
नेह
सरसावन में मेह बरसावन में,
सावन
में झूलिबो सुहावनो लगत है।
शब्दार्थ :
भौंरन
= भ्रमरों का।
गुंजन
= गुंजार करना।
बिहार
= घूमना।
वन
= जंगल।
कुंजन
= वृक्ष-लताओं का समूह।
मंजुल
= सुन्दर।
मलारन
= सावन में गाये जाने वाला राग मल्हार।
गुमान
= घमण्ड।
मान
= आदर।
मनभावनो
= मन को प्रिय लगने वाला।
मोरन
= मोरों का।
घनघोर
= बादलों का गरजना।
वृंद
= समूह।
छवि
= सौन्दर्य।
नेह
= प्रेम।
सरसावन
= रस में डुबोना, विस्तार।
मेह
= मेघ, वर्षा।
सुहावनो
= सुन्दरता से पूर्ण।
लगत
है = लगता है।
सन्दर्भ
- यह कवित्त हमारी पाठ्यपुस्तक 'अन्तरा' के काव्यखण्ड के 'पद्माकर' नामक पाठ से लिया
गया है।
प्रसंग
-
रोतिकाल के प्रमुख कवि पद्माकर प्रकृति के वर्णन में सिद्धहस्त हैं। वर्षा आगमन का
चित्र प्रस्तुत करते हुए उन्होंने सावन में हिंडोलों पर झूलना, मल्हार राग गाना, मयूरों
का बोलना आदि का सुन्दर और मनोहरी वर्णन किया है।
व्याख्या
-
कवि कहते हैं कि-वर्षा-ऋतु में और विशेषकर श्रावण मास में भौरे गुजंन करते हुए कुंजों
में विचरण कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि ये भँवरे ही सावन मास के मल्हार राग को गा रहे
हैं। सावन में मल्हार राग का गाना अच्छा लगता है।
पद्माकर
कवि प्रकृति में आये इस ऋतु परिवर्तन का प्रभाव अन्य प्राणियों के साथ-साथ मानव मन
में भी उमंग भरने वाला बताकर कहते हैं कि नायिका अपना घमण्ड, मान-सम्मान सब कुछ त्यागकर
यहाँ तक कि अपने प्राणों से भी ज्यादा अपने प्रियतम से प्रेम करने लगी है। चारों ओर
मोरों की ध्वनि छाई हुई है और बादल गरज रहे हैं। चारों ओर हिंडोलों पर बालाएँ झूल रही
हैं। स्थान-स्थान पर डाले गये हिंडोले अति सुन्दर दिखाई दे रहे हैं।
हृदयों
में बढ़ते प्रेम और बादलों के बरसने के साथ सावन में झूलना बड़ा अच्छा लगता है।
विशेष
-
1.
प्रस्तुत कवित्त में पद्माकर ने वर्षा-ऋतु का मनमोहक वर्णन किया है। सावन में भ्रमरों
का गूंजना, मोरों का कुहकना, मल्हार गाना तथा हिंडोलों पर झूलना प्यारा लगता है। ये
सब प्रकृति के उपादान ही मानव में प्रेम उत्पन्न कर देते
2.
रस - श्रृंगार रस है।
3.
छन्दकवित्त छन्द है।
4.
भाषा - ब्रजभाषा का सहज-सरल रूप दर्शनीय है, सुन्दर प्रयोग हुआ है।
5.
अलंकार - गुंजन, कुंजन, मंजुल आदि में ध्वनि का चमत्कार है।
6.
मंजुल-मलारन, छवि-छावनों में अनुप्रास अलंकार है।
7.
वर्षा ऋतु का उद्दीपन रूप में वर्णन।
8.
सम्पूर्ण पद ध्वन्यात्मकता के सौन्दर्य से परिपूर्ण है।
9. संगीतात्मकता के साथ-साथ विम्ब-विधान दर्शनीय है।