पाठ्यपुस्तक आधारित प्रश्नोत्तर
कविता के साथ
प्रश्न 1. आखिरी शेर में गुलमोहर की चर्चा हुई है। क्या उसका आशय एक
खास तरह के फूलदार वृक्ष से है या उसमें कोई सांकेतिक अर्थ निहित है? समझाकर लिखें।
उत्तर
: गुलमोहर एक फूलदार वृक्ष होता है। इस पर गर्मियों में लाल रंग के फूल आते हैं। फूलों
से लदकर यह अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होता है। आखिरी शेर में गुलमोहर का तात्पर्य खास
तरह के फूलदार वृक्ष से नहीं है। यहाँ उसका प्रतीकात्मक अर्थ है। गुलमोहर समृद्ध भारत
और भारत-वासियों की ओर संकेत करता है। कवि कहना चाहता है कि सभी देश-वासियों को अपने
देश की समृद्धि के लिए जीना और मरना चाहिए। कवि तो स्वदेश के विकास के लिए जीना चाहता
है। वह देश-हित में गैरों के हाथों मरना भी पसन्द करता है।
प्रश्न 2. पहले शेर में चिराग शब्द एक बार बहुवचन में आया है और दूसरी
बार एकवचन में। अर्थ एवं वाक्य-सौन्दर्य की दृष्टि से इसका क्या महत्त्व है ?
उत्तर
: पहले शेर में चिराग शब्द का दो बार प्रयोग किया गया है। पहली पंक्ति में 'चिरागाँ'
बहुवचन है। इसका अर्थ है प्रत्येक घर में रोशनी के लिए जलाये जाने वाले अनेक दीपक।
दूसरी पंक्ति में प्रयुक्त 'चिराग' शब्द एकवचन में है। यहाँ इसका तात्पर्य है-थोड़ी-सी
रोशनी देने वाला एक चिराग।
काव्य-सौन्दर्य
की दृष्टि से यह प्रयोग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। गज़ल लेखक को दुःख इस बात का है कि
लोगों ने आजादी से पहले आजाद भारत के प्रत्येक नागरिक की सुख-सम्पन्नता के सपने देखे
थे। परन्तु नेताओं की स्वार्थपरता, धर्म-जाति की भेदभावपूर्ण राजनीति तथा भ्रष्टाचार
में आकंठ डूबे प्रशासन के कारण सम्पूर्ण देश गरीबी और शोषण की पीड़ा झेल रहा है। 'चिराग'
और 'चिरागाँ' इसी के प्रतीक हैं।
प्रश्न 3. गज़ल के तीसरे शेर को गौर से पढ़ें। यहाँ दुष्यन्त का इशारा
किस तरह के लोगों की ओर है?
उत्तर
: गज़ल के तीसरे शेर 'न हो कमीज तो सफर के लिए' में गज़लकार ने उन भाग्यवादी, अकर्मण्य
भारतीयों की ओर संकेत किया है जो अपनी गरीबी को अपना भाग्य तथा ईश्वर की मर्जी मानकर
चुपचाप सहन करते रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए संतोष एक सद्गुण होता है। परन्तु कवि कहना
चाहता है कि गरीबी ईश्वर की मर्जी से नहीं आती। अपनी अकर्मण्यता तथा दोषपूर्ण एवं शोषण
पर आधारित अर्थव्यवस्था इसका कारण होते हैं। इन भाग्यवादी लोगों के कारण ही देश में
विकास और समृद्धि की धारा प्रवाहित हो रही है।
प्रश्न 4. आशय स्पष्ट करें -
तेरा
निजाम है सिल दे, ज़ुबान शायर की,
ये
एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए।
उत्तर
: उपर्युक्त पंक्तियों का आशय इस प्रकार है -
कवि
शासकों से कहना चाहता है कि राज्य तुम्हारा है। शक्ति तुम्हारे हाथों में है। तुम चाहो
तो अत्याचार के विरुद्ध लोगों को संघर्ष के लिए प्रेरित करने वाले शायर की जुबान सिलवा
सकते हो अर्थात् उसकी बोलती बंद कर सकते हो। शायर के लिए यह सावधानी रखना आवश्यक है
कि वह शासन की इस मंशा तथा क्रूर इरादे से सतर्क रहे। लोगों को सजग रखने तथा शोषण के
विरुद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित करने का अपना कर्त्तव्य उसे सावधानी के साथ पूरा
करना होगा।
गज़ल के आस-पास
प्रश्न 1. दुष्यन्त की इस गज़ल का मिजाज बदलाव के पक्ष में है। इस कथन
पर विचार करें।
उत्तर
: दुष्यन्त की यह गज़ल परिवर्तन का संकेत देती है। कवि देश की जड़ता तथा नागरिकों की
गरीबी और शोषण को देखकर व्याकुल हो उठा है। वह लोगों की संतोषवृत्ति और भाग्यवाद को
इसका कारण मानता है। लोग अपनी अकर्मण्यता को ईश्वर की मर्जी मानकर सही सिद्ध करना चाहते
हैं। कवि इससे सहमत नहीं है। वह मानता है कि शासकों की गलत नीतियाँ और मनमानी भी देश
की विपन्नता का कारण है। शासन क्रूर है, कठोर है और विरोध करने पर लोगों को दंडित करता
है। परन्तु कवि का मानना है कि , उपर्युक्त स्थिति में लोगों को संघर्ष के लिए प्रेरित
करने का कर्त्तव्य शायर का ही होता है। देशहित में जान भी चली जाय तो वह पीछे हटना
नहीं चाहता। कवि देश और समाज में बदलाव का संदेश इस गज़ल में दे रहा है।
प्रश्न 2. "हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन -
दिल के खुश रखने को गालिब ख्याल अच्छा है।"
दुष्यन्त की गज़ल का चौथा शेर पढ़ें और बताएँ कि गालिब के उपर्युक्त
शेर से किस तरह जुड़ता है ?
उत्तर
: मिर्जा गालिब उर्दू के नामी शायर थे। उनके ऊपर दिए गए शेर में जन्नत (स्वर्ग) की
हकीकत की बात कही गयी है। गालिब जानते हैं कि स्वर्ग में जो सुख बताये जाते हैं, हकीकत
वैसी नहीं है। परन्तु मन बहला लेने के लिए स्वर्ग के सुखी जीवन की कल्पना बुरी नहीं
है। दुष्यन्त ने गज़ल के चौथे शेर में गालिब से मिलती-जुलती बात ही कही है। दुष्यंत
ने 'जन्नत' के स्थान पर 'खुदा' शब्द का प्रयोग किया है। वह कहता है कि खुदा हो या न
हो परन्तु खुदा के होने की आदमी की कल्पना बुरी बात नहीं है। कम-से-कम मन बहलाने के
लिए एक खूबसूरत दृश्य तो सामने रहता है। 'जन्नत' और 'खुदा' दोनों ही आदमी की कल्पना
की उपज हैं और यह कल्पना उसको सुखद प्रतीत होती है। इस प्रकार दोनों ही शेर एक-दूसरे
से जुड़े हुए हैं।
प्रश्न 3. "यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है', यह वाक्य मुहावरे
की तरह, अलग-अलग परिस्थितियों में अर्थ दे सकता है, मसलन ऐसी अदालतों पर लागू होता
है, जहाँ इंसाफ नहीं मिल पाता। कुछ ऐसी परिस्थितियों की कल्पना करते हुए निम्नांकित
अधूरे वाक्यों को पूरा करें।
(क) यह ऐसे नाते-रिश्ते पर लागू होता है .......
(ख) यह ऐसे विद्यालयों पर लागू होता है ..............
(ग) यह ऐसे अस्पतालों पर लागू होता है .....
(घ) यह ऐसी पुलिस-व्यवस्था पर लागू होता है...............
उत्तर
: 'यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है'- यह वाक्य मुहावरे की तरह अलग-अलग परिस्थितियों
में अलग-अलग अर्थ दे सकता है। जैसे -
(क)
यह ऐसे नाते-रिश्तों पर लागू होता है, जहाँ सच्चे स्नेह-प्रेम के स्थान पर छल-कपट,
स्वार्थपूर्ण आचरण और दिखावटी व्यवहार होता है।
(ख)
वह ऐसे विद्यालयों पर लागू होता है कि जहाँ विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा नहीं दी
जाती।
(ग)
वह ऐसे अस्पतालों पर लागू होता है, जहाँ रोगियों का इलाज करने में लापरवाही की जाती
है।
(घ)
वह ऐसी पुलिस-व्यवस्था पर लागू होता है, जहाँ पैसे और प्रभाव के अभाव में एफ. आई. आर.
भी नहीं लिखी जाती।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. 'शायर की जुबान सिलने' का क्या आशय है?
उत्तर
: 'शायर की जुबान सिलने' का आशय यह है कि भ्रष्ट और अयोग्य शासक अपने विरुद्ध उठी प्रत्येक
आवाज को निर्दयता से कुचल देता है।
प्रश्न 2. शायर दुष्यन्त कुमार को किस बात का क्षोभ है ?
उत्तर
: शायर दुष्यन्त कुमार को क्षोभ इस बात का है कि उसने भारत के स्वाधीन होने पर प्रत्येक
नागरिक की सुख-सम्पन्नता का सपना देखा था, परन्तु भारत के आजाद होने के बाद उसके एक
अंश की भी पूर्ति नहीं हुई है। पूरा देश शोषण और गरीबी झेल रहा है।
प्रश्न 3. दुष्यन्त कुमार की गज़लें परम्परागत गज़ल से किस प्रकार भिन्न
हैं ?
उत्तर
: गज़ल का अर्थ स्त्रियों से बातचीत करना है। अत: गज़ल में प्राय: हुश्नो-इश्क, हिज्र-विसाल,
गुस्तो-बुलबुल आदि का जिक्र होना ही गज़ल का असली रंग है। दुष्यन्त कुमार की गज़ल इस
परम्परागत स्वरूप से सर्वथा भिन्न है। उसमें देश की, समाज की तथा देश की राजनीतिक दशा
का वर्णन किया गया है। उसकी विषय-वस्तु गज़ल के पूर्व स्वरूप से अलग तरह की है।
प्रश्न 4. शायर उम्रभर के लिए कहाँ तथा क्यों जाना चाहता है?
उत्तर
: शायद अयोग्य और स्वार्थी नेताओं से शासित देश को त्यागकर हमेशा के लिए कहीं और जाना
चाहता है, जहाँ। शासन-व्यवस्था जन-हितकारी हो।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. 'कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए'-का तात्पर्य क्या
है ?
उत्तर
: कवि यहाँ स्वतन्त्रता मिलने से पूर्व भारत के लोगों की आकांक्षाओं का वर्णन कर रहा
है। लोग देश की स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहे थे। वे सोच रहे थे कि जब भारत में अपना
राज्य हो जायेगा तो प्रत्येक घर में दीपक जलाये जायेंगे और हर घर रोशनी से जगमगा उठेगा।
अर्थात् आजाद भारत में प्रत्येक नागरिक शोषण से मुक्त होगा और सुख-शान्ति तथा सम्पन्नता
का जीवन जीयेगा। लोगों को इस बात का पूरा विश्वास था, परन्तु कुटिल और स्वार्थी राजनीतिज्ञों
के कारण देश शोषण, गरीबी और आर्थिक बदहाली से त्रस्त है।
प्रश्न 2. निम्नलिखित पंक्ति में निहित भाव को स्पष्ट कीजिए -
'यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है'
उत्तर
: दरख्त विशाल वृक्ष को कहते हैं। उनकी छाया घनी और शीतल होती है तथा धूप से रक्षा
करती है। परन्तु दरख्तों की छाया में भी धूप लगने का निहितार्थ भिन्न है। दरख्त भारत
के भ्रष्ट और अकुशल राजनेताओं की ओर इंगित करता है। जिन भारतीय शासकों और नेताओं से
लोगों को सुख-सुविधाओं के विकास की आशा थी, वे अपने भ्रष्ट आचरण और अकुशलता के कारण
लोगों के कष्टों को बढ़ा रहे हैं। कवि ने यह बात “वृक्ष और छाया' के प्रतीकों द्वारा
कही है।
प्रश्न 3. ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए'-इस पंक्ति में
किन लोगों की ओर संकेत किया गया है ? सफ़र का क्या आशय है?
उत्तर
: 'ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए'-प्रस्तुत पंक्ति में शायर ने जिंस ‘सफ़र'
के बारे में बताया है कि वह देश के विकास तक पहुँचने का सफर है। आजादी के बाद भारत
विकास की ओर चलना चाहता है परन्तु विकास की इस यात्रा के पथिक लगनशील और सामर्थ्यवान
नहीं हैं। देश का विकास और नव-निर्माण देशवासियों की कर्मठता, परिश्रम और लगन से ही
होगा परन्तु भारतीय जन अकर्मण्य, आलसी तथा भाग्यवादी हैं। वे अपनी गरीबी तथा देश के
पिछड़ेपन को अपना भाग्य मानकर चुप बैठ जाते हैं और देश के उत्थान के लिए प्रयास नहीं
करते। ऐसे लोग इस विकास-यात्रा के पथिक बनने के योग्य ही नहीं हैं, शायर को यह बात
अत्यन्त दुःख देती है।
प्रश्न 4. खुदा को आदमी का ख्वाब' कहने का क्या आशय है -
उत्तर
: शायर मानता है कि ईश्वर की कल्पना आदमी ने ही की है। पाश्चात्य विचारक एवं समाजशास्त्री
भी लोक के अनुसार वह मानता है कि ईश्वर मनुष्य की कल्पना की उपज है। यह कल्पना एक हसीन
नज़ारे की तरह है, जिससे आदमी को सुख मिलता है। आदमी अपनी सफलता-असफलता का श्रेय ईश्वर
को देकर जिम्मेदारी से बच जाता है। अपनी गरीबी और शोषण को ईश्वर.की मर्जी कहकर अपने
निकम्मेपन को छिपा लेता है। किसी अज्ञात शक्ति से भय तथा उपकृत होने की भावना ही ईश्वर
को उसके मन में जन्म देती है। इस तरह ईश्वर मनुष्य की एक सुन्दर कल्पना है।
प्रश्न 5. गज़ल की क्या विशेषताएँ होती हैं ?
उत्तर
: गज़ल को हिन्दी में लाने का श्रेय दुष्यन्त कुमार को जाता है। गज़ल एक ऐसी काव्य-विधा
है जिसमें सभी शेर अपने पमें पूर्ण तथा एक-दूसरे से स्वतन्त्र होते हैं। उनमें किसी
प्रकार का कोई क्रम नहीं होता। इन शेरों को मिलाकर एक रचना (गज़ल) का रूप देने के लिए
दो बातों का ध्यान रखा जाता है। गज़ल में पहले शेर की दोनों पंक्तियों को तुक मिलाती
है। बाद में प्रत्येक शेर की दूसरी पंक्ति की तुक भी उसी प्रकार मिलती है। जैसे-
कहाँ
तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ
चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहाँ
दरख्तों के साये में धूप लगती है,
चलो
यहाँ से चलें उम्र भर के लिए।
दूसरी
बात है कि विषय-वस्तु के स्तर पर, मिजाज का ध्यान रखना। गज़ल में शीर्षक देने का चलन
नहीं होता। प्रत्येक शेर अपने आप में स्वतन्त्र होने के कारण उसका कोई केन्द्रीय भाव
नहीं होता।
प्रश्न 6. भाव स्पष्ट कीजिए -
वे
मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं
बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए।
उत्तर
: शायर ने यहाँ पहली पंक्ति में लोगों के इस विचार को प्रकट किया है कि व्यवस्था अत्यन्त
कठोर और क्रूर होती है। उसमें परिवर्तन नहीं हुआ करता। व्यवस्था में परिवर्तन होगा,
ऐसा सोचना पत्थर से सिर टकराना है। सिर फूट जायेगा लेकिन पत्थर नहीं टूटेगा। इसी विश्वास
के कारण लोग गरीबी और शोषण के विरुद्ध खड़े नहीं होते। परन्तु शायर का कर्तव्य होता
है कि वह लोगों को निहित स्वार्थ तथा दोषपूर्ण व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करने की
प्रेरणा दे। वह बताये-शोषण के विरुद्ध आवाज उठाओ, मेरे देशवासियो! तुम्हारी मजबूत सम्मिलित
आवाज बहरे शासकों को अवश्य सुनाई देगी। कवि आवाज का असर जानने के लिए बेकरार है, क्योंकि
उसका विश्वास है कि बुराई के विरुद्ध उठी आवाज निरर्थक नहीं जाती। इसी से मिलता-जुलता
भाव निम्नलिखित शेर में भी व्यक्त हुआ है -
कौन
कहता है कि आसमां में सुराख नहीं होता।
एक
पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।
प्रश्न 7. "ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए"-कवि ने यहाँ
किस एहतियात का जिक्र किया है ?
उत्तर
: 'बहर' उर्दू कविता में छन्द को कहते हैं। शायर अपनी बात छन्दों में ही व्यक्त करता
है। शोषण भरी शासन व्यवस्था का विरोध शायर ही करता है। वही लोगों को संघर्ष की प्रेरणा
देता है। परन्तु शासन व्यवस्था कठोर और निर्दयी होती है। वह शायर का दमन करती है, उसकी
वाणी-स्वातन्त्र्य पर रोक लगा देती है। ऐसी अवस्था में शायर को सावधानी रखनी पड़ती
है। अपने कर्तव्य (लोगों को जगाने और शोषण का विरोध करने) को सावधानी से पूरा करना
होता है। सावधानी बहर (छन्द) से नहीं छन्द के रचनाकार शायर को रखनी होती है। अर्थात्
कवि को समाज में चेतना लाने का कार्य बहुत ही सावधानीपूर्वक करना है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न : 'साये में धूप'शीर्षक गज़ल का प्रतिपाद्य क्या है?
Ø 'साये में धूप'शीर्षक गज़ल में शायर ने क्या संदेश दिया है?
उत्तर
: 'साये में धूप' दुष्यन्त कुमार द्वारा रचित हिन्दी गज़ल है। इस गज़ल का प्रतिपाद्य
है - व्यवस्था में परिवर्तन के लिए संघर्ष करना। बिना व्यवस्था को बदले लोगों को शोषण
से मुक्ति मिलने वाली नहीं। इसके लिए हर प्रकार के त्याग-बलिदान के लिए तत्पर रहना
होगा।
भारतवासियों
का सपना है - एक स्वतन्त्र, सुखी, सम्पन्न और समानतावादी भारत। देश का कोई नागरिक शोषित,
पीडित, भूखा और गरीब नहीं रहे। शासकीय उपेक्षा, भ्रष्टाचार और अकुशल तथा अदूरदर्शी
नेतृत्व ने भारत की इन आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया है।
कहाँ
चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
भारत
की शासन-व्यवस्था जन - हितकारी नहीं है। इस व्यवस्था को बदलने की जरूरत है। वे भारतीय
शोषण और गरीबी को अपनी नियति मानकर सहन कर लेते हैं। वे भाग्य का नाम लेकर अपनी अकर्मण्यता
छिपा लेते हैं। भगवान की मर्जी से ही सब होता है-यह विश्वास उनको निकम्मा तथा कायर
बना रहा है।
लोगों
का विश्वास है कि शासन-व्यवस्था, समाज-व्यवस्था में परिवर्तन नहीं हो सकता। (वे मुतमइन
हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता)। परन्तु कवि इस विश्वास से सहमत नहीं है। वह लोगों को
संघर्ष के लिए, अपनी गरीबी के विरुद्ध लड़ने के लिए आवाज उठाने की प्रेरणा शासन के
दमन की परवाह न करके, देता रहना चाहता है। वह कहता है-आपकी आवाज का असर अवश्य होगा।
कवि संदेश देता है कि देश-हित के लिए जीना-मरना ही हमारा कर्तव्य है।
गजल (सारांश)
कवि-परिचय
- 'गज़ल' उर्दू की साहित्यिक विधा है। उसको हिन्दी में स्थापित करने का श्रेय दुष्यन्त
कुमार को ही दिया जा सकता है।
जीवन-परिचय
- दुष्यन्त कुमार का जन्म उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के राजपुर नवादा गाँव में सन्
1933 को हुआ था। उनकी शिक्षा चंदौसी जिला मुरादाबाद और इलाहाबाद में हुई थी। आजीविका
के लिए दुष्यन्त ने आकाशवाणी तथा मध्यप्रदेश के विभाग में नौकरी की थी। वह स्वभाव से
बेफिक्र और हंसमुख व्यक्ति थे। दुष्यन्त का देहावसान अल्पायु में ही सन् 1975 में हो
गया था, किन्तु इस छोटे से जीवन की साहित्यिक उपलब्धियाँ कम नहीं हैं।
साहित्यिक
परिचय - दुष्यन्त कुमार का साहित्यिक जीवन उनके इलाहाबाद निवास
के समय से ही आरम्भ हो गया था। वह वहाँ 'परिमल' नामक साहित्यिक संस्था की गोष्ठियों
में सक्रिय रूप से भाग लेते थे। 'नए पत्ते' नामक महत्वपूर्ण पत्र से भी दुष्यन्त.जुड़े
हुए थे। हिन्दी के श्रेष्ठ गज़लकार के रूप में दुष्यन्त अपने गज़ल-संग्रह, 'साये में
धूप' से ही स्थापित हो गये थे। दुष्यन्त 'नयी कविता' से सम्बन्धित रहे हैं। वह निजी
गहन अनुभूतियों के रोमांटिक भावनाओं के कवि हैं।
दुष्यन्त
ने अपनी संवेदनाओं को सहज एवं अनौपचारिक भाषा में प्रस्तुत किया है। उसमें बनावट-सजावट
का अभाव है। उन्होंने गज़ल के माध्यम से हिन्दी और उर्दू को निकट लाने का काम भी किया
है। जन-भाषा में कविता लिखना बहुत ही चुनौतीपूर्ण काम है और दुष्यन्त ने इस चुनौती
को स्वीकार किया है। उनके काव्य में सामाजिक यथार्थ तथा शोषितों के हितों के लिए प्रतिबद्धता
व्यंजित हुई है। दुष्यन्त ने ही गज़ल को हिन्दी में प्रतिष्ठित स्थान दिलाया है। साहित्यिक
गुणवत्ता से समझौता न करके भी कवि ने खूब लोकप्रियता अर्जित की है। साहित्यिक एवं राजनैतिक
गोष्ठियों में उनके शेर. लोकोक्तियों की तरह दुहराए जाते हैं।
रचनाएँ
- दुष्यन्त कुमार की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-'सूर्य का स्वागत', 'आवाजों के घेरे,
'साये में धूप, 'जलते हुए वन का बसन्त' उनके काव्य-ग्रन्थ हैं। 'एक कंठ विषपायी' शीर्षक
उनका गीति-नाट्य एक महत्त्वपूर्ण कृति है। उन्होंने 'छोटे-छोटे सवाल', 'आँगन में एक
वृक्ष' तथा 'दोहरी जिंदगी' शीर्षक उपन्यासों की भी रचना की है।
सप्रसंग व्याख्याएँ एवं अर्थग्रहण तथा सौन्दर्य - बोध पर आधारित प्रश्नोत्तर
1.
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
यहाँ
दरख्तों के साये में धूप लगती है,
कहाँ
चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
चलो
यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
शब्दार्थ :
·
तय = निश्चित।
·
चिरागौं = दीपक।
·
हरेक = प्रत्येक।
·
मयस्सर = उपलब्धा
·
दरख = पेड़, वृक्षा
·
साये में = छाया में।
·
उम्र भर के लिए = हमेशा
के लिए।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित
कवि दुष्यंत कुमार की 'गजल' से लिया गया है। कवि को देश के स्वतंत्रता सेनानियों के
सपनों और आशाओं को स्वतंत्र भारत में साकार न होते देखकर निराशा हो रही है।
व्याख्या
-
कवि कहता है कि जब भारत के लोग देश की स्वतन्त्रता के लिए लड़ रहे थे, तो यह निश्चय
किया गया था कि देश में प्रत्येक के घर में दीपक जलाये जायेंगे और सुख समृद्धि का प्रकाश
फैलाया जायेगा। किन्तु देश के स्वतंत्र हो जाने पर भी आशानुकूल विकास कार्य नहीं हो
पाए हैं। आशय यह है कि स्वतन्त्रतापूर्व देशवासियों ने स्वतन्त्रता मिलने के बाद अपनी
सुख-समृद्धि के जो सपने देखे थे, वे प्रजातन्त्र में कुशासन के कारण उनका एक भी सपना
पूरा नहीं हुआ है।
यहाँ
ऐसे वृक्ष हैं कि उनकी छाया धूप से रक्षा नहीं कर पाती। उन वृक्षों की छाया में भी
यात्री को धूप की तपन सहनी होती है। ऐसा स्थान ठहरने योग्य नहीं होता। चलो इसे छोड़कर
हमेशा के लिए किसी और स्थान पर चले जायें। कवि का तात्पर्य है कि भारतीय-जनतन्त्र के
नेता तथा प्रशासक अपना कर्तव्य ठीक प्रकार निर्वाह नहीं कर रहे हैं। उनके शासन में
जनता को सुख-शान्तिपूर्ण जीवन बिताने का अवसर नहीं मिल रहा। कवि निराश होकर पलायन की
प्रवृत्ति प्रकट करता है और ऐसे देश को जहाँ जनता का शोषण और उत्पीड़न हो रहा है, त्यागकर
सदा-सदा के लिए कहीं और जाना चाहता है।
अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों और जनता ने स्वतंत्रता के बाद
देश के लिए क्या-क्या निश्चय किए थे?
उत्तर
: भारत की स्वाधीनता से पूर्व तय किया गया था कि हर घर में चिराग जलाये जायेंगे, रोशनी
की जायेगी, आशय यह है कि जनता ने सोचा था कि स्वतंत्रता प्राप्त होने के पश्चात् भारत
के घर-घर में समृद्धि तथा सम्पन्नता होगी। प्रत्येक देशवासी प्रसन्न होगा और गरीबी
तथा बेरोजगारी जैसी समस्याएँ नहीं रहेंगी। लोगों की आवश्यकतायें आसानी से पूरी होंगी।
प्रश्न 2. 'कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए'-का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: सारे देश के विकास की बात तो दूर है। कवि के अनुसार एक शहर का भी पूर्ण विकास नहीं
हो पाया। भ्रष्ट शासन और प्रशासन के कारण देश के नागरिकों को अनेक कठिनाइयों से जूझना
पड़ रहा है। आवश्यक वस्तुओं का अभाव है। बेरोजगारी है, गरीबी है तथा शोषण की मार है।
स्वतन्त्रता से पहले जनता ने समृद्धि के जो सपने देखे थे वे भंग हो चुके हैं।
प्रश्न 3. दरख्तों के साये में धूप लगने का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर
: दरख्त की छाया शीतल होती है। लोग उनके नीचे खड़े होकर धूप से अपनी रक्षा करते हैं
परन्तु स्वतंत्र भारत में दरख्तों की छाया में भी धूप सताती है। दरख्त, शब्द का प्रतीकार्थ
है-भारत के बड़े नेता और अधिकारी। भारत के नेता तथा अधिकारी भ्रष्ट, स्वार्थी और आरामतलब
हैं। वे जनता के कष्टों की चिन्ता नहीं करते। उनकी जानकारी में ही अनेक अवैधानिक कार्य
होते हैं।
प्रश्न 4. अन्तिम पंक्ति में जनता के किस मनोभाव की व्यंजना हुई है?
उत्तर
: अन्तिम पंक्ति में जनता की घोर निराशा की व्यंजना हुई है। जनता देश की शासन व्यवस्था
से ऊब चुकी है और निराश हो चुकी है। समस्याएँ जस की तस हैं। उनका समाधान नहीं हो रहा।
जनता को लग रहा है कि प्रचलित व्यवस्था में उनकी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता।
इस पंक्ति में पलायन की भावना व्यक्त हुई है। लोग यहाँ से सदा के लिए कहीं और चले जाना
चाहते हैं।
काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. प्रस्तुत हिन्दी गज़ल की भाषा कैसी है ?
उत्तर
: प्रस्तुत गज़ल हिन्दी की है। गज़ल उर्दू में विकसित हुई विधा है। इस गंज़ल में भी
उर्दू शब्दावली का प्राधान्य है। चिराग, मयस्सर, दरख्त, साया आदि ऐसे ही शब्द हैं।
वैसे भाषा भावानुकूल है, उसमें प्रतीकात्मकता है। चिराग, दरख्त, साधन आदि शब्द प्रतीकात्मक
हैं जो कि समृद्धि, बड़े राजनेताओं तथा संरक्षण को सूचित करते हैं।
प्रश्न 2. 'दरख्तों के साये में धूप लगती है'-का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर
: 'दरख्त' बड़े नेताओं तथा अफसरों का प्रतीक है। इस पंक्ति का प्रतीकार्थ है कि देश
के महान् नेता तथा प्रशासक जनता की समस्याओं का समाधान नहीं कर सके हैं। बहुत बार तो
वे ही भ्रष्टाचार में फंसे हुए दिखाई देते हैं। इस पंक्ति में विरोधाभास अलंकार है।
जहाँ दो वस्तुओं में विरोध न होने पर भी विरोध की प्रतीति हो वहाँ विरोधाभास अलंकार
होता है। वृक्षों की छाया धूप से बचाती है, परन्तु उनकी छाया में धूप लगने से विरोधाभास
अलंकार है।
2.
न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढंक लेंगे,
खुदा
नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही,
ये
लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए।
कोई
हसीन नज़ारा तो है नजर के लिए।
शब्दार्थ :
·
मुनासिब = अनुकूल।
·
सफर = यात्रा।
·
खुदा = ईश्वर,
·
परमात्मा ख्वाब = सपना।
·
हसीन = सुन्दर।
·
नजारा = दृश्य।
·
नज़र = दृष्टि, देखना।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित
कवि दुष्यंत कुमार की 'गज़ल' से लिया गया है। यहाँ कवि भारतीयों के भाग्यवाद पर भरोसे
की बात कह रहा है।
व्याख्या
- कवि कहता है कि हमारे देश के अधिकांश लोग भाग्यवादी हैं। वे संघर्ष से बचने का प्रयत्न
करते हैं। अगर उनके पास कपड़े नहीं हैं या कम हैं तो उनकी पूर्ति का प्रयास करने के
बजाय वे पैरों से पेट ढ़ककर ही गुजारा कर लेंगे। ऐसे भाग्यवादी लोग कठिनाइयों से पूर्ण
जीवन-यात्रा कैसे पूरी कर पाएंगे? आशय यह है कि अपने अधिकारों के लिए आवाज न उठाने
वाले भारतीय लोग देश के शासकों और प्रशासकों के लिए बड़े अनुकूल होते हैं। उनके चुप
रहकर गरीबी और शोषण सहन करने के कारण ही भारत के नेता बेफिक्र रहकर अपनी दौलत में इजाफा
करते रहते हैं। इनके कुशासन को कोई चुनौती नहीं मिलती।
यदि
ईश्वर नहीं है तो चिन्ता की कोई बात नहीं है। आदमी ने ईश्वर नाम की जिस शक्ति की कल्पना
कर रखी है, वह तो उसके पास है ही। कठिनाइयों से भरी जिंदगी बिताने के लिए ईश्वर पर
विश्वास करना आदमी को सुन्दर भविष्य की आशा दिलाता है। यह भाग्यवादिता भ्रष्ट शासकों
के लिए वरदान के तुल्य है।
अर्थ-ग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. पाँवों से पेट ढकने का क्या आशय है ?
उत्तर
: पाँवों से पेट ढंकना एक प्रतीकात्मक प्रयोग है। इसका आशय यह है कि भारत के लोग अत्यन्त
संतोषी होते हैं। वे भाग्यवादी होते हैं तथा अभावों में भी सन्तुष्ट रहते हैं। वे अपने
अभावों को दूर करने के लिए परिश्रम करने के स्थान पर उनको अपनी नियति मान लेते हैं।
इस मुहावरे का यह प्रतीकार्थ भी है कि गरीब भारतीय गरीबी को दूर करने के लिए संघर्ष
करने के बजाय उसे छिपाने की चेष्टा में लगे रहते हैं।
प्रश्न 2. संतोषी एवं भाग्यवादी लोगों को किस सफर के लिए मुनासिब कहा
गया है ?
उत्तर
: संतोषी एवं भाग्यवादी लोग अभावों में भी सन्तुष्ट रहते हैं। अभावों तथा कमी की शिकायत
वे नहीं करते। वे अभावों के लिए उत्तरदायी अव्यवस्था के विरुद्ध उठकर खड़े भी नहीं
होते। भाग्य का विधान मानकर सब चुपचाप सहन कर लेते हैं। अन्याय, शोषण, स्वार्थ और उत्पीड़न
की कुव्यवस्था चलाने वाले राजनेताओं तथा अधिकारियों के लिए ऐसे लोग अत्यन्त हितकर होते
हैं। उनके कारण उन्हें अपने गलत कामों को करने की छूट मिल जाती है।
प्रश्न 3. धर्म और ईश्वर के बारे में गजल लेखक ने क्या कहा है?
उत्तर
: धर्म और ईश्वर को कवि ने एक सुन्दर सपना बताया है। कवि की दृष्टि में ईश्वर मनुष्य
की एक सुन्दर कल्पना है। वह उसकी दृष्टि के लिए एक खूबसूरत नजारा है। खुदा हो या न
हो मगर वह आदमी का एक ख्वाब तो है।
प्रश्न 4. ईश्वर की सुन्दर कल्पना का क्या परिणाम होता है?
उत्तर
: मनुष्य ने ईश्वर की कल्पना की है। उसकी कल्पना का ईश्वर सर्वोच्च सत्ता से सम्पन्न
तथा परम शक्तिशाली है। वह अपनी अकर्मण्यता को ईश्वर की इच्छा मानकर अपनी गरीबी और शोषण
को चुपचाप बिना विरोध किये सहता रहता है। अथवा पहले किया गया अपना कर्म-फल मान लेता
है।
काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. उपर्युक्त शेर में प्रयुक्त भाषा-शैली कैसी है?
उत्तर
: उपर्युक्त शेर हिन्दी गज़ल 'साये में धूप' का हिस्सा है। गज़ल उर्दू साहित्य की एक
विधा है। इस शेर में गजल लेखक ने उर्दू शब्दों के प्रयोग में कोई संकोच नहीं किया है।
मुनासिब, सफर, खुदा, ख्वाब, हसीन, नज़ारा और नज़र आदि उर्दू शब्दों का खुलकर प्रयोग
हुआ है। भाषा में प्रवाह है तथा वह गतिशील है। शैली में प्रतीकात्मक है। लोगों की संतोष-वृत्ति
पर व्यंग्य किया गया है।
प्रश्न 2. उपर्युक्त शेर के आधार पर गज़ल की प्रमुख विशेषताएँ बताइये।
उत्तर
: उपर्युक्त दुष्यंत कुमार की गजल 'साये में धूप' के दो शेर हैं। गजल की काव्य-विधा
के अनुसार दोनों ही शेर अपने भाव में पूर्ण तथा स्वतन्त्र हैं। एक का दूसरे से कोई
सम्बन्ध नहीं है। गज़ल तुकान्त होती है। उसकी पहली दोनों पंक्तियों की तुक मिलती है।
बाद में प्रत्येक शेर की दूसरी पंक्ति की तुक मिलती है। यहाँ दूसरी तथा चौथी पंक्तियों
के अन्त में तुकान्त शब्द 'लिए' का प्रयोग हुआ है।
3.
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
ये
एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए।
मैं
बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए।
जिएँ
तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
तेरा
निज़ाम है सिल दे जुबान शायर की,
मरें
तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
शब्दार्थ :
·
मुतमइन = विश्वास के
साथ, निश्चित।
·
बेकरार = बेचैन, व्याकुला
·
असर = प्रभाव।
·
निजाम = शासन।
·
सिल दे सिलाई कर दे,
बन्द कर दे।
·
जुबान = जीभ, आवाज।
·
शायर = कवि।
·
एहतियात = सावधानी।
·
जरूरी = आवश्यक।
·
बहर = छन्द, कविता,
शायरी।
·
गुलमोहर = एक फूलदार
वृक्षा
·
गैर = पराये लोग।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित
कवि दुष्यंत कुमार की 'गज़ल' से अवतरित है। कवि चाहता है कि लोग शोषण के विरुद्ध अपनी
आवाज उठायें।
व्याख्या
- कवि कहता है कि भारत की जनता को विश्वास है कि पत्थर पिघल नहीं सकता। इसी विश्वास
के कारण वे भ्रष्ट या निकम्मे शासन के विरुद्ध आवाज नहीं उठाते। वे मान बैठे हैं कि
व्यवस्था अपने अनुसार ही चला करती है और चन्द लोगों के लिए वह बदला नहीं करती। परन्तु
कवि की बेचैनी यह है कि वह लोगों को शोषण के विरुद्ध आवाज उठाते हुए देखना चाहता है।
वह मानता है कि आवाज संगठित और दृढ़ होगी, उस में असर होगा, तो व्यवस्था में अवश्य
बदलाव आएगा। शोषण उसको सहते रहने से नहीं; उसके विरुद्ध उठ खड़े होने से ही मिटेगा।
कवि शोषण के विरोध में उठने वाली जनता की आवाज सुनने के लिए बेचैन है। उसकी आवाज को
ताकत देने के लिए पूरा प्रयास कर रहा है।
शायर
कहता है कि देश को जगाने वाले कवियों की कविता से अयोग्य शासक घबराते हैं। वे कवियों
पर पाबन्दी लगा देते हैं। उनकी जबान पर ताला लगाना चाहते हैं। अतः कवि को इस स्थिति
के लिए सदैव सावधान और तत्पर रहना होगा। कवि का आशय है कि क्रान्ति का संदेश देने वाले
शायर को शासन की दमनकारी प्रवृत्ति से सतर्क रहना चाहिए तथा लोगों को भी सावधान करते
रहना चाहिए कि वे संगठित होकर निर्भीक भाव से शोषण का विरोध करें। सच्चे कवि के लिए
यह सावधानी बड़ी जरूरी है।
कवि
कहता है कि हम अपने बगीचे में जिएँ तो उसमें उगे गुलमोहर के वृक्ष के नीचे जिएँ और
यदि मरें तो परायों की गलियों में इसी गुलमोहर के लिए मरें। तात्पर्य यह है कि हमारा
कर्त्तव्य है कि हम अपने देश की समृद्धि और विकास के लिए अपना जीवन खपा दें। अपने देश
की उन्नति के लिए यदि हमें मृत्यु को भी स्वीकार करना पड़े तो भी हम अपने कदम पीछे
न हटायें। हमारा कर्तव्य है कि हम स्वदेश और स्वदेश-वासियों के हित के लिए ही जीवित
रहें और उन्हीं के लिए अपना जीवन दे दें।
अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. 'पत्थर पिघल नहीं सकता' से क्या आशय है ?
उत्तर
: गज़लकार ने यहाँ स्वदेशवासियों के मिजाज का वर्णन किया है। भारतीयों को दृढ़ विश्वास
है कि व्यवस्था कुछ लोगों के कारण और कुछ लोगों के लिए बदला नहीं करती। वह अपने एक
निश्चित ढरें पर चला करती है। शासन कठोर होता है तथा उसके द्रवित होने की आशा करना
ठीक नहीं है।
प्रश्न 2. शायर की बेकरारी का क्या कारण है ?
उत्तर
: शायर जानता है कि व्यवस्था हृदयहीन हुआ करती है। उसके बदलने और सहानुभूतिपूर्ण होने
का विश्वास लोगों को नहीं है। लेकिन शायर बदलाव के पक्ष में है। उसको विश्वास है कि
उसकी कविता और जनता के दृढ़ विरोध से एक दिन व्यवस्था अवश्य बदलेगी। इस परिवर्तन को
देखने के लिए वह बेकरार है।
प्रश्न 3. कवि ने शासन की किस मनोवृत्ति का उल्लेख किया है ?
उत्तर
: कवि ने कहा है कि शासन कठोर होता है। व्यवस्था हृदय-हीन होती है तथा वह कुछ लोगों
के कारण और कुछ लोगों के लिए बदला नहीं करती। दमन करना शासन की प्रवृत्ति होती है।
प्रश्न 4. शायर ने किस बारे में एहतियात को जरूरी माना है ?
उत्तर
: शायर मानता है कि शासन कठोर होता है। वह विरोध को बर्दाश्त नहीं करता। दमनकारी प्रवृत्ति
से सतर्क रहना चाहिए तथा संगठित होकर शोषण और दमन का विरोध करना चाहिए।
काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. 'गुलमोहर' किसका प्रतीक है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: 'गुलमोहर' एक फूलदार वृक्ष होता है। यहाँ 'गुलमोहर' स्वदेश की समृद्धि और सम्पन्नता
के प्रतीकस्वरूप प्रयुक्त हुआ है। कवि कहना चाहता है कि हम स्वदेश में हों तो अपने
देश की समृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहकर जीवन बितायें। यदि हम विदेश में रह रहे हों
तो अपने देश को समृद्ध और सम्पन्न बनाने के लिए त्याग करें।
प्रश्न 2. 'तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की'-का काव्य-सौन्दर्य
प्रकट कीजिए।
उत्तर : 'तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की' में लक्षणा का प्रयोग है। इसका लाक्षणिक अर्थ है कि शासन कठोर होता है और क्रान्ति का संदेश देने वाले शायर भी उसको दमन से बच नहीं पाते। जो व्यवस्था को बदलने की बात करते हैं वे उसके दमन का शिकार होते हैं।