पाठ्यपुस्तक आधारित प्रश्नोत्तर
कविता के साथ
प्रश्न 1. 'माटी का रंग' प्रयोग करते हुए किस बात की ओर संकेत किया
गया है ?
उत्तर
: 'माटी का रंग' वाक्यांश का प्रयोग करके कवयित्री ने संथाल के लोकजीवन की विशेषताओं
की ओर संकेत किया है। वह बताना चाहती है कि ये संथाल के लोग झारखण्डी भाषा का प्रयोग
करते हैं। उनके जीवन में उल्लास होता है। उनके मन में मधुरता होती है। वे भोले होते
हैं परन्तु आत्म-सम्मान के लिए उनमें संघर्ष करने की भावना तथा अक्खड़पन होता है।
प्रश्न 2. भाषा में झारखण्डीपन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर
: भाषा में झारखण्डीपन का अभिप्राय है-झारखण्ड की भाषा की स्वाभाविकता तथा मौलिकता।
उच्चारण में झारखण्ड की भाषा की विशेषताओं का ध्यान रखना। झारखण्ड के निवासी जिस प्रकार
की भाषा का प्रयोग करते हैं, उसको उसी प्रकार बिना किसी बनावट के अथवा बिना अन्य भाषाओं
की मिलावट के प्रयोग करना भी इसका अभिप्राय है।
प्रश्न 3. दिल के भोलेपन के साथ-साथ अक्खड़पन और जुझारूपन को भी बचाने
की आवश्यकता पर क्यों बल दिया गया है?
उत्तर
: कवयित्री मानती है कि झारखण्डी लोगों का मन पवित्र होता है। वे स्वभाव से भोले होते
हैं। परन्तु उनमें अक्खड़पन और जुझारूपन भी होता है। स्वभाव के भोलेपन के साथ अक्खड़पन
और संघर्षशीलता का गुण कवयित्री को विरोधी नहीं पूरक ही दिखाई देता है। प्रायः भोले
लोग ही अनीति के विरुद्ध तनकर खड़े होते हैं तथा संघर्ष करते हुए कठोर रुख अख्तियार
करते हैं। चालाक मनुष्य तो बुराई के विरोध को भी हानि-लाभ से गुणा करके देखता है। भोले
लोगों को अत्याचार सहन नहीं होता और वे विरोध के लिए उतर पड़ते हैं। अत: कवयित्री चाहती
है कि दिल के भोलेपन के साथ उनके अक्खड़पन तथा जुझारूपन की भी रक्षा हो।
प्रश्न 4. प्रस्तुत कविता आदिवासी समाज की किन बुराइयों की ओर संकेत
करती है ?
उत्तर
: प्रस्तुत कविता में आदिवासी समाज की कुछ बुराइयों का भी वर्णन किया गया है। शहर की
दूषित संस्कृति के कारण संथाल समाज में नंगापन आ गया है। लोग अमर्यादापूर्ण आचरण करने
लगे हैं। धरती हरियाली के अभाव में नंगी दिखाई दे रही है। लोगों के आपसी सम्बन्धों
में ठण्डापन आ गया है।
प्रश्न 5. 'इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है' से क्या आशय है
?
उत्तर
: कवयित्री मान रही है कि यह समय शहर की अप-संस्कृति की वृद्धि का है। शहरीकरण ने संथाली
जीवन की मौलिकता में अनेक परिवर्तन ला दिए हैं। वहाँ का पर्यावरण दूषित कर दिया है,
परन्तु ऐसी स्थिति में भी वहाँ के लोकजीवन में अनेक सद्गुण तथा विशेषताएँ हैं। जिनको
बचाना आवश्यक है। वहाँ जो थोड़ा-सा विश्वास, आशा और आकांक्षा बची है, उनको बचाना जरूरी
है। उन्हीं के शब्दों में थोड़ा-सा विश्वास थोड़ी-सी उम्मीद थोड़े-से सपने आओ, मिलकर
बचाएँ।
प्रश्न 6. निम्नलिखित पंक्तियों के काव्य-सौन्दर्य को उद्घाटित कीजिये
-
(क) ठण्डी होती दिनचर्या में जीवन की गर्माहट
(ख) थोड़ा-सा विश्वास थोड़ी-सी उम्मीद थोड़े-से सपने आओ, मिलकर बचाएँ।
उत्तर
: काव्य-सौन्दर्य
(क)
'ठण्डी होती दिनचर्या' एक लाक्षणिक प्रयोग है। इसका आशय है वह दैनिक क्रिया-कलाप जिसमें
न उत्साह हो न उमंग। जो एक बँधी-बँधाई गति से चलता जाता हो। 'जीवन की गर्माहट' में
भी सांकेतिकता है। गर्माहट जीवन की सजगता एवं उमंग-उत्साह का प्रतीक है। इन दोनों कथनों
में सांकेतिक भाषा के कारण प्रतीकात्मकता है। इन पंक्तियों का अर्थ-गाम्भीर्य प्रशंसनीय
है। मुक्त छन्द अतुकान्त है, किन्तु शैली में प्रवाह है। भाषा सरल है।
(ख)
(i) कवयित्री ने शहरी दुष्प्रभाव के उपरान्त भी संथाली लोकजीवन के बचे हुए सद्गुणों
और विशेषताओं की रक्षा का आग्रह किया है। अपनी मातृभूमि के प्रति कवयित्री का प्रेम
प्रशंसनीय है।
(ii)
इस छन्द में हिन्दी और उर्दू के शब्दों का मिश्रित प्रयोग अत्यन्त प्रभावशाली बन पड़ा
है।
(iii)
मुक्त छन्द है जो तुकान्त नहीं है। कथन अत्यन्त प्रभावशाली है।
(iv)
कवयित्री ने संथाली समाज में शेष बचे विश्वास, आशा और सपनों के लिए थोड़ा-सा, थोड़ी-सी,
थोड़े-से शब्दों का प्रयोग किया है जो अत्यन्त प्रभावपूर्ण बन पड़ा है। इनसे अभिव्यक्ति
को बल मिलता है।
प्रश्न 7. बस्तियों को शहर की किस आबो-हवा से बचाने की आवश्यकता है
?
उत्तर
: प्राकृतिक वातावरण के बीच बसी बस्तियों में प्रकृति का पवित्र और मौलिक प्रभाव रहता
है। वहाँ का जीवन अकृत्रिम तथा नैसर्गिक होता है। शहर की आबो-हवा में प्रकृति से दूरी,
अपवित्रता, बनावटीपन, छल-कपट आदि बुराइयाँ होती हैं। उसमें नीरसता, उत्साहहीनता, एक
ढर्रे पर चलती हुई बँधी-बँधाई जिन्दगी तथा संवेदनहीनता होती है। बस्तियों को इन बुराइयों
से बचाना आवश्यक है।
कविता के आस-पास
प्रश्न 1. आप अपने शहर या बस्ती की किस चीज को बचाना चाहेंगे?
उत्तर
: हम अपने शहर या बस्ती की मौलिक विशेषताओं को बचाना चाहेंगे क्योंकि उसकी पहचान विश्व
में इन्हीं चीजों से होती है। हम यह भी चाहेंगे कि कुछ ऐतिहासिक धरोहरों की भी रक्षा
हो, जो हमारे शहर की शान हैं।
प्रश्न 2. आदिवासी समाज की वर्तमान स्थिति पर टिप्पणी करें।
उत्तर
: आदिवासी समाज पर शहरी सभ्यता के बढ़ते प्रभाव के कारण उसकी मौलिकता नष्ट हो रही है।
शिक्षा के प्रसार, संचार-साधनों के विस्तार तथा नगर की संस्कृति से सम्पर्क के कारण
आदिवासी समाज का जीवन बदल रहा है तथा पर्यावरण के विनाश के कारण प्रदूषण भी बढ़ रहा
है। आदिवासी समाज अपना नैसर्गिक आकर्षण खोता जा रहा है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. 'आदिवासियों का समाज स्वयं में सम्पूर्ण है।' यह बात कवयित्री
के किस कथन से सिद्ध होती है ?
उत्तर
: आदिवासियों का समाज स्वयं में सम्पूर्ण है-यह बात कवयित्री की निम्नलिखित पंक्तियों
से सिद्ध होती है -
'बच्चों
के लिए मैदान
पशुओं
के लिए हरी-हरी घास
बूढ़ों
के लिए पहाड़ों की शान्ति'
वहाँ
बच्चों-बूढ़ों (मनुष्यों) तथा पशुओं की आवश्यकताएँ पूरा करने के लिए सब कुछ है।
प्रश्न 2. 'इस दौर में भी बचाने को/ बहुत कुछ बचा है, अब भी हमारे पास'
से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर
: शहर की दूषित संस्कृति ने संथाली समाज को बहुत हानि पहुँचाई है परन्तु संथाली समाज
में अब भी ऐसी अनेक . अच्छाइयाँ बची हुई हैं, जिनको नष्ट होने से बचाया जा सकता है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. कवयित्री आदिवासियों की बस्तियों को शहरी आबो-हवा से क्यों
बचाना चाहती है ? शहरी-आबो-हवा से उसका तात्पर्य क्या है ?
उत्तर
: शहरी आबो-हवा से कवयित्री का तात्पर्य शहर की दूषित सभ्यता और संस्कृति से है, जिसमें
नग्नता तथा जड़ता के दुर्गुण हैं। इसमें पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाली बातें हैं
जो प्रदूषण फैलाती हैं। आदिवासियों की बस्तियाँ शान्त तथा मर्यादित जीवन जीती हैं।
वहाँ के निवासी पर्यावरण के अनुकूल चलते हैं। इस प्रकार उनका जीवन प्रकृति के नियमों
के अनुकूल होता है जबकि शहर की अप-संस्कृति प्रकृति के विरुद्ध तथा बनावटी जीवन-शैली
की प्रधानता है। कवयित्री नहीं चाहती है कि उसके परिवेश की मौलिकता नष्ट हो तथा वह
शहरी सभ्यता से दूषित हो जाय। अत: वह उसको शहरी आबो-हवा से बचाना चाहती है।
प्रश्न 2. आशय स्पष्ट कीजिये -
ठण्डी होती दिनचर्या में
जीवन की गर्माहट
मन का हरापन।
उत्तर
: कवयित्री देख रही है कि शहर की अप-संस्कृति के दुष्प्रभाव से संथाली जीवन की मौलिकता
नष्ट हो रही है तथा उसकी अनेक विशेषताएँ मिट रही हैं। उनके दैनिक क्रिया-कलाप पहले
उत्साह-उमंग के साथ चला करते थे, अब उनमें: गया है। अर्थात् उनमें पहले जैसे उत्साह
तथा उमंग देखने को नहीं मिलता है। उनकी जीवन-शैली नीरस तथा एक ढर्रेदार तरीके से ,
चलने वाली बन गई है। जीवन की गर्माहट समाप्त हो रही है। उनके मन की मधुरता भी धीरे-धीरे
नष्ट होती जा रही है। ये सभी बातें शहरी जीवन का प्रभाव पड़ने के कारण हो रही हैं।
अत: कवयित्री अपनी बस्तियों को शहरों के प्रभाव से बचाना चाहती है।
प्रश्न 3. कवयित्री ने संथाली लोगों के जीवन की कौन-सी विशेषताएँ बताई
हैं ? इनके सम्बन्ध में उसकी क्या चिन्ता है ?
उत्तर
: कवयित्री ने संथाली जीवन की अनेक विशेषताएँ बताई हैं। ये विशेषताएँ ही संथाली लोक-जीवन
की पहचान हैं। कवयित्री ने कविता में छोटे-छोटे वाक्यांशों में इन विशेषताओं को लिपिबद्ध
किया है। संथाली समाज के लोग अत्यन्त उत्साही होते हैं। वे कर्मठ तथा परिश्रमी होते
हैं। वे लोग सदा से धनुष-बाण अपने साथ रखते हैं। वे कुशल धनुर्धर होते हैं। धनुष-बाण
उनकी पहचान है। जंगल से लकड़ी काटने के लिए पैनी कुल्हाड़ी भी प्रत्येक घर में मिलती
है।
उनका
क्षेत्र वनों से ढका है। वन-प्रदेश में ताजा, शुद्ध हवा बहती है। वहाँ की नदियों में
स्वच्छ पवित्र पानी सदा बहता है। आदिवासी प्रदेश के पहाड़ों पर हमेशा शान्त वातावरण
बना रहता है। उस प्रदेश में वहाँ के लोकगीतों की धुनें सदा गूंजती रहती हैं। उस प्रदेश
की मिट्टी से सुन्दर गन्ध हमेशा उठती रहती है। वह प्रदेश हरा-भरा है तथा खेतों में
फसलें सदा लहराती रहती हैं। कवयित्री को चिन्ता है कि इस सुन्दर प्रदेश की ये विशेषताएँ
शहरी संस्कृति-सभ्यता के प्रसार के कारण नष्ट हो रही हैं। कवयित्री चाहती है कि वे
सुरक्षित रहें।
प्रश्न 4. आदिवासी जीवन अपने आप में ही सम्पूर्ण है। कवयित्री ने संथाली
जीवन की इस विशेषता के समर्थन में क्या कहा है ?
उत्तर
: कवयित्री का मानना है कि संथाली जीवन अपनी विशेषताओं के साथ अपने आप में ही सम्पूर्ण
है। उसमें वह सब कुछ उपलब्ध है जिसकी आवश्यकता वहाँ के निवासियों को होती है। उसको
बाहरी संसार से कुछ भी लेना-देना नहीं है। वहाँ के निवासी नृत्य-गान के शौकीन होते
हैं। उस प्रदेश में नाचने के लिए खुला आँगन हर घर में होता है। गाने के लिए गानों की
कोई कमी वहाँ नहीं है।
यदि
लोग हँसना चाहें तो खिलखिलाकर हँस सकते हैं। मन में दुःख के भाव उमड़ने पर वे एकान्त
स्थान पर रोकर अपना मन हल्का कर सकते हैं। खेल के शौकीन बच्चों के लिए वहाँ बड़े-बड़े
मैदान हैं। पशुओं के चरने के लिए हरी-हरी घास वहाँ प्रचुर मात्रा में आसानी से मिल
जाती है। समाज के बूढ़े स्त्री-पुरुष शान्ति की कामना से पहाड़ों पर जा सकते हैं। वहाँ
सर्वत्र सर्वदा शान्ति छायी रहती है। इस तरह संथालियों के जीवन में उनकी आवश्यकता की
हर वस्तु मिल जाती है और वह अपने आप में सम्पूर्ण है।
प्रश्न 5. संथाली लोक-जीवन की कौन-सी प्राकृतिक विशेषताएँ कवयित्री
को आकर्षित करती हैं ?
उत्तर
: संथाली समाज के लोग प्राकतिक जीवन जीते हैं। उनकी बस्तियाँ प्रकति के रम्य वातावरण
में बसी हुई हैं। वहाँ के वन-प्रदेश हरे-भरे हैं तथा वहाँ शुद्ध-ताजा हवा बहती रहती
है। वहाँ की नदियाँ सदा प्रवाहित रहती हैं तथा उनका पानी स्वच्छ और पवित्र होता है।
वहाँ के पहाड़ों पर सदा शान्ति का वातावरण रहता है। वयोवृद्ध संथाली स्त्री-पुरुष पहाड़ों
पर जाकर शान्तिपूर्वक रह सकते हैं।
वहाँ
बच्चों के खेलने के लिए मैदानों की कमी नहीं है। पशुओं के लिए भी विस्तृत चरागाह उपलब्ध
हैं, जिनमें सदा हरी-हरी घास पाई जाती है। वहाँ की मिट्टी से उठने वाली सोंधी गन्ध
मन को प्रसन्न करने वाली है। चारों ओर खेतों में लहराती हरी-भरी फसलें धरती को शस्य-श्यामला
बनाती हैं। संथाली लोक-जीवन की ये सभी विशेषताएँ कवयित्री को आकर्षित करती हैं।
प्रश्न 6. स्वाभाविक और मौलिक जीवन क्या होता है ? कवयित्री ने इसके
लिए किन विशेषताओं का होना आवश्यक माना है ?
उत्तर
: जो जीवन बनावटी न हो, जिसमें बाहरी दिखावा न हो और जो अपनी मूल परंपराओं से जुड़ा
हो, वही स्वाभाविक और मौलिक जीवन है। सभ्यता के प्रसार के साथ जीवन की यह विशेषता नष्ट
हो जाती है। उसमें अनेक दिखावटी बातें आ जाती हैं। उसकी स्वाभाविकता नष्ट होकर वह कृत्रिम
बन जाता है।
कवयित्री
ने माना है कि स्वाभाविक जीवन के लिए उसकी प्रकृति के साथ निकटता आवश्यक है। प्रकृति-विरुद्ध
जीवन स्वाभाविक नहीं हो सकता। चारों ओर छाई हरियाली, शुद्ध ताजा हवा, स्वच्छ जल से
भरी हुई नदियाँ, शान्त रहने वाले पहाड़-आत्म-निर्भर जीवन जीने में सहायक प्रकृति से
प्राप्त ये वस्तुएँ स्वाभाविक जीवन के लिए आवश्यक हैं।
प्रश्न 7. क्या शिक्षा और संचार साधनों का प्रसार आदिवासी समाज के हित
में नहीं है ? अपने मौलिक विचार व्यक्त कीजिये।
उत्तर
: भारत के स्वतन्त्र होने के पश्चात् विकास की गति तेज हो गई है। धीरे-धीरे उसकी पहुँच
आदिवासी क्षेत्रों तक हो रही है। आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा बढ़ रही है तथा संचार
के साधन टेलीविजन, रेडियो, टेलीफोन, मोबाइल तथा यातायात के लिए रेलगाड़ी तथा मोटरगाड़ियों
आदि की सुविधा वहाँ मिलने लगी है। इससे आदिवासी समाज की कुछ मौलिक विशेषताएँ जो सदियों
से चली आ रही थीं, वे नष्ट हो रही हैं। इन चीजों के प्रसार के साथ आदिवासी जीवन-शैली
बदल रही है। वे इन चीजों को अपना रहे हैं, उन क्षेत्रों से बाहर निकलकर बदल रही दुनिया
से परिचित हो रहे हैं। इससे उनकी गरीबी भी दूर हो रही है तथा रोजगार के नये साधन उपलब्ध
हो रहे हैं।
परिवर्तन
प्रकृति का नियम है। आज समस्त देश तेजी से बदल रहे हैं जो नहीं बदल रहा, वह पिछड़ रहा
है। ये ठीक है कि इनसे आदिवासी जीवन की पुरानी बातें नष्ट हो रही हैं परन्तु विकास
के लिए उनको प्रोत्साहन दिया जाना आवश्यक है। यह नहीं माना जा सकता कि शिक्षा और संचार
साधनों इत्यादि का प्रसार आदिवासियों के हित में नहीं है। इन नवीन बातों का प्रसार
करते समय यह भी प्रयास होना चाहिए कि आदिवासी-जीवन का सौन्दर्य बना रहे।
प्रश्न 8. 'आओ, मिलकर बचाएँ' कविता का मूलभाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: कवयित्री निर्मला पतल संथाली भाषा की साहित्यकार हैं। आपकी कविता 'आओ. मिलकर बचाएँ'
हमें संथाली लोगों के जीवन से परिचित कराती है तथा उसकी विशेषताओं को सुरक्षित बनाये
रखने का आह्वान करती है। संथाली जीवन प्रकृति के अनुकूल चलता है। उसमें कृत्रिमता नहीं
है तथा उसमें नैसर्गिक सुषमा है। वहाँ के लोग स्वभाव से सरल, व्यवहार में मधुर तथा
कार्य-शैली में जोशीले और लगनशील होते हैं।
भोलापन
होने पर भी वे सत्य पर भिड़ने वाले तथा उसके लिए संघर्ष करने वाले होते हैं। धनुष-बाण,
कुल्हाड़ी आदि रखना उनकी पहचान है। वहाँ की वायु, नदियों का जल तथा पहाड़ों का वातावरण
प्रकृति के अनुकूल, स्वच्छ, पवित्र और शान्त होता है। वे सहज जीवन जीते हैं और स्वाभाविक
रीति से हँसते-रोते हैं। वहाँ बच्चों के खेलने के लिए मैदान, पशुओं के लिए चारागाह
तथा वृद्धों के लिए शान्त पहाड़ होते हैं। कवयित्री चाहती हैं कि संथाली जीवन की ये
मूल विशेषताएँ बनी रहें। शहर की सभ्यता की घुसपैठ के कारण संथाल की इन विशेषताओं को
खतरा पैदा हो रहा है। कवयित्री चाहती है कि हम उनको शहरी सभ्यता के इस खतरे से बचायें।
प्रश्न 9. संथाली भाषा की कवयित्री निर्मला पुतुल की कविता की विषय-वस्तु
क्या है ? संक्षिप्त टिप्पणी कीजिये।
उत्तर
: निर्मला पुतुल ने संथाली भाषा में काव्य-रचना की है। उनकी कविता में संथाली जीवन
का सशक्त चित्रण हुआ है। आदिवासी जीवन के अनछुए पहलुओं को आपने कलात्मकता के साथ प्रस्तुत
किया है। इन कविताओं में आदिवासी जीवन के सकारात्मक तथा नकारात्मक-दोनों ही पक्षों
को सफलतापूर्वक सामने रखा गया है। एक ओर, कवयित्री ने लोगों की सरलता, सादगी, श्रमशीलता,
भोलापन तथा प्रकृति के अनुकूल जीवन को अपनी कविता का विषय बनाया है, दूसरी ओर उनमें
व्याप्त अशिक्षा, अन्धविश्वास, रूढ़ियों तथा मद्यपान आदि बुराइयों का भी चित्रण किया
है।
कवयित्री
ने आदिवासी समाज की मौलिकता को भी बेबाकी के साथ प्रकट किया है। कवयित्री इन मौलिकताओं
को शहरी अप-संस्कृति के प्रभाव के कारण नष्ट होने देना नहीं चाहती। उसकी दृष्टि में
ये विशेषताएँ किसी स्वस्थ समाज की पहचान हैं। प्रकृति-विरुद्ध आचरण से पर्यावरण को
होने वाली क्षति को वह मानवता के हित में नहीं मानती। आर्थिक विकास के नाम पर होने
वाला प्राकृतिक और अनैतिक-कार्य उनको स्वीकार नहीं है। विकास के नाम पर आदिवासियों
के संसाधनों को उनसे छीनना कवयित्री को सही नहीं लगता। इस प्रकार हम देखते हैं कि आदिवासियों
का समग्र-जीवन ही निर्मला जी की कविता का विषय है।
आओ, मिलकर बचाएँ (सारांश)
कवयित्री-परिचय :
जीवन-परिचय
- निर्मला पुतुल का सम्बन्ध आदिवासी समाज से है। वह संथाली भाषा की कवयित्री हैं। निर्मला
पुतुल का जन्म सन् 1972 ई. में झारखण्ड के दुमका जनपद में हुआ था। उनका परिवार आदिवासी
समाज से सम्बन्धित है। इनके पिता तथा चाचा शिक्षक थे परन्तु घर की आर्थिक स्थिति ठीक
न होने के कारण इनकी पढ़ाई-लिखाई नियमित रूप से नहीं हो सकी। आर्थिक संकट से बचने के
लिए निर्मला ने नर्सिंग का डिप्लोमा किया तथा कुछ समय बाद इग्नू से स्नातक की डिग्री
ली। नर्सिंग का डिप्लोमा करते समय इनको बाहरी समाज को जानने-समझने का अवसर मिला। संथाली
समाज से तो उनका पहले से ही सम्बन्ध था। इस तरह उनको अपने समाज की वास्तविकता को समझने
का मौका मिला।
साहित्यिक
परिचय - निर्मला पुतुल ने संथाली भाषा में काव्य-रचना की है। इनकी
कविताओं में उन्होंने अपने समाज की समस्याएँ, दुःख-दर्द तथा सोच को स्थान दिया है।
इन्होंने आदिवासी समाज की विसंगतियों को अपनी कविता में तल्लीनतापूर्वक चित्रित किया
है।
परिश्रमी
होने पर भी समाज की निर्धनता, कुरीतियों का भावी पीढ़ी पर दुष्प्रभाव, समाज में पुरुषों
का वर्चस्व, थोड़े से लाभ के लिए बड़े समझौते करना, स्वार्थ के लिए पर्यावरण को हानि
पहुँचाना, शिक्षित लोगों का भी दूसरों के इशारों पर नाचना आदि आदिवासी समाज की समस्याओं
को इनकी कविताओं में सावधानीपूर्वक प्रस्तुत किया गया है।
निर्मला
की कविताओं में आदिवासी समाज के सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों ही रूपों के दर्शन होते
हैं। संथाली समाज का भोलापन, सादगी, परिश्रमशीलता तथा प्रकृति से नजदीकी उसके सकारात्मक
पहलू हैं तथा अशिक्षा, कुरीतियाँ और शराब का बढ़ता चलन उसका नकारात्मक पक्ष है। इनकी
कविताओं में इन सबको कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
रचनाएँ
- 'नगाड़े की तरह बजते शब्द', 'अपने घर की तलाश में' इत्यादि आपकी काव्य-कृतियाँ हैं।
सप्रसंग व्याख्याएँ एवं अर्थग्रहण तथा सौन्दर्य-बोध पर आधारित प्रश्नोत्तर
1.
अपनी बस्तियों को
बचाएँ
डूबने से
नंगी
होने से
पूरी
की पूरी बस्ती को
शहर
की आबो-हवा से बचाएँ उसे
हड़िया
में
शब्दार्थ :
·
बस्ती = लोगों के रहने
का स्थान, गाँव या मोहल्ला आदि।
·
नंगी = मर्यादाहीन,
परंपरारहित।
·
आबो-हवा = जलवायु, रहन-सहन।
·
हड़िया = हड्डियों का
ढेर।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह में संकलित
'निर्मला पुतुल' की रचना 'आओ, मिलकर बचाएँ' से लिया गया है। कवयित्री ने इस अंश में
अपनी बस्तियों के लोगों का आह्वान किया है कि वे अपनी आदिवासी संस्कृति को शहरी संस्कृति
से बचाएँ।
व्याख्या
- कवयित्री कहती है कि आदिवासी समाज की बस्तियों को शहरीकरण के प्रभाव से खतरा होने
लगा है। नगर-संस्कृति से प्रभावित होकर आदिवासी लोग भी उसी तरह के रहन-सहन को अपनाने
लगे हैं। इससे उनकी परंपराएँ नष्ट हो रही हैं। उनका प्राकृतिक रहन-सहन मिट रहा है।
वृक्षों के काटने से पर्यावरण दूषित हो रहा है। हम सबको मिलकर इस संकट से आदिवासी समाज
को बचाना होगा। पूरे का पूरा आदिवासी समाज इस संकट से ग्रस्त है। वह इस बुराई में गहरा
डूबता जा रहा है। यदि उसको रोका न गया तो उसका सर्वस्व नष्ट हो जायेगा तथा वह हड्डियों
का ढेर मात्र रह जायेगा।
अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. बस्तियों के नंगी होने का क्या आशय है ?
उत्तर
: शहरी सभ्यता और संस्कृति का तेजी से फैलता हुआ प्रभाव आदिवासियों की बस्तियों पर
पड़ रहा है तथा वे उससे प्रभावित होकर उसे ग्रहण कर रहे हैं। इससे आदिवासियों की संस्कृति
की मौलिकता नष्ट हो रही है। आदिवासियों के जीवन में नगरों की नग्नता, अश्लीलता आदि
बुराइयाँ प्रवेश कर रही हैं। जंगलों का विनाश हो रहा है। इससे वहाँ की प्राकृतिक सुषमा
नष्ट हो रही है तथा वातावरण में प्रदूषण बढ़ रहा है।
प्रश्न 2. कवयित्री आदिवासी बस्तियों को शहरी आबो-हवा से क्यों बचाना
चाहती है ?
उत्तर
: कवयित्री चाहती है कि आदिवासियों के जीवन की मौलिकता बनी रहे, वह नष्ट न हो। आदिवासियों
के जीवन में बढ़ते हुए शहरीकरण से उसके नष्ट होने का खतरा बढ़ रहा है। शहरी आबो-हवा
आदिवासियों की संस्कृति के लिए हितकर नहीं है। इससे उसका सौन्दर्य नष्ट हो जायेगा।
इसलिए कवयित्री उसको शहरी प्रभाव से बचाना चाहती है।
प्रश्न 3. पूरी बस्ती के हडिया में डूबने का क्या तात्पर्य है?
उत्तर
: आदिवासी जन शहर की सभ्यता-संस्कृति की ओर आकर्षित हो रहे हैं और उसको अपना रहे हैं।
शहरों में प्रचलित नशा करने की आदत उन पर भी हावी होती जा रही है। वे स्मैक, अफीम आदि
हानिकारक नशीले पदार्थों का प्रयोग कर रहे हैं। इनसे उनका स्वास्थ्य नष्ट हो रहा है
तथा.वे हड्डियों के ढाँचे में बदलते जा रहे हैं। कवयित्री उनको नशे से बचाना तथा स्वस्थ
रखना चाहती है। हड़िया में डूबने का अर्थ हड्डियों का ढाँचा बनने से हैं।
प्रश्न 4. 'आओ, मिलकर बचाएँ' कविता का क्या संदेश है ?
उत्तर
: 'आओ, मिलकर बचाएँ' कविता में कवयित्री निर्मला पुतुल ने आदिवासी जीवन के संकट की
चर्चा की है। कवयित्री स्वयं आदिवासी समाज से सम्बन्धित है। उसको शहरी अपसंस्कृति के
प्रभाव के कारण आदिवासी सभ्यता-संस्कृति की मौलिकता नष्ट होने का खतरा है। शहरी संस्कृति
के दुर्गुण आदिवासी जीवन के सौन्दर्य को नष्ट कर रहे हैं। उनमें नग्नता और अश्लीलता
बढ़ रही है स्मैक आदि नशीले पदार्थों के सेवन से उनका स्वास्थ्य नष्ट हो रहा है। उद्योग-धंधों
की स्थापना होने से जंगल का क्षेत्र घट रहा है और प्राकृतिक सुन्दरता मिट रही है। कवयित्री
ने इस कविता के माध्यम से आदिवासियों के जीवन को बचाने का संदेश दिया है। उसने इस दिशा
में मिलजुलकर काम करने को कहा है।
काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. छन्द की दृष्टि से इस पद्यांश पर विचार कीजिए।
उत्तर
: प्रस्तुत पद्यांश जिस भाषा से लिया गया है उसकी मूल रचना संथाली भाषा में हुई है।
यह उसका हिन्दी पद्यानुवाद है। इसके लिए मुक्त छंद को अपनाया गया है। इसके चरण तुकविहीन
हैं। इनमें कविता की गति ही महत्वपूर्ण है। इस तरह उसकी रचना अतुकान्त मुक्त छन्द में
हुई है।
प्रश्न 2. 'नंगी' शब्द में अलंकार-निर्देश कीजिए।
उत्तर
: प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने अपनी बस्तियों को नंगी होने से बचाने का संदेश
दिया है। यहाँ नंगी' शब्द का प्रयोग तो एक ही बार हुआ है। परन्तु उसके दो भिन्न-भिन्न
अर्थ हैं - 1. वस्त्रहीन तथा 2. वृक्षहीन। आदिवासी शहरी प्रभाव से नग्नता को अपना रहे
हैं तथा वहाँ के जंगल काट रहे हैं। जब किसी शब्द के एक बार आने पर भी उसके एक से अधिक
अर्थ होते हैं। तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है। अर्थ के लिए यहाँ नंगी होने से' में
'अभंगपद श्लेष अलंकार है।
2.
अपने चेहरे पर
जीवन
की गर्माहट
सन्थाल
परगना की माटी का रंग
मन
का हरापन
भाषा
में झारखंडीपन
भोलापन
दिल का
ठण्डी
होती दिनचर्या में
अक्खड़पन,
जुझारूपन भी
शब्दार्थ :
·
चेहरा = मुँह।
·
संथाल परगना = झारखण्ड
का एक आदिवासी क्षेत्र।
·
झारखंडीपन = झारखण्ड
की विशेषताएँ।
·
ठण्डी होती = गति खोती,
धीमी होती।
·
दिनचर्या = दैनिक क्रिया-कलाप।
·
गर्माहट = गर्मी, उमंग
और उल्लास।
·
हरापन = सजीवता, मधुरता।
·
भोलापन = सरलता।
·
अक्खड़पन = अकड़, कठोरता।
·
जुझारूपन = संघर्षशीलता।
·
माटी = मिट्टी।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' में संकलित
निर्मला पुतुल की रचना 'आओ, मिलकर बचाएँ' से लिया गया है। कवयित्री ने इस अंश में आदिवासी
जीवन की विशेषताओं का वर्णन किया है।
व्याख्या
-
कवयित्री संथाली समाज को शहरीकरण के विरुद्ध सतर्क करते हुए कहती है कि उनको शहर की
सभ्यता के दुष्प्रभाव से बचना चाहिए। उनके चेहरे पर उनकी लोक-संस्कृति की छाप स्पष्ट
दिखाई देनी चाहिए। उनके प्रत्येक क्रिया-कलाप में संथाल क्षेत्र की विशेषताएँ दिखाई
देनी चाहिए। उनकी भाषा में झारखण्ड की भाषा का रंग होना चाहिए। उनको अपनी मातृभाषा
का प्रयोग ही दैनिक बोलचाल में करना चाहिए।
कवयित्री
कहती हैं कि संथाली लोगों के दैनिक कार्य-कलापों पर बाहरी प्रभाव पड़ रहा है। उनमें
उनकी संस्कृति का प्रभाव घट रहा है तथा वह अपनी मौलिकता खोती जा रही है। संथाली समाज
में जो उमंग, उत्साह और प्रबलता होती है वह अब उनके कार्यों में दिखाई नहीं देती। उसमें
उनके मन की मधुरता के दर्शन अब नहीं होते। उनके मन की सरलता अब उनके दैनिक कार्यों
में दिखाई नहीं देती।
अक्खड़पन
कभी उनका गुण हुआ करता था। अब उनके जीवन से गायब हो गया है। वे सदैव कठोर और विपरीत
परिस्थितियों से संघर्ष के लिए तत्पर रहते थे, उनकी वह संघर्षशीलता भी अब दिखाई नहीं
देती। संथाली समाज की रक्षा के लिए उनके इन सभी गुणों और विशेषताओं को बचाना होगा।
अर्थग्रहण-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. उपर्युक्त पद्यांश में किसका वर्णन किया गया है ?
उत्तर
: उपर्युक्त पद्यांश में झारखण्ड प्रदेश के संथाल परगना का वर्णन किया गया है। इसमें
झारखंड के संथाली लोक जीवन पर शहरी सभ्यता के कारण मँडरा रहे संकट के बारे में बताया
गया है तथा उसको बचाने का आह्वान लोगों से किया गया है।
प्रश्न 2. कवयित्री ने आदिवासियों से किस प्रकार का जीवन व्यतीत करने
का आग्रह किया है ?
उत्तर
: कवयित्री को शहर की अपसंस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण आदिवासियों की संस्कृति तथा
जीवन शैली पर गहराते हुए संकट का आभास है। वह उसको इस संकट से बचाना चाहती है। कवयित्री
झारखंड तथा संथाल के लोगों से आग्रह करती है कि इसके लिए वे बाह्य प्रभाव से बचें।
वे अपनी ही वेशभूषा, भाषा और दिनचर्या को बनाये रखें।
प्रश्न 3. 'ठंडी होती दिनचर्या में जीवन की गर्माहट'-का क्या तात्पर्य
है ?
उत्तर
: झारखंड के संथाल क्षेत्र के निवासी अपनी जीवन शैली का त्याग कर. रहे हैं। इस कारण
उनके लोकजीवन की सुन्दरता तथा मौलिकता मिट रही है। कवयित्री चाहती है कि संथाली लोगों
को अपने जीवन की मौलिकता के प्रति उदासीनता छोड़नी चाहिए। उनको अपनी संस्कृति को बनाये
रखना चाहिए। इसी से उनके जीवन में गर्माहट आयेगी अर्थात् उनका उत्साह तथा साहस पुनः
अपनी ही जीवन पद्धति को अपनाने से लौटेगा।
प्रश्न 4. झारखंडीपन का क्या आशय है ?
उत्तर
: झारखंड भारत का एक प्रदेश है। इसमें 'ई' तथा 'पन' प्रत्यय जुड़ने से झारखंडीपन शब्द
बना है। यह भाववाचक संज्ञा है। इसका अर्थ है-झारखंड प्रदेश के जीवन की विशेषता। कवयित्री
ने यहाँ भाषा के झारखंडीपन की बात कही है। कवयित्री चाहती है कि वहाँ के लोग अपने ही
प्रदेश की भाषा का प्रयोग करें। उसकी शैली तथा शब्द भी झारखंड की भाषा के ही हों।
काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. प्रस्तुत पद्यांश की भाषा-शैली कैसी है ?
उत्तर
: प्रस्तुत पद्यांश संथाली भाषा से हुआ काव्यानुवाद है। इसमें सरल, भावानुकूल खड़ी
बोली का प्रयोग किया गया है। शब्द सुबोध हैं। ठंडी होती दिनचर्या मन का हरापन में लक्षणा
शब्द शक्ति का प्रयोग है। वाक्य छोटे-छोटे हैं। वे तुकान्त नहीं हैं। झारखंडीपन, हरापन,
भोलापन, अक्खड़पन, जुझारूपन इत्यादि भाववाचक शब्द झारखंड के लोगों के गुणों को सूचित
करने वाले हैं।
प्रश्न 2. उपर्युक्त पद्यांश में प्रतीक विधान पर विचार कीजिए।
उत्तर
: उपर्युक्त पद्यांश में वर्णन को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए कवयित्री ने प्रतीकों का
सहारा लिया है। 'माटी का रंग' संथाली प्रानको सूचक है। 'ठंडी होती दिनचर्या' संथाल
के लोगों पर पड़ने वाले शहरी प्रभाव के कारण उनकी दिनचर्या तथा जीवन-शैली के उत्साहहीन
तथा उबाऊ होने का प्रतीक है। 'जीवन की गर्माहट' उत्साह तथा साहस, 'मन का हरापन' जीवन
की सरसता और सजीवता के प्रतीक हैं।
3.
भीतर की आग
नदियों
की निर्मलता
धनुष
की डोरी
पहाड़ों
का मौन
तीर
का नुकीलापन
गीतों
की धुन
कुल्हाड़ी
की धार
मिट्टी
का सोंधापन
जंगल
की ताजा हवा
फसलों
की लहलहाहट
शब्दार्थ :
·
भीतर = मन, अन्त:करण।
·
आग = उत्साह!
·
धार = पैनापन।
·
निर्मलता = पवित्रता,
स्वच्छता।
·
मौन = शान्ति।
·
धुन = लय।
·
सोंधापन = सुगन्ध।
·
लहलहाहट = लहराना।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह' में संकलित
'निर्मला पुतुल' की रचना 'आओ', मिलकर बचाएँ' से लिया गया है। इस अंश में कवयित्री आदिवासी
लोगों से आग्रह कर रही हैं कि वे अपनी परंपरागत जीवन शैली की विशेषताओं को मिटने से
बचाएँ।
व्याख्या
- कवयित्री चिन्तित हैं कि संथाली जीवन-शैली अपनी विशेषताओं को छोड़ रही है। संथाली
लोगों के मन में जो उत्साह होता था, वह अब दिखाई नहीं देता। उनका वीरतापूर्ण जीवन और
साहसी स्वभाव भी बदल रहा है। वे न अब धनुष पर डोरी चढ़ाते हैं और न नुकीले तीरों का
प्रयोग अपने शत्रुओं पर करते हैं। वे धारदार कुल्हाड़ी से वृक्षों की लकड़ियाँ भी नहीं
काटते। जंगलों के नष्ट होने से अब उनको ताजी हवा भी नहीं मिल पाती। पर्यावरण प्रदूषण
के कारण नदियों के जल की पवित्रता नष्ट हो रही है।
नदियों
का पानी भी पहले जैसा स्वच्छ नहीं है। पहाड़ों पर मन को मोहने वाली शान्ति भी अब नहीं
बची है। शहरी सभ्यता के शोरगुल ने उसे नष्ट कर दिया है। संथाली बस्तियों में अब लोकगीतों
की धुनें सुनाई नहीं देती हैं। वहाँ की मिट्टी में अब पहले-जैसा सोंधापन शेष नहीं बचा
है। अब वहाँ खेतों में लहराती हरी-भरी फसलें भी उगी हुई दिखाई नहीं देती हैं। कवयित्री
चाहती हैं कि संथाली जीवन की इन विशेषताओं को, जो धीरे-धीरे मिटती जा रही हैं, मिलकर
बचाया जाये।
अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. भीतर की आग का क्या आशय है ?
उत्तर
: उपर्युक्त पद्यांश में झारखंड के लोगों के जीवन का वर्णन हुआ है। इसमें झारखंडी लोगों
के गुणों के बारे में बताया गया है। भीतर की आग एक प्रतीक है, जो उनके साहस, उत्साह,
पराक्रम तथा वीरता आदि गुणों को सूचित करती है। कवयित्री का कहना है कि संथाली लोगों
को अपने इन आन्तरिक सद्गुणों को बनाये रखना चाहिए।
प्रश्न 2. धनुष की ....... की धार-से क्या बात प्रकट की गई है ?
उत्तर
: धनुष की डोरी, तीर का नुकीलापन तथा कुल्हाड़ी की धार से झारखंड के आदिवासियों के
जीवन का चित्रण किया गया है। धनुष तथा बाण उनके प्रिय अस्त्र हैं, जिनसे वे शत्रुओं
तथा जंगली पशुओं का सामना करते हैं। कुल्हाड़ी उनके जीवनयापन का साधन है। कुल्हाड़ी
से वे जंगलों के पेड़ों की लकड़ियाँ काटते हैं। इन संकेतों से कवयित्री ने झारखंडी
लोगों की जीवन-शैली का चित्रण किया है।
प्रश्न 3. झारखंड के प्राकृतिक वातावरण का वर्णन कीजिए।
उत्तर
: झारखंड एक सुन्दर प्रदेश है। वहाँ का प्राकृतिक वातावरण अत्यन्त मनोरम है। वहाँ निर्मल
जल वाली नदियाँ बहती हैं। वहाँ के पहाड़ शांत और सुन्दर हैं। वहाँ के निवासी संगीत-नृत्य
कुशल हैं। वहाँ की मिट्टी से सौंधी गंध उठती है। वहाँ हरी-भरी फसलें लहराती हैं।
प्रश्न 4. आदिवासियों के गुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
: झारखंड का संथाल परगना आदिवासियों की पैतृक भूमि है। वहाँ के रहने वाले संथाली कहलाते
हैं। वे संथाली भाषा बोलते हैं। धनुष-बाण उनके प्रिय अस्त्र हैं। कुल्हाड़ी से वे जंगल
से लकड़ियाँ काटकर अपना जीवनयापन करते हैं। वे अक्खड़ और जुझारू होते हैं। किन्तु मन
से भोले और पवित्र चित्त वाले होते हैं। वे उत्साही तथा साहसी होते हैं। वे प्राकृतिक
जीवन जीते हैं।
काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. उपर्युक्त पद्यांश की भाषा-शैली की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
: उपर्युक्त पद्यांश की भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है। कवयित्री ने भाव के अनुरूप सुबोध
शब्दों का प्रयोग किया है। भाषा में क्लिष्टता नहीं है। कविता का भाव इस कारण आसानी
से समझ आ जाता है। शैली में प्रतीकात्मकता तथा चित्रात्मकता है। दो-तीन शब्दों वाली
पंक्तियों में आदिवासियों के जीवन के सजीव चित्र अंकित किये गये हैं। वैसे यह संथाली
भाषा से हिन्दी में अनूदित काव्य-रचना है।
प्रश्न 2. उपर्युक्त पद्यांश की रचना किस छन्द में हुई है ?
उत्तर
: उपर्युक्त पद्यांश संथाली भाषा से हिन्दी में किया गया पद्यानुवाद है। इसमें छन्द
के परम्परागत बंधन से बचने का प्रयास है। इसमें प्रयुक्त छोटे-छोटे वाक्यों वाले चरणों
में तुक नहीं मिलती। इसमें काव्य-रचना के अनुकूल गति है। इसको हम अतुकान्त मुक्त छन्द
कह सकते हैं।
4.
नाचने के लिए खुला आँगन
बच्चों
के लिए मैदान गाने के लिए गीत
पशुओं
के लिए हरी-हरी घास
हँसने
के लिए थोड़ी-सी खिलखिलाहट
बूढों
के लिए पहाड़ों की शान्ति।
रोने
के लिए मुट्ठी भर एकान्त
शब्दार्थ :
·
मुट्ठी भर = थोड़ा-सा।
·
एकान्त = अकेलापन।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित
'निर्मला पुतुल' की रचना 'आओ, मिलकर बचाएँ' से लिया गया है। इस अंश में कवयित्री ने
संथाली संस्कृति की विशेषताओं नृत्य, गीत, खेल, पशुपालन आदि की सुरक्षा का आह्वान किया
है।
व्याख्या
- कवयित्री कहती हैं संथाल क्षेत्र के लोगों को नाचना-गाना प्रिय होता है। वहाँ लोगों
के नाचने के लिए खुला आँगन होता है। उनके समाज में अनेक गीत गाये जाते हैं। लोग प्रसन्नचित्त
रहते हैं तथा हँसते-खिलखिलाते हैं। उनके जीवन की ये विशेषताएँ बनी रहनी चाहिए। शहरी
प्रभाव से इनको बचाना आवश्यक है। संथाली जीवन में स्वाभाविकता होती है। विभिन्न अवसरों
पर वे हँसते-रोते और गाते हैं। वहाँ रोने के लिए एकान्त स्थान की कमी नहीं होती।
बच्चों
को खेलने के लिए विशाल मैदान वहाँ होते हैं। पशुओं को चरने के लिए हरी घास खूब मिल
जाती है। समाज के बूढ़े स्त्री-पुरुषों को पहाड़ों पर जाकर शान्तिपूर्ण जीवन बिताने
का अवसर मिलता है। आशय यह है कि संथाली जीवन प्रकृति के अनुकूल होता है। अतः आनन्ददायक
होता है। वह स्वाभाविक होता है, उसमें बनावट नहीं होती। इस जीवन को शहरी सभ्यता के
दोषों से बचाना जरूरी है।
अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. उपर्युक्त पद्यांश में किसका वर्णन है ?
उत्तर
: उपर्युक्त पद्यांश में झारखंड के संथाल परगना तथा वहाँ के निवासी आदिवासियों के जीवन
का वर्णन है। कवयित्री ने बताया है कि आदिवासियों का जीवन अपने आप में संपूर्ण है तथा
उनको वहाँ अपनी आवश्यकता की प्रत्येक वस्तु मिल जाती है। उनका जीवन प्रकृति के अनुकूल
है तथा उस प्रदेश के प्राकृतिक वातावरण में वे प्रसन्नता के साथ रहते हैं।
प्रश्न 2. झारखंड के लोगों के जीवन की क्या विशेषताएँ हैं ?
उत्तर
: झारखंड के रहने वाले आदिवासियों का जीवन सरल तथा प्रकृति के अनुकूल है। वे स्वाभाविक
तथा बनावट से रहित जीवन जीते हैं। वे खुशी के मौकों पर नाचते तथा गाते हैं। उसी प्रकार
शोक के अवसर पर रोते भी हैं। सभ्यता उनके प्राकृतिक जीवन में बाधक नहीं है। ल-जुलकर
रहते हैं।
प्रश्न 3. झारखंड के लोगों के जीवन में हँसने-रोने की प्रवृत्ति के
बारे में कवयित्री ने क्या कहा है ?
उत्तर
: कवयित्री ने कहा है कि झारखंड के लोगों के जीवन में हँसने-रोने का महत्वपूर्ण स्थान
है। वे खुशी के अवसर पर खुलकर नाचते-गाते हैं और हँसते हैं तो शोक को प्रकट करने में
उसी प्रकार नि:संकोच रोते भी हैं। सभ्यता का बनावटी आचरण इसमें बाधा नहीं डालता। उनकी
ये वृत्तियाँ स्वाभाविक तथा प्राकृतिक हैं। वे संवेदनशील मनुष्य हैं। अभी भी शहर की
बनावटी सभ्यता उनको दूषित नहीं कर पाई है। वे सुख-दुःख में मिल-जुलकर रहते हैं।
प्रश्न 4. 'बच्चों के लिए मैदान' तथा 'बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शांति'
से कवयित्री का क्या आशय है ?
उत्तर
: ये दोनों बातें प्रतीकात्मक हैं। इनके माध्यम से कवयित्री ने आदिवासी बच्चों तथा
वृद्धों के प्राकृतिक जीवन की सरलता का चित्र खींचा है। आदिवासियों की जरूरत की हर
वस्तु वहाँ की प्रकृति उनको उपलब्ध कराती है। वहाँ विस्तृत हरे-भरे मैदान हैं, जहाँ
बंच्चे खेलना पसंद करते हैं। वे मैदान उनको खूब भाते हैं। वृद्ध शान्ति से रहना तथा
ईश्वर का चिन्तन-मनन करना चाहते हैं। वहाँ के शांत पहाड़ उनको शांतिपूर्वक जीने का
अवसर प्रदान करते हैं। दोनों को ही यहाँ अपनी आवश्यकता के साधन प्रचुरता से उपलब्ध
हैं।
काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. 'हरी-हरी घास' में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर
: हरी-हरी शब्द घास का विशेषण है। घास हरी है-इस बात पर बल देने के लिए हरी शब्द की
आवृत्ति हुई है। किसी पूर्व में कही बात के प्रमाणस्वरूप अथवा किसी बात पर बल देने
के विचार से जब किसी शब्द को दोहराया जाता है तो वहाँ पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार होता
है।
प्रश्न 2. प्रस्तुत पद्यांश की काव्य-शैली की क्या विशेषता है ?
उत्तर
: प्रस्तुत पद्यांश की काव्य-शैली में कवयित्री ने अपनी बात प्रतीकों के माध्यम से
कही है। इसका प्रतीक प्रयोग प्रशंसनीय है। बहुत छोटे गद्यात्मक वाक्यों की अद्भुत गति
है, जिससे पद्यांश प्रभावशाली बन पड़ा है। इस पद्यांश में तुक का प्रयोग नहीं है। हम
काव्य-शैली .को प्रतीकात्मक तथा चित्रात्मक कह सकते हैं। इसकी पंक्ति एक स्वयं सम्पूर्ण
चित्र जैसी लगती है।
5.
और इस अविश्वास-भरे दौर में
आओ,
मिलकर बचाएँ थोड़ा-सा विश्वास
कि
इस दौर में भी बचाने को
थोड़ी-सी
उम्मीद
बहुत
कुछ बचा है,
थोड़े-से
सपने
अब
भी हमारे पास !
शब्दार्थ :
·
दौर = समय।
·
अविश्वास = भरोसा न
करना।
·
उम्मीद = आशा।
·
सपने = आशा, आकांक्षाएँ।
संदर्भ
एवं प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित
'निर्मला पुतुल' की रचना 'आओ, मिलकर बचाएँ' से लिया गया है। इस अंश में कवयित्री संथाली
जनजाति के लोगों से विश्वास, उम्मीद और सपनों को बचाए रखने का आग्रह कर रही है।
व्याख्या
- कवयित्री कहती हैं कि शहरी सभ्यता ने अविश्वास का वातावरण बनाया है। संथाली जीवन
की समस्त नैसर्गिक विशेषताएँ मिट रही हैं। लोग एक-दूसरे को सन्देह की दृष्टि से देखने
लगे हैं। अविश्वास और सन्देह के इस समय में पवित्रता के लिए थोड़ा-बहुत विश्वास बनाये
रखना आवश्यक है। अब भी भविष्य के प्रति आशा और आकांक्षाओं को सुरक्षित रखना जरूरी है।
सुनहरे भविष्य के प्रति इनमें आशा और आकांक्षाओं का पैदा होना संथाल के प्राकृतिक जीवन
में ही सम्भव है। आओ, उसकी रक्षा करें।
यद्यपि
शहरीकरण ने आज हमारी लोक-सभ्यता को नष्टप्राय कर दिया है, फिर भी इस विनाश के समय में
लोक-जीवन में ऐसी बहुत-सी बातें बची हैं। उसकी बहुत-सी विशेषताएँ शेष हैं। जिनकी रक्षा
हमको मिल-जुलकर करनी है। आओ, हम सब मिलकर इनको बचाने का प्रयत्न करें।
अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. कवयित्री ने आज के समय के किन दोषों की चर्चा की है ?
उत्तर
: कवयित्री ने बताया है कि आज का समय विश्वास का नहीं है। चारों ओर अविश्वास : वातावरण
है। लोग एक-दूसरे की बात का विश्वास नहीं करते हैं। अविश्वास का यह वातावरण वर्तमान
सभ्यता का दोष है, कि लोगों का आचरण बनावटी हो गया है।
प्रश्न 2. अविश्वास के दौर में कवयित्री क्या चाहती है ?
उत्तर
: आज विश्व में चारों ओर अविश्वास का वातावरण है। कोई किसी की बात पर विश्वास नहीं
करता। कवयित्री चाहती है कि आदिवासी लोग इस दोष से बचे रहें। आदिवासियों के जीवन में
अब भी विश्वास तथा आशा के भ मन में कुछ सपने तैरते हैं। कवयित्री चाहती है कि आदिवासियों
में ये बातें बची रहें। कवयित्री नहीं चाहती कि समय के चक्र में पड़कर उनकी यह विशेषताएँ
नष्ट हो जायें।
प्रश्न 3. बहुत कुछ बचा है अब भी हमारे पास-से कवयित्री की किस मनःस्थिति
का पता चलता है ?
उत्तर
: समय बदल रहा है और आदिवासियों का जीवन भी बदल रहा है। समय धीरे-धीरे आदिवासी जीवन
की मौलिकता को मिटा रहा है, परन्तु अब भी उनकी अनेक अच्छाइयाँ बची हुई हैं। प्रयास
करके उनको बचाया जा सकता है। कवयित्री के इन विचारों से पता चलता है कि वह आशावादी
है तथा मानवीय क्षमता पर उसको परा भरोसा है।
प्रश्न 4. 'थोड़े से सपने' का क्या आशय है ?
उत्तर
: आदिवासियों का जीवन बदल रहा है। उनमें शहरी सभ्यता के दुर्गुण प्रवेश करते जा रहे
हैं, परन्तु प्रतिस्पर्धापूर्ण शहरी सभ्यता उनकी कुछ विशेषताओं को मिटा नहीं सकी है।
वे अब भी आशावादी हैं तथा अपने सुनहरे भविष्य के सपने देखते हैं। 'थोड़े से सपने' उज्ज्वल
भविष्य के लिए उनके मन से उठने वाली सुन्दर कल्पनाएँ हैं।
काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. 'थोड़ा-सा, थोड़ी-सी, थोड़े-से-शब्दों के प्रयोग का इस कविता
की शैली पर क्या प्रभाव पड़ा है ?
उत्तर
: 'थोड़ा-सा, थोड़ी-सी, थोड़े-से' विशेषणों को कवयित्री ने क्रमशः विश्वास, उम्मीद
तथा सपने विशेष्यों के लिए प्रयोग किया है। इन शब्दों के कारण काव्य में अनुपम माधुर्य
की सृष्टि हुई है। इससे यह भी व्यक्त हुआ है कि आदिवासी समाज में सामाजिक मूल्य अब
भी बचे हुए हैं।
प्रश्न 2. छन्द-प्रयोग की दृष्टि से उपर्युक्त पद्यांश पर विचार कीजिए।
उत्तर : उपर्युक्त पद्यांश में किसी भी परम्परागत मात्रिक अथवा वर्णिक छन्द का प्रयोग नहीं किया गया है। संथाली भाषा से हिन्दी में हुए इस पद्यानुवाद में प्रयुक्त छोटे वाक्यों रूपी चरण अतुकान्त हैं। इनमें पद्य जैसी ही गति है। छन्द के बंधन से मुक्त होने के कारण इसको मुक्त छन्द कहा गया है। इस तरह यह अतुकान्त मुक्त छन्द है।