
ब्राह्मण राज्य
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मौर्य समाज के पतन के बाद ब्राह्मण साम्राज्य का उदय हुआ। इस साम्राज्य के
अन्तर्गत प्रमुख शासक वंश थे- शुंग, कण्व, आंध्र सातवाहन एवं वाकाटक । शुंग वंश
(185 ई.पू. से 73 ई.पू.)
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इस वंश की स्थापना 185 ई.पू. में ब्राह्मण मौर्य सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा
अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या करके की गयी थी।
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शुंग वंश ने लगभग 112 वर्ष तक राज्य किया। शुंग शासकों ने विदिशा को अपनी राजधानी
बनाया।
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शुंग वंश के इतिहास के विषय में जानकारी के मुख्य स्रोत हैं- बाणभê कृत हर्षचरित,
पतंजलि कृत महाभाष्य, कालिदास कृत मालविकाग्निमित्रम्, बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान
एवं तिब्बती इतिहासकार तारानाथ का विवरण।
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पुष्यमित्र शुंग को अपने लगभग 36 वर्ष के शासनकाल में यवनों से दो बार युद्ध करना
पड़ा। दोनों बार यवन पराजित हुए।
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प्रथम यवन-शुंग युद्ध में यवन सेनापति डेमेड्रियस था। इस युद्ध में यवन पराजित
हुए। प्रथम यवन-शुंग युद्ध के भीषणता का उल्लेख गार्गी संहिता में मिलता है।
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द्वितीय यवन-शुंग युद्ध का वर्णन कालिदास के मालविकाग्निमित्रम् में मिलता हैं।
इस युद्ध में शुंग सेना का प्रतिनिधित्व सम्भवत: पुष्यमित्र शुंग के पौत्र
वसुमित्र ने किया था। जबकि यवन सेना का प्रतिनिधित्व मेनांडर ने किया था।
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सिन्धु नदी के तट पर लड़े गये इस युद्ध में यवन सेनापति मेनांडर को वसुमित्र ने
हराया था।
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पुष्यमित्र शुंग ने दो बार अश्वमेघ यज्ञ किया। इन यज्ञों के
पुरोहित पतंजलि थे।
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शुंग शासकों के काल में ही पतंजलि ने अशध्यायी जैसे दुरूह ग्रन्थ पर अपना महाभाष्य
लिखा।
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मनु ने मनुस्मृति की रचना शुंग काल में ही की।
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भरहूत स्तूत का निर्माण पुष्यमित्र शुंग ने करवाया।
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शुंग वंश का अंतिम शासक देवभूति था। इसकी हत्या 73 ई.पू. में वासुदेव ने कर दी और मगध
की गद्दी पर कण्व वंश की स्थापना की।
ब्राह्मण
वंश
शासक |
राजवंश |
पुष्यमित्र
शुंग, अग्निमित्र, वसुजेष्ठ, वसुमित्र, भद्रक, भागवत, देवभूति |
शुंग
वंश |
वासुदेव,
भूमिमित्र, नारायण, सुशर्मा |
कण्व
वंश |
सिमुक,
कृष्ण शातकर्णी, गौतमीपुत्र शातकर्णी, वशिष्ठीपुत्र पुलमावी, यज्ञश्री शातकर्णी |
सातवाहन
वंश |
कण्व वंश (73 ई.पू.-28 ई.पू.)
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कण्व वंश की स्थापना अंतिम शुंगवंशी शासक देवभूति की हत्या कर उसके अमात्य कण्ववंशी
वासुदेव ने 73 ई.पू. में की थी।
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कण्ववंशी राजाओं के बारे में विस्तृत जानकारी का अभाव है। कुछ सिक्के ऐसे मिले हैं
जिन पर भूमिमित्र खुदा है, जिनसे यह अनुमान लगाया जाता है कि यह भूमिमित्र के शासन
काल में जारी किये गये होंगे।
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कण्वों के शासन काल में मगध की सीमा सिमटकर बिहार तथा पूर्वी उत्तरप्रदेश तक रह गयी
थी।
आंध्र-सातवाहन वंश (60 ई.पू.-240 ई.पू.)
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पुराणों में इस राजवंश को आंध्र भृत्य एवं आंध्र जातीय कहा गया है। यह इस बात का सूचक
है कि जिस समय पुराणों का संकलन हो रहा था, सातवाहनों का शासन आंध्रप्रदेश में ही सीमित
था।
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सातवाहन वंश के लिह शालिवाहन शब्द का भी उल्लेख मिलता है।
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सातवाहन वंश की स्थापना सिमुक नामक व्यक्ति ने लगभग 60 ई.पू. में अंतिम कण्व वंशी शासक
सुशर्मा की हत्या करके की।
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पुराणों में सिमुक को सिंधुक, शिशुक, शिप्रक एवं वृषल आदि नामों से सम्बोधित किया गया
है।
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सिमुक के बाद उसका छोटा भाई कृष्ण (कान्हा) गद्दी पर बैठा। इसके समय सातवाहन साम्राज्य
का विस्तार पश्चिम में नासिक की ओर हुआ।
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कृष्ण के बाद उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी शातकर्णि प्रथम सातवाहन शासक हुआ। यह सातवाहन
वंश का प्रथम शातकर्णि उपाधि धारण करने वाला राजा था। इसके शासन के बारे में हमें नागनिका
एवं नानाघाट अभिलेख से महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
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शातकर्णि प्रथम ने दो अश्वमेघ एवं एक राजसूय यज्ञ सम्पन्न कर सम्राट की उपाधि धारण
की। इसके अलावा शातकर्णि ने दक्खिनापथपति एवं अप्रतिहतचक्र की उपाधि धारण की।
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शातकर्णि प्रथम ने गोदावरी नदी के तट पर स्थित प्रतिष्ठान (पैठान) को अपनी राजधानी
बनाया।
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हाल सातवाहन वंश का एक महान कवि एवं साहित्यकार शासक था। इसका शासन काल सम्भवत: 20
ई. से 24 ई. तक माना जाता है। हाल ने गाथासप्तशती नामक ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ
प्राकृत भाषा में है।
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हाल के दरबार में बृहतकथा के रचयिता गुणाढ्य तथा कातन्त्र नामक संस्कृत व्याकरण के
रचयिता सर्ववर्मन् निवास करते थे।
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सातवाहनों की भाषा प्राकृत एवं लिपि ब्राह्मी थी।
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सातवाहनों ने चाँदी, ताँबे, सीसा, पोटीन तथा काँसे की मुद्राओं का प्रचलन किया।
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ब्राह्मण को भूमि अनुदान देने की प्रथा का आरम्भ सातवाहनों ने ही सर्वप्रथम किया।
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सातवाहनों का समाज मातृसत्तात्मक था।
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कार्ले चैत्य, अजंता एवं एलोरा की गुफाओं का निर्माण तथा अमरावती कला का विकास सातवाहनों
के समय ही हुआ।
वाकाटक
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सातवाहनों के पतन से लेकर चालुक्यों के उदय के बीच दक्कन में सबसे शक्तिशाली एवं प्रमुख
राजवंश वाकाटकों का था।
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वाकाटक राज्य का संस्थापक विंध्यशक्ति विष्णुवृद्धि गोत्रीय ब्राह्मण था। सम्भवत: वह
सातवाहनों के अधीनस्थ कोई पदाधिकारी या सरदार था। इसकी तुलना इन्द्र एवं विष्णु से
की गयी है।
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संभवत: वाकाटकों का दक्कन प्रदेश में तीसरी शताब्दी से लेकर 5वीं शताब्दी तक शासन रहा।
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विंध्यशक्ति का पुत्र एवं उत्तराधिकारी प्रवरसेन-I एकमात्र वाकाटक वंश का राजा था,
जिसने सम्राट (महाराज) की उपाधि धारण की।
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प्रवरसेन-I को सात प्रकार के यज्ञ करने का श्रेय प्राप्त है।
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प्रवरसेन-I ने चार अश्वमेघ यज्ञ भी किये।
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प्रवरसेन-I के बाद रूद्रसेन-I वाकाटक राजा बना। वह प्रवरसेन-I के बड़े पुत्र गौतमीपुत्र
का पुत्र था।
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रूद्रसेन-Iवाकाटकों की शक्ति को बनाये रखने का प्रयास किया। रूद्रसेन शैव मतावलंबी
था।
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वाकाटकों की मुख्य शाखा में रूद्रसेन-I का उत्तराधिकारी पृथ्वीसेन-I बना। उसके शासन
काल की सबसे प्रमुख घटना थी गुप्तों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करना।
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पृथ्वीसेन ने अपने पुत्र रूद्रसेन-II का विवाह गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त-II की पुत्री
प्रभावतीगुप्त से कर दिया। इस वैवाहिक सम्बन्ध से दोनों राजवंशों को लाभ हुआ, परन्तु
अधिक लाभ गुप्तों को ही हुआ।
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रूद्रसेन-II अपनी पत्नी प्रभावतीगुप्त के प्रभाव में आकर बौद्ध धर्म त्याग कर वैष्णव
धर्म को अपना लिया। दुर्भाग्यवश शासक बनने के कुछ समय बाद ही रूद्रसेन-IIकी अकाल मृत्यु
हो गयी।
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वाकाटक वंश की मूल शाखा का अंतिम शक्तिशाली शासक प्रवरसेन-IIथा। उसका आरम्भिक नाम दामोदर
सेन था।
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प्रवरसेन-IIएक कुशल प्रशासक था, लेकिन उसकी अभिरूचि युद्ध से अधिक शान्ति के कार्यों,
विशेषतया साहित्य और कला के विकास में थी। उसने महाराष्ट्रीय लिपि में सेतुबन्ध नामक
काव्य की रचना की। इस काव्य को रावणवहो भी कहा जाता है। प्रवरसेन-IIको नई राजधानी प्रवरपुर
बनाने का श्रेय भी दिया जाता है।
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सांस्कृतिक दृष्टि से भी वाकाटकों का काल महत्त्वपूर्ण है। मूर्तिकला की दृष्टि से
विदर्भ का टिगोवा एवं नचना का मंदिर उल्लेखनीय है।
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अजंता की गुफा संख्या 16, 17 एवं 19 के चित्रों का निर्माण वाकाटकों के समय ही हुआ।
कलिंग के चेत/चेदि
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मौर्य साम्राज्य के अवशेषों पर जिन राज्यों का उदय हुआ, उनमें कलिंग के चेत या चेदिवंश
भी है। जिस समय दक्कन में सातवाहन शक्ति का उदय हो रहा था, उसी समय कलिंग (ओडिशा) में
चेत या चेदि राजवंश का उदय हुआ।
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वेसन्तर जातक एवं मिलिंदपन्हो में चेति-राजकुमारों का उल्लेख मिलता है।
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चेदि वंश का सबसे प्रमुख राजा खारवेल था। उसके समय में कलिंग की शक्ति एवं प्रतिष्ठा
में अभूतपूर्व वृद्धि हुई।
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कलिंग राज्य के विषय में जानकारी के महत्त्वपूर्ण स्रोत अशध्यायी, महाभारत, पुराण,
रामायण, कालिदास कृत रघुवंश महाकाव्य, दण्डी का दशकुमार चरित, जातक, जैन ग्रन्थ उत्तराध्ययनसूत्र,
टाल्मी का भूगोल, अशोक के लेख एवं खारवेल का हाथी गुंफा अभिलेख है।
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हाथी गुंफा अभिलेख से खारवेल के वंश एवं उसके पिता तथा पितामह के विषय में कोई जानकारी
नहीं मिलती है। बल्कि सम्पूर्ण अभिलेख में खारवेल के विभिन्न उपाधियों जैसे- ऐरा, महाराज,
महामेघवाहन, कलिंगचक्रवर्ती, कलिंगाधिपति श्री खारवेल तथा राजा श्री खारवेल का उल्लेख
है।
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खारवेल ने अपने शासन का प्रथम वर्ष अपनी स्थिति मजबूत करने में व्यतीत किया। कलिंग
नगर में अनेक निर्माण-कार्य किये गये। नगर के फाटक और चहारदीवारी की मरम्मत कर उसे
सुदृढ़ बनाया गया। जनकल्याण के कार्य भी नगर में किये गये। खारवेल ने अपने शासन के दूसरे
वर्ष से विजय अभियान आरम्भ किया।
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हाथी गुंफा अभिलेख में तीसरे राजवर्ष की घटनाओं का उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु इसके
अनुसार चौथे वर्ष में खारवेल ने विद्याधर की राजधानी पर अधिकार किया। इसी वर्ष उसने
भोजकों और रथिकों को भी अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया।
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खारवेल ने अपने शासन के पाँचवें वर्ष में मगधराजा नन्दराज द्वारा खुदवाई गयी नहर का
विस्तार तनुसुलि से कलिंग तक करवाया। इस वर्ष प्रजा पर लगाये गये विभिन्न कर भी हटा
लिए गये।
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सम्भवत: अपने शासनकाल के सातवें वर्ष में खारवेल ने अपना विवाह किया और साथ ही मसूलीपट्टम
को जीता।
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अपने शासन के आठवें वर्ष में खारवेल ने उत्तरी भारत पर आक्रमण किया। अपनी सेना के साथ
गया की तरफ बढ़ते हुए उसने बराबर की पहाड़ियों को पार किया तथा गोरथगिरि के सुदृढ़ दुर्ग
को नष्ट कर राजगृह पर आक्रमण किया।
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अपने शासन के नौवें वर्ष में खारवेल ने ब्राह्मणों को सोने का कल्पवृक्ष भेंट किया।
इस वृक्ष के पत्ते तक सोने के थे। इसी वर्ष खारवेल ने प्राची नदी के दोनों तरफ एक महाविजय
प्रासाद का भी निर्माण करवाया।
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अपने शासन के 10वें और 12वें वर्ष में भी खारवेल ने उत्तरी भारत पर आक्रमण किये। इस
दौरान उसने अंग सहित अनेक राज्यों को आक्रांत किय। 12वें वर्ष में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र
पर आक्रमण कर अपनी सेना के हाथी, घोड़ों को उसने गंगा में स्नान करवाया।
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अपने शासन के 11वें वर्ष में उसने पुन: दक्षिण पर आक्रमण किया। इस वर्ष उसने पिथुंड,
पिहुण्ड, पिटुंड्रा या पियुद नगर को नष्ट कर गधों से हल जुतवाया।
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खारवेल का 13वाँ वर्ष धार्मिक कृत्यों में व्यतीत हुआ। इसके परिणामस्वरूप कुमारी पर्वत
पर अर्हतो के लिए उसने देवालय का निर्माण करवाया।
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खारवेल ने जैन धर्मावलंबी होते हुए भी दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णुता की नीति अपनायी।
➤ खारवेल को शांति एवं समृद्धि का सम्राट, भिक्षुसम्राट एवं धर्मराज के रूप में भी जाना जाता है।