प्रश्न: हेक्सचर-ओहलिन द्वारा प्रतिपादित
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के आधुनिक सिद्धांत की व्याख्या कीजिए?
• "हेक्सचर-ओहलिन का आधुनिक सिद्धांत मुश्किल से ही प्रतिष्ठित
सिद्धांत का उल्लंघन करता है, किंतु वह पूर्ण शक्ति से उसके पूरक सिद्धांत का
कार्य करता है"। विवेचना करे?
उत्तर:- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का आधुनिक सिद्धांत
सामान्य संतुलन का सिद्धांत है। प्रो. हेक्सचर ने सर्वप्रथम 1919 ई. में यह विचार
दिया की अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का मुख्य कारण दो देशों के बीच साधनों की उपलब्धि में भिन्नता होती है।
इसी विचार के आधार पर 1933 में उनके छात्र
ओहलिन ने अपनी पुस्तक "Interregional
and International Trade" में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का वैज्ञानिक विश्लेषण
प्रस्तुत किया। बाद में वालरस, पेरेटो आदि अर्थशास्त्रियों ने इसकी विस्तृत
व्याख्या की।
मूल्य के सामान्य सिद्धांत के अनुसार किसी वस्तु का
मूल्य उसकी माँग एवं पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। विभिन्न राष्ट्रों के बीच
मूल्यों में अन्तर ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का कारण है। मूल्य में अन्तर
विभिन्न राष्ट्रों के उत्पादन में सुविधा या असुविधा पर निर्भर होता है।
ओहलिन के अनुसार, " अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार केवल
अन्तक्षेत्रीय व्यापार की ही एक विशिष्ट दशा है"।
प्रो. हैक्सचर के शब्दों में, "दो देशो में व्यापार
तुलनात्मक लाभ के अन्तर के कारण
होता है तथा तुलनात्मक लाभ में अन्तर दोनों देशों के उत्पत्ति के साधनों की
सापेक्षिक कीमतो से भिन्नता तथा विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में साधनों के विभिन्न
अनुपातो के प्रयोग के कारण होता है"।
मान्यताएं
(1) यह सिद्धांत दो देश, दो वस्तु एवं दो साधन के मान्यता
पर आधारित है।
(2) साधन बाजार एवं वस्तु बाजार दोनो पूर्ण प्रतियोगी बाजार
होते हैं।
(3) प्रत्येक देश पूर्ण रोजगार के स्तर पर होता है।
की उपलब्धि में भिन्नता है है, लेकिन गुण समान होते
(4)
प्रत्येक देश में साधनों की उपलब्धि
में भिन्नता होती है, लेकिन गुण समान होते हैं।
(5) उत्पादन फलन दोनों
देशों में किसी एक वस्तु के लिए समान है। लेकिन अलग-अलग वस्तुओं के लिए भिन्न भिन्न होता
है।
(6) उत्पादन में पैमाने का स्थिर प्रतिफल लागू होता है।
(7) प्रत्येक देश में माँग की दशाएं तथा उत्पादन के साधनों की पूर्ति तथा
उत्पादन की दशाएं स्थिन रहती है।
(8) व्यापार पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं होता।
सामान्य संतुलन
ओहलिन का मत है कि मूल्य और विनिमय का जो सामान्य सन्तुलन सिद्धांत देश के अन्दर लागू होता है, वहीं अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भी लागू होता है। इसलिए इस सिद्धांत को सामान्य सन्तुलन का सिद्धांत भी कहा जाता है। जिस बिन्दु पर किसी वस्तु की माँग और पूर्ति बराबर हो जाती है उसी बिन्दु पर वस्तु का सन्तुलन मूल्य निर्धारित होता है।
ओहलिन
के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का मुख्य कारण यह है कि किसी वस्तु को अपने देश
में उत्पादन करने में जितना खर्च लगता है उससे कम खर्च पर वह विदेशों से मंगवाया जा सकता है। उपरोक्त कथन से दो निष्कर्ष निकलता है:-
(i) साधनों की मात्रा में भिन्नता के कारण वस्तु के मूल्य में
भिन्नता होती है।
(ii) साधनों की मूल्य में भिन्नता के कारण वस्तु के मूल्य में भिन्नता होती है।
एक श्रम प्रधान देश में श्रम अधिक
मात्रा में एवं सस्ते दर पर उपलब्ध होते हैं इसलिए ऐसे
देशों में श्रम प्रधान वस्तुएँ सस्ती होती है। इसलिए एक श्रम प्रधान देश को श्रम
प्रधान वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टता प्राप्त करनी चाहिए एवं उसका निर्यात
करना चाहिए। उसी प्रकार एक पूँजी प्रधान देश को पूँजी प्रधान वस्तुओं के उत्पादन
में विशिष्टता प्राप्त कर उसका निर्यात करना चाहिय इस प्रकार विशिष्टता प्राप्त
करने में दोनों देशों को निम्न तीन लाभ प्राप्त होगे
(i) दोनों देशों को सस्ते मूल्य पर वस्तुएं प्राप्त होगा
(ii) दोनों देशों में प्रत्येक साधन का मूल्य समान हो जाएगा
(iii) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के फलस्वरूप कुल उत्पादन एवं
उपभोग में वृद्धि होगी।
ओहलिन के उपरोक्त बातो को
रेखाचित्र द्वारा भी निम्न रूप से स्पष्ट किया जा सकता है
(1) विशिष्टता प्राप्त करने से प्रत्येक देश को लागत लाभ प्राप्त होता है:-
चित्र मे X अक्ष पर श्रम एवं Y अक्ष पर पूँजी दिखलाया गया है। AA देश A का साधन मूल्य है जो कि
एक पूँजी प्रधान देश है जबकि BB देश B का साधन मूल्य है जो कि एक श्रम प्रधान देश
है। IC1 वस्तु X जो कि पूंजी प्रधान है का सम उत्पाद वक्र है तथा IC2 वस्तु Y जो कि श्रम प्रधान है, का सम-उत्पाद वक्र है।
देश A,E बिन्दु पर उत्पादन करेगा जहाँ वह श्रम की अपेक्षा पूँजी का
अधिक प्रयोग करेगा जबकि देश B का सन्तुलन बिन्दु H है जो पूँजी की
अपेक्षा उत्पादन में श्रम का अधिक प्रयोग करता है।
अगर देश A श्रम प्रधान वस्तु का उत्पादन करें तो ऐसी स्थिति में उसे F
बिन्दु पर उत्पादन करना पड़ेगा जहाँ उत्पादन लागत काफी ऊँचा होगा। इसी प्रकार यदि
देश B पूँजी प्रधान वस्तु का उत्पादन करे तो उसे G बिन्दु पर
उत्पादन करना पड़ेगा जहाँ उत्पादन लागत काफी ऊँचा होगा। अतः स्पष्ट है कि पूँजी
प्रधान देश को पूँजी प्रधान वस्तु के उत्पादन में एवं श्रम प्रधान देश को श्रम
प्रधान वस्तु के उत्पादन में विशिष्टता प्राप्त करनी चाहिए तभी दोनों को अधिकतम
लाभ होगा।
(ⅱ) साधनों के मूल्य में समानता :- श्रम प्रधान देश में श्रम सस्ता एवं पूँजी प्रधान देश में पूँजी सस्ता होता है। लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के फलस्वरूप दोनों देशों में साधनों का मूल्य समान हो जाता है। इसे निम्न रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
चित्र में OO1 तथा OO2 क्रमशः इंग्लैण्ड एवं भारत का प्रसंविदा वक्र है। इग्लैण्ड
एक पूँजी प्रधान देश है जबकि भारत
एक श्रम प्रधान देश है। व्यापार पूर्व इंग्लैण्ड R बिन्दु पर तथा भारत T1
बिन्दु पर उत्पादन करता है। अब यदि दोनों देशों में व्यापार शुरू हो जाता है तो वस्तुओं
के बाजार का विस्तार होगा क्योंकि वस्तुओं के घरेलू माँग के साथ विदेशी माँग जुड़ जाती
है। अतः इंग्लैण्ड पूँजी प्रधान वस्तु जबकि भारत श्रम प्रधान वस्तु
का उत्पादन बढ़ाएगा अर्थात् इग्लैण्ड अपने प्रसंविदा वक्र के R बिन्दु से हटकर O1
बिन्दु की ओर गतिमान होगा ताकि पूंजी प्रधान वस्तु की अधिक मात्रा एवं श्रम प्रधान
वस्तु की कम मात्रा उत्पन्न हो सके। इसी प्रकार भारत अपने पूर्व उत्पादन स्तर T1
से हटकर O2 की ओर गतिमान होगा ताकि श्रम प्रधान वस्तु की अधिक एवं पूँजी प्रधान
वस्तु की कम मात्रा उत्पन्न की जा सके। इग्लैंड पूँजी प्रधान वस्तु की उत्पादन में वृद्धि करने के लिए
श्रम प्रधान उद्योग से साधानों को हटाएगा। फलस्वरूप वहाँ श्रम की माँग मे कमी होगी और श्रम
की कीमत घटेगी। दूसरी तरफ पूँजी प्रधान वस्तु के उत्पादन में वृद्धि के लिए पूँजी की
माँग में वृद्धि होगी। फलतः पूँजी की कीमत में वृद्धि होगी। भारत में ठीक इसके विपरीत
प्रक्रिया शुरू होगी अर्थात् श्रम की कीमत बढ़ेगी और पूँजी की कीमत घटेगी।
इस प्रकार व्यापार के कारण दोनों देशों में साधनों की कीमत में परिवर्तन की यह प्रक्रिया
उस समय तक चलती रहेगी जब तक दोनों देशों में दोनों वस्तुओं की कीमते समान नहीं हो जाती।
नए संतुलन बिन्दु इंग्लैण्ड एवं भारत में क्रमशः Q एवं S है। चूंकि Q एवं S पर साधन
की गहनता समान है साथ ही चूंकि QO1 तथा SO2 रेखा भी समांतर है
अतः पूँजी प्रधान उद्योग में भी साधन की गहनता समान है। साधनों की गहनता समान होने का
अर्थ है कि दोनों देशो में दोनों उद्योगों में श्रम एवं
पूँजी की सीमांत उत्पादकता समान है। इसका अर्थ है कि दोनों देशो में दोनों साधनो की
कीमत समान होगी।
(iii) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के फलस्वरूप कुल उत्पादन एवं उपभोग में वृद्धि होती है:- इसे निम्न रेखाचित्र से स्पष्ट कर सकते है
माना कि
एक भूभाग है जिसके कुल साधनों की मात्रा को रेखाचित्र में R बिन्दु द्वारा दिखाया गया
है। भूभाग में बटवारे
के पूर्व अधिकतम उत्पादन को OR रेखा द्वारा मापा गया है।
अब यदि मान लिया जाए कि भूभाग को दो छोटे क्षेत्र-I एव क्षेत्र-II में बाँट दिया जाता
है जहाँ क्षेत्र-I पूँजी प्रधान तथा क्षेत्र-II श्रम प्रधान है। अतः उत्पादन के लिए
क्षेत्र-I समउत्पाद वक्र के पूँजी प्रधान बिन्दु A तथा क्षेत्र-II श्रम प्रधान बिन्दु
C को चुनेगा। यहाँ विभाजन का प्रत्यक्ष परिणाम यह हुआ कि सामूहिक उत्पादन मे कमी आयी
। अब मान लिया जाए कि दोनों क्षेत्रो में व्यापार प्रारंभ हो जाता है। ऐसी स्थिति में
क्षेत्र-I
केवल पूँजी प्रधान वस्तु का तथा क्षेत्र-II केवल श्रम प्रधान
वस्तु का उत्पादन तथा निर्यात करेगा। इस विशिष्टिकरण का परिणाम सामूहिक उत्पादन में
वृद्धि होगा। दोनो क्षेत्र ऊँचे समोत्पादन वक्र के B बिन्दु पर चले जाएगे।
उपरोक्त लाभों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि दो देश के बीच
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का मुख्य कारण उन देशों में साधनों के मूल्य में अन्तर का
होना है।
आलोचनाएँ
(1) केवल
मूल्य में भिन्नता ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का कारण नहीं :- ओहलिन के अनुसार वस्तु के मूल्य में भिन्नता के कारण
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार होता है, लेकिन वास्तव में यह व्यापार यातायात व्यय,
पैमाने के बचत आदि से बहुत अधिक प्रभावित होता है।
(2) उत्पादन के साधन समरूप नहीं होते :- ओहलिन का सिद्धांत विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादन के
साधनों को बिल्कुल समान मानते है परन्तु वास्तविकता इससे कही भिन्न है। सैम्युलसन
के अनुसार, "यह सिद्धांत उस समय फेल हो जाता है जब दो देशों में उत्पादन
फलन भिन्न होता है"।
(3) प्राकृतिक साधन की उपेक्षा:- इस सिद्धांत में प्राकृतिक साधनों की भूमिका को व्यापार
का आधार नहीं माना। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में बहुत सी वस्तुएं हैं जिनके
उत्पादन में प्राकृतिक साधन महत्त्वपूर्ण योगदान करते है परन्तु ओहलिन ने इनका
उल्लेख अपने सिद्धांत में नहीं किया।
(4) सामान्य साम्य प्रणाली को विकसित करने में असमर्थ :- इस सिद्धांत के अनुसार दो देशों के मध्य व्यापार का
कारण उनकी साधन संपन्नता में अन्तर है। किन्तु व्यवहारिक रूप में यह पाया जाता है
कि विश्व व्यापार का एक बड़ा भाग ऐसे देशों के मध्य होता है जिनकी साधन सम्पन्नता
एक दूसरे से मिलती है।
(5) साहसी की भूमिका की उपेक्षा :- इस सिद्धांत में साहसी की भूमिका की भी उपेक्षा की गयी
है। पूर्ण प्रतियोगिता में तो नहीं, अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत प्रशासनिक
कुशलता, संगठन की योग्यता तथा जोखिम उठाने की क्षमता आदि के कारण साहसी
महत्त्वपूर्ण घटक हो जाता है। वस्तुतः मल्टिनेशनल आज जो विश्व व्यापार में हावी है
उसका मुख्य कारण कुशल प्रशासन एवं संगठन की योग्यता है।
(6) गौण उत्पादन पर विचार नही :- ओहलिन सिद्धांत गौण उत्पादन पर विचार नहीं करता है।
(7) साधन प्रतिस्थापन :- जब दोनों वस्तुओं के उत्पादन फलन में प्रतिस्थापन की लोचे असमान होती है और किसी एक वस्तु के उत्पादन में प्रतिस्थापन की सीमा बहुत अधिक होती है तो साधन प्रतिलोमता या उलटाव की संभावना होती है। साधन प्रतिलोमता की स्थिति में साधन कीमत समानीकरण सिद्धांत चरितार्थ नही होता। साधन प्रतिलोमता की स्थिति में पूंजी सम्पन्न देश तो पूँजी प्रधान तकनीक का उपयोग करके पूँजी गहन वस्तु का निर्यात करता है किंतु श्रम प्रधान देश भी उसी का निर्यात श्रम प्रधान तकनीक द्वारा उत्पादित करके करता है। इसी तत्व को चित्र द्वारा स्पष्ट किया गया है
चित्र में दो देश इंगलैण्ड और भारत है। इंगलैंड और भारत की
साधन कीमत रेखाये क्रमशः A B और A1B1 है। इंगलैंड की साधन
कीमत रेखा AB का ढाल (OA/OB) भारत की साधन कीमत रेखा A1B1 के ढाल (OA1/OB1) से अधिक है जो यह प्रदर्शित करता है कि इंगलैंड में भारत
के अपेक्षा पूँजी सस्ती है। इगलैंड मशीन का उत्पादन साधन समानुपात रेखा OT तथा
गेहूं का उत्पादन साधन समानुपात रेखा OS के आधार पर कर सकता
है किंतु OR रेखा के नीचे दाहिनी ओर A1B1
साधन कीमत रेखा पर पूँजी गहन वस्तु (मशीन) श्रम गहन है तथा श्रम गहन वस्तु का
(गेहूँ) पूँजी गहन है। इस स्थिति में यह स्पष्ट नहीं है कि कौन देश किस वस्तु उत्पादन
और निर्यात करेगा। इसी स्थिति को साधन प्रतिलोमता की स्थिति कहते है। चित्र से स्पष्ट है कि मशीन के उत्पादन में प्रतिस्थापन
की सीमा AB1 गेहूँ के उत्पादन के प्रतिस्थापन की
सीमा SS1 से बहुत अधिक है। ऐसी स्थिति साधन प्रतिलोमता
को जन्म देती है।
(8) आय के वितरण में अन्तर :- कुछ आलोचको का मत है कि यदि आय के वितरण में अन्तर होने के कारण उपभोक्ताओं की पसंदगियों में अन्तर है तो भी विदेशी व्यापार हो सकता है। भले ही दोनों देशों में साधन समान मात्रा में उपलब्ध हो ।
चित्र में मान लिया गया है कि दो देश A एवं B है जो
कपडे एवं गेहूं का उत्पादन कर रहे है। दोनों देशों का उत्पादन संभावना वक्र AB है।
व्यापार के अभाव में देश A का उत्पादन एवं उपभोग P1
बिन्दु पर होता है जो यह दर्शाता है कि देश A में उपभोक्ताओं में कपड़े की पसंदगी
अधिक है। इसी प्रकार व्यापार के अभाव में देश B का
उत्पादन एवं उपभोग बिन्दु P2 है जो यह दर्शाता है कि यहाँ के उपभोक्ताओं को गेहूँ की
पसंदगी अधिक है। मान लिया कि दोनों देशों के बीच व्यापार प्रारम्भ होता है तो
अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय रेखा TT हो जाती है जो दोनों देशों को अपेक्षाकृत श्रेष्ठ संयोग उपलब्ध कराती है। देश A के निवासी C1 बिन्दु
पर ON कपड़े और OM गेहूँ की इकाई का उपभोग करेंगे। इसी प्रकार देश B के निवासी C2 पर सन्तुलन में होगे जहाँ वे कपड़ा
का OL1 तथा गेहूँ का OM2 इकाई का उपभोग करते है। इस प्रकार दोनो
देश अपना विशिष्टीकरण उपभोग में बढ़ाते
है और P बिन्दु पर उत्पादन में विशिष्टिकरण
बन्द कर देते हैं। इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए दो देशों में उत्पादन के साधनों
की उपलब्धता में अन्तर होना आवश्यक नही।
प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के व्यापार के सिद्धांत में तुलना
(1) ओहलिन ने अपने सिद्धांत में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में
वृहत् पैमाने के उत्पादन के महत्व पर विशेष प्रकाश डालता है। इनके अनुसार दो देशो में
समान सापेक्षित मूल्य रहने पर भी उन्हें उन वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि, करने से
लाभ होगा, जिनका बाजार केवल देश तक ही सीमित है और इतना छोटा है कि
वृहत् पैमाने पर उत्पादन कठिन है।
(2) ओहलिन ने उत्पादन के सभी साधनों अर्थात् भूमि, श्रम एवं
पूँजी के गुणात्मक अन्तरो पर भी प्रकाश डाला है और बताया है कि किस प्रकार उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय
तुलना के लिए समूहों में असानी से वगीकृत किया जा सकता है।
(3) ओहलिन ने अभावग्रस्त साधनों तथा परिवहन व्यय दोनों पर ध्यान रखते
हुए अन्तर्राष्ट्रीय मूल्य संबंधों की व्याख्या की है।
(4) ओहलिन ने उत्पत्ति के साधनों की अन्तर्राष्ट्रीय गतिशीलता
की बाधाओं पर भी प्रकाश डाला है और इस बात की व्याख्या की है कि किस प्रकार उत्पत्ति
के साधनों की गति वस्तु की गति के प्रतिस्थापन के रूप में कार्य कर सकती है।
(5) ओहलिन के सिद्धांत को इसकी पद्धति एवं निष्कर्षों में कोई
भी परिवर्तन लाए बगैर कितने भी क्षेत्रो या देशों के साथ लागू किया जा सकता है।
इस प्रकार ओहलिन - हैक्चर द्वारा प्रतिपादित
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का आधुनिक सिद्धांत ही श्रेष्ठ है। जहाँ परम्परावादी सिद्धांत में
उत्पत्ति के साधन के रूप में केवल श्रम पर ध्यान दिया गया था वही ओहलिन के सिद्धांत में श्रम एवं पूंजी
दोनों पर ध्यान दिया गया है। इसलिए परम्परावादी
सिद्धांत को Single Factor Trade Model कहा जाता है, जबकि ओहलिन के सिद्धांत
को Two Factor Trade Model कहा जाता है। ओहलिन का सिद्धांत
इसलिए भी श्रेष्ठ है क्योकि उन्होंने अपने सिद्धांत की व्याख्या मूल्य के सामान्य सिद्धांत
के आधार पर की है।
निष्कर्ष
निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते
है कि ओहलिन का सिद्धांत जटिल तथा मिश्रित होते हुए भी प्रतिष्ठित सिद्धांत जिसकी नीवे बहुत सरल व लड़खडाती हुई है- की अपेक्षा
अधिक पूर्ण व पर्याप्त है। ओहलिन का सिद्धांत सुगम परन्तु अवास्ततिक प्रतिष्ठित सिद्धांत
की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं की अधिक लचीली व
वास्तविक व्याख्या करने में सहायक है।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)