प्रश्नः- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार
के तुलनात्मक लागत सिद्धांत की व्याख्या करे?
→ रिकार्डों द्वारा प्रतिपादित अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार
के सिद्धांत की विवेचना कीजिये?
उत्तर :- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के तुलनात्मक लगात सिद्धांत की चर्चा सबसे पहले टोरेन्स
ने की। बाद में 1847 ई. में ने 'The principle of
Political Economy' में प्रो रिकार्डो ने इस सिद्धांत की वैज्ञानिक
व्याख्या प्रस्तुत की, इसके बाद जे. एस. मिल, कैयंर्स, बेस्टबल ने इसे संशोधित किया। प्रो. टाँसिंग और हैबरलर ने इस सिद्धांत के पुननिर्माण
का कार्य किया।
तुलनात्मक सिद्धांत के आधार पर किसी देश को उस वस्तु का उत्पादन या निर्माण
करना चाहिए जिसमे तुलनात्मक लागत कम से कम हो अर्थात् तुलनात्मक लाभ अधिक हो और उसी का निर्यात करना चाहिए। दूसरे देश को उस वस्तु का उत्पादन करना
चाहिए जिसमे उसे तुलनात्मक हानि कम से कम हो। तुलनात्मक लागत के सिद्धांत को स्पष्ट
करते हुऐ प्रो. रिकार्डो ने लिखा, "दो व्यक्ति है और वो दोनो ही जूते और टोप बना सकते है और इन में एक व्यक्ति
दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा दोनो ही कार्यों में श्रेष्ठ है। परन्तु वह व्यक्ति टोप बनाने
में अपने प्रतियोगी से 20% और जूते बनाने में 33% अधिक कुशल है। क्या यह दोनों व्यक्तियों के हित में नहीं होगा की कुशल व्यक्ति
केवल जूता बनाएं और दूसरा व्यक्ति केवल टोप बनाने का कार्य करे।
बेस्टबल ने तुलनात्मक लागत सिद्धांत की व्याख्या इस प्रकार से की है " एक डाक्टर बागवानी का कार्य माली से अधिक कुशलता से कर सकता है परन्तु वह डाक्टरी में और भी अधिक
कुशल हो सकता है। उसे सार्वाधिक लाभ उसी समय होगा जब वह केवल डाक्टरी का कार्य करे।
इसी प्रकार एक देश दूसरे देश के अपेक्षा कुछ वस्तुएँ सस्ती बना सकता है पर उस देश को
सबसे अधिक लाम उसी समय होगा जब वह केवल ऐसी वस्तुओं का उत्पादन करे जिनमे उसे दूसरे
के अपेक्षा सर्वाधिक तुलनात्मक लाभ हो"। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की तुलनात्मक लागत सिद्धांत की
व्याख्या एक उदाहरण से किया जा सकता है। मान लिया की A और B दो देश है। दोनो देश X और Y वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। A देश B देश से X तथा Y दोनों ही वस्तुओं के उत्पादन
में दक्ष्य है फिर भी A देश दोनो वस्तुओं का उत्पादन नही करेगा। A देश उसी वस्तु
का उत्पादन करेगा जिसमें तुलनात्मक लागत कम से कम हो अर्थात् जिसमे तुलनात्मक लाभ
ज्यादा से ज्यादा मिलता हो इसे वस्तु का निर्यात भी A देश करेगा। दूसरी ओर B देश दोनों वस्तुओं के उत्पादन
में A के बराबर दक्ष्य नहीं है फिर भी वह उस वस्तु का उत्पादन करेगा जिसमे उसे तुलनात्मक हानि कम से कम
होती है।
मान लिया की A तथा B दोनों देशो मे लागत
की समान स्थिती है इस स्थिती में -
A देश 10X अथवा 10Y का उत्पादन करता है
B देश 4X अथवा 8Y का उत्पादन करता है
A देश का लाभ (B देश की
तुलना में)
X वस्तु के उत्पादन में
अतः तुलनात्मक हानि B देश को Y वस्तु के उत्पादन में कम है। इसलिए B देश Y वस्तु का उत्पादन करेगा और उसी का निर्यात भी करेगा।
चित्र से यह स्पष्ट है की
PQ =
A देश की उत्पादन संभावना रेखा
RS =
B देश
की उत्पादन संभावना रेखा
A
देश को X तथा Y
दोनों वस्तुओं के उत्पादन में B
देश पर निरपेक्ष लाभ है। A का उत्पादन OQ
of X अथवा OP
of Y है जबकि B देश का OS
of X अथवा OR of Y है। PQ
के समानान्तर RT रेखा खींच देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि A देश को X
वस्तु के उत्पादन में सापेक्ष लाभ ज्यादा है। यह इस प्रकार स्पष्ट है
X
के उत्पादन मे लाभ = QS
Y
के उत्पादन में लाभ = PR
PR
< QS
B
देश को दोनों ही वस्तुओं के उत्पादन में हानि पर सापेक्ष हानि Y
के उत्पादन में कम है। यह इस तरह स्पष्ट है -
A
देश का लाभ (B देश की तुलना में) Y
वस्तु के उत्पादन में
इस तरह यह स्पष्ट होता है
कि A देश को X वस्तु के उत्पादन में 2.5 गुणा तथा Y वस्तु के उत्पादन में 1.25
गुणा लाभ प्राप्त होता है। A देश को X तथा Y दोनो ही वस्तुओं के
उत्पादन में लाभ मिलता है परन्तु तुलनात्मक लाभ X वस्तु से ज्यादा है। अत: A
देश X का उत्पादन करेगा और उसका निर्यात भी करेगा।
B देश को दोनो ही वस्तुओं
के उत्पादन में हानि होती है परन्तु Y के उत्पादन में तुलनात्मक
हानि कम है। B देश की हानि X वस्तु के उत्पादन में
B देश
की हानि Y वस्तु के उत्पादन में
X वस्तु के उत्पादन में हानि
= SQ
Y वस्तु
के उत्पादन में हानि = RP
RP <
SQ
A देश X वस्तु का उत्पादन करेगा और
B देश Y वस्तु का उत्पादन करेगा। इन
दोनों देशों के बीच X तथा
Y वस्तु
का व्यापार होगा।
A देश
में X तथा
Y वस्तुओं
के उत्पादन व्यय का अनुपात
10X
: 10Y = 1X : 1Y
B देश
में X तथा
Y वस्तुओं
के उत्पादन व्यय का अनुपात
4X
: 8Y = 1X : 2Y
इसलिए
विनिमय दर की दो सीमाओं हो जाती है। A देश
के लिए विनिमय दर की निम्न सीमा 1X =
1Y होगी
तथा 1X = 2Y उच्च
सीमा होगी। A देश एक ईर्काई X के
बदले 1 इकाई Y से
कम स्वीकार नहीं करेगा तथा B देश
1 इकाई
X के
बदले 2Y से
अधिक देने को तैयार नहीं होगा।
इस तरह अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में तुलनात्मक लागत का सिद्धांत स्पष्ट करता है कि एक देश आवश्यक रूप से उन वस्तुओं का उत्पादन नहीं करता है जिन्हें वह अन्य देशों के तुलना सस्ते में पैदा कर सकता है, बल्कि उन वस्तुओं का उत्पादन करता है जिन्हे वह अधिकतम तुलनात्मक लाभ अथवा न्यूनतम तुलनात्मक लागत पर तैयार कर सकता है। इसे हम चित्र से स्पष्ट कर सकते है -
OA देश A का तथा OB देश
B का प्रस्तावना वक्र है OP एवं OQ क्रमशः देश A एवं देश B के X एवं
Y के
उत्पादन के घरेलू स्थिर लागत अनुपात है। ये दोनो रेखाएँ वास्तव में वे सीमाएँ है
जिसके बीच दोनों के वास्तविक व्यापार की स्थिति होगी। वास्तविक व्यापार E बिन्दु पर निर्धारित होगा जहाँ
OA तथा OB एक दूसरे को काटते है।
देश A के अन्दर लागत अनुपात
जबकि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के माध्यम से
अर्थात् OP रेखा
की ढाल बढ़ जाती है। इसलिए देश A को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार ES लाभ
प्राप्त है। उसी प्रकार देश B में लागत अनुपात RK है।
`\frac{RK\ of \Y}{OK\ of \X}` के माध्यम से `\frac{EK\ of \Y}{OK\ of \X}` प्राप्त है।
इसी प्रकार देश B को RE लाभ प्राप्त होगा। इस
तरह तुलनात्मक लागत के अन्तर के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से दोनों देशों को
लाभ प्राप्त होता है। तुलनात्मक लागत अन्तर को OP एवं OQ का ढाल प्रदर्शित
करता है।
मान्यताऐ
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रतिष्ठित
सिद्धांत निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है -
(1) केवल श्रम उत्पादन का साधन है और उत्पादन
लागतों में केवल श्रमिक व्यय ही शामिल है।
(2) सभी श्रमिक एक ही प्रकार के है।
(3) उत्पादन में उत्पत्ति समता नियम लागू होता
है। अर्थात् दोनों वस्तुओं के लागत अनुपातो को स्थिर समझा जाता है।
(4) उत्पादन के साधन देश के भीतर पूर्णतया
गतिशील है।
(5) अन्तर्राष्ट्रीय
व्यापार में किसी प्रकार की रुकावट नहीं है।
(6) यह सिद्धांत दो देशों के बीच दो वस्तुओं
के व्यापार के आधार पर ही क्रियाशील होता है।
(7) परिवहन लागत पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
(8) दोनों देशों में स्वर्णमान विद्यमान है और मुद्रा के परिमाण सिद्धांत को कार्यशील
माना गया है।
(9) दोनों देश स्थायी संतुलन की ओर सदैव प्रयत्नशील होते हुए माने जाते है और इसमें
व्यापार चक्र के समान घटनाओं द्वारा बाधा नहीं पड़ती है।
(10) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार समान आर्थिक शक्ति वाले दो देशों में तथा समान आर्थिक
महत्व वाली दो वस्तुओं में होता है।
(11) उत्पादन के सभी साधन दोनों देशो में पूर्ण रोजगार की स्थिति में है।
आलोचनाएँ
एल्सवर्थ ने लिखा है, "इस सिद्धांत को इतना ही निरपेक्ष और निर्विवाद सत्य
समझा जाता है जितना कि उत्पत्ति ह्मस नियम एवं श्रम-विभाजन के लाभों आदि को"। इस सिद्धांत ने अन्तर्राष्ट्रीय
व्यापार की अनेक व्यवहारिक समस्याओं को सुलझाने में सहायता की है। परन्तु यह सिद्धांत
बहुत ही दुर्बल था, क्योंकि यह बहुत सी अवास्तविक मान्यताओं पर आधारित था। वर्तमान
समय में बर्टिल ओहलिन और फ्रैंक ग्राहम आदि लेखकों ने इसकी कड़ी आलोचना की है। जो निम्नलिखित है:-
(1) श्रम लागत की मान्यता :- यह सिद्धांत उत्पादन लागत में केवल श्रम को सम्मिलित
करता है जो उचित नहीं है क्योंकि उत्पादन के क्षेत्र में भूमि, पूँजी व साहस आदि का
भी महत्व है और ये सभी उत्पादन लागत के अंग है। आलोचकों की मान्यता है कि इस सिद्धांत
को श्रम लागत के आधार पर समझना त्याग देना चाहिए और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की व्याख्या
कीमतों के रूप में करनी चाहिए क्योंकि ये कीमते ही है जो यह निर्धारित करती है कि कौन
सी वस्तुएं अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में सम्मिलित होगी और कौन सा देश उन्हें उत्पन्न
करेगा।
(2) स्थिर लागतो की गलत मान्यता :- क्लासिकल, अर्थशास्त्रियों
के अनुसार स्थिर लागत नियम सभी उद्योगों में कार्यशील होता
है। परिणामतः किसी वस्तु को अतिरिक्त इकाइयों के प्रति इकाई स्थिर लागत पर प्राप्त
किया जा सकता है। लेकिन यह मान्यता पूर्णतः गलत है। उत्पादन में अधिकांशतः
उत्पत्ति ह्मस नियम कार्यशील होता है।
(3) शून्य परिवहन लागत की गलत मान्यता :- प्रतिष्ठित सिद्धांत हस्तान्तरण या परिवहन की लागत पर विचार नहीं करता
जबकि परिवहन की लागत बहुत ही महत्त्वपूर्ण और विशेष किस्म की उपादान है। कभी - कभी
लागतो में तुलनात्मक लाभ बढती हुए परिवहन लागतों के कारण प्रभावहीन हो जाता है।
(4) यह सिद्धांत अपूर्ण, कृत्रिम व अव्यावहारिक है :- क्योकि व्यावहारिक जीवन में बहुत से ऐसे उदाहरण (केस) मिलते है जिनको इस
सिद्धांत के अनुसार नहीं समझाया जा सकता है।
नीचे हम इस प्रकार की
तीन दशाओं को लेते है -
(a) घरेलू वस्तुओ की दशा:- वास्तविक जीवन में
ऐसी स्थिति भी देखने को मिल सकती है जबकि दो देशों के बीच व्यापार हो रहा हो और
कुछ ऐसी वस्तुओं का उत्पादन भी होता रहे जिनका न तो निर्यात हो और न आयाता इसके कई
कारण हो सकते है। जैसे- कुछ वस्तुएं तो भौगोलिक दृष्टि से गतिहीन होती है, जैसे-
मकान ।
(b) उन वस्तुओं की दशा जिनका साथ-साथ उत्पादन भी होता है और आयात भी :- प्रायः ऐसा भी देखा गया है कि कोई भी देश किसी वस्तु का एक साथ ही उत्पादन करता है और आयात भी । ऐसी स्थिति उस समय संभव होती है जबकि वह देश वस्तु विशेष का उत्पादन लागत वृद्धि नियम के अन्तर्गत कर रहा हो। इसे चित्र से स्पष्ट कर सकते है
माना कि A तथा B दो देश है। देश A वस्तु का उत्पादन स्थिर व्यय के अन्तर्गत करता है और उसके सीमांत व्यय की रेखा
MCA है तथा B देश वस्तु का
उत्पादन केवल उत्पादन वृद्धि नियम के अन्तर्गत कर सकता है और उसके उत्पादन व्यय की
रेखा MCB है।
माना कि एक देश की वस्तु भेजने का यातायात व्यय कुछ नहीं है और वस्तु की कुल
मांग OP से अधिक है। चूंकि देश A वस्तु की कोई भी मात्रा OR के बराबर स्थिर व्यय
पर उत्पन्न कर सकता है, इसलिए वस्तु की कीमत OR होगी। A देश वस्तु की OP मात्रा का उत्पादन करेगा और यदि OR कीमत पर उसकी माँग OP से
अधिक है अर्थात् OQ है तो ऐसी स्थिति
में वह वस्तु की PQ का आयात करेगा। इस
प्रकार इस स्थिति में देश A वस्तु का उत्पादन और आयात दोनो ही कर रहा है।
इसके विपरीत यदि B देश में वस्तु की कुल माँग OP से कम है अर्थात् OL है तो वह शेष मात्रा
अर्थात् LP का A देश को निर्यात कर देगा। परन्तु यदि A देश की मांग OR कीमत पर OP से अधिक है तो वह
शेष का उत्पादन स्वयं करेगा। इस प्रकार इस स्थिति में A देश वस्तु का उत्पादन और
आयात दोनों ही कर रहा है।
इस संबंध में फ्रैंक ग्राहम ने उचित ही लिखा
है, "पूर्ण विशिष्टीकरण की
परंपरावादी संभावना दो देशों के मध्य तभी संभव हो सकती है जब हम दो ऐसी वस्तुओं का
विचार करे जो लगभग समान आर्थिक आकार की है" । परन्तु वास्तविक संसार में ये दोनों बाते कम पाई जाती है
इसलि तुलनात्मक लागत सिद्धांत अवास्तविक प्रतीत होता है।
(c) वह देश जिसमे वस्तुओं का आयात और निर्यात साथ-साथ होता है, यह भी संभव हो सकता
है कि एक देश एक ही वस्तु का आयात और निर्यात दोनों ही कर रहा हो जैसे-भारत लंबे
रेशे की रुई का आयात करता है परन्तु छोटे रेशे का निर्यात करता है।
(5) माँग पक्ष की उपेक्षा:- तुलनात्मक लागत सिद्धांत में माँग पक्ष की पूर्ण उपेक्षा की गई है, जबकि वास्तविक जीवन में माँग की दशाएं व्यापार की संरचना और दिशा पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालती है। यदि किसी देश में किसी वस्तु के उत्पादन के संबंध में यद्यपि तुलनात्मक लाभ प्राप्त है, फिर भी हो सकता है कि माँग की तीव्रता व अधिकता के कारण उसे उस वस्तु का आयात करना पड़े। इसे चित्र में स्पष्ट कर सकते है-
चित्र मे दो देश वर्मा और भारत लिए गए है जो
चावल और गेहूं का उत्पादन करते हैं। दोनों देशों में उत्पादन सम्भावना वक्रो से
स्पष्ट है कि वर्मा चावल का तथा भारत गेहूं का उत्पादन तुलनात्मक रूप से कम लागत
पर कर सकता है किंतु माँग की परिस्थितियां इस प्रकार की है कि वर्मा मे चावल की
तथा भारत में गेहूं की कीमत अधिक है। फलतः भारत और वर्मा के बीच इस प्रकार व्यापार
होता है कि भारत गेहूँ का और वर्मा चावल का आयात करता है।
(6)
प्राविधिक अंतर :- अन्य बातों
के समान रहते हुए भी दो देशों के मध्य तकनीकी या प्राविधिक भिन्नता के कारण वस्तुओं की कीमतों में अंतर हो सकता है और
व्यापार शुरू हो सकता है। उदाहरण के लिए मान लीजिए, द्विदेशीय व्यापार मॉडल में A
देश X वस्तु के उत्पादन में तकनीकी
नवप्रवर्तन के कारण विशेष दक्षता प्राप्त है। यह देश उपादानों के निश्चित संयोग से
X वस्तु के कुल उत्पादन का एक निश्चित भाग अतिरिक्त उत्पादन के रूप में प्राप्त
करता है। इसके अतिरिक्त उत्पादन के कारण देश के संदूक चित्र में X वस्तु के समोत्पाद वक्र के क्रम में परिवर्तन हो जाएगा जबकि B देश में X वस्तु के उत्पादन में उस प्रकार का सुधार नहीं
होगा जैसा कि देश A में होगा। क्योंकि पेटेन्ट राइट के कारण तकनीकी नवप्रवर्तन का लाभ केवल A देश को ही प्राप्त होगा।
यदि अन्य बाते समान रहे तो तकनीकी नवप्रवर्तन के कारण A देश का उत्पादन सम्भावना वक्र इस प्रकार परिवर्तित होगा कि Y वस्तु का उत्पादन ज्यों का त्यो रहेगा जबकि X वस्तु के उत्पादन में वृद्धि हो जाएगी जैसा कि चित्र में दर्शाया गया है।
चित्र में X वस्तु का उत्पादन OX से बढ़कर OX1 हो जाता है। जबकि Y वस्तु का उत्पादन पूर्ववत् (OX) ही रहता है। A देश में उत्पादन सम्भावना
वक्र में इस प्रकार के फैलाव के कारण अथवा X वस्तु के उत्पादन में वृद्धि के कारण X वस्तु की घरेलू कीमत में ह्मस होगा और तुलनात्मक लागत बढ़ेगी। यह
क्रिया व्यापार के अवसर में और वृद्धि करेगी।
स्पष्ट है कि दो देशों के मध्य उत्पादन
की तकनीकी में अंतर होने के कारण भी विदेशी व्यापार का उदय होता है।
(7) स्वतंत्र व्यापार की गलत मान्यता :- तुलनात्मक लागत का सिद्धांत केवल
उन्ही दशाओं में लागू हो सकता है जब अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार स्वतंत्र रूप से हो रहा
हो तथा उसके मार्ग में कोई बाधा न हो। किंतु तथ्य तो यह है कि वर्तमान में अधिकांश
देश संरक्षण की नीति अपना रहे है।
(8) अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्था के लिए अनुपयुक्त :- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रतिष्ठित
सिद्धांत एक पूर्ण स्थिर संतुलन का विवेचन मात्र ही है और सबसे अधिक प्रत्यक्ष रूप
से इसका संबंध विकसित अर्थव्यवस्थाओं से ही रहा है।
(9) पूर्ण प्रतियोगिता की दोषपूर्ण कल्पना :- प्रतिष्ति अर्थशास्त्रियों का कथन था कि तुलनात्मक लागत सिद्धांत पूर्ण
प्रतियोगिता की मान्यताओं पर आधारित है परन्तु संसार में पूर्ण प्रतियोगिता नहीं पायी
जाती है। व्यवहार में एकाधिकृत एवं अपूर्ण प्रतियोगिता औद्योगिक संगठनों का ही जोर
देखा जाता है।
(10) दो से अधिक देश:- यह सिद्धांत यह मानकर चलता है कि व्यापार
केवल दो देशों के बीच होता है परन्तु व्यवहार में हम देखते है कि व्यापार दो देशो या
दो से अधिक देशों के बीच भी होता है।
(11) दो से अधिक वस्तुएं :- तुलनात्मक सिद्धांत की एक मान्यता
यह भी है कि व्यापार दो वस्तुओं का ही होता है। परन्तु वास्तविक जगत में दो से अधिक
वस्तुओं में व्यापार किया जाता है।
निष्कर्ष
उपयुक्त विवेचन के बाद हम कह सकते है
कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का सिद्धांत सही नही बन सका। सैम्युलसन ने इन दोषों के
बावजूद इस सिद्धांत की प्रशंसा की है। इनके शब्दो में,
"यदि लड़कियो की भाँति, सिद्धांत भी सौंदर्य प्रतियोगिताओं में विजयी हो सके तो तुलनात्मक लाभ का सिद्धांत उच्च स्थान प्राप्त करेगा क्योंकि यह सुन्दर और तर्क पूर्ण ढाँचा है"।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)