वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त (Marginal Productivity Theory of Distribution)

वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त (Marginal Productivity Theory of Distribution)

वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त  (Marginal Productivity Theory of Distribution)

प्रश्न :- वितरण की सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की आलोचनालक विवेचना कीजिए ।

☞ "संतुलन की अवस्था में सभी साधनो को उसकी सीमान्त उत्पादकता के समान मूल्य प्राप्त होता है।" इस कथन की आलोचनात्मक व्याख्या करें ?

उत्तर :- वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्वान्त का विकास 19वी शताब्दी के अन्त मे J.B.Clark, विकस्टीड, वालरस जैसे अर्थशस्त्रियो द्वारा एक दूसरे से स्वतंत्र रूप में किया गया। इन तीनों ने इस सिद्धान्त को अलग- अलग रूपों में प्रस्तुत किया। परंतु इन तीनों के मूल तत्व एक ही थे।

प्रो० J.B. Clark ने अपनी पुस्तक 'Distribution of Wealth' में बताया की "समाज में आय का वितरण एक प्राकृतिक नियम द्वारा नियमित होता है और यह नियम बिना घर्षण रूकावट के क्रियाशील हो तो वह उत्पादन के प्रत्येक साधन को धन की वह मात्रा दे देगा। जिसकी रचना वह करता है।"

यही सीमान्त उत्पादकता का मूल है। कालान्तर में प्रो. मार्शल ने इसे सामान्य रूप दिया। प्रो० हिक्स और श्रीमती रॉबिन्सन ने इसे संशोधित और परिभाषित किया।

इस सिद्धान्त के अनुसार उत्पादन के प्रत्येक साधनों को उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर पुरस्कार दिया जाता है। उत्पादन के कार्य में लगे हुए अन्य साधनो की मात्रा को स्थिर रखकर किसी एक साधन की एक इकाई में वृद्धि अथवा कमी होने से कुल उत्पादन में जो वृद्धि अथवा कमी होती है उसे सीमान्त उत्पादन कहते हैं।

उदाहरण के लिए - मान लिया जाए कि किसी कलम के कारखाने में 100 मजदूर मिलकर 500 कलमो का उत्पादन करते है। मजदूरो की संख्या 100 से बढ़ाकर 101 कर दी जाती है तो कलमो का कुल उत्पादन 500 से बढ़कर 504 हो जाता है। अतः यहां मजदूरी की सीमान्त उत्पादकता 4 कलम के बराबर है। इसी प्रकार यदि मजदूरों की संख्या 100 से घटाकर 99 कर दी जाए तो कलमो का कुल उत्पादन 500 से घटाकर 496 हो जाए। तब भी मजदूरी की सीमान्त उत्पादकता 4 कलम के बराबर होगी। यदि बाजार में 1 कलम का मूल्य 5 रु. हो तो 4 कलमो का मूल्य 20 रु० होगा और एक मजदूर की मजदूरी 20 रु० होगी। इसी प्रकार उत्पादन के अन्य साधनों का पुरस्कार भी सीमान्त उत्पादकता के आधार पर निश्चित होता है।

श्रीमती रॉबिन्सन ने सीमान्त उत्पादकता की परिमाषा देते हुए कहा है, "यदि उत्पादन के अन्य साधनो का मूल्य स्थिर रहता है तो यह कुल उत्पादन के मूल्य में हुई वह वृद्धि है जो कि एक अतिरिक्त मनुष्य को काम पर लगाने से प्राप्त होती है। दूसरे शब्दो में, यह सीमान्त भौतिक उत्पादकता का विचाराधीन इकाई या समूह के सीमान्त आय के गुणनफल के बराबर है।"

सीमान्त उत्पादकता को तीन प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है -

1. सीमान्त भौतिक उत्पादकता (MPP) :- जब कभी सीमान्त उत्पादकता को वस्तु की भौतिक मात्रा में व्यक्त किया जाता है तब उसे सीमान्त भौतिक उत्पादकता कहा जाता है। जैसे-100 श्रमिक 1000 इकाइयो का उत्पादन करते है और 101 श्रमिक 1010 इकाइयों का तो MPP =10 इकाई होगी।

परिवर्तनशील अनुपातो के नियम के क्रियाशील होने के कारण प्रारंभ में परिवर्तनशील साधन की भौतिक उत्पादकता बढ़ती है। उसके बाद उच्चतम बिन्दु पर पहुँचती है और फिर टने लगती है।

2. सीमान्त आय उत्पादकता (MRP) :- अन्य साधनो को स्थिर रखकर परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से कुल आय में जो वृद्धि होती है उसे सान की सीमान्त आय उत्पादकता कहते हैं।

यदि सीमान्त भौतिक उत्पादकता (MPP) की MR से गुणा कर दे तो MRP प्राप्त हो जाएगी। जैसे,

श्रम की इकाई

उत्पादन

कुल आय

100

1000

1000x10=10000

Rs.10 = 00

101

1010

1010x10 = 10100

MRP = 100

पुनः MPP X MR = MRP

10×10 =100

3. सीमान्त मूल्य उत्पादकता (MVP) :- सीमान्त मूल्य उत्पाद को तब प्राप्त किया जा सकता है जब सीमान्त भौतिक उत्पादकता को कीमत से गुणा कर दिया जाए।

MVP = MPP X Price

MVP = 10 X 10

MVP = 100 Rs.

वितरण की सीमान्त उत्पादकता का सिद्धान्त पूर्ण प्रतियोगिता की मान्यता पर आधारित है। इसमे कीमत स्थिर रहती है अत: MRP or MVP दोनों बराबर होती है। इसी के बराबर उत्पादन के साधनो को पुरस्कार दिया जाता है।

वितरण की सीमान्त उत्पाद‌कता सिद्धान्त की व्याख्या एक रेखाचित्र से की जा सकती है।

इस रेखाचित्र से यह स्पष्ट है कि

OX = श्रमिको की संख्या

OY = मजदूरी (पुरस्कार)

WR = मजदूरी की दर (सान की कीमत)

MP = सीमान्त उत्पादकता की रेखा

E = संतुलन बिन्दु, जहां मजदूरी श्रम की सीमान्त उत्पादकता के बराबर (EM=OW)

अतः EW अथवा OW = मजदूरी

OM = कार्यरत श्रमिक संतुलन की स्थिति

माना कि OS मजदूर काम में लगे हुए हो तो

AS = सीमान्त उत्पादकता

BS = मजदूरी

इसलिए नियोजक को श्रमिको की संख्या बढ़ाने से लाभ होगा। श्रमिको की संख्या तब तक बढ़ेगी जब तक की सीमान्त उत्पादकता और मजदूरी बराबर न हो जाए।

पुनः मान लिया कि ON मजदूर काम करते हैं

तो,

CN = मजदूरी होगी

DN = सीमान्त उत्पादकता

DN < CN (हानि की स्थिति)

अतः श्रमिको की छटनी होगी। जब तक MP = WR न हो जाए।

इस तरह यह स्पष्ट है कि संतुलन की स्थिति तभी उत्पन्न होती है जब मजदूरी की दर अर्थात् सान का पुरस्कार उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर हो जाती है।

वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत अल्पकाल में किसी सान का पारिश्रमिक उसकी सीमान्त आय उत्पादकता (MRP) के बराबर होता है। भले ही वह औसत आय उत्पादकता (ARP) के बराबर हो या न हो, लेकिन दीर्घकाल में किसी सान का पारिश्रमिक उसकी सीमान्त आय उत्पाद‌कता तथा औसत आय उत्पादकता दोनो के बराबर होता है। इसे समझने के लिए साधन की सीमान्त एवं औसत आय उत्पादकता तथा उत्पादन के लिए साधन की लागत पर ध्यान होगा।

किसी साधन के लिए उत्पादक जितना परिश्रमिक देता है वही उस सान की लागत या मूल्य है चूंकि पूर्ण प्रतियोगिता में साधनों की लागत या मूल्य बाजार में निर्धारित होता है, अत: सीमान्त एवं औसत साधन लागत रेखा क्षैतिज सीधी रेखा का रूप धारण करती है। इसका मतलब यह है कि किसी साधन की सीमान्त लागत औसत लागत के बराबर होती है।

सीमान्त आय उत्पादकता (MRP) एवं साधन की लागत या मूल्य के संबंध को रेखाचित्र में दिखा सकते हैं।

चित्र में Q बिन्दु पर सीमान्त आय उत्पादकता (MRP) तथा साधन का पारिश्रमिक या सीमान्त लागत एक दूसरे के बराबर होता है। अतः उत्पादन में साधन की OM मात्रा लगायी जाएगी और उनका मूल्य OP होगा। Q बिन्दु से आगे उत्पादकता, लागत से कम है, अतः उत्पादक साधन की OM मात्रा से अधिक उत्पादन में नहीं लगायेगा। अन्यथा उसे हानि होगी। वह OM मात्रा से कम भी नहीं लगायेगा, क्योंकि वैसी हालत में उत्पादकता लागत से अधिक होगी और साधन की इकाइयों में वृद्धि करने से लाभ में वृद्धि होगी। इस प्रकार वितरण की सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त यह बतलाया है कि अल्पकाल में साधन का पारिश्रमिक उनकी सीमान्त आय उत्पादकता के बराबर होता है और सीमान्त आय उत्पादकता द्वारा ही निधीरित होता है।

दीर्घकाल में संतुलन की स्थिति में किसी साधन का पारिश्रमिक उसकी सीमान्त तथा औसत आय उत्पादकता दोनों के बराबर हो जाता है। अर्थात्,

मजदूरी = MRP = ARP

मान लिया कि WR (मजदूरी दर) MRP तथा AR से ज्यादा है तो नियोजक को हानि होगी। फर्म उद्योग से बाहर निकल जायेगा। श्रम की मांग कम हो जायेगी। उसका पारिश्रमिक घटकर औसत आय उत्पादकता (ARP) के बराबर हो जाएगी। यदि WR साधन की ARP से कम है तो असामान्य लाभ होगा। जिससे आकर्षित होकर नये फर्म उद्योग में प्रवेश करेंगे। साधन की मांग बढ़ेगी; अतः पारिश्रमिक बढ़कर ARP के बराबर हो जाएगा।

चित्र में E संतुलन बिन्दु है जहां WR = MRPARPI इस तरह यह सपष्ट है कि सीमान्त उत्पादकता द्वारा ही अल्पकाल एवं दीर्घकाल में साधनों का पुरस्कार निश्चित होता है।

मान्यताएँ

वितरण की सीमान्त उत्पादकता का सिद्धान्त निम्न मान्यताओं पर आधारित है-

1. पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की स्थिति।

2. लम्बी अवधि की धारणा ।

3. पूर्ण रोजगार की स्थिति ।

4. सान की गतिशीलता।

5. सान की विभिन्न इकाइयों में एकरूपता।

6. साधनों के बीच पूर्ण प्रतिस्थापन की सम्भावना

7. सीमान्त उत्पादकता ज्ञात करना संभव ।

8. विभाज्यता

9. उत्पादन के साधन में इच्छा अनुसार परिवर्तन की सम्भावना।

गणितीय विश्लेषण

सैद्धान्तिक कथन :- पुरस्कार की मात्रा = साधन की सीमान्त उत्पादकता

अथवा `\frac{P_a}{P_b}=\frac{ƒ_a(a,b)}{ƒ_b(a,b)}` 

मान लिया जाए a और b के संयोग से उत्पादन (0) हो रहा है।

O =ƒ(a,b)

Let, O = उत्पादन

a,b = साधन

मान ले साधन a की प्रति इकाई मूल्य Pa साधन b की प्रति इकाई मूल्य Pb

इसलिए a पर खर्च a.Pa

b पर खर्च b.Pb

M = aPa + bPb

or, λ (M - aPa - bPb)

O = ƒ(a,b) + λ (M - aPa - bPb) ---(1)

`\frac{dO}{da}=ƒ_a(a,b)+\lambda\left(O-\frac{da}{da}P_a-O\right)`

`\frac{dO}{da}=ƒ_a(a,b)-\lambda P_a---(2)`

`\frac{dO}{da}=ƒ_b(a,b)+\lambda\left(O-O-\frac{db}{db}P_b\right)`

`\frac{dO}{da}=ƒ_b(a,b)-\lambda P_b---(3)`

अधिकतम उत्पादन , इसके लिए 

`\frac{dO}{da}=O;\frac{dO}{db}=O`

ƒa (a,b) - λPa = O

ƒa (a,b) = λPa

`\therefore\lambda=\frac{ƒ_a(a,b)}{P_a}---(4)`

ƒb (a,b) – λPb = O

ƒb (a,b) = λPb

`\therefore\lambda=\frac{ƒ_b(a,b)}{P_b}---(5)`

Form equation (4) and (5)

`\frac{ƒ_a(a,b)}{P_a}=\frac{ƒ_b(a,b)}{P_b}`

`\frac{ƒ_a(a,b)}{ƒ_b(a,b)}=\frac{P_a}{P_b}`

आलोचनाएँ

वितरण की सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के विरुद्ध कई आलोचनाएं दी गई है जो निम्नलिखित है-

1. किसी साधन की विभिन्न इकाइयां समरूप नहीं होती : वास्तविक जीवन मे हम देखते है कि किसी भी साधन की विभिन्न इकाइयां एक समान नहीं होती, उनमे थोड़ा बहुत अंतर अवश्य होता है। उदाहरण के लिए- भूमि के सभी टुकडे उत्पादकता में समान नहीं होते। इसी प्रकार विभिन्न श्रमिको की कार्यक्षमता भी अलग- अलग होती है। इस स्थिति में किसी सान की सामान्य सीमान्त उत्पादकता की व्याख्या करना कठिन है।

2. विभिन्न साधनों के बीच प्रतिस्थापन की सीमा : सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार विभिन्न सानो के बीच प्रतिस्थापन की संभावना होनी चाहिए। लेकिन उत्पति के विभिन्न सानो के बीच प्रतिस्थापन की एक सीमा होती है। जिसके बाद एक सान का प्रयोग दूसरे सान के स्थान पर नहीं किया जा सकता।

3. पूर्ण रोजगार की गलत मान्यता : प्रत्येक अर्थव्यवस्था चाहे वह विकसित हो अथवा अर्द्धविकसित हमेशा पूर्ण रोजगार से नीचे रहती है और ऐसी स्थिति में कोई भी साधन इस बात की चिंता नहीं करेगा कि उसे पुरस्कार उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर मिलता है, अथवा नहीं।

4. साधनो के बीच पूर्ण गतिशीलता की कमी : यह सिद्धान्त उत्पत्ति के साधनों की पूर्ण गतिशीलता की मान्यता पर आधारित है, लेकिन वास्तविकता यह है कि उत्पादन के साधन विभिन्न व्यवसायों एवं स्थानो के बीच पूर्णतः गतिशील नहीं होते जिससे उनके पुरस्कार में अन्तर होता है।

5. लम्बी अवधी की धारणा : यह सिद्धांत अल्पकाल में साधनो के कीमत निर्धारण की व्याख्या प्रस्तुत नहीं करता, जबकि, आर्थिक जीवन में अल्पकाल ही अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। दीर्घकाल की मान्यता पर कटु व्यंग्य करते हुए प्रो. केन्स लिखते है कि दीर्घकाल में तो हम सब मर जाते है।

6. सीमान्त उत्पादकता का पता लगाना कठिन : किसी वस्तु का उत्पादन अनंत विभिन्न साधनो का सहयोग का फल होता है तथा उसकी व्यक्तिगत उत्पाद‌कताओं का अलग-अलग आकलन करना असंभव होता है। श्रम. बिना पूंजी पदार्थों की सहायता के लगभग नहीं के बराबर उत्पादन करता है तथा इसी तरह पूंजी श्रम के सहयोग के अभाव में किसी प्रकार का उत्पादन करने में असमर्थ होगी। ऐसी दशा में जब की कोई साधनो की व्यक्तिगत उत्पादकता को नहीं बता सकता या जबकि हम साधनो की व्यक्तिगत उत्पादकता की गणना नही कर सकते, तब साधनों को उनकी सीमान्त उत्पाद‌कता के बराबर पुरस्कार देने का प्रश्न ही नहीं उठता है।

र्नाडेशा लिखते है, "जब एक किसान तथा उस‌का मजदूर खेत में फसल बोते है और काटते है तो इस पृथ्वी पर कोई भी व्यक्ति यह नहीं बता सकता है कि दोनो में से प्रत्येक ने कितना गेहूं पैदा किया है।" इस प्रकार सीमांत उत्पादकता का पता लगाना कठिन है।

7. साधनो की अविभाज्यता की कठिनाई : यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि साधनो की मात्रा में आसानी से कमी बैसी की जा सकती है। लेकिन मशीन, उद्यमी आदि ऐस सान है जिनका विभाजन नहीं किया जा सकता और न उनमे थोड़ी मात्रा में वृद्धि की जा सकती है।

8. उत्पति वृद्धि नियम की स्थिति में यह सिद्धान्त लागू नहीं होता : श्रीमति रॉबिन्सन, प्रो. पीगू, हिक्स इत्यादि अर्थशस्त्रियो का कहना है कि उत्पति वृद्धि नियम के अन्तर्गत किसी सान की सीमान्त उत्पादकता का पता लगाना कठिन है। अतः उत्पति वृद्धि नियम की स्थिति में यह सिद्धान्त लागू नहीं होता।

निष्कर्ष

इस तरह सीमान्त उत्पाद‌कता सिद्धान्त में इतने सारे दोष है कि इसे वितरण का सही सिद्धान्त नहीं माना जा सकता। यही कारण है कि प्रो. सैम्युलसन ने कहा है, "सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त एक ऐसा सिद्धान्त नहीं है जो मजदूरी, लगान एवं ब्याज की व्याख्या करता है वरन् यह केवल इस बात की व्याख्या करता है कि उत्पादन के साधनों के मूल्य जानने के बाद कोई फर्म किस प्रकार उन्हें उत्पादन में लगाता है।"

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