प्रश्नः- आर्थिक वृद्धि
और आर्थिक विकास में अन्तर स्पष्ट करें। आर्थिक वृद्धि को प्रभावित करने वाले कारक
कौन कौन से है?
उत्तर - सामान्यतः आर्थिक प्रगति (वृद्धि) और आर्थिक विकास का प्रयोग एक ही अर्थ में किया जाता है, किंतु शुम्पीटर, उर्सला हिक्स, अल्फ्रेड बोन, मेडिसन, डा० ब्राइट सिंह आदि अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्रीय विवेचना की सूक्ष्मता की दृष्टि से आर्थिक विकास तथा आर्थिक वृद्धि में निम्नलिखित अन्तर बतलाये है :-
(1) आर्थिक वृद्धि के अन्दर कोई सृजन नहीं होता, परन्तु आर्थिक विकास में सृजनात्मक शक्तियाँ का समावेश होता है :- प्रो शुम्पीटर ने अपनी पुस्तक "आर्थिक विकास का सिद्धांत (Theory of Economic Development) मे बताया है "वृद्धि क्रमिक तथा दीर्घकालीन होती है। इसका प्रादुर्भाव जनसंख्या तथा बचत जैसे साधनों में सामान्य वृद्धि के कारण होता है। किंतु विकास का जन्म अर्थतत्र के आन्तरिक स्तरों में क्रियाशील शक्तियों के कारण होता है। यह एक ऐसा स्वतः स्फूर्त एवं अनियमित परिवर्तन है जो विस्तार की प्रेरक भावना से गतिमान हुआ करता है"।
(2) आर्थिक वृद्धि का सम्बंध विकसित देशों से है जबकि आर्थिक विकास का सम्बंध अल्पविकसित देशों से है :- मेडिसन के अनुसार "आय के स्तरों को ऊँचा उठाने को धनी देशों में प्रायः आर्थिक वृद्धि कहा जाता है तथा निर्धन देशों में इसे आर्थिक विकास कहते है"।
(3) आर्थिक विकास में परिवर्तन स्वत: नहीं होता है, परन्तु आर्थिक वृद्धि में परिवर्तन स्वतः होता है :- आर्थिक विकास के लिए निर्देशन एवं उचित विकास नीति की आवश्यकता होती है, लेकिन आर्थिक वृद्धि के लिए नीति या निर्देशन की आवश्यकता नहीं होती। डा. ब्राइट सिंह ने भी लिखा है, "उच्च आय वाले पूँजीवादी राष्ट्रों में आर्थिक विस्तार प्रायः प्राकृतिक तथा स्वचालित होता है। परन्तु पिछड़ी अर्थव्यवस्था में बाह्म प्रेरणा और सरकार के निर्देशन की आवश्यकता होती है।
(4) आर्थिक विकास एक अधिक विस्तृत अवधारणा है :- आर्थिक विकास शब्द का प्रयोग आर्थिक वृद्धि से अधिक व्यापक अर्थ में किया जाता है। आर्थिक विकास के अन्तर्गत आर्थिक वृद्धि तथा परिवर्तन दोनों आ जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक विज्ञप्ति में कहा गया है "विकास का सम्बंध मानव की केवल भौतिक आवश्यकताओं से ही नहीं, वरन् उसके जीवन की सामाजिक दिशाओं में सुधार से होता है। अतः विकास केवल आर्थिक वृद्धि ही नही वरन् वृद्धि के साथ-साथ सामाजिक, सास्कृतिक, संस्थागत एवं आर्थिक परिवर्तन भी है।
यद्यपि आर्थिक विकास तथा आर्थिक वृद्धि में अन्तर होता है परन्तु व्यवहार में इन दोनों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया जाता है। प्रो. लिविस ने भी अपनी पुस्तक " The Theory of Economic Growth" में कहा है "अधिकांश हमलोग सिर्फ वृद्धि कहेंगे, लेकिन कभी-कभी विविधता के लिए प्रगति अथवा विकास भी कहेंगे। इस प्रकार वृद्धि तथा विकास में बहुत बारीक अन्तर करना संभव है, तथापि तत्त्वतः वे समानार्थक है।
आर्थिक विकास के अन्तर्गत उन शक्तियों की व्याख्या की जाती है जो आय में वृद्धि के परिणाम उत्पन्न करते हैं। अतः आर्थिक प्रगति आर्थिक विकास की लम्बी प्रक्रिया का परिणाम है।
We Can Say that
Y = f (Eg)
Eg = y (Ed)
`Ed=\alpha\left(\frac{dF}{dt}.\frac{dD}{dt}\right)`
Where, d = Demand , Y = income, F = Productive Opparates
आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले तत्व
किसी भी देश का आर्थिक विकास बहुत से तत्त्वों पर निर्भर करता है। विश्व के
अधिकांश देशों में आर्थिक वृद्धि हुई परन्तु उनकी वृद्धि दरे एक दूसरे से एकदम अलग
रही । वृद्धि दरो में ये असमानताएँ उनकी विभिन्न आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक,
ऐतिहासिक, तकनीकी एवं अन्य स्थितियों के कारण पाई जाती है। ये स्थितियाँ ही आर्थिक
वृद्धि के कारण है।
लेकिन इन कारकों का निश्चित रूप से उल्लेख करना भी एक समस्या है क्योंकि
विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने अपने अपने ढंग से बताया है।
प्रो. नर्कसे के अनुसार, "आर्थिक विकास के लिए मानवीय शक्ति, सामाजिक
मान्यताएँ, राजनैतिक दशाएँ, ऐतिहासिक घटनाएँ एवं पूँजी निर्माण आवश्यक है"।
शुम्पीटर के अनुसार "आर्थिक विकास के पाँच निर्धारक तत्त्व है, उत्पादन
की नई प्रणाली, कच्चे माल के नए श्रोत, उद्योगों का नवीन संगठन, नए वस्तु की खोज
एवं नए बाजार की खोज या फिर आर्थिक विकास के लिए नव प्रर्वतन आवश्यक होता
है"।
अतः राजनैतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक आवश्यकताएँ आर्थिक वृद्धि के
लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितनी की आर्थिक आवश्यकताएं। इसलिए अर्थशास्त्री
आर्थिक वृद्धि को प्रभावित करने वाले कारको को दो भागों में बाँटते है।
1. आर्थिक तत्व
2. गैर आर्थिक तत्त्व
अर्थात् G = ƒ (a, b)
जहाँ, G = एक निश्चित अवधि में विकास की दर
a = आर्थिक तत्व
b = गैर आर्थिक तत्व, ƒ = फलन
[A] आर्थिक तत्त्व
आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले आर्थिक तत्त्व निम्नलिखित है -
(1) प्राकृतिक संसाधन :- किसी भी देश की आर्थिक प्रगति को प्रभावित करने
वाले महत्त्वपूर्ण कारक प्राकृतिक साधन है। इनमें भूमि की उपजाऊ शक्ति, स्थिति,
क्षेत्र, वन सम्पदा, खनिज पदार्थ, जलवायु, जन साधन, समुद्री साधन आदि आते है। जिस देश में प्राकृतिक साधनों की मात्रा अधिक होगी उस देश में आर्थिक विकास भी उतना ही अधिक होगा, दूसरी ओर जिस देश में प्राकृतिक साधन का अभाव होता है उसका विकास नहीं हो पाता है।
(i) भूमि :- कुछ अल्पविकसित देशों में भूमि के उपजाऊपन होने के कारण आर्थिक वृद्धि संभव हो पाई है। लेकिन दूसरी ओर एशिया एवं अफ्रीका के विकासशील देशों में पर्याप्त भूमि होते हुए भी कृषि समृद्ध नहीं है क्योंकि खेती योग्य भूमि पर नए तरीको का उपयोग नहीं कर पाये है।
(ii) जलवायु :- प्राकृतिक खाद्य पदार्थ जलवायु के द्वारा ही नियंत्रित होती है यदि किसी देश का जलवायु बोये गए फसल के अनुरूप रहा तो उत्पादन अच्छी होती है। दूसरी ओर जलवायु प्रतिकूल रहा तो उत्पादन तो घटेगी ही साथ ही आर्थिक विकास की गति को धीमा कर देगी।
(iii) खनिज पदार्थ :- यदि किसी देश में खनिज पदार्थ अधिक मात्रा में उपलब्ध हो और उसका दोहन भी उचित हो रहा हो तो वह देश अवश्य प्रगति करेगा पर इसके विपरीत यदि खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रा में भरी हो और उसका उपयोग न हो रहा हो तो उस देश की आर्थिक प्रगति धीरे हो जाएगी। भारत, ब्राजील, वर्मा आदि अनेक देश खनिज पदार्थों से भरे हुए है लेकिन उचित प्रयोग के बिना ये देश निर्धन है।
आधुनिक समय में उत्पादन फलन में प्राकृतिक साधनों को स्थान मिला हुआ है। उदाहरण के लिए हम उत्पादन फलन को निम्नलिखित प्रकार से हम व्यक्त कर सकते हैं।
P= ƒ (L,K,O,T)
जहाँ, P= उत्पादन, L = श्रम, K = भूमि, O = पूँजी शेष, T = विकास के स्तर, ƒ = फलनायक सम्बंध
इस सूत्र से स्पष्ट होता है कि उत्पादन चार तत्त्वों का क्रियात्मक परिणाम है जिसमे K में वे सभी प्राकृतिक संसाधन सम्मिलित है जिन्हे भूमि कहते है।
(2) मानवीय संसाधन :- मानवीय साधनों का अभिप्राय किसी देश में निवास करनेवाली जनसंख्या से है। जनसंख्या आर्थिक विकास में प्रमुख भूमिका निभाते है। जनसंख्या के अभाव पाया जाता है तथा प्राकृतिक संसाधनो के होते हुए भी निम्न उत्पादन होता है जिसके कारण देश गरीब का गरीब ही रहता है। इसी तरह अत्याधिक जनसंख्या के कारण प्रति व्यक्ति उत्पादन एवं आय कम होती है। जिससे देशवासियों का जीवन स्तर निम्न होता है। अतः आर्थिक विकास की दृष्टि से न तो जनसंख्या का अधिक होना अच्छा है और न ही कम होना।
विकसित अर्थव्यवस्था में जनसंख्या में वृद्धि से लाभ होता है तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि भी होती है। जनसंख्या में वृद्धि होने से वस्तुओं तथा सेवाओं की मांग में वृद्धि होती है जिससे उत्पादन में भी वृद्धि होती है। जबकि अर्द्धविकसित देश में जनसंख्या में वृद्धि का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे विकास की दर धीमी पड़ जाती है।
Prof. सिंगर ने अर्द्धविकसित देशो मे जनसंख्या में वृद्धि का आर्थिक विकास पर प्रभाव को व्यक्त करने के लिए निम्न सूत्र का प्रयोग किया है।
D = SP - R
जहाँ, D = विकास की दर, S = आय में बचत का अनुपात, P = पूँजी विनियोग, R= जनसंख्या वृद्धि की दर
(3) पूँजी निर्माण :-
किसी भी देश में पूँजीगत वस्तुओं के निर्माण किये बिना आर्थिक विकास सम्भव नहीं है। पूँजी निर्माण से अभिप्राय भौतिक उत्पादन साधनों का निर्माण करना है।
नर्कसे के अनुसार, " पूँजी निर्माण का अर्थ यह है कि समाज अपनी समस्त वर्तमान क्रिया को आवश्यकताओं एवं इच्छाओं के तात्कालिन उपभोग पर खर्च नहीं करता, बल्कि उसके एक भाग को पूँजीगत वस्तुओं, संयंत्रों एवं उपकरणों, मशीनों एवं परिवहन सुविधाओ प्लान्टो तथा यंत्रो के निर्माण मे लगा देता है"।
जिस देश के पास साधन जितने अधिक होगे वह देश उतना ही विकास करेगा । आज विकसीत कहे जाने वाले राष्ट्रों की प्रगति का मुख्य
कारण इन देशों में पूँजी निर्माण की दर ऊँची पाया जाना है। हम जानते है कि पूँजी
निर्माण बचत पर निर्भर करता है।
K = ƒ (S)
जहाँ, K = पूँजी निर्माण, S = बचत, ƒ = फलन
S = Y - C
जहाँ बचत आय और उपभोग का अन्तर होता है।
(4) तकनीकी तथा नव-प्रवर्तन :- तकनीकी एवं नवप्रवर्तन आर्थिक विकास की दृष्टि से
काफी महत्त्वपूर्ण है।
शुम्पीटर के अनुसार, " विकास का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटक तकनीकी प्रगति
एवं नव प्रवर्तन को अपनाया जाना है"। तकनीकी ज्ञान से उत्पादन
की वृद्धियों में मौलिक परिवर्तन लाकर आर्थिक विकास के कार्यों को गति प्रदान करता
है।
विकसीत देशों में तकनीकी प्रगति के कारण ही कृषि, उद्योग, परिवहन तथा शक्ति आदि के क्षेत्र में प्रगति हो पायी है, इसके विपरीत
अल्प विकसीत देशों में तकनीकी ज्ञान के अभाव में उत्पादन की पुरानी तथा अवैज्ञानिक
विधियों का प्रयोग किया जाता है जिसके कारण इनका आज भी आर्थिक विकास पिछड़ी हुई
अवस्था में है।
D= ƒ
(T)
जहाँ, D = आर्थिक विकास, T= तकनीकी
(5) व्यवसायिक संरचना :- किसी देश की कार्यशील जनसंख्या एवं राष्ट्रीय आय का विभिन्न व्यवसायों के बीच विभाजन
को
व्यवसायिक संरचना कहा जाता है ।
इसके अन्तर्गत तीन क्षेत्र आते है-
(ⅰ) प्राथमिक क्षेत्र - कृषि कार्य, मत्यस पालन, लकड़ी काटना इत्यादि
(ⅱ) द्वितीयक क्षेत्र - निर्माण कार्य, बिजली एवं गैस इत्यादि ।
(iii) तृतीयक क्षेत्र - व्यवसाय, बैंकिंग, संचार, प्रशासन इत्यादि
आर्थिक विकास के प्रथम चरण में राष्ट्रीय आय का सर्वाधिक भाग प्राथमिक क्षेत्र से प्राप्त होता है। जैसे- जैसे देश विकसित होता जाता है। प्राथमिक क्षेत्र का भाग घटता जाता है एवं द्वितीयक क्षेत्र का भाग बढ़ता जाता है एवं पूर्ण विकसित होने पर आय का सर्वाधिक भाग तृतीयक क्षेत्र से, उससे कम द्वितीयक क्षेत्र से एवं सबसे कम प्राथमिक क्षेत्र से प्राप्त होता है।
रेखाचित्र से AB प्राथमिक क्षेत्र, CD द्वितीयक क्षेत्र तथा EF तृतीयक क्षेत्र को प्रदर्शित करते हैं।
प्राथमिक क्षेत्र में | द्वितीयक क्षेत्र में | तृतीयक क्षेत्र में |
`\frac{dyC}{dt}<0` | `\frac{dyC}{dt}>0` | `\frac{dyC}{dt}>0` |
`\frac{d^2yC}{dt^2}>0` | `\frac{d^2yC}{dt^2}<0` | `\frac{d^2yC}{dt^2}=0` |
भारत में व्यवसायिक सरंचना इस प्रकार है –
| 1950-51 | 1970-71 | 1980-81 | 1996-97 |
प्राथमिक क्षेत्र में | 53.3% | 44.5% | 38.1% | 26% |
द्वितीयक क्षेत्र में | 16.7% | 23.6% | 25.9% | 37% |
तृतीयक क्षेत्र में | 11% | 14.2% | 16.7% | 20.2% |
(6) बाजार का आकार :- बाजार का आकार भी आर्थिक विकास की दर को निर्धारित करता है। बाजार का आकार जितका बड़ा होगा वस्तु के माँग में भी वृद्धि होगी। वस्तुतः उत्पादन भी बढ़ेगा।
(7) विदेशी पूँजी :- अर्द्धविकसित देशों में बचत कम होने के कारण देश का औद्योगिकीकरण एवं विकास नहीं हो पाता।
अतः विदेशी पूँजी से इस
अभाव को दूर किया जा सकता है। परन्तु विदेशी पूँजी अर्थव्यवस्था को केवल अल्पकालीन
सहायता देती है, पर दीर्घकालीन विकास के लिए देश को अपनी पूँजी में वृद्धि करनी
होगी।
(8)
उद्यमशीलता :- आर्थिक विकास का वैदिक काल से ही उद्यमशीलता से
संबंध रहा है और उद्यमकर्ता को उन व्यक्तियों के रूप में परिभाषित किया जाता है जो
'नये दृष्टिकोण व नये संयोग का सृजन करते है। नये अविष्कार, तकनीकि ज्ञान व नयी
खोज का आर्थिक विकास की दृष्टि से तब तक कोई महत्त्व नहीं जब तक कि उन्हे व्यवहारिक
रूप प्रदान न किया जाय और यह काम समाज के साहसी वर्ग को करना होता है।
विकसीत देशों की आर्थिक
प्रगति का मुख्य कारण इन देशों में साहसियों का पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना
ही रहा है। जबकि इसके विपरीत पिछड़े हुए देशों में 'शर्मिली पूँजी'
उद्यमशीलता का अभाव व जोखिम उठाने की क्षमता ना होने के कारण इन देशों में आर्थिक
विकास धीमि गति से होता है।
(9)
आर्थिक नियोजन :- आधुनिक काल में आर्थिक नियोजन आर्थिक विकास का एक
महत्त्वपूर्ण साधन बन गया है। उदाहरण के लिए आर्थिक नियोजन द्वारा सोवियत रूस न
केवल 25 वर्षों में उतना आर्थिक विकास कर लिया था जितना अमेरिका तथा ब्रिटेन ने
100 वर्षों में किया था।
(10)
मौद्रिक नीति :- आवश्यक मुद्रा और साख की पूर्ति तथा उसके उपयोगों
को प्रभावित करने के परिणाम स्वरूप उत्पन्न स्फीति अथवा मंदी की समस्या या उचित
समाधान कर आर्थिक विकास की प्रक्रिया और गति को सरल, स्वस्थ्य और तेज करती है।
(11)
आर्थिक संगठन :- इस संबंध अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों के
आदर्शतम उपयोग से है। संगठन, श्रम और पूंजी का पूरक होता है और इसकी उत्पादकता
में वृद्धि करता है। वास्तव में उत्पादन के विभिन्न साधनों को एकत्र कर उन्हें
उत्पादन में लगाने की क्रिया को संगठन कहते है और जो व्यक्ति यह कार्य करता है उसे
संगठनकर्ता कहते है। इस प्रकार आर्थिक विकास आर्थिक संगठन से प्रभावित होता है।
उपर्युक्त विश्लेषण से
स्पष्ट है कि किसी देश का आर्थिक विकास अनेक तत्त्वों पर निर्भर करता है। आर्थिक
विकास की प्रक्रिया में इन सभी निर्धारक तत्वों का अपना एक विशेष स्थान है इसलिए
उनके सापेक्षिक योगदान एवं महत्व के बारे में कुछ भी कहना ना तो संभव ही है और ना
ही तर्क पूर्ण ।
[B] गैर आर्थिक तत्त्व
गैर आर्थिक तत्वों के बारे
में प्रो. नर्क्स ने लिखा है, "आर्थिक विकास का मानवीय गुणों, समाजिक
मनोवृतियों, राजनीतिक परिस्थितियों एवं ऐतिहासिक घटनाओं से घनिष्ठ संम्बंध है। अतः
आर्थिक विकास के गैर आर्थिक तत्त्व भी बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है।
आर्थिक विकास को प्रभावित
करने वाले गैर आर्थिक तत्त्व निम्नलिखित है:-
(1)
सामाजिक तथा सांस्कृतिक (संस्थागत) तत्त्व :-
आर्थिक विकास में सामाजिक एवं सांस्कृतिक तत्वों का महत्वपूर्ण स्थान है इसके
अन्तर्गत वे तत्त्व आते है जो समाज में प्रचलित सामाजिक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं
से सम्बंधित होते है इस संदर्भ में निम्नलिखित तत्त्वों का उल्लेख किया जा सकता
है।
(i)
जातिप्रथा :- इसका प्रभाव आर्थिक विकास पर लाभदायक एवं
हानिकारक दोनों हो सकता है। परन्तु विकास पर हानिकारक प्रभाव ही अधिक पड़ता है।
जाति प्रथा के कारण व्यवसायिक गतिशीलता कम हो जाती है। अपनी जाति के धंधे में
अभिरुची नही रखने पर भी व्यक्ति को बाध्य होकर उसी धन्धे को अपनाना पड़ता है। इसका
बुरा प्रभाव श्रम की कार्यकुशलता पर भी पड़ता है। व्यवसाय की स्वतंत्रता के समाप्त
हो जाने के कारण आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न होती है।
(ii)
संयुक्त परिवार की प्रथा :- संयुक्त परिवार प्रथा
वाले राष्ट्रों में एक साथ परिवार के समस्त सदस्य रहते है। परिवार का सबसे बड़ा
पुरुष ही परिवार का कर्त्ता माना जाता है, जो
परिवार के समस्त सदस्यों एवं सम्पत्ति की देख-भाल करता है। इस प्रथा का अब विघटन
होने को है। वस्तुतः संयुक्त परिवार की प्रथा के अनेक दोष है:-
(a)
परिवार में निर्भरता भार बढ़ जाता है।
(b) व्यक्तिगत विकास को
प्रोत्साहन नहीं मिलता है।
(c) बचत की प्रवृत्ति का
ह्मस होता है।
(d)
जनसंख्या वृद्धि को प्रोत्साहन मिलता है।
(e) आल्सय की भावना में
वृद्धि होती है।
इस तरह स्पष्ट है कि
संयुक्त परिवार प्रथा के कारण पूँजी निर्माण में बाधा उत्पन्न होती है जिसका
आर्थिक प्रगति पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
(iii)
उत्तराधिकार का नियम :- उत्तराधिकार के नियम के अनुसार
पिता के मृत्यु के बाद समस्त सम्पत्ति उसके पुत्र तथा पुत्रीयों के बीच विभाजित कर
दी जाती है। इस प्रणाली में किसी क्षेत्र में उपविभाजन एवं उपखण्डन में प्रोत्साहन
मिलता है तथा कृषि का आकार आर्थिक इकाई से भी छोटा हो जाता है।
इस प्रणाली में आपसी
मतभेद, वैमनस्य एवं विवादो को अत्याधिक बढ़ावा मिलता है। यह प्रथा पूँजी संचय पर
बुरा प्रभाव डालता है तथा बड़े पैमाने के उत्पादन को हतोत्साहित्य करती है।
(iv)
कम उम्र में विवाह तथा दहेज प्रथा :- कम आयु में विवाह होने
के कारण स्त्रियों का स्वास्थ्य खराब हो जाता है अतः उनकी कार्यक्षमता कम हो जाती
है। कम आयु में विवाह होने से जन्मदर को बढ़ावा मिलता है। ये दोनों बाते आर्थिक
विकास के गति को कम कर देती है।
दहेज प्रथा एक सामाजिक
बुराई है जिसके कारण अनुत्पादक व्यय में बहुत अधिक वृद्धि होती है इससे बचत एवं
पूँजी निर्माण की दर में कमी होती है।
(2)
धार्मिक तत्त्व :- विश्व में प्रचलित विभिन्न
प्रकार के धर्मों ने देश की प्रगति में सहायता भी दी है तो कहीं-कही बाधा भी
उत्पन्न कि है। मार्क्स एवं वोनर के अनुसार," पश्चिमी राष्ट्रों के आर्थिक
विकास में प्रोस्टेनट धर्म बहुत अधिक योगदान दिया जबकि चीन में कम्फ्युसियन धर्म
ने देश के आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न कि है। इस धर्म ने जनता को संतोंषि एवं
सादा जीवन का नारा देकर आर्थिक क्रियाओ से जनता को दूर रखा। जिससे उत्पादन तथा
आर्थिक क्रियाओ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा एवं देश का विकास रुक गया। भारत के आर्थिक
विकास में धर्म बाधक कई कारणों से रहा है यथा -
(a)
पुत्र की अनिर्वायता
(b) पुत्रीयो का शीर्घ
विवाह
(c)
साधु संतो की बड़ी संख्या
(d)
खर्चीली रीति रिवार्ज
(e) विदेशों के प्रति
उपेक्षा
आर्थिक विकास में धार्मिक
तत्त्वों के महत्व को स्पष्ट करते हुए प्रो. लेवीस ने कहा है, "यदि कोई धर्म
भौतिक मूल्यों, कार्य, बचत एवं उत्पादन विनियोग व्यवसायिक सम्बंधों मे ईमानदारी,
प्रयोग, जोखीम, वहन तथा अवसर की समानता पर जोर देता है तो यह आर्थिक विकास में
सहायक होगा। इसके विपरीत यदि इन बातो को विरोधी है तो इससे विकास अवरुद्ध होता है।
(3)
राजनैतिक तथा प्रशासनिक तत्त्व :- प्रो, लेवीस के शब्दों
में, "आर्थिक क्रियाओं को प्रोत्साहित करने में सरकारो का व्यवहार उतनी ही
महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है जितनी सहासियो अथवा माता-पिता या वैज्ञानिक अथवा
पादरियों का व्यवहार अदा करता रहता है"।
अन्य स्थान पर पुनः लेवीस ने कहा है, 'प्रबुध सरकारों के सकारात्मक प्रोत्साहन के
बगैर किसी भी देश आर्थिक प्रगति नहीं की है"।
बिना सरकारी प्रोत्साहन के
विश्व किसी भी देश की आर्थिक प्रगति नहीं हो पायी है। इंग्लैण्ड के औद्योगिक
विकास, में एडवर्थ तृतीय तथा उसके बाद के राजाओं ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया था।
इसके विपरित बहुत से देशों के आर्थिक पिछड़ेपन के लिए वहाँ के सरकार का
उत्तरदायित्व ठहराया जाता है। जैसे ब्रिटिश शासन ने भारत तथा अन्य कई उपनिवेशों के
औद्योगिक विकास को विभिन्न प्रकार से हतोत्साहित्य किया है।
(4)
अन्तराष्ट्रीय परिस्थितियां :- आर्थिक समृद्धि के लिए जरूरी है कि अन्तराष्ट्रीय परिस्थितिया अनुकूल है। संसार के सभी देशों में राजनीतिक शांति व स्थिरता है जिससे विकास कार्य सुगमता से हो सका । यदि अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ प्रतिकूल है और दुनिया भर में राजनीतिक अशांति व्याप्त है तब तो विकासात्मक कार्यों के विषय में इतना कल्पना भी नही की जा सकती।
(5)
विकास की अकांक्षा :-
एक देश की आर्थिक समृद्धि के विकास की अकांक्षा अर्थात इच्छा का बड़ा प्रभाव पडता है। यदि निवासी अकांक्षा रखता है तो विकास तेज गति से होता है, लेकिन इसके विपरीत यदि वहाँ के निवासी आलसी व भाग्यवादी है तो आर्थिक विकास मंद गति से होता है।
निष्कर्ष
इस प्रकार आर्थिक तथा गैर आर्थिक तत्व वृद्धि की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करते है, एक दूसरे पर निर्भर भी करते है। परन्तु कुछ अर्थशास्त्रीयों जैसे वाइनर बिजर तथा मिर्डल के अनुसार आर्थिक एवं गैर आर्थिक तत्त्वो में भेद निरर्थक, भ्रमपूर्ण तथा असंगत है। इसलिए इसको त्याग देना चाहिए परन्तु हम इन अर्थशास्त्रियो के विचार से सहमत नहीं है क्योकि यह सर्वमान्य है कि आर्थिक तथा गैर आर्थिक तत्त्वों का आधुनिक आर्थिक वृद्धि पर बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)