गाँधीजी के आर्थिक विचार (ECONOMIC THOUGHTS OF GANDHIJI)

गाँधीजी के आर्थिक विचार (ECONOMIC THOUGHTS OF GANDHIJI)

गाँधीजी के आर्थिक विचार (ECONOMIC THOUGHTS OF GANDHIJI)

प्रश्न:- महात्मा गाँधी के आर्थिक विचारों को व्यक्त कीजिए।

गाँधी जी के यंत्रीकरण तथा कुटीर या घु उद्योग पर दिए गए विचार स्पष्ट करें।

उत्तर :- मोहनदास करमचंद गाँधी एक धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति, देश भक्त, साधु और राजनीतिक नेता थे। उन्होंने देश काल की समस्त राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं का अवलोकन धर्म और नीति के धार पर किया था। महात्मा गाँधी के विचारों का परिचय उनके द्वारा रचित ग्रंथों, लेखों, भाषण संग्रहों, संपादित पत्रिकाओं आदि से मिलता है जिनमें उनकी 'आत्मकथा' 'यंग इंडिया' ए त प्रतिशत स्वदेशी, आदि रचनाएँ प्रमुख है। गाँधी जी के विचारों पर हिन्दू धर्म, रस्किन, थोरों और टालस्टाय के विचारों तथा तत्कालीन भारतीय दशा विशेष रूप से प्रभाव पड़ा था। इस क्षेत्र में गाँधी जी के विचारों का सैद्धांतिक की अपेक्षा व्यवहारिक महत्त्व है। उनके प्रमुख आर्थिक विचार निम्नलिखित है-

1. अर्थशास्त्र का उद्देश्य और प्रणाली :- अर्थशास्त्र के अध्ययन में नैतिक पक्ष पर अत्यधिक बल डालते हुए महात्मा गाँधी ने कहा कि नैतिक और भावात्मक मूल्यों की अपेक्षा करने वाला अर्थशास्त्र मधुमक्खी के छत्ते के समान है जिसमें जीवन होते हुए भी एक सजीव मांस के जीवन का अभाव रहता है। उन्होंने मानव जीवन को पूर्णतया में देखा और यही कारण था कि उन्होंने मानव जीवन का आर्थिक, नैतिक, धार्मिक, सामाजिक आदि विभिन्न अंगों में, विभाजित करके अध्ययन करने के पक्षपाति नहीं थे। उनका कथन था कि मनुष्यों की कार्यों की परिधि अविभाज्य है तथा उसे राजनैतिक धार्मिक सामाजिक दि विभिन्न वर्गों में विभाजित नहीं किया जा सकता। अर्थशास्त्र के संबंध में महात्मा गाँधी के विचार पीगू के विचारों के समान है। फिर भी यह मानना पड़ेगा कि गांधी के दृष्टिकोण की तुलना में पीगू की दृष्टिकोण संकीर्ण है। पीगू के मतानुसार तो अर्थशास्त्र का विषय क्षेत्र सामाजिक कल्याण के उस भाग तक सीमित है जिसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में द्रव्य की सहायता से माप जा सके जबकि गाँधी जी के मतानुसार अर्थशास्त्र मनुष्य की सुरक्षा और उनकी सभ्यता है। इस तरह महात्मा गाँधी का अर्थशास्त्र व्यक्तिवाद समाजवाद तथा नैतिकवाद का सुंदर समन्वय है।

महात्मा गाँधी की अध्ययन प्रणाली भी दूसरे विचारकों की अध्ययन प्रणाली से भिन्न है क्योंकि उन्होंने आगमन तथा निर्गमन किसी भी प्रणाली को नहीं अपनाया है। (वस्तुतः उन्होंने अपनी प्रणाली में आत्मिक शक्ति तथा नैतिक नियमों पर विशेष बल दिया है।) इस तरह गाँधी जी ने पाश्चात्य अर्थशास्त्रीयों की तरह अध्ययन की प्रणाली में भौतिकता के तत्त्वों को नहीं आने दिया क्योंकि उनका विश्वास था कि मनुष्य के अंतर की वाणी एवं क्रियात्मक विज्ञान ही मानव कल्याण में विश्व रूप में सिद्ध हो सकता है।

2. धन की प्राप्ति :- महात्मा गाँधी ने कहा कि- "मानवीय मस्तिष्क एक व्याकुल पंक्षी के समान है, जितना अधिक उसे मिलता जाता है उतनी ही उसकी आवश्यकता बढ़ती जाती है और अंतत: वह संतुष्ट रहती है। तथापि उन्होंने भोजन और वस्त्र को मनुष्य की दो प्रमुख आवश्यक‌ताएं बता कर इस क्षेत्र में भारतवासियों को आत्मनिर्भर होने का उपदेश दिया। गाँधी जी द्बारा चलाये गए चरखा और खादी के प्रयोगा में उनकी यही भावना नीहित है।

3. द्रव्य संबंधी विचार :- अपने द्रव्य संबंधी विचारों में महात्मा गाँधी रस्किन के विचारों से विशेष रूप से प्रभावित हुए। रस्किन का विचार था कि मानव जीवना ही सबकुछ है धन कुछ भी नहीं। इसलिए गांधी जी ने कहा है कि, " वह अर्थशास्त्र अवास्तविक है जो कि नैतिक मूल्यों का बहिष्कार अथवा अपमान करता है।

4. कुटीर उद्योग संबंधी विचार :- महात्मा गाँधी ने बताया कि मशीनों का अधिक प्रयोग बेकारी और शोषण को जन्म देता है। उनका मत था कि विशाल स्तरीय उद्योग धंधे, बेकारी, आत्मनिर्भरता, का अभाव तथा आलस्य उत्पन्न करते है तथा आलस्य उत्पन्न करते हैं तथा इनका निराकरण कुटीर उद्योगों की स्थापना के द्वारा किया जा सकता है। उन्होंने बताया की केवल उन्हीं मशीनों का प्रयोग किया जाना चाहिए जो की श्रमिकों को बेकार बनाने के स्थान पर उनकी सहायता करती है, उनकी कार्य कुशलता को बढ़ाती है तथा श्रमिक इन मशीनों का दास बने बिना ही इसे प्रयोग करता है।

5. वर्ग व्यवस्था :- महात्मा गांधी ने प्राचीन व्यवसायिक श्रम विभाजन पर आधारित वर्ण व्यवस्था को महत्त्वपूर्ण बताया । वर्ण व्यवस्था से प्रत्येक व्यक्ति को लाभ होता है क्योंकि इस व्यवस्था में वह व्यवसाय के रहस्यों तथा बारिकियों का ज्ञान माता-पिता से उत्तराधिकारी के रूप में प्राप्त कर लेता है। गाँधी जी एक व्यवसाय से दूसरे व्यवसाय में जाने की स्वतंत्रता के भी पक्षपाती थे, यदि मनुष्य का दृष्टिकोण धनोर्पाजन न होकर सेवा भाव हो। यह स्मरणीय है कि वर्ण व्यवस्था से गाँधी जी का अभिप्राय पूर्णतया व्यवसाय श्रम विभाजन से था, जातिय भेद- भाव से नहीं। महात्मा गाँधी के शब्दों में, "मैं जन्म पर आधारित कार्य के स्वस्थ्य विभाजन के रूप में वर्गाश्रम का आदर करता हूँ। मेरे लिए ऊँच-नीच का कोई भी प्रश्न नहीं है।"

6. व्यक्तिवाद :- महात्मा गाँधी सब व्यक्तियों के लिए समान अवसर, जनतंत्रीय न्याय तथा उपभोग के प्रभुत्व के पक्षपाती थे। उनका कहना था कि, "मनुष्य अपने कार्य का स्वंय बड़ा निर्णायक होता है। राज्य की बढ़ती हुई शक्ति मुझे सर्वाधिक भयभीत करती है क्योंकि यद्यपि प्रकट रूप से यह समाज में व्याप्त शोषण को कम करके समाज का हित करती है तथापि यह प्रगति के मूल्य व्यक्तिवाद को नष्ट करके मानव जाति का सबसे अधिक अहित करती है।"

7. विकेन्द्रीयकरण और लघु उद्योग  :- महात्मा गाँधी केन्द्रीयकरण के विरोधी थे क्योंकि इससे एक ओर, यदि गाँवों का नैर्सगिक सौंदर्य समाप्त हो जाता है तो दूसरी ओर जन घनता के कारण नगर का वातावरण दूषित हो जाता है। अतः उन्होंने लघु उद्योगों के विकास पर बल डाला। गाँधी जी बड़े पैमाने के उद्योगों के भी विरोधी भी उन्होंने बड़े पैमाने के उत्पादन के अनेक दोष गिनायें, जैसे- मशीनों के अधिक प्रयोग के कारण श्रमिकों का बेकार हो जाना, लघु उद्योगों का प्रतिस्पर्धाओं में वृद्धि, आर्थिक विषमता में वृद्धि, आर्थिक संकटों की उपस्थिति आदि। एतएव् उन्होंने लघु एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना पर बल दिया और कहा कि ऐसे उद्योगों की स्थापना जलवायु, कच्चे माल की उपलब्धि, विपणन की सुविधा आदि बातों को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए।

8. सादगी और सरलता :- गाँधी जी ने बताया कि मानव जीवन का वास्तविक सुख आवश्यकताओं को बढ़ाने में नहीं अपितु उन्हें न्यूनातिन्यून (कम से कम) रखने में है क्योंकि बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के हेतु जब हमारे पास साधन नहीं होते, तो हमें एक तरह का मानसिक क्षोभ (गुस्सा) होता है। कुमारप्पा के शब्दों में, "महात्मा गाँधी वर्तमान जटिल जीवन; जिसे भूल से उच्च स्तीय जीवन कहा जाता है, के स्थान पर मनुष्य की आवश्यकताओं को कम करके उसे अच्छी प्रकार की वस्तुओं के उपभोग करने की राय देकर वस्तुतः मानव जीवन के स्तर को उच्च बनाना चाहते थे। गाँधी जी के इस दृष्टिकोण का भारतीय विचारक प्रो० जे० के० मेहता ने अनुकरण किया है।

9. न्यासधारिता का सिद्धांत :- गाँधी बाबा आर्थिक विषमता को समाज विरोधी मानते थे। उनका कहना था कि जब तक देश में मुट्ठी भर धनवानों और करोड़ों भूखे- व्यक्तियों के बीच चौड़ी खाई विद्यमान है, तब तक अहिंसा वादी सरकार की स्थापना असंभव है। यदि धनवान व्यक्ति अपने धन का स्वेच्छा पूर्वक परित्याग करके उसे सामान्य हित में प्रयुक्त करने के लिए तैयार नहीं होगे, तो देश के भीतर एक दिन बड़ी हिंसात्मक और रक्तंमयी क्रांति होनी निश्चित है। इस संदर्भ में गाँधी बाबा ने सुझाब दिया कि समस्त संपति 'न्यास' के रूप में होनी चाहिए, पूँजीपति जिसके न्यासी हो । न्याय के रूप में रखी गयी संपति का उद्देश्य सार्वजनिक लाभ होगा। और यदि सामान्य उपयोग की आवश्यकता हुई तो इस धन को सरकार द्वारा लिया जा सकेंगा। इस धन में से पूँजीपतियों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु केवल उतना ही मिल सकेगा जितना समाज उनके लिए आवश्यक समझें।

10. कृषि अर्थव्यवस्था :- गाँधी जी ने अपने विचारों में कृषि को विशेष महत्त्व प्रदान किया और बताया कि भारत की उन्नति कृषि पर ही निर्भर है। उन्होंने कृषि व्यवसाय के दोषों और कठिनाई को देखा और इन्हें दूर करने का सुझाव दिया। उन्होंने यह बताया कि भूमि एक प्राकृतिक वस्तु है जिसपर किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष का अधिकार न होकर संपूर्ण समाज का अधिकार होना चाहिए। इस तरह गाँधी जी मध्यस्था के उन्मूलन तथा कृषकों को स्त्वाधिकारी देने के पक्षपाती थे। उन्होंने कृषकों की ऋणग्रस्तता समाप्त करने हेतु यह सुझाव दिया कि सहकारी साख व्यवस्था के द्वारा किसानों को महाजनों के चंगुल से छुटकारा दिलाया जाय।

11. खादी का अर्थशास्त्र :- आर्थिक आधार पर गाँधी जी ने खादी के प्रयोग पर बल दिया उनका खादी का अर्थशास्त्र मानव मूल्यों का प्रतीक है। उन्होंने यह विश्वास व्यक्त किया कि बिना किसी आर्थिक आधार के जनसंख्या को संगठित नहीं किया जा सकता। अतः इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने चरखे का सहारा लिया। उसका मत था कि खादी और सच्चे स्वराज्य को एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता । राजनैतिक दृष्टि से एक स्वतंत्र राष्ट्र को आर्थिक दृष्टि से भी स्वतंत्र होना चाहिए। चूंकि खादी का प्रयोग हमें आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाता है, इसलिए यह हमें स्वराज्य की ओर ले जायेगा

12. वितरण एवं राजस्व संबंधी विचार :- महात्मा गाँधी ने वितरण की वर्तमान प्रणाली को असमानता आर्थिक संकट एवं शोषण की जन्मदात्री बताया और समान वितरण का समर्थन किया। गाँधी बाबा के शब्दों में," समान वितरण की वास्तविक योजना यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास अपनी समस्त प्राकृतिक आवश्कताओं को पूरा करने के साधन हो "। उदाहरण के लिए यदि कोई कमजोर व्यक्ति अपनी रोटी के लिए चौथाई पौंड आटा चाहता है तथा दूसरा व्यक्ति एक पौंड आटा चाहता है तो दोनों ही व्यक्ति इस स्थिति में होने चाहिए कि वे अपनी आवश्यकताओं को संतुष्ट कर सके। करारोपण के संबंध में गांधी बाबा ने यह सुझाव दिया है कि इसका आधार नागरिकों की कर दे क्षमता होनी चाहिए । उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि करों के रूप में एकत्रित राशि को सरकार सर्वसाधारण के हित पर व्यय करें।

13. जनसंख्या संबंधी विचार :- गाँधी जी ने यह बताया कि जनसंख्या की वृद्धि देश में प्राप्त प्राकृतिक साधनों के अनुरूप होनी चाहिए। गाँधी जी ने भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या को राष्ट्रीय अहित में बताया तथा इसे नियंत्रित करने हेतु आत्मसंयम और ब्रह्मचर्य के पालन का उपदेश दिया।

14. सर्वोदय संबंधी विचार :- महात्मा गाँधी भारतवासियों की गरीबी को दूर करने तथा गाँवों को आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाने के पक्षपाती थे। उनके सर्वोदय संबंधी विचार वास्तविक लोकतंत्र पर आधारित है तथा इस कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पूर्ण जीवित करना है, ताकि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु समान अवसर प्राप्त हो सकें। उन्होंने बताया कि इस उपदेश की पूर्ति बड़े पैमाने के उद्योगों द्वारा नहीं, ग्रामीण उद्योगों के विकास पर ही संभव है। इसलिए हमें अपना ध्यान गाँव की आत्मनिर्भरता पर केन्द्रीत करना होगा।

गाँधी जी का प्रभाव

गाँधी जी के प्रभाव का मूल्यांकन करना अभी संभव नहीं हैं। अभी उसके सिद्धांतों का प्रयोग व चिंतन चल रहा है। यदि व्यवहार की कसौटी पर वे सिद्धांत खरे उतरे तभी संसार उन्हें अपनायेगा अन्यथा त्याग देगा, परंतु संसार की मनोवृत्ति को देखते हुए ऐसा लगता है कि गाँधी जी का अहिंसा का सिद्धांत तो चलेगा। बिनोवा जी ने एक जगह कहा था, " जिस दिन मुझे पता चला कि अणुबम से संसार का नाश हो सकता है, वह समझ गया कि अब अहिंसा ही संसार में एकमात्र विकल्प रह गया है।" और यदि अहिंसा आती है तो समाज का रूप निश्चित ही बदलेगा, क्योंकि शोषण ही हिंसा है।

भारत में दीर्घकाल तक लघु उद्योगों का महत्त्व रहेगा, केवल इसलिए कि लोगों को काम देने का और तरीका नहीं है, परंतु लघु उद्योगों के प्रति मोह नहीं होना चाहिए, उसे पूजा की वस्तु नहीं मानना चाहिए। संभव है कि यह आग्रह आने वाला युग छोड़ देगा । लघु उद्योग कभी भी बड़े उद्योगों का स्थान नहीं ले सकेंगे। देश और विश्व यंत्रों का प्रयोग नहीं छोड़ सकते।

न्यासवाद के सिद्धांत में संशोधन होना शुरू हो गया है। व्यक्तिगत संपत्ति पर से अधिकार बल पूर्वक कम करने की बात स्वीकृत की जा रही है। पूँजीपतियों पर शासन का नियंत्रण भी न्यासवाद के सिद्धांत का विरोध नहीं है।

सर्वोदय केवल अर्थव्यवस्था के परिवर्तन का नाम मात्र नहीं है। यह समाज को सत्य में प्रतिष्ठित करने का प्रयास है। यह समाज में अध्यात्मिक नैतिक क्रांति का नाम है। इसके लक्ष्य सही है तथा तरीके भी ठीक है, परंतु इन सब के होते हुए भी कार्य अत्यंत कठिन है। सर्वोदय की सबसे बड़ी दुर्बलता इसका व्यवहारिक न होना है। इतिहास की कोई घटना तथा कोई क्रांति इस बात का समर्थन नहीं करती कि भविष्य का मनुष्य इतना सदाचारी होगा।

क्या आज गांधीवाद प्रासंगिक (Relevant) हैं?

देश में गाँधी जी का महत्त्व कम नहीं हुआ, हो भी नहीं सकता। अधिकांश राजनीतिक दल उनसे प्रेरणा प्राप्त करते हैं। यहाँ तक कि साम्यवादी भी उनका सम्मान करते है। परंतु क्या आज के युग में गाँधी जी के विचार प्रासंगिक हैं? क्या देश को इन विचारों की कोई आवश्यकता है,

असल में गाँधी के विचार आर्थिक और गैर आर्थिक दोनों दो वर्ग में बांटे जा सकते है। पहले वर्ग में अनेक शाश्वत विचार है जो प्रत्येक देश के लिए लाभदायक है सत्य, प्रेम, अहिंसा, मानवतावाद इसी प्रकार के आदर्श अथवा मूल हैं। इनकी प्रासंगिकता तब तक रहेगी जब तक मानव इस धरती पर रहेगा। इनके अभाव में अब मनुष्य का अस्तित्व भी संभव नहीं हैं। एक शोषण हीन, वर्गहीन, समाज की रचना भी ऐसा ही आर्दश है।

दूसरे वर्ग में वे विचार है जो समय की गति के साथ बदलते है अथवा बदलना चाहिए । कुटीर उद्योग, लघु उद्योग ऐसे ही विचार है। भारत के युवकों को रोजगार देने के लिए वर्तमान समय में उनकी प्रासंगिकता है।

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