चेर राजवंश
➤ ऐतरेय ब्राह्मण में प्राप्त होने वाला उल्लेख-चेरपाद सम्भवतः चेरों के विषय में प्रथम जानकारी है। इसके अलावा रामायण, महाभारत, अशोक के शिलालेख, कालीदास कृत महाकाव्य रघुवंश से भी चेरों के बारे में जानकारी मिलती है।
➤ चेर राज्य आधुनिक कोंकण, मालाबार का तटीय
क्षेत्र तथा उत्तरी त्रावनकोर से लेकर कोचीन तक विस्तृत था।
➤ चेरों का
राजकीय चिह्न धनुष था।
➤ चेर वंश का
प्रथम शासक उदियन जेरल था। इसका समय लगभग 130 ई. माना जाता है।
➤ चेर वंश का
महानतम शासक शेनगुट्टवन अथवा धर्मपरायण कुट्टवन (लगभग 130 ई.) था।
➤ इसे लाल चेर भी
कहा जाता था। इसकी प्रशंसा संगमकालीन कवियों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कवि परणर
ने की है।
➤ चेरकालीन
इतिहास में शेनगुट्टवन को महान योद्धा एवं कला तथा साहित्य के संरक्षक के रूप में
भी जाना जाता है।
➤ शेनगुट्टवन की
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी- दक्षिणी प्रायद्वीप में सर्वप्रथम पत्तिनी या
कण्णगी पूजा की प्रथा को प्रारम्भ करना। इसने शती कण्णगी की याद में एक विशाल
मंदिर एवं उसकी प्रतिमा का निर्माण करवाया।
➤ चेर शासक
पेरूनेजेरल इरंपोरई (लगभग 190 ई.) ने सामंतों की राजधानी तगड्र (धर्मपुरी) पर
आक्रमण कर उसे जीत लिया। उसे विद्वान, अनेक यज्ञ को सम्पन्न कराने वाला एवं अनेक
वीर पुत्रों का पिता होने का गौरव प्राप्त था।
➤ पेरूनेजेरल
इरंपोरई का विरोधी तगड़ के राजा
अडिगयमान अथवा नडुमान का महत्त्वपूर्ण कार्य था- दक्षिण भू-भाग में सर्वप्रथम
गन्ने की खेती को आरम्भ करवाना।
➤ एक अन्य चेर
राजा शेय था जिसे हाथी की आँख वाला कहा गया है। उसे पाण्ड्य शासक ने पराजित कर
दिया, परन्तु अंत में वह अपनी स्वतन्त्रता बनाये रखने में सफल रहा।
चोल राजवंश
➤ चोलों के विषय
में प्रथम जानकारी पाणिनी कृत अशध्यायी से मिलती है। इस विषय में जानकारी के अन्य
स्रोत हैं- कात्यायन कृत वर्तिका, महाभारत, संगम साहित्य, पेरिप्लस ऑफ दी
इरीथ्रियन सी एवं टॉलमी का उल्लेख आदि।
➤ चोल राज्य
आधुनिक कावेरी नदी घाटी, कोरोमण्डल, त्रिचिरापल्ली एवं तंजोर तक विस्तृत था।
➤ उपलब्ध
साक्ष्यों के आधार माना जाता है कि इनकी पहली राजधानी उत्तरी मनलूर थी। कालांतर
में उरैयुर तथा तंजावुर चोलों की राजधानी बनी।
➤ चोलों का
राजकीय चिह्न बाघ था।
➤ इस वंश का
प्रथम शासक उरवपहरें इलन जेत
चेन्नी था। इसने अपनी राजधानी उरैयुर में स्थापित की।
➤ प्रारम्भिक चोल
शासकों में करिकाल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। अनुमानतः इस शासक ने 190 ई. में शासन
किया। उसे जले हुए पैरों वाला (The Man with the Charred Leg) कहा गया है।
➤ करिकाल ने अनेक
युद्धों में विजय प्राप्त की। तंजौर के निकट वेण्णि नामक युद्ध में विजय प्राप्त
करने से उसकी ख्याति बढ़ गयी। इस युद्ध में उसने ग्यारह राजाओं के समूह को जिसमें
चेर और पाण्ड्य भी थे, पराजित कर दिया। एक-दूसरे महत्त्वपूर्ण युद्ध, वाहैप्परंदलई
के युद्ध में उसने नौ छोटे-छोटे शासकों की संयुक्त सेना को हराया।
➤ संगम साहित्य
के अनुसार करिकाल ने कावेरी नदी के मुहाने पर पुहार पत्तम (कावेरीपट्टनम) की
स्थापना की।
➤ करिकाल ने
कृषि, उद्योग-धंधे तथा व्यापार-वाणिज्य के विकास को प्रोत्साहन दिया। उसके समय में
कावेरीपट्टनम उद्योग और व्यापार का केन्द्र बन गया।
➤ शक्तिशाली
नौ-सेना रखने वाला करिकाल संगम-युग का शायद सबसे महान एवं पराक्रमी शासक था।
➤ पट्टिनप्पालै कृति के उल्लेख के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि करिकाल के समय में उद्योग तथा व्यापार उन्नति की अवस्था में थे। करिकाल ने पट्टिनप्पालै के लेखक रूद्रन कत्रन्नार को 1,60,000 स्वर्ण मुद्राएँ उपहार में दिया था।
➤ करिकाल के बाद
इस वंश का अंतिम महान शासक नेडुजेलियन था। इसकी मृत्यु युद्ध क्षेत्र में हुई।
➤ ईसा की तृतीय
शताब्दी से 9वीं शताब्दी तक चोलों का इतिहास अंधेरे में था, पर 9वीं शताब्दी के
मध्य चोल नरेश विजयालय द्वारा चोल शक्ति का पुनः उद्धार किया गया।
पाण्ड्य राजवंश
➤ पाण्ड्य राजवंश
का प्रारम्भिक उल्लेख पाणिनीकृत अशध्यायी में मिलता है। इसके अतिरिक्त अशोक के
अभिलेख, महाभारत एवं रामायण में भी पाण्ड्य राज्य की जानकारी मिलती है।
➤ पाण्ड्यों की
राजधानी मदुरा (मदुरई) थी। मदुरा का दूसरा नाम कदम्बवन था तथा यह वैगा नदी के
दक्षिण में बसा हुआ था। मदुरा के विषय में कौटिल्य के अर्थशास्त्र से भी जानकारी
मिलती है।
➤ मदुरा अपने
कीमती मोतियों, उच्चकोटि के वस्त्रों एवं उन्नतिशील व्यापार के लिए प्रसिद्ध था।
➤ इरिथ्रियन सी
के विवरण के आधार पर पाण्ड्यों की प्रारम्भिक राजधानी कोल्कई/कोर्कई को माना जाता
है।
➤ सम्भवतः
पाण्ड्य राज्य मदुरई, रामनाथपुरम्, तिरूनेलवेलि, तिरूचिरापल्ली एवं ट्रावनकोर तक
विस्तृत था।
➤ पाण्ड्यों का
राजकीय चिह्न मछली (मत्स्य) था।
➤ संगम साहित्य
में वर्णित पाण्ड्य राजाओं में पहला नाम नेडियोन का आता है। इसी ने पहरूली नदी
बनाई तथा समुद्र की पूजा की प्रथा आरम्भकरवाई, परन्तु इस राजा की ऐतिहासिकता को
संदिग्ध माना जाता है।
➤ पलशालैमुडुकुड़मी
को पाण्ड्य वंश का प्रथम ऐतिहासिक शासक माना जाता है। अनेक यज्ञों का अनुष्ठान
करवाने के कारण ही इस पलशालै यानि अनेक यज्ञशालाएँ बनाने वाला कहा गया। यह अपने
द्वारा जीते गये राज्यों के साथ कठोरता का व्यवहार करता था।
➤ पाण्ड्य शासकों
में सबसे विख्यात नेडुंजेलियन (210 ई.) था। इसकी प्रसिद्धि तलैयालंगानम् के युद्ध
में विजय के परिणामस्वरूप हुई। उसने इस
➤ युद्ध में
चोलों एवं चेरों को उनके अन्य पाँच सामंत मित्रों के साथ बुरी तरह परास्त किया।
➤ नेडुंजेलियन
वीर विजेता के अतिरिक्त एक कुशल प्रशासक भी था। इसने सेना का गठन किया तथा किसानों
और व्यापारियों के हित में अनेक कार्य किये।
➤ नेडुंजेलियन की
सेना में मोती तथा मछली संग्रह करने वाले पूर्वी समुद्रतटीय लोगों को विशेष
महत्त्व प्रदान किया जाता था।
➤ संगमकालीन शासन
का स्वरूप राजतन्त्रात्मक था। राजा का पद वंशानुगत एवं ज्येष्ठता पर आधारित था।
प्रशासन का समस्त अधिकार राजा के पास होता था, इसलिए उसकी प्रवृत्ति में निरंकुशता
का समावेश होता था।
➤ राजा प्रत्येक
दिन अपनी सभा (नलवै) में प्रजा की कठिनाइयों को सुनता था। राज्य का सर्वोच्च
न्यायालय मनरम होता था, जिसका सर्वोच्च न्यायाधीश राजा होता था।
➤ प्रतिनिधि
परिषदों राजा की निरंकुशता पर अंकुश लगाती थी, साथ ही प्रशासन में राजा का सहयोग
करती थीं। इन परिषदों के सदस्य जन-प्रतिनिधि, पुरोहित, ज्योतिषी, वैद्य एवं
मन्त्रीगण होते थे। इस परिषद् को पंचवारम या पंचमहासभा भी कहा जाता था।
➤ शासन में
गुप्तचर भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे, इन्हें और्रर या वै कहा जाता था।
➤ प्रशासनिक
सुविधा के लिए राज्य या मंडलम नाड्डु में तथा नाडु उर में विभाजित था।
➤ समुद्रतटीय
कस्बे को पत्तिनाम, बड़े गाँव को पेरूर, छोटे गाँव को सिरूर तथा पुराने गाँव को
मुडूर कहते थे।
➤ संगमकाल में
राजकीय आय के महत्त्वपूर्ण स्रोतों में कृषि तथा व्यापार पर लगने वाले कर थे।
➤ संगमकाल में
भूमि पर लगने वाले कर को कराई, सामंतों द्वारा दिया जाने वाला कर एवं लूट द्वारा
प्राप्त धन को इराई, सीमा शुल्क द्वारा प्राप्त धन को उल्गू या संगम कहा जाता था।
➤ राज्य की ओर से
धन की अतिरिक्त माँग एवं जबरन लिए गये उपहार को इरावू (Iravu) कहा जाता था।
➤ संगमकाल में
सम्भवतः सकल उत्पादन का 1/6 भाग भूमिकर के रूप में लिया जाता था।
➤ संगम साहित्य
में व्यापारी वर्ग को बेनिगर कहा गया है। इस वर्ग के लोग ही आंतरिक एवं विदेशी
व्यापार का संचालन करते थे।
➤ संगमकालीन
विदेशी व्यापार का अधिकांश भाग पुहार बंदरगाह (कावेरी पêनम) से संचालित होता था।
कावेरी पêनम के दो अन्य नाम थे -
पटिपाक्म् एवं मरुवरपाक्कम्।
➤ संगमकाल में
उरैयुर सूती कपड़ों के व्यापार के लिए प्रसिद्ध था।
➤ इस समय
व्यापारिक कारवाँ का नेतृत्व करने वाले स्थल सार्थवाह को मासात्तुवान एवं समुद्री
सार्थवाह को मानामिकन कहा जाता था।
➤ संगमकाल में
अवनम बाजार को कहा जाता था।
➤ संगमकाल के
प्रमुख व्यापारिक वर्ग थे- पुलैयन (रस्सी बनाने वाला), चरवाहे, एनियर (शिकारी),
मछुआरे, कुम्हार, लुहार, स्वर्णकार, बढ़ई आदि। मलवर नाम के लोगों का व्यवसाय डाका
डालना था।
➤ संगमकाल के
व्यापार के विषय में विस्तृत जानकारी पहली सदी में किसी अज्ञात रचयिता द्वारा लिखी
गयी पुस्तक पेरिप्लस ऑफ दि एरीथ्रियन सी से मिलती है।
➤ संगमकाल में
महत्त्वपूर्ण कृषि उत्पादन के रूप में गन्ना, रागी, चावल एवं कपास का उत्पादन किया
जाता था।
➤ संगमकाल में
कृषकों में बल्लाल वर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान था। बल्लाल वर्ग दो भागों में बँटे
थे- सम्पन्न कृषक या बल्लाल तथा मजदूर कृषक या बल्लार।
➤ संगमकालीन समाज
पाँच वर्गों में विभाजित था- 1. ब्राह्मण (पुरोहित वर्ग) 2. अरसर (शासक वर्ग) 3.
बेनिगर (व्यापारी वर्ग) 4. बेल्लाल/वेल्लाल (बड़े कृषक एवं शासक वर्ग) 5.
बेल्लार/वेल्लार (मजदूर कृषक वर्ग) दास प्रथा का प्रचलन इस काल में नहीं था।
➤ संगमकाल में एक
पत्नी प्रथा का प्रचलन था, परन्तु सम्पन्न वर्ग के लोग एक से अधिक पत्नी रखते थे।
➤ आमतौर पर दो
प्रकार के विवाहों का प्रचलन था- कलावु एवं कार्पू। कलावु विवाह माता-पिता के
अनुमति के बिना होता था जबकि कार्पू विवाह परिवार की सहमति से होता था।
➤ संगमकालीन
ग्रन्थों में प्रेम विवाह को पंचतिणै एक पक्षीय प्रेम को कैक्किणै एवं अनुचित
प्रेम को पेरूनिदिणै कहा गया है।
➤ संगमकाल में
स्त्रियों की स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं थी। उनकी भी स्थिति उत्तर भारतीय समाज के
स्त्रियों के समान ही थी।
➤ उच्च वर्ग की
कुछ स्त्रियाँ जैसे औवैयर एवं नच्चेलिमर ने एक सफल कवियित्री के रूप में अपने को
स्थापित किया। इस तरह स्पष्ट है कि उच्च वर्ग की स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त करती
थीं जबकि निम्न वर्ग की स्त्रियाँ खेतों में काम करती थीं।
➤ विधवाओं की
स्थिति बदतर थी। वे स्वेच्छा से सती होना सरल समझती थीं। स्वैच्छिक सती प्रथा का
प्रचलन संगमकालीन समाज में था।
➤ संगमयुगीन समाज
में गणिकाओं एवं नर्तकियों के रूप में परात्तियर व कणिगैचर का उल्लेख मिलता है। ये
वेश्यावृत्ति द्वारा जीवनयापन करती थीं।
➤ प्रायः कविता
पाठ, गायन, वादन, नृत्य, नाटक आदि मनोरंजन के साधन थे। इसके अतिरिक्त मनोरंजन के
अन्य साधन थे- शिकार खेलना, कुश्ती लड़ना, पासा खेलना एवं गोली खेलना आदि। याल
नामक किसी वाद्ययन्त्र का भी उल्लेख मिलता है।
➤ वैदिक व
ब्राह्मण धर्म का प्रचलन तमिल प्रदेश में काफी था। संगमकाल में तमिल प्रदेश में
मुरुगन, शिव, बलराम एवं कृष्ण की उपासना की जाती थी। इनमें से मुरुगन/मुरुकन की
उपासना सर्वाधिक पुरानी थी, कालांतर में मुरुगन को सुब्रह्मण्यम कहा गया।
➤ स्कंद-कार्तिकेय
से मरुगन देवता की अभिन्नता स्थापित की गयी। तमिल प्रदेश के स्कंद कार्तिकेय को
उत्तर भारत में शिव-पार्वती के पुत्र के रूप में जाना जाता है।
➤ तमिल प्रदेश
में मुरुगन का प्रतीक मुर्गा (कुक्कुट) को माना गया, जिसे पर्वत शिखर पर क्रीड़ा करना
पसन्द है।
➤ संगम काल में
तमिल प्रदेश में बलि प्रथा का प्रचलन हुआ।
➤ तमिल साहित्य
के महाकाव्य मणिमेखलै में शैव धर्म के कापालिक सम्प्रदाय तथा बौद्ध धर्म के
श्रेष्ठता का उल्लेख है।