2.पर्यावरण के कारक (Environmental Factors)

पर्यावरण के कारक (Environmental Factors)

नोट - निर्गमन के सिद्धांत (Principles of Note Issue)

पर्यावरण के कारक (Environmental Factors)

प्रश्न : पर्यावरण के महत्त्वपूर्ण कारकों का विवेचनात्मक उल्लेख कीजिये।

पर्यावरण के मुख्य कारक कौन-कौन से हैं? पर्यावरण के निर्माण में उनकी क्या भूमिका है?

☞ पर्यावरण के मुख्य तत्त्वों का उल्लेख करते हुए पर्यावरण के संघटन में उनकी भूमिकाओं को रेखांकित कीजिये।

उत्तर : पर्यावरण एक संशिलष्ट संकल्पना है। पर्यावरण कई चीजों से मिलकर बना है। आस-पास का वातावरण अथवा प्रतिवेश (surroundings), मनुष्य एवं विविध प्रकार के जीव-जंतु (पशु, पक्षी, कीट-पतंग इत्यादि), वायुमण्डल, जलमण्डल एवं स्थलमण्डल मिलकर पर्यावरण का निर्माण करते हैं। जीव जिन चीजों से चारों तरफ से घिरा हुआ है और जो चीजें उसके समस्त क्रिया-कलाप एवं गतिविधियों (activities) को प्रभावित करती रहती हैं, वे सभी मिलकर पर्यावरण का निर्माण करती हैं। पर्यावरण एवं जीव में घनिष्ठ एवं अभिन्न संबंध है। धरती पर किसी भी जीवधारी की कल्पना पर्यावरण के बिना असंभव है। यदि कभी ऐसा हुआ कि किसी कारणवश पर्यावरण विनष्ट हो गया तो ऐसी स्थिति में प्रकृति से जीवों का अस्तित्व भी विलुप्त हो जायेगा। इसका अर्थ यह है कि जीवमात्र का अस्तित्व पर्यावरण पर ही निर्भर है। पर्यावरण जीव और जीवन का आधार है। पर्यावरण जीवों के विभिन्न क्रिया कलापों के संचालन के माध्यम का भी कार्य करता है। जिस पर्यावरण में जीव निवास करता है, वह पर्यावरण अनेक कारकों या तत्त्वों के पारस्परिक संबंधों का सम्मिश्रण है। पर्यावरण के तत्त्वों या कारकों का अध्ययन जीवधारियों पर उसके प्रभाव की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक है।

पर्यावरण के निम्नलिखित तीन प्रमुख कारक (तत्त्व) हैं-

(1) भौतिक कारक (physical factors)

(2) जैविक तत्त्व (biotic factors) एवं

(3) सांस्कृतिक तत्त्व (cultural factors)

1. भौतिक तत्त्व (Physical Factor) :

भौतिक कारक का अभिप्राय उन कारकों से है जो भौतिक वस्तुओं से बने हुए होते हैं। ताप, प्रकाश, भौगोलिक स्थिति, जलमण्डल, वायुमण्डल, मृदा (soil) तथा पारिस्थितिकी (ecosystems) आदि भौतिक पदार्थ हैं। इन भौतिक पदार्थों से मिलकर ही पर्यावरण बना हुआ है। ये भौतिक पदार्थ प्रायः स्वतंत्र होकर भी परस्पर अभिन्न रूप से सम्बद्ध हैं। किसी देश-काल या स्थान विशेष जलवायु की रूपाकृति, और वहाँ के प्राणियों के रहन-सहन के ढंग, खान-पान, पहिनावा और रूपरंग को भौतिक कारक विशेष रूप से प्रभावित कर उन्हें एक विशिष्ट ढाँचे में ढालते हैं। इसका कारण यह है कि इन भौतिक कारकों का जीवधारियों पर अचूक प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव इन कारकों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न हुई परिस्थिति पर निर्भर करता है। यह सोचना गलत होगा कि जीवों पर इनमें से किसी एक ही कारक का प्रभाव पड़ता है बल्कि सत्य तो यह है एक नहीं, सभी कारकों का उन पर समवेत प्रभाव पड़ता है। इस माध्यम को बनानेवाले मुख्य तत्त्व (कारक) मिट्टी, पानी, वायु तथा अन्य जीवधारियों के शरीर हैं। जलवायु का अर्थ क्षेत्र-विशेष के प्रतिदिन के मौसम की अवस्था है। जलवायु को बनाने या प्रभावित करनेवाले तत्त्व तापमान, आर्द्रता, वायु की दिशा एवं उसका वेग, वर्षा की मात्रा तथा सूर्य के प्रकाश के ठहरने की अवधि हैं। ये कारक ही जलवायु की प्रकृति को सुनिश्चित करते हैं। और जलवायु बहुत कुछ जीवों के स्वरूप, जीवनधारण आदि की क्षमता को सुनिश्चित करती है। इसलिए पर्यावरण का अध्ययन करते समय वहाँ के पर्यावरण के प्रमुख भौतिक कारकों का अध्ययन अनिवार्य हो जाता है।

2. जैवीय तत्त्व (Biotic Factors):

जैवीय तत्त्व (biotic factors) में पादप-समूह, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, सूक्ष्म जीव एवं मनुष्य आदि प्रमुख हैं। जैवीय तत्त्व के दो वर्ग हैं- प्रथम वर्ग को चर अर्थात् चलनेवाला (गतिशील) कहा जाता है, जबकि दूसरे वर्ग को अचर अर्थात् नहीं चलने वाला (स्थिर) कहा जाता है। चर जीव के उदाहरण मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग एवं अन्य सूक्ष्म जीव हैं जबकि अचर जीवों में वृक्षों और लताओं आदि की गिनती होती हैं। चर और अचर, दोनों प्रकार के जीव पर्यावरण की उपज हैं। चर और अचर जीव पर्यावरण की संरचना में सहयोगी तत्त्व की भूमिका निभाते हैं।

जैवीय तत्त्वों को तीन समूहों में वर्गीकृत किया गया है-

(i) पेड़-पौधे

(ii) पशु-पंक्षी एवं मनुष्य तथा

(iii) अपघटक (decomposer)

पेड़-पौधे भोजन के लिए दूसरे पर निर्भर नहीं होते अपितु वे अपना भोजन स्वयं बनाते है। अपना पोषण आप करने के कारण इन्हें 'स्वपोषी' भी कहा जाता है। पेड़-पौधे या पादप अचर हैं अर्थात् ये चलते नहीं अपितु एक जगह पर स्थिर खड़े रहते हैं। लेकिन पृथ्वी पर के अन्य जीव अपने भोजन के लिए पादपों (वृक्षों) पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर करते हैं, अतः इन जीवों के कारण वृक्षादि के अस्तित्त्व पर संकट छाया रहता है। जीवों के द्वारा खा लिये जाने के कारण पेड़-पौधे नष्ट होते रहते हैं। जो जीव अपने भोजन या पोषण के लिए दूसरों पर निर्भर करते हैं, उन्हें 'परपोषी' कहा जाता है। परपोषी, विशेषकर पशु-पक्षी चलनेवाले, गतिशील और अपना निवास-स्थान बदलनेवाले होते हैं। इस वर्ग के जीवों को 'उपभोक्ता' कहा जाता है। ये पेड़-पौधों को भोजन रूप में ग्रहण करते हुए उसे विनष्ट करते रहते हैं। किन्तु परपोषियों या उपभोक्ता वर्ग की आहार-श्रृंखला (food chains) में स्वपोषी जीव अर्थात् पेड़-पौधे महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहते हैं। प्रकृति परपोषियों की संख्या को नियंत्रित कर पर्यावरण को अतिशय विनाश से बचाती है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैवीय-तत्त्व समूह पर्यावरण के शोषक और पोषक दोनों रूप में कार्य करते हैं।

3. सांस्कृतिक तत्त्व (Cultural Factors):

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह अकेले नहीं रह सकता। उसने आदिकाल से ही समूह बनाकर रहना सीखा। समूह बनाकर रहने की प्रवृत्ति ने ही उसे मानव बस्तियाँ निर्मित करने की प्रेरणा प्रदान की। मनुष्य जब बस्तियाँ बनाकर रहने लगा तब उसकी अनेक प्रकार की गतिविधियाँ प्रारंभ हुई। इन्हीं गतिविधियों में उसके विभिन्न प्रकार के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक क्रिया-कलाप भी सम्मिलित हो गये। यद्यपि मनुष्य भी पर्यावरण की ही उपज है तथापि वह अपनी बौद्धिक क्षमता एवं तकनीकी ज्ञान का उपयोग कर उसकी उपलब्धियों के माध्यम से पर्यावरण पर नियंत्रण स्थापित करने की दिशा में भी क्रियाशील हुआ। वह अपनी इच्छा, कल्पना और अवधारणा के अनुरूप बस्तियाँ बनाता है, अपने रहन-सहन के स्तर में परिवर्तन या परिवर्द्धन लाता है। फलस्वरूप रहन-सहन की दशा उससे प्रभावित होती है।

मनुष्य की राजनीतिक आकांक्षा का परिणाम ही राज्यों, देशों और अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के विकास हैं। मनुष्य वनस्पतियों के प्राकृतिक स्वरूप की परिवर्तित करता रहता है। वह अपने जीवन को सुविधाजनक बनाने के लिए नहरें, सड़कें, रेलमार्ग, पर्वतीय सुरंगों आदि का भी निर्माण करता है।

मनुष्य ने अपने सुख के लिए जंगलों को काटा। वह धरती को खोद कर विभिन्न प्रकार की धातुओं, खनिजों, यथा-कोयला, खनिज तेल आदि को निकालता है। वह धरती से जल भी प्राप्त करता है। इस प्रकार आधुनिक मनुष्यों ने पर्यावरण के भौतिक पदार्थों का खूब दोहन किया है। इस दोहन के बल पर उसने भौतिक पदार्थ संस्कृति का विकास किया है। आज के मनुष्य ने पर्यावरण को संतुलित रखने की दिशा में भी कार्य किया है। उसने भौगोलिक सूचना तंत्र और तत्सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण तकनीकों का विकास किया है।

पर्यावरण के सांस्कृतिक तत्त्वों के अन्तर्गत हम मानव बस्तियों, उसकी आर्थिक गतिविधियों, धर्मों, लोगों के रहन-सहन की दशाओं एवं राजनीतिक अवस्थाओं का अध्ययन करते हैं।

कोशगत अर्थ के अनुसार 'संस्कृति' 'मन, आचार अथवा रुचियों की परिष्कृत शुद्धि है।' रुचि का सम्बन्ध मन और संस्कार से है। संस्कारों के निर्माण में परिवेश की महती भूमिका होती है। पर्यावरण इन्हीं अर्थों में संस्कार एवं मन के माध्यम से संस्कृति से जुड़ा हुआ है। पर्यावरण का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव देश-विशेष की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्थिति पर पड़े बिना नहीं रह सकता। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि संस्कृति के तत्त्व ही पर्यावरण के पोषक एवं रक्षक होते हैं। इस प्रकार संस्कृति एवं पर्यावरण का अटूट संबंध रहा है। संस्कृति हमारे जीवन में व्याप्त है। उसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभव का हाथ रहा है। पर्यावरण भी हमारे जीवन में व्याप्त है तथा वह इसे प्रभावित करता है। भारत के भौगोलिक पर्यावरण ने भारत की एकता एवं संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखा है। इसी प्रकार भारतीय संस्कृति के प्रमुख तत्त्वों ने पर्यावरणीय शुद्धि की महत्ता को स्वीकार कर पर्यावरण को दूषित होने से बचाया। भारतीय संस्कृति के बीज मंत्र, यज्ञ, सूर्य, अग्नि, जल, वायु, अश्वत्थ, तुलसी, नीम, शमी आदि की उपासना पर्यावरणीय शुद्धि के परिचायक हैं। इस प्रकार भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि सदैव पर्यावरण का पोषण करने की रही है क्योंकि भारतीय संस्कृति की यह अवधारणा है कि मनुष्य प्रकृति की श्रेष्ठतम कृति है। अतः यदि प्रकृति का पोषण होता रहा तो उसके माध्यम से विकसित व्यक्तित्व संस्कृति का रक्षण करने में सक्षम होगा।

उपर्युक्त समस्त विवेचनों का सारांश यह है कि प्रकृति अर्थात् पर्यावरण और संस्कृति में अभिन्न और अक्षुण्ण संबंध है। अतः कई दृष्टियों से पर्यावरण एवं संस्कृति के सम्बन्धों का अध्ययन अनिवार्य ही नहीं, अपेक्षित भी है।

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