12th 6. प्रतिस्पर्धारहित बाजार Micro Economics JCERT/JAC Reference Book

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Monopoly शब्द Mono तथा Poly शब्दों के योग से बना है। Mono का अर्थ है (Single) एक / अकेला और Poly का अर्थ है विक्रेता। अतः Monopoly का अर्थ हुआ अकेला विक्रेता अथवा एकाधिकारी।

एकाधिकार का शाब्दिक अर्थ है 'अकेला विक्रेता', ऐसी स्थिति जिसमें पूर्ति पर किसी एक विक्रेता का अधिकार या नियन्त्रण हो। बाजार की विभिन्न स्थितियों में एकाधिकार पूर्ण प्रतियोगिता की ठीक विपरीत स्थिति है। यह बाजार की वह स्थिति है जिसमें बाजार की पूर्ति का नियन्त्रण पूर्णतया एक व्यक्ति के हाथ में हो। ऐसी स्थिति में उत्पादक ऐसी वस्तु का उत्पादन करता है जिसका कोई नजदीकी स्थानापन्न नहीं होता है क्योंकि यदि कोई नजदीकी स्थानापन्न हुआ तो प्रतियोगिता की स्थिति आ जायेगी और उस वस्तु की पूर्ति पर उत्पादक का पूर्ण नियन्त्रण नहीं होगा। किसी वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण नियन्त्रण के लिए यह भी आवश्यक है कि उस उद्योग में फर्मों के प्रवेश पर रोक हो। इस प्रकार प्रतियोगिता की पूर्ण समाप्ति ही एकाधिकार है।

एकाधिकार की परिभाषा :-

1. लर्नर के अनुसार "एकाधिकारी से आशय उस विक्रेता से है जिसकी वस्तु का मांग वक्र गिरता हुआ हो।"

2. चैम्बरलिन के अनुसार "एकाधिकारी उसे समझना चाहिए जो किसी वस्तु की पूर्ति पर नियंत्रण रखता हो।"

3. प्रो० बोल्डिंग के अनुसार 'शुद्ध एकाधिकारी फर्म वह फर्म है जो कि कोई ऐसी वस्तु उत्पादित कर रही है जिसका किसी अन्य फर्म की उत्पादित वस्तुओं में कोई प्रभावपूर्ण स्थानापन्न नहीं हो।"

एकाधिकार की विशेषताएं :-

(1) एकाधिकार की स्थिति में केवल एक ही उत्पादक या विक्रेता होता है।

(2) एक विक्रेता होने के फलस्वरूप पूर्ति के ऊपर विक्रेता का पूर्ण नियन्त्रण होता है।

(3) एकाधिकारी द्वारा उत्पादित वस्तु की कोई दूसरी वस्तु नजदीकी स्थानापन्न नहीं होती है, अर्थात् जहाँ पर फर्म द्वारा उत्पादित वस्तु एवं बाजार में बेची जाने वाली अन्य वस्तुओं के बीच माँग की तिर्यक लोच (Cross elasticity of demand) शून्य होती है।

(4) एकाधिकारी उद्योग में अन्य फर्में प्रविष्ट नहीं हो सकती हैं।

(5) एकाधिकार में फर्म तथा उद्योग में अन्तर नहीं रहता है क्योंकि एकाधिकार में एक ही फर्म होती है जो उत्पादन करती है। इस प्रकार फर्म ही उद्योग है और उद्योग ही फर्म है।

(6) एकाधिकार की स्थिति में मूल्य-विभेद सम्भव हो सकता है अर्थात् एकाधिकारी ऐसी स्थिति में होता है जो कि अपनी उत्पादित वस्तु की विभिन्न इकाइयों को अलग-अलग उपभोक्ताओं को अलग- अलग मूल्य पर बेच सकता है।

एकाधिकार के अन्तर्गत माँग वक्र या औसत आय वक्र :-

एकाधिकार के अन्तर्गत उद्योग में एक ही फर्म होती है। एकाधिकारी फर्म तथा उद्योग में कोई अन्तर नहीं होता है। फलस्वरूप फर्म की माँग वक्र ही उद्योग की माँग वक्र होती है। एकाधिकारी फर्म की मांग वक्र सामान्य मांग वक्र की तरह ऋणात्मक ढाल की होगी अर्थात् नीचे दाहिनी ओर गिरती हुई होगी क्योंकि कोई भी एकाधिकारी किसी वस्तु की अधिक इकाइयाँ बिना मूल्य में कमी के नहीं बेच सकता है। उपभोक्ता का माँग वक्र ही उत्पादक की दृष्टि से औसत आय वक्र होता है क्योंकि उपभोक्ता द्वारा दिया जाने वाला मूल्य ही विक्रेता की आय होती है। इस प्रकार AR ही माँग रेखा हुयी और इसका प्रत्येक बिन्दु उत्पादन की मात्रा के सन्दर्भ में प्रति इकाई मूल्य प्रदर्शित करेगा।

एकाधिकारी की औसत आय रेखा (AR) या माँग रेखा को रेखाचित्र नं० 6:1 में प्रदर्शित किया गया है। रेखाचित्र में एकाधिकारी की माँग वक्र AR से प्रदर्शित हैं। AR नीचे गिरती हुयी प्रदर्शित है। सुविधा के लिए इसे रैखिक मान लिया गया है कि औसत आय रेखा नीचे गिर रही है इसलिए उससे सम्बन्धित MR नीचे गिरती हुयी है तथा यह AR से मूल्य अक्ष पर खींचे गये लम्ब को दो भागों में विभाजित करेगी। कहने का अर्थ यह है कि MR भी AR की तरह सीधी रेखा होगी जिसका अन्तः खण्ड (intercept) माँग रेखा का ही होगा पर इसका ढाल माँग रेखा या औसत आय रेखा के ढाल का दुगुना होगा।

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एकाधिकार के अन्तर्गत लागत तथा पूर्ति वक्र :-

व्यावहारिक दृष्टि से एकाधिकारी फर्म की लागत वक्र पूर्ण प्रतियोगिता की फर्म की ही लागत वक्रों के समान होता है, विशेषरूप से उस समय जबकि एकाधिकारी फर्म साधन बाजार में साधनों के क्रय के सम्बन्ध में प्रतियोगिता का सामना कर रही हो। एकाधिकारी फर्म की AVC, MC तथा AC अंग्रेजी के U अक्षर के आकार की होंगी तथा पूर्ण प्रतियोगी फर्म की ही तरह AFC समकोणीय अति परवलय (rectangular hyperbola) होगी। क्रेताधिकार की स्थिति में (जब साधन बाजार में एकाधिकार फर्म साधनों की अकेली क्रेता हो) एकाधिकारी की लागत वक्र भिन्न स्वभाव की होगी। पर प्रत्येक स्थिति में, फर्म की संस्थिति वहीं होगी जहाँ सीमान्त आय सीमान्त लागत के बराबर हो, MR = MC, पर संस्थिति बिन्दु पर MC का ढाल MR के ढाल से अधिक होना चाहिए।

एकाधिकारी फर्म का सीमान्त लागत वक्र उसका पूर्ति वक्र नहीं होता है। चूँकि एकाधिकार में MR वक्र AR वक्र से नीचे होता है, इसलिए सीमान्त आय तथा सीमान्त लागत के समता का बिन्दु (MR = MC) निश्चित रूप से AR के नीचे होगा। ऐसी स्थिति में MC वक्र के बिन्दु न तो मूल्य को प्रदर्शित करेंगे और न उन मात्राओं को ही प्रदर्शित करेंगे जो एकाधिकारी फर्म विभिन्न मूल्यों पर बेचने या पूर्ति करने के लिए तत्पर है। इस प्रकार एकाधिकार में पूर्ति वक्र का कोई निश्चित स्वरूप नहीं बताया जा सकता।

एकाधिकार में फर्म की संस्थिति तथा मूल्य-निर्धारण :-

एकाधिकारी फर्म की संस्थिति की स्थिति ज्ञात करने के दो तरीके हैं

(क) TR - TC विधि :- फर्म संस्थिति की स्थिति में वहां होगी जहां उसका लाभ या कुल आय (TR) तथा कुल लागत (TC) का अन्तर अधिकतम होगा।

एकाधिकार में उत्पादन तथा मूल्य सम्बन्धी निर्णय भी पूर्ण प्रतियोगिता की तरह लिए जाते हैं। अर्थात् पूर्ण प्रतियोगिता की फर्म की तरह ही एकाधिकारी फर्म भी अपने कुल लाभ (TR) को अधिकतम करने का प्रयास करती है। किसी भी फर्म को होने वाला लाभ वस्तु की बेची गयी मात्रा से कुल आय (TR) तथा उसकी लागत के अन्तर के ऊपर निर्भर करता है, लाभ = TR- TC जहाँ दोनों का अन्तर अधिकतम होगा, उससे सम्बन्धित उत्पादन संस्थिति उत्पादन होगा।

TR तथा TC के बीच का अन्तर उस स्तर पर अधिकतम होगा जहाँ पर TR का ढाल तथा TC का ढाल बराबर हो। एकाधिकार के अन्तर्गत TR, उल्टे U के स्वरूप की होगी क्योंकि एकाधिकार की स्थिति में जैसे जैसे माँगी गयी मात्रा बढ़ती जायेगी, मूल्य गिरता जायेगा।

TR तथा TC के आधार पर संस्थिति उत्पादन निर्धारण की प्रक्रिया रेखाचित्र में प्रदर्शित है।

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रेखाचित्र से स्पष्ट है, बक जो E बिन्दु पर TR का ढाल व्यक्त करती है, E1 बिन्दु पर TC के ढाल को व्यक्त करने वाली रेखा ab के समानान्तर है। अर्थात् E तथा E₁ पर TC तथा TR के ढाल बराबर हैं। OQ3 उत्पादन का वह स्तर होगा जिस पर TR तथा TC के बीच का अन्तर (लाभ EE₁) अधिकतम होगा। मूल्य प्रति इकाई Q3E/ OQ3 होगा।

(ख) MR MC विधि :- इस विचारधारा के अनुसार संतुलन स्तर का निर्धारण वहाँ होता है जहाँ

1. सीमांत आगम सीमांत लागत (MR = MC)

2. MC, MR को नीचे से काटे

संतुलन स्तर की प्राप्ति के लिए दोनों शर्तों का लागू होना आवश्यक होता है इनमें से किसी एक शर्त के लागू होने तथा दूसरी के लागू न होने पर संतुलन स्तर की प्राप्ति संभव नहीं है।

एकाधिकारी फर्म संस्थिति की स्थिति में वहाँ होगी जहाँ MR = MC तथा साथ ही समता बिन्दु पर MC का ढाल MR के ढाल से अधिक होना चाहिए, MR तथा MC की समता 'अधिकतम लाभ वाला उत्पादन' निर्धारित करेगी।

एक एकाधिकारी फर्म को दो निर्णय लेने पड़ते हैं- मूल्य का निर्धारण तथा उत्पादन के स्तर का निर्धारण। चूँकि एकाधिकारी की माँग रेखा नीचे गिरती हुयी होती है, इसलिए मूल्य तथा उत्पादन दोनों के संबंध में उसके निर्णय परस्पर सम्बंधित होते हैं, स्वतंत्र नहीं होते हैं। एकाधिकारी फर्म या तो मूल्य निर्धारित कर देगी और वह उत्पादन बेचेंगी जो बाजार स्वीकार करेगा या जितनी बाजार में माँग होगी या तो MR तथा MC के कटान के द्वारा उत्पादन निर्धारित करेगी तथा इससे सम्बंधित मूल्य पर विक्रय करेगी। एकाधिकारी फर्म स्वतंत्र रूप से दोनों ही उत्पादन तथा मूल्य का निर्धारण नहीं करेगी।

एकाधिकारी फर्म सामान्यतया पूर्ति के नियंत्रण के द्वारा अपने लाभ को अधिकतम करने की कोशिश करती है। चाहे एकाधिकारी फर्म उत्पादन का निर्धारण पहले करें या मूल्य निश्चित करने के सम्बन्ध में निर्णय पहले ले, पर इतना निश्चित है कि उसका निर्णय MR तथा MC की समता के निर्देशित होगा। कोई फर्म, चाहे पूर्ण प्रतियोगिता की हो या एकाधिकार के अन्तर्गत कार्य करने वाली हो उस स्थिति में अधिकतम लाभ की स्थिति में होगी जबकि सीमान्त लागत = सीमान्त आय हो।

अपने लाभ को अधिकतम करने के उद्देश्य से एकाधिकारी फर्म अपनी किसी भी इकाई को हानि पर नहीं बेचेगी। ऐसा करने के लिए वह सीमान्त लागत तथा सीमान्त आय की तुलना करती है, जब तक सीमान्त आय सीमान्त लागत से अधिक हो तब तक तो वह विक्रय करेगी और जब दोनों बराबर हो जायें तो विक्रय बन्द कर देगी क्योंकि इसके बाद घटते हुए सीमान्त आय तथा बढ़ती हुई सीमान्त लागत के कारण सीमान्त लागत की मात्रा सीमान्त आय से अधिक हो जायेगी, फर्म को हानि होगी।

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अल्पकाल में एकाधिकारी फर्म की संस्थिति या मूल्य-निर्धारण :-

अल्पकाल की प्रमुख विशेषता यह है कि एकाधिकारी फर्म माँग में वृद्धि या कमी के अनुसार पूर्ति का जो समायोजन करेगी वह केवल परिवर्तनीय साधनों में ही परिवर्तन के द्वारा ला सकती है। कहने का अभिप्राय यह है कि उसे एक दिये हुए प्लाण्ट पर कार्य करना होगा, अल्पकाल में प्लाण्ट के आकार में परिवर्तन नहीं ला सकती है। अल्पकाल में एकाधिकारी फर्म असामान्य लाभ, सामान्य लाभ या हानि की स्थिति में हो सकती है।

1. अल्पकाल में असामान्य लाभ की स्थिति (AR > AC) :-

रेखाचित्र में SAC अल्पकालीन औसत लागत वक्र है जो एकाधिकारी फर्म के उस प्लाण्ट से सम्बन्धित है जिस पर वह उत्पादन कर रही है। अल्पकाल में फर्म इसी SAC पर कार्य करेगी। औसत आय तथा सीमान्त आय AR तथा MR से क्रमशः प्रदर्शित हैं। इस रेखा चित्र में SAC तथा SMC अल्पकालीन औसत तथा सीमांत लागत वक्र है। SMC वक्र MR को E बिन्दु पर काटती है। E से उत्पादन अक्ष पर खींचा गया लम्ब, अधिकतम लाभ वाला उत्पादन OQ निर्धारित करता है। OQ से सम्बन्धित AR का बिन्दु K मूल्य बतायेगा क्योंकि मूल्य = औसत आय।

इस प्रकार-

संस्थिति उत्पादन = OQ

मूल्य = OK (या OP), औसत लागत = QF

लाभ प्रति इकाई = QK - QF = FK

कुल लाभ = FK X OQ = PKFB

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2. अल्पकाल में हानि की स्थिति (AC > AR):-

अल्पकाल में हानि की स्थिति (AC > AR) में कार्य करने वाली फर्म की स्थिति को रेखाचित्र में प्रदर्शित किया गया है।

रेखाचित्र में स्पष्ट है SMC वक्र MR को E बिन्दु पर काटती है। इस प्रकार

संस्थिति उत्पादन = OQ

प्रति इकाई मूल्य = QB (या OA)

औसत लागत = QC

हानि प्रति इकाई =QC - QB = CB

कुल हानि = BC X OQ = СВАР

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3. अल्पकाल में सामान्य लाभ की स्थिति (AC = AR) :-

एकाधिकारी फर्म अल्पकाल में सामान्य लाभ भी अर्जित कर सकती है जिसे चित्र में प्रदर्शित किया गया है,

चित्र में -

संस्थिति उत्पादन = OQ

मूल्य = OP

औसत लागत = QE = OP (मूल्य)

इस प्रकार AR = AC फर्म सामान्य लाभ अर्जित करेगी।

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दीर्घकाल में संस्थिति उत्पादन तथा मूल्य-निर्धारण :-

दीर्घकाल में फर्म अपने प्लाण्ट के आकार में वृद्धि ला सकती है या दिए हुए प्लाण्ट को ही किसी स्तर तक प्रयोग में ला सकती है जिससे उसका लाभ अधिकतम हो सके। इसलिए दीर्घकाल में एकाधिकारी फर्म उस प्लाण्ट को चुनेगी जो माँग के एक स्तर के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है। यह आवश्यक नहीं है कि एकाधिकारी फर्म 'अनुकूलतम स्तर पर उत्पादन करे या दीर्घकालीन लागत वक्र (LARC) के न्यूनतम बिन्दु पर उत्पादन करे और न ही यह आवश्यक है कि एकाधिकारी फर्म वर्तमान प्लाण्ट के न्यूनतम बिन्दु पर उत्पादन करे। पर इतना निश्चित है कि अल्पकाल में हानि पर कार्य करने वाली एकाधिकारी फर्म या तो प्लाण्ट के समायोजन के द्वारा कुशलता लाने की कोशिश करेगी जिससे हानि की स्थिति समाप्त हो जाय, अन्यथा दीर्घकाल में बाजार छोड़कर चली जायेगी। एकाधिकारी फर्म, दीर्घकाल में सामान्यतया असामान्य लाभ अर्जित करती रहेगी। प्लाण्ट का आकार तथा वर्तमान प्लाण्ट का किस स्तर तक प्रयोग हो सकेगा यह बाजार माँग के ऊपर निर्भर करेगा। वह LAC के न्यूनतम बिन्दु (प्लाण्ट के अनुकूलतम स्तर), LAC के गिरते हुए भाग (अनुकूलतम स्तर के पहले) या LAC के ऊपर उठते हुए भाग (अनुकूलतम स्तर के बाद) में उत्पादन करेगी, यह बाजार में माँग के आकार पर निर्भर करेगा।

दीर्घकाल में असामान्य लाभ की स्थिति (AR > AC) :-

रेखाचित्र में LAC दीर्घकालीन औसत लागत वक्र है तथा LMC सीमान्त लागत वक्र है। सीमान्त लागत वक्र (LMC) सीमान्त आय (MR) को E बिन्दु पर काटता है। MR तथा LMC की समता के द्वारा फर्म अधिकतम लाभ वाला उत्पादन OQ निर्धारित करेगी। AR (D) के आधार पर व्क उत्पादन की स्थिति में वह मूल्य OP रखेगा।

इस स्थिति में प्रति इकाई औसत लागत QF या OB है।

प्रति इकाई लाभ = OP - OB = PB

कुल एकाधिकारी असामान्य लाभ = OQ X PB = PBFK

रेखाचित्र से स्पष्ट है एकाधिकारी फर्म की संस्थिति स्थिति LAC के न्यूनतम बिन्दु पर नहीं है, F बिन्दु पर LAC के गिरते हुए भाग में है। स्पष्ट है LAC के किस भाग में एकाधिकारी उत्पादन करेगा, यह AR तथा MR के आकार के ऊपर निर्भर करेगा।

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नोट :-

1. अल्पकाल में एकाधिकारी फर्म असामान्य लाभ, सामान्य लाभ या हानि की स्थिति में हो सकती है।

2. दीर्घकाल में एकाधिकारी फर्म हमेशा असामान्य लाभ की स्थिति में होगी।

एकाधिकार तथा पूर्ण प्रतियोगिता की तुलनात्मक स्थिति :-

तुलना का आधार

पूर्ण प्रतियोगिता

एकाधिकार

1. फर्मों की संख्या

अत्यधिक

एक

2. प्रवेश संबंधी सुविधा

स्वतंत्र

प्रवेश पूर्ण वर्जित

3. वस्तु का स्वभाव

पूर्ण सहजातीय

स्वतंत्र वस्तु, नजदीकी स्थानापन्न नहीं

4. उत्पादन तथा मूल्य निर्धारण

केवल उत्पादन समायोजन, मूल्य निर्धारण नहीं

दोनों उत्पादन तथा मूल्य निर्धारण

5. पूर्ति वक्र तथा लागत वक्र का स्वरूप

लागत वक्र- U आकार, पूर्ति वक्र विलक्षण तथा निर्धाय, अल्पकाल में MC से संबंधित

लागत वक्र U आकार, पूर्ति वक्र MC से नहीं संबंधित अनिधार्य

6. आय वक्र स्वरूप, AR, MR तथा e के बीच संबंध

AR तथा आधार अक्ष के समानान्तर, AR, MR तथा e के बीच कोई संबंध नहीं

AR तथा MR नीचे गिरते हुए, AR, MR तथा e के बीच संबंध MR = AR (1-1/e)

7. संस्थिति की स्थिाति तुलना का आधार

दीर्घकालीन संस्थिति की स्थिति में AR = MR = AC = MC

दीर्घकाल में MR = MC पर AR इससे अधिक

8. लाभ की स्थिति

अल्पकाल में असामान्य, सामान्य लाभ तथा हानि की स्थिति, दीर्घकाल में केवल सामान्य लाभ

अल्पकाल में असामान्य, सामान्य लाभ तथा हानि की स्थिति, दीर्घकाल में असामान्य लाभ स्थिति

9. मूल्य, उत्पादन क्षमता तथा उपभोक्ता के शोषण

दीर्घकाल में उत्पादन AC के न्यूनतम बिन्दु पर, निष्क्रिय उत्पादन क्षमता का अभाव, साधनों का अनुकूलतम पूर्ण शोषण, उपभोक्ता की दृष्टि से उत्तम

दीर्घकाल में उत्पादन AC के न्यूनतम बिन्दु से बायीं ओर, निष्क्रिय उत्पादन क्षमता, मूल्य अपेक्षाकृत ऊँचा तथा उत्पादन कम, इसलिए उपभोक्ता का शोषण


कुछ आलोचनात्मक मत :-

एकाधिकार के संबंध में अर्थशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये हैं। प्रथम, यह तर्क दिया जाता है कि ऊपर जिस प्रकार के एकाधिकार की व्याख्या की गई है, वह वास्तविक जगत में नहीं पाया जाता है। क्योंकि हर वस्तु का कोई न कोई स्थानापन्न होता ही है। ऐसा इसीलिए होता है, चूँकि अंतिम विश्लेषण में आय की प्राप्ति के लिए सभी वस्तु उत्पादक फर्मों की प्रतिस्पर्धा उपभोक्ताओं पर ही निर्भर करती है।

दूसरा तर्क यह है कि शुद्ध एकाधिकार की स्थिति में भी फर्मों के बीच प्रतिस्पर्धा होती है। इसका कारण यह है कि अर्थव्यवस्था कभी स्थिर नहीं होती। इसमें नयी वस्तुओं तथा तकनीकों का आगमन सतत जारी रहता है जो कि एकाधिकारी फर्म द्वारा उत्पादित वस्तुओं का निकट स्थानापन्न होती है। अतः दीर्घकाल एकाधिकारी फर्म हमेशा प्रतिस्पर्धा की स्थिति में होती है। अल्पकाल में भी प्रतिस्पर्धा की चिन्ता बनी रहती है और एकाधिकारी फर्म उस तरह से व्यवहार नहीं कर पाती है जैसा कि हमने ऊपर वर्णन किया है।

एक अन्य मत के अनुसार, एकाधिकार का अस्तित्व समाज के लिए लाभकारी होगा। चूँकि एकाधिकारी फर्म अत्यधिक लाभ अर्जित करती है, इसीलिए उनके पास अनुसंधान और विकास कार्य के लिए पर्याप्त निधि होती है। किन्तु पूर्ण प्रतिस्पर्धी फर्म इस कार्य को पूरा करने में असमर्थ होती है। इस प्रकार अनुसंधान करके एकाधिकारी फर्म अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुओं का उत्पादन कर पाती है। एकाधिकारी फर्म अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के प्रयोग से अपनी सीमांत लागत को इतना न्यून कर लेती है कि निर्गत का संतुलन स्तर पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति से अधिक होता है। जहाँ सीमांत लागत = सीमांत संप्राप्ति पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में भी इससे अधिक हो सकती है।

आय या आगम या संप्राप्ति की धारणा (Concepts of Revenue) :-

वस्तुओं के विक्रय से किसी विक्रेता को जो मौद्रिक प्राप्ति होगी उसे हम आय या आगम कहते हैं। अर्थशास्त्र में आय के सम्बन्ध में निम्नांकित तीन धारणायें मिलती हैं-

1. कुल आय या आगम (Total Revenue -TR)

2. औसत आय या आगम (Average Revenue - AR)

3. सीमान्त आय या आगम (Marginal Revenue - MR)

1. कुल आय या आगम (Total Revenue -TR) :-

किसी विक्रेता को वस्तुओं की बेची गयी कुल मात्रा से जो मुद्रा प्राप्त होती है, वही उन वस्तुओं के विक्रय से उसकी कुल आय या कुल आगम कहलायेगी।

यदि किसी विक्रेता ने किसी वस्तु की 125 इकाइयाँ बेची और यदि प्रत्येक इकाई का मूल्य 10 रुपया हो तो 125 × 10 = 1250 रुपया उसकी कुल आय होगी। इस प्रकार वस्तु को बेची गयी इकाइयों की कुल संख्या को उनके मूल्य से गुणा कर दिया जाय तो गुणनफल कुल आय प्रदर्शित करेगा। सूत्रात्मक रूप में,

कुल आय = वस्तुओं की बेची गयी इकाइयों की कुल संख्या X प्रति इकाई मूल्य

या TR = Q x P

जिसमें Q = बेची गयी वस्तु की मात्रा P = वस्तु का प्रति इकाई मूल्य

2. औसत आय या आगम (Average Revenue - AR) :-

बेची गयी वस्तु की प्रति इकाई पर प्राप्त होने वाली आय औसत आय को प्रदर्शित करता है। इस प्रकार यदि हम कुल आय को वस्तु की बेची गयी मात्रा से भाग दे दें तो भजनफल औसत आय प्रदर्शित करेगा, इस प्रकार सूत्र रूप में -

औसत आय (AR) = कुल आय / वस्तु की बेची गयी मात्रा या =TRQ

= वस्तु की मात्रा x मूल्य / वस्तु की बेची गयी मात्रा

या Q×PQ=P

अर्थात् औसत आय (AR) = मूल्य (P)

3. सीमान्त आय या आगम (Marginal Revenue MR):-

सीमान्त आय की धारणा का प्रतिपादन एक साथ स्वतंत्र रूप से प्रो० जे.के. मेहता तथा श्रीमती जोन राबिन्सन ने किया। सीमान्त आय से आशय कुल आय की मात्रा में हुई उस वृद्धि से है जो एक अतिरिक्त इकाई की वृद्धि से होती है।

उदाहरण के लिए यदि कलम की 15 इकाइयों के बेचने से 150 रुपये प्राप्त होते हैं तथा 16 कलमों के बेचने से 158 रुपये प्राप्त हों तो 158 -150 = 8 रुपया की वृद्धि 16वीं इकाई की वृद्धि के कारण होगी, और यही 16वीं इकाई की सीमान्त आय होगी, इस प्रकार

सीमान्त आय (MR) = एक अतिरिक्त इकाई के बेचने के बाद प्राप्त कुल आय - उस इकाई के बेचने के पूर्व कुल आय

MRn = TRn - TRn-1  

अर्थात् nवीं इकाई का MR (सीमान्त आय) nवीं इकाई का TR तथा n से 1 कम या n- 1वीं इकाई को TR का अन्तर ।

वस्तु की मात्रा (Q)

मूल्य प्रति इकाई (P)

कुल आय

(TR = QxP)

औसत आय AR=TR/Q

सीमान्त आय MR = (TRn- TRn-1)

1

100

100

100

100

2

90

180

90

80

3

80

240

80

60

4

70

280

70

40

5

60

300

60

20

6

50

300

60

0

MR तथा AR में संबंध :-

(1) जब MR > AR, AR बढ़ता है।

(2) जब MR = AR, AR अधिकतम तथा स्थिर होता है

(3) जब MR < AR, AR घटता है।

जब प्रति इकाई कीमत स्थिर रहती है तब औसत, सीमांत व कुल संप्राप्ति में संबंध (पूर्ण प्रतियोगिता) :-

(A) औसत व सीमांत संप्राप्ति उत्पादन के सभी स्तरों पर स्थिर रहती है तथा इनका वक्र x – अक्ष के समांतर होता है।

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(B) कुल संप्राप्ति स्थिर दर से बढ़ती है व इसका वक्र मूल बिन्दु से गुजरने वाली सीधी धनात्मक ढाल वाली 45° रेखा के समान होता है।

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जब वस्तु की अतिरिक्त मात्रा बेचने के लिए प्रति इकाई कीमत घटाई जाए अथवा एकाधिकार व एकाधिकारात्मक बाजार में TR, AR तथा MR में संबंध :-

(A) AR व MR वक्र नीचे की ओर गिरते हुए ऋणात्मक ढाल वाले होते हैं। MR वक्र AR वक्र के नीचे रहता है।

(B) MR, AR की तुलना में दोगुना दर से घटता है, यदि दोनों वक्र सीधी रेखा हो।

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(C) TR घटते हुए दर से बढ़ता है MR भी घटता है परन्तु धनात्मक रहता है।

(D) TR में उस स्थिति तक वृद्धि होती है जब तक MR धनात्मक होता है जहाँ MR शून्य होगा वहाँ TR अधिकतम होता है और जब MR ऋणात्मक हो जाता है तब TR घटने लगता है।

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सीमान्त आय तथा माँग की लोच :-

माँग की लोच तथा सीमांत आगम के परस्पर संबंध को इन शब्दों में बताया जा सकता है-

1. जब माँग की लोच इकाई से अधिक होती है तो सीमांत आगम धनात्मक होता है।

2. जब माँग की लोच इकाई से कम होती है तो सीमांत आगम ऋणात्मक होता है।

3. जब माँग की लोच इकाई के बराबर होती है तो सीमांत आगम शून्य होता है।

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यदि हम AR के लिए A तथा MR के लिए M रखें तो, हम कह सकते हैं कि

ep=AA-M या eA – eM = A अथवा eA – A = eM

A (e – 1) = eM

या  A=eMe-1=Mxee-1

इसी प्रकार

M=Axe-1e

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अन्य पूर्ण प्रतिस्पर्धारहित बाज़ार

एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा :- अब हम एक ऐसी बाज़ार संरचना पर विचार करें, जिसमें फर्मों की संख्या अधिक होती है और फर्मों का निर्बाध प्रवेश और बहिर्गमन होता है, किन्तु उनके द्वारा उत्पादित वस्तु सजातीय नहीं होती हैंद्य ऐसी बाजार संरचना को एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा कहते हैं।

इस प्रकार की संरचना आमतौर पर देखने को मिलती है। बिस्कुट का उत्पादन करने वाले अनेक फर्म इसके उदाहरण हैं। किन्तु कई बिस्कुट कुछ ब्रांड नाम से जुड़े हैं और इस ब्रांड नाम और पैकेजिंग के कारण ये एक-दूसरे से भिन्न हैं। इनके स्वाद में भी थोड़ा अंतर होता है। धीरे धीरे उपभोक्ता को एक विशेष ब्रांड वाले बिस्कुट खाने की आदत पड़ जाती है अथवा किसी कारण से वे इसके प्रति निष्ठावान हो जाते हैं। अतः वे इस विशेष ब्रांड के बिस्कुट को दूसरे बिस्कुट से स्थानापन्न करने के लिए जल्द इच्छुक नहीं होते हैं। किन्तु यदि कीमत में अन्तर अधिक हो तो उपभोक्ता दूसरे ब्रांड वाले बिस्कुट का चयन करना चाहेंगे। उपभोक्ता के लिए उपयोग की गई ब्रांड को बदलने के लिए आवश्यक कीमत अन्तर भिन्न भिन्न हो सकते हैं। अतः यदि किसी विशेष ब्रांड की कीमत कम हो तो उपभोक्ता उस ब्रांड का उपयोग करने के लिए उसकी ओर शिफ्ट होंगे। पुनः कीमत कम करने से अधिक से अधिक उपभोक्ताओं का कम कीमत वाली ब्रांड की ओर स्थानान्तरण होगा।

अतः फर्म के सम्मुख माँग वक्र पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में समस्तरीय (पूर्ण लोचदार) नहीं होगा। फर्म के सम्मुख माँग वक्र एकाधिकार की तरह बाज़ार माँग वक्र भी नहीं है। एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा की स्थिति में फर्म कम कीमत पर माँग में अल्प वृद्धि की अपेक्षा रखता है। अतः सीमांत संप्राप्ति औसत संप्राप्ति से थोड़ी कम होती है। जब सीमांत संप्राप्ति सीमांत लागत से अधिक होती है तो फर्म अपने निर्गत की मात्रा में वृद्धि करती है। चूँकि सीमांत संप्राप्ति कीमत से कम है, इसलिए पूर्ण प्रतिस्पर्धा की तुलना में निर्गत के कम स्तर पर सीमांत संप्राप्ति सीमांत लागत के बाराबर होगी।

इसी कारण, एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा फर्म में पूर्ण प्रतिस्पर्धा फर्म की तुलना में निर्गत को कम मात्रा का उत्पादन होता है। चूँकि उपभोक्ता वस्तु की प्रति इकाई पर अधिक कीमत चुकाने के इच्छुक हैं इसीलिए दिए हुए निम्न निर्गत स्तर पर वस्तु की कीमत पूर्ण प्रतिस्पर्धा की तुलना में ऊँची होगी।

ऊपर वर्णित स्थिति अल्पकाल में विद्यमान रहती है। किन्तु एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा की बाज़ार संरचना में नये फर्मों का निर्बाध रूप से प्रवेश होता है। यदि उद्योग में फर्म अल्पकाल में धनात्मक लाभ प्राप्त कर रहा हो, तो इससे नये फर्म उस उद्योग में वस्तु के उत्पादन को शुरू करने के लिए आकर्षित होंगे (बाज़ार में प्रवेश के लिए)। जैसे-जैसे वस्तु का उत्पादन बढ़ेगा, बाज़ार में कीमत उसी तरह गिरने लगेगी। यह स्थिति तब तक जारी रहेगी जब तक लाभ शून्य न हो जाए। इसके बाद उस उद्योग विशेष में प्रवेश नये फर्मों में कोई आकर्षण नहीं रह जाएगा। विलोमतः यदि अल्पकाल में उद्योग में फर्मों को घाटा हो रहा हो, तो कुछ फर्म उत्पादन बंद कर देंगी (बाज़ार से बहिर्गमन) और वस्तु की कुल उत्पादन की मात्रा में गिरावट से वस्तु की कीमत ऊँची हो जाएगी। एक बार लाभ शून्य होने के बाद प्रवेश और बहिर्गमन रूक जाएगा तथा इससे दीर्घकाल में संतुलन प्राप्त होगा।

चूँकि अब भी प्रत्येक फर्म की निर्गत की माँग में इस ब्रांड की कीमत में गिरावट के साथ वृद्धि जारी रहती है, इसीलिए दीर्घकाल कुल निर्गत के निम्न स्तर और पूर्ण प्रतिस्पर्धा की तुलना में ऊँची कीमत से संबद्ध होता है।

अल्पाधिकार में फर्म कैसे व्यवहार करती हैं?

यदि किसी वस्तु विशेष के बाज़ार में एक से अधिक विक्रेता हों, किन्तु विक्रेताओं की संख्या अत्यल्प हों तो उस बाज़ार संरचना को अल्पाधिकार कहते हैं। अल्पाधिकार की एक विशेष स्थिति जिसमें केवल दो विक्रेता होते हैं उसे द्वि- अधिकार कहते हैं। इस बाजार संरचना के विश्लेषण में हम मान लेते हैं कि दोनों फर्मों द्वारा बेचे गए उत्पाद सजातीय हैं और किसी दूसरे फर्म द्वारा उस उत्पाद के स्थानापन्न उत्पाद का उत्पादन नहीं किया जाता है।

किसी एक फर्म के निर्गत का निर्णय अनिवार्य रूप से बाजार कीमत तथा अन्य फर्मों के द्वारा बेची गई मात्रा अर्थात् कुल संप्राप्ति को भी प्रभावित करेगा। अतः केवल यह अपेक्षा की जाती है कि अपने लाभ को बचाने के लिए प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे। यह प्रतिक्रिया नये निर्णयों के द्वारा उनके निर्गत की मात्रा तथा कीमत के संबंध में होगी। इस सिद्धांत को स्थापित करने की कई विधियाँ हैं। हम दो विधियों की संक्षेप में व्याख्या करेंगे।

प्रथमः द्वि- अधिकारी फर्म आपस में साँठ गाँठ कर यह निर्णय ले सकता है कि वे एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं करेंगे और एक साथ दोनों फर्मों के लाभ को अधिकतम स्तर तक ले जाने का प्रयत्न करेंगे। इस स्थिति में दोनों फर्म एकल एकाधिकारी की तरह व्यवहार करेंगे, जिनके पास दो अलग- अलग वस्तु का उत्त्पादन करने वाले कारखाने होंगे।

द्वितीयः एक द्वि- अधिकार की स्थिति कूर्नो ने अल्पाधिकारी बाज़ार के व्यवहार का मॉडल प्रस्तुत किया था। यह मॉडल तीन मान्यताओं पर आधारित है-

1. केवल दो ही फर्मों बाजार में हैं अर्थात् द्वयधिकार (Duopoly) है।

2. दोनों फर्मों का मुख्य उद्देश्य लाभ को अधिकतम करना है।

3. प्रत्येक फर्म दूसरी फर्म के उत्पाद को देखकर उत्पादन करती है अर्थात् प्रत्येक फर्म दूसरी फर्म की क्रिया को देखकर प्रतिक्रिया करती है।

इस मॉडल के अर्न्तगत हम यह मान लेते हैं कि यदि एक फर्म शून्य उत्पादन करती है तो दूसरी फर्म ही समस्त उत्पादन को करेगी तथा फर्म के बाज़ार माँग वक्र का स्वरूप वैसा ही होता है जैसा कि एकाधिकारी बाजार में बनता है जब नई फर्म उत्पादन प्रारंभ करती है तो विद्यमान फर्म उतना ही उत्पादन करेगी जितना कि पहले कर रही थी और पहले जितनी कीमत ही प्राप्त करेगी। नई फर्म का बाज़ार माँग वक्र पुरानी या विद्यमान फर्म में बाज़ार माँग वक्र से नीचे होगा क्योंकि वह विद्यमान फर्म से कम कीमत वसूल करेगी।

12th 6. प्रतिस्पर्धारहित बाजार Micro Economics JCERT/JAC Reference Book

उपरोक्त चित्र में दो फर्मों A और B हैं तथा दोनों फर्मों का माँग वक्र का ढाल ऋणात्मक है जिसका कारण यह है कि फर्म कम कीमत पर ही अधिक वस्तु का विक्रय कर सकती है।

तृतीय, कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि अल्पाधिकार बाज़ार संरचना में वस्तु की अनम्य कीमत होती है, अर्थात् माँग में परिवर्तन के फलस्वरूप बाज़ार कीमत में निर्बाध संचलन नहीं होता है। इसका कारण यह है कि किसी भी फर्म द्वारा प्रारंभ की गई कीमत में परिवर्तन के प्रति एकाधिकारी फर्म प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यदि एक फर्म यह महसूस करती है कि कीमत में वृद्धि से अधिक लाभ का सृजन होगा और इसीलिए वह अपने निर्गत को बेचने के लिए कीमत में वृद्धि करेगी। अन्य फर्म इसका अनुकरण नहीं कर सकती है। अतः कीमत वृद्धि से बिक्री की मात्रा में भारी गिरावट आएगी, जिससे फर्म की संप्राप्ति और लाभ में गिरावट आएगी। अतः किसी फर्म के लिए कीमत में वृद्धि करना विवेक संगत नहीं होगा। दूसरी ओर, फर्म यह आकलन कर सकती है कि वह अत्यधिक मात्रा में निर्गत को बेचकर अधिक संप्राप्ति और लाभ अर्जित करेगी और इसीलिए वह अपनी वस्तु को कम कीमत पर बेचती है। अन्य फर्म इसी कार्य को एक खतरे के रूप में ग्रहण करेगी और इसीलिए पहले फर्म का अनुकरण करेगी तथा अपनी कीमत को भी कम कर देगी। अतः कम कीमत के कारण कुल विक्रय मात्रा में वृद्धि में सभी फर्म भागीदार होते हैं और आरंभ में जो फर्म कीमत को कम करती है, वह अपने विक्रय की मात्रा में अत्यल्प वृद्धि को ही प्राप्त कर पाती है।

प्रथम फर्म के द्वारा कीमत में अपेक्षाकृत अधिक कमी करने से विक्रय की मात्रा में अपेक्षाकृत अल्प वृद्धि होती है। इस प्रकार इस फर्म को बेलोचदार माँग वक्र का अनुभव होता है और कीमत को कम करने के निर्णय से इसे संप्राप्ति और लाभ की न्यून मात्रा प्राप्त होती है। अतः किसी भी फर्म को प्रचलित कीमत जो कि पूर्ण प्रतिस्पर्धा की अपेक्षा अधिक अनम्य होती है, में परिवर्तन करना विवेकपूर्ण नहीं लगता है।

अभ्यास

प्र० 1. माँग वक्र का आकार क्या होगा ताकि कुल संप्राप्ति वक्र

(a) a मूल बिन्दु से होकर गुजरती हुई धनात्मक प्रवणता वाली सरल रेखा हो।

(b) a समस्तरीय रेखा हो।

उत्तर :

(a) जब TR वक्र से गुजरती हुई एक धनात्मक प्रवणता वाली सरल रेखा हो, तो माँग वक्र अर्थात् AR वक्र एक क्षैतिज रेखा होगा।

(b) यह संभव नहीं है जब तक AR = 0 न हो और AR = कीमत = शून्य नहीं हो सकती।

प्र० 2. नीचे दी गई सारणी से कुल संप्राप्ति माँग वक्र और माँग की कीमत लोच की गणना कीजिए।

मात्रा

सीमान्त संप्राप्ति

1

10

2

6

3

2

4

2

5

2

6

0

7

0

8

0

9

-5

उत्तर :

मात्रा

सीमान्त संप्राप्ति

कुल संप्राप्ति

औसत संप्राप्ति

1

10

10

10

2

6

16

8

3

2

18

6

4

2

20

5

5

2

22

4.4

6

0

22

3.66

7

0

22

3.14

8

0

22

2.75

9

-5

17

1.88

 प्रतिशत विधि से EDP=PQ×ΔQΔP

कीमत 10 पर =101×12=5,

कीमत 8 पर =82×12=2,

कीमत 6 पर =36×11=2,

कीमत 5 पर =54×10.6=2.09,

कीमत 4.4 पर =4.45×10.74=1.18,

कीमत 3.66 पर =3.665×10.54=1.12,

कीमत 3.14 पर =3.147×10.39=1.15,

कीमत 2.75 पर =2.758×10.87=0.39,

कुल व्यय विधि द्वारा कुल संप्राप्ति = कुल व्यय

अतः इकाई 1 से 5 तक कीमत कम होने पर कुल व्यय बढ़ रहा है।

अतः 6 - 0 तक

कीमत कम होने पर कुल व्यय समान है।

अतः EDP = 1

प्र० 3. जब माँग वक्र लोचदार हो तो सीमान्त संप्राप्ति का मूल्य क्या होगा?

उत्तर : यदि माँग वक्र लोचदार हो तो सीमान्त संप्राप्ति धनात्मक होगी।

जब तक EDP > 1 तो सीमान्त संप्राप्ति धनात्मक होती है।

जब EDP = 0 तो सीमान्त संप्राप्ति शून्य होती है।

जब EDP < 1 तो सीमान्त संप्राप्ति ऋणात्मक होती है।

प्र० 4. एक एकाधिकारी फर्म की कुल स्थिर लागत 100₹ और निम्नलिखित माँग सारणी है।

मात्रा

कीमत

1

100

2

90

3

80

4

70

5

60

6

50

7

40

8

30

9

20

10

10

अल्पकाल में संतुलन मात्रा, कीमत और कुल लाभ प्राप्त कीजिए। दीर्घकाल में संतुलन क्या होगा? जब कुल लागत 1000₹ हो तो अल्पकाल और दीर्घकाल में संतुलन का वर्णन करो।

उत्तर : (a)

मात्रा

कीमत

TR

MR

MC

TC

लाभ

1

100

100

100

0

100

0

2

90

180

80

0

100

80

3

80

240

60

0

100

140

4

70

250

40

0

100

1

5

60

300

20

0

100

200

6

50

300

0

0

100

200

7

40

280

-20

0

100

180

8

30

240

-40

0

100

140

9

20

180

-60

0

100

80

10

10

100

-80

0

100

0

 अतः उत्पादक संतुलन में है जब MR = MC

6 इकाई पर। इस इकाई पर संतुलन मात्रा 6 इकाई

संतुलन कीमत = ₹50 तथा कुल लाभ

= कुल संप्राप्ति - कुल लागत है = 300 -100 = ₹200 है।

(b) दीर्घकाल में भी संतुलन यही होगा, क्योंकि एकाधिकारी बाजार में नई फर्मों के प्रवेश पर प्रतिबंध होता है।

(c) यदि कुल लागत 1000 हो तो प्रत्येक स्तर पर लाभ इस प्रकार होगा।

मात्रा

TR

TC

लाभ

1

100

1000

-900

2

180

1000

-820

3

240

1000

-760

4

280

1000

-720

5

300

1000

-700

6

300

1000

-700

7

280

1000

-720

8

240

1000

-760

9

180

1000

-820

10

100

1000

-900

अतः अल्पकाल में यह 6 इकाई पर संतुलन में होगा, जहाँ MR = MC है और TR-TC अधिकतम है (जहाँ लाभ अधिकतम नहीं हो सकता तो कम से कम हानि का न्यूनीकरण किया जाना चाहिए।)

दीर्घकाल में फर्म उत्पादन बंद कर देगी, क्योंकि इससे हानि हो रही है।

प्र० 5. यदि अभ्यास 3 का एकाधिकारी फर्म सार्वजनिक क्षेत्र को फर्म हो, तो सरकार इसके प्रबंधक के लिए दी हुई सरकारी स्थिर कीमत (अर्थात् वह कीमत स्वीकारकर्ता है और इसीलिए पूर्ण प्रतिस्पर्धात्मक बाजार के फर्म जैसा व्यवहार करता है) स्वीकार करने के लिए नियम बनाएगी और सरकार यह निर्धारित करेगी कि ऐसी कीमत निर्धारित हो, जिससे बाजार में माँग और पूर्ति समान हो। उस स्थिति में संतुलन कीमत, मात्रा और लाभ क्या होंगे?

उत्तर : यदि सरकार सरकारी स्थिर कीमत स्वीकार करने के नियम बनाती है और ऐसी कीमत बनाती है, जिससे बाजार माँग और बाजार पूर्ति बराबर हो तो संतुलन कीमत = ₹10

संतुलन मात्रा = 10 इकाई, लाभ शून्य क्योंकि 10 इकाई पर लाभ = शून्य है।

प्र० 6. उस स्थिति में सीमान्त संप्राप्ति वक्र के आकार पर टिप्पणी कीजिए, जिसमें कुल संप्राप्ति वक्र

(i) धनात्मक प्रवणता वाली सरल रेखा हो

(ii) समस्तरीय सरल रेखा हो।

उत्तर :

(i) जब कुल संप्राप्ति वक्र अक्ष केंद्र से गुजरती हुई एक धनात्मक ढलान वाली सरल रेखा है, तो सीमान्त संप्राप्ति वक्र X- अक्ष के समान्तर क्षैतिज सरल रेखा होगा।

(ii) जब कुल संप्राप्ति वक्र एक समस्तरीय सरल रेखा हो, तो सीमान्त संप्राप्ति वक्र X- अक्ष को स्पर्श करेगा अर्थात् MR = 0 होगा। क्योंकि

TR = ΣMR, TR = 0

MR = 0

प्र० 7. नीचे सारणी में वस्तु की बाजार माँग वक्र और वस्तु उत्पादक एकाधिकारी फर्म के लिए कुल लागत दी हुई है। इनका उपयोग करके निम्नलिखित की गणना करें -

मात्रा

कीमत

कुल लागत

0

52

10

1

44

60

2

37

90

3

31

100

4

26

102

5

22

105

6

19

109

7

16

115

8

13

125

(a) सीमान्त संप्राप्ति और सीमांत लागत सारणी ।

(b) वह मात्रा जिस पर सीमांत संप्राप्ति और सीमांत लागत बराबर है।

(c) निर्गत की संतुलन मात्रा और वस्तु की संतुलन कीमत।

(d) संतुलन में कुल संप्राप्ति, कुल लागत और कुल लाभ।

उत्तर : (a)

मात्रा

कीमत

कुल लागत

कुल संप्राप्ति

सीमान्त लागत

सीमान्त संप्राप्ति

0

52

10

0

-

-

1

44

60

44

50

44

2

37

90

74

30

30

3

31

100

93

10

19

4

26

102

104

2

11

5

12

105

110

3

6

6

19

109

114

4

4

7

16

115

112

6

-2

8

13

125

104

10

-8

(b) MR = MC (दूसरी इकाई पर) = 30

MR = MC (छठीं इकाई पर) = 4

(c) उत्पादक संतुलन में है जहाँ MR = MC अगली इकाई पर MC बढ़ रहा हो,

अतः उत्पादक छठी इकाई पर संतुलन में है जहाँ MR = MC = 4

संतुलन मात्रा = 6 इकाई

(d) संतुलन में कुल संप्राप्ति =114, कुल लागत =109 लाभ = 114 -109 = ₹5

प्र० 8. निर्गत के उत्तम अल्पकाल में यदि घाटा हो, तो क्या अल्पकाल में एकाधिकारी फर्म उत्पादन को जारी रखेगी?

उत्तर : जब तक कुल हानि / घाटा कुल स्थिर लागत से कम है फर्म उत्पादन जारी रखेगी, परन्तु यदि कुल स्थिर लागत से अधिक है तो वह उत्पादन बंद कर देगी।

प्र० 9. एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा में किसी फर्म की माँग वक्र की प्रवणता ऋणात्मक क्यों होती है? व्याख्या कीजिए।

उत्तर : एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा में किसी फर्म की माँग वक्र की प्रवणता ऋणात्मक होती है क्योंकि

(i) माँग के नियम के अनुसार उत्पादक अपने उत्पाद की कीमत कम करके ही उसकी अधिक मात्रा बेच सकता है।

(ii) बाजार में वस्तु के निकट प्रतिस्थापन वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं।

प्र० 10. एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा में दीर्घकाले के लिए किसी फर्म का संतुलन शून्य लाभ पर होने का क्या कारण है?

उत्तर : एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा बाजार में नये फर्मों का निर्बाध रूप से प्रवेश होता है। यदि उद्योग में फर्म अल्पकाल में धनात्मक लाभ प्राप्त कर रहा हो तो इससे नई फर्ने उद्योग में प्रवेश के लिए आकर्षित होंगी और यह तब तक होगा जब तक लाभ शून्य न हो जायें। इसके विपरीत, यदि अल्पकाल में फर्मों को घाटा हो रहा हो, तो कुछ फर्मे उत्पादन कर देंगी और फर्मों का बाजार से बहिर्गमन होगा। पूर्ति में कमी के कारण संतुलन कीमत बढ़ेगी और यह तब तक होगा जब तक लाभ शून्य न हो जाये।

प्र० 11. तीन विभिन्न विधियों की सूची बनाइए, जिसमें अल्पाधिकारी फर्म व्यवहार कर सकता है।

उत्तर : एक अल्पाधिकारी फर्म तीन विधियों से व्यवहार कर सकती है

(i) अल्पाधिकारी फर्मे आपस में साँठगाँठ करके यह निर्णय ले सकती हैं कि वे एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं करेंगी। इस प्रकार वे फर्मे बाजार का उचित बँटवारा कर लेंगी और प्रत्येक फर्म अपने-अपने बाजार में एकाधिकारी फर्म की तरह व्यवहार करेगी।

(ii) अल्पाधिकारी फर्मे यह निर्णय ले सकती हैं कि लाभ को अधिक करने के लिए वे उस वस्तु की कितनी मात्रा का उत्पादन करें। इससे उनकी वस्तु की मात्रा की पूर्ति अन्य फर्मों को प्रभावित नहीं करेगी।

(iii) अल्पाधिकारी फर्मे वस्तु अनम्य कीमत (Price rigidity) की नीति भी अपना सकती हैं। इसके अन्तर्गत माँग में परिवर्तन के फलस्वरूप कीमत में परिवर्तन नहीं होगा।

प्र० 12. यदि द्वि- अधिकारी का व्यवहार कुर्नाट के द्वारा वर्णित व्यवहार जैसा हो, तो बाजार माँग वक्र को समीकरण q = 200 - 4 p द्वारा दर्शाया जाता है तथा दोनों फर्मों की लागत शून्य होती है। प्रत्येक फर्म के द्वारा संतुलन और संतुलन बाजार कीमत में उत्पादन की मात्रा ज्ञात कीजिए।

उत्तर : शून्य कीमत पर उपभोक्ता की माँग की अधिकतम मात्रा 200 है [ (200 - 410) - 200 - 0 = 200] कल्पना कीजिये कि फर्म B वस्तु की शून्य इकाई की पूर्ति करती है और फर्म A मानती है कि अधिकतम माँग = 200 इकाई है, तो वह इसकी आधी अर्थात् 100 इकाइयों की पूर्ति का निर्णय लेंगी। दिया हुआ है फर्म A 100 इकाइयों की पूर्ति कर रही है तो फर्म 8 के लिए 100 इकाई (200 - 100) की माँग अब भी विद्यमान है तो वह इसकी आधी 50 इकाई की पूर्ति करेगी। फर्म A के लिए अब 150 (200 - 50) की माँग विद्यमान है वह इसकी आधी 75 इकाई की पूर्ति करेगी। इस तरह दोनों फर्मों में एक दूसरे के प्रति संचलन जारी रहेगी। अतः दोनों फर्मे अन्ततः निम्नलिखित के बराबर निर्गत की पूर्ति करेंगे, 

2002-2004+2008-20016+20032-20064=2003

बाजार में कुल पूर्ति =2003+2003=4003

कीमत = 4003=200-P

400 = 600 – 120 , 12P = 200

P=20012 = 16.66

अतः संतुलन मात्रा P=20012

फर्मों की संख्या = 2

संतुलन कीमत = ₹16.66

प्र० 13. आय अनम्य कीमत का क्या अभिप्राय है? अल्पाधिकार के व्यवहार से इस प्रकार का निष्कर्ष कैसे निकल सकता है?

उत्तर : अनम्य कीमत का अभिप्राय है कि अल्पाधिकार बाजार में फर्मे वस्तु की कीमत में परिवर्तन नहीं करेंगी। अनम्य कीमत नीति के अन्तर्गत अल्पाधिकारी फर्मों को माँग में परिवर्तन के फलस्वरूप बाजार कीमत में निर्बाध संचालन नहीं होता। इसका कारण यह है कि किसी भी फर्म द्वारा प्रारंभ की गई कीमत में परिवर्तन के प्रति अल्पाधिकारी फर्म प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। यदि यह क्रिया प्रारंभ हो गई तो इससे कीमत युद्ध प्रारंभ हो सकता है जिससे सभी को हानि होगी।

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JCERT/JAC प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)

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