12th 4. पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में फर्म का सिद्धांत Micro Economics JCERT/JAC Reference Book

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पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की वह स्थिति जिसमें एक समान वस्तु की बहुत अधिक क्रेता एवं विक्रेता होते हैं। एक क्रेता तथा एक विक्रेता बाजार की कीमत को प्रभावित नहीं कर पाते हैं अतः पूर्ण प्रतियोगिता में बाजार में वस्तु की एक ही कीमत प्रचलित रहती है।

पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषताएं -

1. क्रेता तथा विक्रेता की संख्या अधिक होती है। कोई भी विक्रेता तथा क्रेता बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर पाता है। इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में एक क्रेता अथवा एक विक्रेता बाजार में मांग और पूर्ति की दशाओं को प्रभावित नहीं कर सकता ।

2. एक समान वस्तु- सभी विक्रेताओं द्वारा बाजार में वस्तु की बेची जाने वाली इकाइयां एक समान होती हैं।

3. बाजार का पूर्ण ज्ञान क्रेता तथा विक्रेता को बाजार का पूर्ण ज्ञान होता है कोई भी क्रेता बाजार कीमत से अधिक दाम देकर किसी वस्तु को नहीं खरीदेगा।

4. स्वतंत्र प्रवेश एवं बहिर्गमन की स्वतंत्रता- इसमें कोई भी नयी फर्म उद्योग में प्रवेश कर सकती है तथा कोई भी पुरानी फर्म उद्योग से बाहर जा सकती है।

5. साधनों की पूर्ण गतिशीलता उत्पत्ति के साधन बिना किसी परेशानी के एक उद्योग से दूसरे उद्योग में स्थानांतरित किए जा सकते हैं।

6. यातायात लागत का अभाव पूर्ण प्रतियोगिता में यातायात लागत शून्य होती है जिसके कारण बाजार में एक कीमत प्रचलित रहती है।

पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषताओं के अध्ययन से तीन महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं -

1. पूर्णप्रतियोगिता के अंतर्गत एक फर्म कीमत स्वीकार करें कीमत निर्धारण नहीं - पूर्ण प्रतियोगिता में क्रेता तथा विक्रेता एक बड़ी संख्या में होते हैं जिसके कारण कोई व्यक्तिगत वर्ग वस्तु की कीमत पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती उद्योग में एक समान वस्तु में उत्पादित करने वाले अनेक फर्म होती हैं जिसके कारण एक व्यक्तिगत फर्म का उद्योग के उत्पादन में सूक्ष्म योगदान होता है यही कारण है कि प्रतियोगिता में कोई फर्मों की कीमत को प्रभावित नहीं कर पाते

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2. पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म का मांग पूर्णतया लोचदार होता है- पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म, कीमत प्राप्तकर्ता होने के कारण बाजार में प्रचलित कीमत से अधिक कीमत, क्रेता से वसूल नहीं सकती है। क्रेता को प्रत्येक अतिरिक्त इकाई के लिए एक समान कीमत देनी पड़ती है अर्थात

औसत आय  = सीमांत आय

AR = MR

पूर्ण प्रतियोगिता में मांग वक्र पूर्णतया लोचदार होता है।

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3. पूर्ण प्रतियोगिता के अंर्तगत एक फर्म दीर्घकाल में केवल सामान्य लाभ ही अर्जित करती है- पूर्ण प्रतियोगिता के अंर्तगत फर्मों के प्रवेश करने व छोड़ने की स्वतंत्रता के कारण अतिरिक्त सामान्य लाभ की स्थिति में नई फर्मे उद्योग में प्रवेश करेंगी जिससे पूर्ति में वृद्धि होगी।

जिस कारण वस्तु की कीमत कम हो जाएगी और सामान्य लाभ समाप्त हो जाएंगे अतिरिक्त हानि की स्थिति में कुछ फर्मे उद्योग को छोड़ देंगी। परिणामस्वरूप पूर्ति कम हो जाएगी और कीमत बढ़ जाएगी और हानि समाप्त हो जाएगी।

सम्प्राप्ति (आय) (Revenue)

वस्तुओं की बिक्री करने से एक फर्म को मिलने वाली कुल मौद्रिक प्राप्तियां को सम्प्राप्ति (आय) (Revenue) कहते हैं।

आय = लागतें + लाभ

आगम (आय) की धारणाएं (Concepts of Revenue)

1. कुल आय (Total Revenue)

2. सीमांत आय (Marginal Revenue)

3. औसत आय (Average Revenue)

कुल आय (Total Revenue)

उत्पादित वस्तुओं की कुल मात्रा की बिक्री से उत्पादक को जो आय प्राप्त होता है उसे कुल आय कहतें हैं।

कुल आय = वस्तु की कीमत x बिक्री इकाइयां

Total Revenue = Price x Quantity

TR = P x Q

उदाहरण के लिए, यदि एक विक्रेता वस्तु की एक इकाई ₹10 में बेचता है और यदि वह कुल 100 इकाइयां बेचता है तब इस स्थिति में,

कुल आय = वस्तु की कीमत x बिक्री इकाइयां

= 10 × 100 = 1000 रुपये

सीमांत आय (Marginal Revenue)-

किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई की बिक्री से कुल आय में जो वृद्धि होती है उसे सीमांत आय कहतें हैं।

MR = TRn -TRn-1

`MR=\frac{\Delta TR}{\Delta Q}`

जहाँ, ΔTR = कुल आगम में परिवर्तन

ΔQ = बेची गयी मात्रा में परिवर्तन

औसत आय (Average Revenue)-

उत्पादन की प्रति इकाई बिक्री से प्राप्त होने वाले आय को औसत आय कहते हैं।

औसत आगम = कुल आगम / वस्तु की बेची गयी मात्रा

`AR=\frac{TR}Q`

AR = P x Q

AR = P

पूर्ण प्रतियोगिता में सम्प्राप्ति (आय) वक्र- पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म कीमत स्वीकारक होती है। यह बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर सकती। फर्म प्रचलित कीमत पर कितनी भी मात्रा बेच सकती है। यदि फर्म प्रचलित कीमत से अधिक कीमत पर अपना उत्पाद बेचने का प्रयास करती तो वह अपने सभी ग्राहक खो बैठेगी क्योंकि बाजार में प्रचलित कीमत पर समान उत्पाद को बेचने वाली अन्य फर्में भी हैं। फर्म को प्रचलित कीमत स्वीकार करनी पड़ती है, इसका अर्थ है कि एक फर्म के लिए औसत सम्प्राप्ति (कीमत) स्थिर होती है।

AR = MR

बिक्री की मात्रा (Q)

औसत आय (कीमत) AR

कुल आय (TR)

(TR = AR x Q)

सीमांत आय

( MR =TRn -TRn-1 )

1

10

10

10

2

10

20

10

3

10

30

10

4

10

40

10

तालिका से स्पष्ट है कि वस्तु की कीमत 10 प्रति इकाई है, जो स्थिर है इस कारण पूर्ण प्रतियोगिता में AR = MR होता है।

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उपर्युक्त चित्र में कीमत रेखा या आय वक्र के साथ जब फर्म प्रति इकाई कीमत OP पर OQ इकाइयां उत्पादित करती है।

कुल आय वक्र एवं कीमत वक्र में संबंध -

पूर्ण प्रतियोगिता में प्रत्येक फर्म कीमत स्वीकार करने वाली होती है तथा वस्तु का एक ही कीमत होता है, अतः उत्पादन में संबंध स्थापित करना आसान है इसके लिए कुल बिक्री की मात्रा से कीमत को गुणा करना होता है। एक फर्म की कुल सम्प्राप्ति (आय) वक्र दर्शाती है।

1. जब उत्पादन शून्य हो तो फर्म की कुल आय भी शून्य होती है अतः कुल आय वक्र बिंदु O से गुजरती है।

2. जैसे-जैसे उत्पादन बढ़ता है कुल आय में वृद्धि होती है। वैसे भी समीकरण

कुल आय = कीमत x बिक्री की इकाइयाँ

इससे अभिप्राय है कि कुल आय वक्र ऊपर की ओर जाती हुई सीधी रेखा है।

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3. सीधी रेखा के प्रवणता (ढाल) पर ध्यान दें, जब उत्पादन एक इकाई है चित्र के अनुसार Ов तब कुल आय AB है। सीधी रेखा की प्रवणता (ढाल)

`\frac{AB}{OB}`

इस चित्र में OY रेखा में मूल्य तथा OX रेखा पर उत्पादन, को दिखलाया गया है। पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म का मूल्य समान होता है। उत्पादक वस्तु की कोई भी मात्रा बेच सकता है। मूल्य रेखा को मांग रेखा भी कहते है।

लाभ अधिक्तमिकरण -

उत्पादक के संतुलन से अभिप्राय लाभ अधिक्तमिकरण की स्थिति से है एक उत्पादक उत्पादन के उस स्तर पर अपना संतुलन प्राप्त करता है जहां लाभ अधिकतम होता है।

लाभ = कुल आय कुल

π = TR – TC

उत्पादक का संतुलन तब होता है जब दो शर्तें पूरी होती है-

1. सीमांत आय (MR) सीमांत लागत (MC) के बराबर होनी चाहिए

2. MC रेखा MR रेखा को नीचे से काटे अथवा MC बढ़ रही हो।

तालिका में उत्पादक के संतुलन को समझाया गया है -

उत्पादन की इकाइयाँ

सीमांत आय (MR)

सीमांत लागत (MC)

1

10

12

2

10

10

3

10

7

4

10

6

5

10

5

6

10

7

7

10

10

8

10

12

तालिका में मान लिया गया है कि मूल्य (AR) स्थिर है जिससे MR भी 10 पर स्थिर है।

तालिका से स्पष्ट है कि उत्पादक दो स्थितयों में संतुलन में है जब 2 इकाई का उत्पादन हो रहा है पर MC गिर रहा है और दूसरा जब 7वीं इकाई का उत्पादन होता है तब MC बढ़ रही है।

जब 2री इकाई का उत्पादन करता है उस समय TR = 10 + 10 = 20

TC = 12 + 10 = 22

लाभ = कुल आय - कुल लागत

= 20 - 22 = -2

जब 7वीं इकाई का उत्पादन होता है उस समय

TR = 10+10+10+10+10+10+10= 70

TC = 12+10+7+6+5+7+10= 57

लाभ = कुल आय - कुल लागत

= 70 - 57 = 13

जब उत्पाद में 2 इकाइयों से 7वीं इकाइयों की वृद्धि होती है तो कुल आय (TR) तथा कुल लागत (TC) में अंतर बढ़ता है और जब उत्पाद 7वीं इकाई में होता है तो लाभ अधिकतम होता है।

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सीमांत लागत वक्र (MC) MR रेखा को दो बिंन्दुओं A और B पर काटता है। दोनों बिन्दुओं पर सीमांत आय (MR) और सीमांत लागत (MC) आपस में बराबर है। बिंदु A पर उत्पादन OC है। यदि उत्पादक इसी बिंदु पर संतुलन प्राप्त करता है तो वह उत्पादन विधि से प्राप्त होने वाले अतिरिक्त लाभ से वंचित रहेगा उत्पादन स्तर OC तथा OD के मध्य सीमांत लागत सीमांत आय से कम है जो उत्पादक फर्म के लिए लाभ की दशा है उत्पादन स्तर OD पर सीमांत आय तथा सीमांत लागत आपस में बराबर हैं यदि इस उत्पादन स्तर के बाद उत्पादक उत्पादन में वृद्धि करता है तो वह हानि उठाएगा क्योंकि बिंदु B के बाद सीमांत लागत सीमांत आय से अधिक है इस प्रकार बिंदु B ही उत्पादक का अंतिम संतुलन बिंदु होगा।

अल्पकाल में फर्म का संतुलन -

अल्पकाल में फर्म के संतुलन की स्थिति का अर्थ है कि फर्म को अधिकतम मुनाफा प्राप्त हो रहा है। अल्पकाल में यह तब होता है जब MC तथा MR एक दूसरे के बराबर होते हैं। यदि MR, MC से अधिक है तो उत्पादक को अधिक मुनाफा प्राप्त होगा जिससे वह उत्पादन में वृद्धि करेगा। लेकिन यदि उत्पादन में वृद्धि से मूल्य में कमी होगी।

प्र० 1. एक पूर्ण प्रतिस्पर्धी बाजार की क्या विशेषताएँ हैं?

उत्तर : एक पूर्ण प्रतिस्पर्धी बाजार की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. क्रेताओं और विक्रेताओं की बहुत बड़ी संख्या क्रेताओं की संख्या इतनी अधिक होती है कि किसी वस्तु की बाजार माँग को कोई एक व्यक्ति क्रेता प्रभावित नहीं कर सकता। इसी तरह, विक्रेताओं की संख्या भी इतनी अधिक होती है कि एक व्यक्ति विक्रेता बाजार पूर्ति को प्रभावित नहीं कर सकता।

2. एक समान या समरूप वस्तु-पूर्णस्पर्धी बाजार में प्रत्येक फर्म समरूप वस्तु बेचती है। वस्तु इतनी समरूप होती है कि कोई क्रेता दो भिन्न विक्रेताओं की वस्तु में भेद नहीं कर सकता। ऐसे में वह किसी व्यक्तिगत विक्रेता की वस्तु के लिए अपनी प्राथमिकता को व्यक्त करने में सक्षम नहीं होता। ऐसे में विभिन्न फर्मों की वस्तुएँ एक दूसरे की पूर्ण प्रतिस्थापक बन जाती हैं।

बहुत संख्या में क्रेताओं तथा विक्रेताओं की उपस्थिति तथा वस्तु के रूबरू होने का निहितार्थ-

(i) कोई भी व्यक्तिगत क्रेता अपनी माँग को परिवर्तित करके वस्तु की बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर सकता। इसी प्रकार कोई भी व्यक्ति विक्रेता अपनी पूर्ति को प्रभावित करके वस्तु की बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर सकता। अतः किसी भी व्यक्तिगत क्रेता या व्यक्तिगत विक्रेता को बाजार कीमत स्वीकार करनी पड़ती है। ऐसे में एक व्यक्तिगत क्रेता या विक्रेता के लिए कीमत स्थिर हो जाती है।

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चित्र में बाजार माँग तथा बाजार पूर्ति (Ms) एक दूसरे को बिन्दु E पर काटता है। तदनुसार बाजार कीमत = OP पर निर्धारित हो जाती है। इस कीमत पर एक व्यक्तिगत विक्रेता जितनी मात्रा चाहे बेच सकता है।

(ii) जब वस्तु समरूप होती है तब फर्म का कीमत पर आंशिक नियंत्रण भी नहीं होता। किसी भी फर्म के उत्पाद के पूर्ण प्रतिस्थापक बाजार में उपलब्ध होते हैं। ऐसी स्थिति में बिक्री लागत' करना अर्थहीन हो जाता है। अतः पूर्णस्पर्धी बाजार में बिक्री लागते' खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती।

(iii) पूर्ण ज्ञान-क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार में प्रचलित कीमत की पूर्ण जानकारी होती है। वे ये भी जानते हैं कि समरूप वस्तु बेची जा रही है। ऐसे में क्रेता बाजार कीमत से अधिक कीमत देने को तैयार नहीं होंगे तथा विक्रेता को बिक्री लागतें खर्च करने की आवश्यकता नहीं है।

(iv) निर्बाध प्रवेश तथा बर्हिगमन-कोई भी फर्म उद्योग में प्रवेश करने तथा छोड़ने के लिए स्वतन्त्र होती है। किसी भी फर्म के प्रवेश करने या छोड़ने पर किसी प्रकार के कानूनी, सरकारी या कृतिम रुकावट नहीं होती। अधिक लाभ से प्रभावित होकर नई फर्मे बाजार में प्रवेश कर सकती हैं और यदि किसी फर्म को हानि हो रही है तो वह बाजार छोड़ सकती हैं अतः सभी फर्मे केवल सामान्य लाभ कमा पाती हैं। निहितार्थ इसका अर्थ है कि अल्पकाल में कोई भी फर्म तीन स्थितियों में हो सकती हैं। (i) सामान्य लाभ (ii) असामान्य लाभ (iii) हानि परन्तु दीर्घकाल में कोई भी फर्म सामान्य लाभ से अधिक लाभ नहीं कमा सकती।

(v) पूर्ण गतिशीलता- पूर्णस्पर्धी बाजार में वस्तुएँ और उत्पादन के साधन बिना रोक टोक एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकता है। कोई भी उत्पादन के साधन स्वतन्त्र रूप से एक फर्म से दूसरी फर्म में स्थानान्तरित हो सकता है।

(vi) परिवहन लागत का अभाव पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में यह मान लिया जाता है कि उपभोक्ता किसी भी फर्म से वस्तु खरीदे उसे परिवहन लागत खर्च नहीं करनी पड़ेगी।

(vii) स्वतन्त्र निर्णय लेना-विभिन्न फर्मों के बीच उत्पादित की जाने वाली मात्रा के या ली जाने वाली कीमत के संदर्भ में कोई समझौता नहीं होता। इस बाजार में अन्य किसी बाजार की तुलना में अधिकतम उत्पादन तथा न्यूनतम कीमत होती है।

प्र० 2. एक फर्म की संप्राप्ति, बाजार कीमत तथा उसके द्वारा बेची गई मात्रा में क्या संबंध है?

उत्तर : कुल संप्राप्ति = कीमत x बेची गई मात्र

TR = P x Q

प्र० 3. कीमत रेखा क्या है?

उत्तर : कीमत रेखा एक समतल सरल रेखा होता है, जो एक पूर्ण प्रतिस्पर्धी बाजार में ली जाने वाली बाजार कीमत को दर्शाती है। यह समतल सीधी रेखा इसीलिए है क्योंकि फर्म, उद्योग द्वारा निर्धारित बाजार कीमत को स्वीकार करती हैं बाजार द्वारा निर्धारित कीमत पर एक फर्म जितनी चाहे उतनी मात्रा बेच सकती हैं ऐसे में AR वक्र X अक्ष के समान्तर रेखा होता है और AR वक्र को कीमत रेखा कहते हैं।

प्र० 4. एक कीमत-स्वीकारक फर्म का कुल संप्राप्ति वक्र, ऊपर की ओर प्रवणता वाली सीधी रेखा क्यों होती है? यह वक्र उद्गम से होकर क्यों गुजरता है? 

उत्तर : कुल संप्राप्ति वक्र की प्रवणता सीमान्त संप्राप्ति द्वारा निर्धारित होती है। एक कीमत स्वीकारक फर्म में बहुत बड़ी संख्या में क्रेता और विक्रेता होने के कारण तथा वस्तु समरूप होने के कारण वस्तु की कीमत बाजार माँग और बाजार पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। ऐसे में AR वक्र X अक्ष के समान्तर रेखा हो जाता है। AR स्थिर होने से MR भी स्थिर हो जाता है तथा उत्पादन के प्रत्येक स्तर पर AR = MR होता है। अतः TR वक्र ऊपर की ओर प्रवणता वाला सीधी रेखा होता है। यह एक उद्गम से होकर गुजरता है, क्योंकि बिक्री की मात्रा शून्य होने पर कुल संप्राप्ति भी शून्य होता है।

प्र० 5. एक कीमत- स्वीकारक फर्म का बाजार कीमत तथा औसत संप्राप्ति में क्या संबंध है?

उत्तर : कुल संप्राप्ति = बाजार कीमत x बेची गई मात्रा

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अतः औसत संप्राप्ति बाजार कीमत ।

प्र० 6. एक कीमत- स्वीकारक फर्म की बाजार कीमत तथा सीमान्त संप्राप्ति में क्या संबंध है?

उत्तर : एक कीमत- स्वीकारक फर्म की बाजार कीमत तथा सीमान्त संप्राप्ति बराबर होते हैं।

प्र० 7. एक पूर्ण प्रतिस्पर्धी बाजार में लाभ-अधिकतमीकरण फर्म की सकारात्मक उत्त्पादन करने की क्या शर्ते हैं?

उत्तर : एक उत्पादक संतुलन में होता है जब निम्नलिखित दो शर्ते एक साथ पूरी हों-

(i) MC = MR

(ii) MC वक्र MR वक्र को नीचे से करता हो

उत्पादन इकाइयाँ

सीमांत संप्राप्ति

सीमांत लागत

1

90

100

2

90

90

3

90

80

4

90

70

5

90

80

6

90

90

7

90

100

 

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उपरोक्त तालिका में MC = MR दो स्तरों पर हैं, इकाई 2 तथा इकाई 6 परंतु उत्पादक संतुलन में 6 ईकाइयों पर है, क्योंकि दूसरी इकाई के बाद MC कम हो रहा है जबकि उत्पादक संतुलन की दूसरी शर्त के अनुसार MC अगली इकाई पर बढ़ना चाहिए। ये दोनों शर्ते एक साथ 6 इकाई पर संतुष्ट हो रही हैं क्योंकि 6 इकाई पर

(i) MC = MR = 90

(ii) 7 इकाई पर MC = 100 जो 6 इकाई के MC = 9 से अधिक है। इसे सामने दिए चित्र में भी दर्शाया गया है। उत्पादक का MC = MR दो बिन्दु पर हैं। बिंदु A तथा बिन्दु B परंतु उत्पादक बिंदु B पर संतुलन मात्रा QE में है, क्योंकि इस बिंदु पर MC, MR को नीचे से करता है।

प्र० 8. क्या प्रतिस्पर्धी बाजार में लाभ अधिकतमीकरण फर्म जिसकी बाजार कीमत सीमान्त लागत के बराबर नहीं है, उसकी निर्गत का स्तर सकारात्मक हो सकता है। व्याख्या कीजिए।

उत्तर : हाँ, अल्पकाल में प्रतिस्पर्धी बाजार में लाभ अधिकतमीकरण फर्म जिसकी बाजार कीमत सीमान्त लागत के बराबर नहीं है, उसकी निर्गत का स्तर सकारात्मक हो सकता है। इसमें दो स्थितियाँ संभव हैं।

(i) जब बाजार कीमत सीमान्त लागत हो ऐसे में फर्म को असामान्य लाभ प्राप्त होते हैं। इसे नीचे दिए चित्र द्वारा दिखाया गया है। फर्म बिन्दु पर संतुलन में है जहाँ

(1) MR = MC है तथा (2) MC अगली इकाई पर बढ़ रहा है। प्रति इकाई है कीमत = OP है जबकि प्रति इकाई लागत = OC है। प्रति इकाई लाभ OP-OC = PC है। कुल लाभ = PC x OQ or PCEM के बराबर है।

(ii) जब बाजार कीमत < सीमान्त लागत हो। ऐसे में फर्म को हानि होगी हानि > कुल स्थिर लागत

अतः फर्म उत्पादन बंद कर देगी।

यदि बाजार कीमत < सीमान्त लागत है तो इसका अर्थ है औसत परिवर्ती लागत भी नहीं प्राप्त हो रही।

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प्र० 9. क्या एक प्रतिस्पर्धी बाजार में कोई लाभ अधिकतमीकरण फर्म सकारात्मक निर्गत स्तर पर उत्पादन कर सकती है, जब सीमान्त लागत घट रही हो। व्याख्या कीजिए।

उत्तर : नहीं एक लाभ अधिकतमीकरण फर्म संतुलन में तब होगी जब

(i) MR = MC

(ii) MC बढ़ रहा है।

प्र० 10. क्या अल्पकाल में प्रतिस्पर्धी बाजार में लाभ अधिकतमीकरण फर्म सकारात्मक स्तर पर उत्पादन कर सकती है, यदि बाजार कीमत न्यूनतम औसत परिवर्ती लागत से कम है। व्याख्या कीजिए।

उत्तर : नहीं, यदि बाजार कीमत न्यूनतम औसत परिवर्ती लागत से कम है तो फर्म सकारात्मक स्तर पर उत्पादन नहीं कर सकती, क्योंकि स्थिर लागत की प्राप्ति को दीर्घकाल पर स्थगित किया जा सकता है, परन्तु परिवर्ती लागत अल्पकाल में प्राप्त होनी चाहिए। इसीलिए जिस बिन्दु पर बाजार कीमत न्यूनतम औसत परिवर्ती लागत से कम है उस पर फर्म कोई उत्पादन नहीं करेगी। MC वक्र का वह भाग जो न्यूनतम औसत परिवर्ती लागत के ऊपर होता है वही फर्म का पूर्ति वक्र होता है।

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प्र० 11. क्या दीर्घकाल में स्पर्धी बाजार में लाभ अधिकतमीकरण फर्म सकारात्मक स्तर पर उत्पादन कर सकती है? यदि बाजार कीमत न्यूनतम औसत लागत से कम है, व्याख्या कीजिए।

उत्तर : यदि दीर्घकाल में स्पर्धी बाजार में लाभ अधिकतमीकरण में बाजार कीमत न्यूनतम औसत लागत से कम है तो फर्म उत्पादन बंद कर देगी। दीर्घकाल में सारी लागत परिवर्ती लागत होती है। अतः यदि औसत लागत तक भी एक उत्पादक को प्राप्त नहीं हो रही तो वह उत्पादन कदापि नहीं करेगा।

प्र० 12. अल्पकाल में एक फर्म का पूर्ति वक्र क्या होता है?

उत्तर : सीमान्त वक्र का वह हिस्सा जो न्यूनतम परिवर्ती लागत के ऊपर होता है अल्पकाल में फर्म का पूर्ति वक्र होता है।

प्र० 13. दीर्घकाल में एक फर्म का पूर्ति वक्र क्या होता है ?

उत्तर : दीर्घकाल में फर्म का AC वक्र ही फर्म का पूर्ति वक्र होता है।

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प्र० 14. प्रौद्योगिकीय प्रगति एक फर्म के पूर्ति वक्र को किस प्रकार प्रभावित करती है?

उत्तर : प्रौद्योगिकीय प्रगति एक फर्म की पूर्ति में वृद्धि करती है और उसे दाईं ओर खिसका देती है। प्रौद्योगिकीय प्रगति से समान साधनों से अधिक उत्पादन किया जा सकता है।

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प्र० 15. इकाई कर लगाने से एक फर्म के पूर्ति वक्र को किस प्रकार प्रभावित करता है?

उत्तर : जब किसी वस्तु पर इकाई कर लगता है तो अल्पकाल में पूर्ति वक्र बाईं ओर खिसक जाता है, क्योंकि अल्पकाल काल का पूर्ति वक्र MC का न्यूनतम AVC वक्र के ऊपर का हिस्सा होता है। कर लगने पर MC तथा AVC वक्र बाँई ओर खिसकेंगे, अतः पूर्ति वक्र बाईं ओर खिसकेगा।

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प्र० 16. निम्न तालिका में एक प्रतिस्पर्धी फर्म की कुल संप्राप्ति तथा कुल लागत सारणियों को दर्शाया गया है। प्रत्येक उत्पादन स्तर के लाभ की गणना कीजिए। वस्तु की बाजार कीमत भी निर्धारित कीजिए।

बेची गई मात्रा

कुल संप्राप्ति (₹)

कुल लागत (₹)

लाभ (TR-TC)

0

0

5

 

1

5

7

 

2

10

10

 

3

15

12

 

4

20

15

 

5

25

23

 

6

30

33

 

7

35

40

 

उत्तर :

बेची गई मात्रा

कुल संप्राप्ति (₹)

कुल लागत (₹)

लाभ (TR-TC)

0

0

5

-5

1

5

7

-2

2

10

10

0

3

15

12

3

4

20

15

5

5

25

23

2

6

30

33

-3

7

35

40

-5

अतः लाभ 4 इकाई पर अधिकतम है। इस उत्पादन स्तर पर कीमत 20/4 = 5 होगी।

प्र० 17. निम्न तालिका में एक प्रतिस्पर्धी फर्म की कुल लागत सारणी को दर्शाया गया है। वस्तु की कीमत ₹10 दी हुई है। प्रत्येक उत्पादन स्तर पर लाभ की गणना कीजिए। लाभ-अधिकतमीकरण निर्गत स्तर ज्ञात कीजिए।

उत्पादन

कुल लागत (इकाई) ()

0

5

1

15

2

22

3

27

4

31

5

38

6

49

7

63

8

81

9

101

10

123

उत्तर :

मात्रा

कुल लागत(₹)

कुल संप्राप्ति

सीमांत लागत

सीमांत संप्राप्त

लाभ (TR-TC)

0

5

0

-

10

5

1

15

10

10

10

5

2

22

20

7

10

8

3

27

30

5

10

3

4

31

40

4

10

9

5

38

50

7

10

12

6

49

60

11

10

11

7

63

70

14

10

7

8

81

80

18

10

-1

9

101

30

20

10

-11

10

123

100

22

10

-23

π = TR – TC

लाभ 5 इकाइयों पर अधिकतम है अतः उत्पादक 5 इकाइयों पर उत्पादन करेगा।

प्र० 18. दो फर्मों वाले एक बाजार को लीजिए। निम्न तालिका दोनों फर्मों के पूर्ति सारणियों को दर्शाती है-SS1 कॉलम में फर्म 1 की पूर्ति सारणी, कॉलम SS2 में फर्म 2 की पूर्ति सारणी है। बाजार पूर्ति सारणी का परिकलन कीजिए।

कीमत

SS1 इकाइयाँ

SS2 इकाइयाँ

0

0

0

1

0

0

2

0

0

3

1

1

4

2

2

5

3

3

6

4

4

उत्तर :

कीमत

SS1 इकाइयाँ

SS2 इकाइयाँ

बाजार पूर्ति

0

0

0

0 (0+0)

1

0

0

0 (0+0)

2

0

0

0 (0+0)

3

1

1

2 (1+1)

4

2

2

4 (2+2)

5

3

3

6 (3+3)

6

4

4

8 (4+4)

प्र० 19. एक दो फर्मों वाले बाजार को लीजिए। निम्न तालिका में कॉलम SS1 तथा कालम SS2 क्रमशः फर्म-1 तथा फर्म-2 के पूर्ति सारणियों को दर्शाते हैं। बाजार पूर्ति सारणी का परिकलन कीजिए।

कीमत

SS1(किलो)

SS2(किलो)

0

0

0

1

0

0

2

0

0

3

1

0

4

2

0.5

5

3

1

6

4

1.5

7

5

2

8

6

2.5

उत्तर :

कीमत

SS1(किलो)

SS2(किलो)

बाजार पूर्ति

0

0

0

0

1

0

0

0

2

0

0

0

3

1

0

1

4

2

0.5

2.5

5

3

1

4

6

4

1.5

5.5

7

5

2

7

8

6

2.5

8.5

प्र० 20. एक बाजार में 3 समरूपी फर्म हैं। निम्न तालिका फर्म 1 की पूर्ति सारणी दर्शाती है। बाजार पूर्ति सारणी को परिकलन कीजिए।

कीमत

SS1(इकाई)

0

0

1

0

2

2

3

4

4

6

5

8

6

10

7

12

8

14

उत्तर : क्योंकि तीनों फर्म समरूपी हैं बाजार पूर्ति SS1 को 3 से गुणा करके ज्ञात की जा सकती है।

कीमत

SS1(इकाई)

बाजार पूर्ति

0

0

0

1

0

0

2

2

6

3

4

12

4

6

18

5

8

24

6

10

30

7

12

36

8

14

42

प्र० 21. ₹10 प्रति इकाई बाजार कीमत पर एक फर्म की संप्राप्ति ₹50 है। बाजार कीमत बढ़कर ₹15 हो जाती है और अब फर्म को ₹150 की संप्राप्ति होती है। पूर्ति वक्र की कीमत लोच क्या है?

उत्तर : संप्राप्ति = कीमत x मात्रा

अतः मात्रा = संप्राप्ति / कीमत

`E_{SP}=\frac PQ\times\frac{\Delta Q}{\Delta P}`

`E_{SP}=\frac{10}5\times\frac{5}5=2`

`E_{SP}>1`

कीमत(₹)

SS1(इकाई)

बाजार पूर्ति

10

50

5

15

150

10

प्र० 22. एक वस्तु की बाजार कीमत ₹5 से बदलकर ₹20 हो जाती है। फलस्वरूप फर्म पूर्ति की मात्रा 15 इकाई बढ़ जाती है। फर्म के पूर्ति वक्र की कीमत लोच 0.5 है। फर्म का आरंभिक तथा अंतिम निर्गत स्तर ज्ञात करें।

उत्तर : `E_{SP}=\frac PQ\times\frac{\Delta Q}{\Delta P}`

ESP = 0.5, P = 5, ΔP = 15, ΔQ = 15, Q = ?

सूत्र में डालने पर  `0.5=\frac5Q\times\frac{15}{15}=2`

प्रारंभिक निर्गत स्तर `Q=\frac5{0.5}`, Q = 10 इकाई

अंतिम निगत स्तर = Q + ΔQ = 10 + 15 = 25 इकाई

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