भारतीय मुद्रा बाजार (Indian Money Market)
प्रश्न - मुद्रा बाजार क्या है? भारतीय मुद्रा बाजार के
विभिन्न अंगो का वर्णन करे ? भारतीय मुद्रा बाजार की प्रमुख विशेषताओ तथा इसके
दोषों का उल्लेख करे?
उत्तर - मुद्रा अथवा साख का लेन-देन दो प्रकार का होता है-
अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन। जिस बाजार में मुद्रा तथा साख का लेन-देन अल्पकाल के
लिए होता है उसे मुद्रा बाजार कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, मुद्रा बाजार से
तात्पर्य ऐसे स्थान से होता है जहाँ पर अल्पकाल के लिए मुद्रा का उधार लेन-देन
ब्याज के बदले होता है।
मुद्रा-बाजार की परिभाषा विभिन्न विद्वानों ने दी है।
क्राउथर (Crwother) के शब्दों में- "उन फर्मों अथवा संस्थाओं को सामूहिक रूप
से मुद्रा बाजार कहा जाता है जो भिन्न-भिन्न प्रकार के मुद्रा तुल्य पत्रों का
व्यापार करती हैं।"
सेयर्स (Sayers) के अनुसार तो- "मुद्रा बाजार वस्तुतः
अल्पकालीन ऋणों का बाजार होता है।)
डॉ. एस. एन. सेन ने कहा- "मुद्रा बाजार का तात्पर्य उस
व्यवस्था से है जिसमें व्यावसायिक विनिमय बिलों, अल्पकालीन सरकारी, प्रतिभूतियों
और बैंकर्स स्वीकृतियों आदि के आधार पर अल्पकालीन ऋण के लेन-देन का कार्य होता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि मुद्रा बाजार में
अल्पकाल के लिए मुद्रा अथवा साख का क्रय-विक्रय होता है। मुद्रा बाजार के दो पक्ष
होते हैं- उधार देने वाला पक्ष तथा उधार लेने वाला पक्ष। मुद्रा उधार देने वाले
पक्ष को ऋणदाता तथा उधार लेने वाले पक्ष को कर्जदार (debtor) कहते हैं।
भारतीय मुद्रा बाजार की अंगीभूत संस्थाएँ अथवा अंग
मुद्रा बाजार के दो अंग होते हैं:-
(A) ऋणी वर्ग
(B) ऋणदाता वर्ग
(A) ऋणी वर्ग : भारतीय मुद्रा बाजार में ऋण लेनेवालों के अन्तर्गत निम्नलिखित संस्थाएँ
शामिल हैं:-
1. केन्द्रीय सरकार
2. राज्य तथा स्थानीय सरकार
3. अर्द्धसरकारी संस्थाएँ
4. उद्योगपति एवं व्यापारी
5. कृषक
(B) ऋणदाता वर्ग इसे तीन वर्गों में रखा गया है
- संगठित क्षेत्र (Organised sector)
- सहकारी क्षेत्र (Co-operative sector)
- असंगठित क्षेत्र (Unorganised sector)
संगठित क्षेत्र: भारतीय मुद्रा बाजार में संगठित क्षेत्रों के अन्तर्गत कई प्रकार की संस्थाएँ
आती हैं। यथा -
1. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया
2. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया
3. भारत के राष्ट्रीयकृत बैंक
4. संयुक्त पूँजी बैंक
5. विदेशी विनिमय बैंक
6. औद्योगिक बैंक
7. जीवन बीमा निगम एवं अन्य बीमा कम्पनियाँ
8. यूनिट ट्रस्ट ऑफ इण्डिया, आदि।
1. रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया (Reserve Bank of India): RBI भारत का केन्द्रीय बैंक है। यह
भारतीय मुद्रा बाजार का एक प्रमुख अंग है। इसकी स्थापना 1935 ई. में हुई। इसके मुख्य
कार्य निम्नलिखित है:-
i पत्र मुद्रा जारी
करना RBI को पत्र-मुद्रा जारी करने का एकाधिकार है। यह 2, 5, 10, 20, 50, 100 रुपये
के नोटों को जारी करता है।
ⅱ यह सरकार का बैंकर है, एजेण्ट है, सलाहकार है।
iii. व्यावसायिक बैंकों के नकद कोषों का संरक्षक है।
iv. देश के विभिन्न कोषों का संरक्षक है।
v. व्यापारिक विनिमय पत्रों की पुनर्कटौती का बैंक है।
vi. अन्तिम ऋणदाता है।
vii. मुद्रा बाजार पर नियंत्रण रखने के लिए यह साख नियंत्रण
के कई तरीकों को प्रयोग में लाता है, जैसे
बैंक दर की नीति
खुले बाजार की क्रियाएँ
कोषानुपात में परिवर्तन
विभिन्न प्रकार की गुणात्मक रीतियाँ
viii. देश की मौद्रिक नीति को कार्यान्वित करता है।
2. स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया (State Bank of India) यह भारत का सबसे बड़ा, व्यापारिक बैंक
है। इसकी स्थापना 1955 ई. में हुई। यह व्यावसायिक बैंकों के समस्त कार्यों को तो करता
ही है साथ ही साथ जहाँ RBI के कार्यालय नहीं होते वहाँ RBI के एजेण्ट के रूप में केन्द्रीय
बैंक सम्बन्धी अनेक कार्यों को करता है।
3. संयुक्त पूँजी बैंक (Joint Stock Bank): जो बैंक व्यापारिक बैंक का कार्य करते
हैं तथा जिनकी स्थापना भारतीय बैंकिंग कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत हुई है तथा जिनके
सदस्यों के दायित्व सीमित होते हैं उन्हें संयुक्त पूँजी बैंक कहा नाता) है। यह भारतीय
मुद्रा बाजार का एक प्रमुख अंग है। इसका प्रमुख कार्य
- जनता
की बचत को जमा के रूप में स्वीकार करना
- व्यापारियों
को अल्पकाल के लिए कर्ज देना
- साख का
निर्माण करना
4. राष्ट्रीयकृत व्यावसायिक बैंक (Nationalised Commercial Banks) भारत में 1969 ई. को सरकार
ने राष्ट्रीयकरण कर लिया। वे बैंक निम्नलिखित है
1. पंजाब नेशनल बैंक
2. सेण्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया
3. बैंक ऑफ इण्डिया
4. बैंक ऑफ बरोदा
5. यूनाइटेड कॉमर्शियल बैंक
6. यूनाइटेड बैंक ऑफ इण्डिया
7. इलाहाबाद बैंक
8. सिडीकेट बैंक
9. यूनियन बैंक ऑफ इण्डिया
10. केनारा बैंक
11. देना बैंक
12 इंण्डियन बैंक
13. इण्डियन ओवरसीज बैंक
14 बैंक ऑफ महाराष्ट्र
पुन. 15 अप्रैल 1980 ई. को सरकार ने अन्य 6 बैंकों को अपने अधिकार
में ले लिया वे निम्नलिखित हैं
1 आंध्र बैंक
2 पंजाब एण्ड सिंध बैंक
3 विजया बैंक
4. कारपोरेशन बैंक
5. ओरियण्ट बैंक ऑफ कॉमर्स
6. न्यू बैंक ऑफ इण्डिया।
वर्तमान समय में 28 राष्ट्रीयकृत बैंक हैं जिनमें State
Bank of India तथा इनके 7 सहायक बैंक भी शामिल हैं। ये सभी बैंक भारतीय मुद्रा बाजार
के प्रभावी अग है।
5. विदेशी विनिमय बैंक (Foreign Exchange Banks): विदेशी विनिमय बैंक विदेशी विनिमय का व्यवसाय तथा विदेशी
व्यापार का अर्थ-प्रबंधन करते है है। इस इस प्रकार के बैंक देशी व्यापार के लिए अर्थ-प्रबंधन
करते हैं। लेकिन इस प्रकार के अधिकांश बैंकों पर विदेशियों का प्रभूत्व है।
6. औद्योगिक बैंक (Industrial Bank): इस प्रकार के बैंकों
का कार्य उद्यागों के दीर्घकालीन ऋण-प्रदान करना है। भारत में सर्वप्रथम 1964 ई. में
भारतीय औद्योगिक विकास बैंक की स्थापना की गयी। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य संस्थाएँ भी
हैं जो औद्योगिक वित्त सम्बन्धी कार्य करती हैं। जैसे
- औद्योगिक वित्त निगम
- राज्य वित्त निगम
- राष्ट्रीय औद्योगिक विकास निगम, इत्यादि।
7. जीवन बीमा निगम एवं अन्य बीमा कम्पनियाँ
तथा यूनिट ट्रस्ट ऑफ इण्डिया भी भारतीय मुद्रा बाजार में संगठित क्षेत्र के अन्तर्गत
आते हैं।
सहकारी क्षेत्र : सहकारी क्षेत्र में कई प्रकार के
बैंकों की स्थापना की गयी है। जो संस्थाएँ सहकारिता के आधार पर स्थापित किये जाते हैं
और संचालित किये जाते है और जो बैंकिंग का कारोबार करती हैं उन्हें सहकारी बैंक कहा
जाता है। भारत में ऐसे कई बैंक हैं:-
- प्राथमिक सहकारी साख समितियाँ
- केन्द्रीय सहकारी बैंक
- राज्य सहकारी बैंक
- सहकारी भूमि बंधक बैंक
- अर्द्ध सहकारी भूमि बंधक बैंक आदि
असंगठित क्षेत्र :
इसके अन्तर्गत देशी बैंकर तथा महाजन
आते हैं। देशी बैंकर तथा महाजन भी कई प्रकार के होते हैं। इनके लेन-देन का तरीका बहुत
ही भिन्न है। वे अलग-अलग व्यक्तियों को अलग-अलग ब्याज की दर पर ऋण देते हैं। इन पर
RBI का भी नियंत्रण नहीं हो पाता है। स्वदेशी बैंकर का कार्य कोई धनी व्यक्ति, बैंकिंग
साझेदारी फर्म तथा व्यापारी बैंकर करते हैं। देश के भिन्न-भिन्न जगहों में इनके अलग-अलग
नाम हैं। बंगाल में इन्हें सेंठ तथा बनिया, उत्तर प्रदेश तथा पंजाब में साहूकार, महाजन
और खत्री, बम्बई तथी मारवाड़ में सर्राफ तथा मद्रास में चेट्टी कहा जाता है।
भारतीय मुद्रा बाजार की विशेषताएँ
भारतीय मुद्रा बाजार की निम्मलिखित मुख्य विशेषताएँ है:-
1. ढाँचा त्रिस्तरीय : भारतीय मुद्रा बाजार तीन
क्षेत्रों में बँटा हुआ है
1. संगठित क्षेत्र
2. असगंठित क्षेत्र
3. सहकारी क्षेत्र
2. संगठित मुद्रा बाजार में रिजर्व
बैंक ऑफ इण्डिया का विशेष महत्त्व : भारतीय मुद्रा बाजार के संगठित क्षेत्र में कई प्रकार की
संस्थाएँ आती हैं जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं
i. रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया
ii. सभी राष्ट्रीयकृत व्यावसायिक
बैंक
iii. विदेशी विनिमय बैंक
iv. औद्योगिक बैंक
v. संयुक्त पूँजी बैंक
vi. जीवन बीमा निगम,
vii. यूनिट ट्रस्ट ऑफ इण्डिया
viii. औद्योगिक वित्त निगम इत्यादि
।
इन सभी संस्थाओं में रिजर्व बैंक
ऑफ इण्डिया सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है।
3. असंगठित बाजार में साहूकारों
तथा देशी बैंकर का प्रभुत्व : असंगठित क्षेत्र में देशी बैंकर तथा महाजन आते हैं। देशी
बैंकर तथा महाजन भी कई प्रकार के होते हैं। इनके लेन-देन का तरीका बहुत ही भिन्न
है। वे अलग-अलग व्यक्तियों को अलग-अलग दर पर ऋण दिया करते हैं।
भारतीय मुद्रा बाजार के इस असंगठित
क्षेत्र पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं है। अतः देशी बैंकर लगभग पूर्ण स्वतंत्र
हैं। इस क्षेत्र के अन्तर्गत अल्पकालीन, मध्यकालीन तथा दीर्घकालीन ऋणों के बीच कोई
अन्तर नहीं किया जाता है तथा इसमें घ्याज की दरों में काफी भिन्नता रहती है।
4. देशी बैंकों तथा व्यापारिक बैंकों के बीच कड़ी के रूप में
सहकारी बैंक : सहकारी क्षेत्र
में कई प्रकार के बैंक हैं। उनका गठन सहकारिता के आधार पर होता है। भारत में इस प्रकार
के कई बैंक हैं -
- प्राथमिक
सहकारी साख समितियाँ
- केन्द्रीय
सहकारी बैंक
- राज्य
सहकारी बैंक
- सहकारी
भूमि बंधक बैंक
- अर्द्धसहकारी
भूमि बंधक बैंक
इस प्रकार के बैंक जनता को कृषि तथा लघु उद्योगों के लिए ऋण
प्रदान करते है।
5. संगठित बिल बाजार का अभाव : भारतीय मुद्रा बाजार की एक विशेषता यह भी है। संगठित बिल
बाजार का आशय उस बिल बाजार से होता है जिसमें आर्थिक लेन-देन सम्बन्धी रीति-नीतियों
में समन्वय तथा सहयोग होता है। भारत में अभी तक बिल बाजार का पूर्ण विकास संभव नहीं
हो सका है, यद्यपि विगत कुछ वर्षों से इस दिशा में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा प्रयत्न
किये जा रहे हैं।
6. अन्य विशेषताएँ :
- सदस्यों के बीच संगठन तथा सहयोग का अभाव
- ब्याज की दरों में भिन्नता
- विशिष्ठ संस्थाओं जैसे बट्टा-गृहों का अभाव
भारतीय मुद्रा बाजार की उपर्युक्त विशेषताओं से यह स्पष्ट हो
जाता है कि भारतीय मुद्रा बाजार अभी भी अविकसित है।
भारतीय मुद्रा बाजार के दोष या त्रुटियाँ (Defects of Indian money market):
भारतीय मुद्रा बाजार में कई दोष है।
वस्तुतः यह सभी वगों के व्यक्तियों एवं व्यवसायों की आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाता
है। अतः अभी भी अविकसित है। भारतीय मुद्रा बाजार की महत्त्वपूर्ण त्रुटियाँ निम्नलिखित
है-
1. देशी बैंकरों तथा महाजनों का बाहुल्य (Abundance of Indigenous Bankers
and Mahajans): भारतीय मुद्रा बाजार में देशी बैंकर तथा महाजनों का बाहुल्य रहा है।
देशी बैंकरों तथा महाजनों का महत्त्व ग्रामीण साख में बहुत ही अधिक है। गाँवों में
साहूकार तथा देशी बैंकर से व्यावसायिक बैंक प्रतियोगिता नहीं कर पाते हैं। इनके बाहुल्य
के कारण मुद्रा बाजार पर रिजर्व बैंक का नियंत्रण नहीं रह पाता है, क्योंकि वे न तो
रिजर्व बैंक के नियंत्रण में रहते हैं और न उन्हें बाजार-दर प्रभावित कर पाता है। वे
अपनी इच्छा के अनुसार सूद का दर निर्धारित करते हैं और सांख की मात्रा को घटाते-बढ़ाते
रहते हैं। देश की मौद्रिक नीति की सफलता में भी वे बहुत बड़े बाधक हैं। यदि मौद्रिक
नीति के तरह साख पर नियंत्रण रखना आवश्यक है तो रिजर्व बैंक साख नियंत्रण के विभिन्न
अस्त्रों का प्रयोग करता है। उन अस्खों के द्वारा व्यावसायिक बैंकों द्वारा साख सृजन
की मात्रा को कम कर पाते हैं, लेकिन देशी बैंक अर्थात् गाँव के साहुकार तथा महाजन पर
रिजर्व बैंक किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं रख पाता है।
2. सहयोग का अभाव (Lack of Co-operation): भारतीय मुद्रा
बाजार के संगठित अंग, जैसे, रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया, स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया तथा अन्य
राष्ट्रीयकृत बैंक, मिश्रित पूँजीवाले बैंक, औद्योगिक बैंक, विदेशी विनिमय बैंक, सहकारी
बैंक, भूमि बंधक बैंक आदि तथा असंगठित अंग जिसमें देशी बैंकर आते हैं, (जैसे साहुकार,
महाजन, सर्राफ आदि) के बीच सहयोग का अभाव रहता है। रिजर्व बैंक संगठित क्षेत्रों पर
तो मौद्रिक नीति के अनुकूल नियंत्रण रखता है परन्तु असंगठित क्षेत्रों पर रिजर्व बैंक
का नियंत्रण नहीं रहता है। फलतः मौद्रिक नीति पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाती है।
इसके अतिरिक्त संगठित अंग के विभिन्न
सदस्यों के बीच भी अनुचित प्रतियोगिता रहती है। स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया तथा अन्य व्यावसायिक
बैंक एक दूसरे को प्रतियोगी समझते हैं। अतः बैंकिंग व्यवस्था को हानि होती है।
3. राष्ट्रीय स्तर पर मुद्रा बाजार
का अभाव (Lack of an All-India Money Market): भारतीय मुद्रा बाजार छोटे-छोटे एवं स्थानीय
क्षेत्रों में बंटा हुआ है। इनके बीच पारस्परिक सहयोग भी नहीं देखा जाता है। भारत में
राष्ट्रीयस्तर पर मुद्रा बाजार नहीं है। बम्बई, कलकत्ता, मद्रास में मुद्रा बाजार है।
इनके बीच सम्पर्क का अभाव रहता है तथा वे स्थानीय मुद्रा बाजार से अपने को अलग रखते
हैं।
4. ब्याज दरों में विभिन्नता (Disparities in Interest-rates):
भारतीय मुद्रा बाजार संगठित नहीं है, इसलिये ब्याज की दरों में विभिन्नता रहती है।
संगठित क्षेत्र के अंग का ब्याज का दर अलग होता है। उनके बीच तो एकरूपता रहती भी है
क्योंकि रिजर्व बैंक का उन पर नियंत्रण रहता है। लेकिन साहूकार तथा गाँव के महाजन के
द्वारा लिया गया सूद का दर समय-समय पर बदलता रहता है। विभिन्न प्रकार के व्याज की दरों
के कारण 'बैंक दर' की नीति सफल नहीं हो पाती है।
5. मुद्रा बाजार की मौसमी प्रकृति (Seasonal character of the Money
Market): भारतीय मुद्रा बाजार की प्रकृति मौसमी है। प्रायः नवम्बर से अप्रैल-मई तक
व्यस्त काल रहता है। इसी अवधि में चावल तथा अन्य फसलों की कटाई होती है। थोक व्यापारी
इन्हें खरीदकर अपने गोदामों में रखते हैं। इस कार्य के लिए थोक व्यापारियों द्वारा
मुद्रा की माँग अधिक होने लगती लेकिन मुद्रा की पूर्ति तो नहीं बढ़ती है। अतः ब्याज
की दरें बढ़ जाती है। इसके विपरीत अप्रैल-मई के बाद मुद्रा की माँग कम होने लगती है
क्योंकि थोक व्यापारी अपना माल बेचना शुरू कर देते हैं और इनसे जो आय प्राप्त होती
है उसे बैंकों को लौटाना शुरू कर देते हैं। अतः अप्रैल-मई से लेकर नवम्बर तक मुद्रा
की माँग कम हो जाती है, जिसके फलस्वरूप ब्याज की दर भी कम हो जाती है।
6. पूंजी का अभाव (Lack of Capital): भारतीय मुद्रा
बाजार में पूँजी का अभाव है। पूँजी की कमी के कारण सभी वर्गों के व्यक्तियों की साख
की आवश्यकताओं की पूर्ति भारतीय मुद्रा बाजार नहीं कर पाती है। प्राय. नवम्बर से अप्रैल-मई
तक पूँजी की बहुत अधिक कमी रहती है, क्योंकि इस अवधि में मुद्रा की माँग अधिक रहती
है।
भारतीय मुद्रा बाजार में पूँजी की कमी
के कई प्रमुख कारण है
i. भारत में प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय बहुत कम है।
ii. भारत में गरीबी अधिक है।
iii. बचत कम है।
iv. बैंकिंग सुविधाओं का अभाव है, अतः ग्रामीण बचतों को एकत्र नहीं
कर पाता है।
v. बैंकों के फेल होते रहने के कारण बैंक पर विश्वास मजबूत नहीं
हो पाया है।
vi. धन को अभी भी अपने पास संचय रखने की प्रवृत्ति जनता में है।
बैंकिंग आदत का विकास नहीं हो पाता है। अत. भारतीय मुद्रा बाजार में पूँजी की कमी रहती
है।
7. बैंकिंग सुविधाओं की अपर्याप्तता (Inadequacy of Banking
Facilities) : भारत में लगभग 30,000 स्थानों पर बैंकों की शाखाएँ है। भारत की जनसंख्या को देखते हुए बैंकों की संख्या बहुत ही कम है। ग्रामीण क्षेत्रों
में तो बैंकों की बहुत अधिक कमी है। सहकारी बैंकों का प्रसार भी बहुत कम हुआ है। बैंकिंग
सुविधाओं को अपर्याप्तता के कारण देश की सम्पूर्ण बचत को एकत्र करने में कठिनाई होती
है। जिस देश में बैंकिंग विकास अधिक हो जाता है वहाँ साख तथा पूँजी की कमी का अनुभव
नहीं होता है, क्योंकि बैंक आवश्यकतानुसार अपने-अपने क्षेत्र में साख प्रसारित कर देते
हैं। भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद ग्रामीण तथा अर्द्धग्रामीण क्षेत्रों
में शाखाओं का विस्तार किया जा रहा है। अतः भविष्य में वैकिंग सुविधाओं के पर्याप्त
विकास की संभावनाएँ हैं।
8. विशिष्ट वित्तीय संस्थाओं का अभाव (Lack of Specialised Financial
Institution): भारतीय मुद्रा बाजार में वित्तीय संस्थाओं का अभाव है। इंगलैण्ड, अमेरिका
तथा अन्य देशों में विक्रय वित्त कम्पनियों, क्रय-विक्रय कम्पनियाँ, साख संव आदि संस्थाएँ
उपभोक्ताओं के लिए साख की व्यवस्था करती रहती हैं और इस प्रकार साख की आवश्यकता पूरी
होती है। व्यापारिक बैंक तथा औद्योगिक वित्त संस्थाएँ व्यापार तथा उद्योग की आवश्यकता
पर विशेष ध्यान देती हैं। इसी प्रकार 'स्वीकृति गृह (Accepting houses) व्यापारिक बिलों
की स्वीकृति कर बैंकों का कार्य हल्का करते है। बिलों की कटौती करने के लिए एक अलग
विशेष संस्था होती है जिसे कटौती गृह (Discount houses) कहते हैं। भारत में इस प्रकार
की विशेष वित्तीय संस्थाओं का अभाव है।
9. संगठित बिल बाजार का अभाव (Lack of Organised Bill Market):
बिल-बाजार से अभिप्राय एक ऐसे बाजार से है, जहाँ हुडियों तथा व्यापारिक बिलों का क्रय-विक्रय
होता है। दूसरे शब्दों में बिल बाजार में विलों और छुडियों के आधार पर ऋण दिया जाता
है तथा इनके क्रय-विक्रय एवं कटौती का कार्य सम्पन्न होता है। मुद्रा बाजार के विकास
के लिए एक संगठित विल बाजार की उपस्थिति अनिवार्य है। भारत में संगठित बिल बाजार का
अभाव है जिसके कारण भारत में बिलों का प्रचलन बहुत ही कम है। अतः मुद्रा बाजार में
वित्तीय साधनों को कमी हो जाती है।
भारतीय मुद्रा-बाजार के दोषों के दूर करने का सुझाव
(Suggestions for removing the defects of Indian money market):
भारतीय मुद्रा बाजार के दोषों को दूर
करने के लिए कई सुझाव दिये गये है। जैसे-
1. साहूकार पर नियंत्रण (Control on Money-lenders): भारतीय
मुद्रा बाजार के असंगठित क्षेत्र जिसमें देशी बैंकर तथा महाजन मुख्य हैं, उन पर नियंत्रण
रखना मुद्रा बाजार की प्रभावी बनाने के लिये आवश्यक है। इस समस्या के समाधान के लिए
गाँवों में बैंकों की शाखाओं का विस्तार करना चाहिये। साथ ही साथ पंचायतों द्वारा सहकारी
बैंकों के पक्ष में वातावरण तैयार करना चाहिये ताकि सहकारी बैंकों का विकास हो सके।
व्यावसायिक बैंकों की शाखाओं के विस्तार तथा सहकारी बैंकों के विकास के द्वारा ही साहूकार
तथा गाँव के महाजन पर नियंत्रण रखा जा सकता है।
2. विशेष संस्थाओं की स्थापना (Establishment of Specialised
Institutions) : भारतीय मुद्रा-बाजार के विकास के लिए अमेरिका तथा इंगलैण्ड की तरह भारत में भी विक्रय वित्त कम्पनियाँ, क्रय-विक्रय कम्पनियाँ,
साख संम, स्वीकृति गृह (Accepting houses) एवं कटौती गृह की स्थापना तथा विकास होना
चाहिये।
3. भंडारगृहों की स्थापना (Establishment of Warehouses): मुद्रा
बाजार के विकास के लिये भंडारगृहों की स्थापना आवश्यक है। भारत में इस प्रकार के भंडारगृहों
का अभाव है, जहाँ व्यापारी अपना माल रख कर रसीद के आधार पर बैंकों से ऋण ले सकें। अतः
सरकार अथवा गोदाम निगमों (केन्द्रीय भंडार निगम तथा राज्य भंडार निगम) के द्वारा अधिकाधिक
मालगोदामों की स्थापना की जानी चाहिये ताकि बैंक उनकी रसीद पर निःसंकोच ऋण दे सके।
4. समाशोधन गृहों की स्थापना (Establishment of Clearing
Houses): समाशोधन की सुविधाओं के बढ़ने के साथ चेकों के प्रयोग में वृद्धि होती है।
अतः देश के सभी कस्बों में जहा कम से कम पाँच बैंकिग कार्यालय हों, समाशोधन गृह स्थापित
किये जाने चाहिये।
5. हुण्डियों का प्रमाणीकरण (Standardization of Hundies): भारतीय
मुद्रा-बाजार में प्रयोग में आने वाले हुण्डियों में एकरूपता नहीं है। हुण्डियाँ प्रायः
क्षेत्रीय भाषाओं में लिखी जाती हैं। इनके लिखने के ढंग में भी अन्तर है। यही कारण
है कि हुण्डियों का प्रयोग राष्ट्रीय स्तर पर नहीं हो पाता है। अतः हुण्डियों में एकरूपता
लाना आवश्यक है।
6. बैंकिंग सेवाओं का विस्तार (Extension of Banking Services)
: देश की सम्पूर्ण बजट की संग्रह करने के लिए बैंकिंग सुविधाओं का विस्तार आवश्यक है।
अतः प्रत्येक गाँव तथा कस्बों में बैंकों की शाखाएँ खुलनी चाहिये।
उपर्युक्त उपायों के द्वारा भारतीय
मुद्रा बाजार के दोषों को दूर कर उन्हें विकसित किया जा सकता है।
मुद्रा और बैंकिंग
व्यापारिक बैंक, अर्थ एवं कार्य | Commercial Bank Meaning, Definition and Functions
व्यापारिक बैंकों की विनियोग नीति [INVESTMENT POLICY OF COMMERCIAL BANKS]
लंदन मुद्रा बाजार एवं न्यूयार्क बाजार से इसकी तुलना